01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निन्दक मन्दमति आत्माहन गति जाइ॥44॥
मूल
जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निन्दक मन्दमति आत्माहन गति जाइ॥44॥
भावार्थ
जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मन्द बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है॥44॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन हृदयँ दृढ गहहू॥
सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई॥1॥
मूल
जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन हृदयँ दृढ गहहू॥
सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई॥1॥
भावार्थ
यदि परलोक में और यहाँ दोनों जगह सुख चाहते हो, तो मेरे वचन सुनकर उन्हें हृदय में दृढता से पकड रखो। हे भाई! यह मेरी भक्ति का मार्ग सुलभ और सुखदायक है, पुराणों और वेदों ने इसे गाया है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका॥
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ॥2॥
मूल
ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका॥
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ॥2॥
भावार्थ
ज्ञान अगम (दुर्गम) है (और) उसकी प्राप्ति में अनेकों विघ्न हैं। उसका साधन कठिन है और उसमें मन के लिए कोई आधार नहीं है। बहुत कष्ट करने पर कोई उसे पा भी लेता है, तो वह भी भक्तिरहित होने से मुझको प्रिय नहीं होता॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्ति सुतन्त्र सकल सुख खानी। बिनु सतसङ्ग न पावहिं प्रानी॥
पुन्य पुञ्ज बिनु मिलहिं न सन्ता। सतसङ्गति संसृति कर अन्ता॥3॥
मूल
भक्ति सुतन्त्र सकल सुख खानी। बिनु सतसङ्ग न पावहिं प्रानी॥
पुन्य पुञ्ज बिनु मिलहिं न सन्ता। सतसङ्गति संसृति कर अन्ता॥3॥
भावार्थ
भक्ति स्वतन्त्र है और सब सुखों की खान है, परन्तु सत्सङ्ग (सन्तों के सङ्ग) के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते और पुण्य समूह के बिना सन्त नहीं मिलते। सत्सङ्गति ही संसृति (जन्म-मरण के चक्र) का अन्त करती है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा॥
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा॥4॥
मूल
पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा॥
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा॥4॥
भावार्थ
जगत् में पुण्य एक ही है, (उसके समान) दूसरा नहीं। वह है- मन, कर्म और वचन से ब्राह्मणों के चरणों की पूजा करना। जो कपट का त्याग करके ब्राह्मणों की सेवा करता है, उस पर मुनि और देवता प्रसन्न रहते हैं॥4॥