002

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात॥1॥

मूल

राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदयँ समात॥1॥

भावार्थ

(हनुमान्‌जी ने कहा-) हे नाथ! आप श्री रामजी को प्राणों के समान प्रिय हैं, हे तात! मेरा वचन सत्य है। यह सुनकर भरतजी बार-बार मिलते हैं, हृदय में हर्ष समाता नहीं है॥1॥

02 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं।
कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढि॥2॥

मूल

भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहिं।
कही कुसल सब जाइ हरषि चलेउ प्रभु जान चढि॥2॥

भावार्थ

फिर भरतजी के चरणों में सिर नवाकर हनुमान्‌जी तुरन्त ही श्री रामजी के पास (लौट) गए और जाकर उन्होन्ने सब कुशल कही। तब प्रभु हर्षित होकर विमान पर चढकर चले॥2॥

03 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरषि भरत कोसलपुर आए। समाचार सब गुरहि सुनाए॥
पुनि मन्दिर महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघुराई॥1॥

मूल

हरषि भरत कोसलपुर आए। समाचार सब गुरहि सुनाए॥
पुनि मन्दिर महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघुराई॥1॥

भावार्थ

इधर भरतजी भी हर्षित होकर अयोध्यापुरी में आए और उन्होन्ने गुरुजी को सब समाचार सुनाया! फिर राजमहल में खबर जनाई कि श्री रघुनाथजी कुशलपूर्वक नगर को आ रहे हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत सकल जननीं उठि धाईं। कहि प्रभु कुसल भरत समुझाईं॥
समाचार पुरबासिन्ह पाए। नर अरु नारि हरषि सब धाए॥2॥

मूल

सुनत सकल जननीं उठि धाईं। कहि प्रभु कुसल भरत समुझाईं॥
समाचार पुरबासिन्ह पाए। नर अरु नारि हरषि सब धाए॥2॥

भावार्थ

खबर सुनते ही सब माताएँ उठ दौडीं। भरतजी ने प्रभु की कुशल कहकर सबको समझाया। नगर निवासियों ने यह समाचार पाया, तो स्त्री-पुरुष सभी हर्षित होकर दौडे॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दधि दुर्बा रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मङ्गल मूला॥
भरि भरि हेम थार भामिनी। गावत चलिं सिन्धुरगामिनी॥3॥

मूल

दधि दुर्बा रोचन फल फूला। नव तुलसी दल मङ्गल मूला॥
भरि भरि हेम थार भामिनी। गावत चलिं सिन्धुरगामिनी॥3॥

भावार्थ

(श्री रामजी के स्वागत के लिए) दही, दूब, गोरोचन, फल, फूल और मङ्गल के मूल नवीन तुलसीदल आदि वस्तुएँ सोने की थाली में भर-भरकर हथिनी की सी चाल वाली सौभाग्यवती स्त्रियाँ (उन्हें लेकर) गाती हुई चलीं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे जैसेहिं तैसेहिं उठि धावहिं। बाल बृद्ध कहँ सङ्ग न लावहिं॥
एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई। तुम्ह देखे दयाल रघुराई॥4॥

मूल

जे जैसेहिं तैसेहिं उठि धावहिं। बाल बृद्ध कहँ सङ्ग न लावहिं॥
एक एकन्ह कहँ बूझहिं भाई। तुम्ह देखे दयाल रघुराई॥4॥

भावार्थ

जो जैसे हैं (जहाँ जिस दशा में हैं) वे वैसे ही (वहीं से उसी दशा में) उठ दौडते हैं। (देर हो जाने के डर से) बालकों और बूढों को कोई साथ नहीं लाते। एक-दूसरे से पूछते हैं- भाई! तुमने दयालु श्री रघुनाथजी को देखा है?॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवधपुरी प्रभु आवत जानी। भई सकल सोभा कै खानी॥
बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा। भइ सरजू अति निर्मल नीरा॥5॥

मूल

अवधपुरी प्रभु आवत जानी। भई सकल सोभा कै खानी॥
बहइ सुहावन त्रिबिध समीरा। भइ सरजू अति निर्मल नीरा॥5॥

भावार्थ

प्रभु को आते जानकर अवधपुरी सम्पूर्ण शोभाओं की खान हो गई। तीनों प्रकार की सुन्दर वायु बहने लगी। सरयूजी अति निर्मल जल वाली हो गईं। (अर्थात्‌ सरयूजी का जल अत्यन्त निर्मल हो गया)॥5॥