01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ नेम।
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम॥16॥
मूल
अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ नेम।
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम॥16॥
भावार्थ
हे सखागण! अब सब लोग घर जाओ, वहाँ दृढ नियम से मुझे भजते रहना। मुझे सदा सर्वव्यापक और सबका हित करने वाला जानकर अत्यन्त प्रेम करना॥16॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। को हम कहाँ बिसरि तन गए॥
एकटक रहे जोरि कर आगे। सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे॥1॥
मूल
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। को हम कहाँ बिसरि तन गए॥
एकटक रहे जोरि कर आगे। सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे॥1॥
भावार्थ
प्रभु के वचन सुनकर सब के सब प्रेममग्न हो गए। हम कौन हैं और कहाँ हैं? यह देह की सुध भी भूल गई। वे प्रभु के सामने हाथ जोडकर टकटकी लगाए देखते ही रह गए। अत्यन्त प्रेम के कारण कुछ कह नहीं सकते॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा। कहा बिबिधि बिधि ग्यान बिसेषा॥
प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं॥2॥
मूल
परम प्रेम तिन्ह कर प्रभु देखा। कहा बिबिधि बिधि ग्यान बिसेषा॥
प्रभु सन्मुख कछु कहन न पारहिं। पुनि पुनि चरन सरोज निहारहिं॥2॥
भावार्थ
प्रभु ने उनका अत्यन्त प्रेम देखा, (तब) उन्हें अनेकों प्रकार से विशेष ज्ञान का उपदेश दिया। प्रभु के सम्मुख वे कुछ कह नहीं सकते। बार-बार प्रभु के चरणकमलों को देखते हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब प्रभु भूषन बसन मगाए। नाना रङ्ग अनूप सुहाए॥
सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए॥3॥
मूल
तब प्रभु भूषन बसन मगाए। नाना रङ्ग अनूप सुहाए॥
सुग्रीवहि प्रथमहिं पहिराए। बसन भरत निज हाथ बनाए॥3॥
भावार्थ
तब प्रभु ने अनेक रङ्गों के अनुपम और सुन्दर गहने-कपडे मँगवाए। सबसे पहले भरतजी ने अपने हाथ से सँवारकर सुग्रीव को वस्त्राभूषण पहनाए॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए। लङ्कापति रघुपति मन भाए॥
अङ्गद बैठ रहा नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला॥4॥
मूल
प्रभु प्रेरित लछिमन पहिराए। लङ्कापति रघुपति मन भाए॥
अङ्गद बैठ रहा नहिं डोला। प्रीति देखि प्रभु ताहि न बोला॥4॥
भावार्थ
फिर प्रभु की प्रेरणा से लक्ष्मणजी ने विभीषणजी को गहने-कपडे पहनाए, जो श्री रघुनाथजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे। अङ्गद बैठे ही रहे, वे अपनी जगह से हिले तक नहीं। उनका उत्कट प्रेम देखकर प्रभु ने उनको नहीं बुलाया॥4॥