01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेताँ नाहिं।
द्वापर कछुक बृन्द बहु होइहहिं कलिजुग माहिं॥40॥
मूल
ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेताँ नाहिं।
द्वापर कछुक बृन्द बहु होइहहिं कलिजुग माहिं॥40॥
भावार्थ
ऐसे नीच और दुष्ट मनुष्य सत्ययुग और त्रेता में नहीं होते। द्वापर में थोडे से होङ्गे और कलियुग में तो इनके झुण्ड के झुण्ड होङ्गे॥40॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीडा सम नहिं अधमाई॥
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर॥1॥
मूल
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीडा सम नहिं अधमाई॥
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर॥1॥
भावार्थ
हे भाई! दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान कोई नीचता (पाप) नहीं है। हे तात! समस्त पुराणों और वेदों का यह निर्णय (निश्चित सिद्धान्त) मैन्ने तुमसे कहा है, इस बात को पण्डित लोग जानते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा॥
लकरहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना॥2॥
मूल
नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा॥
लकरहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना॥2॥
भावार्थ
मनुष्य का शरीर धारण करके जो लोग दूसरों को दुःख पहुँचाते हैं, उनको जन्म-मृत्यु के महान् सङ्कट सहने पडते हैं। मनुष्य मोहवश स्वार्थपरायण होकर अनेकों पाप करते हैं, इसी से उनका परलोक नष्ट हुआ रहता है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता। सुभ अरु असुभ कर्म फलदाता॥
अस बिचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहि संसृत दुख जाने॥3॥
मूल
कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता। सुभ अरु असुभ कर्म फलदाता॥
अस बिचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहि संसृत दुख जाने॥3॥
भावार्थ
हे भाई! मैं उनके लिए कालरूप (भयङ्कर) हूँ और उनके अच्छे और बुरे कर्मों का (यथायोग्य) फल देने वाला हूँ! ऐसा विचार कर जो लोग परम चतुर हैं वे संसार (के प्रवाह) को दुःख रूप जानकर मुझे ही भजते हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक॥
सन्त असन्तन्ह के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे॥4॥
मूल
त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक॥
सन्त असन्तन्ह के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे॥4॥
भावार्थ
इसी से वे शुभ और अशुभ फल देने वाले कर्मों को त्यागकर देवता, मनुष्य और मुनियों के नायक मुझको भजते हैं। (इस प्रकार) मैन्ने सन्तों और असन्तों के गुण कहे। जिन लोगों ने इन गुणों को समझ रखा है, वे जन्म-मरण के चक्कर में नहीं पडते॥4॥