00
01 श्लोक
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं
वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्।
मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं
वन्दे ब्रह्मकुलं कलङ्कशमनं श्री रामभूपप्रियम्॥1॥
मूल
मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं
वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्।
मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं
वन्दे ब्रह्मकुलं कलङ्कशमनं श्री रामभूपप्रियम्॥1॥
भावार्थ
धर्म रूपी वृक्ष के मूल, विवेक रूपी समुद्र को आनन्द देने वाले पूर्णचन्द्र, वैराग्य रूपी कमल के (विकसित करने वाले) सूर्य, पाप रूपी घोर अन्धकार को निश्चय ही मिटाने वाले, तीनों तापों को हरने वाले, मोह रूपी बादलों के समूह को छिन्न-भिन्न करने की विधि (क्रिया) में आकाश से उत्पन्न पवन स्वरूप, ब्रह्माजी के वंशज (आत्मज) तथा कलङ्कनाशक, महाराज श्री रामचन्द्रजी के प्रिय श्री शङ्करजी की मैं वन्दना करता हूँ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं
पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्।
राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं
सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे॥2॥
मूल
सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं
पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम्।
राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं
सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे॥2॥
भावार्थ
जिनका शरीर जलयुक्त मेघों के समान सुन्दर (श्यामवर्ण) एवं आनन्दघन है, जो सुन्दर (वल्कल का) पीत वस्त्र धारण किए हैं, जिनके हाथों में बाण और धनुष हैं, कमर उत्तम तरकस के भार से सुशोभित है, कमल के समान विशाल नेत्र हैं और मस्तक पर जटाजूट धारण किए हैं, उन अत्यन्त शोभायमान श्री सीताजी और लक्ष्मणजी सहित मार्ग में चलते हुए आनन्द देने वाले श्री रामचन्द्रजी को मैं भजता हूँ॥2॥
02 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
उमा राम गुन गूढ पण्डित मुनि पावहिं बिरति।
पावहिं मोह बिमूढ जे हरि बिमुख न धर्म रति॥
मूल
उमा राम गुन गूढ पण्डित मुनि पावहिं बिरति।
पावहिं मोह बिमूढ जे हरि बिमुख न धर्म रति॥
भावार्थ
हे पार्वती! श्री रामजी के गुण गूढ हैं, पण्डित और मुनि उन्हें समझकर वैराग्य प्राप्त करते हैं, परन्तु जो भगवान से विमुख हैं और जिनका धर्म में प्रेम नहीं है, वे महामूढ (उन्हें सुनकर) मोह को प्राप्त होते हैं।
03 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई॥
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥1॥
मूल
पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई॥
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन॥1॥
भावार्थ
पुरवासियों के और भरतजी के अनुपम और सुन्दर प्रेम का मैन्ने अपनी बुद्धि के अनुसार गान किया। अब देवता, मनुष्य और मुनियों के मन को भाने वाले प्रभु श्री रामचन्द्रजी के वे अत्यन्त पवित्र चरित्र सुनो, जिन्हें वे वन में कर रहे हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए॥
सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुन्दर॥2॥
मूल
एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए॥
सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुन्दर॥2॥
भावार्थ
एक बार सुन्दर फूल चुनकर श्री रामजी ने अपने हाथों से भाँति-भाँति के गहने बनाए और सुन्दर स्फटिक शिला पर बैठे हुए प्रभु ने आदर के साथ वे गहने श्री सीताजी को पहनाए॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा॥
जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मन्दमति पावन चाहा॥3॥
मूल
सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा॥
जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मन्दमति पावन चाहा॥3॥
भावार्थ
देवराज इन्द्र का मूर्ख पुत्र जयन्त कौए का रूप धरकर श्री रघुनाथजी का बल देखना चाहता है। जैसे महान मन्दबुद्धि चीण्टी समुद्र का थाह पाना चाहती हो॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीता चरन चोञ्च हति भागा। मूढ मन्दमति कारन कागा॥
चला रुधिर रघुनायक जाना। सीङ्क धनुष सायक सन्धाना॥4॥
मूल
सीता चरन चोञ्च हति भागा। मूढ मन्दमति कारन कागा॥
चला रुधिर रघुनायक जाना। सीङ्क धनुष सायक सन्धाना॥4॥
भावार्थ
वह मूढ, मन्दबुद्धि कारण से (भगवान के बल की परीक्षा करने के लिए) बना हुआ कौआ सीताजी के चरणों में चोञ्च मारकर भागा। जब रक्त बह चला, तब श्री रघुनाथजी ने जाना और धनुष पर सीङ्क (सरकण्डे) का बाण सन्धान किया॥4॥
01
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह।
ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह॥1॥
मूल
अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह।
ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह॥1॥
भावार्थ
श्री रघुनाथजी, जो अत्यन्त ही कृपालु हैं और जिनका दीनों पर सदा प्रेम रहता है, उनसे भी उस अवगुणों के घर मूर्ख जयन्त ने आकर छल किया॥1॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेरित मन्त्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा॥
धरि निज रूप गयउ पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीं॥1॥
मूल
प्रेरित मन्त्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा॥
धरि निज रूप गयउ पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीं॥1॥
भावार्थ
मन्त्र से प्रेरित होकर वह ब्रह्मबाण दौडा। कौआ भयभीत होकर भाग चला। वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्र के पास गया, पर श्री रामजी का विरोधी जानकर इन्द्र ने उसको नहीं रखा॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
भा निरास उपजी मन त्रासा। जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा॥
ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका। फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका॥2॥
मूल
भा निरास उपजी मन त्रासा। जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा॥
ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका। फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका॥2॥
भावार्थ
तब वह निराश हो गया, उसके मन में भय उत्पन्न हो गया, जैसे दुर्वासा ऋषि को चक्र से भय हुआ था। वह ब्रह्मलोक, शिवलोक आदि समस्त लोकों में थका हुआ और भय-शोक से व्याकुल होकर भागता फिरा॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥
मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना॥3॥
मूल
काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥
मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना॥3॥
भावार्थ
(पर रखना तो दूर रहा) किसी ने उसे बैठने तक के लिए नहीं कहा। श्री रामजी के द्रोही को कौन रख सकता है? (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) है गरुड ! सुनिए, उसके लिए माता मृत्यु के समान, पिता यमराज के समान और अमृत विष के समान हो जाता है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मित्र करइ सत रिपु कै करनी। ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी॥
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता॥4॥
मूल
मित्र करइ सत रिपु कै करनी। ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी॥
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता॥4॥
भावार्थ
मित्र सैकडों शत्रुओं की सी करनी करने लगता है। देवनदी गङ्गाजी उसके लिए वैतरणी (यमपुरी की नदी) हो जाती है। हे भाई! सुनिए, जो श्री रघुनाथजी के विमुख होता है, समस्त जगत उनके लिए अग्नि से भी अधिक गरम (जलाने वाला) हो जाता है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नारद देखा बिकल जयन्ता। लगि दया कोमल चित सन्ता॥
पठवा तुरत राम पहिं ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही॥5॥
मूल
नारद देखा बिकल जयन्ता। लगि दया कोमल चित सन्ता॥
पठवा तुरत राम पहिं ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही॥5॥
भावार्थ
नारदजी ने जयन्त को व्याकुल देखा तो उन्हें दया आ गई, क्योङ्कि सन्तों का चित्त बडा कोमल होता है। उन्होन्ने उसे (समझाकर) तुरन्त श्री रामजी के पास भेज दिया। उसने (जाकर) पुकारकर कहा- हे शरणागत के हितकारी! मेरी रक्षा कीजिए॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
आतुर सभय गहेसि पद जाई। त्राहि त्राहि दयाल रघुराई॥
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमन्द जानि नहीं पाई॥6॥
मूल
आतुर सभय गहेसि पद जाई। त्राहि त्राहि दयाल रघुराई॥
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमन्द जानि नहीं पाई॥6॥
भावार्थ
आतुर और भयभीत जयन्त ने जाकर श्री रामजी के चरण पकड लिए (और कहा-) हे दयालु रघुनाथजी! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। आपके अतुलित बल और आपकी अतुलित प्रभुता (सामर्थ्य) को मैं मन्दबुद्धि जान नहीं पाया था॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
निज कृत कर्म जनित फल पायउँ। अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ॥
सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी॥7॥
मूल
निज कृत कर्म जनित फल पायउँ। अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ॥
सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी॥7॥
भावार्थ
अपने कर्म से उत्पन्न हुआ फल मैन्ने पा लिया। अब हे प्रभु! मेरी रक्षा कीजिए। मैं आपकी शरण तक कर आया हूँ। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! कृपालु श्री रघुनाथजी ने उसकी अत्यन्त आर्त्त (दुःख भरी) वाणी सुनकर उसे एक आँख का काना करके छोड दिया॥7॥
02
01 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित।
प्रभु छाडेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम॥2॥
मूल
कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित।
प्रभु छाडेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम॥2॥
भावार्थ
उसने मोहवश द्रोह किया था, इसलिए यद्यपि उसका वध ही उचित था, पर प्रभु ने कृपा करके उसे छोड दिया। श्री रामजी के समान कृपालु और कौन होगा?॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना॥
बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना॥1॥
मूल
रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना॥
बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना॥1॥
भावार्थ
चित्रकूट में बसकर श्री रघुनाथजी ने बहुत से चरित्र किए, जो कानों को अमृत के समान (प्रिय) हैं। फिर (कुछ समय पश्चात) श्री रामजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि मुझे सब लोग जान गए हैं, इससे (यहाँ) बडी भीड हो जाएगी॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई॥
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ। सुनत महामुनि हरषित भयऊ॥2॥
मूल
सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई॥
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ। सुनत महामुनि हरषित भयऊ॥2॥
भावार्थ
(इसलिए) सब मुनियों से विदा लेकर सीताजी सहित दोनों भाई चले! जब प्रभु अत्रिजी के आश्रम में गए, तो उनका आगमन सुनते ही महामुनि हर्षित हो गए॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए॥
करत दण्डवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए॥3॥
मूल
पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए॥
करत दण्डवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए॥3॥
भावार्थ
शरीर पुलकित हो गया, अत्रिजी उठकर दौडे। उन्हें दौडे आते देखकर श्री रामजी और भी शीघ्रता से चले आए। दण्डवत करते हुए ही श्री रामजी को (उठाकर) मुनि ने हृदय से लगा लिया और प्रेमाश्रुओं के जल से दोनों जनों को (दोनों भाइयों को) नहला दिया॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि राम छबि नयन जुडाने। सादर निज आश्रम तब आने॥
करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए॥4॥
मूल
देखि राम छबि नयन जुडाने। सादर निज आश्रम तब आने॥
करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए॥4॥
भावार्थ
श्री रामजी की छवि देखकर मुनि के नेत्र शीतल हो गए। तब वे उनको आदरपूर्वक अपने आश्रम में ले आए। पूजन करके सुन्दर वचन कहकर मुनि ने मूल और फल दिए, जो प्रभु के मन को बहुत रुचे॥4॥
03
01 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि।
मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत॥3॥
मूल
प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि।
मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत॥3॥
भावार्थ
प्रभु आसन पर विराजमान हैं। नेत्र भरकर उनकी शोभा देखकर परम प्रवीण मुनि श्रेष्ठ हाथ जोडकर स्तुति करने लगे॥3॥
02 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥
भजामि ते पदाम्बुजं। अकामिनां स्वधामदं॥1॥
मूल
नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं॥
भजामि ते पदाम्बुजं। अकामिनां स्वधामदं॥1॥
भावार्थ
हे भक्त वत्सल! हे कृपालु! हे कोमल स्वभाव वाले! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। निष्काम पुरुषों को अपना परमधाम देने वाले आपके चरण कमलों को मैं भजता हूँ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
निकाम श्याम सुन्दरं। भवाम्बुनाथ मन्दरं॥
प्रफुल्ल कञ्ज लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥2॥
मूल
निकाम श्याम सुन्दरं। भवाम्बुनाथ मन्दरं॥
प्रफुल्ल कञ्ज लोचनं। मदादि दोष मोचनं॥2॥
भावार्थ
आप नितान्त सुन्दर श्याम, संसार (आवागमन) रूपी समुद्र को मथने के लिए मन्दराचल रूप, फूले हुए कमल के समान नेत्रों वाले और मद आदि दोषों से छुडाने वाले हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रलम्ब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं॥
निषङ्ग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं॥3॥
मूल
प्रलम्ब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं॥
निषङ्ग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं॥3॥
भावार्थ
हे प्रभो! आपकी लम्बी भुजाओं का पराक्रम और आपका ऐश्वर्य अप्रमेय (बुद्धि के परे अथवा असीम) है। आप तरकस और धनुष-बाण धारण करने वाले तीनों लोकों के स्वामी,॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिनेश वंश मण्डनं। महेश चाप खण्डनं॥
मुनीन्द्र सन्त रञ्जनं। सुरारि वृन्द भञ्जनं॥4॥
मूल
दिनेश वंश मण्डनं। महेश चाप खण्डनं॥
मुनीन्द्र सन्त रञ्जनं। सुरारि वृन्द भञ्जनं॥4॥
भावार्थ
सूर्यवंश के भूषण, महादेवजी के धनुष को तोडने वाले, मुनिराजों और सन्तों को आनन्द देने वाले तथा देवताओं के शत्रु असुरों के समूह का नाश करने वाले हैं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनोज वैरि वन्दितं। अजादि देव सेवितं॥
विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं॥5॥
मूल
मनोज वैरि वन्दितं। अजादि देव सेवितं॥
विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं॥5॥
भावार्थ
आप कामदेव के शत्रु महादेवजी के द्वारा वन्दित, ब्रह्मा आदि देवताओं से सेवित, विशुद्ध ज्ञानमय विग्रह और समस्त दोषों को नष्ट करने वाले हैं॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमामि इन्दिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिं॥
भजे सशक्ति सानुजं। शची पति प्रियानुजं॥6॥
मूल
नमामि इन्दिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिं॥
भजे सशक्ति सानुजं। शची पति प्रियानुजं॥6॥
भावार्थ
हे लक्ष्मीपते! हे सुखों की खान और सत्पुरुषों की एकमात्र गति! मैं आपको नमस्कार करता हूँ! हे शचीपति (इन्द्र) के प्रिय छोटे भाई (वामनजी)! स्वरूपा-शक्ति श्री सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित आपको मैं भजता हूँ॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वदङ्घ्रि मूल ये नराः। भजन्ति हीन मत्सराः॥
पतन्ति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि सङ्कुले॥7॥
मूल
त्वदङ्घ्रि मूल ये नराः। भजन्ति हीन मत्सराः॥
पतन्ति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि सङ्कुले॥7॥
भावार्थ
जो मनुष्य मत्सर (डाह) रहित होकर आपके चरण कमलों का सेवन करते हैं, वे तर्क-वितर्क (अनेक प्रकार के सन्देह) रूपी तरङ्गों से पूर्ण संसार रूपी समुद्र में नहीं गिरते (आवागमन के चक्कर में नहीं पडते)॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
विविक्त वासिनः सदा। भजन्ति मुक्तये मुदा॥
निरस्य इन्द्रियादिकं। प्रयान्तिते गतिं स्वकं॥8॥
मूल
विविक्त वासिनः सदा। भजन्ति मुक्तये मुदा॥
निरस्य इन्द्रियादिकं। प्रयान्तिते गतिं स्वकं॥8॥
भावार्थ
जो एकान्तवासी पुरुष मुक्ति के लिए, इन्द्रियादि का निग्रह करके (उन्हें विषयों से हटाकर) प्रसन्नतापूर्वक आपको भजते हैं, वे स्वकीय गति को (अपने स्वरूप को) प्राप्त होते हैं॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमेकमद्भुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं॥9॥
मूल
तमेकमद्भुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं॥
जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं॥9॥
भावार्थ
उन (आप) को जो एक (अद्वितीय), अद्भुत (मायिक जगत से विलक्षण), प्रभु (सर्वसमर्थ), इच्छारहित, ईश्वर (सबके स्वामी), व्यापक, जगद्गुरु, सनातन (नित्य), तुरीय (तीनों गुणों से सर्वथा परे) और केवल (अपने स्वरूप में स्थित) हैं॥9॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभं॥
स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं॥10॥
मूल
भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभं॥
स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं॥10॥
भावार्थ
(तथा) जो भावप्रिय, कुयोगियों (विषयी पुरुषों) के लिए अत्यन्त दुर्लभ, अपने भक्तों के लिए कल्पवृक्ष (अर्थात् उनकी समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले), सम (पक्षपातरहित) और सदा सुखपूर्वक सेवन करने योग्य हैं, मैं निरन्तर भजता हूँ॥10॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिं॥
प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे॥11॥
मूल
अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिं॥
प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे॥11॥
भावार्थ
हे अनुपम सुन्दर! हे पृथ्वीपति! हे जानकीनाथ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ। मुझ पर प्रसन्न होइए, मैं आपको नमस्कार करता हूँ। मुझे अपने चरण कमलों की भक्ति दीजिए॥11॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
पठन्ति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदं॥
व्रजन्ति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुताः॥12॥
मूल
पठन्ति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदं॥
व्रजन्ति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुताः॥12॥
भावार्थ
जो मनुष्य इस स्तुति को आदरपूर्वक पढते हैं, वे आपकी भक्ति से युक्त होकर आपके परम पद को प्राप्त होते हैं, इसमें सन्देह नहीं॥12॥
04
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि।
चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि॥4॥
मूल
बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि।
चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि॥4॥
भावार्थ
मुनि ने (इस प्रकार) विनती करके और फिर सिर नवाकर, हाथ जोडकर कहा- हे नाथ! मेरी बुद्धि आपके चरण कमलों को कभी न छोडे॥4॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता॥
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई॥1॥
मूल
अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता॥
रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई॥1॥
भावार्थ
फिर परम शीलवती और विनम्र श्री सीताजी अनसूयाजी (आत्रिजी की पत्नी) के चरण पकडकर उनसे मिलीं। ऋषि पत्नी के मन में बडा सुख हुआ। उन्होन्ने आशीष देकर सीताजी को पास बैठा लिया॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिब्य बसन भूषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी॥2॥
मूल
दिब्य बसन भूषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए॥
कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी॥2॥
भावार्थ
और उन्हें ऐसे दिव्य वस्त्र और आभूषण पहनाए, जो नित्य-नए निर्मल और सुहावने बने रहते हैं। फिर ऋषि पत्नी उनके बहाने मधुर और कोमल वाणी से स्त्रियों के कुछ धर्म बखान कर कहने लगीं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी॥
अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही॥3॥
मूल
मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी॥
अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही॥3॥
भावार्थ
हे राजकुमारी! सुनिए- माता, पिता, भाई सभी हित करने वाले हैं, परन्तु ये सब एक सीमा तक ही (सुख) देने वाले हैं, परन्तु हे जानकी! पति तो (मोक्ष रूप) असीम (सुख) देने वाला है। वह स्त्री अधम है, जो ऐसे पति की सेवा नहीं करती॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥
बृद्ध रोगबस जड धनहीना। अन्ध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥
मूल
धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी॥
बृद्ध रोगबस जड धनहीना। अन्ध बधिर क्रोधी अति दीना॥4॥
भावार्थ
धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की विपत्ति के समय ही परीक्षा होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अन्धा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त ही दीन-॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना॥
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥5॥
मूल
ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना॥
एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा॥5॥
भावार्थ
ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भाँति-भाँति के दुःख पाती है। शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना स्त्री के लिए, बस यह एक ही धर्म है, एक ही व्रत है और एक ही नियम है॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जग पतिब्रता चारि बिधि अहहीं। बेद पुरान सन्त सब कहहीं॥
उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं॥6॥
मूल
जग पतिब्रता चारि बिधि अहहीं। बेद पुरान सन्त सब कहहीं॥
उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं॥6॥
भावार्थ
जगत में चार प्रकार की पतिव्रताएँ हैं। वेद, पुराण और सन्त सब ऐसा कहते हैं कि उत्तम श्रेणी की पतिव्रता के मन में ऐसा भाव बसा रहता है कि जगत में (मेरे पति को छोडकर) दूसरा पुरुष स्वप्न में भी नहीं है॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मध्यम परपति देखइ कैसें। भ्राता पिता पुत्र निज जैसें॥
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई॥7॥
मूल
मध्यम परपति देखइ कैसें। भ्राता पिता पुत्र निज जैसें॥
धर्म बिचारि समुझि कुल रहई। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई॥7॥
भावार्थ
मध्यम श्रेणी की पतिव्रता पराए पति को कैसे देखती है, जैसे वह अपना सगा भाई, पिता या पुत्र हो (अर्थात समान अवस्था वाले को वह भाई के रूप में देखती है, बडे को पिता के रूप में और छोटे को पुत्र के रूप में देखती है।) जो धर्म को विचारकर और अपने कुल की मर्यादा समझकर बची रहती है, वह निकृष्ट (निम्न श्रेणी की) स्त्री है, ऐसा वेद कहते हैं॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई॥
पति बञ्चक परपति रति करई। रौरव नरक कल्प सत परई॥8॥
मूल
बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई॥
पति बञ्चक परपति रति करई। रौरव नरक कल्प सत परई॥8॥
भावार्थ
और जो स्त्री मौका न मिलने से या भयवश पतिव्रता बनी रहती है, जगत में उसे अधम स्त्री जानना। पति को धोखा देने वाली जो स्त्री पराए पति से रति करती है, वह तो सौ कल्प तक रौरव नरक में पडी रहती है॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
छन सुख लागि जनम सत कोटी। दुख न समुझ तेहि सम को खोटी॥
बिनु श्रम नारि परम गति लहई। पतिब्रत धर्म छाडि छल गहई॥9॥
मूल
छन सुख लागि जनम सत कोटी। दुख न समुझ तेहि सम को खोटी॥
बिनु श्रम नारि परम गति लहई। पतिब्रत धर्म छाडि छल गहई॥9॥
भावार्थ
क्षणभर के सुख के लिए जो सौ करोड (असङ्ख्य) जन्मों के दुःख को नहीं समझती, उसके समान दुष्टा कौन होगी। जो स्त्री छल छोडकर पतिव्रत धर्म को ग्रहण करती है, वह बिना ही परिश्रम परम गति को प्राप्त करती है॥9॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई। बिधवा होइ पाइ तरुनाई॥10॥
मूल
पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई। बिधवा होइ पाइ तरुनाई॥10॥
भावार्थ
किन्तु जो पति के प्रतिकूल चलती है, वह जहाँ भी जाकर जन्म लेती है, वहीं जवानी पाकर (भरी जवानी में) विधवा हो जाती है॥10॥
05
01 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय॥1॥
मूल
सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ।
जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय॥1॥
भावार्थ
स्त्री जन्म से ही अपवित्र है, किन्तु पति की सेवा करके वह अनायास ही शुभ गति प्राप्त कर लेती है। (पतिव्रत धर्म के कारण ही) आज भी ‘तुलसीजी’ भगवान को प्रिय हैं और चारों वेद उनका यश गाते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं।
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित॥2॥
मूल
सुनु सीता तव नाम सुमिरि नारि पतिब्रत करहिं।
तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित॥2॥
भावार्थ
हे सीता! सुनो, तुम्हारा तो नाम ही ले-लेकर स्त्रियाँ पतिव्रत धर्म का पालन करेङ्गी। तुम्हें तो श्री रामजी प्राणों के समान प्रिय हैं, यह (पतिव्रत धर्म की) कथा तो मैन्ने संसार के हित के लिए कही है॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि जानकीं परम सुखु पावा। सादर तासु चरन सिरु नावा॥
तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना॥1॥
मूल
सुनि जानकीं परम सुखु पावा। सादर तासु चरन सिरु नावा॥
तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना॥1॥
भावार्थ
जानकीजी ने सुनकर परम सुख पाया और आदरपूर्वक उनके चरणों में सिर नवाया। तब कृपा की खान श्री रामजी ने मुनि से कहा- आज्ञा हो तो अब दूसरे वन में जाऊँ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्तत मो पर कृपा करेहू। सेवक जानि तजेहु जनि नेहू॥
धर्म धुरन्धर प्रभु कै बानी। सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी॥2॥
मूल
सन्तत मो पर कृपा करेहू। सेवक जानि तजेहु जनि नेहू॥
धर्म धुरन्धर प्रभु कै बानी। सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी॥2॥
भावार्थ
मुझ पर निरन्तर कृपा करते रहिएगा और अपना सेवक जानकर स्नेह न छोडिएगा। धर्म धुरन्धर प्रभु श्री रामजी के वचन सुनकर ज्ञानी मुनि प्रेमपूर्वक बोले-॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जासु कृपा अज सिव सनकादी। चहत सकल परमारथ बादी॥
ते तुम्ह राम अकाम पिआरे। दीन बन्धु मृदु बचन उचारे॥3॥
मूल
जासु कृपा अज सिव सनकादी। चहत सकल परमारथ बादी॥
ते तुम्ह राम अकाम पिआरे। दीन बन्धु मृदु बचन उचारे॥3॥
भावार्थ
ब्रह्मा, शिव और सनकादि सभी परमार्थवादी (तत्ववेत्ता) जिनकी कृपा चाहते हैं, हे रामजी! आप वही निष्काम पुरुषों के भी प्रिय और दीनों के बन्धु भगवान हैं, जो इस प्रकार कोमल वचन बोल रहे हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब जानी मैं श्री चतुराई। भजी तुम्हहि सब देव बिहाई॥
जेहि समान अतिसय नहिं कोई। ता कर सील कस न अस होई॥4॥
मूल
अब जानी मैं श्री चतुराई। भजी तुम्हहि सब देव बिहाई॥
जेहि समान अतिसय नहिं कोई। ता कर सील कस न अस होई॥4॥
भावार्थ
अब मैन्ने लक्ष्मीजी की चतुराई समझी, जिन्होन्ने सब देवताओं को छोडकर आप ही को भजा। जिसके समान (सब बातों में) अत्यन्त बडा और कोई नहीं है, उसका शील भला, ऐसा क्यों न होगा?॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। कहहु नाथ तुम्ह अन्तरजामी॥
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा। लोचन जल बह पुलक सरीरा॥5॥
मूल
केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। कहहु नाथ तुम्ह अन्तरजामी॥
अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा। लोचन जल बह पुलक सरीरा॥5॥
भावार्थ
मैं किस प्रकार कहूँ कि हे स्वामी! आप अब जाइए? हे नाथ! आप अन्तर्यामी हैं, आप ही कहिए। ऐसा कहकर धीर मुनि प्रभु को देखने लगे। मुनि के नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बह रहा है और शरीर पुलकित है॥5॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पङ्कज दिए।
मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए॥
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई।
रघुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई॥
मूल
तन पुलक निर्भर प्रेम पूरन नयन मुख पङ्कज दिए।
मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए॥
जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई।
रघुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई॥
भावार्थ
मुनि अत्यन्त प्रेम से पूर्ण हैं, उनका शरीर पुलकित है और नेत्रों को श्री रामजी के मुखकमल में लगाए हुए हैं। (मन में विचार रहे हैं कि) मैन्ने ऐसे कौन से जप-तप किए थे, जिसके कारण मन, ज्ञान, गुण और इन्द्रियों से परे प्रभु के दर्शन पाए। जप, योग और धर्म समूह से मनुष्य अनुपम भक्ति को पाता है। श्री रघुवीर के पवित्र चरित्र को तुलसीदास रात-दिन गाता है।
06
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल।
सादर सुनहिं जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल॥1॥
मूल
कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल।
सादर सुनहिं जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल॥1॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी का सुन्दर यश कलियुग के पापों का नाश करने वाला, मन को दमन करने वाला और सुख का मूल है, जो लोग इसे आदरपूर्वक सुनते हैं, उन पर श्री रामजी प्रसन्न रहते हैं॥1॥
02 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर॥2॥
मूल
कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप।
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर॥2॥
भावार्थ
यह कठिन कलि काल पापों का खजाना है, इसमें न धर्म है, न ज्ञान है और न योग तथा जप ही है। इसमें तो जो लोग सब भरोसों को छोडकर श्री रामजी को ही भजते हैं, वे ही चतुर हैं॥2॥
03 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनि पद कमल नाइ करि सीसा। चले बनहि सुर नर मुनि ईसा॥
आगें राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछें॥1॥
मूल
मुनि पद कमल नाइ करि सीसा। चले बनहि सुर नर मुनि ईसा॥
आगें राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछें॥1॥
भावार्थ
मुनि के चरण कमलों में सिर नवाकर देवता, मनुष्य और मुनियों के स्वामी श्री रामजी वन को चले। आगे श्री रामजी हैं और उनके पीछे छोटे भाई लक्ष्मणजी हैं। दोनों ही मुनियों का सुन्दर वेष बनाए अत्यन्त सुशोभित हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभय बीच श्री सोहइ कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी॥
सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानि देहिं बर बाटा॥2॥
मूल
उभय बीच श्री सोहइ कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी॥
सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानि देहिं बर बाटा॥2॥
भावार्थ
दोनों के बीच में श्री जानकीजी कैसी सुशोभित हैं, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच माया हो। नदी, वन, पर्वत और दुर्गम घाटियाँ, सभी अपने स्वामी को पहचानकर सुन्दर रास्ता दे देते हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहँ जहँ जाहिं देव रघुराया। करहिं मेघ तहँ तहँ नभ छाया॥
मिला असुर बिराध मग जाता। आवतहीं रघुबीर निपाता॥3॥
मूल
जहँ जहँ जाहिं देव रघुराया। करहिं मेघ तहँ तहँ नभ छाया॥
मिला असुर बिराध मग जाता। आवतहीं रघुबीर निपाता॥3॥
भावार्थ
जहाँ-जहाँ देव श्री रघुनाथजी जाते हैं, वहाँ-वहाँ बादल आकाश में छाया करते जाते हैं। रास्ते में जाते हुए विराध राक्षस मिला। सामने आते ही श्री रघुनाथजी ने उसे मार डाला॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा। देखि दुखी निज धाम पठावा॥
पुनि आए जहँ मुनि सरभङ्गा। सुन्दर अनुज जानकी सङ्गा॥4॥
मूल
तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा। देखि दुखी निज धाम पठावा॥
पुनि आए जहँ मुनि सरभङ्गा। सुन्दर अनुज जानकी सङ्गा॥4॥
भावार्थ
(श्री रामजी के हाथ से मरते ही) उसने तुरन्त सुन्दर (दिव्य) रूप प्राप्त कर लिया। दुःखी देखकर प्रभु ने उसे अपने परम धाम को भेज दिया। फिर वे सुन्दर छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ वहाँ आए जहाँ मुनि शरभङ्गजी थे॥4॥
07
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि राम मुख पङ्कज मुनिबर लोचन भृङ्ग।
सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभङ्ग॥7॥
मूल
देखि राम मुख पङ्कज मुनिबर लोचन भृङ्ग।
सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभङ्ग॥7॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी का मुखकमल देखकर मुनिश्रेष्ठ के नेत्र रूपी भौंरे अत्यन्त आदरपूर्वक उसका (मकरन्द रस) पान कर रहे हैं। शरभङ्गजी का जन्म धन्य है॥7॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। सङ्कर मानस राजमराला॥
जात रहेउँ बिरञ्चि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा॥1॥
मूल
कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। सङ्कर मानस राजमराला॥
जात रहेउँ बिरञ्चि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा॥1॥
भावार्थ
मुनि ने कहा- हे कृपालु रघुवीर! हे शङ्करजी मन रूपी मानसरोवर के राजहंस! सुनिए, मैं ब्रह्मलोक को जा रहा था। (इतने में) कानों से सुना कि श्री रामजी वन में आवेङ्गे॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
चितवत पन्थ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुडानी छाती॥
नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥2॥
मूल
चितवत पन्थ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुडानी छाती॥
नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥2॥
भावार्थ
तब से मैं दिन-रात आपकी राह देखता रहा हूँ। अब (आज) प्रभु को देखकर मेरी छाती शीतल हो गई। हे नाथ! मैं सब साधनों से हीन हूँ। आपने अपना दीन सेवक जानकर मुझ पर कृपा की है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो कछु देव न मोहि निहोरा। निज पन राखेउ जन मन चोरा॥
तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी॥3॥
मूल
सो कछु देव न मोहि निहोरा। निज पन राखेउ जन मन चोरा॥
तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी॥3॥
भावार्थ
हे देव! यह कुछ मुझ पर आपका एहसान नहीं है। हे भक्त-मनचोर! ऐसा करके आपने अपने प्रण की ही रक्षा की है। अब इस दीन के कल्याण के लिए तब तक यहाँ ठहरिए, जब तक मैं शरीर छोडकर आपसे (आपके धाम में न) मिलूँ॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा॥
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभङ्गा। बैठे हृदयँ छाडि सब सङ्गा॥4॥
मूल
जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा॥
एहि बिधि सर रचि मुनि सरभङ्गा। बैठे हृदयँ छाडि सब सङ्गा॥4॥
भावार्थ
योग, यज्ञ, जप, तप जो कुछ व्रत आदि भी मुनि ने किया था, सब प्रभु को समर्पण करके बदले में भक्ति का वरदान ले लिया। इस प्रकार (दुर्लभ भक्ति प्राप्त करके फिर) चिता रचकर मुनि शरभङ्गजी हृदय से सब आसक्ति छोडकर उस पर जा बैठे॥4॥
08
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।
मम हियँ बसहु निरन्तर सगुनरूप श्री राम॥8॥
मूल
सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम।
मम हियँ बसहु निरन्तर सगुनरूप श्री राम॥8॥
भावार्थ
हे नीले मेघ के समान श्याम शरीर वाले सगुण रूप श्री रामजी! सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित प्रभु (आप) निरन्तर मेरे हृदय में निवास कीजिए॥8॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुण्ठ सिधारा॥
ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ॥1॥
मूल
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुण्ठ सिधारा॥
ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ॥1॥
भावार्थ
ऐसा कहकर शरभङ्गजी ने योगाग्नि से अपने शरीर को जला डाला और श्री रामजी की कृपा से वे वैकुण्ठ को चले गए। मुनि भगवान में लीन इसलिए नहीं हुए कि उन्होन्ने पहले ही भेद-भक्ति का वर ले लिया था॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
रिषि निकाय मुनिबर गति देखी। सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी॥
अस्तुति करहिं सकल मुनि बृन्दा। जयति प्रनत हित करुना कन्दा॥2॥
मूल
रिषि निकाय मुनिबर गति देखी। सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी॥
अस्तुति करहिं सकल मुनि बृन्दा। जयति प्रनत हित करुना कन्दा॥2॥
भावार्थ
ऋषि समूह मुनि श्रेष्ठ शरभङ्गजी की यह (दुर्लभ) गति देखकर अपने हृदय में विशेष रूप से सुखी हुए। समस्त मुनिवृन्द श्री रामजी की स्तुति कर रहे हैं (और कह रहे हैं) शरणागत हितकारी करुणा कन्द (करुणा के मूल) प्रभु की जय हो!॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिबर बृन्द बिपुल सँग लागे॥
अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥3॥
मूल
पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिबर बृन्द बिपुल सँग लागे॥
अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥3॥
भावार्थ
फिर श्री रघुनाथजी आगे वन में चले। श्रेष्ठ मुनियों के बहुत से समूह उनके साथ हो लिए। हड्डियों का ढेर देखकर श्री रघुनाथजी को बडी दया आई, उन्होन्ने मुनियों से पूछा॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानतहूँ पूछिअ कस स्वामी। सबदरसी तुम्ह अन्तरजामी॥
निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुबीर नयन जल छाए॥4॥
मूल
जानतहूँ पूछिअ कस स्वामी। सबदरसी तुम्ह अन्तरजामी॥
निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुबीर नयन जल छाए॥4॥
भावार्थ
(मुनियों ने कहा) हे स्वामी! आप सर्वदर्शी (सर्वज्ञ) और अन्तर्यामी (सबके हृदय की जानने वाले) हैं। जानते हुए भी (अनजान की तरह) हमसे कैसे पूछ रहे हैं? राक्षसों के दलों ने सब मुनियों को खा डाला है। (ये सब उन्हीं की हड्डियों के ढेर हैं)। यह सुनते ही श्री रघुवीर के नेत्रों में जल छा गया (उनकी आँखों में करुणा के आँसू भर आए)॥4॥
09
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥9॥
मूल
निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥9॥
भावार्थ
श्री रामजी ने भुजा उठाकर प्रण किया कि मैं पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर दूँगा। फिर समस्त मुनियों के आश्रमों में जा-जाकर उनको (दर्शन एवं सम्भाषण का) सुख दिया॥9॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना॥
मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥1॥
मूल
मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना॥
मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक॥1॥
भावार्थ
मुनि अगस्त्यजी के एक सुतीक्ष्ण नामक सुजान (ज्ञानी) शिष्य थे, उनकी भगवान में प्रीति थी। वे मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के चरणों के सेवक थे। उन्हें स्वप्न में भी किसी दूसरे देवता का भरोसा नहीं था॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा। करत मनोरथ आतुर धावा॥
हे बिधि दीनबन्धु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया॥2॥
मूल
प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा। करत मनोरथ आतुर धावा॥
हे बिधि दीनबन्धु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया॥2॥
भावार्थ
उन्होन्ने ज्यों ही प्रभु का आगमन कानों से सुन पाया, त्यों ही अनेक प्रकार के मनोरथ करते हुए वे आतुरता (शीघ्रता) से दौड चले। हे विधाता! क्या दीनबन्धु श्री रघुनाथजी मुझ जैसे दुष्ट पर भी दया करेङ्गे?॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहित अनुज मोहि राम गोसाईं। मिलिहहिं निज सेवक की नाईं॥
मोरे जियँ भरोस दृढ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं॥3॥
मूल
सहित अनुज मोहि राम गोसाईं। मिलिहहिं निज सेवक की नाईं॥
मोरे जियँ भरोस दृढ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं॥3॥
भावार्थ
क्या स्वामी श्री रामजी छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित मुझसे अपने सेवक की तरह मिलेङ्गे? मेरे हृदय में दृढ विश्वास नहीं होता, क्योङ्कि मेरे मन में भक्ति, वैराग्य या ज्ञान कुछ भी नहीं है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नहिं सतसङ्ग जोग जप जागा। नहिं दृढ चरन कमल अनुरागा॥
एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की॥4॥
मूल
नहिं सतसङ्ग जोग जप जागा। नहिं दृढ चरन कमल अनुरागा॥
एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की॥4॥
भावार्थ
मैन्ने न तो सत्सङ्ग, योग, जप अथवा यज्ञ ही किए हैं और न प्रभु के चरणकमलों में मेरा दृढ अनुराग ही है। हाँ, दया के भण्डार प्रभु की एक बान है कि जिसे किसी दूसरे का सहारा नहीं है, वह उन्हें प्रिय होता है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
होइहैं सुफल आजु मम लोचन। देखि बदन पङ्कज भव मोचन॥
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी॥5॥
मूल
होइहैं सुफल आजु मम लोचन। देखि बदन पङ्कज भव मोचन॥
निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी॥5॥
भावार्थ
(भगवान की इस बान का स्मरण आते ही मुनि आनन्दमग्न होकर मन ही मन कहने लगे-) अहा! भव बन्धन से छुडाने वाले प्रभु के मुखारविन्द को देखकर आज मेरे नेत्र सफल होङ्गे। (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! ज्ञानी मुनि प्रेम में पूर्ण रूप से निमग्न हैं। उनकी वह दशा कही नहीं जाती॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिसि अरु बिदिसि पन्थ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा॥
कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई॥6॥
मूल
दिसि अरु बिदिसि पन्थ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा॥
कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई॥6॥
भावार्थ
उन्हें दिशा-विदिशा (दिशाएँ और उनके कोण आदि) और रास्ता, कुछ भी नहीं सूझ रहा है। मैं कौन हूँ और कहाँ जा रहा हूँ, यह भी नहीं जानते (इसका भी ज्ञान नहीं है)। वे कभी पीछे घूमकर फिर आगे चलने लगते हैं और कभी (प्रभु के) गुण गा-गाकर नाचने लगते हैं॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई॥
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा॥7॥
मूल
अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई॥
अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा॥7॥
भावार्थ
मुनि ने प्रगाढ प्रेमाभक्ति प्राप्त कर ली। प्रभु श्री रामजी वृक्ष की आड में छिपकर (भक्त की प्रेमोन्मत्त दशा) देख रहे हैं। मुनि का अत्यन्त प्रेम देखकर भवभय (आवागमन के भय) को हरने वाले श्री रघुनाथजी मुनि के हृदय में प्रकट हो गए॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनि मग माझ अचल होइ बैसा। पुलक सरीर पनस फल जैसा॥
तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दसा निज जन मन भाए॥8॥
मूल
मुनि मग माझ अचल होइ बैसा। पुलक सरीर पनस फल जैसा॥
तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दसा निज जन मन भाए॥8॥
भावार्थ
(हृदय में प्रभु के दर्शन पाकर) मुनि बीच रास्ते में अचल (स्थिर) होकर बैठ गए। उनका शरीर रोमाञ्च से कटहल के फल के समान (कण्टकित) हो गया। तब श्री रघुनाथजी उनके पास चले आए और अपने भक्त की प्रेम दशा देखकर मन में बहुत प्रसन्न हुए॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यान जनित सुख पावा॥
भूप रूप तब राम दुरावा। हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा॥9॥
मूल
मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यान जनित सुख पावा॥
भूप रूप तब राम दुरावा। हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा॥9॥
भावार्थ
श्री रामजी ने मुनि को बहुत प्रकार से जगाया, पर मुनि नहीं जागे, क्योङ्कि उन्हें प्रभु के ध्यान का सुख प्राप्त हो रहा था। तब श्री रामजी ने अपने राजरूप को छिपा लिया और उनके हृदय में अपना चतुर्भुज रूप प्रकट किया॥9॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें। बिकल हीन मनि फनिबर जैसें॥
आगें देखि राम तन स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा॥10॥
मूल
मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें। बिकल हीन मनि फनिबर जैसें॥
आगें देखि राम तन स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा॥10॥
भावार्थ
तब (अपने ईष्ट स्वरूप के अन्तर्धान होते ही) मुनि ऐसे व्याकुल होकर उठे, जैसे श्रेष्ठ (मणिधर) सर्प मणि के बिना व्याकुल हो जाता है। मुनि ने अपने सामने सीताजी और लक्ष्मणजी सहित श्यामसुन्दर विग्रह सुखधाम श्री रामजी को देखा॥10॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी। प्रेम मगन मुनिबर बडभागी॥
भुज बिसाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई॥11॥
मूल
परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी। प्रेम मगन मुनिबर बडभागी॥
भुज बिसाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई॥11॥
भावार्थ
प्रेम में मग्न हुए वे बडभागी श्रेष्ठ मुनि लाठी की तरह गिरकर श्री रामजी के चरणों में लग गए। श्री रामजी ने अपनी विशाल भुजाओं से पकडकर उन्हें उठा लिया और बडे प्रेम से हृदय से लगा रखा॥11॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला। कनक तरुहि जनु भेण्ट तमाला॥
राम बदनु बिलोक मुनि ठाढा। मानहुँ चित्र माझ लिखि काढा॥12॥
मूल
मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला। कनक तरुहि जनु भेण्ट तमाला॥
राम बदनु बिलोक मुनि ठाढा। मानहुँ चित्र माझ लिखि काढा॥12॥
भावार्थ
कृपालु श्री रामचन्द्रजी मुनि से मिलते हुए ऐसे शोभित हो रहे हैं, मानो सोने के वृक्ष से तमाल का वृक्ष गले लगकर मिल रहा हो। मुनि (निस्तब्ध) खडे हुए (टकटकी लगाकर) श्री रामजी का मुख देख रहे हैं, मानो चित्र में लिखकर बनाए गए हों॥12॥
10
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब मुनि हृदयँ धीर धरि गहि पद बारहिं बार।
निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार॥10॥
मूल
तब मुनि हृदयँ धीर धरि गहि पद बारहिं बार।
निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार॥10॥
भावार्थ
तब मुनि ने हृदय में धीरज धरकर बार-बार चरणों को स्पर्श किया। फिर प्रभु को अपने आश्रम में लाकर अनेक प्रकार से उनकी पूजा की॥10॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी॥
महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥1॥
मूल
कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी॥
महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी॥1॥
भावार्थ
मुनि कहने लगे- हे प्रभो! मेरी विनती सुनिए। मैं किस प्रकार से आपकी स्तुति करूँ? आपकी महिमा अपार है और मेरी बुद्धि अल्प है। जैसे सूर्य के सामने जुगनू का उजाला!॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं॥
पाणि चाप शर कटि तूणीरं। नौमि निरन्तर श्रीरघुवीरं॥2॥
मूल
श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं॥
पाणि चाप शर कटि तूणीरं। नौमि निरन्तर श्रीरघुवीरं॥2॥
भावार्थ
हे नीलकमल की माला के समान श्याम शरीर वाले! हे जटाओं का मुकुट और मुनियों के (वल्कल) वस्त्र पहने हुए, हाथों में धनुष-बाण लिए तथा कमर में तरकस कसे हुए श्री रामजी! मैं आपको निरन्तर नमस्कार करता हूँ॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोह विपिन घन दहन कृशानुः। सन्त सरोरुह कानन भानुः॥
निसिचर करि वरूथ मृगराजः। त्रास सदा नो भव खग बाजः॥3॥
मूल
मोह विपिन घन दहन कृशानुः। सन्त सरोरुह कानन भानुः॥
निसिचर करि वरूथ मृगराजः। त्रास सदा नो भव खग बाजः॥3॥
भावार्थ
जो मोह रूपी घने वन को जलाने के लिए अग्नि हैं, सन्त रूपी कमलों के वन को प्रफुल्लित करने के लिए सूर्य हैं, राक्षस रूपी हाथियों के समूह को पछाडने के लिए सिंह हैं और भव (आवागमन) रूपी पक्षी को मारने के लिए बाज रूप हैं, वे प्रभु सदा हमारी रक्षा करें॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरुण नयन राजीव सुवेशं। सीता नयन चकोर निशेशं॥
हर हृदि मानस बाल मरालं। नौमि राम उर बाहु विशालं॥4॥
मूल
अरुण नयन राजीव सुवेशं। सीता नयन चकोर निशेशं॥
हर हृदि मानस बाल मरालं। नौमि राम उर बाहु विशालं॥4॥
भावार्थ
हे लाल कमल के समान नेत्र और सुन्दर वेश वाले! सीताजी के नेत्र रूपी चकोर के चन्द्रमा, शिवजी के हृदय रूपी मानसरोवर के बालहंस, विशाल हृदय और भुजा वाले श्री रामचन्द्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः॥
भव भञ्जन रञ्जन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः॥5॥
मूल
संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः॥
भव भञ्जन रञ्जन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः॥5॥
भावार्थ
जो संशय रूपी सर्प को ग्रसने के लिए गरुड हैं, अत्यन्त कठोर तर्क से उत्पन्न होने वाले विषाद का नाश करने वाले हैं, आवागमन को मिटाने वाले और देवताओं के समूह को आनन्द देने वाले हैं, वे कृपा के समूह श्री रामजी सदा हमारी रक्षा करें॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं॥
अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भञ्जन महि भारं॥6॥
मूल
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं॥
अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भञ्जन महि भारं॥6॥
भावार्थ
हे निर्गुण, सगुण, विषम और समरूप! हे ज्ञान, वाणी और इन्द्रियों से अतीत! हे अनुपम, निर्मल, सम्पूर्ण दोषरहित, अनन्त एवं पृथ्वी का भार उतारने वाले श्री रामचन्द्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः॥
अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः॥7॥
मूल
भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः॥
अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः॥7॥
भावार्थ
जो भक्तों के लिए कल्पवृक्ष के बगीचे हैं, क्रोध, लोभ, मद और काम को डराने वाले हैं, अत्यन्त ही चतुर और संसार रूपी समुद्र से तरने के लिए सेतु रूप हैं, वे सूर्यकुल की ध्वजा श्री रामजी सदा मेरी रक्षा करें॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभञ्जन नामः॥
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। सन्तत शं तनोतु मम रामः॥8॥
मूल
अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभञ्जन नामः॥
धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। सन्तत शं तनोतु मम रामः॥8॥
भावार्थ
जिनकी भुजाओं का प्रताप अतुलनीय है, जो बल के धाम हैं, जिनका नाम कलियुग के बडे भारी पापों का नाश करने वाला है, जो धर्म के कवच (रक्षक) हैं और जिनके गुण समूह आनन्द देने वाले हैं, वे श्री रामजी निरन्तर मेरे कल्याण का विस्तार करें॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरन्तर बासी॥
तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी॥9॥
मूल
जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरन्तर बासी॥
तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी॥9॥
भावार्थ
यद्यपि आप निर्मल, व्यापक, अविनाशी और सबके हृदय में निरन्तर निवास करने वाले हैं, तथापि हे खरारि श्री रामजी! लक्ष्मणजी और सीताजी सहित वन में विचरने वाले आप इसी रूप में मेरे हृदय में निवास कीजिए॥9॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अन्तरजामी॥
जो कोसलपति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना॥10॥
मूल
जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अन्तरजामी॥
जो कोसलपति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना॥10॥
भावार्थ
हे स्वामी! आपको जो सगुण, निर्गुण और अन्तर्यामी जानते हों, वे जाना करें, मेरे हृदय में तो कोसलपति कमलनयन श्री रामजी ही अपना घर बनावें॥10॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥
सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए॥11॥
मूल
अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे॥
सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए॥11॥
भावार्थ
ऐसा अभिमान भूलकर भी न छूटे कि मैं सेवक हूँ और श्री रघुनाथजी मेरे स्वामी हैं। मुनि के वचन सुनकर श्री रामजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। तब उन्होन्ने हर्षित होकर श्रेष्ठ मुनि को हृदय से लगा लिया॥11॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउँ सो तोही॥
मुनि कह मैं बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परइ झूठ का साचा॥12॥
मूल
परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउँ सो तोही॥
मुनि कह मैं बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परइ झूठ का साचा॥12॥
भावार्थ
(और कहा-) हे मुनि! मुझे परम प्रसन्न जानो। जो वर माँगो, वही मैं तुम्हें दूँ! मुनि सुतीक्ष्णजी ने कहा- मैन्ने तो वर कभी माँगा ही नहीं। मुझे समझ ही नहीं पडता कि क्या झूठ है और क्या सत्य है, (क्या माँगू, क्या नहीं)॥12॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई॥
अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना॥13॥
मूल
तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई॥
अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना॥13॥
भावार्थ
((अतः) हे रघुनाथजी! हे दासों को सुख देने वाले! आपको जो अच्छा लगे, मुझे वही दीजिए। (श्री रामचन्द्रजी ने कहा- हे मुने!) तुम प्रगाढ भक्ति, वैराग्य, विज्ञान और समस्त गुणों तथा ज्ञान के निधान हो जाओ॥13॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा। अब सो देहु मोहि जो भावा॥14॥
मूल
प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा। अब सो देहु मोहि जो भावा॥14॥
भावार्थ
(तब मुनि बोले-) प्रभु ने जो वरदान दिया, वह तो मैन्ने पा लिया। अब मुझे जो अच्छा लगता है, वह दीजिए॥14॥
11
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम।
मन हिय गगन इन्दु इव बसहु सदा निहकाम॥11॥
मूल
अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम।
मन हिय गगन इन्दु इव बसहु सदा निहकाम॥11॥
भावार्थ
हे प्रभो! हे श्री रामजी! छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित धनुष-बाणधारी आप निष्काम (स्थिर) होकर मेरे हृदय रूपी आकाश में चन्द्रमा की भाँति सदा निवास कीजिए॥11॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुम्भज रिषि पासा॥
बहुत दिवस गुर दरसनु पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ॥1॥
मूल
एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुम्भज रिषि पासा॥
बहुत दिवस गुर दरसनु पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ॥1॥
भावार्थ
‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) ऐसा उच्चारण कर लक्ष्मी निवास श्री रामचन्द्रजी हर्षित होकर अगस्त्य ऋषि के पास चले। (तब सुतीक्ष्णजी बोले-) गुरु अगस्त्यजी का दर्शन पाए और इस आश्रम में आए मुझे बहुत दिन हो गए॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब प्रभु सङ्ग जाउँ गुर पाहीं। तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं॥
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए सङ्ग बिहसे द्वौ भाई॥2॥
मूल
अब प्रभु सङ्ग जाउँ गुर पाहीं। तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं॥
देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए सङ्ग बिहसे द्वौ भाई॥2॥
भावार्थ
अब मैं भी प्रभु (आप) के साथ गुरुजी के पास चलता हूँ। इसमें हे नाथ! आप पर मेरा कोई एहसान नहीं है। मुनि की चतुरता देखकर कृपा के भण्डार श्री रामजी ने उनको साथ ले लिया और दोनो भाई हँसने लगे॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
पन्थ कहत निज भगति अनूपा। मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा॥
तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ। करि दण्डवत कहत अस भयऊ॥3॥
मूल
पन्थ कहत निज भगति अनूपा। मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा॥
तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ। करि दण्डवत कहत अस भयऊ॥3॥
भावार्थ
रास्ते में अपनी अनुपम भक्ति का वर्णन करते हुए देवताओं के राजराजेश्वर श्री रामजी अगस्त्य मुनि के आश्रम पर पहुँचे। सुतीक्ष्ण तुरन्त ही गुरु अगस्त्य के पास गए और दण्डवत् करके ऐसा कहने लगे॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाथ कोसलाधीस कुमारा। आए मिलन जगत आधारा॥
राम अनुज समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत हहु जेही॥4॥
मूल
नाथ कोसलाधीस कुमारा। आए मिलन जगत आधारा॥
राम अनुज समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत हहु जेही॥4॥
भावार्थ
हे नाथ! अयोध्या के राजा दशरथजी के कुमार जगदाधार श्री रामचन्द्रजी छोटे भाई लक्ष्मणजी और सीताजी सहित आपसे मिलने आए हैं, जिनका हे देव! आप रात-दिन जप करते रहते हैं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए॥
मुनि पद कमल परे द्वौ भाई। रिषि अति प्रीति लिए उर लाई॥5॥
मूल
सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए॥
मुनि पद कमल परे द्वौ भाई। रिषि अति प्रीति लिए उर लाई॥5॥
भावार्थ
यह सुनते ही अगस्त्यजी तुरन्त ही उठ दौडे। भगवान् को देखते ही उनके नेत्रों में (आनन्द और प्रेम के आँसुओं का) जल भर आया। दोनों भाई मुनि के चरण कमलों पर गिर पडे। ऋषि ने (उठाकर) बडे प्रेम से उन्हें हृदय से लगा लिया॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी। आसन बर बैठारे आनी॥
पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा। मोहि सम भाग्यवन्त नहिं दूजा॥6॥
मूल
सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी। आसन बर बैठारे आनी॥
पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा। मोहि सम भाग्यवन्त नहिं दूजा॥6॥
भावार्थ
ज्ञानी मुनि ने आदरपूर्वक कुशल पूछकर उनको लाकर श्रेष्ठ आसन पर बैठाया। फिर बहुत प्रकार से प्रभु की पूजा करके कहा- मेरे समान भाग्यवान् आज दूसरा कोई नहीं है॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहँ लगि रहे अपर मुनि बृन्दा। हरषे सब बिलोकि सुखकन्दा॥7॥
मूल
जहँ लगि रहे अपर मुनि बृन्दा। हरषे सब बिलोकि सुखकन्दा॥7॥
भावार्थ
वहाँ जहाँ तक (जितने भी) अन्य मुनिगण थे, सभी आनन्दकन्द श्री रामजी के दर्शन करके हर्षित हो गए॥7॥
12
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर।
सरद इन्दु तन चितवन मानहुँ निकर चकोर॥12॥
मूल
मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर।
सरद इन्दु तन चितवन मानहुँ निकर चकोर॥12॥
भावार्थ
मुनियों के समूह में श्री रामचन्द्रजी सबकी ओर सम्मुख होकर बैठे हैं (अर्थात् प्रत्येक मुनि को श्री रामजी अपने ही सामने मुख करके बैठे दिखाई देते हैं और सब मुनि टकटकी लगाए उनके मुख को देख रहे हैं)। ऐसा जान पडता है मानो चकोरों का समुदाय शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की ओर देख रहा है॥12॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाहीं॥
तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ॥1॥
मूल
तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाहीं॥
तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ॥1॥
भावार्थ
तब श्री रामजी ने मुनि से कहा- हे प्रभो! आप से तो कुछ छिपाव है नहीं। मैं जिस कारण से आया हूँ, वह आप जानते ही हैं। इसी से हे तात! मैन्ने आपसे समझाकर कुछ नहीं कहा॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अब सो मन्त्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही॥
मुनि मुसुकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी॥2॥
मूल
अब सो मन्त्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही॥
मुनि मुसुकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी॥2॥
भावार्थ
हे प्रभो! अब आप मुझे वही मन्त्र (सलाह) दीजिए, जिस प्रकार मैं मुनियों के द्रोही राक्षसों को मारूँ। प्रभु की वाणी सुनकर मुनि मुस्कुराए और बोले- हे नाथ! आपने क्या समझकर मुझसे यह प्रश्न किया?॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी। जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी॥
ऊमरि तरु बिसाल तव माया। फल ब्रह्माण्ड अनेक निकाया॥3॥
मूल
तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी। जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी॥
ऊमरि तरु बिसाल तव माया। फल ब्रह्माण्ड अनेक निकाया॥3॥
भावार्थ
हे पापों का नाश करने वाले! मैं तो आप ही के भजन के प्रभाव से आपकी कुछ थोडी सी महिमा जानता हूँ। आपकी माया गूलर के विशाल वृक्ष के समान है, अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह ही जिसके फल हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीव चराचर जन्तु समाना। भीतर बसहिं न जानहिं आना॥
ते फल भच्छक कठिन कराला। तव भयँ डरत सदा सोउ काला॥4॥
मूल
जीव चराचर जन्तु समाना। भीतर बसहिं न जानहिं आना॥
ते फल भच्छक कठिन कराला। तव भयँ डरत सदा सोउ काला॥4॥
भावार्थ
चर और अचर जीव (गूलर के फल के भीतर रहने वाले छोटे-छोटे) जन्तुओं के समान उन (ब्रह्माण्ड रूपी फलों) के भीतर बसते हैं और वे (अपने उस छोटे से जगत् के सिवा) दूसरा कुछ नहीं जानते। उन फलों का भक्षण करने वाला कठिन और कराल काल है। वह काल भी सदा आपसे भयभीत रहता है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं॥
यह बर मागउँ कृपानिकेता। बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता॥5॥
मूल
ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं॥
यह बर मागउँ कृपानिकेता। बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता॥5॥
भावार्थ
उन्हीं आपने समस्त लोकपालों के स्वामी होकर भी मुझसे मनुष्य की तरह प्रश्न किया। हे कृपा के धाम! मैं तो यह वर माँगता हूँ कि आप श्री सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित मेरे हृदय में (सदा) निवास कीजिए॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अबिरल भगति बिरति सतसङ्गा। चरन सरोरुह प्रीति अभङ्गा॥
जद्यपि ब्रह्म अखण्ड अनन्ता। अनुभव गम्य भजहिं जेहि सन्ता॥6॥
मूल
अबिरल भगति बिरति सतसङ्गा। चरन सरोरुह प्रीति अभङ्गा॥
जद्यपि ब्रह्म अखण्ड अनन्ता। अनुभव गम्य भजहिं जेहि सन्ता॥6॥
भावार्थ
मुझे प्रगाढ भक्ति, वैराग्य, सत्सङ्ग और आपके चरणकमलों में अटूट प्रेम प्राप्त हो। यद्यपि आप अखण्ड और अनन्त ब्रह्म हैं, जो अनुभव से ही जानने में आते हैं और जिनका सन्तजन भजन करते हैं॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस तव रूप बखानउँ जानउँ। फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ॥
सन्तत दासन्ह देहु बडाई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई॥7॥
मूल
अस तव रूप बखानउँ जानउँ। फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ॥
सन्तत दासन्ह देहु बडाई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई॥7॥
भावार्थ
यद्यपि मैं आपके ऐसे रूप को जानता हूँ और उसका वर्णन भी करता हूँ, तो भी लौट-लौटकर में सगुण ब्रह्म में (आपके इस सुन्दर स्वरूप में) ही प्रेम मानता हूँ। आप सेवकों को सदा ही बडाई दिया करते हैं, इसी से हे रघुनाथजी! आपने मुझसे पूछा है॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ। पावन पञ्चबटी तेहि नाऊँ॥
दण्डक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू॥8॥
मूल
है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ। पावन पञ्चबटी तेहि नाऊँ॥
दण्डक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू॥8॥
भावार्थ
हे प्रभो! एक परम मनोहर और पवित्र स्थान है, उसका नाम पञ्चवटी है। हे प्रभो! आप दण्डक वन को (जहाँ पञ्चवटी है) पवित्र कीजिए और श्रेष्ठ मुनि गौतमजी के कठोर शाप को हर लीजिए॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
बास करहु तहँ रघुकुल राया। कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया॥
चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पञ्चबटी निअराई॥9॥
मूल
बास करहु तहँ रघुकुल राया। कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया॥
चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पञ्चबटी निअराई॥9॥
भावार्थ
हे रघुकुल के स्वामी! आप सब मुनियों पर दया करके वहीं निवास कीजिए। मुनि की आज्ञा पाकर श्री रामचन्द्रजी वहाँ से चल दिए और शीघ्र ही पञ्चवटी के निकट पहुँच गए॥9॥
13
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
गीधराज सै भेण्ट भइ बहु बिधि प्रीति बढाइ।
गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ॥13॥
मूल
गीधराज सै भेण्ट भइ बहु बिधि प्रीति बढाइ।
गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ॥13॥
भावार्थ
वहाँ गृध्रराज जटायु से भेण्ट हुई। उसके साथ बहुत प्रकार से प्रेम बढाकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी गोदावरीजी के समीप पर्णकुटी छाकर रहने लगे॥13॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भए मुनि बीती त्रासा॥
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए॥1॥
मूल
जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भए मुनि बीती त्रासा॥
गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति होहिं सुहाए॥1॥
भावार्थ
जब से श्री रामजी ने वहाँ निवास किया, तब से मुनि सुखी हो गए, उनका डर जाता रहा। पर्वत, वन, नदी और तालाब शोभा से छा गए। वे दिनोन्दिन अधिक सुहावने (मालूम) होने लगे॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
खग मृग बृन्द अनन्दित रहहीं। मधुप मधुर गुञ्जत छबि लहहीं॥
सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा॥2॥
मूल
खग मृग बृन्द अनन्दित रहहीं। मधुप मधुर गुञ्जत छबि लहहीं॥
सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा॥2॥
भावार्थ
पक्षी और पशुओं के समूह आनन्दित रहते हैं और भौंरे मधुर गुञ्जार करते हुए शोभा पा रहे हैं। जहाँ प्रत्यक्ष श्री रामजी विराजमान हैं, उस वन का वर्णन सर्पराज शेषजी भी नहीं कर सकते॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना॥
सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं॥3॥
मूल
एक बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना॥
सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाईं॥3॥
भावार्थ
एक बार प्रभु श्री रामजी सुख से बैठे हुए थे। उस समय लक्ष्मणजी ने उनसे छलरहित (सरल) वचन कहे- हे देवता, मनुष्य, मुनि और चराचर के स्वामी! मैं अपने प्रभु की तरह (अपना स्वामी समझकर) आपसे पूछता हूँ॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा॥
कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥4॥
मूल
मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा॥
कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया॥4॥
भावार्थ
हे देव! मुझे समझाकर वही कहिए, जिससे सब छोडकर मैं आपकी चरणरज की ही सेवा करूँ। ज्ञान, वैराग्य और माया का वर्णन कीजिए और उस भक्ति को कहिए, जिसके कारण आप दया करते हैं॥4॥
14
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ।
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ॥14॥
मूल
ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ।
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ॥14॥
भावार्थ
हे प्रभो! ईश्वर और जीव का भेद भी सब समझाकर कहिए, जिससे आपके चरणों में मेरी प्रीति हो और शोक, मोह तथा भ्रम नष्ट हो जाएँ॥14॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई॥
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥1॥
मूल
थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई॥
मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥1॥
भावार्थ
(श्री रामजी ने कहा-) हे तात! मैं थोडे ही में सब समझाकर कहे देता हूँ। तुम मन, चित्त और बुद्धि लगाकर सुनो! मैं और मेरा, तू और तेरा- यही माया है, जिसने समस्त जीवों को वश में कर रखा है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥2॥
मूल
गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥2॥
भावार्थ
इन्द्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना। उसके भी एक विद्या और दूसरी अविद्या, इन दोनों भेदों को तुम सुनो-॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकूपा॥
एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें॥3॥
मूल
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकूपा॥
एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें॥3॥
भावार्थ
एक (अविद्या) दुष्ट (दोषयुक्त) है और अत्यन्त दुःखरूप है, जिसके वश होकर जीव संसार रूपी कुएँ में पडा हुआ है और एक (विद्या) जिसके वश में गुण है और जो जगत् की रचना करती है, वह प्रभु से ही प्रेरित होती है, उसके अपना बल कुछ भी नही है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं॥
कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥4॥
मूल
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माहीं॥
कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी॥4॥
भावार्थ
ज्ञान वह है, जहाँ (जिसमें) मान आदि एक भी (दोष) नहीं है और जो सबसे समान रूप से ब्रह्म को देखता है। हे तात! उसी को परम वैराग्यवान् कहना चाहिए, जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका हो॥4॥
(जिसमें मान, दम्भ, हिंसा, क्षमाराहित्य, टेढापन, आचार्य सेवा का अभाव, अपवित्रता, अस्थिरता, मन का निगृहीत न होना, इन्द्रियों के विषय में आसक्ति, अहङ्कार, जन्म-मृत्यु-जरा-व्याधिमय जगत् में सुख-बुद्धि, स्त्री-पुत्र-घर आदि में आसक्ति तथा ममता, इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में हर्ष-शोक, भक्ति का अभाव, एकान्त में मन न लगना, विषयी मनुष्यों के सङ्ग में प्रेम- ये अठारह न हों और नित्य अध्यात्म (आत्मा) में स्थिति तथा तत्त्व ज्ञान के अर्थ (तत्त्वज्ञान के द्वारा जानने योग्य) परमात्मा का नित्य दर्शन हो, वही ज्ञान कहलाता है। देखिए गीता अध्याय 13/ 7 से 11)
15
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव।
बन्ध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव॥15॥
मूल
माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव।
बन्ध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव॥15॥
भावार्थ
जो माया को, ईश्वर को और अपने स्वरूप को नहीं जानता, उसे जीव कहना चाहिए। जो (कर्मानुसार) बन्धन और मोक्ष देने वाला, सबसे परे और माया का प्रेरक है, वह ईश्वर है॥15॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई॥1॥
मूल
धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना॥
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई॥1॥
भावार्थ
धर्म (के आचरण) से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्ष का देने वाला है- ऐसा वेदों ने वर्णन किया है। और हे भाई! जिससे मैं शीघ्र ही प्रसन्न होता हूँ, वह मेरी भक्ति है जो भक्तों को सुख देने वाली है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो सुतन्त्र अवलम्ब न आना। तेहि आधीन ग्यान बिग्याना॥
भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो सन्त होइँ अनुकूला॥2॥
मूल
सो सुतन्त्र अवलम्ब न आना। तेहि आधीन ग्यान बिग्याना॥
भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो सन्त होइँ अनुकूला॥2॥
भावार्थ
वह भक्ति स्वतन्त्र है, उसको (ज्ञान-विज्ञान आदि किसी) दूसरे साधन का सहारा (अपेक्षा) नहीं है। ज्ञान और विज्ञान तो उसके अधीन हैं। हे तात! भक्ति अनुपम एवं सुख की मूल है और वह तभी मिलती है, जब सन्त अनुकूल (प्रसन्न) होते हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पन्थ मोहि पावहिं प्रानी॥
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती॥3॥
मूल
भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पन्थ मोहि पावहिं प्रानी॥
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती॥3॥
भावार्थ
अब मैं भक्ति के साधन विस्तार से कहता हूँ- यह सुगम मार्ग है, जिससे जीव मुझको सहज ही पा जाते हैं। पहले तो ब्राह्मणों के चरणों में अत्यन्त प्रीति हो और वेद की रीति के अनुसार अपने-अपने (वर्णाश्रम के) कर्मों में लगा रहे॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा॥
श्रवनादिक नव भक्ति दृढाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं॥4॥
मूल
एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा॥
श्रवनादिक नव भक्ति दृढाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं॥4॥
भावार्थ
इसका फल, फिर विषयों से वैराग्य होगा। तब (वैराग्य होने पर) मेरे धर्म (भागवत धर्म) में प्रेम उत्पन्न होगा। तब श्रवण आदि नौ प्रकार की भक्तियाँ दृढ होङ्गी और मन में मेरी लीलाओं के प्रति अत्यन्त प्रेम होगा॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्त चरन पङ्कज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ नेमा॥
गुरु पितु मातु बन्धु पति देवा। सब मोहि कहँ जानै दृढ सेवा॥5॥
मूल
सन्त चरन पङ्कज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ नेमा॥
गुरु पितु मातु बन्धु पति देवा। सब मोहि कहँ जानै दृढ सेवा॥5॥
भावार्थ
जिसका सन्तों के चरणकमलों में अत्यन्त प्रेम हो, मन, वचन और कर्म से भजन का दृढ नियम हो और जो मुझको ही गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सब कुछ जाने और सेवा में दृढ हो,॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा॥
काम आदि मद दम्भ न जाकें। तात निरन्तर बस मैं ताकें॥6॥
मूल
मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा॥
काम आदि मद दम्भ न जाकें। तात निरन्तर बस मैं ताकें॥6॥
भावार्थ
मेरा गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगे और काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हों, हे भाई! मैं सदा उसके वश में रहता हूँ॥6॥
16
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम॥16॥
मूल
बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम।
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम॥16॥
भावार्थ
जिनको कर्म, वचन और मन से मेरी ही गति है और जो निष्काम भाव से मेरा भजन करते हैं, उनके हृदय कमल में मैं सदा विश्राम किया करता हूँ॥16॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगति जोग सुनि अति सुख पावा। लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा॥
एहि बिधि कछुक दिन बीती। कहत बिराग ग्यान गुन नीती॥1॥
मूल
भगति जोग सुनि अति सुख पावा। लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा॥
एहि बिधि कछुक दिन बीती। कहत बिराग ग्यान गुन नीती॥1॥
भावार्थ
इस भक्ति योग को सुनकर लक्ष्मणजी ने अत्यन्त सुख पाया और उन्होन्ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाया। इस प्रकार वैराग्य, ज्ञान, गुण और नीति कहते हुए कुछ दिन बीत गए॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी॥
पञ्चबटी सो गइ एक बारा। देखि बिकल भइ जुगल कुमारा॥2॥
मूल
सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी॥
पञ्चबटी सो गइ एक बारा। देखि बिकल भइ जुगल कुमारा॥2॥
भावार्थ
शूर्पणखा नामक रावण की एक बहिन थी, जो नागिन के समान भयानक और दुष्ट हृदय की थी। वह एक बार पञ्चवटी में गई और दोनों राजकुमारों को देखकर विकल (काम से पीडित) हो गई॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
भ्राता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी॥
होइ बिकल सक मनहि न रोकी। जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी॥3॥
मूल
भ्राता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी॥
होइ बिकल सक मनहि न रोकी। जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी॥3॥
भावार्थ
(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुडजी! (शूर्पणखा- जैसी राक्षसी, धर्मज्ञान शून्य कामान्ध) स्त्री मनोहर पुरुष को देखकर, चाहे वह भाई, पिता, पुत्र ही हो, विकल हो जाती है और मन को नहीं रोक सकती। जैसे सूर्यकान्तमणि सूर्य को देखकर द्रवित हो जाती है (ज्वाला से पिघल जाती है)॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुचिर रूप धरि प्रभु पहिं जाई। बोली बचन बहुत मुसुकाई॥
तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी। यह सँजोग बिधि रचा बिचारी॥4॥
मूल
रुचिर रूप धरि प्रभु पहिं जाई। बोली बचन बहुत मुसुकाई॥
तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी। यह सँजोग बिधि रचा बिचारी॥4॥
भावार्थ
वह सुन्दर रूप धरकर प्रभु के पास जाकर और बहुत मुस्कुराकर वचन बोली- न तो तुम्हारे समान कोई पुरुष है, न मेरे समान स्त्री। विधाता ने यह संयोग (जोडा) बहुत विचार कर रचा है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम अनुरूप पुरुष जग माहीं। देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं॥
तातें अब लगि रहिउँ कुमारी। मनु माना कछु तुम्हहि निहारी॥5॥
मूल
मम अनुरूप पुरुष जग माहीं। देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं॥
तातें अब लगि रहिउँ कुमारी। मनु माना कछु तुम्हहि निहारी॥5॥
भावार्थ
मेरे योग्य पुरुष (वर) जगत्भर में नहीं है, मैन्ने तीनों लोकों को खोज देखा। इसी से मैं अब तक कुमारी (अविवाहित) रही। अब तुमको देखकर कुछ मन माना (चित्त ठहरा) है॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतहि चितइ कही प्रभु बाता। अहइ कुआर मोर लघु भ्राता॥
गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी। प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी॥6॥
मूल
सीतहि चितइ कही प्रभु बाता। अहइ कुआर मोर लघु भ्राता॥
गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी। प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी॥6॥
भावार्थ
सीताजी की ओर देखकर प्रभु श्री रामजी ने यह बात कही कि मेरा छोटा भाई कुमार है। तब वह लक्ष्मणजी के पास गई। लक्ष्मणजी ने उसे शत्रु की बहिन समझकर और प्रभु की ओर देखकर कोमल वाणी से बोले-॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुन्दरि सुनु मैं उन्ह कर दासा। पराधीन नहिं तोर सुपासा॥
प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा। जो कछु करहिं उनहि सब छाजा॥7॥
मूल
सुन्दरि सुनु मैं उन्ह कर दासा। पराधीन नहिं तोर सुपासा॥
प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा। जो कछु करहिं उनहि सब छाजा॥7॥
भावार्थ
हे सुन्दरी! सुन, मैं तो उनका दास हूँ। मैं पराधीन हूँ, अतः तुम्हे सुभीता (सुख) न होगा। प्रभु समर्थ हैं, कोसलपुर के राजा है, वे जो कुछ करें, उन्हें सब फबता है॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवक सुख चह मान भिखारी। ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी॥
लोभी जसु चह चार गुमानी। नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी॥8॥
मूल
सेवक सुख चह मान भिखारी। ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी॥
लोभी जसु चह चार गुमानी। नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी॥8॥
भावार्थ
सेवक सुख चाहे, भिखारी सम्मान चाहे, व्यसनी (जिसे जुए, शराब आदि का व्यसन हो) धन और व्यभिचारी शुभ गति चाहे, लोभी यश चाहे और अभिमानी चारों फल- अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चाहे, तो ये सब प्राणी आकाश को दुहकर दूध लेना चाहते हैं (अर्थात् असम्भव बात को सम्भव करना चाहते हैं)॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनि फिरि राम निकट सो आई। प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई॥
लछिमन कहा तोहि सो बरई। जो तृन तोरि लाज परिहरई॥9॥
मूल
पुनि फिरि राम निकट सो आई। प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई॥
लछिमन कहा तोहि सो बरई। जो तृन तोरि लाज परिहरई॥9॥
भावार्थ
वह लौटकर फिर श्री रामजी के पास आई, प्रभु ने उसे फिर लक्ष्मणजी के पास भेज दिया। लक्ष्मणजी ने कहा- तुम्हें वही वरेगा, जो लज्जा को तृण तोडकर (अर्थात् प्रतिज्ञा करके) त्याग देगा (अर्थात् जो निपट निर्लज्ज होगा)॥9॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब खिसिआनि राम पहिं गई। रूप भयङ्कर प्रगटत भई॥
सीतहि सभय देखि रघुराई। कहा अनुज सन सयन बुझाई॥10॥
मूल
तब खिसिआनि राम पहिं गई। रूप भयङ्कर प्रगटत भई॥
सीतहि सभय देखि रघुराई। कहा अनुज सन सयन बुझाई॥10॥
भावार्थ
तब वह खिसियायी हुई (क्रुद्ध होकर) श्री रामजी के पास गई और उसने अपना भयङ्कर रूप प्रकट किया। सीताजी को भयभीत देखकर श्री रघुनाथजी ने लक्ष्मण को इशारा देकर कहा॥10॥
17
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि।
ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि॥17॥
मूल
लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि।
ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि॥17॥
भावार्थ
लक्ष्मणजी ने बडी फुर्ती से उसको बिना नाक-कान की कर दिया। मानो उसके हाथ रावण को चुनौती दी हो!॥17॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्रव सैल गेरु कै धारा॥
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता॥1॥
मूल
नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्रव सैल गेरु कै धारा॥
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता॥1॥
भावार्थ
बिना नाक-कान के वह विकराल हो गई। (उसके शरीर से रक्त इस प्रकार बहने लगा) मानो (काले) पर्वत से गेरू की धारा बह रही हो। वह विलाप करती हुई खर-दूषण के पास गई (और बोली-) हे भाई! तुम्हारे पौरुष (वीरता) को धिक्कार है, तुम्हारे बल को धिक्कार है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेहिं पूछा सब कहेसि बुझाई। जातुधान सुनि सेन बनाई॥
धाए निसिचर निकर बरूथा। जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा॥2॥
मूल
तेहिं पूछा सब कहेसि बुझाई। जातुधान सुनि सेन बनाई॥
धाए निसिचर निकर बरूथा। जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा॥2॥
भावार्थ
उन्होन्ने पूछा, तब शूर्पणखा ने सब समझाकर कहा। सब सुनकर राक्षसों ने सेना तैयार की। राक्षस समूह झुण्ड के झुण्ड दौडे। मानो पङ्खधारी काजल के पर्वतों का झुण्ड हो॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाना बाहन नानाकारा। नानायुध धर घोर अपारा॥
सूपनखा आगें करि लीनी। असुभ रूप श्रुति नासा हीनी॥3॥
मूल
नाना बाहन नानाकारा। नानायुध धर घोर अपारा॥
सूपनखा आगें करि लीनी। असुभ रूप श्रुति नासा हीनी॥3॥
भावार्थ
वे अनेकों प्रकार की सवारियों पर चढे हुए तथा अनेकों आकार (सूरतों) के हैं। वे अपार हैं और अनेकों प्रकार के असङ्ख्य भयानक हथियार धारण किए हुए हैं। उन्होन्ने नाक-कान कटी हुई अमङ्गलरूपिणी शूर्पणखा को आगे कर लिया॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
असगुन अमित होहिं भयकारी। गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी॥
गर्जहिं तर्जहिं गगन उडाहीं। देखि कटकु भट अति हरषाहीं॥4॥
मूल
असगुन अमित होहिं भयकारी। गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी॥
गर्जहिं तर्जहिं गगन उडाहीं। देखि कटकु भट अति हरषाहीं॥4॥
भावार्थ
अनगिनत भयङ्कर अशकुन हो रहे हैं, परन्तु मृत्यु के वश होने के कारण वे सब के सब उनको कुछ गिनते ही नहीं। गरजते हैं, ललकारते हैं और आकाश में उडते हैं। सेना देखकर योद्धा लोग बहुत ही हर्षित होते हैं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई। धरि मारहु तिय लेहु छडाई॥
धूरि पूरि नभ मण्डल रहा। राम बोलाइ अनुज सन कहा॥5॥
मूल
कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई। धरि मारहु तिय लेहु छडाई॥
धूरि पूरि नभ मण्डल रहा। राम बोलाइ अनुज सन कहा॥5॥
भावार्थ
कोई कहता है दोनों भाइयों को जीता ही पकड लो, पकडकर मार डालो और स्त्री को छीन लो। आकाशमण्डल धूल से भर गया। तब श्री रामजी ने लक्ष्मणजी को बुलाकर उनसे कहा॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
लै जानकिहि जाहु गिरि कन्दर। आवा निसिचर कटकु भयङ्कर॥
रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी। चले सहित श्री सर धनु पानी॥6॥
मूल
लै जानकिहि जाहु गिरि कन्दर। आवा निसिचर कटकु भयङ्कर॥
रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी। चले सहित श्री सर धनु पानी॥6॥
भावार्थ
राक्षसों की भयानक सेना आ गई है। जानकीजी को लेकर तुम पर्वत की कन्दरा में चले जाओ। सावधान रहना। प्रभु श्री रामचन्द्रजी के वचन सुनकर लक्ष्मणजी हाथ में धनुष-बाण लिए श्री सीताजी सहित चले॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि राम रिपुदल चलि आवा।
बिहसि कठिन कोदण्ड चढावा॥7॥
मूल
देखि राम रिपुदल चलि आवा।
बिहसि कठिन कोदण्ड चढावा॥7॥
भावार्थ
शत्रुओं की सेना (समीप) चली आई है, यह देखकर श्री रामजी ने हँसकर कठिन धनुष को चढाया॥7॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोदण्ड कठिन चढाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों।
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों॥
कटि कसि निषङ्ग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै।
चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै॥
मूल
कोदण्ड कठिन चढाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों।
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों॥
कटि कसि निषङ्ग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै।
चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै॥
भावार्थ
कठिन धनुष चढाकर सिर पर जटा का जूडा बाँधते हुए प्रभु कैसे शोभित हो रहे हैं, जैसे मरकतमणि (पन्ने) के पर्वत पर करोडों बिजलियों से दो साँप लड रहे हों। कमर में तरकस कसकर, विशाल भुजाओं में धनुष लेकर और बाण सुधारकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी राक्षसों की ओर देख रहे हैं। मानों मतवाले हाथियों के समूह को (आता) देखकर सिंह (उनकी ओर) ताक रहा हो।
18
01 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट।
जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज॥18॥
मूल
आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट।
जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज॥18॥
भावार्थ
‘पकडो-पकडो’ पुकारते हुए राक्षस योद्धा बाग छोडकर (बडी तेजी से) दौडे हुए आए (और उन्होन्ने श्री रामजी को चारों ओर से घेर लिया), जैसे बालसूर्य (उदयकालीन सूर्य) को अकेला देखकर मन्देह नामक दैत्य घेर लेते हैं॥18॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी। थकित भई रजनीचर धारी॥
सचिव बोलि बोले खर दूषन। यह कोउ नृपबालक नर भूषन॥1॥
मूल
प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी। थकित भई रजनीचर धारी॥
सचिव बोलि बोले खर दूषन। यह कोउ नृपबालक नर भूषन॥1॥
भावार्थ
(सौन्दर्य-माधुर्यनिधि) प्रभु श्री रामजी को देखकर राक्षसों की सेना थकित रह गई। वे उन पर बाण नहीं छोड सके। मन्त्री को बुलाकर खर-दूषण ने कहा- यह राजकुमार कोई मनुष्यों का भूषण है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाग असुर सुर नर मुनि जेते। देखे जिते हते हम केते॥
हम भरि जन्म सुनहु सब भाई। देखी नहिं असि सुन्दरताई॥2॥
मूल
नाग असुर सुर नर मुनि जेते। देखे जिते हते हम केते॥
हम भरि जन्म सुनहु सब भाई। देखी नहिं असि सुन्दरताई॥2॥
भावार्थ
जितने भी नाग, असुर, देवता, मनुष्य और मुनि हैं, उनमें से हमने न जाने कितने ही देखे, जीते और मार डाले हैं। पर हे सब भाइयों! सुनो, हमने जन्मभर में ऐसी सुन्दरता कहीं नहीं देखी॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जद्यपि भगिनी कीन्हि कुरूपा। बध लायक नहिं पुरुष अनूपा॥
देहु तुरत निज नारि दुराई। जीअत भवन जाहु द्वौ भाई॥3॥
मूल
जद्यपि भगिनी कीन्हि कुरूपा। बध लायक नहिं पुरुष अनूपा॥
देहु तुरत निज नारि दुराई। जीअत भवन जाहु द्वौ भाई॥3॥
भावार्थ
यद्यपि इन्होन्ने हमारी बहिन को कुरूप कर दिया तथापि ये अनुपम पुरुष वध करने योग्य नहीं हैं। ‘छिपाई हुई अपनी स्त्री हमें तुरन्त दे दो और दोनों भाई जीते जी घर लौट जाओ’॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु। तासु बचन सुनि आतुर आवहु॥
दूतन्ह कहा राम सन जाई। सुनत राम बोले मुसुकाई॥4॥
मूल
मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु। तासु बचन सुनि आतुर आवहु॥
दूतन्ह कहा राम सन जाई। सुनत राम बोले मुसुकाई॥4॥
भावार्थ
मेरा यह कथन तुम लोग उसे सुनाओ और उसका वचन (उत्तर) सुनकर शीघ्र आओ। दूतों ने जाकर यह सन्देश श्री रामचन्द्रजी से कहा। उसे सुनते ही श्री रामचन्द्रजी मुस्कुराकर बोले-॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
हम छत्री मृगया बन करहीं। तुम्ह से खल मृग खोजत फिरहीं॥
रिपु बलवन्त देखि नहिं डरहीं। एक बार कालहु सन लरहीं॥5॥
मूल
हम छत्री मृगया बन करहीं। तुम्ह से खल मृग खोजत फिरहीं॥
रिपु बलवन्त देखि नहिं डरहीं। एक बार कालहु सन लरहीं॥5॥
भावार्थ
हम क्षत्रिय हैं, वन में शिकार करते हैं और तुम्हारे सरीखे दुष्ट पशुओं को तो ढूँढते ही फिरते हैं। हम बलवान् शत्रु देखकर नहीं डरते। (लडने को आवे तो) एक बार तो हम काल से भी लड सकते हैं॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक। मुनि पालक खल सालक बालक॥
जौं न होइ बल घर फिरि जाहू। समर बिमुख मैं हतउँ न काहू॥6॥
मूल
जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक। मुनि पालक खल सालक बालक॥
जौं न होइ बल घर फिरि जाहू। समर बिमुख मैं हतउँ न काहू॥6॥
भावार्थ
यद्यपि हम मनुष्य हैं, परन्तु दैत्यकुल का नाश करने वाले और मुनियों की रक्षा करने वाले हैं, हम बालक हैं, परन्तु दुष्टों को दण्ड देने वाले। यदि बल न हो तो घर लौट जाओ। सङ्ग्राम में पीठ दिखाने वाले किसी को मैं नहीं मारता॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
रन चढि करिअ कपट चतुराई। रिपु पर कृपा परम कदराई॥
दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ। सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ॥7॥
मूल
रन चढि करिअ कपट चतुराई। रिपु पर कृपा परम कदराई॥
दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ। सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ॥7॥
भावार्थ
रण में चढ आकर कपट-चतुराई करना और शत्रु पर कृपा करना (दया दिखाना) तो बडी भारी कायरता है। दूतों ने लौटकर तुरन्त सब बातें कहीं, जिन्हें सुनकर खर-दूषण का हृदय अत्यन्त जल उठा॥7॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा।
सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा॥
प्रभु कीन्हि धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा।
भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा॥
मूल
उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा।
सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा॥
प्रभु कीन्हि धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा।
भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा॥
भावार्थ
(खर-दूषण का) हृदय जल उठा। तब उन्होन्ने कहा- पकड लो (कैद कर लो)। (यह सुनकर) भयानक राक्षस योद्धा बाण, धनुष, तोमर, शक्ति (साँग), शूल (बरछी), कृपाण (कटार), परिघ और फरसा धारण किए हुए दौड पडे। प्रभु श्री रामजी ने पहले धनुष का बडा कठोर, घोर और भयानक टङ्कार किया, जिसे सुनकर राक्षस बहरे और व्याकुल हो गए। उस समय उन्हें कुछ भी होश न रहा।
19
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सावधान होइ धाए जानि सबल आराति।
लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहुभाँति॥1॥
मूल
सावधान होइ धाए जानि सबल आराति।
लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहुभाँति॥1॥
भावार्थ
फिर वे शत्रु को बलवान् जानकर सावधान होकर दौडे और श्री रामचन्द्रजी के ऊपर बहुत प्रकार के अस्त्र-शस्त्र बरसाने लगे॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर।
तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँडे निज तीर॥2॥
मूल
तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर।
तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँडे निज तीर॥2॥
भावार्थ
श्री रघुवीरजी ने उनके हथियारों को तिल के समान (टुकडे-टुकडे) करके काट डाला। फिर धनुष को कान तक तानकर अपने तीर छोडे॥2॥
02 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब चले बान कराल। फुङ्करत जनु बहु ब्याल॥
कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम॥1॥
मूल
तब चले बान कराल। फुङ्करत जनु बहु ब्याल॥
कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम॥1॥
भावार्थ
तब भयानक बाण ऐसे चले, मानो फुफकारते हुए बहुत से सर्प जा रहे हैं। श्री रामचन्द्रजी सङ्ग्राम में क्रुद्ध हुए और अत्यन्त तीक्ष्ण बाण चले॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवलोकि खरतर तीर। मुरि चले निसिचर बीर॥
भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ। जो भागि रन ते जाइ॥2॥
मूल
अवलोकि खरतर तीर। मुरि चले निसिचर बीर॥
भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ। जो भागि रन ते जाइ॥2॥
भावार्थ
अत्यन्त तीक्ष्ण बाणों को देखकर राक्षस वीर पीठ दिखाकर भाग चले। तब खर-दूषण और त्रिशिरा तीनों भाई क्रुद्ध होकर बोले- जो रण से भागकर जाएगा,॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेहि बधब हम निज पानि। फिरे मरन मन महुँ ठानि॥
आयुध अनेक प्रकार। सनमुख ते करहिं प्रहार॥3॥
मूल
तेहि बधब हम निज पानि। फिरे मरन मन महुँ ठानि॥
आयुध अनेक प्रकार। सनमुख ते करहिं प्रहार॥3॥
भावार्थ
उसका हम अपने हाथों वध करेङ्गे। तब मन में मरना ठानकर भागते हुए राक्षस लौट पडे और सामने होकर वे अनेकों प्रकार के हथियारों से श्री रामजी पर प्रहार करने लगे॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
रिपु परम कोपे जानि। प्रभु धनुष सर सन्धानि॥
छाँडे बिपुल नाराच। लगे कटन बिकट पिसाच॥4॥
मूल
रिपु परम कोपे जानि। प्रभु धनुष सर सन्धानि॥
छाँडे बिपुल नाराच। लगे कटन बिकट पिसाच॥4॥
भावार्थ
शत्रु को अत्यन्त कुपित जानकर प्रभु ने धनुष पर बाण चढाकर बहुत से बाण छोडे, जिनसे भयानक राक्षस कटने लगे॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
उर सीस भुज कर चरन। जहँ तहँ लगे महि परन॥
चिक्करत लागत बान। धर परत कुधर समान॥5॥
मूल
उर सीस भुज कर चरन। जहँ तहँ लगे महि परन॥
चिक्करत लागत बान। धर परत कुधर समान॥5॥
भावार्थ
उनकी छाती, सिर, भुजा, हाथ और पैर जहाँ-तहाँ पृथ्वी पर गिरने लगे। बाण लगते ही वे हाथी की तरह चिङ्ग्घाडते हैं। उनके पहाड के समान धड कट-कटकर गिर रहे हैं॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
भट कटत तन सत खण्ड। पुनि उठत करि पाषण्ड॥
नभ उडत बहु भुज मुण्ड। बिनु मौलि धावत रुण्ड॥6॥
मूल
भट कटत तन सत खण्ड। पुनि उठत करि पाषण्ड॥
नभ उडत बहु भुज मुण्ड। बिनु मौलि धावत रुण्ड॥6॥
भावार्थ
योद्धाओं के शरीर कटकर सैकडों टुकडे हो जाते हैं। वे फिर माया करके उठ खडे होते हैं। आकाश में बहुत सी भुजाएँ और सिर उड रहे हैं तथा बिना सिर के धड दौड रहे हैं॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
खग कङ्क काक सृगाल। कटकटहिं कठिन कराल॥7॥
मूल
खग कङ्क काक सृगाल। कटकटहिं कठिन कराल॥7॥
भावार्थ
चील (या क्रौञ्च), कौए आदि पक्षी और सियार कठोर और भयङ्कर कट-कट शब्द कर रहे हैं॥7॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
कटकटहिं जम्बुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर सञ्चहीं।
बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नञ्चहीं॥
रघुबीर बान प्रचण्ड खण्डहिं भटन्ह के उर भुज सिरा।
जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयङ्कर गिरा॥1॥
मूल
कटकटहिं जम्बुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर सञ्चहीं।
बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नञ्चहीं॥
रघुबीर बान प्रचण्ड खण्डहिं भटन्ह के उर भुज सिरा।
जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयङ्कर गिरा॥1॥
भावार्थ
सियार कटकटाते हैं, भूत, प्रेत और पिशाच खोपडियाँ बटोर रहे हैं (अथवा खप्पर भर रहे हैं)। वीर-वैताल खोपडियों पर ताल दे रहे हैं और योगिनियाँ नाच रही हैं। श्री रघुवीर के प्रचण्ड बाण योद्धाओं के वक्षःस्थल, भुजा और सिरों के टुकडे-टुकडे कर डालते हैं। उनके धड जहाँ-तहाँ गिर पडते हैं, फिर उठते और लडते हैं और ‘पकडो-पकडो’ का भयङ्कर शब्द करते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तावरीं गहि उडत गीध पिसाच कर गहि धावहीं।
सङ्ग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुडी उडावहीं॥
मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे।
अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे॥2॥
मूल
अन्तावरीं गहि उडत गीध पिसाच कर गहि धावहीं।
सङ्ग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुडी उडावहीं॥
मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे।
अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे॥2॥
भावार्थ
अन्तडियों के एक छोर को पकडकर गीध उडते हैं और उन्हीं का दूसरा छोर हाथ से पकडकर पिशाच दौडते हैं, ऐसा मालूम होता है मानो सङ्ग्राम रूपी नगर के निवासी बहुत से बालक पतङ्ग उडा रहे हों। अनेकों योद्धा मारे और पछाडे गए बहुत से, जिनके हृदय विदीर्ण हो गए हैं, पडे कराह रहे हैं। अपनी सेना को व्याकुल देखर त्रिशिरा और खर-दूषण आदि योद्धा श्री रामजी की ओर मुडे॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरसक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं।
करि कोप श्री रघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं॥
प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका।
दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका॥3॥
मूल
सरसक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं।
करि कोप श्री रघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं॥
प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका।
दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका॥3॥
भावार्थ
अनगिनत राक्षस क्रोध करके बाण, शक्ति, तोमर, फरसा, शूल और कृपाण एक ही बार में श्री रघुवीर पर छोडने लगे। प्रभु ने पल भर में शत्रुओं के बाणों को काटकर, ललकारकर उन पर अपने बाण छोडे। सब राक्षस सेनापतियों के हृदय में दस-दस बाण मारे॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी।
सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी॥
सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर्यो।
देखहिं परसपर राम करि सङ्ग्राम रिपु दल लरि मर्यो॥4॥
मूल
महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी।
सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी॥
सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर्यो।
देखहिं परसपर राम करि सङ्ग्राम रिपु दल लरि मर्यो॥4॥
भावार्थ
योद्धा पृथ्वी पर गिर पडते हैं, फिर उठकर भिडते हैं। मरते नहीं, बहुत प्रकार की अतिशय माया रचते हैं। देवता यह देखकर डरते हैं कि प्रेत (राक्षस) चौदह हजार हैं और अयोध्यानाथ श्री रामजी अकेले हैं। देवता और मुनियों को भयभीत देखकर माया के स्वामी प्रभु ने एक बडा कौतुक किया, जिससे शत्रुओं की सेना एक-दूसरे को राम रूप देखने लगी और आपस में ही युद्ध करके लड मरी॥4॥
20
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान।
करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान॥1॥
मूल
राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान।
करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान॥1॥
भावार्थ
सब (‘यही राम है, इसे मारो’ इस प्रकार) राम-राम कहकर शरीर छोडते हैं और निर्वाण (मोक्ष) पद पाते हैं। कृपानिधान श्री रामजी ने यह उपाय करके क्षण भर में शत्रुओं को मार डाला॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान।
अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान॥2॥
मूल
हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान।
अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान॥2॥
भावार्थ
देवता हर्षित होकर फूल बरसाते हैं, आकाश में नगाडे बज रहे हैं। फिर वे सब स्तुति कर-करके अनेकों विमानों पर सुशोभित हुए चले गए॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते॥
तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए॥1॥
मूल
जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते॥
तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए॥1॥
भावार्थ
जब श्री रघुनाथजी ने युद्ध में शत्रुओं को जीत लिया तथा देवता, मनुष्य और मुनि सबके भय नष्ट हो गए, तब लक्ष्मणजी सीताजी को ले आए। चरणों में पडते हुए उनको प्रभु ने प्रसन्नतापूर्वक उठाकर हृदय से लगा लिया॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता॥
पञ्चबटीं बसि श्री रघुनायक। करत चरित सुर मुनि सुखदायक॥2॥
मूल
सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता॥
पञ्चबटीं बसि श्री रघुनायक। करत चरित सुर मुनि सुखदायक॥2॥
भावार्थ
सीताजी श्री रामजी के श्याम और कोमल शरीर को परम प्रेम के साथ देख रही हैं, नेत्र अघाते नहीं हैं। इस प्रकार पञ्चवटी में बसकर श्री रघुनाथजी देवताओं और मुनियों को सुख देने वाले चरित्र करने लगे॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा॥
बोली बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी॥3॥
मूल
धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा॥
बोली बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी॥3॥
भावार्थ
खर-दूषण का विध्वंस देखकर शूर्पणखा ने जाकर रावण को भडकाया। वह बडा क्रोध करके वचन बोली- तूने देश और खजाने की सुधि ही भुला दी॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती॥
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥4॥
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढें किएँ अरु पाएँ॥
सङ्ग तें जती कुमन्त्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥5॥
मूल
करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती॥
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥4॥
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढें किएँ अरु पाएँ॥
सङ्ग तें जती कुमन्त्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥5॥
भावार्थ
शराब पी लेता है और दिन-रात पडा सोता रहता है। तुझे खबर नहीं है कि शत्रु तेरे सिर पर खडा है? नीति के बिना राज्य और धर्म के बिना धन प्राप्त करने से, भगवान को समर्पण किए बिना उत्तम कर्म करने से और विवेक उत्पन्न किए बिना विद्या पढने से परिणाम में श्रम ही हाथ लगता है। विषयों के सङ्ग से सन्न्यासी, बुरी सलाह से राजा, मान से ज्ञान, मदिरा पान से लज्जा,॥4-5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहिं बेगि नीति अस सुनी॥6॥
मूल
प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहिं बेगि नीति अस सुनी॥6॥
भावार्थ
नम्रता के बिना (नम्रता न होने से) प्रीति और मद (अहङ्कार) से गुणवान शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, इस प्रकार नीति मैन्ने सुनी है॥6॥
21
01 सोरठा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन॥1॥
मूल
रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि।
अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन॥1॥
भावार्थ
शत्रु, रोग, अग्नि, पाप, स्वामी और सर्प को छोटा करके नहीं समझना चाहिए। ऐसा कहकर शूर्पणखा अनेक प्रकार से विलाप करके रोने लगी॥1॥
02 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ।
तोहि जिअत दसकन्धर मोरि कि असि गति होइ॥2॥
मूल
सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ।
तोहि जिअत दसकन्धर मोरि कि असि गति होइ॥2॥
भावार्थ
(रावण की) सभा के बीच वह व्याकुल होकर पडी हुई बहुत प्रकार से रो-रोकर कह रही है कि अरे दशग्रीव! तेरे जीते जी मेरी क्या ऐसी दशा होनी चाहिए?॥2॥
03 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनत सभासद उठे अकुलाई। समुझाई गहि बाँह उठाई॥
कह लङ्केस कहसि निज बाता। केइँ तव नासा कान निपाता॥1॥
मूल
सुनत सभासद उठे अकुलाई। समुझाई गहि बाँह उठाई॥
कह लङ्केस कहसि निज बाता। केइँ तव नासा कान निपाता॥1॥
भावार्थ
शूर्पणखा के वचन सुनते ही सभासद् अकुला उठे। उन्होन्ने शूर्पणखा की बाँह पकडकर उसे उठाया और समझाया। लङ्कापति रावण ने कहा- अपनी बात तो बता, किसने तेरे नाक-कान काट लिए?॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवध नृपति दसरथ के जाए। पुरुष सिङ्घ बन खेलन आए॥
समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी। रहित निसाचर करिहहिं धरनी॥2॥
मूल
अवध नृपति दसरथ के जाए। पुरुष सिङ्घ बन खेलन आए॥
समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी। रहित निसाचर करिहहिं धरनी॥2॥
भावार्थ
(वह बोली-) अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र, जो पुरुषों में सिंह के समान हैं, वन में शिकार खेलने आए हैं। मुझे उनकी करनी ऐसी समझ पडी है कि वे पृथ्वी को राक्षसों से रहित कर देङ्गे॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन। अभय भए बिचरत मुनि कानन॥
देखत बालक काल समाना। परम धीर धन्वी गुन नाना॥3॥
मूल
जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन। अभय भए बिचरत मुनि कानन॥
देखत बालक काल समाना। परम धीर धन्वी गुन नाना॥3॥
भावार्थ
जिनकी भुजाओं का बल पाकर हे दशमुख! मुनि लोग वन में निर्भय होकर विचरने लगे हैं। वे देखने में तो बालक हैं, पर हैं काल के समान। वे परम धीर, श्रेष्ठ धनुर्धर और अनेकों गुणों से युक्त हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता। खल बध रत सुर मुनि सुखदाता॥
सोभा धाम राम अस नामा। तिन्ह के सङ्ग नारि एक स्यामा॥4॥
मूल
अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता। खल बध रत सुर मुनि सुखदाता॥
सोभा धाम राम अस नामा। तिन्ह के सङ्ग नारि एक स्यामा॥4॥
भावार्थ
दोनों भाइयों का बल और प्रताप अतुलनीय है। वे दुष्टों का वध करने में लगे हैं और देवता तथा मुनियों को सुख देने वाले हैं। वे शोभा के धाम हैं, ‘राम’ ऐसा उनका नाम है। उनके साथ एक तरुणी सुन्दर स्त्री है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूप रासि बिधि नारि सँवारी। रति सत कोटि तासु बलिहारी॥
तासु अनुज काटे श्रुति नासा। सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा॥5॥
मूल
रूप रासि बिधि नारि सँवारी। रति सत कोटि तासु बलिहारी॥
तासु अनुज काटे श्रुति नासा। सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा॥5॥
भावार्थ
विधाता ने उस स्त्री को ऐसी रूप की राशि बनाया है कि सौ करोड रति (कामदेव की स्त्री) उस पर निछावर हैं। उन्हीं के छोटे भाई ने मेरे नाक-कान काट डाले। मैं तेरी बहिन हूँ, यह सुनकर वे मेरी हँसी करने लगे॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
खर दूषन सुनि लगे पुकारा। छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा॥
खर दूषन तिसिरा कर घाता। सुनि दससीस जरे सब गाता॥6॥
मूल
खर दूषन सुनि लगे पुकारा। छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा॥
खर दूषन तिसिरा कर घाता। सुनि दससीस जरे सब गाता॥6॥
भावार्थ
मेरी पुकार सुनकर खर-दूषण सहायता करने आए। पर उन्होन्ने क्षण भर में सारी सेना को मार डाला। खर-दूषन और त्रिशिरा का वध सुनकर रावण के सारे अङ्ग जल उठे॥6॥
22
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भाँति।
गयउ भवन अति सोचबस नीद परइ नहिं राति॥22॥
मूल
सूपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भाँति।
गयउ भवन अति सोचबस नीद परइ नहिं राति॥22॥
भावार्थ
उसने शूर्पणखा को समझाकर बहुत प्रकार से अपने बल का बखान किया, किन्तु (मन में) वह अत्यन्त चिन्तावश होकर अपने महल में गया, उसे रात भर नीन्द नहीं पडी॥22॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं॥
खर दूषन मोहि सम बलवन्ता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवन्ता॥1॥
मूल
सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं॥
खर दूषन मोहि सम बलवन्ता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवन्ता॥1॥
भावार्थ
(वह मन ही मन विचार करने लगा-) देवता, मनुष्य, असुर, नाग और पक्षियों में कोई ऐसा नहीं, जो मेरे सेवक को भी पा सके। खर-दूषण तो मेरे ही समान बलवान थे। उन्हें भगवान के सिवा और कौन मार सकता है?॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुर रञ्जन भञ्जन महि भारा। जौं भगवन्त लीन्ह अवतारा॥
तौ मैं जाइ बैरु हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ॥2॥
मूल
सुर रञ्जन भञ्जन महि भारा। जौं भगवन्त लीन्ह अवतारा॥
तौ मैं जाइ बैरु हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ॥2॥
भावार्थ
देवताओं को आनन्द देने वाले और पृथ्वी का भार हरण करने वाले भगवान ने ही यदि अवतार लिया है, तो मैं जाकर उनसे हठपूर्वक वैर करूँगा और प्रभु के बाण (के आघात) से प्राण छोडकर भवसागर से तर जाऊँगा॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
होइहि भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मन्त्र दृढ एहा॥
जौं नररूप भूपसुत कोऊ। हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ॥3॥
मूल
होइहि भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मन्त्र दृढ एहा॥
जौं नररूप भूपसुत कोऊ। हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ॥3॥
भावार्थ
इस तामस शरीर से भजन तो होगा नहीं, अतएव मन, वचन और कर्म से यही दृढ निश्चय है। और यदि वे मनुष्य रूप कोई राजकुमार होङ्गे तो उन दोनों को रण में जीतकर उनकी स्त्री को हर लूँगा॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
चला अकेल जान चढि तहवाँ। बस मारीच सिन्धु तट जहवाँ॥
इहाँ राम जसि जुगुति बनाई। सुनहु उमा सो कथा सुहाई॥4॥
मूल
चला अकेल जान चढि तहवाँ। बस मारीच सिन्धु तट जहवाँ॥
इहाँ राम जसि जुगुति बनाई। सुनहु उमा सो कथा सुहाई॥4॥
भावार्थ
राक्षसों की भयानक सेना आ गई है। जानकीजी को लेकर तुम पर्वत की कन्दरा में चले जाओ। सावधान रहना। प्रभु श्री रामचन्द्रजी के वचन सुनकर लक्ष्मणजी हाथ में धनुष-बाण लिए श्री सीताजी सहित चले॥6॥
23
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कन्द।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृन्द॥23॥
मूल
लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कन्द।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृन्द॥23॥
भावार्थ
लक्ष्मणजी जब कन्द-मूल-फल लेने के लिए वन में गए, तब (अकेले में) कृपा और सुख के समूह श्री रामचन्द्रजी हँसकर जानकीजी से बोले-॥23॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥1॥
मूल
सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥1॥
भावार्थ
हे प्रिये! हे सुन्दर पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली सुशीले! सुनो! मैं अब कुछ मनोहर मनुष्य लीला करूँगा, इसलिए जब तक मैं राक्षसों का नाश करूँ, तब तक तुम अग्नि में निवास करो॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥
निज प्रतिबिम्ब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रूप सुबिनीता॥2॥
मूल
जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥
निज प्रतिबिम्ब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रूप सुबिनीता॥2॥
भावार्थ
श्री रामजी ने ज्यों ही सब समझाकर कहा, त्यों ही श्री सीताजी प्रभु के चरणों को हृदय में धरकर अग्नि में समा गईं। सीताजी ने अपनी ही छाया मूर्ति वहाँ रख दी, जो उनके जैसे ही शील-स्वभाव और रूपवाली तथा वैसे ही विनम्र थी॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना॥
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा॥3॥
मूल
लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना॥
दसमुख गयउ जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा॥3॥
भावार्थ
भगवान ने जो कुछ लीला रची, इस रहस्य को लक्ष्मणजी ने भी नहीं जाना। स्वार्थ परायण और नीच रावण वहाँ गया, जहाँ मारीच था और उसको सिर नवाया॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अङ्कुस धनु उरग बिलाई॥
भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी॥4॥
मूल
नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अङ्कुस धनु उरग बिलाई॥
भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी॥4॥
भावार्थ
नीच का झुकना (नम्रता) भी अत्यन्त दुःखदायी होता है। जैसे अङ्कुश, धनुष, साँप और बिल्ली का झुकना। हे भवानी! दुष्ट की मीठी वाणी भी (उसी प्रकार) भय देने वाली होती है, जैसे बिना ऋतु के फूल!॥4॥
24
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात।
कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात॥24॥
मूल
करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात।
कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात॥24॥
भावार्थ
तब मारीच ने उसकी पूजा करके आदरपूर्वक बात पूछी- हे तात! आपका मन किस कारण इतना अधिक व्यग्र है और आप अकेले आए हैं?॥24॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
दसमुख सकल कथा तेहि आगें। कही सहित अभिमान अभागें॥
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी॥1॥
मूल
दसमुख सकल कथा तेहि आगें। कही सहित अभिमान अभागें॥
होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौं नृपनारी॥1॥
भावार्थ
भाग्यहीन रावण ने सारी कथा अभिमान सहित उसके सामने कही (और फिर कहा-) तुम छल करने वाले कपटमृग बनो, जिस उपाय से मैं उस राजवधू को हर लाऊँ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा। ते नररूप चराचर ईसा॥
तासों तात बयरु नहिं कीजै। मारें मरिअ जिआएँ जीजै॥2॥
मूल
तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा। ते नररूप चराचर ईसा॥
तासों तात बयरु नहिं कीजै। मारें मरिअ जिआएँ जीजै॥2॥
भावार्थ
तब उसने (मारीच ने) कहा- हे दशशीश! सुनिए। वे मनुष्य रूप में चराचर के ईश्वर हैं। हे तात! उनसे वैर न कीजिए। उन्हीं के मारने से मरना और उनके जिलाने से जीना होता है (सबका जीवन-मरण उन्हीं के अधीन है)॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा॥
सत जोजन आयउँ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं॥3॥
मूल
मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा॥
सत जोजन आयउँ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं॥3॥
भावार्थ
यही राजकुमार मुनि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा के लिए गए थे। उस समय श्री रघुनाथजी ने बिना फल का बाण मुझे मारा था, जिससे मैं क्षणभर में सौ योजन पर आ गिरा। उनसे वैर करने में भलाई नहीं है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
भइ मम कीट भृङ्ग की नाई। जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई॥
जौं नर तात तदपि अति सूरा। तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा॥4॥
मूल
भइ मम कीट भृङ्ग की नाई। जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई॥
जौं नर तात तदपि अति सूरा। तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा॥4॥
भावार्थ
मेरी दशा तो भृङ्गी के कीडे की सी हो गई है। अब मैं जहाँ-तहाँ श्री राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को ही देखता हूँ। और हे तात! यदि वे मनुष्य हैं, तो भी बडे शूरवीर हैं। उनसे विरोध करने में पूरा न पडेगा (सफलता नहीं मिलेगी)॥4॥
25
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेहिं ताडका सुबाहु हति खण्डेउ हर कोदण्ड।
खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबण्ड॥25॥
मूल
जेहिं ताडका सुबाहु हति खण्डेउ हर कोदण्ड।
खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबण्ड॥25॥
भावार्थ
जिसने ताडका और सुबाहु को मारकर शिवजी का धनुष तोड दिया और खर, दूषण और त्रिशिरा का वध कर डाला, ऐसा प्रचण्ड बली भी कहीं मनुष्य हो सकता है?॥25॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी॥
गुरु जिमि मूढ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा॥1॥
मूल
जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी॥
गुरु जिमि मूढ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा॥1॥
भावार्थ
अतः अपने कुल की कुशल विचारकर आप घर लौट जाइए। यह सुनकर रावण जल उठा और उसने बहुत सी गालियाँ दीं (दुर्वचन कहे)। (कहा-) अरे मूर्ख! तू गुरु की तरह मुझे ज्ञान सिखाता है? बता तो संसार में मेरे समान योद्धा कौन है?॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब मारीच हृदयँ अनुमाना। नवहि बिरोधें नहिं कल्याना॥
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बन्दि कबि भानस गुनी॥2॥
मूल
तब मारीच हृदयँ अनुमाना। नवहि बिरोधें नहिं कल्याना॥
सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बन्दि कबि भानस गुनी॥2॥
भावार्थ
तब मारीच ने हृदय में अनुमान किया कि शस्त्री (शस्त्रधारी), मर्मी (भेद जानने वाला), समर्थ स्वामी, मूर्ख, धनवान, वैद्य, भाट, कवि और रसोइया- इन नौ व्यक्तियों से विरोध (वैर) करने में कल्याण (कुशल) नहीं होता॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभय भाँति देखा निज मरना। तब ताकिसि रघुनायक सरना॥
उतरु देत मोहि बधब अभागें। कस न मरौं रघुपति सर लागें॥3॥
मूल
उभय भाँति देखा निज मरना। तब ताकिसि रघुनायक सरना॥
उतरु देत मोहि बधब अभागें। कस न मरौं रघुपति सर लागें॥3॥
भावार्थ
जब मारीच ने दोनों प्रकार से अपना मरण देखा, तब उसने श्री रघुनाथजी की शरण तकी (अर्थात उनकी शरण जाने में ही कल्याण समझा)। (सोचा कि) उत्तर देते ही (नाहीं करते ही) यह अभागा मुझे मार डालेगा। फिर श्री रघुनाथजी के बाण लगने से ही क्यों न मरूँ॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस जियँ जानि दसानन सङ्गा। चला राम पद प्रेम अभङ्गा॥
मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहउँ परम सनेही॥4॥
मूल
अस जियँ जानि दसानन सङ्गा। चला राम पद प्रेम अभङ्गा॥
मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहउँ परम सनेही॥4॥
भावार्थ
हृदय में ऐसा समझकर वह रावण के साथ चला। श्री रामजी के चरणों में उसका अखण्ड प्रेम है। उसके मन में इस बात का अत्यन्त हर्ष है कि आज मैं अपने परम स्नेही श्री रामजी को देखूँगा, किन्तु उसने यह हर्ष रावण को नहीं जनाया॥4॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं।
श्रीसहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं॥
निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी।
निज पानि सर सन्धानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी॥
मूल
निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं।
श्रीसहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं॥
निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी।
निज पानि सर सन्धानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी॥
भावार्थ
(वह मन ही मन सोचने लगा-) अपने परम प्रियतम को देखकर नेत्रों को सफल करके सुख पाऊँगा। जानकीजी सहित और छोटे भाई लक्ष्मणजी समेत कृपानिधान श्री रामजी के चरणों में मन लगाऊँगा। जिनका क्रोध भी मोक्ष देने वाला है और जिनकी भक्ति उन अवश (किसी के वश में न होने वाले, स्वतन्त्र भगवान) को भी वश में करने वाली है, अब वे ही आनन्द के समुद्र श्री हरि अपने हाथों से बाण सन्धानकर मेरा वध करेङ्गे।
26
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान।
फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन॥26॥
मूल
मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान।
फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन॥26॥
भावार्थ
धनुष-बाण धारण किए मेरे पीछे-पीछे पृथ्वी पर (पकडने के लिए) दौडते हुए प्रभु को मैं फिर-फिरकर देखूँगा। मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं है॥26॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेहि बननिकट दसानन गयऊ। तब मारीच कपटमृग भयऊ॥
अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई॥1॥
मूल
तेहि बननिकट दसानन गयऊ। तब मारीच कपटमृग भयऊ॥
अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई॥1॥
भावार्थ
जब रावण उस वन के (जिस वन में श्री रघुनाथजी रहते थे) निकट पहुँचा, तब मारीच कपटमृग बन गया! वह अत्यन्त ही विचित्र था, कुछ वर्णन नहीं किया जा सकता। सोने का शरीर मणियों से जडकर बनाया था॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीता परम रुचिर मृग देखा। अङ्ग अङ्ग सुमनोहर बेषा॥
सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुन्दर छाला॥2॥
मूल
सीता परम रुचिर मृग देखा। अङ्ग अङ्ग सुमनोहर बेषा॥
सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुन्दर छाला॥2॥
भावार्थ
सीताजी ने उस परम सुन्दर हिरन को देखा, जिसके अङ्ग-अङ्ग की छटा अत्यन्त मनोहर थी। (वे कहने लगीं-) हे देव! हे कृपालु रघुवीर! सुनिए। इस मृग की छाल बहुत ही सुन्दर है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यसन्ध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही॥
तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु सँवारन॥3॥
मूल
सत्यसन्ध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही॥
तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु सँवारन॥3॥
भावार्थ
जानकीजी ने कहा- हे सत्यप्रतिज्ञ प्रभो! इसको मारकर इसका चमडा ला दीजिए। तब श्री रघुनाथजी (मारीच के कपटमृग बनने का) सब कारण जानते हुए भी, देवताओं का कार्य बनाने के लिए हर्षित होकर उठे॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतल चाप रुचिर सर साँधा॥
प्रभु लछिमनहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई॥4॥
मूल
मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतल चाप रुचिर सर साँधा॥
प्रभु लछिमनहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई॥4॥
भावार्थ
हिरन को देखकर श्री रामजी ने कमर में फेण्टा बाँधा और हाथ में धनुष लेकर उस पर सुन्दर (दिव्य) बाण चढाया। फिर प्रभु ने लक्ष्मणजी को समझाकर कहा- हे भाई! वन में बहुत से राक्षस फिरते हैं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीता केरि करेहु रखवारी। बुधि बिबेक बल समय बिचारी॥
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी। धाए रामु सरासन साजी॥5॥
मूल
सीता केरि करेहु रखवारी। बुधि बिबेक बल समय बिचारी॥
प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी। धाए रामु सरासन साजी॥5॥
भावार्थ
तुम बुद्धि और विवेक के द्वारा बल और समय का विचार करके सीताजी की रखवाली करना। प्रभु को देखकर मृग भाग चला। श्री रामचन्द्रजी भी धनुष चढाकर उसके पीछे दौडे॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा॥
कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई। कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छपाई॥6॥
मूल
निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा॥
कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई। कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छपाई॥6॥
भावार्थ
वेद जिनके विषय में ‘नेति-नेति’ कहकर रह जाते हैं और शिवजी भी जिन्हें ध्यान में नहीं पाते (अर्थात जो मन और वाणी से नितान्त परे हैं), वे ही श्री रामजी माया से बने हुए मृग के पीछे दौड रहे हैं। वह कभी निकट आ जाता है और फिर दूर भाग जाता है। कभी तो प्रकट हो जाता है और कभी छिप जाता है॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रगटत दुरत करत छल भूरी। एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी॥
तब तकि राम कठिन सर मारा। धरनि परेउ करि घोर पुकारा॥7॥
मूल
प्रगटत दुरत करत छल भूरी। एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी॥
तब तकि राम कठिन सर मारा। धरनि परेउ करि घोर पुकारा॥7॥
भावार्थ
इस प्रकार प्रकट होता और छिपता हुआ तथा बहुतेरे छल करता हुआ वह प्रभु को दूर ले गया। तब श्री रामचन्द्रजी ने तक कर (निशाना साधकर) कठोर बाण मारा, (जिसके लगते ही) वह घोर शब्द करके पृथ्वी पर गिर पडा॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः
लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा। पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा॥
प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा। सुमिरेसि रामु समेत सनेहा॥8॥
मूल
लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा। पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा॥
प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा। सुमिरेसि रामु समेत सनेहा॥8॥
भावार्थ
पहले लक्ष्मणजी का नाम लेकर उसने पीछे मन में श्री रामजी का स्मरण किया। प्राण त्याग करते समय उसने अपना (राक्षसी) शरीर प्रकट किया और प्रेम सहित श्री रामजी का स्मरण किया॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तर प्रेम तासु पहिचाना। मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना॥9॥
मूल
अन्तर प्रेम तासु पहिचाना। मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना॥9॥
भावार्थ
सुजान (सर्वज्ञ) श्री रामजी ने उसके हृदय के प्रेम को पहचानकर उसे वह गति (अपना परमपद) दी जो मुनियों को भी दुर्लभ है॥9॥
27
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिपुल सुमर सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ।
निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबन्धु रघुनाथ॥27॥
मूल
बिपुल सुमर सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ।
निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबन्धु रघुनाथ॥27॥
भावार्थ
देवता बहुत से फूल बरसा रहे हैं और प्रभु के गुणों की गाथाएँ (स्तुतियाँ) गा रहे हैं (कि) श्री रघुनाथजी ऐसे दीनबन्धु हैं कि उन्होन्ने असुर को भी अपना परम पद दे दिया॥27॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा॥
आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता॥1॥
मूल
खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा॥
आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता॥1॥
भावार्थ
दुष्ट मारीच को मारकर श्री रघुवीर तुरन्त लौट पडे। हाथ में धनुष और कमर में तरकस शोभा दे रहा है। इधर जब सीताजी ने दुःखभरी वाणी (मरते समय मारीच की ‘हा लक्ष्मण’ की आवाज) सुनी तो वे बहुत ही भयभीत होकर लक्ष्मणजी से कहने लगीं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाहु बेगि सङ्कट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता॥
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ सङ्कट परइ कि सोई॥2॥
मूल
जाहु बेगि सङ्कट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता॥
भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ सङ्कट परइ कि सोई॥2॥
भावार्थ
तुम शीघ्र जाओ, तुम्हारे भाई बडे सङ्कट में हैं। लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे माता! सुनो, जिनके भ्रृकुटि विलास (भौं के इशारे) मात्र से सारी सृष्टि का लय (प्रलय) हो जाता है, वे श्री रामजी क्या कभी स्वप्न में भी सङ्कट में पड सकते हैं?॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला॥
बन दिसि देव सौम्पि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू॥3॥
मूल
मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला॥
बन दिसि देव सौम्पि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू॥3॥
भावार्थ
इस पर जब सीताजी कुछ मर्म वचन (हृदय में चुभने वाले वचन) कहने लगीं, तब भगवान की प्रेरणा से लक्ष्मणजी का मन भी चञ्चल हो उठा। वे श्री सीताजी को वन और दिशाओं के देवताओं को सौम्पकर वहाँ चले, जहाँ रावण रूपी चन्द्रमा के लिए राहु रूप श्री रामजी थे॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सून बीच दसकन्धर देखा। आवा निकट जती कें बेषा॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥
मूल
सून बीच दसकन्धर देखा। आवा निकट जती कें बेषा॥
जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं॥4॥
भावार्थ
रावण सूना मौका देखकर यति (सन्न्यासी) के वेष में श्री सीताजी के समीप आया, जिसके डर से देवता और दैत्य तक इतना डरते हैं कि रात को नीन्द नहीं आती और दिन में (भरपेट) अन्न नहीं खाते-॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भडिहाईं॥
इमि कुपन्थ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥
मूल
सो दससीस स्वान की नाईं। इत उत चितइ चला भडिहाईं॥
इमि कुपन्थ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बुधि बल लेसा॥5॥
भावार्थ
वही दस सिर वाला रावण कुत्ते की तरह इधर-उधर ताकता हुआ भडिहाई (चोरी) के लिए चला। (काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुडजी! इस प्रकार कुमार्ग पर पैर रखते ही शरीर में तेज तथा बुद्धि एवं बल का लेश भी नहीं रह जाता॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूना पाकर कुत्ता चुपके से बर्तन-भाँडों में मुँह डालकर कुछ चुरा ले जाता है। उसे ‘भडिहाई’ कहते हैं।
नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं॥6॥
मूल
सूना पाकर कुत्ता चुपके से बर्तन-भाँडों में मुँह डालकर कुछ चुरा ले जाता है। उसे ‘भडिहाई’ कहते हैं।
नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई॥
कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं॥6॥
भावार्थ
रावण ने अनेकों प्रकार की सुहावनी कथाएँ रचकर सीताजी को राजनीति, भय और प्रेम दिखलाया। सीताजी ने कहा- हे यति गोसाईं! सुनो, तुमने तो दुष्ट की तरह वचन कहे॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब रावन निज रूप देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा॥
कह सीता धरि धीरजु गाढा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढा॥7॥
मूल
तब रावन निज रूप देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा॥
कह सीता धरि धीरजु गाढा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढा॥7॥
भावार्थ
तब रावण ने अपना असली रूप दिखलाया और जब नाम सुनाया तब तो सीताजी भयभीत हो गईं। उन्होन्ने गहरा धीरज धरकर कहा- ‘अरे दुष्ट! खडा तो रह, प्रभु आ गए’॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भएसि कालबस निसिचर नाहा॥
सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बन्दि सुख माना॥8॥
मूल
जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भएसि कालबस निसिचर नाहा॥
सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बन्दि सुख माना॥8॥
भावार्थ
जैसे सिंह की स्त्री को तुच्छ खरगोश चाहे, वैसे ही अरे राक्षसराज! तू (मेरी चाह करके) काल के वश हुआ है। ये वचन सुनते ही रावण को क्रोध आ गया, परन्तु मन में उसने सीताजी के चरणों की वन्दना करके सुख माना॥8॥
28
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोधवन्त तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ।
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ॥28॥
मूल
क्रोधवन्त तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ।
चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ॥28॥
भावार्थ
फिर क्रोध में भरकर रावण ने सीताजी को रथ पर बैठा लिया और वह बडी उतावली के साथ आकाश मार्ग से चला, किन्तु डर के मारे उससे रथ हाँका नहीं जाता था॥28॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
हा जग एक बीर रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया॥
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक॥1॥
मूल
हा जग एक बीर रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया॥
आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक॥1॥
भावार्थ
(सीताजी विलाप कर रही थीं-) हा जगत के अद्वितीय वीर श्री रघुनाथजी! आपने किस अपराध से मुझ पर दया भुला दी। हे दुःखों के हरने वाले, हे शरणागत को सुख देने वाले, हा रघुकुल रूपी कमल के सूर्य!॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा। सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा॥
बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही॥2॥
मूल
हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा। सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा॥
बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही॥2॥
भावार्थ
हा लक्ष्मण! तुम्हारा दोष नहीं है। मैन्ने क्रोध किया, उसका फल पाया। श्री जानकीजी बहुत प्रकार से विलाप कर रही हैं- (हाय!) प्रभु की कृपा तो बहुत है, परन्तु वे स्नेही प्रभु बहुत दूर रह गए हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा॥
सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी॥3॥
मूल
बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा॥
सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी॥3॥
भावार्थ
प्रभु को मेरी यह विपत्ति कौन सुनावे? यज्ञ के अन्न को गदहा खाना चाहता है। सीताजी का भारी विलाप सुनकर जड-चेतन सभी जीव दुःखी हो गए॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गीधराज सुनि आरत बानी। रघुकुलतिलक नारि पहिचानी॥
अधम निसाचर लीन्हें जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई॥4॥
मूल
गीधराज सुनि आरत बानी। रघुकुलतिलक नारि पहिचानी॥
अधम निसाचर लीन्हें जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई॥4॥
भावार्थ
गृध्रराज जटायु ने सीताजी की दुःखभरी वाणी सुनकर पहचान लिया कि ये रघुकुल तिलक श्री रामचन्द्रजी की पत्नी हैं। (उसने देखा कि) नीच राक्षस इनको (बुरी तरह) लिए जा रहा है, जैसे कपिला गाय म्लेच्छ के पाले पड गई हो॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहउँ जातुधान कर नासा॥
धावा क्रोधवन्त खग कैसें। छूटइ पबि परबत कहुँ जैसें॥5॥
मूल
सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहउँ जातुधान कर नासा॥
धावा क्रोधवन्त खग कैसें। छूटइ पबि परबत कहुँ जैसें॥5॥
भावार्थ
(वह बोला-) हे सीते पुत्री! भय मत कर। मैं इस राक्षस का नाश करूँगा। (यह कहकर) वह पक्षी क्रोध में भरकर ऐसे दौडा, जैसे पर्वत की ओर वज्र छूटता हो॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रे रे दुष्ट ठाढ किन हो ही। निर्भय चलेसि न जानेहि मोही॥
आवत देखि कृतान्त समाना। फिरि दसकन्धर कर अनुमाना॥6॥
मूल
रे रे दुष्ट ठाढ किन हो ही। निर्भय चलेसि न जानेहि मोही॥
आवत देखि कृतान्त समाना। फिरि दसकन्धर कर अनुमाना॥6॥
भावार्थ
(उसने ललकारकर कहा-) रे रे दुष्ट! खडा क्यों नहीं होता? निडर होकर चल दिया! मुझे तूने नहीं जाना? उसको यमराज के समान आता हुआ देखकर रावण घूमकर मन में अनुमान करने लगा-॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
की मैनाक कि खगपति होई। मम बल जान सहित पति सोई॥
जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँडिहि देहा॥7॥
मूल
की मैनाक कि खगपति होई। मम बल जान सहित पति सोई॥
जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँडिहि देहा॥7॥
भावार्थ
यह या तो मैनाक पर्वत है या पक्षियों का स्वामी गरुड। पर वह (गरुड) तो अपने स्वामी विष्णु सहित मेरे बल को जानता है! (कुछ पास आने पर) रावण ने उसे पहचान लिया (और बोला-) यह तो बूढा जटायु है। यह मेरे हाथ रूपी तीर्थ में शरीर छोडेगा॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनत गीध क्रोधातुर धावा। कह सुनु रावन मोर सिखावा॥
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू॥8॥
मूल
सुनत गीध क्रोधातुर धावा। कह सुनु रावन मोर सिखावा॥
तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू॥8॥
भावार्थ
यह सुनते ही गीध क्रोध में भरकर बडे वेग से दौडा और बोला- रावण! मेरी सिखावन सुन। जानकीजी को छोडकर कुशलपूर्वक अपने घर चला जा। नहीं तो हे बहुत भुजाओं वाले! ऐसा होगा कि-॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम रोष पावक अति घोरा। होइहि सकल सलभ कुल तोरा॥
उतरु न देत दसानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा॥9॥
मूल
राम रोष पावक अति घोरा। होइहि सकल सलभ कुल तोरा॥
उतरु न देत दसानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा॥9॥
भावार्थ
श्री रामजी के क्रोध रूपी अत्यन्त भयानक अग्नि में तेरा सारा वंश पतिङ्गा (होकर भस्म) हो जाएगा। योद्धा रावण कुछ उत्तर नहीं देता। तब गीध क्रोध करके दौडा॥9॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा। सीतहि राखि गीध पुनि फिरा॥
चोचन्ह मारि बिदारेसि देही। दण्ड एक भइ मुरुछा तेही॥10॥
मूल
धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा। सीतहि राखि गीध पुनि फिरा॥
चोचन्ह मारि बिदारेसि देही। दण्ड एक भइ मुरुछा तेही॥10॥
भावार्थ
उसने (रावण के) बाल पकडकर उसे रथ के नीचे उतार लिया, रावण पृथ्वी पर गिर पडा। गीध सीताजी को एक ओर बैठाकर फिर लौटा और चोञ्चों से मार-मारकर रावण के शरीर को विदीर्ण कर डाला। इससे उसे एक घडी के लिए मूर्च्छा हो गई॥10॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब सक्रोध निसिचर खिसिआना। काढेसि परम कराल कृपाना॥
काटेसि पङ्ख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी॥11॥
मूल
तब सक्रोध निसिचर खिसिआना। काढेसि परम कराल कृपाना॥
काटेसि पङ्ख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी॥11॥
भावार्थ
तब खिसियाए हुए रावण ने क्रोधयुक्त होकर अत्यन्त भयानक कटार निकाली और उससे जटायु के पङ्ख काट डाले। पक्षी (जटायु) श्री रामजी की अद्भुत लीला का स्मरण करके पृथ्वी पर गिर पडा॥11॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतहि जान चढाइ बहोरी। चला उताइल त्रास न थोरी॥
करति बिलाप जाति नभ सीता। ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता॥12॥
मूल
सीतहि जान चढाइ बहोरी। चला उताइल त्रास न थोरी॥
करति बिलाप जाति नभ सीता। ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता॥12॥
भावार्थ
सीताजी को फिर रथ पर चढाकर रावण बडी उतावली के साथ चला। उसे भय कम न था। सीताजी आकाश में विलाप करती हुई जा रही हैं। मानो व्याधे के वश में पडी हुई (जाल में फँसी हुई) कोई भयभीत हिरनी हो!॥12॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी। कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी॥
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ। बन असोक महँ राखत भयऊ॥13॥
मूल
गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी। कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी॥
एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ। बन असोक महँ राखत भयऊ॥13॥
भावार्थ
पर्वत पर बैठे हुए बन्दरों को देखकर सीताजी ने हरिनाम लेकर वस्त्र डाल दिया। इस प्रकार वह सीताजी को ले गया और उन्हें अशोक वन में जा रखा॥13॥
29
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ।
तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ॥1॥
मूल
हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ।
तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ॥1॥
भावार्थ
सीताजी को बहुत प्रकार से भय और प्रीति दिखलाकर जब वह दुष्ट हार गया, तब उन्हें यत्न कराके (सब व्यवस्था ठीक कराके) अशोक वृक्ष के नीचे रख दिया॥1॥
नवाह्नपारायण, छठा विश्राम
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेहि बिधि कपट कुरङ्ग सँग धाइ चले श्रीराम।
सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम॥2॥
मूल
नवाह्नपारायण, छठा विश्राम
जेहि बिधि कपट कुरङ्ग सँग धाइ चले श्रीराम।
सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम॥2॥
भावार्थ
जिस प्रकार कपट मृग के साथ श्री रामजी दौड चले थे, उसी छवि को हृदय में रखकर वे हरिनाम (रामनाम) रटती रहती हैं॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
रघुपति अनुजहि आवत देखी। बाहिज चिन्ता कीन्हि बिसेषी॥
जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली॥1॥
मूल
रघुपति अनुजहि आवत देखी। बाहिज चिन्ता कीन्हि बिसेषी॥
जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली॥1॥
भावार्थ
(इधर) श्री रघुनाथजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को आते देखकर ब्राह्य रूप में बहुत चिन्ता की (और कहा-) हे भाई! तुमने जानकी को अकेली छोड दिया और मेरी आज्ञा का उल्लङ्घन कर यहाँ चले आए!॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं। मम मन सीता आश्रम नाहीं॥
गहि पद कमल अनुज कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी॥2॥
मूल
निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं। मम मन सीता आश्रम नाहीं॥
गहि पद कमल अनुज कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी॥2॥
भावार्थ
राक्षसों के झुण्ड वन में फिरते रहते हैं। मेरे मन में ऐसा आता है कि सीता आश्रम में नहीं है। छोटे भाई लक्ष्मणजी ने श्री रामजी के चरणकमलों को पकडकर हाथ जोडकर कहा- हे नाथ! मेरा कुछ भी दोष नहीं है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ। गोदावरि तट आश्रम जहवाँ॥
आश्रम देखि जानकी हीना। भए बिकल जस प्राकृत दीना॥3॥
मूल
अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ। गोदावरि तट आश्रम जहवाँ॥
आश्रम देखि जानकी हीना। भए बिकल जस प्राकृत दीना॥3॥
भावार्थ
लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामजी वहाँ गए, जहाँ गोदावरी के तट पर उनका आश्रम था। आश्रम को जानकीजी से रहित देखकर श्री रामजी साधारण मनुष्य की भाँति व्याकुल और दीन (दुःखी) हो गए॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता॥
लछिमन समुझाए बहु भाँति। पूछत चले लता तरु पाँती॥4॥
मूल
हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता॥
लछिमन समुझाए बहु भाँति। पूछत चले लता तरु पाँती॥4॥
भावार्थ
(वे विलाप करने लगे-) हा गुणों की खान जानकी! हा रूप, शील, व्रत और नियमों में पवित्र सीते! लक्ष्मणजी ने बहुत प्रकार से समझाया। तब श्री रामजी लताओं और वृक्षों की पङ्क्तियों से पूछते हुए चले॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥
खञ्जन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥5॥
मूल
हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी॥
खञ्जन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना॥5॥
भावार्थ
हे पक्षियों! हे पशुओं! हे भौंरों की पङ्क्तियों! तुमने कहीं मृगनयनी सीता को देखा है? खञ्जन, तोता, कबूतर, हिरन, मछली, भौंरों का समूह, प्रवीण कोयल,॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुन्द कली दाडिम दामिनी। कमल सरद ससि अहिभामिनी॥
बरुन पास मनोज धनु हंसा। गज केहरि निज सुनत प्रसंसा॥6॥
मूल
कुन्द कली दाडिम दामिनी। कमल सरद ससि अहिभामिनी॥
बरुन पास मनोज धनु हंसा। गज केहरि निज सुनत प्रसंसा॥6॥
भावार्थ
कुन्दकली, अनार, बिजली, कमल, शरद् का चन्द्रमा और नागिनी, अरुण का पाश, कामदेव का धनुष, हंस, गज और सिंह- ये सब आज अपनी प्रशंसा सुन रहे हैं॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्री फल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न सङ्क सकुच मन माहीं॥
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू॥7॥
मूल
श्री फल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न सङ्क सकुच मन माहीं॥
सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू॥7॥
भावार्थ
बेल, सुवर्ण और केला हर्षित हो रहे हैं। इनके मन में जरा भी शङ्का और सङ्कोच नहीं है। हे जानकी! सुनो, तुम्हारे बिना ये सब आज ऐसे हर्षित हैं, मानो राज पा गए हों। (अर्थात् तुम्हारे अङ्गों के सामने ये सब तुच्छ, अपमानित और लज्जित थे। आज तुम्हें न देखकर ये अपनी शोभा के अभिमान में फूल रहे हैं)॥7॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं। प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं॥
एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति कामी॥8॥
मूल
किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं। प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं॥
एहि बिधि खोजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति कामी॥8॥
भावार्थ
तुमसे यह अनख (स्पर्धा) कैसे सही जाती है? हे प्रिये! तुम शीघ्र ही प्रकट क्यों नहीं होती? इस प्रकार (अनन्त ब्रह्माण्डों के अथवा महामहिमामयी स्वरूपाशक्ति श्री सीताजी के) स्वामी श्री रामजी सीताजी को खोजते हुए (इस प्रकार) विलाप करते हैं, मानो कोई महाविरही और अत्यन्त कामी पुरुष हो॥8॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूरकनाम राम सुख रासी। मनुजचरित कर अज अबिनासी॥
आगें परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा॥9॥
मूल
पूरकनाम राम सुख रासी। मनुजचरित कर अज अबिनासी॥
आगें परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा॥9॥
भावार्थ
पूर्णकाम, आनन्द की राशि, अजन्मा और अविनाशी श्री रामजी मनुष्यों के चरित्र कर रहे हैं। आगे (जाने पर) उन्होन्ने गृध्रपति जटायु को पडा देखा। वह श्री रामजी के चरणों का स्मरण कर रहा था, जिनमें (ध्वजा, कुलिश आदि की) रेखाएँ (चिह्न) हैं॥9॥
30
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर सरोज सिर परसेउ कृपासिन्धु रघुबीर।
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर॥30॥
मूल
कर सरोज सिर परसेउ कृपासिन्धु रघुबीर।
निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर॥30॥
भावार्थ
कृपा सागर श्री रघुवीर ने अपने करकमल से उसके सिर का स्पर्श किया (उसके सिर पर करकमल फेर दिया)। शोभाधाम श्री रामजी का (परम सुन्दर) मुख देखकर उसकी सब पीडा जाती रही॥30॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब कह गीध बचन धरि धीरा। सुनहु राम भञ्जन भव भीरा॥
नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही॥1॥
मूल
तब कह गीध बचन धरि धीरा। सुनहु राम भञ्जन भव भीरा॥
नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहिं खल जनकसुता हरि लीन्ही॥1॥
भावार्थ
तब धीरज धरकर गीध ने यह वचन कहा- हे भव (जन्म-मृत्यु) के भय का नाश करने वाले श्री रामजी! सुनिए। हे नाथ! रावण ने मेरी यह दशा की है। उसी दुष्ट ने जानकीजी को हर लिया है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाईं। बिलपति अति कुररी की नाईं॥
दरस लाग प्रभु राखेउँ प्राना। चलन चहत अब कृपानिधाना॥2॥
मूल
लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाईं। बिलपति अति कुररी की नाईं॥
दरस लाग प्रभु राखेउँ प्राना। चलन चहत अब कृपानिधाना॥2॥
भावार्थ
हे गोसाईं! वह उन्हें लेकर दक्षिण दिशा को गया है। सीताजी कुररी (कुर्ज) की तरह अत्यन्त विलाप कर रही थीं। हे प्रभो! आपके दर्शनों के लिए ही प्राण रोक रखे थे। हे कृपानिधान! अब ये चलना ही चाहते हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसुकाइ कही तेहिं बाता॥
जाकर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा॥3॥
मूल
राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसुकाइ कही तेहिं बाता॥
जाकर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होइ श्रुति गावा॥3॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी ने कहा- हे तात! शारीर को बनाए रखिए। तब उसने मुस्कुराते हुए मुँह से यह बात कही- मरते समय जिनका नाम मुख में आ जाने से अधम (महान् पापी) भी मुक्त हो जाता है, ऐसा वेद गाते हैं-॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो मम लोचन गोचर आगें। राखौं देह नाथ केहि खाँगें॥
जल भरि नयन कहहिं रघुराई। तात कर्म निज तें गति पाई॥4॥
मूल
सो मम लोचन गोचर आगें। राखौं देह नाथ केहि खाँगें॥
जल भरि नयन कहहिं रघुराई। तात कर्म निज तें गति पाई॥4॥
भावार्थ
वही (आप) मेरे नेत्रों के विषय होकर सामने खडे हैं। हे नाथ! अब मैं किस कमी (की पूर्ति) के लिए देह को रखूँ? नेत्रों में जल भरकर श्री रघुनाथजी कहने लगे- हे तात! आपने अपने श्रेष्ठ कर्मों से (दुर्लभ) गति पाई है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
तनु तिज तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा॥5॥
मूल
परहित बस जिन्ह के मन माहीं। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥
तनु तिज तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा॥5॥
भावार्थ
जिनके मन में दूसरे का हित बसता है (समाया रहता है), उनके लिए जगत् में कुछ भी (कोई भी गति) दुर्लभ नहीं है। हे तात! शरीर छोडकर आप मेरे परम धाम में जाइए। मैं आपको क्या दूँ? आप तो पूर्णकाम हैं (सब कुछ पा चुके हैं)॥5॥
31
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥31॥
मूल
सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ।
जौं मैं राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ॥31॥
भावार्थ
हे तात! सीता हरण की बात आप जाकर पिताजी से न कहिएगा। यदि मैं राम हूँ तो दशमुख रावण कुटुम्ब सहित वहाँ आकर स्वयं ही कहेगा॥31॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
गीध देह तजि धरि हरि रूपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा॥
स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी॥1॥
मूल
गीध देह तजि धरि हरि रूपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा॥
स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी॥1॥
भावार्थ
जटायु ने गीध की देह त्यागकर हरि का रूप धारण किया और बहुत से अनुपम (दिव्य) आभूषण और (दिव्य) पीताम्बर पहन लिए। श्याम शरीर है, विशाल चार भुजाएँ हैं और नेत्रों में (प्रेम तथा आनन्द के आँसुओं का) जल भरकर वह स्तुति कर रहा है-॥1॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही।
दससीस बाहु प्रचण्ड खण्डन चण्ड सर मण्डन मही॥
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं॥1॥
मूल
जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही।
दससीस बाहु प्रचण्ड खण्डन चण्ड सर मण्डन मही॥
पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं।
नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं॥1॥
भावार्थ
हे रामजी! आपकी जय हो। आपका रूप अनुपम है, आप निर्गुण हैं, सगुण हैं और सत्य ही गुणों के (माया के) प्रेरक हैं। दस सिर वाले रावण की प्रचण्ड भुजाओं को खण्ड-खण्ड करने के लिए प्रचण्ड बाण धारण करने वाले, पृथ्वी को सुशोभित करने वाले, जलयुक्त मेघ के समान श्याम शरीर वाले, कमल के समान मुख और (लाल) कमल के समान विशाल नेत्रों वाले, विशाल भुजाओं वाले और भव-भय से छुडाने वाले कृपालु श्री रामजी को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं।
गोबिन्द गोपर द्वन्द्वहर बिग्यानघन धरनीधरं॥
जे राम मन्त्र जपन्त सन्त अनन्त जन मन रञ्जनं।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गञ्जनं॥2॥
मूल
बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं।
गोबिन्द गोपर द्वन्द्वहर बिग्यानघन धरनीधरं॥
जे राम मन्त्र जपन्त सन्त अनन्त जन मन रञ्जनं।
नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गञ्जनं॥2॥
भावार्थ
आप अपरिमित बलवाले हैं, अनादि, अजन्मा, अव्यक्त (निराकार), एक अगोचर (अलक्ष्य), गोविन्द (वेद वाक्यों द्वारा जानने योग्य), इन्द्रियों से अतीत, (जन्म-मरण, सुख-दुःख, हर्ष-शोकादि) द्वन्द्वों को हरने वाले, विज्ञान की घनमूर्ति और पृथ्वी के आधार हैं तथा जो सन्त राम मन्त्र को जपते हैं, उन अनन्त सेवकों के मन को आनन्द देने वाले हैं। उन निष्कामप्रिय (निष्कामजनों के प्रेमी अथवा उन्हें प्रिय) तथा काम आदि दुष्टों (दुष्ट वृत्तियों) के दल का दलन करने वाले श्री रामजी को मैं नित्य नमस्कार करता हूँ॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जेहि श्रुति निरञ्जन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं।
करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं॥
सो प्रगट करुना कन्द सोभा बृन्द अग जग मोहई।
मम हृदय पङ्कज भृङ्ग अङ्ग अनङ्ग बहु छबि सोहई॥3॥
मूल
जेहि श्रुति निरञ्जन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं।
करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं॥
सो प्रगट करुना कन्द सोभा बृन्द अग जग मोहई।
मम हृदय पङ्कज भृङ्ग अङ्ग अनङ्ग बहु छबि सोहई॥3॥
भावार्थ
जिनको श्रुतियाँ निरञ्जन (माया से परे), ब्रह्म, व्यापक, निर्विकार और जन्मरहित कहकर गान करती हैं। मुनि जिन्हें ध्यान, ज्ञान, वैराग्य और योग आदि अनेक साधन करके पाते हैं। वे ही करुणाकन्द, शोभा के समूह (स्वयं श्री भगवान्) प्रकट होकर जड-चेतन समस्त जगत् को मोहित कर रहे हैं। मेरे हृदय कमल के भ्रमर रूप उनके अङ्ग-अङ्ग में बहुत से कामदेवों की छवि शोभा पा रही है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा।
पस्यन्ति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा॥
सो राम रमा निवास सन्तत दास बस त्रिभुवन धनी।
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी॥4॥
मूल
जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा।
पस्यन्ति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा॥
सो राम रमा निवास सन्तत दास बस त्रिभुवन धनी।
मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी॥4॥
भावार्थ
जो अगम और सुगम हैं, निर्मल स्वभाव हैं, विषम और सम हैं और सदा शीतल (शान्त) हैं। मन और इन्द्रियों को सदा वश में करते हुए योगी बहुत साधन करने पर जिन्हें देख पाते हैं। वे तीनों लोकों के स्वामी, रमानिवास श्री रामजी निरन्तर अपने दासों के वश में रहते हैं। वे ही मेरे हृदय में निवास करें, जिनकी पवित्र कीर्ति आवागमन को मिटाने वाली है॥4॥
32
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम॥32॥
मूल
अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम।
तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम॥32॥
भावार्थ
अखण्ड भक्ति का वर माँगकर गृध्रराज जटायु श्री हरि के परमधाम को चला गया। श्री रामचन्द्रजी ने उसकी (दाहकर्म आदि सारी) क्रियाएँ यथायोग्य अपने हाथों से कीं॥32॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला॥
गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥1॥
मूल
कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला॥
गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्ही जो जाचत जोगी॥1॥
भावार्थ
श्री रघुनाथजी अत्यन्त कोमल चित्त वाले, दीनदयालु और बिना ही करण कृपालु हैं। गीध (पक्षियों में भी) अधम पक्षी और मांसाहारी था, उसको भी वह दुर्लभ गति दी, जिसे योगीजन माँगते रहते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनहू उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी।
पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई। चले बिलोकत बन बहुताई॥2॥
मूल
सुनहू उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी।
पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई। चले बिलोकत बन बहुताई॥2॥
भावार्थ
(शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! सुनो, वे लोग अभागे हैं, जो भगवान् को छोडकर विषयों से अनुराग करते हैं। फिर दोनों भाई सीताजी को खोजते हुए आगे चले। वे वन की सघनता देखते जाते हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सङ्कुल लता बिटप घन कानन।
बहु खग मृग तहँ गज पञ्चानन॥
आवत पन्थ, कबन्ध निपाता।
तेहिं+++(=तस्मै)+++ सब कही, साप कै बाता॥3॥
मूल
सङ्कुल लता बिटप घन कानन। बहु खग मृग तहँ गज पञ्चानन॥
आवत पन्थ कबन्ध निपाता। तेहिं सब कही साप कै बाता॥3॥
भावार्थ
वह सघन वन लताओं और वृक्षों से भरा है। उसमें बहुत से पक्षी, मृग, हाथी और सिंह रहते हैं। श्री रामजी ने रास्ते में आते हुए कबन्ध राक्षस को मार डाला। उसने अपने शाप की सारी बात कही॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुरबासा मोहि दीन्ही सापा।
प्रभु पद पेखि+++(=प्रेक्षि)+++ मिटा सो पापा॥
+++(रामेणोक्तम् -)+++ “सुनु गन्धर्ब कहउँ मैं तोही।
मोहि न सोहाइ+++(=सह्य)+++ ब्रह्मकुल द्रोही”॥4॥
मूल
दुरबासा मोहि दीन्ही सापा। प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा॥
सुनु गन्धर्ब कहउँ मैं तोही। मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही॥4॥
भावार्थ
(वह बोला-) दुर्वासाजी ने मुझे शाप दिया था। अब प्रभु के चरणों को देखने से वह पाप मिट गया। (श्री रामजी ने कहा-) हे गन्धर्व! सुनो, मैं तुम्हें कहता हूँ, ब्राह्मणकुल से द्रोह करने वाला मुझे नहीं सुहाता॥4॥
33
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन क्रम बचन कपट तजि
जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरञ्चि सिव
बस ताकें सब देव॥33॥
मूल
मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव।
मोहि समेत बिरञ्चि सिव बस ताकें सब देव॥33॥
भावार्थ
मन, वचन और कर्म से कपट छोडकर जो भूदेव ब्राह्मणों की सेवा करता है, मुझ समेत ब्रह्मा, शिव आदि सब देवता उसके वश हो जाते हैं॥33॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
“सापत ताड़त परुष कहंता।
बिप्र पूज्य” - अस गावहिं संता॥
“पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न, +++(यद्य् अपि)+++ गुन गन ग्यान प्रबीना”॥1॥
मूल (चौपाई)
सापत ताड़त परुष कहंता।
बिप्र पूज्य अस गावहिं संता॥
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना।
सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना॥
भावार्थ
शाप देता हुआ, मारता हुआ और कठोर वचन कहता हुआ भी
ब्राह्मण पूजनीय है, ऐसा संत कहते हैं।
शील और गुणसे हीन भी ब्राह्मण पूजनीय है।
और गुणगणोंसे युक्त और ज्ञानमें निपुण भी शूद्र पूजनीय नहीं है॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मन भावा॥
रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनि गति पाई॥2॥
मूल
कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मन भावा॥
रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनि गति पाई॥2॥
भावार्थ
श्री रामजी ने अपना धर्म (भागवत धर्म) कहकर उसे समझाया। अपने चरणों में प्रेम देखकर वह उनके मन को भाया। तदनन्तर श्री रघुनाथजी के चरणकमलों में सिर नवाकर वह अपनी गति (गन्धर्व का स्वरूप) पाकर आकाश में चला गया॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा॥
सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥3॥
मूल
ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा॥
सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥3॥
भावार्थ
उदार श्री रामजी उसे गति देकर शबरीजी के आश्रम में पधारे। शबरीजी ने श्री रामचन्द्रजी को घर में आए देखा, तब मुनि मतङ्गजी के वचनों को याद करके उनका मन प्रसन्न हो गया॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥
स्याम गौर सुन्दर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥4॥
मूल
सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला॥
स्याम गौर सुन्दर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥4॥
भावार्थ
कमल सदृश नेत्र और विशाल भुजाओं वाले, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर वनमाला धारण किए हुए सुन्दर, साँवले और गोरे दोनों भाइयों के चरणों में शबरीजी लिपट पडीं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुन्दर आसन बैठारे॥5॥
मूल
प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा॥
सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुन्दर आसन बैठारे॥5॥
भावार्थ
वे प्रेम में मग्न हो गईं, मुख से वचन नहीं निकलता। बार-बार चरण-कमलों में सिर नवा रही हैं। फिर उन्होन्ने जल लेकर आदरपूर्वक दोनों भाइयों के चरण धोए और फिर उन्हें सुन्दर आसनों पर बैठाया॥5॥
34
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
कन्द मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारम्बार बखानि॥34॥
मूल
कन्द मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारम्बार बखानि॥34॥
भावार्थ
उन्होन्ने अत्यन्त रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्री रामजी को दिए। प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया॥34॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
पानि जोरि आगें भइ ठाढी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढी॥
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जडमति भारी॥1॥
मूल
पानि जोरि आगें भइ ठाढी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढी॥
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जडमति भारी॥1॥
भावार्थ
फिर वे हाथ जोडकर आगे खडी हो गईं। प्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यन्त बढ गया। (उन्होन्ने कहा-) मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ? मैं नीच जाति की और अत्यन्त मूढ बुद्धि हूँ॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमन्द अघारी॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥2॥
मूल
अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमन्द अघारी॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥2॥
भावार्थ
जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यन्त अधम हैं, और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मन्दबुद्धि हूँ। श्री रघुनाथजी ने कहा- हे भामिनि! मेरी बात सुन! मैं तो केवल एक भक्ति ही का सम्बन्ध मानता हूँ॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाति पाँति कुल धर्म बडाई। धन बल परिजन गुन चतुराई॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥3॥
मूल
जाति पाँति कुल धर्म बडाई। धन बल परिजन गुन चतुराई॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥3॥
भावार्थ
जाति, पाँति, कुल, धर्म, बडाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) दिखाई पडता है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति सन्तन्ह कर सङ्गा। दूसरि रति मम कथा प्रसङ्गा॥4॥
मूल
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति सन्तन्ह कर सङ्गा। दूसरि रति मम कथा प्रसङ्गा॥4॥
भावार्थ
मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है सन्तों का सत्सङ्ग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसङ्ग में प्रेम॥4॥
35
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुर पद पङ्कज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥
मूल
गुर पद पङ्कज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥
भावार्थ
तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोडकर मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्त्र जाप मम दृढ बिस्वासा। पञ्चम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरन्तर सज्जन धरमा॥1॥
मूल
मन्त्र जाप मम दृढ बिस्वासा। पञ्चम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरन्तर सज्जन धरमा॥1॥
भावार्थ
मेरे (राम) मन्त्र का जाप और मुझमें दृढ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इन्द्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरन्तर सन्त पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें सन्त अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ सन्तोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥
मूल
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें सन्त अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ सन्तोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥
भावार्थ
सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और सन्तों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में सन्तोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥
मूल
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥
भावार्थ
नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड-चेतन कोई भी हो-॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ तोरें॥
जोगि बृन्द दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥4॥
मूल
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ तोरें॥
जोगि बृन्द दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥4॥
भावार्थ
हे भामिनि! मुझे वही अत्यन्त प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥
जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी॥5॥
मूल
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥
जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी॥5॥
भावार्थ
मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। हे भामिनि! अब यदि तू गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो तो बता॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पम्पा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई॥
सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा॥6॥
मूल
पम्पा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई॥
सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा॥6॥
भावार्थ
(शबरी ने कहा-) हे रघुनाथजी! आप पम्पा नामक सरोवर को जाइए। वहाँ आपकी सुग्रीव से मित्रता होगी। हे देव! हे रघुवीर! वह सब हाल बतावेगा। हे धीरबुद्धि! आप सब जानते हुए भी मुझसे पूछते हैं!॥6॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बार बार प्रभु पद सिरु नाई। प्रेम सहित सब कथा सुनाई॥7॥
मूल
बार बार प्रभु पद सिरु नाई। प्रेम सहित सब कथा सुनाई॥7॥
भावार्थ
बार-बार प्रभु के चरणों में सिर नवाकर, प्रेम सहित उसने सब कथा सुनाई॥7॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पङ्कज धरे।
तजि जोग पावक देह परि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे॥
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥
मूल
कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदय पद पङ्कज धरे।
तजि जोग पावक देह परि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे॥
नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू।
बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू॥
भावार्थ
सब कथा कहकर भगवान् के मुख के दर्शन कर, उनके चरणकमलों को धारण कर लिया और योगाग्नि से देह को त्याग कर (जलाकर) वह उस दुर्लभ हरिपद में लीन हो गई, जहाँ से लौटना नहीं होता। तुलसीदासजी कहते हैं कि अनेकों प्रकार के कर्म, अधर्म और बहुत से मत- ये सब शोकप्रद हैं, हे मनुष्यों! इनका त्याग कर दो और विश्वास करके श्री रामजी के चरणों में प्रेम करो।
36
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामन्द मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि॥36॥
मूल
जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महामन्द मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि॥36॥
भावार्थ
जो नीच जाति की और पापों की जन्मभूमि थी, ऐसी स्त्री को भी जिन्होन्ने मुक्त कर दिया, अरे महादुर्बुद्धि मन! तू ऐसे प्रभु को भूलकर सुख चाहता है?॥36॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
चले राम त्यागा बन सोऊ। अतुलित बल नर केहरि दोऊ॥
बिरही इव प्रभु करत बिषादा। कहत कथा अनेक सम्बादा॥1॥
मूल
चले राम त्यागा बन सोऊ। अतुलित बल नर केहरि दोऊ॥
बिरही इव प्रभु करत बिषादा। कहत कथा अनेक सम्बादा॥1॥
भावार्थ
श्री रामचन्द्रजी ने उस वन को भी छोड दिया और वे आगे चले। दोनों भाई अतुलनीय बलवान् और मनुष्यों में सिंह के समान हैं। प्रभु विरही की तरह विषाद करते हुए अनेकों कथाएँ और संवाद कहते हैं-॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा। देखत केहि कर मन नहिं छोभा॥
नारि सहित सब खग मृग बृन्दा। मानहुँ मोरि करत हहिं निन्दा॥2॥
मूल
लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा। देखत केहि कर मन नहिं छोभा॥
नारि सहित सब खग मृग बृन्दा। मानहुँ मोरि करत हहिं निन्दा॥2॥
भावार्थ
हे लक्ष्मण! जरा वन की शोभा तो देखो। इसे देखकर किसका मन क्षुब्ध नहीं होगा? पक्षी और पशुओं के समूह सभी स्त्री सहित हैं। मानो वे मेरी निन्दा कर रहे हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हमहि देखि मृग निकर पराहीं। मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं॥
तुम्ह आनन्द करहु मृग जाए। कञ्चन मृग खोजन ए आए॥3॥
मूल
हमहि देखि मृग निकर पराहीं। मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं॥
तुम्ह आनन्द करहु मृग जाए। कञ्चन मृग खोजन ए आए॥3॥
भावार्थ
हमें देखकर (जब डर के मारे) हिरनों के झुण्ड भागने लगते हैं, तब हिरनियाँ उनसे कहती हैं- तुमको भय नहीं है। तुम तो साधारण हिरनों से पैदा हुए हो, अतः तुम आनन्द करो। ये तो सोने का हिरन खोजने आए हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सङ्ग लाइ करिनीं करि लेहीं। मानहुँ मोहि सिखावनु देहीं॥
सास्त्र सुचिन्तित पुनि पुनि देखिअ। भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ॥4॥
मूल
सङ्ग लाइ करिनीं करि लेहीं। मानहुँ मोहि सिखावनु देहीं॥
सास्त्र सुचिन्तित पुनि पुनि देखिअ। भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ॥4॥
भावार्थ
हाथी हथिनियों को साथ लगा लेते हैं। वे मानो मुझे शिक्षा देते हैं (कि स्त्री को कभी अकेली नहीं छोडना चाहिए)। भलीभाँति चिन्तन किए हुए शास्त्र को भी बार-बार देखते रहना चाहिए। अच्छी तरह सेवा किए हुए भी राजा को वश में नहीं समझना चाहिए॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राखिअ नारि जदपि उर माहीं। जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं॥
देखहु तात बसन्त सुहावा। प्रिया हीन मोहि भय उपजावा॥5॥
मूल
राखिअ नारि जदपि उर माहीं। जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं॥
देखहु तात बसन्त सुहावा। प्रिया हीन मोहि भय उपजावा॥5॥
भावार्थ
और स्त्री को चाहे हृदय में ही क्यों न रखा जाए, परन्तु युवती स्त्री, शास्त्र और राजा किसी के वश में नहीं रहते। हे तात! इस सुन्दर वसन्त को तो देखो। प्रिया के बिना मुझको यह भय उत्पन्न कर रहा है॥5॥
37
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल।
सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल॥1॥
मूल
बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल।
सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल॥1॥
भावार्थ
मुझे विरह से व्याकुल, बलहीन और बिलकुल अकेला जानकर कामदेव ने वन, भौंरों और पक्षियों को साथ लेकर मुझ पर धावा बोल दिया॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि गयउ भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात।
डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात॥2॥
मूल
देखि गयउ भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात।
डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात॥2॥
भावार्थ
परन्तु जब उसका दूत यह देख गया कि मैं भाई के साथ हूँ (अकेला नहीं हूँ), तब उसकी बात सुनकर कामदेव ने मानो सेना को रोककर डेरा डाल दिया है॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिटप बिसाल लता अरुझानी। बिबिध बितान दिए जनु तानी॥
कदलि ताल बर धुजा पताका। देखि न मोह धीर मन जाका॥1॥
मूल
बिटप बिसाल लता अरुझानी। बिबिध बितान दिए जनु तानी॥
कदलि ताल बर धुजा पताका। देखि न मोह धीर मन जाका॥1॥
भावार्थ
विशाल वृक्षों में लताएँ उलझी हुई ऐसी मालूम होती हैं मानो नाना प्रकार के तम्बू तान दिए गए हैं। केला और ताड सुन्दर ध्वजा पताका के समान हैं। इन्हें देखकर वही नहीं मोहित होता, जिसका मन धीर है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिबिध भाँति फूले तरु नाना। जनु बानैत बने बहु बाना॥
कहुँ कहुँ सुन्दर बिटप सुहाए। जनु भट बिलग बिलग होइ छाए॥2॥
मूल
बिबिध भाँति फूले तरु नाना। जनु बानैत बने बहु बाना॥
कहुँ कहुँ सुन्दर बिटप सुहाए। जनु भट बिलग बिलग होइ छाए॥2॥
भावार्थ
अनेकों वृक्ष नाना प्रकार से फूले हुए हैं। मानो अलग-अलग बाना (वर्दी) धारण किए हुए बहुत से तीरन्दाज हों। कहीं-कहीं सुन्दर वृक्ष शोभा दे रहे हैं। मानो योद्धा लोग अलग-अलग होकर छावनी डाले हों॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कूजत पिक मानहुँ गज माते। ढेक महोख ऊँट बिसराते॥
मोर चकोर कीर बर बाजी। पारावत मराल सब ताजी॥3॥
मूल
कूजत पिक मानहुँ गज माते। ढेक महोख ऊँट बिसराते॥
मोर चकोर कीर बर बाजी। पारावत मराल सब ताजी॥3॥
भावार्थ
कोयलें कूज रही हैं, वही मानो मतवाले हाथी (चिग्घाड रहे) हैं। ढेक और महोख पक्षी मानो ऊँट और खच्चर हैं। मोर, चकोर, तोते, कबूतर और हंस मानो सब सुन्दर ताजी (अरबी) घोडे हैं॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीतिर लावक पदचर जूथा। बरनि न जाइ मनोज बरूथा॥
रथ गिरि सिला दुन्दुभीं झरना। चातक बन्दी गुन गन बरना॥4॥
मूल
तीतिर लावक पदचर जूथा। बरनि न जाइ मनोज बरूथा॥
रथ गिरि सिला दुन्दुभीं झरना। चातक बन्दी गुन गन बरना॥4॥
भावार्थ
तीतर और बटेर पैदल सिपाहियों के झुण्ड हैं। कामदेव की सेना का वर्णन नहीं हो सकता। पर्वतों की शिलाएँ रथ और जल के झरने नगाडे हैं। पपीहे भाट हैं, जो गुणसमूह (विरुदावली) का वर्णन करते हैं॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मधुकर मुखर भेरि सहनाई। त्रिबिध बयारि बसीठीं आई॥
चतुरङ्गिनी सेन सँग लीन्हें। बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें॥5॥
मूल
मधुकर मुखर भेरि सहनाई। त्रिबिध बयारि बसीठीं आई॥
चतुरङ्गिनी सेन सँग लीन्हें। बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें॥5॥
भावार्थ
भौंरों की गुञ्जार भेरी और शहनाई है। शीतल, मन्द और सुगन्धित हवा मानो दूत का काम लेकर आई है। इस प्रकार चतुरङ्गिणी सेना साथ लिए कामदेव मानो सबको चुनौती देता हुआ विचर रहा है॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लछिमन देखत काम अनीका। रहहिं धीर तिन्ह कै जग लीका॥
ऐहि कें एक परम बल नारी। तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी॥6॥
मूल
लछिमन देखत काम अनीका। रहहिं धीर तिन्ह कै जग लीका॥
ऐहि कें एक परम बल नारी। तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी॥6॥
भावार्थ
हे लक्ष्मण! कामदेव की इस सेना को देखकर जो धीर बने रहते हैं, जगत् में उन्हीं की (वीरों में) प्रतिष्ठा होती है। इस कामदेव के एक स्त्री का बडा भारी बल है। उससे जो बच जाए, वही श्रेष्ठ योद्धा है॥6॥
38
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ॥1॥
मूल
तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ।
मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ॥1॥
भावार्थ
हे तात! काम, क्रोध और लोभ- ये तीन अत्यन्त दुष्ट हैं। ये विज्ञान के धाम मुनियों के भी मनों को पलभर में क्षुब्ध कर देते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोभ कें इच्छा दम्भ बल काम कें केवल नारि।
क्रोध कें परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि॥2॥
मूल
लोभ कें इच्छा दम्भ बल काम कें केवल नारि।
क्रोध कें परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि॥2॥
भावार्थ
लोभ को इच्छा और दम्भ का बल है, काम को केवल स्त्री का बल है और क्रोध को कठोर वचनों का बाल है, श्रेष्ठ मुनि विचार कर ऐसा कहते हैं॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुनातीत सचराचर स्वामी। राम उमा सब अन्तरजामी॥
कामिन्ह कै दीनता देखाई। धीरन्ह कें मन बिरति दृढाई॥1॥
मूल
गुनातीत सचराचर स्वामी। राम उमा सब अन्तरजामी॥
कामिन्ह कै दीनता देखाई। धीरन्ह कें मन बिरति दृढाई॥1॥
भावार्थ
(शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजी गुणातीत (तीनों गुणों से परे), चराचर जगत् के स्वामी और सबके अन्तर की जानने वाले हैं। (उपर्युक्त बातें कहकर) उन्होन्ने कामी लोगों की दीनता (बेबसी) दिखलाई है और धीर (विवेकी) पुरुषों के मन में वैराग्य को दृढ किया है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रोध मनोज लोभ मद माया। छूटहिं सकल राम कीं दाया॥
सो नर इन्द्रजाल नहिं भूला। जा पर होइ सो नट अनुकूला॥2॥
मूल
क्रोध मनोज लोभ मद माया। छूटहिं सकल राम कीं दाया॥
सो नर इन्द्रजाल नहिं भूला। जा पर होइ सो नट अनुकूला॥2॥
भावार्थ
क्रोध, काम, लोभ, मद और माया- ये सभी श्री रामजी की दया से छूट जाते हैं। वह नट (नटराज भगवान्) जिस पर प्रसन्न होता है, वह मनुष्य इन्द्रजाल (माया) में नहीं भूलता॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना॥
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा। पम्पा नाम सुभग गम्भीरा॥3॥
मूल
उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना॥
पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा। पम्पा नाम सुभग गम्भीरा॥3॥
भावार्थ
हे उमा! मैं तुम्हें अपना अनुभव कहता हूँ- हरि का भजन ही सत्य है, यह सारा जगत् तो स्वप्न (की भाँति झूठा) है। फिर प्रभु श्री रामजी पम्पा नामक सुन्दर और गहरे सरोवर के तीर पर गए॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्त हृदय जस निर्मल बारी। बाँधे घाट मनोहर चारी॥
जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा। जनु उदार गृह जाचक भीरा॥4॥
मूल
सन्त हृदय जस निर्मल बारी। बाँधे घाट मनोहर चारी॥
जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा। जनु उदार गृह जाचक भीरा॥4॥
भावार्थ
उसका जल सन्तों के हृदय जैसा निर्मल है। मन को हरने वाले सुन्दर चार घाट बँधे हुए हैं। भाँति-भाँति के पशु जहाँ-तहाँ जल पी रहे हैं। मानो उदार दानी पुरुषों के घर याचकों की भीड लगी हो!॥4॥
39
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरइनि सघन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म।
मायाछन्न न देखिऐ जैसें निर्गुन ब्रह्म॥1॥
मूल
पुरइनि सघन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म।
मायाछन्न न देखिऐ जैसें निर्गुन ब्रह्म॥1॥
भावार्थ
घनी पुरइनों (कमल के पत्तों) की आड में जल का जल्दी पता नहीं मिलता। जैसे माया से ढँके रहने के कारण निर्गुण ब्रह्म नहीं दिखता॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखी मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं।
जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख सञ्जुत जाहिं॥2॥
मूल
सुखी मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं।
जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख सञ्जुत जाहिं॥2॥
भावार्थ
उस सरोवर के अत्यन्त अथाह जल में सब मछलियाँ सदा एकरस (एक समान) सुखी रहती हैं। जैसे धर्मशील पुरुषों के सब दिन सुखपूर्वक बीतते हैं॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिकसे सरसिज नाना रङ्गा। मधुर मुखर गुञ्जत बहु भृङ्गा॥
बोलत जलकुक्कुट कलहंसा। प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा॥1॥
मूल
बिकसे सरसिज नाना रङ्गा। मधुर मुखर गुञ्जत बहु भृङ्गा॥
बोलत जलकुक्कुट कलहंसा। प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा॥1॥
भावार्थ
उसमें रङ्ग-बिरङ्गे कमल खिले हुए हैं। बहुत से भौंरे मधुर स्वर से गुञ्जार कर रहे हैं। जल के मुर्गे और राजहंस बोल रहे हैं, मानो प्रभु को देखकर उनकी प्रशंसा कर रहे हों॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्रबाक बक खग समुदाई। देखत बनइ बरनि नहिं जाई॥
सुन्दर खग गन गिरा सुहाई। जात पथिक जनु लेत बोलाई॥2॥
मूल
चक्रबाक बक खग समुदाई। देखत बनइ बरनि नहिं जाई॥
सुन्दर खग गन गिरा सुहाई। जात पथिक जनु लेत बोलाई॥2॥
भावार्थ
चक्रवाक, बगुले आदि पक्षियों का समुदाय देखते ही बनता है, उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। सुन्दर पक्षियों की बोली बडी सुहावनी लगती है, मानो (रास्ते में) जाते हुए पथिक को बुलाए लेती हो॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए। चहु दिसि कानन बिटप सुहाए॥
चम्पक बकुल कदम्ब तमाला। पाटल पनस परास रसाला॥3॥
मूल
ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए। चहु दिसि कानन बिटप सुहाए॥
चम्पक बकुल कदम्ब तमाला। पाटल पनस परास रसाला॥3॥
भावार्थ
उस झील (पम्पा सरोवर) के समीप मुनियों ने आश्रम बना रखे हैं। उसके चारों ओर वन के सुन्दर वृक्ष हैं। चम्पा, मौलसिरी, कदम्ब, तमाल, पाटल, कटहल, ढाक और आम आदि-॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नव पल्लव कुसुमित तरु नाना। चञ्चरीक पटली कर गाना॥
सीतल मन्द सुगन्ध सुभाऊ। सन्तत बहइ मनोहर बाऊ॥4॥
मूल
नव पल्लव कुसुमित तरु नाना। चञ्चरीक पटली कर गाना॥
सीतल मन्द सुगन्ध सुभाऊ। सन्तत बहइ मनोहर बाऊ॥4॥
भावार्थ
बहुत प्रकार के वृक्ष नए-नए पत्तों और (सुगन्धित) पुष्पों से युक्त हैं, (जिन पर) भौंरों के समूह गुञ्जार कर रहे हैं। स्वभाव से ही शीतल, मन्द, सुगन्धित एवं मन को हरने वाली हवा सदा बहती रहती है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं। सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं॥5॥
मूल
कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं। सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं॥5॥
भावार्थ
कोयलें ‘कुहू’ ‘कुहू’ का शब्द कर रही हैं। उनकी रसीली बोली सुनकर मुनियों का भी ध्यान टूट जाता है॥5॥
40
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ।
पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसम्पति पाइ॥40॥
मूल
फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ।
पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसम्पति पाइ॥40॥
भावार्थ
फलों के बोझ से झुककर सारे वृक्ष पृथ्वी के पास आ लगे हैं, जैसे परोपकारी पुरुष बडी सम्पत्ति पाकर (विनय से) झुक जाते हैं॥40॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा॥
देखी सुन्दर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया॥1॥
मूल
देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा॥
देखी सुन्दर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया॥1॥
भावार्थ
श्री रामजी ने अत्यन्त सुन्दर तालाब देखकर स्नान किया और परम सुख पाया। एक सुन्दर उत्तम वृक्ष की छाया देखकर श्री रघुनाथजी छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित बैठ गए॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तहँ पुनि सकल देव मुनि आए। अस्तुति करि निज धाम सिधाए॥
बैठे परम प्रसन्न कृपाला। कहत अनुज सन कथा रसाला॥2॥
मूल
तहँ पुनि सकल देव मुनि आए। अस्तुति करि निज धाम सिधाए॥
बैठे परम प्रसन्न कृपाला। कहत अनुज सन कथा रसाला॥2॥
भावार्थ
फिर वहाँ सब देवता और मुनि आए और स्तुति करके अपने-अपने धाम को चले गए। कृपालु श्री रामजी परम प्रसन्न बैठे हुए छोटे भाई लक्ष्मणजी से रसीली कथाएँ कह रहे हैं॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिरहवन्त भगवन्तहि देखी। नारद मन भा सोच बिसेषी॥
मोर साप करि अङ्गीकारा। सहत राम नाना दुख भारा॥3॥
मूल
बिरहवन्त भगवन्तहि देखी। नारद मन भा सोच बिसेषी॥
मोर साप करि अङ्गीकारा। सहत राम नाना दुख भारा॥3॥
भावार्थ
भगवान् को विरहयुक्त देखकर नारदजी के मन में विशेष रूप से सोच हुआ। (उन्होन्ने विचार किया कि) मेरे ही शाप को स्वीकार करके श्री रामजी नाना प्रकार के दुःखों का भार सह रहे हैं (दुःख उठा रहे हैं)॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई। पुनि न बनिहि अस अवसरु आई॥
यह बिचारि नारद कर बीना। गए जहाँ प्रभु सुख आसीना॥4॥
मूल
ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई। पुनि न बनिहि अस अवसरु आई॥
यह बिचारि नारद कर बीना। गए जहाँ प्रभु सुख आसीना॥4॥
भावार्थ
ऐसे (भक्त वत्सल) प्रभु को जाकर देखूँ। फिर ऐसा अवसर न बन आवेगा। यह विचार कर नारदजी हाथ में वीणा लिए हुए वहाँ गए, जहाँ प्रभु सुखपूर्वक बैठे हुए थे॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावत राम चरित मृदु बानी। प्रेम सहित बहु भाँति बखानी॥
करत दण्डवत लिए उठाई। राखे बहुत बार उर लाई॥5॥
मूल
गावत राम चरित मृदु बानी। प्रेम सहित बहु भाँति बखानी॥
करत दण्डवत लिए उठाई। राखे बहुत बार उर लाई॥5॥
भावार्थ
वे कोमल वाणी से प्रेम के साथ बहुत प्रकार से बखान-बखान कर रामचरित का गान कर (ते हुए चले आ) रहे थे। दण्डवत् करते देखकर श्री रामचन्द्रजी ने नारदजी को उठा लिया और बहुत देर तक हृदय से लगाए रखा॥5॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वागत पूँछि निकट बैठारे। लछिमन सादर चरन पखारे॥6॥
मूल
स्वागत पूँछि निकट बैठारे। लछिमन सादर चरन पखारे॥6॥
भावार्थ
फिर स्वागत (कुशल) पूछकर पास बैठा लिया। लक्ष्मणजी ने आदर के साथ उनके चरण धोए॥6॥
41
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि।
नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि॥41॥
मूल
नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि।
नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि॥41॥
भावार्थ
बहुत प्रकार से विनती करके और प्रभु को मन में प्रसन्न जानकर तब नारदजी कमल के समान हाथों को जोडकर वचन बोले-॥41॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुन्दर अगम सुगम बर दायक॥
देहु एक बर मागउँ स्वामी। जद्यपि जानत अन्तरजामी॥1॥
मूल
सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुन्दर अगम सुगम बर दायक॥
देहु एक बर मागउँ स्वामी। जद्यपि जानत अन्तरजामी॥1॥
भावार्थ
हे स्वभाव से ही उदार श्री रघुनाथजी! सुनिए। आप सुन्दर अगम और सुगम वर के देने वाले हैं। हे स्वामी! मैं एक वर माँगता हूँ, वह मुझे दीजिए, यद्यपि आप अन्तर्यामी होने के नाते सब जानते ही हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ। जन सन कबहुँ कि करऊँ दुराऊ॥
कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहुँ तुम्ह मागी॥2॥
मूल
जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ। जन सन कबहुँ कि करऊँ दुराऊ॥
कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहुँ तुम्ह मागी॥2॥
भावार्थ
(श्री रामजी ने कहा-) हे मुनि! तुम मेरा स्वभाव जानते ही हो। क्या मैं अपने भक्तों से कभी कुछ छिपाव करता हूँ? मुझे ऐसी कौन सी वस्तु प्रिय लगती है, जिसे हे मुनिश्रेष्ठ! तुम नहीं माँग सकते?॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें। अस बिस्वास तजहु जनि भोरें॥
तब नारद बोले हरषाई। अस बर मागउँ करउँ ढिठाई॥3॥
मूल
जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें। अस बिस्वास तजहु जनि भोरें॥
तब नारद बोले हरषाई। अस बर मागउँ करउँ ढिठाई॥3॥
भावार्थ
मुझे भक्त के लिए कुछ भी अदेय नहीं है। ऐसा विश्वास भूलकर भी मत छोडो। तब नारदजी हर्षित होकर बोले- मैं ऐसा वर माँगता हूँ, यह धृष्टता करता हूँ-॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका॥
राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका॥4॥
मूल
जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका॥
राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका॥4॥
भावार्थ
यद्यपि प्रभु के अनेकों नाम हैं और वेद कहते हैं कि वे सब एक से एक बढकर हैं, तो भी हे नाथ! रामनाम सब नामों से बढकर हो और पाप रूपी पक्षियों के समूह के लिए यह वधिक के समान हो॥4॥
42
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम।
अपर नाम उडगन बिमल बसहुँ भगत उर ब्योम॥1॥
मूल
राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम।
अपर नाम उडगन बिमल बसहुँ भगत उर ब्योम॥1॥
भावार्थ
आपकी भक्ति पूर्णिमा की रात्रि है, उसमें ‘राम’ नाम यही पूर्ण चन्द्रमा होकर और अन्य सब नाम तारागण होकर भक्तों के हृदय रूपी निर्मल आकाश में निवास करें॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिन्धु रघुनाथ।
तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ॥2॥
मूल
एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिन्धु रघुनाथ।
तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ॥2॥
भावार्थ
कृपा सागर श्री रघुनाथजी ने मुनि से ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) कहा। तब नारदजी ने मन में अत्यन्त हर्षित होकर प्रभु के चरणों में मस्तक नवाया॥2॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी। पुनि नारद बोले मृदु बानी॥
राम जबहिं प्रेरेउ निज माया मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया॥1॥
मूल
अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी। पुनि नारद बोले मृदु बानी॥
राम जबहिं प्रेरेउ निज माया मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया॥1॥
भावार्थ
श्री रघुनाथजी को अत्यन्त प्रसन्न जानकर नारदजी फिर कोमल वाणी बोले- हे रामजी! हे रघुनाथजी! सुनिए, जब आपने अपनी माया को प्रेरित करके मुझे मोहित किया था,॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा। प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा॥
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा॥2॥
मूल
तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा। प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा॥
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा॥2॥
भावार्थ
तब मैं विवाह करना चाहता था। हे प्रभु! आपने मुझे किस कारण विवाह नहीं करने दिया? (प्रभु बोले-) हे मुनि! सुनो, मैं तुम्हें हर्ष के साथ कहता हूँ कि जो समस्त आशा-भरोसा छोडकर केवल मुझको ही भजते हैं,॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई। तहँ राखइ जननी अरगाई॥3॥
मूल
करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी॥
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई। तहँ राखइ जननी अरगाई॥3॥
भावार्थ
मैं सदा उनकी वैसे ही रखवाली करता हूँ, जैसे माता बालक की रक्षा करती है। छोटा बच्चा जब दौडकर आग और साँप को पकडने जाता है, तो वहाँ माता उसे (अपने हाथों) अलग करके बचा लेती है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रौढ भएँ तेहि सुत पर माता। प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता॥
मोरें प्रौढ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी॥4॥
मूल
प्रौढ भएँ तेहि सुत पर माता। प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता॥
मोरें प्रौढ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी॥4॥
भावार्थ
सयाना हो जाने पर उस पुत्र पर माता प्रेम तो करती है, परन्तु पिछली बात नहीं रहती (अर्थात् मातृ परायण शिशु की तरह फिर उसको बचाने की चिन्ता नहीं करती, क्योङ्कि वह माता पर निर्भर न कर अपनी रक्षा आप करने लगता है)। ज्ञानी मेरे प्रौढ (सयाने) पुत्र के समान है और (तुम्हारे जैसा) अपने बल का मान न करने वाला सेवक मेरे शिशु पुत्र के समान है॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनहि मोर बल निज बल ताही। दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही॥
यह बिचारि पण्डित मोहि भजहीं। पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं॥5॥
मूल
जनहि मोर बल निज बल ताही। दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही॥
यह बिचारि पण्डित मोहि भजहीं। पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं॥5॥
भावार्थ
मेरे सेवक को केवल मेरा ही बल रहता है और उसे (ज्ञानी को) अपना बल होता है। पर काम-क्रोध रूपी शत्रु तो दोनों के लिए हैं।(भक्त के शत्रुओं को मारने की जिम्मेवारी मुझ पर रहती है, क्योङ्कि वह मेरे परायण होकर मेरा ही बल मानता है, परन्तु अपने बल को मानने वाले ज्ञानी के शत्रुओं का नाश करने की जिम्मेवारी मुझ पर नहीं है।) ऐसा विचार कर पण्डितजन (बुद्धिमान लोग) मुझको ही भजते हैं। वे ज्ञान प्राप्त होने पर भी भक्ति को नहीं छोडते॥5॥
43
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि।
तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि॥43॥
मूल
काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि।
तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि॥43॥
भावार्थ
काम, क्रोध, लोभ और मद आदि मोह (अज्ञान) की प्रबल सेना है। इनमें मायारूपिणी (माया की साक्षात् मूर्ति) स्त्री तो अत्यन्त दारुण दुःख देने वाली है॥43॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनु मुनि कह पुरान श्रुति सन्ता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसन्ता॥
जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी॥1
मूल
सुनु मुनि कह पुरान श्रुति सन्ता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसन्ता॥
जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी॥1
भावार्थ
हे मुनि! सुनो, पुराण, वेद और सन्त कहते हैं कि मोह रूपी वन (को विकसित करने) के लिए स्त्री वसन्त ऋतु के समान है। जप, तप, नियम रूपी सम्पूर्ण जल के स्थानों को स्त्री ग्रीष्म रूप होकर सर्वथा सोख लेती है॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम क्रोध मद मत्सर भेका। इन्हहि हरषप्रद बरषा एका॥
दुर्बासना कुमुद समुदाई। तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई॥2॥
मूल
काम क्रोध मद मत्सर भेका। इन्हहि हरषप्रद बरषा एका॥
दुर्बासना कुमुद समुदाई। तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई॥2॥
भावार्थ
काम, क्रोध, मद और मत्सर (डाह) आदि मेण्ढक हैं। इनको वर्षा ऋतु होकर हर्ष प्रदान करने वाली एकमात्र यही (स्त्री) है। बुरी वासनाएँ कुमुदों के समूह हैं। उनको सदैव सुख देने वाली यह शरद् ऋतु है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्म सकल सरसीरुह बृन्दा। होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मन्दा॥
पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई॥3॥
मूल
धर्म सकल सरसीरुह बृन्दा। होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मन्दा॥
पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई॥3॥
भावार्थ
समस्त धर्म कमलों के झुण्ड हैं। यह नीच (विषयजन्य) सुख देने वाली स्त्री हिमऋतु होकर उन्हें जला डालती है। फिर ममतारूपी जवास का समूह (वन) स्त्री रूपी शिशिर ऋतु को पाकर हरा-भरा हो जाता है॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाप उलूक निकर सुखकारी। नारि निबिड रजनी अँधियारी॥
बुधि बल सील सत्य सब मीना। बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना॥4॥
मूल
पाप उलूक निकर सुखकारी। नारि निबिड रजनी अँधियारी॥
बुधि बल सील सत्य सब मीना। बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना॥4॥
भावार्थ
पाप रूपी उल्लुओं के समूह के लिए यह स्त्री सुख देने वाली घोर अन्धकारमयी रात्रि है। बुद्धि, बल, शील और सत्य- ये सब मछलियाँ हैं और उन (को फँसाकर नष्ट करने) के लिए स्त्री बंसी के समान है, चतुर पुरुष ऐसा कहते हैं॥4॥
44
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि।
ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि॥44॥
मूल
अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि।
ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि॥44॥
भावार्थ
युवती स्त्री अवगुणों की मूल, पीडा देने वाली और सब दुःखों की खान है, इसलिए हे मुनि! मैन्ने जी में ऐसा जानकर तुमको विवाह करने से रोका था॥44॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनि रघुपति के बचन सुहाए। मुनि तन पुलक नयन भरि आए॥
कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती॥1॥
मूल
सुनि रघुपति के बचन सुहाए। मुनि तन पुलक नयन भरि आए॥
कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती॥1॥
भावार्थ
श्री रघुनाथजी के सुन्दर वचन सुनकर मुनि का शरीर पुलकित हो गया और नेत्र (प्रेमाश्रुओं के जल से) भर आए। (वे मन ही मन कहने लगे-) कहो तो किस प्रभु की ऐसी रीती है, जिसका सेवक पर इतना ममत्व और प्रेम हो॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी। ग्यान रङ्क नर मन्द अभागी॥
पुनि सादर बोले मुनि नारद। सुनहु राम बिग्यान बिसारद॥2॥
मूल
जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी। ग्यान रङ्क नर मन्द अभागी॥
पुनि सादर बोले मुनि नारद। सुनहु राम बिग्यान बिसारद॥2॥
भावार्थ
जो मनुष्य भ्रम को त्यागकर ऐसे प्रभु को नहीं भजते, वे ज्ञान के कङ्गाल, दुर्बुद्धि और अभागे हैं। फिर नारद मुनि आदर सहित बोले- हे विज्ञान-विशारद श्री रामजी! सुनिए-॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्तन्ह के लच्छन रघुबीरा। कहहु नाथ भव भञ्जन भीरा॥
सुनु मुनि सन्तन्ह के गुन कहऊँ। जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ॥3॥
मूल
सन्तन्ह के लच्छन रघुबीरा। कहहु नाथ भव भञ्जन भीरा॥
सुनु मुनि सन्तन्ह के गुन कहऊँ। जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ॥3॥
भावार्थ
हे रघुवीर! हे भव-भय (जन्म-मरण के भय) का नाश करने वाले मेरे नाथ! अब कृपा कर सन्तों के लक्षण कहिए! (श्री रामजी ने कहा-) हे मुनि! सुनो, मैं सन्तों के गुणों को कहता हूँ, जिनके कारण मैं उनके वश में रहता हूँ॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिञ्चन सुचि सुखधामा॥
अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥4॥
मूल
षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिञ्चन सुचि सुखधामा॥
अमित बोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥4॥
भावार्थ
वे सन्त (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर- इन) छह विकारों (दोषों) को जीते हुए, पापरहित, कामनारहित, निश्चल (स्थिरबुद्धि), अकिञ्चन (सर्वत्यागी), बाहर-भीतर से पवित्र, सुख के धाम, असीम ज्ञानवान्, इच्छारहित, मिताहारी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान, योगी,॥4॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सावधान मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना॥5॥
मूल
सावधान मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना॥5॥
भावार्थ
सावधान, दूसरों को मान देने वाले, अभिमानरहित, धैर्यवान, धर्म के ज्ञान और आचरण में अत्यन्त निपुण,॥5॥
45
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुनागार संसार दुख रहित बिगत सन्देह।
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह॥45॥
मूल
गुनागार संसार दुख रहित बिगत सन्देह।
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह॥45॥
भावार्थ
गुणों के घर, संसार के दुःखों से रहित और सन्देहों से सर्वथा छूटे हुए होते हैं। मेरे चरण कमलों को छोडकर उनको न देह ही प्रिय होती है, न घर ही॥45॥
02 चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥1॥
मूल
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥1॥
भावार्थ
कानों से अपने गुण सुनने में सकुचाते हैं, दूसरों के गुण सुनने से विशेष हर्षित होते हैं। सम और शीतल हैं, न्याय का कभी त्याग नहीं करते। सरल स्वभाव होते हैं और सभी से प्रेम रखते हैं॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जप तप ब्रत दम सञ्जम नेमा। गुरु गोबिन्द बिप्र पद प्रेमा॥
श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया॥2॥
मूल
जप तप ब्रत दम सञ्जम नेमा। गुरु गोबिन्द बिप्र पद प्रेमा॥
श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया॥2॥
भावार्थ
वे जप, तप, व्रत, दम, संयम और नियम में रत रहते हैं और गुरु, गोविन्द तथा ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम रखते हैं। उनमें श्रद्धा, क्षमा, मैत्री, दया, मुदिता (प्रसन्नता) और मेरे चरणों में निष्कपट प्रेम होता है॥2॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना॥
दम्भ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥3॥
मूल
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना॥
दम्भ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥3॥
भावार्थ
तथा वैराग्य, विवेक, विनय, विज्ञान (परमात्मा के तत्व का ज्ञान) और वेद-पुराण का यथार्थ ज्ञान रहता है। वे दम्भ, अभिमान और मद कभी नहीं करते और भूलकर भी कुमार्ग पर पैर नहीं रखते॥3॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सादर श्रुति तेते॥4॥
मूल
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सादर श्रुति तेते॥4॥
भावार्थ
सदा मेरी लीलाओं को गाते-सुनते हैं और बिना ही कारण दूसरों के हित में लगे रहने वाले होते हैं। हे मुनि! सुनो, सन्तों के जितने गुण हैं, उनको सरस्वती और वेद भी नहीं कह सकते॥4॥
03 छन्द
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पङ्कज गहे।
अस दीनबन्धु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥
सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥
मूल
कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पङ्कज गहे।
अस दीनबन्धु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥
सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥
भावार्थ
‘शेष और शारदा भी नहीं कह सकते’ यह सुनते ही नारदजी ने श्री रामजी के चरणकमल पकड लिए। दीनबन्धु कृपालु प्रभु ने इस प्रकार अपने श्रीमुख से अपने भक्तों के गुण कहे। भगवान् के चरणों में बार-बार सिर नवाकर नारदजी ब्रह्मलोक को चले गए। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं, जो सब आशा छोडकर केवल श्री हरि के रङ्ग में रँग गए हैं।
46
01 दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावनारि जसु पावन गावहिं सुनहिं जे लोग।
राम भगति दृढ पावहिं बिनु बिराग जप जोग॥1॥
मूल
रावनारि जसु पावन गावहिं सुनहिं जे लोग।
राम भगति दृढ पावहिं बिनु बिराग जप जोग॥1॥
भावार्थ
जो लोग रावण के शत्रु श्री रामजी का पवित्र यश गावेङ्गे और सुनेङ्गे, वे वैराग्य, जप और योग के बिना ही श्री रामजी की दृढ भक्ति पावेङ्गे॥1॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतङ्ग।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसङ्ग॥2॥
मूल
दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतङ्ग।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसङ्ग॥2॥
भावार्थ
युवती स्त्रियों का शरीर दीपक की लौ के समान है, हे मन! तू उसका पतिङ्गा न बन। काम और मद को छोडकर श्री रामचन्द्रजी का भजन कर और सदा सत्सङ्ग कर॥2॥
मासपारायण, बाईसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने तृतीयः सोपानः समाप्तः।
कलियुग के सम्पूर्ण पापों को विध्वंस करने वाले श्री रामचरितमानस का यह तीसरा सोपान समाप्त हुआ।
(अरण्यकाण्ड समाप्त)