037

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताते सुर सीसन्ह चढत जग बल्लभ श्रीखण्ड।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दण्ड॥37॥

मूल

ताते सुर सीसन्ह चढत जग बल्लभ श्रीखण्ड।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दण्ड॥37॥

भावार्थ

इसी गुण के कारण चन्दन देवताओं के सिरों पर चढता है और जगत्‌ का प्रिय हो रहा है और कुल्हाडी के मुख को यह दण्ड मिलता है कि उसको आग में जलाकर फिर घन से पीटते हैं॥37॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिषय अलम्पट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर॥
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी॥1॥

मूल

बिषय अलम्पट सील गुनाकर। पर दुख दुख सुख सुख देखे पर॥
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी। लोभामरष हरष भय त्यागी॥1॥

भावार्थ

सन्त विषयों में लम्पट (लिप्त) नहीं होते, शील और सद्गुणों की खान होते हैं, उन्हें पराया दुःख देखकर दुःख और सुख देखकर सुख होता है। वे (सबमें, सर्वत्र, सब समय) समता रखते हैं, उनके मन कोई उनका शत्रु नहीं है। वे मद से रहित और वैराग्यवान्‌ होते हैं तथा लोभ, क्रोध, हर्ष और भय का त्याग किए हुए रहते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोमलचित दीनन्ह पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी॥2॥

मूल

कोमलचित दीनन्ह पर दाया। मन बच क्रम मम भगति अमाया॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी। भरत प्रान सम मम ते प्रानी॥2॥

भावार्थ

उनका चित्त बडा कोमल होता है। वे दीनों पर दया करते हैं तथा मन, वचन और कर्म से मेरी निष्कपट (विशुद्ध) भक्ति करते हैं। सबको सम्मान देते हैं, पर स्वयं मानरहित होते हैं। हे भरत! वे प्राणी (सन्तजन) मेरे प्राणों के समान हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिगत काम मम नाम परायन। सान्ति बिरति बिनती मुदितायन॥
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री॥3॥

मूल

बिगत काम मम नाम परायन। सान्ति बिरति बिनती मुदितायन॥
सीतलता सरलता मयत्री। द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री॥3॥

भावार्थ

उनको कोई कामना नहीं होती। वे मेरे नाम के परायण होते है। शान्ति, वैराग्य, विनय और प्रसन्नता के घर होते हैं। उनमें शीलता, सरलता, सबके प्रति मित्र भाव और ब्राह्मण के चरणों में प्रीति होती है, जो धर्मों को उत्पन्न करने वाली है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात सन्त सन्तत फुर॥
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं॥4॥

मूल

ए सब लच्छन बसहिं जासु उर। जानेहु तात सन्त सन्तत फुर॥
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं। परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं॥4॥

भावार्थ

हे तात! ये सब लक्षण जिसके हृदय में बसते हों, उसको सदा सच्चा सन्त जानना। जो शम (मन के निग्रह), दम (इन्द्रियों के निग्रह), नियम और नीति से कभी विचलित नहीं होते और मुख से कभी कठोर वचन नहीं बोलते,॥4॥