01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाथ न मोहि सन्देह कछु सपनेहुँ सोक न मोह।
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानन्द सन्दोह॥36॥
मूल
नाथ न मोहि सन्देह कछु सपनेहुँ सोक न मोह।
केवल कृपा तुम्हारिहि कृपानन्द सन्दोह॥36॥
भावार्थ
हे नाथ! न तो मुझे कुछ सन्देह है और न स्वप्न में भी शोक और मोह है। हे कृपा और आनन्द के समूह! यह केवल आपकी ही कृपा का फल है॥36॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
करउँ कृपानिधि एक ढिठाई। मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई॥
सन्तन्ह कै महिमा रघुराई। बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई॥1॥
मूल
करउँ कृपानिधि एक ढिठाई। मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई॥
सन्तन्ह कै महिमा रघुराई। बहु बिधि बेद पुरानन्ह गाई॥1॥
भावार्थ
तथापि हे कृपानिधान! मैं आप से एक धृष्टता करता हूँ। मैं सेवक हूँ और आप सेवक को सुख देने वाले हैं (इससे मेरी दृष्टता को क्षमा कीजिए और मेरे प्रश्न का उत्तर देकर सुख दीजिए)। हे रघुनाथजी वेद-पुराणों ने सन्तों की महिमा बहुत प्रकार से गाई है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बडाई। तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई॥
सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन। कृपासिन्धु गुन ग्यान बिचच्छन॥2॥
मूल
श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्हि बडाई। तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति अधिकाई॥
सुना चहउँ प्रभु तिन्ह कर लच्छन। कृपासिन्धु गुन ग्यान बिचच्छन॥2॥
भावार्थ
आपने भी अपने श्रीमुख से उनकी बडाई की है और उन पर प्रभु (आप) का प्रेम भी बहुत है। हे प्रभो! मैं उनके लक्षण सुनना चाहता हूँ। आप कृपा के समुद्र हैं और गुण तथा ज्ञान में अत्यन्त निपुण हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्त असन्त भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई॥
सन्तन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता॥3॥
मूल
सन्त असन्त भेद बिलगाई। प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई॥
सन्तन्ह के लच्छन सुनु भ्राता। अगनित श्रुति पुरान बिख्याता॥3॥
भावार्थ
हे शरणागत का पालन करने वाले! सन्त और असन्त के भेद अलग-अलग करके मुझको समझाकर कहिए। (श्री रामजी ने कहा-) हे भाई! सन्तों के लक्षण (गुण) असङ्ख्य हैं, जो वेद और पुराणों में प्रसिद्ध हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्त असन्तन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चन्दन आचरनी॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगन्ध बसाई॥4॥
मूल
सन्त असन्तन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चन्दन आचरनी॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगन्ध बसाई॥4॥
भावार्थ
सन्त और असन्तों की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाडी और चन्दन का आचरण होता है। हे भाई! सुनो, कुल्हाडी चन्दन को काटती है (क्योङ्कि उसका स्वभाव या काम ही वृक्षों को काटना है), किन्तु चन्दन अपने स्वभाववश अपना गुण देकर उसे (काटने वाली कुल्हाडी को) सुगन्ध से सुवासित कर देता है॥4॥