009

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस।
अस्त भएँ बिगसत भईं निरखि राम राकेस॥1॥

मूल

नारि कुमुदिनीं अवध सर रघुपति बिरह दिनेस।
अस्त भएँ बिगसत भईं निरखि राम राकेस॥1॥

भावार्थ

स्त्रियाँ कुमुदनी हैं, अयोध्या सरोवर है और श्री रघुनाथजी का विरह सूर्य है (इस विरह सूर्य के ताप से वे मुरझा गई थीं)। अब उस विरह रूपी सूर्य के अस्त होने पर श्री राम रूपी पूर्णचन्द्र को निरखकर वे खिल उठीं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

होहिं सगुन सुभ बिबिधि बिधि बाजहिं गगन निसान।
पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान॥2॥

मूल

होहिं सगुन सुभ बिबिधि बिधि बाजहिं गगन निसान।
पुर नर नारि सनाथ करि भवन चले भगवान॥2॥

भावार्थ

अनेक प्रकार के शुभ शकुन हो रहे हैं, आकाश में नगाडे बज रहे हैं। नगर के पुरुषों और स्त्रियों को सनाथ (दर्शन द्वारा कृतार्थ) करके भगवान्‌ श्री रामचन्द्रजी महल को चले॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु जानी कैकई लजानी। प्रथम तासु गृह गए भवानी॥
ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा॥1॥

मूल

प्रभु जानी कैकई लजानी। प्रथम तासु गृह गए भवानी॥
ताहि प्रबोधि बहुत सुख दीन्हा। पुनि निज भवन गवन हरि कीन्हा॥1॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! प्रभु ने जान लिया कि माता कैकेयी लज्जित हो गई हैं (इसलिए), वे पहले उन्हीं के महल को गए और उन्हें समझा-बुझाकर बहुत सुख दिया। फिर श्री हरि ने अपने महल को गमन किया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृपासिन्धु जब मन्दिर गए। पुर नर नारि सुखी सब भए॥
गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई। आजु सुघरी सुदिन समुदाई॥2॥

मूल

कृपासिन्धु जब मन्दिर गए। पुर नर नारि सुखी सब भए॥
गुर बसिष्ट द्विज लिए बुलाई। आजु सुघरी सुदिन समुदाई॥2॥

भावार्थ

कृपा के समुद्र श्री रामजी जब अपने महल को गए, तब नगर के स्त्री-पुरुष सब सुखी हुए। गुरु वशिष्ठजी ने ब्राह्मणों को बुला लिया और कहा आज शुभ घडी, सुन्दर दिन आदि सभी शुभ योग हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सब द्विज देहु हरषि अनुसासन। रामचन्द्र बैठहिं सिङ्घासन॥
मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए। सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए॥3॥

मूल

सब द्विज देहु हरषि अनुसासन। रामचन्द्र बैठहिं सिङ्घासन॥
मुनि बसिष्ट के बचन सुहाए। सुनत सकल बिप्रन्ह अति भाए॥3॥

भावार्थ

आप सब ब्राह्मण हर्षित होकर आज्ञा दीजिए, जिसमें श्री रामचन्द्रजी सिंहासन पर विराजमान हों। वशिष्ठ मुनि के सुहावने वचन सुनते ही सब ब्राह्मणों को बहुत ही अच्छे लगे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका। जग अभिराम राम अभिषेका॥
अब मुनिबर बिलम्ब नहिं कीजै। महाराज कहँ तिलक करीजै॥4॥

मूल

कहहिं बचन मृदु बिप्र अनेका। जग अभिराम राम अभिषेका॥
अब मुनिबर बिलम्ब नहिं कीजै। महाराज कहँ तिलक करीजै॥4॥

भावार्थ

वे सब अनेकों ब्राह्मण कोमल वचन कहने लगे कि श्री रामजी का राज्याभिषेक सम्पूर्ण जगत को आनन्द देने वाला है। हे मुनिश्रेष्ठ! अब विलम्ब न कीजिए और महाराज का तिलक शीघ्र कीजिए॥4॥