२४ परिशिष्ट

पदोंमें आये हुए कथा-प्रसंग

अनुवाद (हिन्दी)

पद-संख्या ३—कालकूट-विष—
देवता और असुरोंने एक बार मेरु-पर्वतकी मथानी और शेषनागका दण्ड बनाकर समुद्रका मन्थन किया। उसमें सबसे पहले हलाहल विष निकला और उसने दसों दिशाओंको अपनी ज्वालासे व्याप्त कर दिया। फिर तो देवता और असुर सभी त्राहि-त्राहि करने लगे। सबोंने मिलकर विचारा कि बिना भक्तवत्सल भगवान् शंकरके इस महाघातक विषसे त्राण पाना कठिन है। इसलिये उन्होंने एक साथ आर्त्त-स्वरसे भगवान् शंकरको पुकारा। भक्त-आर्तिहर करुणामय भगवान् शंकर शीघ्र ही प्रकट हुए और उनको भयभीत देखकर हलाहल विषको उठाकर पान कर गये। परन्तु शीघ्र ही उन्हें स्मरण हुआ कि हृदयमें तो ईश्वर अपनी अखिल सृष्टिके साथ विराजमान हैं, इसलिये उन्होंने उस विषको कण्ठसे नीचे नहीं उतरने दिया। उस विघ्नके प्रभावसे उनका कण्ठ नीला हो गया और दोषपूर्ण वह विष भगवान् का भूषण बन गया तभीसे शिव ‘नीलकण्ठ’ कहलाने लगे।
त्रिपुर-वध—
तारक नामका एक असुर था। उसके तीन पुत्र हुए—तारकाक्ष, विद्युन्माली और कमललोचन। उन तीनोंने महाघोर तप करके ब्रह्माजी और शिवजीको प्रसन्न किया तथा उनसे अन्तरिक्षके तीन पुरोंका अधिकार प्राप्त किया। अधिकारमदसे उन्मत्त वे असुर फिर नाना प्रकारके अत्याचार करने लगे। उनके उपद्रवसे सारा विश्व काँप उठा और देवतालोग पीड़ित हो उठे। अन्तमें सबोंने मिलकर विष्णुभगवान् की अध्यक्षतामें भगवान् शंकरका स्तवन किया। शिवजी शीघ्र प्रकट हुए और एक ही बाणमें तीनों पुरोंका विध्वंस कर तीनों राक्षसोंका नाश किया। तबसे इनका नाम ‘त्रिपुरारि’ पड़ा।
काशी-मुक्ति—
काशीमें मृत्यु-समय जीवमात्रको श्रीशंकर ‘राम-नाम’ का मन्त्र देते हैं, जिससे उनकी मुक्ति हो जाती है।
कामरिपु (मदन-दहन)—
सती-दाहके पश्चात् भगवान् शंकर हिमालय-पर्वतके प्रान्तरमें एक निर्जन स्थानमें समाधिमग्न हो गये। उसी समय सतीने पार्वतीके रूपमें हिमाचल नामक पर्वतराजके घर जन्म लिया। उधर तारकासुरके अत्याचारके मारे समस्त देवताओंके साथ इन्द्रके नाकोंदम आ गया। तारकासुरके वधके विषयमें यह निश्चय था कि यह महादेवके पुत्रके द्वारा मारा जायगा। परन्तु भगवान् शंकर समाधिमग्न थे, इसलिये उन्हें बड़ी चिन्ता हुई। क्योंकि तारकासुरका अत्याचार असह्य हो रहा था। अतः उन्होंने कामदेवको महादेवका ध्यान तोड़नेके लिये भेजा।
इधर पार्वती, किशोरावस्थाको प्राप्त हो तथा नारदमुनिके मुखसे यह भविष्यवाणी सुनकर कि भूतभावन महादेव ही उसके पति होंगे, नित्य उसी हिमालय-पर्वतपर ध्यानावस्थित शंकरकी पूजा करने जाती थी। एक दिन जैसे ही पार्वती श्रीशंकरके चरणोंमें सुमन-अर्घ्य दे रही थी कि कामदेव अपने सहचर वसन्तको लेकर पहुँचा। उसने पुष्प-बाणको चढ़ाकर चाहा कि भगवान् शंकरको निशाना बनावें कि इतनेमें महादेवकी समाधि टूटी और उन्होंने सामने कामदेवको पुष्प-बाण चढ़ाते हुए देखा। यह देखना ही था और उधर देवता अन्तरिक्षमें यह कहनेहीको थे कि ‘प्रभो! क्रोधको शान्त कीजिये, शान्त कीजिये’ कि इतनेमें शंकरका तीसरा नेत्र खुला और कामदेव जलकर भस्म हो गया। तभीसे शिवका ‘कामारि’, ‘मदनरिपु’ आदि नाम पड़ा।
७—गुणनिधि-उद्धार—
गुणनिधि नामका एक ब्राह्मण बड़ा चोर था। वह एक दिन किसी शिव-मन्दिरमें सोनेके घंटेको चुरानेके लिये गया। घंटा कुछ उँचे था और वह आसानीसे वहाँतक पहुँच न पाता था; इसलिये वह शिवलिंगपर चढ़ गया। इतनेमें भोलेबाबा वहाँ प्रकट हो गये और बोले—‘वर माँग, हम तुझपर अत्यन्त प्रसन्न हैं। तूने आज मुझपर अपना सब कुछ चढ़ा दिया है।’ भगवान् शंकरकी कृपासे गुणनिधि शिवलोकका अधिकारी हुआ।
१०—हरिचरण-पूत—गंगा—
एक बार विष्णुभगवान् वामनरूप धारण कर राजा बलिके द्वार गये और उससे उन्होंने तीन पग पृथ्वी दानमें माँगी तथा दानमें प्राप्त तीन पग पृथ्वी नापनेके लिये अपना विशाल ब्रह्माण्डव्यापी शरीर बनाया। उस समय ब्रह्माजीने भगवान् के उन चरणोंको धोकर अपने कमण्डलुमें रख लिया था, वही जल गंगाके प्रवाहके रूपमें अवतरित हुआ। इसी कारण गंगाको ‘हरिचरण-पूत’ कहा गया है।
१२—पाथोधि-घटसंभव—
समुद्रके किनारे एक जोड़ा टिटिहरीका रहता था। उनके अंडे समुद्र बराबर बहा ले जाता था। सन्तान-वियोगसे एक बार उनको समुद्रके ऊपर क्रोध हो आया और अपने चोंचमें बालू भर-भरकर वे लगे समुद्रको भरनेकी चेष्टा करने। उसी अवसरपर अगस्त्य ऋषि कहींसे वहाँ आ निकले और पक्षियोंकी आर्त्तदशाको देखकर उनका हृदय दयासे द्रवित हो उठा। उन्होंने तत्काल ही उन्हें सान्त्वना देते हुए समुद्रको उठाकर ‘ॐ राम’ मन्त्रका उच्चारण तीन बार करते हुए आचमन कर लिया।
१५—असुर-नाशिनी—
मार्कण्डेयपुराणमें महिषासुर, चण्ड-मुण्ड और शुम्भ-निशुम्भ नामक प्रबल पराक्रमी तथा घोर कर्म करनेवाले दैत्योंकी कथा मिलती है। इनसे एक बार जब त्रिलोकी त्रस्त होकर त्राण पानेके लिये अति व्याकुल हो उठी, तब सब देवताओंने ब्रह्मा, विष्णु और महेशके साथ भगवती महामाया आदिशक्तिकी स्तुतिकर आह्वान किया। महामायाने प्रकट होकर इन असुरोंका संहारकर त्रिलोकीकी प्रजाके दुःखको दूरकर देवताओंको निर्भय किया।
१७—भगीरथ-नंदिनी—
सूर्यवंशमें सगर नामके महाऐश्वर्यशाली राजा हो गये हैं, उन्होंने ही समुद्रको खनवाया था, जिससे उसका नाम सागर पड़ा। महाराज सगरकी दो रानियाँ थीं। एकसे अंशुमान् पैदा हुए और दूसरीसे साठ हजार पुत्र उत्पन्न हुए। महाराज सगरके प्रतापसे देवराज इन्द्र बहुत ही भयभीत रहता था और उनसे ईर्ष्या किया करता था। महाराज सगरके अश्वमेधयज्ञके स्वच्छन्द विचरनेवाले घोड़ेको उसने चुराकर योगेश्वर कपिलमुनिके आश्रमपर बाँध दिया। उसे खोजनेके लिये सगरके साठ हजार पुत्र निकले और मुनिके आश्रमपर घोड़ेको बँधा देख उन्हें कुवाच्य कहा। इससे क्रोधित हो मुनिने योगबलसे उन्हें भस्म कर दिया। महाराज अंशुमान् के पौत्र भगीरथ हुए, उन्होंने महातप करके पतितपावनी श्रीगंगाजीको भूतलपर लाकर उन लोगोंका उद्धार किया। इसीसे श्रीगंगाजीको ‘भागीरथी’ या ‘भगीरथ-नन्दिनी’ आदि नामोंसे पुकारते हैं।
१७—जह्नु-बालिका—
जब महाराज भगीरथ गंगाजीको अपने रथके पीछे-पीछे भूलोकमें ला रहे थे, उस समय गंगाका प्रवाह जह्नु मुनिके आश्रमसे होकर निकला। मुनि ध्यानावस्थित थे, प्रवाहको आते देख उन्होंने उसे उठाकर पी लिया। पीछे महाराज भगीरथने उनकी स्तुतिकर उनको प्रसन्न किया। तब मुनिने जगत् के हितार्थ गंगाजीको अपने जंघेसे निकाल दिया। तभीसे गंगाजीका नाम ‘जह्नु-सुता’, ‘जाह्नवी’ पड़ा।
१८—त्रिपुरारिसिरधामिनी—
जब महाराज भगीरथने ब्रह्मलोकसे गंगाजीको प्राप्त कर लिया, तब यह कठिनाई सामने आयी कि यदि गंगाजीकी धारा वहाँसे सीधे भूलोकपर गिरेगी तो उससे भूलोक जलमग्न हो जायगा। इसलिये उन्होंने भव-भय-हारी भगवान् शंकरकी स्तुति की और शंकरजीने ब्रह्मलोकसे अवतरित होती हुई गंगाकी धाराको अपने जटाजालमें रोक लिया। इसीसे श्रीगंगाजीको त्रिपुरारि (शिव)-के मस्तकमें निवास करनेवाली कहा जाता है।
२२—करनघंट—
काशीमें एक ब्राह्मण शिवका बड़ा ही अनन्य भक्त था। वह शिवके सिवा और किसी देवताका नाम भी नहीं सुनना चाहता था। इसलिये उसने अपने दोनों कानोंमें दो घण्टे लटका रखे थे जिससे किसी दूसरे देवताका नाम कानोंमें न आने पावे। कोई मनुष्य यदि उसके सामने किसी अन्य देवताका नाम लेता तो वह घण्टा बजाते हुए दूर भाग जाता। इसी कारण उसका नाम ‘करनघंट’ पड़ गया था। वह जिस स्थानपर रहता था वह स्थान आज भी कर्णघण्टाके नामसे पुकारा जाता है।
२४—बिधिहरिहर—जनमे—
चित्रकूटमें महर्षि अत्रि और उनकी परम साध्वी पतिव्रता स्त्री अनसूया रहती थी। दोनों पुरुष-स्त्रीने पुत्रकी कामनासे अति कठोर तप किया। और ब्रह्मा, विष्णु और महादेव तीनों नामोंसे पुकार-पुकारकर भगवान् की स्तुति की, तब भगवान् तीनों रूपमें प्रकट हो गये और वर माँगनेके लिये कहा। अनसूयाने यह वर माँगा कि मेरे गर्भसे तुम्हारे समान पुत्र हों। त्रिदेव ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्धान हो गये। पीछे ब्रह्माने चन्द्रमाके रूपमें, विष्णुने दत्तात्रेयके रूपमें और शिवने दुर्वासाके रूपमें जन्म लिया।
२५—उदित चंड-कर-मंडल-ग्रासकर्त्ता—
वाल्मीकि-रामायणमें कथा आती है कि एक दिन प्रातःकाल अमावस्याके दिन हनुमान् जी को बहुत भूख लगी थी। उन्होंने उगते हुए लाल रंगके बाल-सूर्यको देखा और फल समझकर उनके ऊपर वे लपके, और एक ही झटकेमें पकड़कर निगल गये। दैवात् उस दिन ग्रहण भी था। बेचारा राहु जब सूर्यको ग्रहण करनेके लिये आया तो देखा चारों ओर अन्धकार है और सूर्यका कहीं पता नहीं। इससे निराश होकर वह इन्द्रके पास पहुँचा और गिड़गिड़ाने लगा कि आज मैं क्या खाऊँगा? सूर्यको तो किसी दूसरेने खा डाला। यह सुनकर इन्द्र राहुको साथ लिये दौड़े। श्रीहनुमान् जी ने जब उन दोनोंको आते देखा तो वे उनको भी खानेके लिये लपके। इसपर इन्द्रने उनकी ठुड्डीपर ऐसा वज्र मारा कि हनुमान् जी मूर्छित हो गये और वज्र भी टूट गया। तभीसे महावीरजीका हनुमान् नाम पड़ा।
रुद्र-अवतार—
एक बार शिवजीने श्रीरामचन्द्रजीकी स्तुति की और यह वर माँगा कि ‘हे प्रभो! मैं दास्यभावसे आपकी सेवा करना चाहता हूँ। इसलिये कृपया मेरे इस मनोरथको पूर्ण कीजिये। श्रीरामचन्द्रजीने ‘तथास्तु’ कहा। वही शिवजी श्रीरामावतारमें हनुमान् जी के रूपमें अवतीर्ण होकर श्रीरामचन्द्रजीके सेवकोंमें प्रमुख पदको प्राप्त हुए।
सुग्रीव-ऋच्छादि-रच्छन-निपुन—
श्रीहनुमान् जी ने सूर्यनारायणसे शस्त्रास्त्र-विद्याकी शिक्षा पायी थी। इसकी दक्षिणाके स्थानमें श्रीसूर्यनारायणने हनुमान् जी से कहा था कि ‘देखो, हमारे पुत्र सुग्रीवकी तुम सदा रक्षा करना।’ हनुमान् जी ने आजन्म सुग्रीवकी रक्षा की।
बालि बलसालि बध मुख्य हेतू—
सीता-हरणके बाद जब भगवान् श्रीरामचन्द्र और लक्ष्मण सीताको ढूँढ़ते-ढूँढ़ते ऋष्यमूक-पर्वतके समीप पहुँचे तो पहले हनुमान् जी ने ही उनसे भेंट की तथा उनको ले जाकर सुग्रीवसे मिलाया और उनमें पारस्परिक मैत्री स्थापन की। यही मैत्री बालिवधका कारण हुई। इसीसे बालिके वधमें मुख्य हेतु श्रीहनुमान् जी माने जाते हैं।
सिंहिका-मद-मथन—
सिंहिका नामकी एक राक्षसी समुद्रमें रहती थी। उस मार्गसे जो जीव आकाशमें जाते थे, उनकी परछाईं जलमें देखकर वह उनको पकड़ लेती थी और खा जाती थी। जब हनुमान् जी सीताकी खोजमें आकाश-मार्गसे लंका जाने लगे तो उस राक्षसीने उनके साथ भी वही व्यवहार करना चाहा। परन्तु हनुमान् जी उसकी चालको समझ गये और उसको एक ही मुष्टि-प्रहारके द्वारा परलोक भेज दिया।
दसकंठ-घटकरन, बारिद-नाद-कदन-कारन—
राम-रावण-युद्धके समय जब रावण युद्धमें विजय प्राप्त करनेके लिये अजेय यज्ञका अनुष्ठान करने लगा तो इसकी सूचना विभीषणने श्रीरामकी सेनामें दी और कहा कि यदि रावण इस अनुष्ठानमें सफल हो गया तो उसको मारना फिर अत्यन्त कठिन हो जायगा। इसलिये उसके यज्ञको विध्वंस करना चाहिये। श्रीहनुमान् जी ने इस कार्यका भार अपने ऊपर लिया और वे वानरोंकी एक सेना लेकर वहाँ पहुँच गये तथा उस यज्ञको विध्वंस कर दिया। इसके पश्चात् रावण युद्ध-भूमिमें लड़नेके लिये आया और मारा गया। इस प्रकार श्रीहनुमान् जी उसकी मृत्युके कारण बने। कुम्भकर्णको रणमें बलरहित करनेमें भी श्रीहनुमान् जी ही कारण थे।
मेघनादने जब लक्ष्मणजीको शक्तिबाण मारा था तो वे मूर्च्छित हो गये। उनकी मूर्च्छाको दूर करनेके लिये हनुमान् जी ही धौलागिरिके साथ संजीवनी-बूटी लाये थे और उस बूटीके द्वारा मूर्च्छासे उठनेपर दूसरे ही दिन लक्ष्मणजीने मेघनादको मारा था, इसी कारण श्रीहनुमान् जी मेघनादके वधके कारण माने जाते हैं।
कालनेमि-हंता—
यह रावणके पक्षका महाधूर्त राक्षस था। जब हनुमान् जी लक्ष्मणजीकी मूर्च्छा हटानेके लिये संजीवनी-बूटी लाने गये थे तो रास्तेमें इसने साधुका वेष धारण कर उनको छलना चाहा। हनुमान् जी को उसकी माया मालूम हो गयी और तुरंत ही उन्होंने उसको परलोक भेज दिया। इसीसे हनुमान् जी कालनेमि-हन्ता कहलाते हैं।
२८—भीमार्जुन-व्यालसूदन-गर्वहर—
महाभारतमें कथा आती है कि पाण्डवोंके वनवासकालमें एक दिन भीम अपने पराक्रमके मदमें मस्त हुए कहीं जा रहे थे। उनके मार्गमें एक बड़ा भारी बंदर सोया हुआ मिला। भीमके गर्जनसे उसकी आँखें खुल गयीं। भीमने उसे मार्गसे हट जानेके लिये कहा। बंदरने उत्तर दिया—‘भाई! मैं बूढ़ा हो गया हूँ। तुम्हीं जरा मेरी पूँछको हटाकर चले जाओ।’ भीमके सारी शक्ति लगानेपर भी वह पूँछ टस-से-मस नहीं हुई। पीछे जब उन्हें यह मालूम हुआ कि यह कोई सामान्य बंदर नहीं है, बल्कि यह महापराक्रमशाली हनुमान् जी हैं तो उन्होंने नतशिर हो उन्हें प्रणाम किया और क्षमा माँगी। तत्पश्चात् भीमने हनुमान् जी से निवेदन किया कि आप मुझे उस रूपका दर्शन दें जिस रूपसे आपने राम-रावण-युद्धमें भाग लिया था। हनुमान् जी ने कहा कि मेरा वह रूप अत्यन्त ही विकराल है, उसे देखकर तुम डर जाओगे। परन्तु जब गर्वके साथ भीमने बहुत आग्रह किया तो हनुमान् जी तत्काल ही उस रूपमें प्रकट हो गये। भीमकी आँखें भयके मारे बंद हो गयीं और वे थर-थर काँपने लगे। हनुमान् जी की महिमा देखकर उनका गर्व दूर हो गया और वे उनके चरणोंमें गिर पड़े।
महाभारतके युद्धमें अर्जुनके रथकी ध्वजापर हनुमान् जी बैठे रहते थे। परन्तु यह बात अर्जुनको मालूम न थी। जब अर्जुन और कर्णका सामना हुआ तो अर्जुनके बाणसे कर्णका रथ बहुत दूर चला जाता था परन्तु कर्णके बाणसे अर्जुनका रथ बहुत ही थोड़ा हटता था। तथापि भगवान् अर्जुनके बाणकी प्रशंसा नहीं करते और कर्णके बाणकी प्रशंसा करते थे। इससे अर्जुनके दिलमें यह गर्व होता था कि भगवान् ऐसा क्यों कहते हैं। अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण यह सब जानते थे। एक बार उन्होंने हनुमान् जी से रथकी ध्वजासे अलग हो जानेका इशारा किया। उनके हटते ही जैसे कर्णका बाण छूटा, अर्जुनका रथ कोसों दूर जा गिरा। इससे अर्जुनको बड़ा ही आश्चर्य हुआ और उन्होंने भगवान् से इसका कारण पूछा। भगवान् ने बतलाया कि ‘हनुमान् के पराक्रमसे ही तुम्हारा रथ स्थिर रहता है, वे रथकी ध्वजापरसे हट गये हैं। यदि मैं भी यहाँ न रहता तो न जाने तुम्हारा रथ कहाँ चला जाता।’ भगवान् की इस बातसे अर्जुनका गर्व दूर हो गया।
गरुड़जीको अपने तेज चलनेपर बड़ा ही गर्व था। एक बार भगवान् श्रीकृष्णने श्रीहनुमान् जी को बहुत शीघ्र बुला लानेके लिये गरुड़को भेजा। गरुड़जी वहाँ गये और उन्होंने हनुमान् जी को साथ चलनेके लिये कहा। हनुमान् जी बोले, आप चलिये, मैं अभी आता हूँ, गरुड़ने समझा देरसे आवेंगे, इसलिये कहा, साथ ही चलिये, हनुमान् जी बोले, मैं राम-कृपासे आपसे आगे पहुँच जाऊँगा। इसपर गरुड़को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और वे खूब तेजीसे चले। भगवान् के सामने पहुँचनेपर वे क्या देखते हैं कि हनुमान् जी पहलेहीसे वहाँ विराजमान हैं। यह देखकर गरुड़जीका गर्व जाता रहा।
संपाति—
संपाति गीधराज जटायुके बड़े भाई थे। एक दिन दोनों भाई होड़ा-होड़ी सूर्यको छूनेके लिये आकाशमें उड़े। जटायु तो बुद्धिमान् थे, वे सूर्यके उत्तापके भयसे सूर्यमण्डलके समीप न जाकर लौट आये, परन्तु संपातिको अपने पराक्रमका घमंड था, वे आगे बढ़ते ही गये और सूर्यके समीप पहुँचते ही उत्तप्त किरणोंसे उनके पंख झुलस गये और वे माल्यवान्-पर्वतपर धड़ामसे आ गिरे। फिर जब सुग्रीवकी आज्ञासे सीताजीकी खोजमें वानर और रीक्ष निकले और उस पर्वतपर पहुँचे तो संपातिने ही उन्हें सीताजीका पता बताया। हनुमान् जी की कृपासे संपातिके पंख जम गये और उनके नेत्रोंमें ज्योति आ गयी तथा उन्हें दिव्य शरीर प्राप्त हो गया।
२९—महानाटक-निपुन—
श्रीहनुमान् जी बड़े भारी विद्वान् और गायनाचार्य थे, सूर्यभगवान् से उन्होंने सब विद्याएँ पढ़ी थीं। कहा जाता है कि श्रीहनुमान् जी ने एक महानाटक लिखकर श्रीराम-चरित्रका विस्तृत वर्णन किया था। परन्तु उसके सुननेका कोई अधिकारी न पाकर उसे उन्होंने समुद्रमें फेंक दिया। उसीके यत्र-तत्र बिखरे कुछ अंशोंको दामोदर मिश्रने संकलन करके वर्तमान ‘हनुमन्नाटक’ की रचना की है।
३९—संजीवनी-समय—
जब हनुमान् जी हिमालय-पर्वतसे संजीवनी-बूटी लेकर आकाश-मार्गसे अत्यन्त तीव्र गतिसे लौटे आ रहे थे उस समय भरतने उन्हें देखकर समझा कि कोई मायावी राक्षस जा रहा है। इसलिये उन्होंने एक बाण चलाया जो हनुमान् जी को लगा और वह हा राम! हा राम! कहते हुए जमीनपर गिर पड़े। ‘राम’ शब्द सुनकर भरतको बड़ा दुःख हुआ और उन्होंने दौड़कर हनुमान् जी को उठा हृदयसे लगा लिया। इसी समय उनकी बाण चलानेकी महिमा जाननेमें आयी।
४०—लवणासुर—
लवणासुर मथुराका अनाचारी प्रतापी असुर राजा था। इसके अत्याचारोंसे गौ, ब्राह्मण और तपस्वीजन त्राहि-त्राहि करने लगे। जब महाराजा श्रीरामचन्द्रजीके यहाँ उनकी फरियाद आयी तो शत्रुघ्नने महाराजसे लवणासुरको दण्ड देनेके लिये स्वयं जानेकी आज्ञा माँगी। और आज्ञा प्राप्त होनेपर मथुरा जाकर उन्होंने अपने प्रबल पराक्रमसे लवणासुरका नाश कर प्रजाको सुखी किया।
४३—रिषि-मख-पाल—
विश्वामित्रमुनिके आश्रमके समीप राक्षसोंने बहुत उत्पात मचा रखा था। वे तपस्यामें अनेकों प्रकारसे विघ्न डालते थे। उनके उपद्रवसे व्याकुल होकर विश्वामित्रमुनि अयोध्यामें महाराज दशरथके दरबारमें आये और महाराजसे अपने यज्ञकी रक्षाके लिये श्रीराम-लक्ष्मणको माँगा। महाराज अपने प्राणप्रिय पुत्रोंको पहले तो अलग करना नहीं चाहते थे, परन्तु महामुनि महर्षि वसिष्ठकी अनुमतिसे उन्होंने श्रीराम-लक्ष्मणको विश्वामित्रमुनिके सुपुर्द किया। श्रीरामचन्द्रजीने लक्ष्मणको साथ लेकर मुनिके यज्ञकी रक्षा की और ताड़का, सुबाहु प्रभृति राक्षसोंको, जो यज्ञ-ध्वंस किया करते थे, मार डाला।
मुनिबधू-पापहारी—
गौतम-ऋषिकी पत्नी अहल्या परम रूपवती थी। उसके सौन्दर्यको देखकर इन्द्रका मन मोहित हो गया और एक दिन सायंकाल जब गौतम-ऋषि सन्ध्या-वन्दनके निमित्त बाहर गये थे उसी समय इन्द्र गौतमका रूप धारण कर अहल्याके पास गया और उससे अपनी अभिलाषा प्रकट की। कुसमय समझकर पहले तो उसने अस्वीकार किया पर पीछे पति-आज्ञा समझकर उसने स्वीकार कर लिया। इतनेहीमें गौतम-ऋषि आ गये। उन्होंने योगदृष्टिसे सारा रहस्य जान लिया और क्रोधित होकर इन्द्रको शाप दिया कि ‘जा तेरे सहस्र भग हो जायँ।’ तथा अहल्याको शाप दिया कि ‘तू पत्थरकी हो जा।’ पीछे जब उनका क्रोध शान्त हुआ तो उन्होंने दोनोंके शापका इस प्रकार प्रतिकार बतलाया कि श्रीरामचन्द्रजीके चरण-स्पर्शसे अहल्याका उद्धार होगा और जब श्रीरामचन्द्रजी शिवके धनुषको तोड़ेंगे, उस समय इन्द्रके सहस्र भग सहस्र नेत्रोंके रूपमें परिणत हो जायँगे।’
काक-करतूति-फलदानि—
एक दिन चित्रकूटमें इन्द्रका पुत्र जयन्त श्रीरामचन्द्रजीका बल देखनेकी इच्छासे कौएका रूप धारण कर सीताजीके पैरोंमें चोंच मारकर भागा। श्रीरामचन्द्रजीने पैरोंसे रक्त प्रवाहित होते देख सींकके बाणसे उसे मारा। जयन्त भागने लगा और बाण उसके पीछे लगा। वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्डमें भागता फिरा परन्तु कहीं भी उसे शरण नहीं मिली। लाचार होकर वह श्रीरामचन्द्रजीके शरणमें आ गिरा। भगवान् ने उसके प्राण तो नहीं लिये पर उसकी एक आँख ले ली।
४९—कालिय—
यमुनाजीमें एक बड़ा ही भयंकर सर्प रहता था। उसका नाम कालिय था। उसके विषके मारे वहाँका जल सदा खौलता रहता था। श्रीकृष्णभगवान् ने उसके मस्तकोंपर नृत्य करके उसे वहाँसे हटनेके लिये विवश कर दिया। पीछे वह यमुनाजीको छोड़कर समुद्रमें चला गया। यह कथा श्रीमद्भागवतमें मिलती है।
अंधक—
अन्धक बड़ा उपद्रवी और बलवान् दैत्य था। यह हिरण्याक्षका पुत्र था। ब्रह्माजीकी आराधना करके इसने यह वरदान प्राप्त किया था कि ‘जब मुझे ज्ञानकी प्राप्ति हो जाय तब ही मेरा शरीरान्त हो, नहीं तो मैं सदा जीता रहूँ।’ यह वरदान प्राप्त कर उसने त्रिलोकीको जीत लिया। उसके भयसे देवता मन्दराचल-पर्वतपर चले गये। यह वहाँ भी पहुँचकर उनको त्रसित करने लगा। इसपर देवता त्राहि-त्राहि करने लगे और आर्तस्वरसे उन्होंने महादेवजीको पुकारा। महादेवजीके साथ अन्धकासुरका बड़ा भयंकर युद्ध हुआ, अन्तमें महादेवजीने उसे एक त्रिशूल मारा। जिससे वह असुर वहीं बैठकर महादेवजीके ध्यानमें मग्न हो गया। महादेवजीने कहा कि ‘वर माँग।’ उसने यह वर माँगा कि ‘हे प्रभो! मुझे आपकी अनन्य भक्ति प्राप्त हो।’ यह कथा ‘शिवपुराण’ में है।
दच्छ-मख—
दक्ष प्रजापतिकी एक कन्याका नाम सती था, इनका विवाह शिवजीके साथ हुआ था। एक बार ब्रह्माजीकी सभामें सब देवता विराजमान थे, वहाँ दक्ष प्रजापति पहुँचे। उनकी अभ्यर्थनाके लिये समस्त देवता उठ खड़े हुए, परन्तु ब्रह्माजीके साथ शिवजी बैठे ही रह गये। इससे दक्ष प्रजापतिको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने इसका बदला लेनेके उद्देश्यसे एक यज्ञ किया। उस यज्ञमें शिवजीके अतिरिक्त सब देवता बुलाये गये। जब यह समाचार सतीको मिला तो वह शिवजीकी अनुमतिके बिना ही अपने पिताके घर चली गयी और वहाँ पहुँचकर जब यज्ञमें शिवजीका भाग उसने न देखा तो क्रोधके मारे योगाग्निमें जलकर भस्म हो गयी। यह समाचार सुनकर शिवजीने वीरभद्रको यज्ञ-विध्वंस करनेके लिये भेजा। वीरभद्रने वहाँ जाकर यज्ञ-विध्वंस किया।
५४—वेदगर्भ……कर्ता—
ब्रह्माजीके पुत्र सनकादिने एक बार अपने पितासे पराविद्यासम्बन्धी कुछ प्रश्न पूछे। जब ब्रह्माजी उन प्रश्नोंका यथेष्ट उत्तर न दे सके तो उन्हें अपने ज्ञानपर बड़ा गर्व हुआ। ब्रह्माजीने उनके हृदयकी बात जानकर श्रीविष्णुभगवान् का स्मरण किया और विष्णुभगवान् वहाँ शीघ्र ही हंसके रूपमें प्रकट हो गये। फिर सनकादिने उस हंससे पूछा कि ‘तू कौन है?’ इसी प्रश्नपर हंसभगवान् ने सारी पराविद्याका सारांश कह सुनाया। उसे सुनकर सनकादिका अभिमान जाता रहा। निम्बार्क-सम्प्रदायवाले इसी हंसभगवान् को अपने सम्प्रदायका आदि आचार्य मानते हैं।
५६—भूमि-उद्धरन—
सत्ययुगमें हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दो महाप्रतापी असुर हो गये हैं। यह दोनों भाई थे। हिरण्याक्ष भूमिको चुराकर पातालमें ले गया। भगवान् ने शूकर-रूप धारण कर हिरण्याक्षको मारा और भूमिका उद्धार किया। इससे भगवान् भूमिके उद्धारक माने जाते हैं। इसके सिवा जब-जब इस पृथ्वीपर पापियोंका अत्याचार बढ़ता है और पृथ्वी घबड़ा उठती है तब-तब भगवान् अवतार लेकर पापियोंका नाश कर भूमिका उद्धार करते हैं।
भूधरनधारी—
यह कथा तो प्रसिद्ध ही है कि जब भगवान् श्रीकृष्णके कहनेसे व्रजवासियोंने इन्द्रकी पूजा रोक दी तो इन्द्र व्याकुल होकर प्रलयमेघको लेकर व्रजपर चढ़ आये। सात दिनतक लगातार मूसलाधार वृष्टि होती रही। उस समय भगवान् श्रीकृष्णने गौओं और गोपियोंकी रक्षाके लिये गोवर्धनपर्वतको कनिष्ठिका-अँगुलीपर उठाकर उसको छाता बनाकर व्रजकी रक्षा की थी। तभीसे भगवान् ‘भूधरनधारी’ (गिरिधारी) नामसे पुकारे जाते हैं।
५७—वृत्रासुर—
वृत्रासुर बड़ा प्रतापी असुर था। यह असुर होते हुए भी परम भक्त था। इसने इन्द्रके साथ युद्ध करते समय भक्तिका बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है। भागवतमें यह प्रसंग देखने लायक है। इसीके मारनेके लिये देवगण दधीचि-ऋषिके पास उनकी हड्डियाँ माँगने गये थे और उस परम दानी ऋषिने देवोंके उपकारमें अपने शरीरका त्याग किया था। उन्हीं हड्डियोंमेंसे एकसे वज्र बना था जो इन्द्रका प्रमुख अस्त्र है। उसी वज्रसे इन्द्रने वृत्रको मारा था।
बान—
वाणासुर राजा बलिका पुत्र था। इसके सहस्र बाहु थे। यह शिवजीका परम भक्त था। इसकी पुत्री ऊषा परम सुन्दरी थी। वह स्वप्नमें श्रीकृष्णभगवान् के पौत्र अनिरुद्धका रूप देखकर मोहित हो गयी और अपनी सखी चित्रलेखाके चित्रोंद्वारा उसका पता जानकर उसे चुपकेसे अपने अन्तःपुरमें मँगा लिया। जब यह बात वाणासुरको मालूम हुई तो उसने अनिरुद्धको कैद कर लिया। इसपर वाणासुर और भगवान् श्रीकृष्णमें बड़ा घोर युद्ध हुआ। शिवजी वाणासुरकी ओरसे इस युद्धमें लड़ रहे थे। जब वाणासुरके सब बाहु कट गये, केवल चार ही बच रहे तब वह भगवद्भक्त हो गया। शिवजीके स्तवनसे भगवान् ने उसे अभय कर दिया। तत्पश्चात् अनिरुद्ध और ऊषाका विवाह हुआ। यह कथा भी श्रीमद्भागवतमें आती है।
मय—
मय नामक दानव बड़ा ही कला-कुशल था। इसके कलाकी प्रशंसा महाभारत, रामायण आदि धर्म-ग्रन्थोंमें यत्र-तत्र मिलती है। स्वर्णपुरी लंकाका निर्माण इसीने किया था। महाभारतमें इन्द्रप्रस्थके अपूर्व नगरका निर्माता भी यही मय दानव था। यह भगवद्भक्त था।
द्विजबंधु—
द्विजबंधुका अभिप्राय अजामिलसे है। यह बड़ा ही दुराचारी और महापातकी ब्राह्मण था। इसके छोटे लड़केका नाम नारायण था। जब मरते समय यमदूत इसकी मुश्कें बाँधने लगे तो यह भयभीत होकर आर्त्तस्वरसे ‘नारायण-नारायण’ पुकारने लगा। इस पुकारसे उसका पुत्र तो नहीं आया, पर भगवान् नारायणके दूत वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने हठपूर्वक यमदूतोंसे यह कहकर उसका पिण्ड छुड़ाया कि ‘यह परम वैष्णव है, इसने बड़े ही आर्त्तस्वरसे भगवान् का नामोच्चारण किया है।’
६०—मारकंडेय…….प्रलयकारी—
मार्कण्डेय-ऋषि बचपनसे ही बड़े वीर्यवान् और तपोनिष्ठ थे। उनकी उग्र तपस्याको देखकर इन्द्र भी भयभीत हो गये थे और उसमें विघ्न उपस्थित करनेके विचारसे कामदेवको अपनी सारी सेनाके साथ भेजा था। परन्तु कामदेव कोटि कला करके भी अपने प्रयत्नमें सफल नहीं हुए। इसके बाद भगवान् नर-नारायणरूपसे उनके सम्मुख उपस्थित हुए और उनसे वर माँगनेके लिये कहा। मार्कण्डेयमुनिने भगवान् की माया देखनेकी इच्छा प्रकट की। फलस्वरूप उन्हें सारा ब्रह्माण्ड जलमग्न होते हुए दिखलायी दिया।
७८—बिटप—
एक बार कुबेरके पुत्र नलकूबर और मणिग्रीवने प्रमादवश नारदजीकी उपेक्षा कर दी। इसपर नारदजीने उन्हें शाप दिया कि ‘तुमलोग बड़े ही जडबुद्धि हो, जाओ वृक्ष हो जाओ।’ पीछे जब उन लोगोंने प्रार्थना की तब दयालु नारदमुनिने शापोद्धारनिमित्त कह दिया कि ‘गोकुलमें जब भगवान् श्रीकृष्णका अवतार होगा तो उनके चरणोंके स्पर्शसे तुम्हारा उद्धार हो जायगा।’ यह दोनों भाई नारदके शापसे गोकुलमें अर्जुन-वृक्ष बन गये। एक दिन यशोदाजीने किसी अपराधके कारण बालक श्रीकृष्णको ऊखलसे बाँध दिया। (भगवान् रेंगते हुए, जुड़े हुए वृक्षोंके पास जा पहुँचे और वृक्षोंको, बीचमें ऊखलको अड़ाकर ऐसा झटका दिया कि तुरंत दोनों वृक्ष गिर पड़े और वृक्ष-रूप त्यागकर दिव्य यक्षरूपसे भगवान् की स्तुति करने लगे। भगवान् ने उन्हें मुक्ति प्रदान कर दी।
८३—तरॺो गयंद जाके एक नाँय—
एक बार एक तालाबमें एक बड़ा भारी मतवाला हाथी हथिनियोंके साथ जलविहार कर रहा था। इतनेमें एक ग्राहने आकर उसका पैर पकड़ लिया। हाथीने अपने पैरको छुड़ानेके लिये सारी शक्ति लगा दी पर ग्राहने पैर न छोड़ा, न छोड़ा। वह उसे गहरे जलमें खींचने लगा। जब वह हाथी निराश हो गया तो उसने आर्त्तभावसे भगवान् को पुकारा। उसके मुँहसे ‘हरि’ नाम निकलना था कि भक्त-भयहारी प्रभु अपने वाहन गरुड़को छोड़कर शीघ्र वहाँ उपस्थित हो गये और उन्होंने ग्राहको मारकर उस हाथीके दुःखको दूर किया। श्रीमद्भागवतके आठवें स्कन्धमें यह कथा ‘गजेन्द्रमोक्ष’ नामसे विस्तारपूर्वक लिखी गयी है।
८६—सुरुचि—
राजा उत्तानपादकी दो रानियाँ थीं—सुरुचि और सुनीति। राजा सुरुचिको ही अधिक मानते थे। दोनों रानियोंके दो पुत्र थे। एक दिन सुनीतिका पुत्र ध्रुव सुरुचिके लड़केके सामने राजाकी गोदमें जा बैठा। सुरुचिसे यह देखा न गया। वह दौड़ी आयी और उसको डाँट-फटकार बताते राजाकी गोदसे उतार दिया। वह रोता हुआ अपनी माँके पास गया। उसकी माँने दीनबन्धु अशरणशरण भगवान् के गुणोंका वर्णन कर ध्रुवके मनको भगवान् की ओर लगा दिया। पीछे बालक ध्रुवने बाल्य-जीवनमें ही घोर तपस्या कर प्रभुको प्रसन्न कर राज्य और परमपद प्राप्त किया।
८७—रिपु राहु—
जब समुद्र-मन्थनके समय समुद्रसे अमृत निकला तो दैत्य और देवता उसके लिये आपसमें लड़ने लगे। विष्णुभगवान् ने मोहिनी-रूप धारण कर अमृतके घड़ेको अपने हाथमें ले लिया। दैत्य उनके रूपपर मोहित हो गये, उन्हें अमृतका ध्यान ही नहीं रहा। एक ओर देवता और दूसरी ओर दैत्य बैठ गये। अमृतका बाँटा जाना देवताओंकी पंक्तिसे प्रारम्भ हुआ। राहु नामका दैत्य विष्णुभगवान् की इस लीलाको समझ गया। वह वेष बदलकर सूर्य-चन्द्रमाके बीच देवताओंमें आकर बैठ गया। मोहिनीने उसे भी अमृत पिला दिया, वह अमर हो गया। परन्तु सूर्य और चन्द्रमाके संकेतसे भगवान् को जब यह मालूम हुआ तो उन्होंने अपने चक्रसे राहुके सिरको धड़से अलग कर दिया। फिर सिर राहु हो गया और धड़ केतु। उसी पुराने वैरसे राहु ग्रहणके द्वारा चन्द्र और सूर्यको कष्ट देता है।
मृगराज-मनुज—
प्रह्लादकी कथा प्रसिद्ध ही है। हिरण्यकशिपु नामका एक महाप्रतापी दैत्य हो गया है। उसने घोर तप करके ब्रह्मासे यह वरदान माँगा था कि मैं न नरसे मरूँ न पशुसे, न दिनमें मरूँ न रातमें, न अस्त्रसे मरूँ न शस्त्रसे, न घरमें मरूँ न बाहर। यह वर प्राप्त कर वह अत्यन्त निरंकुश होकर राज्य करने लगा। उसके अत्याचारसे त्रिलोकी काँप उठी। कोई भी मनुष्य जप-यज्ञ, पूजा-पाठ उसके राज्यमें नहीं करने पाता था और जो कोई भगवद्भजन करता उसे वह तरह-तरहकी यन्त्रणा देता। उसका पुत्र प्रह्लाद बड़ा ही भगवद्भक्त था। उसने पिताके कितना ही कहनेपर भी अपनी टेकको नहीं छोड़ा। इसके लिये उसे भाँति-भाँतिकी पीड़ा पहुँचानेका प्रयत्न किया गया। परन्तु सब निष्फल हुआ। एक दिन राजसभामें प्रह्लादको खम्भेमें बाँधकर हिरण्यकशिपु कहने लगा कि ‘अपने भगवान् को दिखला, नहीं तो आज तू मेरे तलवारकी घाट उतरेगा।’ प्रह्लादने कहा कि ‘भगवान् सर्वत्र है, वह खम्भेमें है, तुममें है, मुझमें है, तुम्हारी तलवारमें और इस खम्भेमें भी है।’ इसपर हिरण्यकशिपुने अत्यन्त क्रोधित होकर उसे मारनेके लिये तलवार उठायी ही थी कि भक्त प्रह्लादके वचनको सत्य करने और उसे संकटसे छुड़ानेके लिये भगवान् नरसिंह (आधा मनुष्य और आधा सिंह)-रूपसे खम्भेको फाड़कर निकल आये और हिरण्यकशिपुको दरवाजेपर घसीटकर अपने जंघेपर रखकर अपने नखोंसे उसके कलेजेको फाड़कर मार डाला।
नर-नारी—
जब दुर्योधनने जुएमें पाण्डवोंका सर्वस्व जीत लिया और अन्तमें द्रौपदीको भी दाँवपर रखकर जब पाण्डव हार गये, तब उसने दुःशासनके द्वारा द्रौपदीको भरी हुई राजसभामें बुलवाकर नंगा करनेकी आज्ञा दी। उस सभामें भीष्म, द्रोण आदि महामहिम योद्धा तथा पाँचों भाई पाण्डव भी बैठे थे, परन्तु दुर्योधनकी इस आज्ञापर किसीके मुँहसे एक भी शब्द न निकला। दुःशासन द्रौपदीके सिरके केशोंको पकड़कर घसीटता हुआ सभा-मण्डपके बीचमें लाया और उसकी साड़ीको पकड़कर खींचने लगा। दौपदीने करुणापूर्ण नेत्रोंसे सभाकी ओर देखा परन्तु जब कोई भी उसकी सहायताके लिये आगे बढ़ता न दिखायी दिया तो उसने अपनी लाज बचानेके लिये आर्त्तस्वरसे करुणासिन्धु भगवान् को पुकारा। भगवान् श्रीकृष्णने उसकी पुकार सुन ली। (कुरुराज-बन्धु) दुःशासन साड़ीको खींचते-खींचते थक गया परन्तु उसका छोर न लगा। प्रभुकी कृपाके आगे उसकी एक न चली। द्रौपदीकी लाज रह गयी। अर्जुन ‘नर’ ऋषिके अवतार माने जाते थे, इससे द्रौपदीको ‘नर-नारी’ कहा गया है।
९४—गनिका—
पिंगला नामकी एक वेश्या थी। एक दिन जब वह शृंगार किये हुए अपने किसी प्रेमीकी प्रतीक्षामें बैठी और आधी राततक वह न आया तो उसे बड़ी ग्लानि हुई। वह सोचने लगी कि जितना समय मैंने इस पापपूर्ण प्रतीक्षामें लगाया उतना यदि भगवान् के भजनमें लगाती तो मेरा उद्धार हो जाता। उसी दिनसे उसने वेश्या-वृत्ति छोड़कर भगवद्भजनमें मन लगाया और भगवान् की कृपासे उसका उद्धार हो गया।
ब्याध—
प्राचीन कालमें रत्नाकर नामका एक व्याध था। वह ब्राह्मण-कुलमें उत्पन्न होकर भी व्याधका काम करता था। वह जंगलमें पशुओंका शिकार करनेके सिवा वनके मार्गसे होकर जानेवालोंका सर्वस्व भी छीन लेता था। एक दिन, दैववश, देवर्षि नारद उसी मार्गसे होकर निकले। रत्नाकरने उनको घेर लिया। नारदजीने उससे कहा कि तुम यह घोर कर्म जिनके लिये कर रहे हो, वह तुम्हारे इस पापकर्मके भागी न होंगे। रत्नाकर इसपर अपने कुटुम्बके लोगोंसे इस विषयमें पूछनेके लिये गया। जब उसके परिवारके लोगोंने साफ-साफ कह दिया कि हम तुम्हारे पापके भागी नहीं हैं तो वह नारदजीके पास आकर उनके पैरोंमें गिर पड़ा और क्षमा-याचना करते हुए पूछा कि ‘मेरा अब कैसे उद्धार होगा?’ नारदजीने उसे ‘राम’ मन्त्रका उपदेश दिया। उसने कहा कि मैं राम-मन्त्र नहीं जप सकता, तब देवर्षिने उससे रामका उलटा ‘मरा-मरा’ जपनेको कहा। इसीके प्रतापसे पीछे वही व्याध ‘वाल्मीकि’ मुनिके नामसे प्रसिद्ध हुआ।
९७—सुरपति कुरुराज, बालिसों…….बैर बिसहते—
सुरपति—
एक बार देवर्षि नारदजी स्वर्गसे पारिजात-पुष्प लाकर रुक्मिणीको दे गये। सत्यभामाको उसके लेनेकी इच्छा हुई। परन्तु सौत होनेके कारण रुक्मिणीसे वह माँग नहीं सकती थी और रुक्मिणीके पास वैसे पुष्पका होना भी उससे देखा नहीं जाता था; इसलिये उसने पारिजात-पुष्पके लिये मान किया। यद्यपि उसका यह हठ और मान ईर्ष्यायुक्त होनेके कारण अनुचित था, परन्तु भगवान् ने भक्तिवश उसपर कुछ ध्यान न दिया और स्वर्गमें जाकर इन्द्रसे लड़कर पारिजात-वृक्ष ही उखाड़ लाये और सत्यभामाके भवनके सामने बगीचेमें उसे लगा दिया।
कुरुराज—
पाँचों भाई पाण्डवोंका मिलकर द्रौपदीको रख लेना, कौरवोंके साथ जुआ खेलना तथा द्रौपदीको भी दाँवपर रख हार जाना आदि पाण्डवोंके प्रत्यक्ष दोष थे, परन्तु उनकी भक्ति देखकर भगवान् कृष्णने उनके दोषोंपर ध्यान नहीं दिया और उनका पक्ष लेकर कुरुराज दुर्योधनसे वैर बाँध लिया।
बालि—
यद्यपि सुग्रीवका भी पक्ष बिलकुल निर्दोष न था तथापि सुग्रीवकी भक्तिके वशमें होकर भगवान् ने इन बातोंका कुछ भी खयाल न करके बालिको मारा और सुग्रीवको राज्य दिलाया।
९८—जसुमति हठि बाँध्यो—
एक बार यशोदाजी दही मथ रही थीं। उसी समय बालक श्रीकृष्ण भूखे हुए उनके पास आये, माता उन्हें गोदमें उठाकर प्रेमसे दूध पिलाने लगी, इतनेमें चूल्हेपर चढ़े हुए पात्रमें दूधका उफान आ गया। यशोदाजी श्रीकृष्णको गोदसे नीचे उतारकर उस दूधके पात्रको उतारने लगीं। इससे बालक कृष्ण बहुत रूठ गये और उन्होंने दहीके मटकेको उलट दिया और दूसरे घरमें जाकर ऊखलपर चढ़कर माखन खाने लगे। माताने वापस आकर देखा कि दहीका बर्तन उलटा पड़ा है और श्रीकृष्णका पता नहीं है। वह क्रोधित हो उठी और श्रीकृष्णको सजा देनेके लिये ढूँढ़ने लगी। जब वह उस घरमें पहुँची जहाँ कृष्ण मक्खन खा रहे थे तो कृष्ण माताकी मारके डरसे ऊखलसे उतरकर भागने लगे। माताने उनको पकड़ लिया और लगी रस्सीसे उन्हें ऊखलमें बाँधने। परन्तु जिस रस्सीसे वह बाँधना चाहती थी वही रस्सी छोटी हो जाती, यों तमाम घरभरकी रस्सी लाकर जोड़ दी परन्तु तिसपर भी श्रीकृष्ण न बँध सके। तब थककर उनकी ओर देखकर मुसकराने लगी। कृपामय भगवान् माताकी कठिनाईको देखकर स्वयं बँध गये।
अम्बरीष—
महाराज अम्बरीष परम भक्त थे, एकादशी-व्रतके बड़े ही प्रसिद्ध व्रती थे। एकादशीको दुर्वासा-ऋषि उनके घर आये। महाराजने उनको द्वादशीके दिन भोजन करनेका निमन्त्रण दिया, क्योंकि वह द्वादशीको ब्राह्मण-भोजन कराये बिना पारण नहीं करते थे। दुर्वासा-ऋषि स्नान-ध्यान करनेके लिये बाहर गये और उनको वहाँ बहुत देर हो गयी। द्वादशी थोड़ी ही थी, उसके बाद त्रयोदशी हो जाती थी और शास्त्रोंकी यह आज्ञा है कि एकादशी-व्रत करके द्वादशीको पारण करना चाहिये! ब्राह्मणोंकी आज्ञासे इस दोषके परिहारके लिये राजाने एक तुलसीका पत्ता ले लिया। इतनेमें दुर्वासा-ऋषि आ गये और बिना आज्ञा लिये हुए राजाके तुलसीदल ले लेनेपर वे आगबबूला हो गये और उन्होंने क्रोधित हो महाराजको शाप दिया कि ‘तुझे जो यह घमंड है कि मैं इसी जन्ममें मुक्त हो जाऊँगा वह मिथ्या है, अभी तुम्हें दस बार और जन्म धारण करने पड़ेंगे।’ इतना शाप देनेके बाद उन्होंने एक कृत्या नामक राक्षसीको पैदा किया, जो पैदा होते ही अम्बरीषको खानेके लिये दौड़ी। भक्तकी यह दुर्दशा भगवान् से देखी न गयी, उन्होंने शीघ्र सुदर्शन-चक्रको आज्ञा दी। उसने कृत्याको मारकर दुर्वासा-ऋषिका पीछा किया। दुर्वासाजी तीनों लोकोंमें भागते फिरे, पर किसीने उन्हें आश्रय नहीं दिया। अन्तमें वे भगवान् विष्णुके पास गये और उनकी आज्ञासे लौटकर महाराज अम्बरीषके चरणोंपर आ गिरे। राजाने चक्रको स्तवन करके शान्त किया। इसके बाद विष्णुभगवान् ने प्रकट होकर दुर्वासा-ऋषिसे कहा कि आपने हमारे भक्तको शाप दिया है, उसे मैं ग्रहण करता हूँ। उनके बदलेमें मैं दस बार शरीर धारण करूँगा।
उग्रसेन—
कंसके पिताका नाम उग्रसेन था। कंस अपने पिताको कैद करके आप राजगद्दीपर बैठा था। उसके अत्याचारोंसे प्रजा त्राहि-त्राहि करती थी। भगवान् कृष्णने कंसको मारकर उग्रसेनको पुनः गद्दीपर बैठाया और आप स्वयं उनके द्वारपाल बने।
९९—सुदामा—
सुदामाकी कथा प्रसिद्ध ही है। वह श्रीकृष्णजीके सहपाठी मित्र थे। विद्याध्ययनके अनन्तर यह अत्यन्त दरिद्र हो गये। अपनी स्त्रीके कहने-सुननेपर यह भगवान् श्रीकृष्णसे मिलनेके लिये द्वारका गये। यह इतने दरिद्र थे कि अपने मित्रसे मिलनेके लिये चार मुट्ठी चावल भेंट ले गये थे। भगवान् ने इनका बड़ा ही सम्मान किया और चार मुट्ठी चावलके बदलेमें उन्हें पूर्ण समृद्धिशाली बना दिया।
१०६—केवट—
जब भगवान् श्रीरामचन्द्रजी सीता और लक्ष्मणके साथ वन जाते समय गंगाके किनारे पहुँचे और पार जानेके लिये केवटसे नाव माँगी तो उसने प्रेमसे गद्‍गद होकर कहा—‘हे स्वामिन्! मैं आपके मर्मको जानता हूँ। आपके चरणोंको छू करके पत्थर सुन्दर स्त्रीके रूपमें परिणत हो गया। मेरी नाव तो काठकी है, कहीं यह भी मुनिकी स्त्री बन जायगी तो मेरी जीविका ही जाती रहेगी। इसलिये यदि आप पार जाना चाहते हैं तो पहले अपना पैर धोने दीजिये।’ निषादकी भक्ति अपूर्व थी। उसकी भक्तिके ही कारण भगवान् ने उससे अपने चरण धुलाकर कृतार्थ किया।
शबरी—
यह जातिकी भीलनी थी। मतंग-ऋषिकी सेवा करते-करते इसे भगवद्भक्तिकी प्राप्ति हो गयी थी। सीताहरणके पश्चात् जब लक्ष्मणजीके साथ भगवान् सीताकी खोजमें वनमें भटक रहे थे तो रास्तेमें भीलनीका आश्रम मिला। उसने भगवान् का बड़ा सत्कार किया तथा प्रेममें बेसुध होकर भगवान् को पहलेसे चख-चखकर देखे हुए पेड़ोंके सुन्दर बेर दिये और भक्तवत्सल भगवान् ने उन्हें सराह-सराहकर खाया। यह कथा प्रसिद्ध ही है।
गोपिका—
गोपियोंकी प्रेमाभक्ति प्रसिद्ध है। भगवान् श्रीकृष्णने प्रेमके वशीभूत हो गोपियोंके साथ रास किया था।
विदुर—
विदुर दासी-पुत्र थे। परन्तु श्रीकृष्णभगवान् में इनकी अपूर्व भक्ति थी। इसी कारण भगवान् जब हस्तिनापुर गये तो दुर्योधनके घर न जाकर विदुरके आतिथ्यको ही उन्होंने स्वीकार किया। जब भगवान् विदुरके घर पहुँचे उस समय विदुर घरपर नहीं थे। उनकी पत्नीने भगवान् का सत्कार किया। वह केले लेकर भगवान् को खिलाने बैठी परन्तु प्रेममें इतनी बेसुध थी कि केले छीलकर नीचे गिराती गयी और छिलके भगवान् के हाथमें। प्रेमके भिखारी भक्तहियहारी प्रभु उन्हीं छिलकोंको भोग लगाने लगे। भगवान् ने विदुरके कुल-शीलका विचार न कर उनकी भक्तिको ही प्रधानता दी। विदुरके साथ भगवान् का सख्यप्रेम था।
कुबरी—
यह कंसकी दासी थी। जब श्रीकृष्णभगवान् मथुरामें कंसके दरबारमें जा रहे थे तो वह रास्तेमें कंसके लिये चन्दनका अवलेप लिये जा रही थी। भगवान् श्रीकृष्णकी वह परम भक्ता थी। भगवान् ने उसके प्रेमके कारण उसके उस चन्दनके अवलेपको अपने शरीरमें लगाया और उसके कुबड़ेपनको दूर कर दिया। कंसको मारकर लौटनेपर भगवान् ने इसके आतिथ्यको स्वीकार किया था।
१२८—रक्तबीज—
यह एक महाप्रतापी दैत्य था। इसने घोर तपस्या करके श्रीशिवजीसे यह वरदान प्राप्त किया था कि ‘मेरे शरीरसे जो एक बूँद रक्त गिरे तो उससे सहस्रों रक्तबीज पैदा हों।’ इस वरको प्राप्त कर इसने त्रिलोकीको भयसे कम्पित कर दिया था। सब देवताओंने अन्तमें मिलकर भगवती महाकालीकी स्तुति की। महाकाली प्रकट होकर रक्तबीजसे युद्ध करने लगी। परन्तु जब उसके एक बूँदसे सहस्रों रक्तबीज पैदा होने लगे तो महाकालीने अपनी जीभ इतनी लम्बी बढ़ायी कि जितना रक्त उन रक्तबीज दैत्योंके बदनसे गिरता उसे ऊपर ही चाट जाती। इस प्रकार रक्तबीजका संहार उन्होंने किया। यह कथा दुर्गासप्तशतीमें विस्तारपूर्वक दी गयी है।
१४५—बिभीषन—
विभीषणने रावणको समझाया कि ‘श्रीरामचन्द्रजी जगत्-पिता परमात्मा हैं और श्रीसीताजी जगज्जननी हैं। इसलिये तुम जगज्जननी श्रीसीताजीको उनके पास लौटाकर उनसे क्षमा माँगो। वे प्रभु दयालु हैं, तुम्हें क्षमा कर देंगे।’ इस बातको सुनकर रावण बहुत ही क्रोधित हुआ और विभीषणको लात मारकर अपने नगरसे बाहर निकाल दिया। विभीषणने निराश और निराश्रय होकर मनमें कहा—

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ॥

मूल

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अनन्यभावसे भावित होकर जब विभीषण भगवान् के चरणोंमें आ गिरा तो भगवान् ने उसे प्रेमसे लंकेश कहकर हृदयसे लगाया। प्रभुकी भक्तवत्सलताका यह कैसा उदाहरण है!
१६२—दस सीस अरपि—
प्रबल-प्रतापी राजा रावण एक बार कैलास-पर्वतपर जाकर तपस्या करने लगा। वह घोर तप करके अन्तमें अपने सिरको काट-काटकर अग्निमें हवन करने लगा। जब नव सिर काटकर हवन कर चुका और दसवाँ सिर काटनेके लिये खड्ग उठाया तब शंकरजी वहाँ प्रकट हो गये और उन्होंने उससे वर माँगनेके लिये कहा, फलस्वरूप उसे लंकाका राज्य मिला।
१७४—बलि—
जब राजा बलिने वामनभगवान् को तीन पग पृथ्वी दान देनेका वचन दे दिया तब शुक्राचार्यने उसको श्रीविष्णुभगवान् के छलके विषयमें बहुत कुछ समझाकर दान देनेसे रोका। परन्तु सत्यसंकल्प राजा बलि अपनी प्रतिज्ञासे तनिक भी न हटा। उस समय उसने अपने गुरु शुक्राचार्यका सत्यके पीछे परित्याग कर दिया।
२१३—नृग—
सत्ययुगमें राजा नृग बड़े ही दानी राजा हो गये हैं। वह नित्य एक करोड़ गो-दान किया करते थे। एक बार एक ब्राह्मणको दान दी हुई गाय भूलसे आकर उनकी गायोंमें मिल गयी और उन्होंने उसे अपनी गायोंके साथ दूसरे ब्राह्मणको दान कर दिया। पहला ब्राह्मण अपनी भूली गायको तलाश करता हुआ जब दूसरे ब्राह्मणकी गायोंमें उसे चरते हुए देखा तो उस ब्राह्मणको चोर बताकर अपनी गाय हाँक ले चला। फिर दोनों ब्राह्मणोंमें झगड़ा होने लगा। दोनों लड़ते-झगड़ते राजाके पास पहुँचे और राजाको इंसाफ करनेके लिये कहा। राजा दोनोंकी बातें सुनकर सिर हिलाता रहा। कुछ उसके समझमें न आया कि क्या किया जाय! इसपर वे दोनों ब्राह्मण क्रोधित हो उठे, उन्होंने राजाको शाप दिया कि ‘हे राजन्! तूने हमें धोखा दिया है, इसलिये जा, गिरगिटकी योनिको प्राप्त हो।’ राजा गिरगिट हो गया और बेचारा सहस्रवर्षपर्यन्त द्वारकाके एक कुएँमें पड़ा रहा। श्रीकृष्णावतारमें भगवान् ने उसे कुएँसे निकाला। फिर शापमुक्त होकर वह दिव्य शरीर धारण कर वैकुण्ठ चला गया।
२१४—पूतना—
यह पूर्वजन्ममें एक अप्सरा थी। वामनभगवान् का बालस्वरूप देखकर, वात्सल्य-स्नेह-वश, इसकी इच्छा हुई थी कि मैं इस बालकको पुत्र बनाकर अपने स्तनोंका दूध पिलाती। अन्तर्यामी भगवान् उसकी मनोवाञ्छा जान गये। वह अप्सरा किसी घोर पापके कारण पूतना नाम्नी राक्षसी बनी। श्रीकृष्णावतारमें भगवान् ने वत्सवत् उसका स्तन्यपान करते हुए उसे अपने धाम भेज दिया।
सिसुपाल—
यह चेदि देशका राजा था। यह बड़ा ही पराक्रमी था। कहते हैं कि रावण ही दूसरे जन्ममें शिशुपाल हुआ। यह बड़ा दुष्ट था। प्रतिदिन सबेरे उठकर भगवान् श्रीकृष्णको सौ गालियाँ दिया करता था। भगवान् कृष्ण उसकी गालियाँ सुनते और सह लेते थे। क्योंकि उसकी माता श्रीकृष्णके पिताकी बहिन थी। और उसने श्रीकृष्णसे यह वर ले लिया था कि वह शिशुपालके सौ अपराधोंको प्रतिदिन क्षमा कर देंगे। एक दिन पाण्डवोंकी सभामें श्रीकृष्णको वह गालियाँ देने लगा। सौ गालियोंतक तो भगवान् ने उसे क्षमा किया। परन्तु जब उसने गाली देना बंद नहीं किया तो भगवान् ने चक्रसुदर्शनसे उसके सिरको काट डाला। देखते-देखते उसकी आत्मज्योति भगवान् के श्रीमुखमें प्रवेश कर गयी।
व्याध—
भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें पद्मके चिह्न देखकर उसे नेत्रका भ्रम हो गया था और उसने हरिण समझकर भगवान् के चरणोंमें तीर मारा था। पीछे जब वह समीप आया और चतुर्भुज भगवान् श्रीकृष्णको देखा तो उसे बड़ा ही दुःख और पश्चात्ताप हुआ। परन्तु भगवान् ने उसे शान्ति प्रदान करते हुए सदेह स्वधामको भेज दिया।
२२०—परीछितहि पछिताय—
एक बार महाराज परीक्षित् शिकार खेलते-खेलते निर्जन वनमें निकल गये। वहाँ उन्होंने देखा कि एक काला पुरुष मूसल हाथमें लिये एक गाय और एक लँगड़े बैलको खदेड़ रहा है। जब पूछनेपर मालूम हुआ कि वह काला पुरुष कलियुग है और उसके भयसे पृथ्वी, गाय और धर्म बैलका रूप धारण कर भाग रहे हैं, तो महाराजने क्रोधित होकर तलवार निकाल ली और कलियुगको मारनेके लिये दौड़े। इसपर वह काला पुरुष भयभीत होकर महाराजके चरणोंपर गिर पड़ा। महाराजने उसे शरणागत जानकर छोड़ दिया और चौदह स्थानोंमें रहनेके लिये उसे अभय कर दिया। उन स्थानोंमें एक स्वर्ण भी था। महाराजके सिरपर सोनेका मुकुट था, इसलिये कलिने उसपर अपना आसन जमाया। महाराज जब उधरसे लौटे तो भूख-प्याससे व्याकुल हो एक ध्यानावस्थित ऋषिके आश्रममें पहुँचे और ऋषिको पुकारने लगे। जब कुछ उत्तर न मिला तो महाराज ऋषिको पाखण्डी समझकर उनके गलेमें एक मरा हुआ सर्प डालकर वहाँसे चले गये। जब उस ऋषिके पुत्रको यह समाचार मालूम हुआ तो उसने शाप दिया कि ध्यानावस्थित मेरे पिताके गलेमें मृत सर्प डालकर तिरस्कार करनेकी चेष्टा करनेवाला मदान्ध राजा आजसे सातवें दिन तक्षक सर्पके काटनेसे मर जायगा। महाराजा परीक्षित् को जब यह समाचार मालूम हुआ तो उन्हें अपनी भूलपर बड़ा पश्चात्ताप हुआ और वह सात दिनतक श्रीमद्भागवतका सप्ताह पाठ सुनकर सातवें दिन तक्षक सर्पके काटे जानेपर ब्रह्मलीन हो गये। यह कथा श्रीमद्भागवतमें लिखी है।
२२५—मृग—
मारीच रावणका अनुचर था। इसीको श्रीरामचन्द्रजीने विश्वामित्रकी यज्ञ-रक्षाके समय एक ही बाणमें सौ योजन दूर समुद्रपार भेज दिया था। जब पंचवटीमें लक्ष्मणजीने शूर्पणखाके नाक और कान काट लिये और वह विलखती हुई रावणके पास गयी तो रावणने बदला लेनेकी इच्छासे मारीचके पास जाकर उसे माया-मृग बनने और श्रीरामचन्द्रजीको धोखा देनेके लिये कहा। पहले तो मारीचने उसे बहुतेरा समझाया और श्रीरामचन्द्रजीसे मेल कर लेनेके लिये कहा। परन्तु जब रावण उसे मारनेके लिये तैयार हो गया तो उसने रावणके हाथसे मरनेकी अपेक्षा श्रीरामचन्द्रजीके हाथसे मरनेमें ही अपना श्रेय समझा। वह मायामृग बनकर पंचवटीमें भगवान् की पर्णकुटीके सामने होकर निकला। श्रीजानकीजीने भगवान् से उस मृगको मारकर उसका मृगछाला लानेके लिये कहा। भगवान् उसके पीछे चले और मृगके मरण-समयके आर्त्तनादको सुनकर श्रीजानकीजीकी आज्ञासे लक्ष्मणजी भी उधर ही निकल पड़े। एकान्त देखकर रावण आया और पर्णकुटीसे श्रीसीताजीको रथपर बैठाकर लंका ले गया। मारीचको मारकर भगवान् ने उसे सद्‍गति प्रदान की।
२२६—नहिं कुंजरो नरो—
महाभारतके युद्धमें कौरवोंकी ओरसे लड़ते हुए द्रोणाचार्य जब पाण्डवोंकी सेनाका संहार करने लगे तब श्रीकृष्णभगवान् ने अर्जुनसे कहा कि अब तो द्रोणाचार्यका वध किये बिना काम नहीं चल सकता। परन्तु अर्जुनको गुरुवध करनेकी हिम्मत नहीं हुई। तब भगवान् ने भीमके द्वारा अश्वत्थामा नामके हाथीको मरवा डाला। द्रोणाचार्यके पुत्रका भी अश्वत्थामा नाम था और वह उनको बड़े ही प्यारे थे। जब ‘अश्वत्थामा मारा गया’ यह आवाज़ द्रोणाचार्यके कानोंमें पहुँची तो उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिरसे पूछा कि कौन अश्वत्थामा मारा गया। युधिष्ठिरने कहा—‘अश्वत्थामा हतो नरो वा कुंजरो वा।’ अर्थात् अश्वत्थामा मनुष्य मारा गया या हाथी। द्रोणाचार्य ‘या हाथी’ (वा कुंजरो वा) इस अंशको न सुन सके। राजनीतिका पालन करते हुए धर्मराजने सत्यकी रक्षा करनी चाही, पर वह न हो सका। असत्य बोलनेका कलंक उनके जीवनपर लग ही गया। अस्तु, पुत्रमरण सुनकर ज्यों ही द्रोणाचार्य मूर्छित-से हुए त्यों ही धृष्टद्युम्नने उनका मस्तक काट लिया। ‘नरो वा कुंजरो वा’ तभीसे कहावतके रूपमें प्रयुक्त होने लगा।
२३९—ब्रह्म-बिसिख—
अश्वत्थामाने पाण्डवोंको निर्वंश करनेके लिये परीक्षित् को गर्भमें ही ब्रह्मास्त्रसे मारना चाहा था, परन्तु भगवान् श्रीकृष्णने चक्रसुदर्शनके द्वारा उसे बीचमें ही व्यर्थ करके गर्भस्थ शिशुकी रक्षा की थी।
फेन मरॺो—
नमुचि नामका एक महाप्रतापी दैत्य था। उसने घोर तपस्या करके ब्रह्माजीसे यह वरदान प्राप्त किया था कि ‘मैं न किसी अस्त्र-शस्त्रसे मरूँ, और न किसी शुष्क या आर्द्र पदार्थसे मरूँ।’ जब देवासुर-संग्राम छिड़ा तो देवतालोग इसके पराक्रमके आगे त्राहि-त्राहि करने लगे। इन्द्रका वज्र भी इसका बाल बाँका न कर सका। तब आकाशवाणी हुई कि ‘यह अस्त्र-शस्त्रसे नहीं मरेगा। इसे समुद्रके फेनसे मारो।’ पीछे समुद्रके फेनसे मृत्यु हुई।
२४७—पूजियत गनराउ—
एक बार सब देवताओंमें इस बातके लिये झगड़ा उठा कि सबोंमें प्रथम पूज्य कौन है। अन्तमें यह निश्चय हुआ कि समस्त ब्रह्माण्डकी परिक्रमा करके जो पहले आ जाय वही सर्वप्रथम पूज्य समझा जायगा। सब देवता अपने-अपने वाहनपर सवार होकर निकले। बेचारे गणेशजीकी सवारी चूहा! क्या करते? बड़े ही असमंजसमें पड़े! इतनेमें नारदजी उस रास्तेसे होकर निकले। गणेशजीको मनमारे बैठा देखकर उन्होंने कहा—किस चिन्तामें आप पड़े हैं, रामनाम लिखकर उसकी ही परिक्रमा करके निश्चिन्त हो जाइये। रामनाममें ही अखिल सृष्टि निहित है। फिर क्या था, गणेशजीने चट रामनाम लिखकर उसकी परिक्रमा कर डाली और सबसे पहले ब्रह्माण्डकी परिक्रमा कर आनेके फलस्वरूप सर्वप्रथम पूज्य हो गये। यह रामनामकी महिमा है!

विश्वास-प्रस्तुतिः

महिमा जासु जान गनराऊ।
प्रथम पूजिअत नाम प्रभाउ॥

मूल

महिमा जासु जान गनराऊ।
प्रथम पूजिअत नाम प्रभाउ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रोक्यो बिंध्य—
कथा आती है कि विन्ध्याचल-पर्वत बहुत ही ऊँचा था। सूर्यकी प्रचण्ड किरणें जब उस पर्वतके आश्रय रहनेवाले वृक्ष-लताओंको झुलसाने लगीं तब उसे बड़ा रोष उत्पन्न हुआ और सूर्यनारायणको ढक लेनेके उद्देश्यसे वह अपने शरीरको बढ़ाने लगा। इससे सारे देवता भयभीत हो उठे और सबने आकर अगस्त्य-ऋषिसे प्रार्थना की। महर्षि अगस्त्यजीने राम-नामका स्मरण कर विन्ध्याचलके मस्तकपर हाथ रखकर कहा कि ‘देख, जबतक मैं यहाँ न लौट आऊँ तबतक तू यहाँ ऐसा ही पड़ा रह।’ अगस्त्यजी फिर न लौटे और वह पर्वत ज्यों-का-त्यों आजतक खड़ा है। यह है श्रीराम-नामकी महिमा!
२५७—दंडक पुहुमि पुनीत भई—
कथा है कि एक बार बड़ा भारी दुर्भिक्ष पड़ा। सब ऋषिगण अपने-अपने आश्रमोंको छोड़कर गौतम-ऋषिके आश्रमपर जा ठहरे। पीछे जब दुर्भिक्ष मिट गया तो वे गौतम-ऋषिसे विदा माँगनेके लिये गये। ऋषिने उनको उसी आश्रममें रहनेके लिये कहा तथा अन्यत्र जानेके लिये मना किया। तब उन ऋषियोंने एक मायाकी गौ रचकर गौतम-ऋषिके खेतमें खड़ी कर दी। ऋषि जब उसे हाँकनेके लिये गये तो वह गिर पड़ी और मर गयी। इसपर वे सारे ऋषि उनके ऊपर गोहत्याका दोष मढ़कर जाने लगे। गौतम-ऋषिने योगबलसे जब उनकी इस मायाको जाना तब क्रोधित होकर शाप दे दिया कि तुम जहाँ जाना चाहते हो वह देश अपवित्र—नष्ट-भ्रष्ट हो जायगा। तभीसे वह दण्डकवनके नामसे प्रसिद्ध हुआ और वहाँ कभी कोई लता-वृक्ष नहीं उगते थे, सदा वह प्रदेश वीरान रहता था। भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके चरण धरते ही वह उजाड़ प्रदेश पवित्र और हरा-भरा हो गया।

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