035

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बार-बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ।
ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ॥35॥

मूल

बार-बार अस्तुति करि प्रेम सहित सिरु नाइ।
ब्रह्म भवन सनकादि गे अति अभीष्ट बर पाइ॥35॥

भावार्थ

प्रेम सहित बार-बार स्तुति करके और सिर नवाकर तथा अपना अत्यन्त मनचाहा वर पाकर सनकादि मुनि ब्रह्मलोक को गए॥35॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सनकादिक बिधि लोक सिधाए। भ्रातन्ह राम चरन सिर नाए॥
पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं॥1॥

मूल

सनकादिक बिधि लोक सिधाए। भ्रातन्ह राम चरन सिर नाए॥
पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं। चितवहिं सब मारुतसुत पाहीं॥1॥

भावार्थ

सनकादि मुनि ब्रह्मलोक को चले गए। तब भाइयों ने श्री रामजी के चरणों में सिर नवाया। सब भाई प्रभु से पूछते सकुचाते हैं। (इसलिए) सब हनुमान्‌जी की ओर देख रहे हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनी चहहिं प्रभु मुख कै बानी। जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी॥
अन्तरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना॥2॥

मूल

सुनी चहहिं प्रभु मुख कै बानी। जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी॥
अन्तरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह हनुमाना॥2॥

भावार्थ

वे प्रभु के श्रीमुख की वाणी सुनना चाहते हैं, जिसे सुनकर सारे भ्रमों का नाश हो जाता है। अन्तरयामी प्रभु सब जान गए और पूछने लगे- कहो हनुमान्‌! क्या बात है?॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जोरि पानि कह तब हनुमन्ता। सुनहु दीनदयाल भगवन्ता॥
नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं॥3॥

मूल

जोरि पानि कह तब हनुमन्ता। सुनहु दीनदयाल भगवन्ता॥
नाथ भरत कछु पूँछन चहहीं। प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं॥3॥

भावार्थ

तब हनुमान्‌जी हाथ जोडकर बोले- हे दीनदयालु भगवान्‌! सुनिए। हे नाथ! भरतजी कुछ पूछना चाहते हैं, पर प्रश्न करते मन में सकुचा रहे हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ। भरतहि मोहि कछु अन्तर काऊ॥
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना॥4॥

मूल

तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ। भरतहि मोहि कछु अन्तर काऊ॥
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना। सुनहु नाथ प्रनतारति हरना॥4॥

भावार्थ

(भगवान्‌ ने कहा-) हनुमान्‌! तुम तो मेरा स्वभाव जानते ही हो। भरत के और मेरे बीच में कभी भी कोई अन्तर (भेद) है? प्रभु के वचन सुनकर भरतजी ने उनके चरण पकड लिए (और कहा-) हे नाथ! हे शरणागत के दुःखों को हरने वाले! सुनिए॥4॥