01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर।
नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर॥54॥
मूल
राम परायन ग्यान रत गुनागार मति धीर।
नाथ कहहु केहि कारन पायउ काक सरीर॥54॥
भावार्थ
हे नाथ! कहिए, (ऐसे) श्री रामपरायण, ज्ञाननिरत, गुणधाम और धीरबुद्धि भुशुण्डिजी ने कौए का शरीर किस कारण पाया?॥54॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा। कहहु कृपाल काग कहँ पावा॥
तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी॥1॥
मूल
यह प्रभु चरित पवित्र सुहावा। कहहु कृपाल काग कहँ पावा॥
तुम्ह केहि भाँति सुना मदनारी। कहहु मोहि अति कौतुक भारी॥1॥
भावार्थ
हे कृपालु! बताइए, उस कौए ने प्रभु का यह पवित्र और सुन्दर चरित्र कहाँ पाया? और हे कामदेव के शत्रु! यह भी बताइए, आपने इसे किस प्रकार सुना? मुझे बडा भारी कौतूहल हो रहा है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गरुड महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी।
तेहिं केहि हेतु काग सन जाई। सुनी कथा मुनि निकर बिहाई॥2॥
मूल
गरुड महाग्यानी गुन रासी। हरि सेवक अति निकट निवासी।
तेहिं केहि हेतु काग सन जाई। सुनी कथा मुनि निकर बिहाई॥2॥
भावार्थ
गरुडजी तो महान् ज्ञानी, सद्गुणों की राशि, श्री हरि के सेवक और उनके अत्यन्त निकट रहने वाले (उनके वाहन ही) हैं। उन्होन्ने मुनियों के समूह को छोडकर, कौए से जाकर हरिकथा किस कारण सुनी?॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहहु कवन बिधि भा सम्बादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा॥
गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर सुख पाई॥3॥
मूल
कहहु कवन बिधि भा सम्बादा। दोउ हरिभगत काग उरगादा॥
गौरि गिरा सुनि सरल सुहाई। बोले सिव सादर सुख पाई॥3॥
भावार्थ
कहिए, काकभुशुण्डि और गरुड इन दोनों हरिभक्तों की बातचीत किस प्रकार हुई? पार्वतीजी की सरल, सुन्दर वाणी सुनकर शिवजी सुख पाकर आदर के साथ बोले-॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धन्य सती पावन मति तोरी। रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी॥
सुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा॥4॥
मूल
धन्य सती पावन मति तोरी। रघुपति चरन प्रीति नहिं थोरी॥
सुनहु परम पुनीत इतिहासा। जो सुनि सकल लोक भ्रम नासा॥4॥
भावार्थ
हे सती! तुम धन्य हो, तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त पवित्र है। श्री रघुनाथजी के चरणों में तुम्हारा कम प्रेम नहीं है। (अत्यधिक प्रेम है)। अब वह परम पवित्र इतिहास सुनो, जिसे सुनने से सारे लोक के भ्रम का नाश हो जाता है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा॥5॥
मूल
उपजइ राम चरन बिस्वासा। भव निधि तर नर बिनहिं प्रयासा॥5॥
भावार्थ
तथा श्री रामजी के चरणों में विश्वास उत्पन्न होता है और मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाता है॥5॥