01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरङ्ग।
कूजत कल रव हंस गन गुञ्जत मञ्जुल भृङ्ग॥56॥
मूल
सीतल अमल मधुर जल जलज बिपुल बहुरङ्ग।
कूजत कल रव हंस गन गुञ्जत मञ्जुल भृङ्ग॥56॥
भावार्थ
उसका जल शीतल, निर्मल और मीठा है, उसमें रङ्ग-बिरङ्गे बहुत से कमल खिले हुए हैं, हंसगण मधुर स्वर से बोल रहे हैं और भौंरे सुन्दर गुञ्जार कर रहे हैं॥56॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पान्त न होई॥
माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका॥1॥
मूल
तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई। तासु नास कल्पान्त न होई॥
माया कृत गुन दोष अनेका। मोह मनोज आदि अबिबेका॥1॥
भावार्थ
उस सुन्दर पर्वत पर वही पक्षी (काकभुशुण्डि) बसता है। उसका नाश कल्प के अन्त में भी नहीं होता। मायारचित अनेकों गुण-दोष, मोह, काम आदि अविवेक,॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रहे ब्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं॥
तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा॥2॥
मूल
रहे ब्यापि समस्त जग माहीं। तेहि गिरि निकट कबहुँ नहिं जाहीं॥
तहँ बसि हरिहि भजइ जिमि कागा। सो सुनु उमा सहित अनुरागा॥2॥
भावार्थ
जो सारे जगत् में छा रहे हैं, उस पर्वत के पास भी कभी नहीं फटकते। वहाँ बसकर जिस प्रकार वह काग हरि को भजता है, हे उमा! उसे प्रेम सहित सुनो॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई॥
अँब छाँह कर मानस पूजा। तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा॥3॥
मूल
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई। जाप जग्य पाकरि तर करई॥
अँब छाँह कर मानस पूजा। तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा॥3॥
भावार्थ
वह पीपल के वृक्ष के नीछे ध्यान धरता है। पाकर के नीचे जपयज्ञ करता है। आम की छाया में मानसिक पूजा करता है। श्री हरि के भजन को छोडकर उसे दूसरा कोई काम नहीं है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बर तर कह हरि कथा प्रसङ्गा। आवहिं सुनहिं अनेक बिहङ्गा॥
राम चरित बिचित्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना॥4॥
मूल
बर तर कह हरि कथा प्रसङ्गा। आवहिं सुनहिं अनेक बिहङ्गा॥
राम चरित बिचित्र बिधि नाना। प्रेम सहित कर सादर गाना॥4॥
भावार्थ
बरगद के नीचे वह श्री हरि की कथाओं के प्रसङ्ग कहता है। वहाँ अनेकों पक्षी आते और कथा सुनते हैं। वह विचित्र रामचरित्र को अनेकों प्रकार से प्रेम सहित आदरपूर्वक गान करता है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनहिं सकल मति बिमल मराला। बसहिं निरन्तर जे तेहिं ताला॥
जब मैं जाइ सो कौतुक देखा। उर उपजा आनन्द बिसेषा॥5॥
मूल
सुनहिं सकल मति बिमल मराला। बसहिं निरन्तर जे तेहिं ताला॥
जब मैं जाइ सो कौतुक देखा। उर उपजा आनन्द बिसेषा॥5॥
भावार्थ
सब निर्मल बुद्धि वाले हंस, जो सदा उस तालाब पर बसते हैं, उसे सुनते हैं। जब मैन्ने वहाँ जाकर यह कौतुक (दृश्य) देखा, तब मेरे हृदय में विशेष आनन्द उत्पन्न हुआ॥5॥