029

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख सम्पदा रहीं अवध सब छाइ॥29॥

मूल

रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।
अनिमादिक सुख सम्पदा रहीं अवध सब छाइ॥29॥

भावार्थ

स्वयं लक्ष्मीपति भगवान्‌ जहाँ राजा हों, उस नगर का कहीं वर्णन किया जा सकता है? अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ और समस्त सुख-सम्पत्तियाँ अयोध्या में छा रही हैं॥29॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परसपर इहइ सिखावहिं॥
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि॥1॥

मूल

जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परसपर इहइ सिखावहिं॥
भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि॥1॥

भावार्थ

लोग जहाँ-तहाँ श्री रघुनाथजी के गुण गाते हैं और बैठकर एक-दूसरे को यही सीख देते हैं कि शरणागत का पालन करने वाले श्री रामजी को भजो, शोभा, शील, रूप और गुणों के धाम श्री रघुनाथजी को भजो॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलज बिलोचन स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक त्रातहि॥
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। सन्त कञ्ज बन रबि रनधीरहि॥2॥

मूल

जलज बिलोचन स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक त्रातहि॥
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। सन्त कञ्ज बन रबि रनधीरहि॥2॥

भावार्थ

कमलनयन और साँवले शरीर वाले को भजो। पलक जिस प्रकार नेत्रों की रक्षा करती हैं उसी प्रकार अपने सेवकों की रक्षा करने वाले को भजो। सुन्दर बाण, धनुष और तरकस धारण करने वाले को भजो। सन्त रूपी कमलवन के (खिलाने के) सूर्य रूप रणधीर श्री रामजी को भजो॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि॥
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि॥3॥

मूल

काल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि॥
लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि॥3॥

भावार्थ

कालरूपी भयानक सर्प के भक्षण करने वाले श्री राम रूप गरुडजी को भजो। निष्कामभाव से प्रणाम करते ही ममता का नाश कर देने वाले श्री रामजी को भजो। लोभ-मोह रूपी हरिनों के समूह के नाश करने वाले श्री राम किरात को भजो। कामदेव रूपी हाथी के लिए सिंह रूप तथा सेवकों को सुख देने वाले श्री राम को भजो॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संसय सोक निबिड तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन कृसानुहि॥
जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भञ्जन भव भीरहि॥4॥

मूल

संसय सोक निबिड तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन कृसानुहि॥
जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भञ्जन भव भीरहि॥4॥

भावार्थ

संशय और शोक रूपी घने अन्धकार का नाश करने वाले श्री राम रूप सूर्य को भजो। राक्षस रूपी घने वन को जलाने वाले श्री राम रूप अग्नि को भजो। जन्म-मृत्यु के भय को नाश करने वाले श्री जानकी समेत श्री रघुवीर को क्यों नहीं भजते?॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहु बासना मसक हिम रासिहि। सदा एकरस अज अबिनासिहि॥
मुनि रञ्जन भञ्जन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि॥5॥

मूल

बहु बासना मसक हिम रासिहि। सदा एकरस अज अबिनासिहि॥
मुनि रञ्जन भञ्जन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि॥5॥

भावार्थ

बहुत सी वासनाओं रूपी मच्छरों को नाश करने वाले श्री राम रूप हिमराशि (बर्फ के ढेर) को भजो। नित्य एकरस, अजन्मा और अविनाशी श्री रघुनाथजी को भजो। मुनियों को आनन्द देने वाले, पृथ्वी का भार उतारने वाले और तुलसीदास के उदार (दयालु) स्वामी श्री रामजी को भजो॥5॥