01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
जामवन्त नीलादि सब पहिराए रघुनाथ।
हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ॥1॥
मूल
जामवन्त नीलादि सब पहिराए रघुनाथ।
हियँ धरि राम रूप सब चले नाइ पद माथ॥1॥
भावार्थ
जाम्बवान् और नील आदि सबको श्री रघुनाथजी ने स्वयं भूषण-वस्त्र पहनाए। वे सब अपने हृदयों में श्री रामचन्द्रजी के रूप को धारण करके उनके चरणों में मस्तक नवाकर चले॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब अङ्गद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि।
अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रसबोरि॥2॥
मूल
तब अङ्गद उठि नाइ सिरु सजल नयन कर जोरि।
अति बिनीत बोलेउ बचन मनहुँ प्रेम रसबोरि॥2॥
भावार्थ
तब अङ्गद उठकर सिर नवाकर, नेत्रों में जल भरकर और हाथ जोडकर अत्यन्त विनम्र तथा मानो प्रेम के रस में डुबोए हुए (मधुर) वचन बोले-॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिन्धो। दीन दयाकर आरत बन्धो॥
मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोञ्छें घाली॥1॥
मूल
सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिन्धो। दीन दयाकर आरत बन्धो॥
मरती बेर नाथ मोहि बाली। गयउ तुम्हारेहि कोञ्छें घाली॥1॥
भावार्थ
हे सर्वज्ञ! हे कृपा और सुख के समुद्र! हे दीनों पर दया करने वाले! हे आर्तों के बन्धु! सुनिए! हे नाथ! मरते समय मेरा पिता बालि मुझे आपकी ही गोद में डाल गया था॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असरन सरन बिरदु सम्भारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी॥
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता॥2॥
मूल
असरन सरन बिरदु सम्भारी। मोहि जनि तजहु भगत हितकारी॥
मोरें तुम्ह प्रभु गुर पितु माता। जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता॥2॥
भावार्थ
अतः हे भक्तों के हितकारी! अपना अशरण-शरण विरद (बाना) याद करके मुझे त्यागिए नहीं। मेरे तो स्वामी, गुरु, पिता और माता सब कुछ आप ही हैं। आपके चरणकमलों को छोडकर मैं कहाँ जाऊँ?॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा॥
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना॥3॥
मूल
तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा। प्रभु तजि भवन काज मम काहा॥
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना। राखहु सरन नाथ जन दीना॥3॥
भावार्थ
हे महाराज! आप ही विचारकर कहिए, प्रभु (आप) को छोडकर घर में मेरा क्या काम है? हे नाथ! इस ज्ञान, बुद्धि और बल से हीन बालक तथा दीन सेवक को शरण में रखिए॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ। पद पङ्कज बिलोकि भव तरिहउँ॥
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही॥4॥
मूल
नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ। पद पङ्कज बिलोकि भव तरिहउँ॥
अस कहि चरन परेउ प्रभु पाही। अब जनि नाथ कहहु गृह जाही॥4॥
भावार्थ
मैं घर की सब नीची से नीची सेवा करूँगा और आपके चरणकमलों को देख-देखकर भवसागर से तर जाऊँगा। ऐसा कहकर वे श्री रामजी के चरणों में गिर पडे (और बोले-) हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए। हे नाथ! अब यह न कहिए कि तू घर जा॥4॥