018

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव।
प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव॥1॥

मूल

अङ्गद बचन बिनीत सुनि रघुपति करुना सींव।
प्रभु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव॥1॥

भावार्थ

अङ्गद के विनम्र वचन सुनकर करुणा की सीमा प्रभु श्री रघुनाथजी ने उनको उठाकर हृदय से लगा लिया। प्रभु के नेत्र कमलों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ।
बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ॥2॥

मूल

निज उर माल बसन मनि बालितनय पहिराइ।
बिदा कीन्हि भगवान तब बहु प्रकार समुझाइ॥2॥

भावार्थ

तब भगवान्‌ ने अपने हृदय की माला, वस्त्र और मणि (रत्नों के आभूषण) बालि पुत्र अङ्गद को पहनाकर और बहुत प्रकार से समझाकर उनकी विदाई की॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरत अनुज सौमित्रि समेता। पठवन चले भगत कृत चेता॥
अङ्गद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा। फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा॥1॥

मूल

भरत अनुज सौमित्रि समेता। पठवन चले भगत कृत चेता॥
अङ्गद हृदयँ प्रेम नहिं थोरा। फिरि फिरि चितव राम कीं ओरा॥1॥

भावार्थ

भक्त की करनी को याद करके भरतजी छोटे भाई शत्रुघ्नजी और लक्ष्मणजी सहित उनको पहुँचाने चले। अङ्गद के हृदय में थोडा प्रेम नहीं है (अर्थात्‌ बहुत अधिक प्रेम है)। वे फिर-फिरकर श्री रामजी की ओर देखते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बार बार कर दण्ड प्रनामा। मन अस रहन कहहिं मोहि रामा॥
राम बिलोकनि बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी॥2॥

मूल

बार बार कर दण्ड प्रनामा। मन अस रहन कहहिं मोहि रामा॥
राम बिलोकनि बोलनि चलनी। सुमिरि सुमिरि सोचत हँसि मिलनी॥2॥

भावार्थ

और बार-बार दण्डवत प्रणाम करते हैं। मन में ऐसा आता है कि श्री रामजी मुझे रहने को कह दें। वे श्री रामजी के देखने की, बोलने की, चलने की तथा हँसकर मिलने की रीति को याद कर-करके सोचते हैं (दुःखी होते हैं)॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी। चलेउ हृदयँ पद पङ्कज राखी॥
अति आदर सब कपि पहुँचाए। भाइन्ह सहित भरत पुनि आए॥3॥

मूल

प्रभु रुख देखि बिनय बहु भाषी। चलेउ हृदयँ पद पङ्कज राखी॥
अति आदर सब कपि पहुँचाए। भाइन्ह सहित भरत पुनि आए॥3॥

भावार्थ

किन्तु प्रभु का रुख देखकर, बहुत से विनय वचन कहकर तथा हृदय में चरणकमलों को रखकर वे चले। अत्यन्त आदर के साथ सब वानरों को पहुँचाकर भाइयों सहित भरतजी लौट आए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब सुग्रीव चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना॥
दिन दस करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहउँ देवा॥4॥

मूल

तब सुग्रीव चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे हनुमाना॥
दिन दस करि रघुपति पद सेवा। पुनि तव चरन देखिहउँ देवा॥4॥

भावार्थ

तब हनुमान्‌जी ने सुग्रीव के चरण पकडकर अनेक प्रकार से विनती की और कहा- हे देव! दस (कुछ) दिन श्री रघुनाथजी की चरणसेवा करके फिर मैं आकर आपके चरणों के दर्शन करूँगा॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुन्य पुञ्ज तुम्ह पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा॥
अस कहि कपि सब चले तुरन्ता। अङ्गद कहइ सुनहु हनुमन्ता॥5॥

मूल

पुन्य पुञ्ज तुम्ह पवनकुमारा। सेवहु जाइ कृपा आगारा॥
अस कहि कपि सब चले तुरन्ता। अङ्गद कहइ सुनहु हनुमन्ता॥5॥

भावार्थ

(सुग्रीव ने कहा-) हे पवनकुमार! तुम पुण्य की राशि हो (जो भगवान्‌ ने तुमको अपनी सेवा में रख लिया)। जाकर कृपाधाम श्री रामजी की सेवा करो। सब वानर ऐसा कहकर तुरन्त चल पडे। अङ्गद ने कहा- हे हनुमान्‌ ! सुनो-॥5॥