038

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

निन्दा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कञ्ज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मन्दिर सुख पुञ्ज॥38॥

मूल

निन्दा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कञ्ज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मन्दिर सुख पुञ्ज॥38॥

भावार्थ

जिन्हें निन्दा और स्तुति (बडाई) दोनों समान हैं और मेरे चरणकमलों में जिनकी ममता है, वे गुणों के धाम और सुख की राशि सन्तजन मुझे प्राणों के समान प्रिय हैं॥38॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनहु असन्तन्ह केर सुभाऊ। भूलेहुँ सङ्गति करिअ न काऊ॥
तिन्ह कर सङ्ग सदा दुखदाई। जिमि कपिलहि घालइ हरहाई॥1॥

मूल

सुनहु असन्तन्ह केर सुभाऊ। भूलेहुँ सङ्गति करिअ न काऊ॥
तिन्ह कर सङ्ग सदा दुखदाई। जिमि कपिलहि घालइ हरहाई॥1॥

भावार्थ

अब असन्तों दुष्टों का स्वभाव सुनो, कभी भूलकर भी उनकी सङ्गति नहीं करनी चाहिए। उनका सङ्ग सदा दुःख देने वाला होता है। जैसे हरहाई (बुरी जाति की) गाय कपिला (सीधी और दुधार) गाय को अपने सङ्ग से नष्ट कर डालती है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर सम्पति देखी॥
जहँ कहुँ निन्दा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई॥2॥

मूल

खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी। जरहिं सदा पर सम्पति देखी॥
जहँ कहुँ निन्दा सुनहिं पराई। हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई॥2॥

भावार्थ

बदुष्टों के हृदय में बहुत अधिक सन्ताप रहता है। वे पराई सम्पत्ति (सुख) देखकर सदा जलते रहते हैं। वे जहाँ कहीं दूसरे की निन्दा सुन पाते हैं, वहाँ ऐसे हर्षित होते हैं मानो रास्ते में पडी निधि (खजाना) पा ली हो॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन॥
बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों॥3॥

मूल

काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन॥
बयरु अकारन सब काहू सों। जो कर हित अनहित ताहू सों॥3॥

भावार्थ

वे काम, क्रोध, मद और लोभ के परायण तथा निर्दयी, कपटी, कुटिल और पापों के घर होते हैं। वे बिना ही कारण सब किसी से वैर किया करते हैं। जो भलाई करता है उसके साथ बुराई भी करते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अहि हृदय कठोरा॥4॥

मूल

झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।
बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अहि हृदय कठोरा॥4॥

भावार्थ

उनका झूठा ही लेना और झूठा ही देना होता है। झूठा ही भोजन होता है और झूठा ही चबेना होता है। (अर्थात्‌ वे लेने-देने के व्यवहार में झूठ का आश्रय लेकर दूसरों का हक मार लेते हैं अथवा झूठी डीङ्ग हाँका करते हैं कि हमने लाखों रुपए ले लिए, करोडों का दान कर दिया। इसी प्रकार खाते हैं चने की रोटी और कहते हैं कि आज खूब माल खाकर आए। अथवा चबेना चबाकर रह जाते हैं और कहते हैं हमें बढिया भोजन से वैराग्य है, इत्यादि। मतलब यह कि वे सभी बातों में झूठ ही बोला करते हैं।) जैसे मोर साँपों को भी खा जाता है। वैसे ही वे भी ऊपर से मीठे वचन बोलते हैं। (परन्तु हृदय के बडे ही निर्दयी होते हैं)॥4॥