039

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद॥39॥

मूल

पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद॥39॥

भावार्थ

वे दूसरों से द्रोह करते हैं और पराई स्त्री, पराए धन तथा पराई निन्दा में आसक्त रहते हैं। वे पामर और पापमय मनुष्य नर शरीर धारण किए हुए राक्षस ही हैं॥39॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोभइ ओढन लोभइ डासन। सिस्नोदर पर जमपुर त्रास न॥
काहू की जौं सुनहिं बडाई। स्वास लेहिं जनु जूडी आई॥1॥

मूल

लोभइ ओढन लोभइ डासन। सिस्नोदर पर जमपुर त्रास न॥
काहू की जौं सुनहिं बडाई। स्वास लेहिं जनु जूडी आई॥1॥

भावार्थ

लोभ ही उनका ओढना और लोभ ही बिछौना होता है (अर्थात्‌ लोभ ही से वे सदा घिरे हुए रहते हैं)। वे पशुओं के समान आहार और मैथुन के ही परायण होते हैं, उन्हें यमपुर का भय नहीं लगता। यदि किसी की बडाई सुन पाते हैं, तो वे ऐसी (दुःखभरी) साँस लेते हैं मानों उन्हें जूडी आ गई हो॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब काहू कै देखहिं बिपती। सुखी भए मानहुँ जग नृपती॥
स्वारथ रत परिवार बिरोधी। लम्पट काम लोभ अति क्रोधी॥2॥

मूल

जब काहू कै देखहिं बिपती। सुखी भए मानहुँ जग नृपती॥
स्वारथ रत परिवार बिरोधी। लम्पट काम लोभ अति क्रोधी॥2॥

भावार्थ

और जब किसी की विपत्ति देखते हैं, तब ऐसे सुखी होते हैं मानो जगत्‌भर के राजा हो गए हों। वे स्वार्थपरायण, परिवार वालों के विरोधी, काम और लोभ के कारण लम्पट और अत्यन्त क्रोधी होते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं। आपु गए अरु घालहिं आनहिं॥
करहिं मोह बस द्रोह परावा। सन्त सङ्ग हरि कथा न भावा॥3॥

मूल

मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं। आपु गए अरु घालहिं आनहिं॥
करहिं मोह बस द्रोह परावा। सन्त सङ्ग हरि कथा न भावा॥3॥

भावार्थ

वे माता, पिता, गुरु और ब्राह्मण किसी को नहीं मानते। आप तो नष्ट हुए ही रहते हैं, (साथ ही अपने सङ्ग से) दूसरों को भी नष्ट करते हैं। मोहवश दूसरों से द्रोह करते हैं। उन्हें न सन्तों का सङ्ग अच्छा लगता है, न भगवान्‌ की कथा ही सुहाती है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवगुन सिन्धु मन्दमति कामी। बेद बिदूषक परधन स्वामी॥
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दम्भ कपट जियँ धरें सुबेषा॥4॥

मूल

अवगुन सिन्धु मन्दमति कामी। बेद बिदूषक परधन स्वामी॥
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा। दम्भ कपट जियँ धरें सुबेषा॥4॥

भावार्थ

वे अवगुणों के समुद्र, मन्दबुद्धि, कामी (रागयुक्त), वेदों के निन्दक और जबर्दस्ती पराए धन के स्वामी (लूटने वाले) होते हैं। वे दूसरों से द्रोह तो करते ही हैं, परन्तु ब्राह्मण द्रोह विशेषता से करते हैं। उनके हृदय में दम्भ और कपट भरा रहता है, परन्तु वे ऊपर से सुन्दर वेष धारण किए रहते हैं॥4॥