01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब मुनि कहेउ सुमन्त्र सन सुनत चलेउ हरषाइ।
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ॥1॥
मूल
तब मुनि कहेउ सुमन्त्र सन सुनत चलेउ हरषाइ।
रथ अनेक बहु बाजि गज तुरत सँवारे जाइ॥1॥
भावार्थ
तब मुनि ने सुमन्त्रजी से कहा, वे सुनते ही हर्षित होकर चले। उन्होन्ने तुरन्त ही जाकर अनेकों रथ, घोडे और हाथी सजाए,॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मङ्गल द्रब्य मगाइ।
हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ॥2॥
मूल
जहँ तहँ धावन पठइ पुनि मङ्गल द्रब्य मगाइ।
हरष समेत बसिष्ट पद पुनि सिरु नायउ आइ॥2॥
भावार्थ
और जहाँ-तहाँ (सूचना देने वाले) दूतों को भेजकर माङ्गलिक वस्तुएँ मँगाकर फिर हर्ष के साथ आकर वशिष्ठजी के चरणों में सिर नवाया॥2॥
नवाह्नपारायण, आठवाँ विश्राम
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई॥
राम कहा सेवकन्ह बुलाई। प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई॥1॥
मूल
अवधपुरी अति रुचिर बनाई। देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई॥
राम कहा सेवकन्ह बुलाई। प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई॥1॥
भावार्थ
अवधपुरी बहुत ही सुन्दर सजाई गई। देवताओं ने पुष्पों की वर्षा की झडी लगा दी। श्री रामचन्द्रजी ने सेवकों को बुलाकर कहा कि तुम लोग जाकर पहले मेरे सखाओं को स्नान कराओ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए॥
पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे॥2॥
मूल
सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए। सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए॥
पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे। निज कर राम जटा निरुआरे॥2॥
भावार्थ
भगवान् के वचन सुनते ही सेवक जहाँ-तहाँ दौडे और तुरन्त ही उन्होन्ने सुग्रीवादि को स्नान कराया। फिर करुणानिधान श्री रामजी ने भरतजी को बुलाया और उनकी जटाओं को अपने हाथों से सुलझाया॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई। भगत बछल कृपाल रघुराई॥
भरत भाग्य प्रभु कोमलताई। सेष कोटि सत सकहिं न गाई॥3॥
मूल
अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई। भगत बछल कृपाल रघुराई॥
भरत भाग्य प्रभु कोमलताई। सेष कोटि सत सकहिं न गाई॥3॥
भावार्थ
तदनन्तर भक्त वत्सल कृपालु प्रभु श्री रघुनाथजी ने तीनों भाइयों को स्नान कराया। भरतजी का भाग्य और प्रभु की कोमलता का वर्णन अरबों शेषजी भी नहीं कर सकते॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनि निज जटा राम बिबराए। गुर अनुसासन मागि नहाए॥
करि मज्जन प्रभु भूषन साजे। अङ्ग अनङ्ग देखि सत लाजे॥4॥
मूल
पुनि निज जटा राम बिबराए। गुर अनुसासन मागि नहाए॥
करि मज्जन प्रभु भूषन साजे। अङ्ग अनङ्ग देखि सत लाजे॥4॥
भावार्थ
फिर श्री रामजी ने अपनी जटाएँ खोलीं और गुरुजी की आज्ञा माँगकर स्नान किया। स्नान करके प्रभु ने आभूषण धारण किए। उनके (सुशोभित) अङ्गों को देखकर सैकडों (असङ्ख्य) कामदेव लजा गए॥4॥