049

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु॥49॥

मूल

नाथ एक बर मागउँ राम कृपा करि देहु।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुँ घटै जनि नेहु॥49॥

भावार्थ

जहे नाथ! हे श्री रामजी! मैं आपसे एक वर माँगता हूँ, कृपा करके दीजिए। प्रभु (आप) के चरणकमलों में मेरा प्रेम जन्म-जन्मान्तर में भी कभी न घटे॥49॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए। कृपासिन्धु के मन अति भाए॥
हनूमान भरतादिक भ्राता। सङ्ग लिए सेवक सुखदाता॥1॥

मूल

अस कहि मुनि बसिष्ट गृह आए। कृपासिन्धु के मन अति भाए॥
हनूमान भरतादिक भ्राता। सङ्ग लिए सेवक सुखदाता॥1॥

भावार्थ

ऐसा कहकर मुनि वशिष्ठजी घर आए। वे कृपासागर श्री रामजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। तदनन्तर सेवकों को सुख देने वाले श्री रामजी ने हनुमान्‌जी तथा भरतजी आदि भाइयों को साथ लिया,॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि कृपाल पुर बाहेर गए। गज रथ तुरग मगावत भए॥
देखि कृपा करि सकल सराहे। दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे॥2॥

मूल

पुनि कृपाल पुर बाहेर गए। गज रथ तुरग मगावत भए॥
देखि कृपा करि सकल सराहे। दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे॥2॥

भावार्थ

और फिर कृपालु श्री रामजी नगर के बाहर गए और वहाँ उन्होन्ने हाथी, रथ और घोडे मँगवाए। उन्हें देखकर कृपा करके प्रभु ने सबकी सराहना की और उनको जिस-जिसने चाहा, उस-उसको उचित जानकर दिया॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई। गए जहाँ सीतल अवँराई॥
भरत दीन्ह निज बसन डसाई। बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई॥3॥

मूल

हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई। गए जहाँ सीतल अवँराई॥
भरत दीन्ह निज बसन डसाई। बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई॥3॥

भावार्थ

संसार के सभी श्रमों को हरने वाले प्रभु ने (हाथी, घोडे आदि बँटने में) श्रम का अनुभव किया और (श्रम मिटाने को) वहाँ गए जहाँ शीतल अमराई (आमों का बगीचा) थी। वहाँ भरतजी ने अपना वस्त्र बिछा दिया। प्रभु उस पर बैठ गए और सब भाई उनकी सेवा करने लगे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मारुतसुत तब मारुत करई। पुलक बपुष लोचन जल भरई॥
हनूमान सम नहिं बडभागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी॥4॥
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई। बार बार प्रभु निज मुख गाई॥5॥

मूल

मारुतसुत तब मारुत करई। पुलक बपुष लोचन जल भरई॥
हनूमान सम नहिं बडभागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी॥4॥
गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई। बार बार प्रभु निज मुख गाई॥5॥

भावार्थ

उस समय पवनपुत्र हनुमान्‌जी पवन (पङ्खा) करने लगे। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया। (शिवजी कहने लगे-) हे गिरिजे! हनुमान्‌जी के समान न तो कोई बडभागी है और न कोई श्री रामजी के चरणों का प्रेमी ही है, जिनके प्रेम और सेवा की (स्वयं) प्रभु ने अपने श्रीमुख से बार-बार बडाई की है॥4-5॥