006

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

भेण्टेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि।
रामहि मिलत कैकई हृदयँ बहुत सकुचानि॥1॥

मूल

भेण्टेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि।
रामहि मिलत कैकई हृदयँ बहुत सकुचानि॥1॥

भावार्थ

सुमित्राजी अपने पुत्र लक्ष्मणजी की श्री रामजी के चरणों में प्रीति जानकर उनसे मिलीं। श्री रामजी से मिलते समय कैकेयीजी हृदय में बहुत सकुचाईं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ।
कैकइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ॥2॥

मूल

लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ।
कैकइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ॥2॥

भावार्थ

लक्ष्मणजी भी सब माताओं से मिलकर और आशीर्वाद पाकर हर्षित हुए। वे कैकेयीजी से बार-बार मिले, परन्तु उनके मन का क्षोभ (रोष) नहीं जाता॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सासुन्ह सबनि मिली बैदेही । चरनन्हि लाग हरषु अति तेही॥
देहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता॥1॥

मूल

सासुन्ह सबनि मिली बैदेही । चरनन्हि लाग हरषु अति तेही॥
देहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता॥1॥

भावार्थ

जानकीजी सब सासुओं से मिलीं और उनके चरणों में लगकर उन्हें अत्यन्त हर्ष हुआ। सासुएँ कुशल पूछकर आशीष दे रही हैं कि तुम्हारा सुहाग अचल हो॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं। मङ्गल जानि नयन जल रोकहिं॥
कनक थार आरती उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं॥2॥

मूल

सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं। मङ्गल जानि नयन जल रोकहिं॥
कनक थार आरती उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं॥2॥

भावार्थ

सब माताएँ श्री रघुनाथजी का कमल सा मुखडा देख रही हैं। (नेत्रों से प्रेम के आँसू उमडे आते हैं, परन्तु) मङ्गल का समय जानकर वे आँसुओं के जल को नेत्रों में ही रोक रखती हैं। सोने के थाल से आरती उतारती हैं और बार-बार प्रभु के श्री अङ्गों की ओर देखती हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाना भाँति निछावरि करहीं। परमानन्द हरष उर भरहीं॥
कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिन्धु रनधीरहि॥3॥

मूल

नाना भाँति निछावरि करहीं। परमानन्द हरष उर भरहीं॥
कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिन्धु रनधीरहि॥3॥

भावार्थ

अनेकों प्रकार से निछावरें करती हैं और हृदय में परमानन्द तथा हर्ष भर रही हैं। कौसल्याजी बार-बार कृपा के समुद्र और रणधीर श्री रघुवीर को देख रही हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृदयँ बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लङ्कापति मारा॥
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे॥4॥

मूल

हृदयँ बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लङ्कापति मारा॥
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे॥4॥

भावार्थ

वे बार-बार हृदय में विचारती हैं कि इन्होन्ने लङ्कापति रावण को कैसे मारा? मेरे ये दोनों बच्चे बडे ही सुकुमार हैं और राक्षस तो बडे भारी योद्धा और महान्‌ बली थे॥4॥