057

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास।
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास॥57॥

मूल

तब कछु काल मराल तनु धरि तहँ कीन्ह निवास।
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउँ कैलास॥57॥

भावार्थ

तब मैन्ने हंस का शरीर धारण कर कुछ समय वहाँ निवास किया और श्री रघुनाथजी के गुणों को आदर सहित सुनकर फिर कैलास को लौट आया॥57॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा। मैं जेहि समय गयउँ खग पासा॥
अब सो कथा सुनहु जेहि हेतु। गयउ काग पहिं खग कुल केतू॥1॥

मूल

गिरिजा कहेउँ सो सब इतिहासा। मैं जेहि समय गयउँ खग पासा॥
अब सो कथा सुनहु जेहि हेतु। गयउ काग पहिं खग कुल केतू॥1॥

भावार्थ

हे गिरिजे! मैन्ने वह सब इतिहास कहा कि जिस समय मैं काकभुशुण्डि के पास गया था। अब वह कथा सुनो जिस कारण से पक्षी कुल के ध्वजा गरुडजी उस काग के पास गए थे॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीडा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीडा॥
इन्द्रजीत कर आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड पठायो॥2॥

मूल

जब रघुनाथ कीन्हि रन क्रीडा। समुझत चरित होति मोहि ब्रीडा॥
इन्द्रजीत कर आपु बँधायो। तब नारद मुनि गरुड पठायो॥2॥

भावार्थ

जब श्री रघुनाथजी ने ऐसी रणलीला की जिस लीला का स्मरण करने से मुझे लज्जा होती है- मेघनाद के हाथों अपने को बँधा लिया, तब नारद मुनि ने गरुड को भेजा॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्धन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचण्ड बिषादा॥
प्रभु बन्धन समुझत बहु भाँती। करत बिचार उरग आराती॥3॥

मूल

बन्धन काटि गयो उरगादा। उपजा हृदयँ प्रचण्ड बिषादा॥
प्रभु बन्धन समुझत बहु भाँती। करत बिचार उरग आराती॥3॥

भावार्थ

सर्पों के भक्षक गरुडजी बन्धन काटकर गए, तब उनके हृदय में बडा भारी विषाद उत्पन्न हुआ। प्रभु के बन्धन को स्मरण करके सर्पों के शत्रु गरुडजी बहुत प्रकार से विचार करने लगे-॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा॥
सो अवतार सुनेउँ जग माहीं। देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं॥4॥

मूल

ब्यापक ब्रह्म बिरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा॥
सो अवतार सुनेउँ जग माहीं। देखेउँ सो प्रभाव कछु नाहीं॥4॥

भावार्थ

जो व्यापक, विकाररहित, वाणी के पति और माया-मोह से परे ब्रह्म परमेश्वर हैं, मैन्ने सुना था कि जगत्‌ में उन्हीं का अवतार है। पर मैन्ने उस (अवतार) का प्रभाव कुछ भी नहीं देखा॥4॥