01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्त सङ्ग अपबर्ग कर कामी भव कर पन्थ।
कहहिं सन्त कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रन्थ॥33॥
मूल
सन्त सङ्ग अपबर्ग कर कामी भव कर पन्थ।
कहहिं सन्त कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रन्थ॥33॥
भावार्थ
सन्त का सङ्ग मोक्ष (भव बन्धन से छूटने) का और कामी का सङ्ग जन्म-मृत्यु के बन्धन में पडने का मार्ग है। सन्त, कवि और पण्डित तथा वेद, पुराण (आदि) सभी सद्ग्रन्थ ऐसा कहते हैं॥33॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी। पुलकित तन अस्तुति अनुसारी॥
जय भगवन्त अनन्त अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय॥1॥
मूल
सुनि प्रभु बचन हरषि मुनि चारी। पुलकित तन अस्तुति अनुसारी॥
जय भगवन्त अनन्त अनामय। अनघ अनेक एक करुनामय॥1॥
भावार्थ
प्रभु के वचन सुनकर चारों मुनि हर्षित होकर, पुलकित शरीर से स्तुति करने लगे- हे भगवन्! आपकी जय हो। आप अन्तरहित, विकाररहित, पापरहित, अनेक (सब रूपों में प्रकट), एक (अद्वितीय) और करुणामय हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जय निर्गुन जय जय गुन सागर। सुख मन्दिर सुन्दर अति नागर॥
जय इन्दिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर॥2॥
मूल
जय निर्गुन जय जय गुन सागर। सुख मन्दिर सुन्दर अति नागर॥
जय इन्दिरा रमन जय भूधर। अनुपम अज अनादि सोभाकर॥2॥
भावार्थ
हे निर्गुण! आपकी जय हो। हे गुण के समुद्र! आपकी जय हो, जय हो। आप सुख के धाम, (अत्यन्त) सुन्दर और अति चतुर हैं। हे लक्ष्मीपति! आपकी जय हो। हे पृथ्वी के धारण करने वाले! आपकी जय हो। आप उपमारहित, अजन्मे, अनादि और शोभा की खान हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्यान निधान अमान मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद॥
तग्य कृतग्य अग्यता भञ्जन। नाम अनेक अनाम निरञ्जन॥3॥
मूल
ग्यान निधान अमान मानप्रद। पावन सुजस पुरान बेद बद॥
तग्य कृतग्य अग्यता भञ्जन। नाम अनेक अनाम निरञ्जन॥3॥
भावार्थ
आप ज्ञान के भण्डार, (स्वयं) मानरहित और (दूसरों को) मान देने वाले हैं। वेद और पुराण आपका पावन सुन्दर यश गाते हैं। आप तत्त्व के जानने वाले, की हुई सेवा को मानने वाले और अज्ञान का नाश करने वाले हैं। हे निरञ्जन (मायारहित)! आपके अनेकों (अनन्त) नाम हैं और कोई नाम नहीं है (अर्थात् आप सब नामों के परे हैं)॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय
द्वन्द बिपति भव फन्द बिभञ्जय। हृदि बसि राम काम मद गञ्जय॥4॥
मूल
सर्ब सर्बगत सर्ब उरालय। बससि सदा हम कहुँ परिपालय
द्वन्द बिपति भव फन्द बिभञ्जय। हृदि बसि राम काम मद गञ्जय॥4॥
भावार्थ
आप सर्वरूप हैं, सब में व्याप्त हैं और सबके हृदय रूपी घर में सदा निवास करते हैं, (अतः) आप हमारा परिपालन कीजिए। (राग-द्वेष, अनुकूलता-प्रतिकूलता, जन्म-मृत्यु आदि) द्वन्द्व, विपत्ति और जन्म-मत्यु के जाल को काट दीजिए। हे रामजी! आप हमारे हृदय में बसकर काम और मद का नाश कर दीजिए॥4॥