003

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृन्द समेत।
चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत॥1॥

मूल

हरषित गुर परिजन अनुज भूसुर बृन्द समेत।
चले भरत मन प्रेम अति सन्मुख कृपानिकेत॥1॥

भावार्थ

गुरु वशिष्ठजी, कुटुम्बी, छोटे भाई शत्रुघ्न तथा ब्राह्मणों के समूह के साथ हर्षित होकर भरतजी अत्यन्त प्रेमपूर्ण मन से कृपाधाम श्री रामजी के सामने अर्थात्‌ उनकी अगवानी के लिए चले॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुतक चढीं अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान।
देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमङ्गल गान॥2॥

मूल

बहुतक चढीं अटारिन्ह निरखहिं गगन बिमान।
देखि मधुर सुर हरषित करहिं सुमङ्गल गान॥2॥

भावार्थ

बहुत सी स्त्रियाँ अटारियों पर चढीं आकाश में विमान देख रही हैं और उसे देखकर हर्षित होकर मीठे स्वर से सुन्दर मङ्गल गीत गा रही हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राका ससि रघुपति पुर सिन्धु देखि हरषान।
बढ्‌यो कोलाहल करत जनु नारि तरङ्ग समान॥3॥

मूल

राका ससि रघुपति पुर सिन्धु देखि हरषान।
बढ्‌यो कोलाहल करत जनु नारि तरङ्ग समान॥3॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी पूर्णिमा के चन्द्रमा हैं तथा अवधपुर समुद्र है, जो उस पूर्णचन्द्र को देखकर हर्षित हो रहा है और शोर करता हुआ बढ रहा है (इधर-उधर दौडती हुई) स्त्रियाँ उसकी तरङ्गों के समान लगती हैं॥3॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर॥
सुनु कपीस अङ्गद लङ्केसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा॥1॥

मूल

इहाँ भानुकुल कमल दिवाकर। कपिन्ह देखावत नगर मनोहर॥
सुनु कपीस अङ्गद लङ्केसा। पावन पुरी रुचिर यह देसा॥1॥

भावार्थ

यहाँ (विमान पर से) सूर्य कुल रूपी कमल को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्री रामजी वानरों को मनोहर नगर दिखला रहे हैं। (वे कहते हैं-) हे सुग्रीव! हे अङ्गद! हे लङ्कापति विभीषण! सुनो। यह पुरी पवित्र है और यह देश सुन्दर है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जद्यपि सब बैकुण्ठ बखाना। बेद पुरान बिदित जगु जाना॥
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसङ्ग जानइ कोउ कोऊ॥2॥

मूल

जद्यपि सब बैकुण्ठ बखाना। बेद पुरान बिदित जगु जाना॥
अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसङ्ग जानइ कोउ कोऊ॥2॥

भावार्थ

यद्यपि सबने वैकुण्ठ की बडाई की है- यह वेद-पुराणों में प्रसिद्ध है और जगत्‌ जानता है, परन्तु अवधपुरी के समान मुझे वह भी प्रिय नहीं है। यह बात (भेद) कई-कोई (बिरले ही) जानते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि॥
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा॥3॥

मूल

जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तर दिसि बह सरजू पावनि॥
जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा। मम समीप नर पावहिं बासा॥3॥

भावार्थ

यह सुहावनी पुरी मेरी जन्मभूमि है। इसके उत्तर दिशा में जीवों को पवित्र करने वाली सरयू नदी बहती है, जिसमें स्नान करने से मनुष्य बिना ही परिश्रम मेरे समीप निवास (सामीप्य मुक्ति) पा जाते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी॥
हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी॥4॥

मूल

अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी॥
हरषे सब कपि सुनि प्रभु बानी। धन्य अवध जो राम बखानी॥4॥

भावार्थ

यहाँ के निवासी मुझे बहुत ही प्रिय हैं। यह पुरी सुख की राशि और मेरे परमधाम को देने वाली है। प्रभु की वाणी सुनकर सब वानर हर्षित हुए (और कहने लगे कि) जिस अवध की स्वयं श्री रामजी ने बडाई की, वह (अवश्य ही) धन्य है॥4॥