034

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमानन्द कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम॥34॥

मूल

परमानन्द कृपायतन मन परिपूरन काम।
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम॥34॥

भावार्थ

आप परमानन्द स्वरूप, कृपा के धाम और मन की कामनाओं को परिपूर्ण करने वाले हैं। हे श्री रामजी! हमको अपनी अविचल प्रेमाभक्ति दीजिए॥34॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहु भगति रघुपति अति पावनि। त्रिबिधि ताप भव दाप नसावनि॥
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु॥1॥

मूल

देहु भगति रघुपति अति पावनि। त्रिबिधि ताप भव दाप नसावनि॥
प्रनत काम सुरधेनु कलपतरु। होइ प्रसन्न दीजै प्रभु यह बरु॥1॥

भावार्थ

हे रघुनाथजी! आप हमें अपनी अत्यन्त पवित्र करने वाली और तीनों प्रकार के तापों और जन्म-मरण के क्लेशों का नाश करने वाली भक्ति दीजिए। हे शरणागतों की कामना पूर्ण करने के लिए कामधेनु और कल्पवृक्ष रूप प्रभो! प्रसन्न होकर हमें यही वर दीजिए॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भव बारिधि कुम्भज रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक॥
मन सम्भव दारुन दुख दारय। दीनबन्धु समता बिस्तारय॥2॥

मूल

भव बारिधि कुम्भज रघुनायक। सेवत सुलभ सकल सुख दायक॥
मन सम्भव दारुन दुख दारय। दीनबन्धु समता बिस्तारय॥2॥

भावार्थ

हे रघुनाथजी! आप जन्म-मृत्यु रूप समुद्र को सोखने के लिए अगस्त्य मुनि के समान हैं। आप सेवा करने में सुलभ हैं तथा सब सुखों के देने वाले हैं। हे दीनबन्धो! मन से उत्पन्न दारुण दुःखों का नाश कीजिए और (हम में) समदृष्टि का विस्तार कीजिए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आस त्रास इरिषाद निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक॥
भूप मौलि मनि मण्डन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी॥3॥

मूल

आस त्रास इरिषाद निवारक। बिनय बिबेक बिरति बिस्तारक॥
भूप मौलि मनि मण्डन धरनी। देहि भगति संसृति सरि तरनी॥3॥

भावार्थ

आप (विषयों की) आशा, भय और ईर्षा आदि के निवारण करने वाले हैं तथा विनय, विवेक और वैराग्य के विस्तार करने वाले हैं। हे राजाओं के शिरोमणि एवं पृथ्वी के भूषण श्री रामजी! संसृति (जन्म-मृत्यु के प्रवाह) रूपी नदी के लिए नौका रूप अपनी भक्ति प्रदान कीजिए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनि मन मानस हंस निरन्तर। चरन कमल बन्दित अज सङ्कर॥
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक॥4॥

मूल

मुनि मन मानस हंस निरन्तर। चरन कमल बन्दित अज सङ्कर॥
रघुकुल केतु सेतु श्रुति रच्छक। काल करम सुभाउ गुन भच्छक॥4॥

भावार्थ

हे मुनियों के मन रूपी मानसरोवर में निरन्तर निवास करने वाले हंस! आपके चरणकमल ब्रह्माजी और शिवजी के द्वारा वन्दित हैं। आप रघुकुल के केतु, वेदमर्यादा के रक्षक और काल, कर्म, स्वभाव तथा गुण (रूप बन्धनों) के भक्षक (नाशक) हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तारन तरन हरन सब दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन॥5॥

मूल

तारन तरन हरन सब दूषन। तुलसिदास प्रभु त्रिभुवन भूषन॥5॥

भावार्थ

आप तरन-तारन (स्वयं तरे हुए और दूसरों को तारने वाले) तथा सब दोषों को हरने वाले हैं। तीनों लोकों के विभूषण आप ही तुलसीदास के स्वामी हैं॥5॥