022

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

दण्ड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचन्द्र कें राज॥22॥

मूल

दण्ड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचन्द्र कें राज॥22॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के राज्य में दण्ड केवल सन्न्यासियों के हाथों में है और भेद नाचने वालों के नृत्य समाज में है और ‘जीतो’ शब्द केवल मन के जीतने के लिए ही सुनाई पडता है (अर्थात्‌ राजनीति में शत्रुओं को जीतने तथा चोर-डाकुओं आदि को दमन करने के लिए साम, दान, दण्ड और भेद- ये चार उपाय किए जाते हैं। रामराज्य में कोई शत्रु है ही नहीं, इसलिए ‘जीतो’ शब्द केवल मन के जीतने के लिए कहा जाता है। कोई अपराध करता ही नहीं, इसलिए दण्ड किसी को नहीं होता, दण्ड शब्द केवल सन्न्यासियों के हाथ में रहने वाले दण्ड के लिए ही रह गया है तथा सभी अनुकूल होने के कारण भेदनीति की आवश्यकता ही नहीं रह गई। भेद, शब्द केवल सुर-ताल के भेद के लिए ही कामों में आता है।)॥22॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहिं एक सँग गज पञ्चानन॥
खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढाई॥1॥

मूल

फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन। रहहिं एक सँग गज पञ्चानन॥
खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढाई॥1॥

भावार्थ

वनों में वृक्ष सदा फूलते और फलते हैं। हाथी और सिंह (वैर भूलकर) एक साथ रहते हैं। पक्षी और पशु सभी ने स्वाभाविक वैर भुलाकर आपस में प्रेम बढा लिया है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कूजहिं खग मृग नाना बृन्दा। अभय चरहिं बन करहिं अनन्दा॥
सीतल सुरभि पवन बह मन्दा। गुञ्जत अलि लै चलि मकरन्दा॥2॥

मूल

कूजहिं खग मृग नाना बृन्दा। अभय चरहिं बन करहिं अनन्दा॥
सीतल सुरभि पवन बह मन्दा। गुञ्जत अलि लै चलि मकरन्दा॥2॥

भावार्थ

पक्षी कूजते (मीठी बोली बोलते) हैं, भाँति-भाँति के पशुओं के समूह वन में निर्भय विचरते और आनन्द करते हैं। शीतल, मन्द, सुगन्धित पवन चलता रहता है। भौंरे पुष्पों का रस लेकर चलते हुए गुञ्जार करते जाते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लता बिटप मागें मधु चवहीं। मनभावतो धेनु पय स्रवहीं॥
ससि सम्पन्न सदा रह धरनी। त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी॥3॥

मूल

लता बिटप मागें मधु चवहीं। मनभावतो धेनु पय स्रवहीं॥
ससि सम्पन्न सदा रह धरनी। त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी॥3॥

भावार्थ

बेलें और वृक्ष माँगने से ही मधु (मकरन्द) टपका देते हैं। गायें मनचाहा दूध देती हैं। धरती सदा खेती से भरी रहती है। त्रेता में सत्ययुग की करनी (स्थिति) हो गई॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रगटीं गिरिन्ह बिबिधि मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी॥
सरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी॥4॥

मूल

प्रगटीं गिरिन्ह बिबिधि मनि खानी। जगदातमा भूप जग जानी॥
सरिता सकल बहहिं बर बारी। सीतल अमल स्वाद सुखकारी॥4॥

भावार्थ

समस्त जगत्‌ के आत्मा भगवान्‌ को जगत्‌ का राजा जानकर पर्वतों ने अनेक प्रकार की मणियों की खानें प्रकट कर दीं। सब नदियाँ श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल और सुखप्रद स्वादिष्ट जल बहाने लगीं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं॥
सरसिज सङ्कुल सकल तडागा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा॥5॥

मूल

सागर निज मरजादाँ रहहीं। डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं॥
सरसिज सङ्कुल सकल तडागा। अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा॥5॥

भावार्थ

समुद्र अपनी मर्यादा में रहते हैं। वे लहरों द्वारा किनारों पर रत्न डाल देते हैं, जिन्हें मनुष्य पा जाते हैं। सब तालाब कमलों से परिपूर्ण हैं। दसों दिशाओं के विभाग (अर्थात्‌ सभी प्रदेश) अत्यन्त प्रसन्न हैं॥5॥