01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेण्टे हृदयँ लगाइ।
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ॥5॥
मूल
पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेण्टे हृदयँ लगाइ।
लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ॥5॥
भावार्थ
फिर प्रभु हर्षित होकर शत्रुघ्नजी को हृदय से लगाकर उनसे मिले। तब लक्ष्मणजी और भरतजी दोनों भाई परम प्रेम से मिले॥5॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
भरतानुज लछिमन पुनि भेण्टे। दुसह बिरह सम्भव दुख मेटे॥
सीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा॥1॥
मूल
भरतानुज लछिमन पुनि भेण्टे। दुसह बिरह सम्भव दुख मेटे॥
सीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा॥1॥
भावार्थ
फिर लक्ष्मणजी शत्रुघ्नजी से गले लगकर मिले और इस प्रकार विरह से उत्पन्न दुःसह दुःख का नाश किया। फिर भाई शत्रुघ्नजी सहित भरतजी ने सीताजी के चरणों में सिर नवाया और परम सुख प्राप्त किया॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी। जनित बियोग बिपति सब नासी॥
प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी॥2॥
मूल
प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी। जनित बियोग बिपति सब नासी॥
प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी॥2॥
भावार्थ
प्रभु को देखकर अयोध्यावासी सब हर्षित हुए। वियोग से उत्पन्न सब दुःख नष्ट हो गए। सब लोगों को प्रेम विह्नल (और मिलने के लिए अत्यन्त आतुर) देखकर खर के शत्रु कृपालु श्री रामजी ने एक चमत्कार किया॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला॥
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी॥3॥
मूल
अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला॥
कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी॥3॥
भावार्थ
उसी समय कृपालु श्री रामजी असङ्ख्य रूपों में प्रकट हो गए और सबसे (एक ही साथ) यथायोग्य मिले। श्री रघुवीर ने कृपा की दृष्टि से देखकर सब नर-नारियों को शोक से रहित कर दिया॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छन महिं सबहि मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जाना॥
एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा। आगें चले सील गुन धामा॥4॥
मूल
छन महिं सबहि मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जाना॥
एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा। आगें चले सील गुन धामा॥4॥
भावार्थ
भगवान् क्षण मात्र में सबसे मिल लिए। हे उमा! यह रहस्य किसी ने नहीं जाना। इस प्रकार शील और गुणों के धाम श्री रामजी सबको सुखी करके आगे बढे॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौसल्यादि मातु सब धाई। निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई॥5॥
मूल
कौसल्यादि मातु सब धाई। निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई॥5॥
भावार्थ
कौसल्या आदि माताएँ ऐसे दौडीं मानों नई ब्यायी हुई गायें अपने बछडों को देखकर दौडी हों॥5॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं।
दिन अन्त पुर रुख स्रवत थन हुङ्कार करि धावत भईं॥
अति प्रेम प्रभु सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे।
गइ बिषम बिपति बियोगभव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे॥
मूल
जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं।
दिन अन्त पुर रुख स्रवत थन हुङ्कार करि धावत भईं॥
अति प्रेम प्रभु सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे।
गइ बिषम बिपति बियोगभव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे॥
भावार्थ
मानो नई ब्यायी हुई गायें अपने छोटे बछडों को घर पर छोड परवश होकर वन में चरने गई हों और दिन का अन्त होने पर (बछडों से मिलने के लिए) हुँकार करके थन से दूध गिराती हुईं नगर की ओर दौडी हों। प्रभु ने अत्यन्त प्रेम से सब माताओं से मिलकर उनसे बहुत प्रकार के कोमल वचन कहे। वियोग से उत्पन्न भयानक विपत्ति दूर हो गई और सबने (भगवान् से मिलकर और उनके वचन सुनकर) अगणित सुख और हर्ष प्राप्त किए।