01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
भव बन्धन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम।
खर्ब निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम॥58॥
मूल
भव बन्धन ते छूटहिं नर जपि जा कर नाम।
खर्ब निसाचर बाँधेउ नागपास सोइ राम॥58॥
भावार्थ
जिनका नाम जपकर मनुष्य संसार के बन्धन से छूट जाते हैं, उन्हीं राम को एक तुच्छ राक्षस ने नागपाश से बाँध लिया॥58॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाना भाँति मनहिं समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा॥
खेद खिन्न मन तर्क बढाई। भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई॥1॥
मूल
नाना भाँति मनहिं समुझावा। प्रगट न ग्यान हृदयँ भ्रम छावा॥
खेद खिन्न मन तर्क बढाई। भयउ मोहबस तुम्हरिहिं नाई॥1॥
भावार्थ
गरुडजी ने अनेकों प्रकार से अपने मन को समझाया। पर उन्हें ज्ञान नहीं हुआ, हृदय में भ्रम और भी अधिक छा गया। (सन्देहजनित) दुःख से दुःखी होकर, मन में कुतर्क बढाकर वे तुम्हारी ही भाँति मोहवश हो गए॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं॥
सुनि नारदहि लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम कै माया॥2॥
मूल
ब्याकुल गयउ देवरिषि पाहीं। कहेसि जो संसय निज मन माहीं॥
सुनि नारदहि लागि अति दाया। सुनु खग प्रबल राम कै माया॥2॥
भावार्थ
व्याकुल होकर वे देवर्षि नारदजी के पास गए और मन में जो सन्देह था, वह उनसे कहा। उसे सुनकर नारद को अत्यन्त दया आई। (उन्होन्ने कहा-) हे गरुड! सुनिए! श्री रामजी की माया बडी ही बलवती है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई। बरिआईं बिमोह मन करई॥
जेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहङ्गपति तोही॥3॥
मूल
जो ग्यानिन्ह कर चित अपहरई। बरिआईं बिमोह मन करई॥
जेहिं बहु बार नचावा मोही। सोइ ब्यापी बिहङ्गपति तोही॥3॥
भावार्थ
जो ज्ञानियों के चित्त को भी भली भाँति हरण कर लेती है और उनके मन में जबर्दस्ती बडा भारी मोह उत्पन्न कर देती है तथा जिसने मुझको भी बहुत बार नचाया है, हे पक्षीराज! वही माया आपको भी व्याप गई है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें॥
चतुरानन पहिं जाहु खगेसा। सोइ करेहु जेहि होई निदेसा॥4॥
मूल
महामोह उपजा उर तोरें। मिटिहि न बेगि कहें खग मोरें॥
चतुरानन पहिं जाहु खगेसा। सोइ करेहु जेहि होई निदेसा॥4॥
भावार्थ
हे गरुड! आपके हृदय में बडा भारी मोह उत्पन्न हो गया है। यह मेरे समझाने से तुरन्त नहीं मिटेगा। अतः हे पक्षीराज! आप ब्रह्माजी के पास जाइए और वहाँ जिस काम के लिए आदेश मिले, वही कीजिएगा॥4॥