019

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहेहु दण्डवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि।
बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि॥1॥

मूल

कहेहु दण्डवत प्रभु सैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि।
बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि॥1॥

भावार्थ

मैं तुमसे हाथ जोडकर कहता हूँ, प्रभु से मेरी दण्डवत्‌ कहना और श्री रघुनाथजी को बार-बार मेरी याद कराते रहना॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमन्त।
तासु प्रीति प्रभु सन कही मगन भए भगवन्त॥2॥

मूल

अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ हनुमन्त।
तासु प्रीति प्रभु सन कही मगन भए भगवन्त॥2॥

भावार्थ

ऐसा कहकर बालिपुत्र अङ्गद चले, तब हनुमान्‌जी लौट आए और आकर प्रभु से उनका प्रेम वर्णन किया। उसे सुनकर भगवान्‌ प्रेममग्न हो गए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि॥3॥

मूल

कुलिसहु चाहि कठोर अति कोमल कुसुमहु चाहि।
चित्त खगेस राम कर समुझि परइ कहु काहि॥3॥

भावार्थ

(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुडजी! श्री रामजी का चित्त वज्र से भी अत्यन्त कठोर और फूल से भी अत्यन्त कोमल है। तब कहिए, वह किसकी समझ में आ सकता है?॥3॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा। दीन्हे भूषन बसन प्रसादा॥
जाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू॥1॥

मूल

पुनि कृपाल लियो बोलि निषादा। दीन्हे भूषन बसन प्रसादा॥
जाहु भवन मम सुमिरन करेहू। मन क्रम बचन धर्म अनुसरेहू॥1॥

भावार्थ

फिर कृपालु श्री रामजी ने निषादराज को बुला लिया और उसे भूषण, वस्त्र प्रसाद में दिए (फिर कहा-) अब तुम भी घर जाओ, वहाँ मेरा स्मरण करते रहना और मन, वचन तथा कर्म से धर्म के अनुसार चलना॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता॥
बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी॥2॥

मूल

तुम्ह मम सखा भरत सम भ्राता। सदा रहेहु पुर आवत जाता॥
बचन सुनत उपजा सुख भारी। परेउ चरन भरि लोचन बारी॥2॥

भावार्थ

तुम मेरे मित्र हो और भरत के समान भाई हो। अयोध्या में सदा आते-जाते रहना। यह वचन सुनते ही उसको भारी सुख उत्पन्न हुआ। नेत्रों में (आनन्द और प्रेम के आँसुओं का) जल भरकर वह चरणों में गिर पडा॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन नलिन उर धरि गृह आवा। प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा॥
रघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी॥3॥

मूल

चरन नलिन उर धरि गृह आवा। प्रभु सुभाउ परिजनन्हि सुनावा॥
रघुपति चरित देखि पुरबासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी॥3॥

भावार्थ

फिर भगवान्‌ के चरणकमलों को हृदय में रखकर वह घर आया और आकर अपने कुटुम्बियों को उसने प्रभु का स्वभाव सुनाया। श्री रघुनाथजी का यह चरित्र देखकर अवधपुरवासी बार-बार कहते हैं कि सुख की राशि श्री रामचन्द्रजी धन्य हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राज बैठें त्रैलोका। हरषित भए गए सब सोका॥
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई॥4॥

मूल

राम राज बैठें त्रैलोका। हरषित भए गए सब सोका॥
बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप बिषमता खोई॥4॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के राज्य पर प्रतिष्ठित होने पर तीनों लोक हर्षित हो गए, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसी से वैर नहीं करता। श्री रामचन्द्रजी के प्रताप से सबकी विषमता (आन्तरिक भेदभाव) मिट गई॥4॥