01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार।
अन्तर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार॥1॥
मूल
सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार।
अन्तर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार॥1॥
भावार्थ
वेदों ने सबके देखते यह श्रेष्ठ विनती की। फिर वे अन्तर्धान हो गए और ब्रह्मलोक को चले गए॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बैनतेय सुनु सम्भु तब आए जहँ रघुबीर।
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर॥2॥
मूल
बैनतेय सुनु सम्भु तब आए जहँ रघुबीर।
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर॥2॥
भावार्थ
काकभुशुण्डिजी कहते हैं- हे गरुडजी ! सुनिए, तब शिवजी वहाँ आए जहाँ श्री रघुवीर थे और गद्गद् वाणी से स्तुति करने लगे। उनका शरीर पुलकावली से पूर्ण हो गया-॥2॥
02 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहि जनं॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो॥1॥
मूल
जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहि जनं॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो। सरनागत मागत पाहि प्रभो॥1॥
भावार्थ
हे राम! हे रमारमण (लक्ष्मीकान्त)! हे जन्म-मरण के सन्ताप का नाश करने वाले! आपकी जय हो, आवागमन के भय से व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिए। हे अवधपति! हे देवताओं के स्वामी! हे रमापति! हे विभो! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा॥
रजनीचर बृन्द पतङ्ग रहे। सर पावक तेज प्रचण्ड दहे॥2॥
मूल
दससीस बिनासन बीस भुजा। कृत दूरि महा महि भूरि रुजा॥
रजनीचर बृन्द पतङ्ग रहे। सर पावक तेज प्रचण्ड दहे॥2॥
भावार्थ
हे दस सिर और बीस भुजाओं वाले रावण का विनाश करके पृथ्वी के सब महान् रोगों (कष्टों) को दूर करने वाले श्री रामजी! राक्षस समूह रूपी जो पतङ्गे थे, वे सब आपके बाण रूपी अग्नि के प्रचण्ड तेज से भस्म हो गए॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महि मण्डल मण्डन चारुतरं। धृत सायक चाप निषङ्ग बरं।
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुञ्ज दिवाकर तेज अनी॥3॥
मूल
महि मण्डल मण्डन चारुतरं। धृत सायक चाप निषङ्ग बरं।
मद मोह महा ममता रजनी। तम पुञ्ज दिवाकर तेज अनी॥3॥
भावार्थ
आप पृथ्वी मण्डल के अत्यन्त सुन्दर आभूषण हैं, आप श्रेष्ठ बाण, धनुष और तरकस धारण किए हुए हैं। महान् मद, मोह और ममता रूपी रात्रि के अन्धकार समूह के नाश करने के लिए आप सूर्य के तेजोमय किरण समूह हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए॥
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे॥4॥
मूल
मनजात किरात निपात किए। मृग लोग कुभोग सरेन हिए॥
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे। बिषया बन पावँर भूलि परे॥4॥
भावार्थ
कामदेव रूपी भील ने मनुष्य रूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी बाण मारकर उन्हें गिरा दिया है। हे नाथ! हे (पाप-ताप का हरण करने वाले) हरे ! उसे मारकर विषय रूपी वन में भूल पडे हुए इन पामर अनाथ जीवों की रक्षा कीजिए॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदङ्घ्रि निरादर के फल ए॥
भव सिन्धु अगाध परे नर ते। पद पङ्कज प्रेम न जे करते॥5॥
मूल
बहु रोग बियोगन्हि लोग हए। भवदङ्घ्रि निरादर के फल ए॥
भव सिन्धु अगाध परे नर ते। पद पङ्कज प्रेम न जे करते॥5॥
भावार्थ
लोग बहुत से रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं। ये सब आपके चरणों के निरादर के फल हैं। जो मनुष्य आपके चरणकमलों में प्रेम नहीं करते, वे अथाह भवसागर में पडे हैं॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह कें पद पङ्कज प्रीति नहीं॥
अवलम्ब भवन्त कथा जिन्ह कें। प्रिय सन्त अनन्त सदा तिन्ह कें॥6॥
मूल
अति दीन मलीन दुखी नितहीं। जिन्ह कें पद पङ्कज प्रीति नहीं॥
अवलम्ब भवन्त कथा जिन्ह कें। प्रिय सन्त अनन्त सदा तिन्ह कें॥6॥
भावार्थ
जिन्हें आपके चरणकमलों में प्रीति नहीं है वे नित्य ही अत्यन्त दीन, मलिन (उदास) और दुःखी रहते हैं और जिन्हें आपकी लीला कथा का आधार है, उनको सन्त और भगवान् सदा प्रिय लगने लगते हैं॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहिं राग न लोभ न मान सदा। तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा॥
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा॥7॥
मूल
नहिं राग न लोभ न मान सदा। तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा॥
एहि ते तव सेवक होत मुदा। मुनि त्यागत जोग भरोस सदा॥7॥
भावार्थ
उनमें न राग (आसक्ति) है, न लोभ, न मान है, न मद। उनको सम्पत्ति सुख और विपत्ति (दुःख) समान है। इसी से मुनि लोग योग (साधन) का भरोसा सदा के लिए त्याग देते हैं और प्रसन्नता के साथ आपके सेवक बन जाते हैं॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि प्रेम निरन्तर नेम लिएँ। पद पङ्कज सेवत सुद्ध हिएँ॥
सम मानि निरादर आदरही। सब सन्तु सुखी बिचरन्ति मही॥8॥
मूल
करि प्रेम निरन्तर नेम लिएँ। पद पङ्कज सेवत सुद्ध हिएँ॥
सम मानि निरादर आदरही। सब सन्तु सुखी बिचरन्ति मही॥8॥
भावार्थ
वे प्रेमपूर्वक नियम लेकर निरन्तर शुद्ध हृदय से आपके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं और निरादर और आदर को समान मानकर वे सब सन्त सुखी होकर पृथ्वी पर विचरते हैं॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनि मानस पङ्कज भृङ्ग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे॥
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी॥9॥
मूल
मुनि मानस पङ्कज भृङ्ग भजे। रघुबीर महा रनधीर अजे॥
तव नाम जपामि नमामि हरी। भव रोग महागद मान अरी॥9॥
भावार्थ
हे मुनियों के मन रूपी कमल के भ्रमर! हे महान् रणधीर एवं अजेय श्री रघुवीर! मैं आपको भजता हूँ (आपकी शरण ग्रहण करता हूँ) हे हरि! आपका नाम जपता हूँ और आपको नमस्कार करता हूँ। आप जन्म-मरण रूपी रोग की महान् औषध और अभिमान के शत्रु हैं॥9॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरन्तर श्रीरमनं॥
रघुनन्द निकन्दय द्वन्द्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं॥10॥
मूल
गुन सील कृपा परमायतनं। प्रनमामि निरन्तर श्रीरमनं॥
रघुनन्द निकन्दय द्वन्द्वघनं। महिपाल बिलोकय दीन जनं॥10॥
भावार्थ
आप गुण, शील और कृपा के परम स्थान हैं। आप लक्ष्मीपति हैं, मैं आपको निरन्तर प्रणाम करता हूँ। हे रघुनन्दन! (आप जन्म-मरण, सुख-दुःख, राग-द्वेषादि) द्वन्द्व समूहों का नाश कीजिए। हे पृथ्वी का पालन करने वाले राजन्। इस दीन जन की ओर भी दृष्टि डालिए॥10॥