031

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास।
पछिले बाढहिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास॥31॥

मूल

यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास।
पछिले बाढहिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास॥31॥

भावार्थ

यह श्री रामप्रताप रूपी सूर्य जिसके हृदय में जब प्रकाश करता है, तब जिनका वर्णन पीछे से किया गया है, वे (धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सुख, सन्तोष, वैराग्य और विवेक) बढ जाते हैं और जिनका वर्णन पहले किया गया है, वे (अविद्या, पाप, काम, क्रोध, कर्म, काल, गुण, स्वभाव आदि) नाश को प्राप्त होते (नष्ट हो जाते) हैं॥31॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा। सङ्ग परम प्रिय पवनकुमारा॥
सुन्दर उपबन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए॥1॥

मूल

भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा। सङ्ग परम प्रिय पवनकुमारा॥
सुन्दर उपबन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए॥1॥

भावार्थ

एक बार भाइयों सहित श्री रामचन्द्रजी परम प्रिय हनुमान्‌जी को साथ लेकर सुन्दर उपवन देखने गए। वहाँ के सब वृक्ष फूले हुए और नए पत्तों से युक्त थे॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानि समय सनकादिक आए। तेज पुञ्ज गुन सील सुहाए॥
ब्रह्मानन्द सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना॥2॥

मूल

जानि समय सनकादिक आए। तेज पुञ्ज गुन सील सुहाए॥
ब्रह्मानन्द सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना॥2॥

भावार्थ

सुअवसर जानकर सनकादि मुनि आए, जो तेज के पुञ्ज, सुन्दर गुण और शील से युक्त तथा सदा ब्रह्मानन्द में लवलीन रहते हैं। देखने में तो वे बालक लगते हैं, परन्तु हैं बहुत समय के॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूप धरें जनु चारिउ बेदा। समदरसी मुनि बिगत बिभेदा॥
आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं॥3॥

मूल

रूप धरें जनु चारिउ बेदा। समदरसी मुनि बिगत बिभेदा॥
आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं॥3॥

भावार्थ

मानो चारों वेद ही बालक रूप धारण किए हों। वे मुनि समदर्शी और भेदरहित हैं। दिशाएँ ही उनके वस्त्र हैं। उनके एक ही व्यसन है कि जहाँ श्री रघुनाथजी की चरित्र कथा होती है वहाँ जाकर वे उसे अवश्य सुनते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घटसम्भव मुनिबर ग्यानी॥
राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी॥4॥

मूल

तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घटसम्भव मुनिबर ग्यानी॥
राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी॥4॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! सनकादि मुनि वहाँ गए थे (वहीं से चले आ रहे थे) जहाँ ज्ञानी मुनिश्रेष्ठ श्री अगस्त्यजी रहते थे। श्रेष्ठ मुनि ने श्री रामजी की बहुत सी कथाएँ वर्णन की थीं, जो ज्ञान उत्पन्न करने में उसी प्रकार समर्थ हैं, जैसे अरणि लकडी से अग्नि उत्पन्न होती है॥4॥