२३ विनयावली

विषय (हिन्दी)

(७१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसेहू साहबकी सेवा सों होत चोरु रे।
आपनी न बूझ, न कहै को राँडरोरु रे॥ १॥
मुनि-मन-अगम, सुगम माइ-बापु सों।
कृपासिंधु, सहज सखा, सनेही आपु सों॥ २॥
लोक-बेद-बिदित बड़ो न रघुनाथ सों।
सब दिन सब देस, सबहिके साथ सों॥ ३॥
स्वामी सरबग्य सों चलै न चोरी चारकी।
प्रीति पहिचानि यह रीति दरबारकी॥ ४॥
काय न कलेस-लेस, लेत मान मनकी।
सुमिरे सकुचि रुचि जोगवत जनकी॥ ५॥
रीझे बस होत, खीझे देत निज धाम रे।
फलत सकल फल कामतरु नाम रे॥ ६॥
बेंचे खोटो दाम न मिलै, न राखे काम रे।
सोऊ तुलसी निवाज्यो ऐसो राजाराम रे॥ ७॥

मूल

ऐसेहू साहबकी सेवा सों होत चोरु रे।
आपनी न बूझ, न कहै को राँडरोरु रे॥ १॥
मुनि-मन-अगम, सुगम माइ-बापु सों।
कृपासिंधु, सहज सखा, सनेही आपु सों॥ २॥
लोक-बेद-बिदित बड़ो न रघुनाथ सों।
सब दिन सब देस, सबहिके साथ सों॥ ३॥
स्वामी सरबग्य सों चलै न चोरी चारकी।
प्रीति पहिचानि यह रीति दरबारकी॥ ४॥
काय न कलेस-लेस, लेत मान मनकी।
सुमिरे सकुचि रुचि जोगवत जनकी॥ ५॥
रीझे बस होत, खीझे देत निज धाम रे।
फलत सकल फल कामतरु नाम रे॥ ६॥
बेंचे खोटो दाम न मिलै, न राखे काम रे।
सोऊ तुलसी निवाज्यो ऐसो राजाराम रे॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे! तू ऐसे स्वामीकी सेवासे भी अपना जी चुराता है। तुझमें न तो अपनी समझ है और न तुझे दूसरेके कहेका ही कुछ खयाल है, तू तो किसी भी कामका नहीं, पत्थरका रोड़ा है॥ १॥ जो भगवान् श्रीराम मुनियोंके मनको भी अगम हैं, वही भक्तोंके लिये माता-पिताके समान सुगम हैं, वे कृपाके समुद्र हैं, स्वभावसे ही मित्र और अपने-आप ही प्रेम करनेवाले हैं॥ २॥ यह बात लोक और वेदमें प्रसिद्ध है कि श्रीरघुनाथजीसे बड़ा कोई भी नहीं है, वे सर्वदा सर्वत्र और सभीके साथ रहते हैं॥ ३॥ (सच्चे मनसे श्रीरामसे प्रेम कर, क्योंकि) वे स्वामी सर्वज्ञ हैं, उनसे सेवककी चोरी छिपी नहीं रह सकती। वहाँ प्रेमकी ही पहचान होती है, यही उनके दरबारकी नीति है॥ ४॥ उनकी सेवामें शरीरको जरा-सा भी कष्ट नहीं पहुँचता, वे स्वामी मनके प्रेम और सेवाको ही मान लेते हैं। प्रेमसे स्मरण करते ही वे संकोचमें पड़ जाते हैं और सेवककी रुचि देखने लगते हैं, अर्थात् भक्तोंको मनमानी वस्तु देकर भी इसी संकोचमें रहते हैं कि हमने कुछ भी नहीं दिया॥ ५॥ वह जिसपर प्रसन्न होते हैं, उसके वशमें हो जाते हैं और जिसपर नाराज होते हैं उसे (देहके बन्धनसे छुड़ाकर) अपने परम धाममें भेज देते हैं। उनका नाम कल्पवृक्षके समान है, जिसमें सब प्रकारके फल फलते हैं॥ ६॥ जिसके बेचनेपर एक खोटा पैसा नहीं मिलता और रखनेसे कुछ काम नहीं निकलता, ऐसे तुलसीदासको भी जिन्होंने निहाल कर दिया, ऐसे राजाधिराज श्रीरामजीका क्या कहना है?॥ ७॥

विषय (हिन्दी)

(७२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरो भलो कियो राम आपनी भलाई।
हौं तो साईं-द्रोही पै सेवक-हित साईं॥ १॥
रामसों बड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो।
राम सो खरो है कौन, मोसों कौन खोटो॥ २॥
लोक कहै रामको गुलाम हौं कहावौं।
एतो बड़ो अपराध भौ न मन बावौं॥ ३॥
पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी ज्यों नीचो।
बोरत न बारि ताहि जानि आपु सींचो॥ ४॥

मूल

मेरो भलो कियो राम आपनी भलाई।
हौं तो साईं-द्रोही पै सेवक-हित साईं॥ १॥
रामसों बड़ो है कौन, मोसों कौन छोटो।
राम सो खरो है कौन, मोसों कौन खोटो॥ २॥
लोक कहै रामको गुलाम हौं कहावौं।
एतो बड़ो अपराध भौ न मन बावौं॥ ३॥
पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी ज्यों नीचो।
बोरत न बारि ताहि जानि आपु सींचो॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामजीने अपने भलेपनसे ही मेरा भला कर दिया। (मेरे कर्त्तव्यसे भला होनेकी क्या आशा थी?) क्योंकि मैं तो स्वामीके साथ बुराई करनेवाला हूँ; परन्तु मेरे स्वामी श्रीराम सेवकके हितकारी हैं॥ १॥ श्रीरामजीसे तो बड़ा कौन है और मुझसे छोटा कौन है? उनके समान खरा कौन है और मेरे समान खोटा कौन है?॥ २॥ संसार कहता है कि मैं (तुलसीदास) रामजीका गुलाम हूँ और मैं भी यह कहलवाता हूँ। (वास्तवमें रामका सेवक न होकर भी मैं इस पदवीको स्वीकार कर लेता हूँ) यह मेरा बड़ा भारी अपराध है, तो भी श्रीरामका मन मेरी तरफसे तनिक भी नहीं फिरा॥ ३॥ हे तुलसी! जैसे तिनका बहुत नीच होनेपर भी जलके मस्तकपर चढ़ जाता है, (ऊपर उतराने लगता है) परन्तु जल उसे अपने द्वारा ही सींचकर पाला-पोसा हुआ समझकर डुबोता नहीं। (इसी प्रकार भगवान् श्रीरामजी समझते हैं)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(७३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जागु, जागु, जीव जड़! जोहै जग-जामिनी।
देह-गेह-नेह जानि जैसे घन-दामिनी॥ १॥
सोवत सपनेहूँ सहै संसृति-संताप रे।
बूडॺो मृग-बारि खायो जेवरीको साँप रे॥ २॥
कहैं बेद-बुध, तू तो बूझि मनमाहिं रे।
दोष-दुख सपनेके जागे ही पै जाहिं रे॥ ३॥
तुलसी जागेते जाय ताप तिहूँ ताय रे।
राम-नाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे॥ ४॥

मूल

जागु, जागु, जीव जड़! जोहै जग-जामिनी।
देह-गेह-नेह जानि जैसे घन-दामिनी॥ १॥
सोवत सपनेहूँ सहै संसृति-संताप रे।
बूडॺो मृग-बारि खायो जेवरीको साँप रे॥ २॥
कहैं बेद-बुध, तू तो बूझि मनमाहिं रे।
दोष-दुख सपनेके जागे ही पै जाहिं रे॥ ३॥
तुलसी जागेते जाय ताप तिहूँ ताय रे।
राम-नाम सुचि रुचि सहज सुभाय रे॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे मूर्ख जीव! जाग, जाग! इस संसाररूपी रात्रिको देख! शरीर और घर-कुटुम्बके प्रेमको ऐसा क्षणभंगुर समझ जैसे बादलोंके बीचकी बिजली, जो क्षणभर चमककर ही छिप जाती है॥ १॥ (जागनेके समय ही नहीं) तू सोते समय सपनेमें भी संसारके कष्ट ही सह रहा है; अरे! तू भ्रमसे मृग-तृष्णाके जलमें डूबा जा रहा है और तुझे रस्सीका सर्प डँस रहा है॥ २॥ वेद और विद्वान् पुकार-पुकारकर कह रहे हैं, तू अपने मनमें विचार कर समझ ले कि स्वप्नके सारे दुःख और दोष वास्तवमें जागनेपर ही नष्ट होते हैं॥ ३॥ हे तुलसी! संसारके तीनों ताप अज्ञानरूपी निद्रासे जागनेपर ही नष्ट होते हैं और तभी श्रीराम-नाममें अहैतुकी स्वाभाविक विशुद्ध प्रीति उत्पन्न होती है॥ ४॥

राग विभास

विषय (हिन्दी)

(७४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव,
जागि त्याग मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे।
करि बिचार, तजि बिकार, भजु उदार रामचंद्र,
भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे॥ १॥
मोहमय कुहू-निसा बिसाल काल बिपुल सोयो,
खोयो सो अनूप रूप सुपन जू परे।
अब प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश,
बासना, सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे॥ २॥
भागे मद-मान चोर भोर जानि जातुधान
काम-कोह-लोभ-छोभ-निकर अपडरे।
देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप,
ताप त्रिबिध प्रेम-आप दूर ही करे॥ ३॥
श्रवन सुनि गिरा गँभीर, जागे अति धीर बीर,
बर बिराग-तोष सकल संत आदरे।
तुलसिदास प्रभु कृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,
भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे॥ ४॥

मूल

जानकीसकी कृपा जगावती सुजान जीव,
जागि त्याग मूढ़ताऽनुरागु श्रीहरे।
करि बिचार, तजि बिकार, भजु उदार रामचंद्र,
भद्रसिंधु दीनबंधु, बेद बदत रे॥ १॥
मोहमय कुहू-निसा बिसाल काल बिपुल सोयो,
खोयो सो अनूप रूप सुपन जू परे।
अब प्रभात प्रगट ग्यान-भानुके प्रकाश,
बासना, सराग मोह-द्वेष निबिड़ तम टरे॥ २॥
भागे मद-मान चोर भोर जानि जातुधान
काम-कोह-लोभ-छोभ-निकर अपडरे।
देखत रघुबर-प्रताप, बीते संताप-पाप,
ताप त्रिबिध प्रेम-आप दूर ही करे॥ ३॥
श्रवन सुनि गिरा गँभीर, जागे अति धीर बीर,
बर बिराग-तोष सकल संत आदरे।
तुलसिदास प्रभु कृपालु, निरखि जीव जन बिहालु,
भंज्यो भव-जाल परम मंगलाचरे॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(श्रीरामनामके आश्रित) चतुर जीवोंको श्रीरामजीकी कृपा ही (अज्ञानरूपी निद्रासे) जगाती है, (अतएव रामनामके प्रभावसे) मूर्खताको त्यागकर जाग और श्रीहरिके साथ प्रेम कर। नित्यानित्य वस्तुका विचार करके, काम-क्रोधादि समस्त विकारोंको छोड़कर कल्याणके समुद्र, दीनबन्धु, उदार श्रीरामचन्द्रजीका भजन कर, यही वेदकी आज्ञा है॥ १॥ मोहमयी अमावस्याकी लंबी रात्रिमें सोते हुए तुझे बहुत समय बीत गया और माया-स्वप्नमें पड़कर तू अपने अनुपम आत्मस्वरूपको भूल गया। देख अब सबेरा हो गया है और ज्ञानरूपी सूर्यका प्रकाश होते ही वासना, राग, मोह और द्वेषरूपी घोर अन्धकार दूर हो गया है॥ २॥ प्रातःकाल हुआ समझकर गर्व और मानरूपी चोर भागने लगे तथा काम, क्रोध, लोभ और क्षोभरूपी राक्षसोंके समूह अपने-आप डर गये। श्रीरघुनाथजीके प्रचण्ड प्रतापको देखते ही पाप-सन्ताप नष्ट हो गये और तीन प्रकारके ताप श्रीरामजीके प्रेमरूपी जलने शान्त कर दिये॥ ३॥ इस गम्भीर वाणीको कानोंसे सुनकर धीर-वीर संत मोह-निद्रासे जाग उठे और उन्होंने सुन्दर वैराग्य, सन्तोष आदिको आदरसे अपना लिया। हे तुलसीदास! कृपामय श्रीरामचन्द्रजीने भक्त-जीवोंको व्याकुल देखकर संसाररूपी जाल तोड़ डाला और उन्हें परमानन्द प्रदान करने लगे॥ ४॥

राग ललित

विषय (हिन्दी)

(७५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

खोटो खरो रावरो हौं, रावरी सौं, रावरेसों झूठ क्यों कहौंगो,
जानो सब ही के मनकी।
करम-बचन-हिये, कहौं न कपट किये, ऐसी हठ जैसी गाँठि
पानी परे सनकी॥ १॥
दूसरो, भरोसो नाहिं बासना उपासनाकी, बासव, बिरंचि
सुर-नर-मुनिगनकी।
स्वारथके साथी मेरे, हाथी स्वान लेवा देई, काहू तो न पीर
रघुबीर! दीन जनकी॥ २॥
साँप-सभा साबर लबार भये देव दिब्य, दुसह साँसति कीजै
आगे ही या तनकी।
साँचे परौं, पाऊँ पान, पंचमें पन प्रमान, तुलसी चातक आस
राम स्यामघनकी॥ ३॥

मूल

खोटो खरो रावरो हौं, रावरी सौं, रावरेसों झूठ क्यों कहौंगो,
जानो सब ही के मनकी।
करम-बचन-हिये, कहौं न कपट किये, ऐसी हठ जैसी गाँठि
पानी परे सनकी॥ १॥
दूसरो, भरोसो नाहिं बासना उपासनाकी, बासव, बिरंचि
सुर-नर-मुनिगनकी।
स्वारथके साथी मेरे, हाथी स्वान लेवा देई, काहू तो न पीर
रघुबीर! दीन जनकी॥ २॥
साँप-सभा साबर लबार भये देव दिब्य, दुसह साँसति कीजै
आगे ही या तनकी।
साँचे परौं, पाऊँ पान, पंचमें पन प्रमान, तुलसी चातक आस
राम स्यामघनकी॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—बुरा-भला जो कुछ भी हूँ सो आपका हूँ। आपकी सौंह, मैं आपसे झूठ क्यों कहूँगा? आप तो सभीके मनकी बात जानते हैं। मैं कपटसे नहीं; परंतु कर्म, वचन और हृदयसे कहता हूँ कि ‘मैं आपका हूँ।’ यह आपकी गुलामीका हठ इतना पक्का है जैसे पानीसे भीगे हुए सनकी गाँठ!॥ १॥ हे रामजी! न तो मुझे दूसरेका भरोसा है और न मुझे इन्द्र, ब्रह्मा अथवा अन्य देवता, मनुष्य और मुनियोंकी उपासना करनेकी ही इच्छा है। आपके सिवा सभी स्वार्थके साथी हैं, जन्मभर हाथीकी तरह सेवा करनेपर कहीं कुत्ते-जैसा तुच्छ फल देते हैं। इनमेंसे किसीको भी दीनोंके दुःखमें ऐसी सहानुभूति नहीं है, जैसी आपको है॥ २॥ हे दिव्यदेव, ‘मैं आपका गुलाम हूँ’ यह बात यदि मैं झूठ कहता हूँ तो मेरे इस शरीरको अपने ही आगे ऐसा असह्य कष्ट दीजिये, जैसा साँपोंकी सभामें (साँपको वश करनेका मन्त्र नहीं जाननेवाले) झूठे सँपेरेको मिलता है अर्थात् उस पाखण्डीको साँप काट खाते हैं। और यदि मैं सच्चा (रामका गुलाम) सिद्ध हो जाऊँ तो हे नाथ! मुझे पंचोंके बीचमें सचाईका एक बीड़ा मिल जाय। क्योंकि मुझ तुलसीरूपी चातकको एक रामरूपी श्याम मेघकी ही आशा है॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(७६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामको गुलाम, नाम रामबोला राख्यौ राम,
काम यहै, नाम द्वै हौं कबहूँ कहत हौं।
रोटी-लूगा नीके राखै, आगेहूकी बेद भाखै,
भलो ह्वैहै तेरो, ताते आनँद लहत हौं॥ १॥
बाँध्यौ हौं करम जड़ गरब गूढ़ निगड़,
सुनत दुसह हौं तौ साँसति सहत हौं।
आरत-अनाथ-नाथ, कौसलपाल कृपाल,
लीन्हों छीन दीन देख्यो दुरित दहत हौं॥ २॥
बूझ्यौ ज्यौं ही, कह्यो, मैं हूँ चेरो ह्वैहौ रावरो जू
मेरो कोऊ कहूँ नाहिं, चरन गहत हौं।
मींजो गुरु पीठ, अपनाइ गहि बाँह, बोलि
सेवक-सुखद, सदा बिरद बहत हौं॥ ३॥
लोग कहैं पोच, सो न सोच न सँकोच मेरे
ब्याह न बरेखी, जाति-पाँति न चहत हौं।
तुलसी अकाज-काज राम ही के रीझे-खीझे,
प्रीतिकी प्रतीति मन मुदित रहत हौं॥ ४॥

मूल

रामको गुलाम, नाम रामबोला राख्यौ राम,
काम यहै, नाम द्वै हौं कबहूँ कहत हौं।
रोटी-लूगा नीके राखै, आगेहूकी बेद भाखै,
भलो ह्वैहै तेरो, ताते आनँद लहत हौं॥ १॥
बाँध्यौ हौं करम जड़ गरब गूढ़ निगड़,
सुनत दुसह हौं तौ साँसति सहत हौं।
आरत-अनाथ-नाथ, कौसलपाल कृपाल,
लीन्हों छीन दीन देख्यो दुरित दहत हौं॥ २॥
बूझ्यौ ज्यौं ही, कह्यो, मैं हूँ चेरो ह्वैहौ रावरो जू
मेरो कोऊ कहूँ नाहिं, चरन गहत हौं।
मींजो गुरु पीठ, अपनाइ गहि बाँह, बोलि
सेवक-सुखद, सदा बिरद बहत हौं॥ ३॥
लोग कहैं पोच, सो न सोच न सँकोच मेरे
ब्याह न बरेखी, जाति-पाँति न चहत हौं।
तुलसी अकाज-काज राम ही के रीझे-खीझे,
प्रीतिकी प्रतीति मन मुदित रहत हौं॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मैं श्रीरामजीका गुलाम हूँ। लोग मुझे ‘रामबोला’ कहने लगे हैं। काम यही करता हूँ कि कभी-कभी दो-चार बार राम-नाम कह लेता हूँ। इसीसे राम मुझे रोटी-कपड़ोंसे अच्छी तरह रखते हैं। यह तो इस लोककी बात हुई, आगे परलोकके लिये तो वेद पुकार ही रहे हैं कि राम-नामके प्रतापसे तेरा कल्याण हो जायगा। बस, इसीसे मैं सदा प्रसन्न रहता हूँ॥ १॥ पहले मुझे जड कर्मोंने अहंकाररूपी कठिन बेड़ियोंसे बाँध लिया था। वह ऐसा भयानक कष्ट था, जो सुननेमें भी बड़ा असह्य है। मैंने दुःखी हो पुकारकर कहा, ‘हे आर्त्त और अनाथोंके नाथ! हे कोसलेश! हे कृपासिन्धु! मैं बड़ा कष्ट सह रहा हूँ।’ (यह सुनते ही) श्रीरामने मुझ दीनको पापोंसे जलता हुआ देखकर तुरन्त कर्म-बन्धनसे छुड़ा लिया॥ २॥ ज्यों ही उन्होंने मुझसे पूछा ‘तू कौन है?’ त्यों ही मैंने कहा, ‘हे नाथ! मैं आपका दास बनना चाहता हूँ। मेरे कहीं भी और कोई नहीं है, आपके चरणोंमें पड़ा हूँ।’ इसपर भक्तसुखकारी परम गुरु श्रीरामजीने मेरी पीठ ठोंकी, बाँह पकड़कर मुझे अपनाया और आश्वासन दिया। तबसे मैं यह (कण्ठी, तिलक, माला, रामनाम-जप, अहिंसा, अभेद, नम्रता आदि) भगवान् का वैष्णवी बाना सदा धारण किये रहता हूँ॥ ३॥ रामका गुलाम बना देखकर लोग मुझे नीच कहते हैं; परंतु मुझे इसके लिये कुछ भी चिन्ता या संकोच नहीं है, क्योंकि न तो मुझे किसीके साथ विवाह-सगाई करनी है और न मुझे जाति-पाँतिसे ही कुछ मतलब है। तुलसीका बनना-बिगड़ना तो श्रीरामजीके रीझने-खीझनेमें ही है। परंतु मुझे आपके प्रेमपर विश्वास है, इसीसे मैं मनमें सदा सानन्द रहता हूँ॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(७७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानकी-जीवन, जग-जीवन, जगत-हित,
जगदीस, रघुनाथ, राजीवलोचन राम।
सरद-बिधु-बदन, सुखसील, श्रीसदन,
सहज सुंदर तनु, सोभा अगनित काम॥ १॥
जग-सुपिता, सुमातु, सुगुरु, सुहित, सुमीत,
सबको दाहिनो, दीनबन्धु, काहूको न बाम।
आरतिहरन, सरनद, अतुलित दानि,
प्रनतपालु, कृपालु, पतित-पावन नाम॥ २॥
सकल बिस्व-बंदित, सकल सुर-सेवित,
आगम-निगम कहैं रावरेई गुनग्राम।
इहै जानि तुलसी तिहारो जन भयो,
न्यारो कै गनिबो जहाँ गने गरीब गुलाम॥ ३॥

मूल

जानकी-जीवन, जग-जीवन, जगत-हित,
जगदीस, रघुनाथ, राजीवलोचन राम।
सरद-बिधु-बदन, सुखसील, श्रीसदन,
सहज सुंदर तनु, सोभा अगनित काम॥ १॥
जग-सुपिता, सुमातु, सुगुरु, सुहित, सुमीत,
सबको दाहिनो, दीनबन्धु, काहूको न बाम।
आरतिहरन, सरनद, अतुलित दानि,
प्रनतपालु, कृपालु, पतित-पावन नाम॥ २॥
सकल बिस्व-बंदित, सकल सुर-सेवित,
आगम-निगम कहैं रावरेई गुनग्राम।
इहै जानि तुलसी तिहारो जन भयो,
न्यारो कै गनिबो जहाँ गने गरीब गुलाम॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! आप श्रीजानकीजीके जीवन, विश्वके प्राण, जगत् के हितकारी, जगत् के स्वामी, रघुकुलके नाथ और कमलके समान नेत्रवाले हैं। आपका मुखमण्डल शरत्पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान है, सुख प्रदान करना आपका स्वभाव है। लक्ष्मीजी सदा आपमें निवास करती हैं, आपका शरीर स्वाभाविक ही परम सुन्दर है, जिसकी शोभा असंख्य कामदेवोंके समान है॥ १॥ आप जगत् के सुखकारी पिता, माता, गुरु, हितकारी, मित्र और सबके अनुकूल हैं। आप दीनोंके बन्धु हैं, परंतु बुरा किसीका भी नहीं करते। आप विपत्तिके हरनेवाले, शरण देनेवाले, अतुलनीय दानी, शरणागत-रक्षक और कृपालु हैं। आपका राम-नाम पतितोंको पावन कर देता है॥ २॥ सारा विश्व आपकी वन्दना करता है, समस्त देवता आपकी सेवा करते हैं और सभी वेद-शास्त्र आपके ही गुण-समूहोंका गान करते हैं। यह सब जानकर तुलसीदास आपका गुलाम बना है, अब बतलाइये आप इसे अलग समझेंगे या गरीब गुलामोंकी नामावलीमें गिनेंगे॥ ३॥

राग टोड़ी

विषय (हिन्दी)

(७८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीनको दयालु दानि दूसरो न कोऊ।
जाहि दीनता कहौं हौं देखौं दीन सोऊ॥ १॥
सुर, नर, मुनि, असुर, नाग साहिब तौ घनेरे।
(पै) तौ लौं जौ लौं रावरे न नेकु नयन फेरे॥ २॥
त्रिभुवन, तिहुँ काल बिदित, बेद बदति चारी।
आदि-अंत-मध्य राम! साहबी तिहारी॥ ३॥
तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो।
सुनि सुभाव-सील-सुजसु जाचन जन आयो॥ ४॥
पाहन-पसु, बिटप-बिहँग अपने करि लीन्हे।
महाराज दसरथके! रंक राय कीन्हे॥ ५॥
तू गरीबको निवाज, हौं गरीब तेरो।
बारक कहिये कृपालु! तुलसिदास मेरो॥ ६॥

मूल

दीनको दयालु दानि दूसरो न कोऊ।
जाहि दीनता कहौं हौं देखौं दीन सोऊ॥ १॥
सुर, नर, मुनि, असुर, नाग साहिब तौ घनेरे।
(पै) तौ लौं जौ लौं रावरे न नेकु नयन फेरे॥ २॥
त्रिभुवन, तिहुँ काल बिदित, बेद बदति चारी।
आदि-अंत-मध्य राम! साहबी तिहारी॥ ३॥
तोहि माँगि माँगनो न माँगनो कहायो।
सुनि सुभाव-सील-सुजसु जाचन जन आयो॥ ४॥
पाहन-पसु, बिटप-बिहँग अपने करि लीन्हे।
महाराज दसरथके! रंक राय कीन्हे॥ ५॥
तू गरीबको निवाज, हौं गरीब तेरो।
बारक कहिये कृपालु! तुलसिदास मेरो॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! दीनोंपर दया करनेवाला और उन्हें (परमसुख) देनेवाला दूसरा कोई नहीं है। मैं जिसको अपनी दीनता सुनाता हूँ उसीको दीन पाता हूँ। (जो स्वयं दीन है वह दूसरेको क्या दे सकता है?)॥ १॥ देवता, मनुष्य, मुनि, राक्षस, नाग आदि मालिक तो बहुतेरे हैं, पर वहींतक हैं जबतक आपकी नजर तनिक भी टेढ़ी नहीं होती। आपकी नजर फिरते ही वे सब भी छोड़ देते हैं॥ २॥ तीनों लोकोंमें तीनों काल सर्वत्र यही प्रसिद्ध है और यही चारों वेद कह रहे हैं कि आदि, मध्य और अन्तमें, हे रामजी! सदा आपकी ही एक-सी प्रभुता है॥ ३॥ जिस भिखमंगेने आपसे माँग लिया, वह फिर कभी भिखारी नहीं कहलाया। (वह तो परम नित्य सुखको प्राप्तकर सदाके लिये तृप्त और अकाम हो गया) आपके इसी स्वभाव-शीलका सुन्दर यश सुनकर यह दास आपसे भीख माँगने आया॥ ४॥ आपने पाषाण (अहल्या), पशु (बंदर-भालू), वृक्ष (यमलार्जुन) और पक्षी (जटायु, काकभुशुण्डि) तकको अपना लिया है। हे महाराज दशरथके पुत्र! आपने नीच रंकोंको राजा बना दिया है॥ ५॥ आप गरीबोंको निहाल करनेवाले हैं और मैं आपका गरीब गुलाम हूँ। हे कृपालु! (इसी नाते) एक बार यही कह दीजिये कि ‘तुलसीदास मेरा है’॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(७९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी॥ १॥
नाथ तू अनाथको, अनाथ कौन मोसो।
मो समान आरत नहिं, आरतिहर तोसो॥ २॥
ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो।
तात-मात, गुरु-सखा, तू सब बिधि हितु मेरो॥ ३॥
तोहिं मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै।
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु! चरन-सरन पावै॥ ४॥

मूल

तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी।
हौं प्रसिद्ध पातकी, तू पाप-पुंज-हारी॥ १॥
नाथ तू अनाथको, अनाथ कौन मोसो।
मो समान आरत नहिं, आरतिहर तोसो॥ २॥
ब्रह्म तू, हौं जीव, तू है ठाकुर, हौं चेरो।
तात-मात, गुरु-सखा, तू सब बिधि हितु मेरो॥ ३॥
तोहिं मोहिं नाते अनेक, मानियै जो भावै।
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु! चरन-सरन पावै॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! तू दीनोंपर दया करनेवाला है, तो मैं दीन हूँ। तू अतुल दानी है, तो मैं भिखमंगा हूँ। मैं प्रसिद्ध पापी हूँ, तो तू पाप-पुंजोंका नाश करनेवाला है॥ १॥ तू अनाथोंका नाथ है, तो मुझ-जैसा अनाथ भी और कौन है? मेरे समान कोई दुःखी नहीं है और तेरे समान कोई दुःखोंको हरनेवाला नहीं है॥ २॥ तू ब्रह्म है, मैं जीव हूँ। तू स्वामी है, मैं सेवक हूँ। अधिक क्या, मेरा तो माता, पिता, गुरु, मित्र और सब प्रकारसे हितकारी तू ही है॥ ३॥ मेरे-तेरे अनेक नाते हैं; नाता तुझे जो अच्छा लगे, वही मान ले। परंतु बात यह है कि हे कृपालु! किसी भी तरह यह तुलसीदास तेरे चरणोंकी शरण पा जावे॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(८०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

और काहि माँगिये, को माँगिबो निवारै।
अभिमतदातार कौन, दुख-दरिद्र दारै॥ १॥
धरमधाम राम काम-कोटि-रूप रूरो।
साहब सब बिधि सुजान, दान-खडग-सूरो॥ २॥
सुसमय दिन द्वै निसान सबके द्वार बाजै।
कुसमय दसरथके! दानि तैं गरीब निवाजै॥ ३॥
सेवा बिनु गुनबिहीन दीनता सुनाये।
जे जे तैं निहाल किये फूले फिरत पाये॥ ४॥
तुलसिदास जाचक-रुचि जानि दान दीजै।
रामचंद्र चंद्र तू, चकोर मोहिं कीजै॥ ५॥

मूल

और काहि माँगिये, को माँगिबो निवारै।
अभिमतदातार कौन, दुख-दरिद्र दारै॥ १॥
धरमधाम राम काम-कोटि-रूप रूरो।
साहब सब बिधि सुजान, दान-खडग-सूरो॥ २॥
सुसमय दिन द्वै निसान सबके द्वार बाजै।
कुसमय दसरथके! दानि तैं गरीब निवाजै॥ ३॥
सेवा बिनु गुनबिहीन दीनता सुनाये।
जे जे तैं निहाल किये फूले फिरत पाये॥ ४॥
तुलसिदास जाचक-रुचि जानि दान दीजै।
रामचंद्र चंद्र तू, चकोर मोहिं कीजै॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे प्रभो! अब और किसके आगे हाथ फैलाऊँ? ऐसा दूसरा कौन है जो सदाके लिये मेरा माँगना मिटा दे? दूसरा ऐसा कौन मनोवाञ्छित फलोंका देनेवाला है जो मेरे दुःख-दारिद्रॺका नाश कर दे?॥ १॥ हे श्रीराम! तू धर्मका स्थान और करोड़ों कामदेवोंके सौन्दर्यसे भी सुन्दर है। सब प्रकारसे मेरा स्वामी है, मनकी अच्छी तरह जानता है और दानरूपी तलवारके चलानेमें बड़ा शूर है॥ २॥ अच्छे समयमें तो दो दिन सभीके दरवाजेपर नगारे बजते हैं, परन्तु हे दशरथनन्दन! तू ऐसा दानी है कि बुरे समयमें भी गरीबोंको निहाल कर देता है॥ ३॥ कुछ भी सेवा न करनेवाले, अच्छे गुणोंसे सर्वथा हीन जिन मनुष्योंने तेरे सामने अपना दुखड़ा सुनाया, उन सबको तैंने निहाल कर दिया, मैंने उन्हें आनन्दसे फूले फिरते पाया है॥ ४॥ अब तुलसीदास भिखारीके मनकी जानकर (अर्थात् वह और कुछ भी नहीं चाहता, केवल तेरा प्रेम चाहता है ऐसा जानकर) दान दे और वह यही कि हे श्रीरामचन्द्र! तू चन्द्रमा है ही, मुझे बस, चकोर बना ले॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(८१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीनबंधु, सुखसिंधु, कृपाकर, कारुनीक रघुराई।
सुनहु नाथ! मन जरत त्रिबिध जुर, करत फिरत बौराई॥ १॥
कबहुँ जोगरत, भोग-निरत सठ हठ बियोग-बस होई।
कबहुँ मोहबस द्रोह करत बहु, कबहुँ दया अति सोई॥ २॥
कबहुँ दीन, मतिहीन, रंकतर, कबहुँ भूप अभिमानी।
कबहुँ मूढ़, पंडित बिडंबरत, कबहुँ धर्मरत ग्यानी॥ ३॥
कबहुँ देव! जग धनमय रिपुमय कबहुँ नारिमय भासै।
संसृति-संनिपात दारुन दुख बिनु हरि-कृपा न नासै॥ ४॥
संजम, जप, तप, नेम, धरम, ब्रत बहु भेषज-समुदाई।
तुलसिदास भव-रोग रामपद-प्रेम-हीन नहिं जाई॥ ५॥

मूल

दीनबंधु, सुखसिंधु, कृपाकर, कारुनीक रघुराई।
सुनहु नाथ! मन जरत त्रिबिध जुर, करत फिरत बौराई॥ १॥
कबहुँ जोगरत, भोग-निरत सठ हठ बियोग-बस होई।
कबहुँ मोहबस द्रोह करत बहु, कबहुँ दया अति सोई॥ २॥
कबहुँ दीन, मतिहीन, रंकतर, कबहुँ भूप अभिमानी।
कबहुँ मूढ़, पंडित बिडंबरत, कबहुँ धर्मरत ग्यानी॥ ३॥
कबहुँ देव! जग धनमय रिपुमय कबहुँ नारिमय भासै।
संसृति-संनिपात दारुन दुख बिनु हरि-कृपा न नासै॥ ४॥
संजम, जप, तप, नेम, धरम, ब्रत बहु भेषज-समुदाई।
तुलसिदास भव-रोग रामपद-प्रेम-हीन नहिं जाई॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे परम दयालु श्रीरघुनाथजी! आप दीनोंके बन्धु, सुखके समुद्र और कृपाकी खानि हैं। हे नाथ! सुनिये, मेरा मन संसारके त्रिविध तापोंसे जल रहा है अथवा उसे (काम-क्रोध-लोभरूपी) त्रिदोष ज्वर हो गया है और इसीसे वह पागलकी तरह बकता फिरता है॥ १॥ कभी वह योगाभ्यास करता है तो कभी वह दुष्ट भोगोंमें फँस जाता है। कभी हठपूर्वक वियोगके वश हो जाता है तो कभी मोहके वश होकर नाना प्रकारके द्रोह करता है और वही किसी समय बड़ी दया करने लगता है॥ २॥ कभी दीन, बुद्धिहीन, बड़ा ही कंगाल बन जाता है, तो कभी घमण्डी राजा बन जाता है। कभी मूर्ख बनता है, तो कभी पण्डित बन जाता है। कभी पाखण्डी बनता है और कभी धर्मपरायण ज्ञानी बन जाता है॥ ३॥ हे देव! कभी उसे सारा जगत् धनमय दीखता है, कभी शत्रुमय और कभी स्त्रीमय दीखता है अर्थात् वह कभी लोभमें, कभी क्रोधमें और कभी काममें फँसा रहता है। यह संसाररूपी सन्निपात-ज्वरका दारुण दुःख बिना भगवत्-कृपाके कभी नष्ट नहीं हो सकता॥ ४॥ यद्यपि संयम, जप, तप, नियम, धर्म, व्रत आदि अनेक ओषधियाँ हैं, परन्तु तुलसीदासका संसाररूपी रोग श्रीरामजीके चरणोंके प्रेम बिना दूर नहीं हो सकता॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(८२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई।
जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई॥ १॥
नयन मलिन परनारि निरखि, मन मलिन बिषय सँग लागे।
हृदय मलिन बासना-मान-मद, जीव सहज सुख त्यागे॥ २॥
परनिंदा सुनि श्रवन मलिन भे, बचन दोष पर गाये।
सब प्रकार मलभार लाग निज नाथ-चरन बिसराये॥ ३॥
तुलसिदास ब्रत-दान, ग्यान-तप, सुद्धिहेतु श्रुति गावै।
राम-चरन-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै॥ ४॥

मूल

मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई।
जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई॥ १॥
नयन मलिन परनारि निरखि, मन मलिन बिषय सँग लागे।
हृदय मलिन बासना-मान-मद, जीव सहज सुख त्यागे॥ २॥
परनिंदा सुनि श्रवन मलिन भे, बचन दोष पर गाये।
सब प्रकार मलभार लाग निज नाथ-चरन बिसराये॥ ३॥
तुलसिदास ब्रत-दान, ग्यान-तप, सुद्धिहेतु श्रुति गावै।
राम-चरन-अनुराग-नीर बिनु मल अति नास न पावै॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मोहसे उत्पन्न जो अनेक प्रकारका (पापरूपी) मल लगा हुआ है, वह करोड़ों उपायोंसे भी नहीं छूटता। अनेक जन्मोंसे यह मन पापमें लगे रहनेका अभ्यासी हो रहा है, इसलिये यह मल अधिकाधिक लिपटता ही चला जाता है॥ १॥ पर-स्त्रियोंकी ओर देखनेसे नेत्र मलिन हो गये हैं, विषयोंका संग करनेसे मन मलिन हो गया है और वासना, अहंकार तथा गर्वसे हृदय मलिन हो गया है तथा सुखरूप स्व-स्वरूपके त्यागसे जीव मलिन हो गया है॥ २॥ परनिन्दा सुनते-सुनते कान और दूसरोंका दोष कहते-कहते वचन मलिन हो गये हैं। अपने नाथ श्रीरामजीके चरणोंको भूल जानेसे ही यह मलका भार सब प्रकारसे मेरे पीछे लगा फिरता है॥ ३॥ इस पापके धुलनेके लिये वेद तो व्रत, दान, ज्ञान, तप आदि अनेक उपाय बतलाता है; परंतु हे तुलसीदास! श्रीरामके चरणोंके प्रेमरूपी जल बिना इस पापरूपी मलका समूल नाश नहीं हो सकता॥ ४॥

राग जैतश्री

विषय (हिन्दी)

(८३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कछु ह्वै न आई गयो जनम जाय।
अति दुरलभ तनु पाइ कपट तजि भजे न राम मन बचन-काय॥ १॥
लरिकाईं बीती अचेत चित, चंचलता चौगुने चाय।
जोबन-जुर जुबती कुपथ्य करि, भयो त्रिदोष भरि मदन बाय॥ २॥
मध्य बयस धन हेतु गँवाई, कृषी बनिज नाना उपाय।
राम-बिमुख सुख लह्यो न सपनेहुँ, निसिबासर तयौ तिहूँ ताय॥ ३॥
सेये नहिं सीतापति-सेवक, साधु सुमति भलि भगति भाय।
सुने न पुलकि तनु, कहे न मुदित मन किये जे चरित रघुबंसराय॥ ४॥
अब सोचत मनि बिनु भुअंग ज्यों, बिकल अंग दले जरा धाय।
सिर धुनि-धुनि पछितात मींजि कर कोउ न मीत हित दुसह दाय॥ ५॥
जिन्ह लगि निज परलोक बिगारॺौ, ते लजात होत ठाढ़े ठाँय।
तुलसी अजहुँ सुमिरि रघुनाथहिं, तरॺौ गयँद जाके एक नाँय॥ ६॥

मूल

कछु ह्वै न आई गयो जनम जाय।
अति दुरलभ तनु पाइ कपट तजि भजे न राम मन बचन-काय॥ १॥
लरिकाईं बीती अचेत चित, चंचलता चौगुने चाय।
जोबन-जुर जुबती कुपथ्य करि, भयो त्रिदोष भरि मदन बाय॥ २॥
मध्य बयस धन हेतु गँवाई, कृषी बनिज नाना उपाय।
राम-बिमुख सुख लह्यो न सपनेहुँ, निसिबासर तयौ तिहूँ ताय॥ ३॥
सेये नहिं सीतापति-सेवक, साधु सुमति भलि भगति भाय।
सुने न पुलकि तनु, कहे न मुदित मन किये जे चरित रघुबंसराय॥ ४॥
अब सोचत मनि बिनु भुअंग ज्यों, बिकल अंग दले जरा धाय।
सिर धुनि-धुनि पछितात मींजि कर कोउ न मीत हित दुसह दाय॥ ५॥
जिन्ह लगि निज परलोक बिगारॺौ, ते लजात होत ठाढ़े ठाँय।
तुलसी अजहुँ सुमिरि रघुनाथहिं, तरॺौ गयँद जाके एक नाँय॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हाय! मुझसे कुछ भी नहीं बन पड़ा और जन्म यों ही बीत गया। बड़े दुर्लभ मनुष्य-शरीरको पाकर निष्कपट-भावसे तन-मन-वचनसे कभी श्रीरामका भजन नहीं किया॥ १॥ लड़कपन तो अज्ञानमें बीता, उस समय चित्तमें चौगुनी चंचलता और (खेलने-खानेकी) प्रसन्नता थी। जवानीरूपी ज्वर चढ़नेपर स्त्रीरूपी कुपथ्य कर लिया, जिससे सारे शरीरमें कामरूपी वायु भरकर सन्निपात हो गया॥ २॥ (जवानी ढलनेपर) बीचकी अवस्था खेती, व्यापार और अनेक उपायोंसे धन कमानेमें खोयी; परन्तु श्रीरामसे विमुख होनेके कारण कभी स्वप्नमें भी सुख नहीं मिला, दिन-रात संसारके तीनों तापोंसे जलता ही रहा॥ ३॥ न तो कभी श्रीरामचन्द्रजीके भक्तोंकी और शुद्ध बुद्धिवाले संतोंकी ही भक्तिभावसे भलीभाँति सेवा की और न श्रीरघुनाथजीने जो लीलाएँ की थीं, उन्हें ही रोमांचित होकर सुना या प्रसन्न मनसे कहा॥ ४॥ अब जब कि बुढ़ापेने आकर सारे अंगोंको व्याकुल कर तोड़ दिया है, तब मणिहीन साँपके समान चिन्ता करता हूँ, सिर धुन-धुनकर और हाथ मल-मलकर पछताता हूँ, पर इस समय इस दुःसह दावानलको बुझानेके लिये कोई भी हितकारी मित्र दृष्टि नहीं पड़ता॥ ५॥ जिनके लिये (अनेक पाप कमाकर) लोक-परलोक बिगाड़ दिया था; वे आज पास खड़े होनेमें भी शर्माते हैं। हे तुलसी! तू अब भी उन श्रीरघुनाथजीका स्मरण कर, जिनका एक बार नाम लेनेसे ही गजराज (संसार-सागरसे) तर गया था॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(८४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ तू पछितैहै मन मींजि हाथ।
भयो है सुगम तोको अमर-अगम तन, समुझिधौं कत खोवत अकाथ॥ १॥
सुख-साधन हरिबिमुख बृथा जैसे श्रम फल घृतहित मथे पाथ।
यह बिचारि, तजि कुपथ-कुसंगति चलि सुपंथ मिलि भले साथ॥ २॥
देखु राम-सेवक, सुनि कीरति, रटहि नाम करि गान गाथ।
हृदय आनु धनुबान-पानि प्रभु, लसे मुनिपट, कटि कसे भाथ॥ ३॥
तुलसिदास परिहरि प्रपंच सब, नाउ रामपद-कमल माथ।
जनि डरपहि तोसे अनेक खल, अपनाये जानकीनाथ॥ ४॥

मूल

तौ तू पछितैहै मन मींजि हाथ।
भयो है सुगम तोको अमर-अगम तन, समुझिधौं कत खोवत अकाथ॥ १॥
सुख-साधन हरिबिमुख बृथा जैसे श्रम फल घृतहित मथे पाथ।
यह बिचारि, तजि कुपथ-कुसंगति चलि सुपंथ मिलि भले साथ॥ २॥
देखु राम-सेवक, सुनि कीरति, रटहि नाम करि गान गाथ।
हृदय आनु धनुबान-पानि प्रभु, लसे मुनिपट, कटि कसे भाथ॥ ३॥
तुलसिदास परिहरि प्रपंच सब, नाउ रामपद-कमल माथ।
जनि डरपहि तोसे अनेक खल, अपनाये जानकीनाथ॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे मन! तुझे हाथ मल-मलकर पछताना पड़ेगा। अरे! जो मनुष्य-शरीर देवताओंको दुर्लभ है, वही तुझको सहजमें मिल गया है, तू तनिक विचार तो कर; उसे व्यर्थ क्यों खो रहा है?॥ १॥ हरिसे विमुख होनेपर सुखका साधन वैसे ही व्यर्थ है जैसे घी निकालनेके लिये पानीके मथनेका परिश्रम। (सुख हरिमें है, उसको भूलकर सुखरहित विषयोंकी सेवासे सुख कभी नहीं मिल सकता) यह विचारकर बुरा मार्ग और बुरोंकी संगति छोड़ दे तथा सन्मार्गपर चलता हुआ सज्जनोंका संग कर॥ २॥ श्रीराम-भक्तोंके दर्शन कर, उनसे हरि-कथा सुन, राम-नामको रट और रामकी गुण-गाथाओंका गान कर और हाथमें धनुष-बाण लिये, मुनियोंके वस्त्र पहने एवं कमरमें तरकस कसे हुए प्रभु श्रीरामजीका हृदयमें ध्यान कर॥ ३॥ हे तुलसीदास! संसारके सारे प्रपंचोंको छोड़कर श्रीरामजीके चरण-कमलोंमें मस्तक नवा। डर मत, तेरे-जैसे अनेक नीचोंको श्रीजानकीनाथ रामजीने अपना लिया है॥ ४॥

राग धनाश्री

विषय (हिन्दी)

(८५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन! माधवको नेकु निहारहि।
सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यों, छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि॥ १॥
सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदारहि।
रंजन संत, अखिल अघ-गंजन, भंजन बिषय-बिकारहि॥ २॥
जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयो चहै भव-पारहि।
तौ जनि तुलसिदास निसि-बासर हरि-पद-कमल बिसारहि॥ ३॥

मूल

मन! माधवको नेकु निहारहि।
सुनु सठ, सदा रंकके धन ज्यों, छिन-छिन प्रभुहिं सँभारहि॥ १॥
सोभा-सील-ग्यान-गुन-मंदिर, सुंदर परम उदारहि।
रंजन संत, अखिल अघ-गंजन, भंजन बिषय-बिकारहि॥ २॥
जो बिनु जोग-जग्य-ब्रत-संयम गयो चहै भव-पारहि।
तौ जनि तुलसिदास निसि-बासर हरि-पद-कमल बिसारहि॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे मन! माधवकी ओर तनिक तो देख! अरे दुष्ट! सुन, जैसे कंगाल क्षण-क्षणमें अपना धन सँभालता है, वैसे ही तू अपने स्वामी श्रीरामजीका स्मरण किया कर॥ १॥ वे श्रीराम शोभा, शील, ज्ञान और सद्‍गुणोंके स्थान हैं। वे सुन्दर और बड़े दानी हैं। संतोंको प्रसन्न करनेवाले, समस्त पापोंके नाश करनेवाले और विषयोंके विकारको मिटानेवाले हैं॥ २॥ यदि तू बिना ही योग, यज्ञ, व्रत और संयमके संसार-सागरसे पार जाना चाहता है तो हे तुलसीदास! रात-दिनमें श्रीहरिके चरण-कमलोंको कभी मत भूल॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(८६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहै कह्यो सुत! बेद चहूँ।
श्रीरघुबीर-चरन-चिंतन तजि नाहिन ठौर कहूँ॥ १॥
जाके चरन बिरंचि सेइ सिधि पाई संकरहूँ।
सुक-सनकादि मुकुत बिचरत तेउ भजन करत अजहूँ॥ २॥
जद्यपि परम चपल श्री संतत, थिर न रहति कतहूँ।
हरि-पद-पंकज पाइ अचल भइ, करम-बचन-मनहूँ॥ ३॥
करुनासिंधु, भगत-चिंतामनि, सोभा सेवतहूँ।
और सकल सुर, असुर-ईस सब खाये उरग छहूँ॥ ४॥
सुरुचि कह्यो सोइ सत्य तात अति परुष बचन जबहूँ।
तुलसिदास रघुनाथ-बिमुख नहिं मिटइ बिपति कबहूँ॥ ५॥

मूल

इहै कह्यो सुत! बेद चहूँ।
श्रीरघुबीर-चरन-चिंतन तजि नाहिन ठौर कहूँ॥ १॥
जाके चरन बिरंचि सेइ सिधि पाई संकरहूँ।
सुक-सनकादि मुकुत बिचरत तेउ भजन करत अजहूँ॥ २॥
जद्यपि परम चपल श्री संतत, थिर न रहति कतहूँ।
हरि-पद-पंकज पाइ अचल भइ, करम-बचन-मनहूँ॥ ३॥
करुनासिंधु, भगत-चिंतामनि, सोभा सेवतहूँ।
और सकल सुर, असुर-ईस सब खाये उरग छहूँ॥ ४॥
सुरुचि कह्यो सोइ सत्य तात अति परुष बचन जबहूँ।
तुलसिदास रघुनाथ-बिमुख नहिं मिटइ बिपति कबहूँ॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—भक्त ध्रुवजीकी माता सुनीतिने पुत्रसे कहा था—हे पुत्र! चारों वेदोंने यही कहा है कि श्रीरघुनाथजीके चरणोंके चिन्तनको छोड़कर जीवको और कहीं भी ठिकाना नहीं है॥ १॥ जिनके चरणोंका चिन्तन करके ब्रह्मा और शिवजीने भी सिद्धियाँ प्राप्त की हैं, (जिनकी सेवासे) आज शुक-सनकादि जीवन्मुक्त हुए विचर रहे और अब भी जिनका स्मरण कर रहे हैं॥ २॥ यद्यपि लक्ष्मीजी बड़ी ही चंचला हैं, कहीं भी निरन्तर स्थिर नहीं रहतीं, परन्तु वे भी भगवान् के चरण-कमलोंको पाकर मन, वचन, कर्मसे अचल हो गयी हैं अर्थात् निरन्तर मन, वाणी, शरीरसे सेवामें ही लगी रहती हैं॥ ३॥ वे करुणाके समुद्र और भक्तोंके लिये चिन्तामणिस्वरूप हैं, उनकी सेवा करनेसे ही सारी शोभा है। और जितने देवता, दैत्योंके स्वामी हैं, सो सभी काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और मात्सर्य—इन छः सर्पोंसे डसे हुए हैं॥ ४॥ हे पुत्र! (तेरी विमाता) सुरुचिने जो कुछ कहा है सो सुननेमें अत्यन्त कठोर होनेपर भी सत्य है। हे तुलसीदास! श्रीरघुनाथजीसे विमुख रहनेसे विपत्तियोंका नाश कभी नहीं होता॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(८७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु मन मूढ़ सिखावन मेरो।
हरि-पद-बिमुख लह्यो न काहु सुख, सठ! यह समुझ सबेरो॥ १॥
बिछुरे ससि-रबि मन-नैननितें, पावत दुख बहुतेरो।
भ्रमत श्रमित निसि-दिवस गगन महँ, तहँ रिपु राहु बड़ेरो॥ २॥
जद्यपि अति पुनीत सुरसरिता, तिहुँ पुर सुजस घनेरो।
तजे चरन अजहूँ न मिटत नित, बहिबो ताहू केरो॥ ३॥
छुटै न बिपति भजे बिनु रघुपति, श्रुति संदेहु निबेरो।
तुलसिदास सब आस छाँड़ि करि, होहु रामको चेरो॥ ४॥

मूल

सुनु मन मूढ़ सिखावन मेरो।
हरि-पद-बिमुख लह्यो न काहु सुख, सठ! यह समुझ सबेरो॥ १॥
बिछुरे ससि-रबि मन-नैननितें, पावत दुख बहुतेरो।
भ्रमत श्रमित निसि-दिवस गगन महँ, तहँ रिपु राहु बड़ेरो॥ २॥
जद्यपि अति पुनीत सुरसरिता, तिहुँ पुर सुजस घनेरो।
तजे चरन अजहूँ न मिटत नित, बहिबो ताहू केरो॥ ३॥
छुटै न बिपति भजे बिनु रघुपति, श्रुति संदेहु निबेरो।
तुलसिदास सब आस छाँड़ि करि, होहु रामको चेरो॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे मूर्ख मन! मेरी सीख सुन, हरिके चरणोंसे विमुख होकर किसीने भी सुख नहीं पाया। हे दुष्ट! इस बातको शीघ्र ही समझ ले (अभी कुछ नहीं बिगड़ा है, शरण जानेसे काम बन सकता है)॥ १॥ देख! यह सूर्य और चन्द्रमा जबसे भगवान् के नेत्र और मनसे अलग हुए तभीसे बड़ा दुःख भोग रहे हैं। रात-दिन आकाशमें चक्कर लगाते बिताने पड़ते हैं, वहाँ भी बलवान् शत्रु राहु पीछा किये रहता है॥ २॥ यद्यपि गंगाजी देवनदी कहाती हैं और बड़ी पवित्र हैं, तीनों लोकोंमें उनका बड़ा यश भी फैल रहा है, परन्तु भगवच्चरणोंसे अलग होनेपर तबसे आजतक उनका भी नित्य बहना कभी बंद नहीं होता॥ ३॥ श्रीरघुनाथजीके भजन बिना विपत्तियोंका नाश नहीं होता। इस सिद्धान्तका सन्देह वेदोंने नष्ट कर दिया है। इसलिये हे तुलसीदास! सब प्रकारकी आशा छोड़कर श्रीरामका दास बन जा॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(८८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबहूँ मन बिश्राम न मान्यो।
निसिदिन भ्रमत बिसारि सहज सुख, जहँ तहँ इंद्रिन तान्यो॥ १॥
जदपि बिषय-सँग सह्यो दुसह दुख, बिषम जाल अरुझान्यो।
तदपि न तजत मूढ़ ममताबस, जानतहूँ नहिं जान्यो॥ २॥
जनम अनेक किये नाना बिधि करम-कीच चित सान्यो।
होइ न बिमल बिबेक-नीर बिनु, बेद पुरान बखान्यो॥ ३॥
निज हित नाथ पिता गुरु हरिसों हरषि हृदै नहिं आन्यो।
तुलसिदास कब तृषा जाय सर खनतहि जनम सिरान्यो॥ ४॥

मूल

कबहूँ मन बिश्राम न मान्यो।
निसिदिन भ्रमत बिसारि सहज सुख, जहँ तहँ इंद्रिन तान्यो॥ १॥
जदपि बिषय-सँग सह्यो दुसह दुख, बिषम जाल अरुझान्यो।
तदपि न तजत मूढ़ ममताबस, जानतहूँ नहिं जान्यो॥ २॥
जनम अनेक किये नाना बिधि करम-कीच चित सान्यो।
होइ न बिमल बिबेक-नीर बिनु, बेद पुरान बखान्यो॥ ३॥
निज हित नाथ पिता गुरु हरिसों हरषि हृदै नहिं आन्यो।
तुलसिदास कब तृषा जाय सर खनतहि जनम सिरान्यो॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे मन! तूने कभी विश्राम नहीं लिया। अपना सहज सुखस्वरूप भूलकर दिन-रात इन्द्रियोंका खींचा हुआ जहाँ-तहाँ विषयोंमें भटक रहा है॥ १॥ यद्यपि विषयोंके संगसे तूने असह्य संकट सहे हैं और तू कठिन जालमें फँस गया है तो भी हे मूर्ख! तू ममताके अधीन होकर उन्हें नहीं छोड़ता। इस प्रकार सब कुछ समझकर भी बेसमझ हो रहा है॥ २॥ अनेक जन्मोंमें नाना प्रकारके कर्म करके तू उन्हींके कीचड़में सन गया है, हे चित्त! विवेकरूपी जल प्राप्त किये बिना यह कीचड़ कभी साफ नहीं हो सकता। ऐसा वेद-पुराण कहते हैं॥ ३॥ अपना कल्याण तो परम प्रभु, परम पिता और परम गुरुरूप हरिसे है, पर तूने उनको हुलसकर हृदयमें कभी धारण नहीं किया, (दिन-रात विषयोंके बटोरनेमें ही लगा रहा) हे तुलसीदास! ऐसे तालाबसे कब प्यास मिट सकती है, जिसके खोदनेमें ही सारा जीवन बीत गया॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(८९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरो मन हरिजू! हठ न तजै।
निसिदिन नाथ देउँ सिख बहु बिधि, करत सुभाउ निजै॥ १॥
ज्यों जुवती अनुभवति प्रसव अति दारुन दुख उपजै।
ह्वै अनुकूल बिसारि सूल सठ पुनि खल पतिहिं भजै॥ २॥
लोलुप भ्रम गृहपसु ज्यौं जहँ तहँ सिर पदत्रान बजै।
तदपि अधम बिचरत तेहि मारग कबहुँ न मूढ़ लजै॥ ३॥
हौं हारॺौ करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै।
तुलसिदास बस होइ तबहिं जब प्रेरक प्रभु बरजै॥ ४॥

मूल

मेरो मन हरिजू! हठ न तजै।
निसिदिन नाथ देउँ सिख बहु बिधि, करत सुभाउ निजै॥ १॥
ज्यों जुवती अनुभवति प्रसव अति दारुन दुख उपजै।
ह्वै अनुकूल बिसारि सूल सठ पुनि खल पतिहिं भजै॥ २॥
लोलुप भ्रम गृहपसु ज्यौं जहँ तहँ सिर पदत्रान बजै।
तदपि अधम बिचरत तेहि मारग कबहुँ न मूढ़ लजै॥ ३॥
हौं हारॺौ करि जतन बिबिध बिधि अतिसै प्रबल अजै।
तुलसिदास बस होइ तबहिं जब प्रेरक प्रभु बरजै॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीहरि! मेरा मन हठ नहीं छोड़ता। हे नाथ! मैं दिन-रात इसे अनेक प्रकारसे समझाता हूँ, पर यह अपने ही स्वभावके अनुसार करता है॥ १॥ जैसे युवती स्त्री सन्तान जननेके समय अत्यन्त असह्य कष्टका अनुभव करती है, (उस समय सोचती है कि अब पतिके पास नहीं जाऊँगी), परन्तु वह मूर्खा सारी वेदनाको भूलकर पुनः उसी दुःख देनेवाले पतिका सेवन करती है॥ २॥ जैसे लालची कुत्ता जहाँ जाता है वहीं उसके सिर जूते पड़ते हैं तो भी वह नीच फिर उसी रास्ते भटकता है, मूर्खको जरा भी लज्जा नहीं आती॥ ३॥ (ऐसी ही दशा मेरे इस मनकी है, विषयोंमें कष्ट पानेपर भी यह उन्हींकी ओर दौड़ा जाता है) मैं नाना प्रकारके उपाय करते-करते थक गया। परन्तु यह मन अत्यन्त बलवान् और अजेय है। हे तुलसीदास! यह तो तभी वश हो सकता है, जबकि प्रेरणा करनेवाले भगवान् स्वयं ही इसे रोकें॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(९०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसी मूढ़ता या मनकी।
परिहरि राम-भगति-सुरसरिता, आस करत ओसकनकी॥ १॥
धूम-समूह निरखि चातक ज्यों, तृषित जानि मति घनकी।
नहिं तहँ सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचनकी॥ २॥
ज्यों गच-काँच बिलोकि सेन जड़ छाँह आपने तनकी।
टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आननकी॥ ३॥
कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि! जानत हौ गति जनकी।
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पनकी॥ ४॥

मूल

ऐसी मूढ़ता या मनकी।
परिहरि राम-भगति-सुरसरिता, आस करत ओसकनकी॥ १॥
धूम-समूह निरखि चातक ज्यों, तृषित जानि मति घनकी।
नहिं तहँ सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचनकी॥ २॥
ज्यों गच-काँच बिलोकि सेन जड़ छाँह आपने तनकी।
टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आननकी॥ ३॥
कहँ लौं कहौं कुचाल कृपानिधि! जानत हौ गति जनकी।
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पनकी॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—इस मनकी ऐसी मूर्खता है कि यह श्रीराम-भक्तिरूपी गंगाजीको छोड़कर ओसकी बूँदोंसे तृप्त होनेकी आशा करता है॥ १॥ जैसे प्यासा पपीहा धुएँका गोट देखकर उसे मेघ समझ लेता है, परन्तु वहाँ (जानेपर) न तो उसे शीतलता मिलती है और न जल मिलता है, धुएँसे आँखें और फूट जाती हैं। (यही दशा इस मनकी है)॥ २॥ जैसे मूर्ख बाज काँचकी फर्शमें अपने ही शरीरकी परछाईं देखकर उसपर चोंच मारनेसे वह टूट जायगी इस बातको भूखके मारे भूलकर जल्दीसे उसपर टूट पड़ता है (वैसे ही यह मेरा मन भी विषयोंपर टूट पड़ता है)॥ ३॥ हे कृपाके भण्डार! इस कुचालका मैं कहाँतक वर्णन करूँ? आप तो दासोंकी दशा जानते ही हैं। हे स्वामिन्! तुलसीदासका दारुण दुःख हर लीजिये और अपने (शरणागत-वत्सलतारूपी) प्रणकी रक्षा कीजिये॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(९१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाचत ही निसि-दिवस मरॺो।
तब ही ते न भयो हरि थिर जबतें जिव नाम धरॺो॥ १॥
बहु बासना बिबिध कंचुकि भूषन लोभादि भरॺो।
चर अरु अचर गगन जल थलमें, कौन न स्वाँग करॺो॥ २॥
देव-दनुज, मुनि, नाग, मनुज नहिं जाँचत कोउ उबरॺो।
मेरो दुसह दरिद्र, दोष, दुख काहू तौ न हरॺो॥ ३॥
थके नयन, पद, पानि, सुमति, बल, संग सकल बिछुरॺो।
अब रघुनाथ सरन आयो जन, भव-भय बिकल डरॺो॥ ४॥
जेहि गुनतें बस होहु रीझि करि, सो मोहि सब बिसरॺो।
तुलसिदास निज भवन-द्वार प्रभु दीजै रहन परॺो॥ ५॥

मूल

नाचत ही निसि-दिवस मरॺो।
तब ही ते न भयो हरि थिर जबतें जिव नाम धरॺो॥ १॥
बहु बासना बिबिध कंचुकि भूषन लोभादि भरॺो।
चर अरु अचर गगन जल थलमें, कौन न स्वाँग करॺो॥ २॥
देव-दनुज, मुनि, नाग, मनुज नहिं जाँचत कोउ उबरॺो।
मेरो दुसह दरिद्र, दोष, दुख काहू तौ न हरॺो॥ ३॥
थके नयन, पद, पानि, सुमति, बल, संग सकल बिछुरॺो।
अब रघुनाथ सरन आयो जन, भव-भय बिकल डरॺो॥ ४॥
जेहि गुनतें बस होहु रीझि करि, सो मोहि सब बिसरॺो।
तुलसिदास निज भवन-द्वार प्रभु दीजै रहन परॺो॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—रात-दिन नाचते-नाचते ही मरा! हे हरे! जबसे आपने ‘जीव’ नाम रखा, तबसे यह कभी स्थिर नहीं हुआ॥ १॥ (इस मायारूपी नाचमें) नाना प्रकारकी वासनारूपी चोलियाँ तथा लोभ (मोह) आदि अनेक गहने पहनकर, जड़-चेतन और जल-स्थल-आकाशमें ऐसा कौन-सा स्वाँग है जो मैंने नहीं किया!॥ २॥ देवता, दैत्य, मुनि, नाग, मनुष्य आदि ऐसा कोई भी नहीं बचा जिसके आगे मैंने हाथ न फैलाया हो? परन्तु इनमेंसे किसीने मेरे दारुण दारिद्रॺ, दोष और दुःखोंको दूर नहीं किया॥ ३॥ मेरे नेत्र, पैर, हाथ, सुन्दर बुद्धि और बल सभी थक गये हैं। सारा संग मुझसे बिछुड़ गया है। अब तो हे रघुनाथजी! यह संसारके भयसे व्याकुल और भीत दास आपकी शरण आया है॥ ४॥ हे नाथ! जिन गुणोंपर रीझकर आप प्रसन्न होते हैं, वह सब तो मैं भूल चुका हूँ। अब हे प्रभो! इस तुलसीदासको अपने दरवाजेपर पड़ा रहने दीजिये॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(९२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

माधवजू, मो सम मंद न कोऊ।
जद्यपि मीन-पतंग हीनमति, मोहि नहिं पूजैं ओऊ॥ १॥
रुचिर रूप-आहार-बस्य उन्ह, पावक लोह न जान्यो।
देखत बिपति बिषय न तजत हौं, ताते अधिक अयान्यो॥ २॥
महामोह-सरिता अपार महँ, संतत फिरत बह्यो।
श्रीहरि-चरन-कमल-नौका तजि, फिरि फिरि फेन गह्यो॥ ३॥
अस्थि पुरातन छुधित स्वान अति ज्यौं भरि मुख पकरै।
निज तालूगत रुधिर पान करि, मन संतोष धरै॥ ४॥
परम कठिन भव-ब्याल-ग्रसित हौं त्रसित भयो अति भारी।
चाहत अभय भेक सरनागत, खगपति-नाथ बिसारी॥ ५॥
जलचर-बृंद जाल-अंतरगत होत सिमिटि इक पासा।
एकहि एक खात लालच-बस, नहिं देखत निज नासा॥ ६॥
मेरे अघ सारद अनेक जुग, गनत पार नहिं पावै।
तुलसीदास पतित-पावन प्रभु यह भरोस जिय आवै॥ ७॥

मूल

माधवजू, मो सम मंद न कोऊ।
जद्यपि मीन-पतंग हीनमति, मोहि नहिं पूजैं ओऊ॥ १॥
रुचिर रूप-आहार-बस्य उन्ह, पावक लोह न जान्यो।
देखत बिपति बिषय न तजत हौं, ताते अधिक अयान्यो॥ २॥
महामोह-सरिता अपार महँ, संतत फिरत बह्यो।
श्रीहरि-चरन-कमल-नौका तजि, फिरि फिरि फेन गह्यो॥ ३॥
अस्थि पुरातन छुधित स्वान अति ज्यौं भरि मुख पकरै।
निज तालूगत रुधिर पान करि, मन संतोष धरै॥ ४॥
परम कठिन भव-ब्याल-ग्रसित हौं त्रसित भयो अति भारी।
चाहत अभय भेक सरनागत, खगपति-नाथ बिसारी॥ ५॥
जलचर-बृंद जाल-अंतरगत होत सिमिटि इक पासा।
एकहि एक खात लालच-बस, नहिं देखत निज नासा॥ ६॥
मेरे अघ सारद अनेक जुग, गनत पार नहिं पावै।
तुलसीदास पतित-पावन प्रभु यह भरोस जिय आवै॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे माधव! मेरे समान मूर्ख कोई भी नहीं है। यद्यपि मछली और पतंग हीनबुद्धि हैं, परन्तु वे भी मेरी बराबरी नहीं कर सकते॥ १॥ पतंगने सुन्दर रूपके वश हो दीपकको अग्नि नहीं समझा और मछलीने आहारके वश हो लोहेको काँटा नहीं जाना, परन्तु मैं तो विषयोंको प्रत्यक्ष विपत्तिरूप देखकर भी नहीं छोड़ता हूँ (अतएव मैं उनसे अधिक मूर्ख हूँ)॥ २॥ महामोहरूपी अपार नदीमें निरन्तर बहता फिरता हूँ। (इससे पार होनेके लिये) श्रीहरिके चरण-कमलरूपी नौकाको तजकर बार-बार फेनोंको (अर्थात् क्षणभंगुर भोगोंको) पकड़ता हूँ॥ ३॥ जैसे बहुत भूखा कुत्ता पुरानी सूखी हड्डीको मुँहमें भरकर पकड़ता है और अपने तालूमें रगड़ लगनेसे जो खून निकलता है, उसे चाटकर बड़ा सन्तुष्ट होता है (यह नहीं समझता कि यह रक्त तो मेरे ही शरीरका है। यही हाल मेरा है)॥ ४॥ मैं संसाररूपी परम कठिन सर्पके डँसनेसे अत्यन्त ही भयभीत हो रहा हूँ, परन्तु (मूर्खता यह है कि उससे बचनेके लिये) गरुड़गामी भगवान् के शरणागत न होकर (विषयरूपी) मेंढककी शरणसे अभय चाहता हूँ॥ ५॥ जैसे जलमें रहनेवाले जीवोंके समूह सिमट-सिमटकर जालमें इकट्ठे हो जाते हैं और लोभवश एक दूसरेको खाते हैं, अपना भावी नाश नहीं देखते (वैसी ही दशा मेरी है)॥ ६॥ यदि सरस्वतीजी अनेक युगोंतक मेरे पापोंको गिनती रहें, तब भी उनका अन्त नहीं पा सकतीं। मेरे मनमें तो यही भरोसा है कि मेरे नाथ पतित-पावन हैं (मुझ पतितको भी अवश्य अपनावेंगे)॥ ७॥

विषय (हिन्दी)

(९३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृपा सो धौं कहाँ बिसारी राम।
जेहि करुना सुनि श्रवन दीन-दुख, धावत हौ तजि धाम॥ १॥
नागराज निज बल बिचारि हिय, हारि चरन चित दीन्हों।
आरत गिरा सुनत खगपति तजि, चलत बिलंब न कीन्हों॥ २॥
दितिसुत-त्रास-त्रसित निसिदिन प्रहलाद-प्रतिग्या राखी।
अतुलित बल मृगराज-मनुज-तनु दनुज हत्यो श्रुति साखी॥ ३॥
भूप-सदसि सब नृप बिलोकि प्रभु, राखु कह्यो नर-नारी।
बसन पूरि, अरि-दरप दूरि करि, भूरि कृपा दनुजारी॥ ४॥
एक एक रिपुते त्रासित जन, तुम राखे रघुबीर।
अब मोहिं देत दुसह दुख बहु रिपु कस न हरहु भव-पीर॥ ५॥
लोभ-ग्राह, दनुजेस-क्रोध, कुरुराज-बंधु खल मार।
तुलसिदास प्रभु यह दारुन दुख भंजहु राम उदार॥ ६॥

मूल

कृपा सो धौं कहाँ बिसारी राम।
जेहि करुना सुनि श्रवन दीन-दुख, धावत हौ तजि धाम॥ १॥
नागराज निज बल बिचारि हिय, हारि चरन चित दीन्हों।
आरत गिरा सुनत खगपति तजि, चलत बिलंब न कीन्हों॥ २॥
दितिसुत-त्रास-त्रसित निसिदिन प्रहलाद-प्रतिग्या राखी।
अतुलित बल मृगराज-मनुज-तनु दनुज हत्यो श्रुति साखी॥ ३॥
भूप-सदसि सब नृप बिलोकि प्रभु, राखु कह्यो नर-नारी।
बसन पूरि, अरि-दरप दूरि करि, भूरि कृपा दनुजारी॥ ४॥
एक एक रिपुते त्रासित जन, तुम राखे रघुबीर।
अब मोहिं देत दुसह दुख बहु रिपु कस न हरहु भव-पीर॥ ५॥
लोभ-ग्राह, दनुजेस-क्रोध, कुरुराज-बंधु खल मार।
तुलसिदास प्रभु यह दारुन दुख भंजहु राम उदार॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! आपने उस कृपाको कहाँ भुला दिया, जिसके कारण दीनोंके दुःखकी करुण-ध्वनि कानोंमें पड़ते ही आप अपना धाम छोड़कर दौड़ा करते हैं॥ १॥ जब गजेन्द्रने अपने बलकी ओर देखकर और हृदयमें हार मानकर आपके चरणोंमें चित्त लगाया, तब आप उसकी आर्त्त पुकार सुनते ही गरुड़को छोड़कर तुरंत वहाँ पहुँचे, तनिक-सी भी देर नहीं की॥ २॥ हिरण्यकशिपुसे रात-दिन भयभीत रहनेवाले प्रह्लादकी प्रतिज्ञा आपने रखी, महान् बलवान् सिंह और मनुष्यका-सा (नृसिंह) शरीर धारण कर उस दैत्यको मार डाला, वेद इस बातका साक्षी है॥ ३॥ ‘नर’ के अवतार अर्जुनकी पत्नी द्रौपदीने जब राजसभामें (अपनी लज्जा जाते देखकर) सब राजाओंके सामने पुकारकर कहा कि ‘हे नाथ! मेरी रक्षा कीजिये’ तब हे दैत्यशत्रु! आपने वहाँ (द्रौपदीकी लाज बचानेको) वस्त्रोंके ढेर लगाकर तथा शत्रुओंका सारा घमंड चूर्णकर बड़ी कृपा की॥ ४॥ हे रघुनाथजी! आपने इन सब भक्तोंको एक-एक शत्रुके द्वारा सताये जानेपर ही बचा लिया था। पर यहाँ मुझे तो बहुत-से शत्रु असह्य कष्ट दे रहे हैं। मेरी यह भव-पीड़ा आप क्यों नहीं दूर करते?॥ ५॥ लोभरूपी मगर, क्रोधरूपी दैत्यराज हिरण्यकशिपु, दुष्ट कामदेवरूपी दुर्योधनका भाई दुःशासन, ये सभी मुझ तुलसीदासको दारुण दुःख दे रहे हैं। हे उदार रामचन्द्रजी! मेरे इस दारुण दुःखका नाश कीजिये॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(९४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

काहे ते हरि मोहिं बिसारो।
जानत निज महिमा मेरे अघ, तदपि न नाथ सँभारो॥ १॥
पतित-पुनीत, दीनहित, असरन-सरन कहत श्रुति चारो।
हौं नहिं अधम, सभीत, दीन? किधौं बेदन मृषा पुकारो?॥ २॥
खग-गनिका-गज-ब्याध-पाँति जहँ तहँ हौंहूँ बैठारो।
अब केहि लाज कृपानिधान! परसत पनवारो फारो॥ ३॥
जो कलिकाल प्रबल अति होतो, तुव निदेसतें न्यारो।
तौ हरि रोष भरोस दोष गुन तेहि भजते तजि गारो॥ ४॥
मसक बिरंचि, बिरंचि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो।
यह सामरथ अछत मोहिं त्यागहु, नाथ तहाँ कछु चारो॥ ५॥
नाहिन नरक परत मोकहँ डर, जद्यपि हौं अति हारो।
यह बड़ि त्रास दासतुलसी प्रभु, नामहु पाप न जारो॥ ६॥

मूल

काहे ते हरि मोहिं बिसारो।
जानत निज महिमा मेरे अघ, तदपि न नाथ सँभारो॥ १॥
पतित-पुनीत, दीनहित, असरन-सरन कहत श्रुति चारो।
हौं नहिं अधम, सभीत, दीन? किधौं बेदन मृषा पुकारो?॥ २॥
खग-गनिका-गज-ब्याध-पाँति जहँ तहँ हौंहूँ बैठारो।
अब केहि लाज कृपानिधान! परसत पनवारो फारो॥ ३॥
जो कलिकाल प्रबल अति होतो, तुव निदेसतें न्यारो।
तौ हरि रोष भरोस दोष गुन तेहि भजते तजि गारो॥ ४॥
मसक बिरंचि, बिरंचि मसक सम, करहु प्रभाउ तुम्हारो।
यह सामरथ अछत मोहिं त्यागहु, नाथ तहाँ कछु चारो॥ ५॥
नाहिन नरक परत मोकहँ डर, जद्यपि हौं अति हारो।
यह बड़ि त्रास दासतुलसी प्रभु, नामहु पाप न जारो॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे हरे! आपने मुझे क्यों भुला दिया? हे नाथ! आप अपनी महिमा और मेरे पाप, इन दोनोंको ही जानते हैं, तो भी मुझे क्यों नहीं सँभालते॥ १॥ आप पतितोंको पवित्र करनेवाले, दीनोंके हितकारी और अशरणको शरण देनेवाले हैं, चारों वेद ऐसा कहते हैं। तो क्या मैं नीच, भयभीत या दीन नहीं हूँ? अथवा क्या वेदोंकी यह घोषणा ही झूठी है?॥ २॥ (पहले तो) मुझे आपने पक्षी (जटायु गृध्र), गणिका (जीवन्ती), हाथी और व्याध (वाल्मीकि) की पंक्तिमें बैठा लिया। यानी पापी स्वीकार कर लिया। अब हे कृपानिधान! आप किसकी शर्म करके मेरी परसी हुई पत्तल फाड़ रहे हैं॥ ३॥ यदि कलिकाल आपसे अधिक बलवान् होता और आपकी आज्ञा न मानता होता, तो हे हरे! हम आपका भरोसा और गुणगान छोड़कर तथा उसपर क्रोध करने और दोष लगानेका झंझट त्याग कर उसीका भजन करते॥ ४॥ (परन्तु) आप तो मामूली मच्छरको ब्रह्मा और ब्रह्माको मच्छरके समान बना सकते हैं, ऐसा आपका प्रताप है। यह सामर्थ्य होते हुए भी आप मुझे त्याग रहे हैं, तब हे नाथ! मेरा फिर वश ही क्या है?॥ ५॥ यद्यपि मैं सब प्रकारसे हार चुका हूँ और मुझे नरकमें गिरनेका भी भय नहीं है, परन्तु मुझ तुलसीदासको यही सबसे बड़ा दुःख है कि प्रभुके नामने भी मेरे पापोंको भस्म नहीं किया॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(९५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

तऊ न मेरे अघ-अवगुन गनिहैं।
जौ जमराज काज सब परिहरि, इहै ख्याल उर अनिहैं॥ १॥
चलिहैं छूटि पुंज पापिनके, असमंजस जिय जनिहैं।
देखि खलल अधिकार प्रभूसों (मेरी) भूरि भलाई भनिहैं॥ २॥
हँसि करिहैं परतीति भगतकी भगत-सिरोमनि मनिहैं।
ज्यों त्यों तुलसिदास कोसलपति अपनायेहि पर बनिहैं॥ ३॥

मूल

तऊ न मेरे अघ-अवगुन गनिहैं।
जौ जमराज काज सब परिहरि, इहै ख्याल उर अनिहैं॥ १॥
चलिहैं छूटि पुंज पापिनके, असमंजस जिय जनिहैं।
देखि खलल अधिकार प्रभूसों (मेरी) भूरि भलाई भनिहैं॥ २॥
हँसि करिहैं परतीति भगतकी भगत-सिरोमनि मनिहैं।
ज्यों त्यों तुलसिदास कोसलपति अपनायेहि पर बनिहैं॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! यदि यमराज सब कामकाज छोड़कर केवल मेरे ही पापों और दोषोंके हिसाब-किताबका खयाल करने लगेंगे, तब भी उनको गिन नहीं सकेंगे (क्योंकि मेरे पापोंकी कोई सीमा नहीं है)॥ १॥ (और जब वह मेरे हिसाबमें लग जायँगे, तब उन्हें इधर उलझे हुए समझकर) पापियोंके दल-के-दल छूटकर भाग जायँगे। इससे उनके मनमें बड़ी चिन्ता होगी। (मेरे कारणसे) अपने अधिकारमें बाधा पहुँचते देखकर (भगवान् के दरबारमें अपनेको निर्दोष साबित करनेके लिये) वह आपके सामने मेरी बहुत बड़ाई कर देंगे (कहेंगे कि तुलसीदास आपका भक्त है, इसने कोई पाप नहीं किया, आपके भजनके प्रतापसे इसने दूसरे पापियोंको भी पापके बन्धनसे छुड़ा दिया)॥ २॥ तब आप हँसकर अपने भक्त यमराजका विश्वास कर लेंगे और मुझे भक्तोंमें शिरोमणि मान लेंगे। बात यह है कि हे कोसलेश! जैसे-तैसे आपको मुझे अपनाना ही पड़ेगा॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(९६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौ पै जिय धरिहौ अवगुन जनके।
तौ क्यों कटत सुकृत-नखते मो पै, बिपुल बृंद अघ-बनके॥ १॥
कहिहै कौन कलुष मेरे कृत, करम बचन अरु मनके।
हारहिं अमित सेष सारद श्रुति, गिनत एक-एक छनके॥ २॥
जो चित चढ़ै नाम-महिमा निज, गुनगन पावन पनके।
तो तुलसिहिं तारिहौ बिप्र ज्यों दसन तोरि जमगनके॥ ३॥

मूल

जौ पै जिय धरिहौ अवगुन जनके।
तौ क्यों कटत सुकृत-नखते मो पै, बिपुल बृंद अघ-बनके॥ १॥
कहिहै कौन कलुष मेरे कृत, करम बचन अरु मनके।
हारहिं अमित सेष सारद श्रुति, गिनत एक-एक छनके॥ २॥
जो चित चढ़ै नाम-महिमा निज, गुनगन पावन पनके।
तो तुलसिहिं तारिहौ बिप्र ज्यों दसन तोरि जमगनके॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! यदि आप इस दासके दोषोंपर ध्यान देंगे, तब तो पुण्यरूपी नखसे पापरूपी बड़े-बड़े वनोंके समूह मुझसे कैसे कटेंगे? (मेरे जरा-से पुण्यसे भारी-भारी पाप कैसे दूर होंगे?)॥ १॥ मन, वचन और शरीरसे किये हुए मेरे पापोंका वर्णन भी कौन कर सकता है? एक-एक क्षणके पापोंका हिसाब जोड़नेमें अनेक शेष, सरस्वती और वेद हार जायँगे॥ २॥ (मेरे पुण्योंके भरोसे तो पापोंसे छूटकर उद्धार होना असम्भव है) यदि आपके मनमें अपने नामकी महिमा और पतितोंको पावन करनेवाले अपने गुणोंका स्मरण आ जाय तो आप इस तुलसीदासको यमदूतोंके दाँत तोड़कर संसार-सागरसे अवश्य वैसे ही तार देंगे, जैसे अजामिल ब्राह्मणको तार दिया था॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(९७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौ पै हरि जनके औगुन गहते।
तौ सुरपति कुरुराज बालिसों, कत हठि बैर बिसहते॥ १॥
जौ जप जाग जोग ब्रत बरजित, केवल प्रेम न चहते।
तौ कत सुर मुनिबर बिहाय ब्रज, गोप-गेह बसि रहते॥ २॥
जौ जहँ-तहँ प्रन राखि भगतको, भजन-प्रभाउ न कहते।
तौ कलि कठिन करम-मारग जड़ हम केहि भाँति निबहते॥ ३॥
जौ सुतहित लिये नाम अजामिलके अघ अमित न दहते।
तौ जमभट साँसति-हर हमसे बृषभ खोजि खोजि नहते॥ ४॥
जौ जगबिदित पतितपावन, अति बाँकुर बिरद न बहते।
तौ बहुकलप कुटिल तुलसीसे, सपनेहुँ सुगति न लहते॥ ५॥

मूल

जौ पै हरि जनके औगुन गहते।
तौ सुरपति कुरुराज बालिसों, कत हठि बैर बिसहते॥ १॥
जौ जप जाग जोग ब्रत बरजित, केवल प्रेम न चहते।
तौ कत सुर मुनिबर बिहाय ब्रज, गोप-गेह बसि रहते॥ २॥
जौ जहँ-तहँ प्रन राखि भगतको, भजन-प्रभाउ न कहते।
तौ कलि कठिन करम-मारग जड़ हम केहि भाँति निबहते॥ ३॥
जौ सुतहित लिये नाम अजामिलके अघ अमित न दहते।
तौ जमभट साँसति-हर हमसे बृषभ खोजि खोजि नहते॥ ४॥
जौ जगबिदित पतितपावन, अति बाँकुर बिरद न बहते।
तौ बहुकलप कुटिल तुलसीसे, सपनेहुँ सुगति न लहते॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(आप दासोंके दोषोंपर ध्यान नहीं देते) हे रामजी! यदि आप दासोंका दोष मनमें लाते तो इन्द्र, दुर्योधन और बालिसे हठ करके क्यों शत्रुता मोल लेते?॥ १॥ यदि आप जप, यज्ञ, योग, व्रत आदि छोड़कर केवल प्रेम ही न चाहते तो देवता और श्रेष्ठ मुनियोंको त्यागकर व्रजमें गोपोंके घर किसलिये निवास करते?॥ २॥ यदि आप जहाँ-तहाँ भक्तोंका प्रण रखकर भजनका प्रभाव न बखानते तो, हम-सरीखे मूर्खोंका कलियुगके कठिन कर्म-मार्गमें किस प्रकार निर्वाह होता?॥ ३॥ हे संकटहारी! यदि आपने पुत्रके संकेतसे नारायणका नाम लेनेवाले अजामिलके अनन्त पापोंको भस्म न किया होता, तो यमदूत हम-सरीखे बैलोंको खोज-खोजकर हलमें ही जोतते॥ ४॥ और यदि आपने जगत्प्रसिद्ध पतितपावन रूपका बाना नहीं धारण किया होता तो तुलसी-सरीखे दुष्ट तो अनेक कल्पोंतक स्वप्नमें भी मुक्तिके भागी नहीं होते॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(९८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसी हरि करत दासपर प्रीति।
निज प्रभुता बिसारि जनके बस, होत सदा यह रीति॥ १॥
जिन बाँधे सुर-असुर, नाग-नर, प्रबल करमकी डोरी।
सोइ अबिछिन्न ब्रह्म जसुमति हठि बाँध्यो सकत न छोरी॥ २॥
जाकी मायाबस बिरंचि सिव, नाचत पार न पायो।
करतल ताल बजाय ग्वाल-जुवतिन्ह सोइ नाच नचायो॥ ३॥
बिस्वंभर, श्रीपति, त्रिभुवनपति, बेद-बिदित यह लीख।
बलिसों कछु न चली प्रभुता बरु ह्वै द्विज माँगी भीख॥ ४॥
जाको नाम लिये छूटत भव-जनम-मरन दुख-भार।
अंबरीष-हित लागि कृपानिधि सोइ जनमे दस बार॥ ५॥
जोग-बिराग, ध्यान-जप-तप-करि, जेहि खोजत मुनि ग्यानी।
बानर-भालु चपल पसु पामर, नाथ तहाँ रति मानी॥ ६॥
लोकपाल, जम, काल, पवन, रबि, ससि सब आग्याकारी।
तुलसिदास प्रभु उग्रसेनके द्वार बेंत कर धारी॥ ७॥

मूल

ऐसी हरि करत दासपर प्रीति।
निज प्रभुता बिसारि जनके बस, होत सदा यह रीति॥ १॥
जिन बाँधे सुर-असुर, नाग-नर, प्रबल करमकी डोरी।
सोइ अबिछिन्न ब्रह्म जसुमति हठि बाँध्यो सकत न छोरी॥ २॥
जाकी मायाबस बिरंचि सिव, नाचत पार न पायो।
करतल ताल बजाय ग्वाल-जुवतिन्ह सोइ नाच नचायो॥ ३॥
बिस्वंभर, श्रीपति, त्रिभुवनपति, बेद-बिदित यह लीख।
बलिसों कछु न चली प्रभुता बरु ह्वै द्विज माँगी भीख॥ ४॥
जाको नाम लिये छूटत भव-जनम-मरन दुख-भार।
अंबरीष-हित लागि कृपानिधि सोइ जनमे दस बार॥ ५॥
जोग-बिराग, ध्यान-जप-तप-करि, जेहि खोजत मुनि ग्यानी।
बानर-भालु चपल पसु पामर, नाथ तहाँ रति मानी॥ ६॥
लोकपाल, जम, काल, पवन, रबि, ससि सब आग्याकारी।
तुलसिदास प्रभु उग्रसेनके द्वार बेंत कर धारी॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीहरि अपने दासपर इतना प्रेम करते हैं कि अपनी सारी प्रभुता भूलकर उस भक्तके ही अधीन हो जाते हैं। उनकी यह रीति सनातन है॥ १॥ जिस परमात्माने देवता, दैत्य, नाग और मनुष्योंको कर्मोंकी बड़ी मजबूत डोरीमें बाँध रखा है, उसी अखण्ड परब्रह्मको यशोदाजीने प्रेमवश जबरदस्ती (ऊखलसे) ऐसा बाँध दिया कि जिसे आप खोल भी नहीं सके॥ २॥ जिसकी मायाके वश होकर ब्रह्मा और शिवजीने नाचते-नाचते उसका पार नहीं पाया, उसीको गोप-रमणियोंने ताल बजा-बजाकर (आँगनमें) नचाया॥ ३॥ वेदका यह सिद्धान्त प्रसिद्ध है कि भगवान् सारे विश्वका भरण-पोषण करनेवाले, लक्ष्मीजीके स्वामी और तीनों लोकोंके अधीश्वर हैं, ऐसे प्रभुकी भी भक्त राजा बलिके आगे कुछ भी प्रभुता नहीं चल सकी, वरं प्रेमवश ब्राह्मण बनकर उससे भीख माँगनी पड़ी॥ ४॥ जिसके नाम-स्मरणमात्रसे संसारके जन्म-मरणरूपी दुःखोंके भारसे जीव छूट जाते हैं, उसी कृपानिधिने भक्त अम्बरीषके लिये स्वयं दस बार अवतार धारण किया॥ ५॥ जिसको संयमी मुनिगण योग, वैराग्य, ध्यान, जप और तप करके खोजते रहते हैं, उसी नाथने बंदर, रीछ आदि नीच चंचल पशुओंसे प्रीति की॥ ६॥ लोकपाल, यमराज, काल, वायु, सूर्य और चन्द्रमा आदि सब जिसके आज्ञाकारी हैं, वही प्रभु प्रेमवश उग्रसेनके द्वारपर हाथमें लकड़ी लिये दरवानकी तरह खड़ा रहता है॥ ७॥

विषय (हिन्दी)

(९९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिरद गरीबनिवाज रामको।
गावत बेद-पुरान, संभु-सुक, प्रगट प्रभाउ नामको॥ १॥
ध्रुव, प्रह्लाद, बिभीषन, कपिपति, जड़, पतंग, पांडव, सुदामको।
लोक सुजस परलोक सुगति, इन्हमें को है राम कामको॥ २॥
गनिका, कोल, किरात, आदिकबि इन्हते अधिक बाम को।
बाजिमेध कब कियो अजामिल, गज गायो कब सामको॥ ३॥
छली, मलीन, हीन सब ही अँग, तुलसी सो छीन छामको।
नाम-नरेस-प्रताप प्रबल जग, जुग-जुग चालत चामको॥ ४॥

मूल

बिरद गरीबनिवाज रामको।
गावत बेद-पुरान, संभु-सुक, प्रगट प्रभाउ नामको॥ १॥
ध्रुव, प्रह्लाद, बिभीषन, कपिपति, जड़, पतंग, पांडव, सुदामको।
लोक सुजस परलोक सुगति, इन्हमें को है राम कामको॥ २॥
गनिका, कोल, किरात, आदिकबि इन्हते अधिक बाम को।
बाजिमेध कब कियो अजामिल, गज गायो कब सामको॥ ३॥
छली, मलीन, हीन सब ही अँग, तुलसी सो छीन छामको।
नाम-नरेस-प्रताप प्रबल जग, जुग-जुग चालत चामको॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामजीका बाना ही गरीबोंको निहाल कर देना है। वेद, पुराण, शिवजी, शुकदेवजी आदि यही गाते हैं। उनके श्रीरामनामका प्रभाव तो प्रत्यक्ष ही है॥ १॥ ध्रुव, प्रह्लाद, विभीषण, सुग्रीव, जड (अहल्या), पक्षी (जटायु, काकभुशुण्डि), पाँचों पाण्डव और सुदामा इन सबको भगवान् ने इस लोकमें सुन्दर यश और परलोकमें सद्‍गति दी। इनमेंसे रामके कामका भला कौन था?॥ २॥ गणिका (जीवन्ती), कोल-किरात (गुह-निषाद आदि) तथा आदिकवि वाल्मीकि, इनसे बुरा कौन था? अजामिलने कब अश्वमेधयज्ञ किया था, गजराजने कब सामवेदका गान किया था?॥ ३॥ तुलसीके समान कपटी, मलिन, सब साधनोंसे हीन, दुबला-पतला और कौन है? पर श्रीरामके नामरूपी राजाके राज्यमें उसके प्रबल प्रतापसे युग-युगसे चमड़ेका सिक्का भी चलता आ रहा है अर्थात् नामके प्रतापसे अत्यन्त नीच भी परमात्माको प्राप्त करते रहे हैं, ऐसे ही मैं भी प्राप्त करूँगा॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(१००)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि सीतापति-सील-सुभाउ।
मोद न मन, तन पुलक, नयन जल, सो नर खेहर खाउ॥ १॥
सिसुपनतें पितु, मातु, बंधु, गुरु, सेवक, सचिव, सखाउ।
कहत राम-बिधु-बदन रिसोहैं सपनेहुँ लख्यो न काउ॥ २॥
खेलत संग अनुज बालक नित, जोगवत अनट अपाउ।
जीति हारि चुचुकारि दुलारत, देत दिवावत दाउ॥ ३॥
सिला साप-संताप-बिगत भइ परसत पावन पाउ।
दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छुएको पछिताउ॥ ४॥
भव-धनु भंजि निदरि भूपति भृगुनाथ खाइ गये ताउ।
छमि अपराध, छमाइ पाँय परि, इतौ न अनत समाउ॥ ५॥
कह्यो राज, बन दियो नारिबस, गरि गलानि गयो राउ।
ता कुमातुको मन जोगवत ज्यों निज तन मरम कुघाउ॥ ६॥
कपि-सेवा-बस भये कनौड़े, कह्यौ पवनसुत आउ।
देबेको न कछू रिनियाँ हौं धनिक तूँ पत्र लिखाउ॥ ७॥
अपनाये सुग्रीव बिभीषन, तिन न तज्यो छल-छाउ।
भरत सभा सनमानि, सराहत, होत न हृदय अघाउ॥ ८॥
निज करुना करतूति भगतपर चपत चलत चरचाउ।
सकृत प्रनाम प्रनत जस बरनत, सुनत कहत फिरि गाउ॥ ९॥
समुझि समुझि गुनग्राम रामके, उर अनुराग बढ़ाउ।
तुलसिदास अनयास रामपद पाइहै प्रेम-पसाउ॥ १०॥

मूल

सुनि सीतापति-सील-सुभाउ।
मोद न मन, तन पुलक, नयन जल, सो नर खेहर खाउ॥ १॥
सिसुपनतें पितु, मातु, बंधु, गुरु, सेवक, सचिव, सखाउ।
कहत राम-बिधु-बदन रिसोहैं सपनेहुँ लख्यो न काउ॥ २॥
खेलत संग अनुज बालक नित, जोगवत अनट अपाउ।
जीति हारि चुचुकारि दुलारत, देत दिवावत दाउ॥ ३॥
सिला साप-संताप-बिगत भइ परसत पावन पाउ।
दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छुएको पछिताउ॥ ४॥
भव-धनु भंजि निदरि भूपति भृगुनाथ खाइ गये ताउ।
छमि अपराध, छमाइ पाँय परि, इतौ न अनत समाउ॥ ५॥
कह्यो राज, बन दियो नारिबस, गरि गलानि गयो राउ।
ता कुमातुको मन जोगवत ज्यों निज तन मरम कुघाउ॥ ६॥
कपि-सेवा-बस भये कनौड़े, कह्यौ पवनसुत आउ।
देबेको न कछू रिनियाँ हौं धनिक तूँ पत्र लिखाउ॥ ७॥
अपनाये सुग्रीव बिभीषन, तिन न तज्यो छल-छाउ।
भरत सभा सनमानि, सराहत, होत न हृदय अघाउ॥ ८॥
निज करुना करतूति भगतपर चपत चलत चरचाउ।
सकृत प्रनाम प्रनत जस बरनत, सुनत कहत फिरि गाउ॥ ९॥
समुझि समुझि गुनग्राम रामके, उर अनुराग बढ़ाउ।
तुलसिदास अनयास रामपद पाइहै प्रेम-पसाउ॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीसीतानाथ रामजीका शील-स्वभाव सुनकर जिसके मनमें आनन्द नहीं होता, जिसका शरीर पुलकायमान नहीं होता, जिसके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू नहीं भर आते, वह दुष्ट धूल फाँकता फिरे तो भी ठीक है॥ १॥ बचपनसे ही पिता, माता, भाई, गुरु, नौकर, मन्त्री, और मित्र यही कहते हैं कि हममेंसे किसीने स्वप्नमें भी श्रीरामचन्द्रजीके चन्द्र-मुखपर कभी क्रोध नहीं देखा॥ २॥ उनके साथ जो उनके तीनों भाई और नगरके दूसरे बालक खेलते थे, उनकी अनीति और हानिको वे सदा देखते रहते थे और अपनी जीतमें भी (उनको प्रसन्न करनेके लिये) हार मान लेते थे तथा उन लोगोंको पुचकार-पुचकारकर प्रेमसे अपना दाँव देते और दूसरोंसे दिलाते थे॥ ३॥ चरणका स्पर्श होते ही पत्थरकी शिला अहल्या शापके सन्तापसे छूट गयी, उसे सद्‍गति दे दी; पर इस बातका तो उनके मनमें कुछ भी हर्ष नहीं हुआ, उलटे इस बातका पश्चात्ताप अवश्य हुआ कि ऋषिपत्नीके मेरे चरण क्यों लग गये?॥ ४॥ शिवजीका धनुष तोड़कर राजाओंका मान हर लिया, इससे जब परशुरामजीने आकर क्रोध किया, तब उनका अपराध क्षमा करके उलटे श्रीलक्ष्मणजीसे माफी मँगवायी और स्वयं उनके चरणोंपर गिर पड़े, इतनी सहिष्णुता और कहीं नहीं है!॥ ५॥ राजा दशरथने राज्य देनेको कहकर, कैकेयीके वशमें होनेके कारण, वनवास दे दिया और इसी ग्लानिके मारे वे मर भी गये। ऐसी बुरी माता कैकेयीका मन भी आप ऐसे सँभाले रहे, जैसे कोई अपने शरीरके मर्मस्थानके घावको देखता रहता है, अर्थात् आप सदा उसके मनके अनुसार ही चलते रहे॥ ६॥ जब आप हनुमान् जी की सेवाके वश होकर उनके उपकृत हो गये, तब उनसे कहा कि ‘हे पवनसुत! यहाँ आ, तुझे देनेको तो मेरे पास कुछ भी नहीं है। मैं तेरा ऋणी हूँ, तू मेरा महाजन है, तू चाहे तो मुझसे लिखा-पढ़ी करवा ले’॥ ७॥ सुग्रीव और विभीषणने अपना कपट-भाव नहीं छोड़ा, परन्तु आपने तो उन्हें अपना ही लिया। भरतजीका तो सदा भरी सभामें आप सम्मान करते रहते हैं, उनकी प्रशंसा करते-करते तो आपके हृदयमें तृप्ति ही नहीं होती॥ ८॥ भक्तोंपर आपने जो-जो दया और उपकार किये हैं, उनकी तो चर्चा चलते ही आप लज्जासे मानो गड़ जाते हैं (अपनी प्रशंसा आपको सुहाती ही नहीं); पर जो एक बार भी आपको प्रणाम करता है और शरणमें आ जाता है, आप सदा उसका यश वर्णन करते हैं, सुनते हैं और कह-कहकर दूसरोंसे गान करवाते हैं॥ ९॥ ऐसे कोमलहृदय श्रीरामजीके गुण-समूहोंको समझ-समझकर मेरे हृदयमें प्रेमकी बाढ़ आ गयी है, हे तुलसीदास! इस प्रेमानन्दके कारण तू अनायास ही श्रीरामके चरणकमलोंको प्राप्त करेगा॥ १०॥

विषय (हिन्दी)

(१०१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाउँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।
काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे॥ १॥
कौने देव बराइ बिरद-हित, हठि हठि अधम उधारे।
खग, मृग, ब्याध, पषान, बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे॥ २॥
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब, माया-बिबस बिचारे।
तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे॥ ३॥

मूल

जाउँ कहाँ तजि चरन तुम्हारे।
काको नाम पतित-पावन जग, केहि अति दीन पियारे॥ १॥
कौने देव बराइ बिरद-हित, हठि हठि अधम उधारे।
खग, मृग, ब्याध, पषान, बिटप जड़, जवन कवन सुर तारे॥ २॥
देव, दनुज, मुनि, नाग, मनुज सब, माया-बिबस बिचारे।
तिनके हाथ दासतुलसी प्रभु, कहा अपनपौ हारे॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! आपके चरणोंको छोड़कर और कहाँ जाऊँ? संसारमें ‘पतित-पावन’ नाम और किसका है? (आपकी भाँति) दीन-दुःखियारे किसे बहुत प्यारे हैं?॥ १॥ आजतक किस देवताने अपने बानेको रखनेके लिये हठपूर्वक चुन-चुनकर नीचोंका उद्धार किया है? किस देवताने पक्षी (जटायु), पशु (ऋक्ष-वानर आदि), व्याध (वाल्मीकि), पत्थर (अहल्या), जड वृक्ष (यमलार्जुन) और यवनोंका उद्धार किया है?॥ २॥ देवता, दैत्य, मुनि, नाग, मनुष्य आदि सभी बेचारे मायाके वश हैं। (स्वयं बँधा हुआ दूसरोंके बन्धनको कैसे खोल सकता है इसलिये) हे प्रभो! यह तुलसीदास अपनेको उन लोगोंके हाथोंमें सौंपकर क्या करे?॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(१०२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि! तुम बहुत अनुग्रह कीन्हों।
साधन-धाम बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों॥ १॥
कोटिहुँ मुख कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार।
तदपि नाथ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार॥ २॥
बिषय-बारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक।
ताते सहौं बिपति अति दारुन, जनमत जोनि अनेक॥ ३॥
कृपा-डोरि बनसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु-चारो।
एहि बिधि बेधि हरहु मेरो दुख, कौतुक राम तिहारो॥ ४॥
हैं श्रुति-बिदित उपाय सकल सुर, केहि केहि दीन निहोरै।
तुलसिदास येहि जीव मोह-रजु, जेहि बाँध्यो सोइ छोरै॥ ५॥

मूल

हरि! तुम बहुत अनुग्रह कीन्हों।
साधन-धाम बिबुध दुरलभ तनु, मोहि कृपा करि दीन्हों॥ १॥
कोटिहुँ मुख कहि जात न प्रभुके, एक एक उपकार।
तदपि नाथ कछु और माँगिहौं, दीजै परम उदार॥ २॥
बिषय-बारि मन-मीन भिन्न नहिं होत कबहुँ पल एक।
ताते सहौं बिपति अति दारुन, जनमत जोनि अनेक॥ ३॥
कृपा-डोरि बनसी पद अंकुस, परम प्रेम-मृदु-चारो।
एहि बिधि बेधि हरहु मेरो दुख, कौतुक राम तिहारो॥ ४॥
हैं श्रुति-बिदित उपाय सकल सुर, केहि केहि दीन निहोरै।
तुलसिदास येहि जीव मोह-रजु, जेहि बाँध्यो सोइ छोरै॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे हरे! आपने बड़ी दया की, जो मुझे देवताओंके लिये भी दुर्लभ, साधनोंके स्थान मनुष्य-शरीरको कृपापूर्वक दे दिया॥ १॥ यद्यपि आपका एक-एक उपकार करोड़ों मुखोंसे नहीं कहा जा सकता, तथापि हे नाथ! मैं कुछ और माँगता हूँ, आप बड़े उदार हैं, मुझे कृपा करके दीजिये॥ २॥ मेरा मनरूपी मच्छ विषयरूपी जलसे एक पलके लिये भी अलग नहीं होता, इससे मैं अत्यन्त दारुण दुःख सह रहा हूँ—बार-बार अनेक योनियोंमें मुझे जन्म लेना पड़ता है॥ ३॥ (इस मनरूपी मच्छको पकड़नेके लिये) हे रामजी! आप अपनी कृपाकी डोरी बनाइये और अपने चरणके चिह्न अंकुशको वंशीका काँटा बनाइये, उसमें परम प्रेमरूपी कोमल चारा चिपका दीजिये। इस प्रकार मेरे मनरूपी मच्छको बेधकर अर्थात् विषयरूपी जलसे बाहर निकालकर मेरा दुःख दूर कर दीजिये। आपके लिये तो यह एक खेल ही होगा॥ ४॥ यों तो वेदमें अनेक उपाय भरे पड़े हैं, देवता भी बहुत-से हैं, पर यह दीन किस-किसका निहोरा करता फिरे? हे तुलसीदास! जिसने इस जीवको मोहकी डोरीमें बाँधा है वही इसे छुड़ावेगा॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१०३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

यह बिनती रघुबीर गुसाईं।
और आस-बिस्वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई॥ १॥
चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई।
हेतु-रहित अनुराग राम-पद बढ़ै अनुदिन अधिकाई॥ २॥
कुटिल करम लै जाहिं मोहि जहँ जहँ अपनी बरिआई।
तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ-अंडकी नाईं॥ ३॥
या जगमें जहँ लगि या तनुकी प्रीति प्रतीति सगाई।
ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों होहिं सिमिटि इक ठाईं॥ ४॥

मूल

यह बिनती रघुबीर गुसाईं।
और आस-बिस्वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई॥ १॥
चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु, रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई।
हेतु-रहित अनुराग राम-पद बढ़ै अनुदिन अधिकाई॥ २॥
कुटिल करम लै जाहिं मोहि जहँ जहँ अपनी बरिआई।
तहँ तहँ जनि छिन छोह छाँड़ियो, कमठ-अंडकी नाईं॥ ३॥
या जगमें जहँ लगि या तनुकी प्रीति प्रतीति सगाई।
ते सब तुलसिदास प्रभु ही सों होहिं सिमिटि इक ठाईं॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरघुनाथजी! हे नाथ! मेरी यही विनती है कि इस जीवको दूसरे साधन, देवता या कर्मोंपर जो आशा, विश्वास और भरोसा है, उस मूर्खताको आप हर लीजिये॥ १॥ हे राम! मैं शुभगति, सद्‍बुद्धि, धन-सम्पत्ति, ऋद्धि-सिद्धि और बड़ी भारी बड़ाई आदि कुछ भी नहीं चाहता। बस, मेरा तो आपके चरण-कमलोंमें दिनोंदिन अधिक-से-अधिक अनन्य और विशुद्ध प्रेम बढ़ता रहे, यही चाहता हूँ॥ २॥ मुझे अपने बुरे कर्म जबरदस्ती जिस-जिस योनिमें ले जायँ, उस-उस योनिमें ही हे नाथ! जैसे कछुआ अपने अंडोंको नहीं छोड़ता, वैसे ही आप पलभरके लिये भी अपनी कृपा न छोड़ना॥ ३॥ हे नाथ! इस संसारमें जहाँतक इस शरीरका (स्त्री-पुत्र-परिवारादिसे) प्रेम, विश्वास और सम्बन्ध है, सो सब एक ही स्थानपर सिमटकर केवल आपसे ही हो जाय॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(१०४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानकी-जीवनकी बलि जैहौं।
चित कहै रामसीय-पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहौं॥ १॥
उपजी उर प्रतीति सपनेहुँ सुख, प्रभु-पद-बिमुख न पैहौं।
मन समेत या तनके बासिन्ह, इहै सिखावन दैहौं॥ २॥
श्रवननि और कथा नहिं सुनिहौं, रसना और न गैहौं।
रोकिहौं नयन बिलोकत औरहिं, सीस ईस ही नैहौं॥ ३॥
नातो-नेह नाथसों करि सब नातो-नेह बहैहौं।
यह छर भार ताहि तुलसी जग जाको दास कहैहौं॥ ४॥

मूल

जानकी-जीवनकी बलि जैहौं।
चित कहै रामसीय-पद परिहरि अब न कहूँ चलि जैहौं॥ १॥
उपजी उर प्रतीति सपनेहुँ सुख, प्रभु-पद-बिमुख न पैहौं।
मन समेत या तनके बासिन्ह, इहै सिखावन दैहौं॥ २॥
श्रवननि और कथा नहिं सुनिहौं, रसना और न गैहौं।
रोकिहौं नयन बिलोकत औरहिं, सीस ईस ही नैहौं॥ ३॥
नातो-नेह नाथसों करि सब नातो-नेह बहैहौं।
यह छर भार ताहि तुलसी जग जाको दास कहैहौं॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मैं तो श्रीजानकी-जीवन रघुनाथजीपर अपनेको न्योछावर कर दूँगा। मेरा मन यही कहता है कि अब मैं श्रीसीता-रामजीके चरणोंको छोड़कर दूसरी जगह कहीं भी नहीं जाऊँगा॥ १॥ मेरे हृदयमें ऐसा विश्वास उत्पन्न हो गया है कि अपने स्वामी श्रीरामजीके चरणोंसे विमुख होकर मैं स्वप्नमें भी कहीं सुख नहीं पा सकूँगा। इससे मैं मनको तथा इस शरीरमें रहनेवाले (इन्द्रियादि) सभीको यही उपदेश दूँगा॥ २॥ कानोंसे दूसरी बात नहीं सुनूँगा, जीभसे दूसरेकी चर्चा नहीं करूँगा, नेत्रोंको दूसरी ओर ताकनेसे रोक लूँगा और यह मस्तक केवल भगवान् को ही झुकाऊँगा॥ ३॥ अब प्रभुके साथ नाता और प्रेम करके दूसरे सबसे नाता और प्रेम तोड़ दूँगा। इस संसारमें मैं तुलसीदास जिसका दास कहाऊँगा फिर अपने सारे कर्मोंका बोझा भी उसी स्वामीपर रहेगा॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(१०५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं।
राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं॥ १॥
पायेउँ नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहौं।
स्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं॥ २॥
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वै न हँसैहौं।
मन मधुकर पनकै तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं॥ ३॥

मूल

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं।
राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं॥ १॥
पायेउँ नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहौं।
स्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं॥ २॥
परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस ह्वै न हँसैहौं।
मन मधुकर पनकै तुलसी रघुपति-पद-कमल बसैहौं॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अबतक तो (यह आयु व्यर्थ ही) नष्ट हो गयी, परन्तु अब इसे नष्ट नहीं होने दूँगा। श्रीरामकी कृपासे संसाररूपी रात्रि बीत गयी है, (मैं संसारकी माया-रात्रिसे जग गया हूँ) अब जागनेपर फिर (मायाका) बिछौना नहीं बिछाऊँगा (अब फिर मायाके फंदेमें नहीं फँसूँगा)॥ १॥ मुझे रामनामरूपी सुन्दर चिन्तामणि मिल गयी है। उसे हृदयरूपी हाथसे कभी नहीं गिरने दूँगा। अथवा हृदयसे रामनामका स्मरण करता रहूँगा और हाथसे रामनामकी माला जपा करूँगा। श्रीरघुनाथजीका जो पवित्र श्यामसुन्दर रूप है उसकी कसौटी बनाकर अपने चित्तरूपी सोनेको कसूँगा। अर्थात् यह देखूँगा कि श्रीरामके ध्यानमें मेरा मन सदा-सर्वदा लगता है कि नहीं॥ २॥ जबतक मैं इन्द्रियोंके वशमें था, तबतक उन्होंने (मुझे मनमाना नाच नचाकर) मेरी बड़ी हँसी उड़ाई, परन्तु अब स्वतन्त्र होनेपर यानी मन-इन्द्रियोंको जीत लेनेपर उनसे अपनी हँसी नहीं कराऊँगा। अब तो अपने मनरूपी भ्रमरको प्रण करके श्रीरामजीके चरण-कमलोंमें लगा दूँगा। अर्थात् श्रीरामजीके चरणोंको छोड़कर दूसरी जगह मनको जाने ही नहीं दूँगा॥ ३॥

राग रामकली

विषय (हिन्दी)

(१०६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाराज रामादरॺो धन्य सोई।
गरुअ, गुनरासि, सरबग्य, सुकृती, सूर, सील-निधि, साधु तेहि सम न कोई॥ १॥
उपल, केवट, कीस, भालु, निसिचर, सबरि, गीध सम-दम-दया-दान-हीने।
नाम लिये राम किये परम पावन सकल, नर तरत तिनके गुनगान कीने॥ २॥
ब्याध अपराधकी साध राखी कहा, पिंगलै कौन मति भगति भेई।
कौन धौं सोमजाजी अजामिल अधम, कौन गजराज धौं बाजपेयी॥ ३॥
पांडु-सुत, गोपिका, बिदुर, कुबरी, सबरि, सुद्ध किये सुद्धता लेस कैसो।
प्रेम लखि कृस्न किये आपने तिनहुको, सुजस संसार हरिहरको जैसो॥ ४॥
कोल, खस, भील, जवनादि खल राम कहि, नीच ह्वै ऊँच पद को न पायो।
दीन-दुख-दवन श्रीरवन करुना-भवन, पतित-पावन विरद बेद गायो॥ ५॥
मंदमति, कुटिल, खल-तिलक तुलसी सरिस, भो न तिहुँ लोक तिहुँ काल कोऊ।
नामकी कानि पहिचानि पन आपनो, ग्रसित कलि-ब्याल राख्यो सरन सोऊ॥ ६॥

मूल

महाराज रामादरॺो धन्य सोई।
गरुअ, गुनरासि, सरबग्य, सुकृती, सूर, सील-निधि, साधु तेहि सम न कोई॥ १॥
उपल, केवट, कीस, भालु, निसिचर, सबरि, गीध सम-दम-दया-दान-हीने।
नाम लिये राम किये परम पावन सकल, नर तरत तिनके गुनगान कीने॥ २॥
ब्याध अपराधकी साध राखी कहा, पिंगलै कौन मति भगति भेई।
कौन धौं सोमजाजी अजामिल अधम, कौन गजराज धौं बाजपेयी॥ ३॥
पांडु-सुत, गोपिका, बिदुर, कुबरी, सबरि, सुद्ध किये सुद्धता लेस कैसो।
प्रेम लखि कृस्न किये आपने तिनहुको, सुजस संसार हरिहरको जैसो॥ ४॥
कोल, खस, भील, जवनादि खल राम कहि, नीच ह्वै ऊँच पद को न पायो।
दीन-दुख-दवन श्रीरवन करुना-भवन, पतित-पावन विरद बेद गायो॥ ५॥
मंदमति, कुटिल, खल-तिलक तुलसी सरिस, भो न तिहुँ लोक तिहुँ काल कोऊ।
नामकी कानि पहिचानि पन आपनो, ग्रसित कलि-ब्याल राख्यो सरन सोऊ॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—महाराज श्रीरामचन्द्रजीने जिसका आदर किया वही धन्य है। वही भारी यानी महिमान्वित, गुणोंका भण्डार, सर्वज्ञ, पुण्यवान्, वीर, सुशील और साधु है, उसके समान कोई भी नहीं है॥ १॥ पाषाणकी अहल्या, निषाद, बंदर, रीछ, राक्षस, शबरी, जटायु—ये सब शम, दम, दया और दान आदि गुणोंसे बिल्कुल हीन थे; परन्तु श्रीराम-नाम स्मरण करनेसे श्रीरामजीने इन सबको ऐसा परम पवित्र बना दिया कि (आज) उनके गुणोंका गान करनेसे मनुष्य संसार-सागरसे पार हो जाते हैं॥ २॥ वाल्मीकि व्याधने कौन-से पापकी इच्छा बाकी रखी थी? पिंगला वेश्याने अपनी बुद्धि भक्तिमें कब लगायी थी? अजामिल पापीने कौन-सा सोमयज्ञ किया था? और गजराज कहाँका अश्वमेध करनेवाला था?॥ ३॥ पाण्डवों, गोपियों, विदुर और कुब्जामें पवित्रताका लेश भी कहाँ था; परन्तु आपने इन सबको पवित्र कर लिया, प्रेम देखकर श्रीकृष्णरूप आपने इनको अपना लिया, जिससे इनका सुन्दर यश (आज) संसारमें विष्णु और शिवके यशके समान छा रहा है॥ ४॥ कोल, खस, भील और यवनादि दुष्टोंमें ऐसा कौन है जिसने रामनाम उच्चारण करनेपर नीच होकर भी ऊँचे-से-ऊँचा पद न पाया हो? दीनोंके दुःखका नाश करनेवाले, लक्ष्मीजीके पति, करुणाके मन्दिर, पतितोंको पावन करनेवाले श्रीरामजीका यश वेदोंने गाया है॥ ५॥ (औरोंकी बात जाने दीजिये) तीनों लोकों और तीनों कालोंमें तुलसी-सरीखा मन्दबुद्धि, कुटिल और दुष्ट-शिरोमणि कोई नहीं हुआ; परन्तु अपने नामकी मर्यादा रखनेके लिये अपने (पतितपावन) प्रणको स्मरण करके इस कलिकालरूपी सर्पसे डसे हुएको भी श्रीरामने अपनी शरणमें ले लिया॥ ६॥

राग बिहाग

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिलावल

मूल

बिलावल

विषय (हिन्दी)

(१०७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

है नीको मेरो देवता कोसलपति राम।
सुभग सरोरुह लोचन, सुठि सुंदर स्याम॥ १॥
सिय-समेत सोहत सदा छबि अमित अनंग।
भुज बिसाल सर धनु धरे, कटि चारु निषंग॥ २॥
बलिपूजा चाहत नहीं, चाहत एक प्रीति।
सुमिरत ही मानै भलो, पावन सब रीति॥ ३॥
देहि सकल सुख, दुख दहै, आरत-जन-बंधु।
गुन गहि, अघ-औगुन हरै, अस करुनासिंधु॥ ४॥
देस-काल-पूरन सदा बद बेद पुरान।
सबको प्रभु, सबमें बसै, सबकी गति जान॥ ५॥
को करि कोटिक कामना, पूजै बहु देव।
तुलसिदास तेहि सेइये, संकर जेहि सेव॥ ६॥

मूल

है नीको मेरो देवता कोसलपति राम।
सुभग सरोरुह लोचन, सुठि सुंदर स्याम॥ १॥
सिय-समेत सोहत सदा छबि अमित अनंग।
भुज बिसाल सर धनु धरे, कटि चारु निषंग॥ २॥
बलिपूजा चाहत नहीं, चाहत एक प्रीति।
सुमिरत ही मानै भलो, पावन सब रीति॥ ३॥
देहि सकल सुख, दुख दहै, आरत-जन-बंधु।
गुन गहि, अघ-औगुन हरै, अस करुनासिंधु॥ ४॥
देस-काल-पूरन सदा बद बेद पुरान।
सबको प्रभु, सबमें बसै, सबकी गति जान॥ ५॥
को करि कोटिक कामना, पूजै बहु देव।
तुलसिदास तेहि सेइये, संकर जेहि सेव॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कोसलपति श्रीरामचन्द्रजी मेरे सर्वश्रेष्ठ देवता हैं, उनके कमलके समान सुन्दर नेत्र हैं और उनका शरीर परम सुन्दर श्यामवर्ण है॥ १॥ श्रीसीताजीके साथ सदा शोभायमान रहते हैं, असंख्य कामदेवोंके समान उनका सौन्दर्य है। विशाल भुजाओंमें धनुष-बाण और कमरमें सुन्दर तरकस धारण किये हुए हैं॥ २॥ वे बलि या पूजा कुछ भी नहीं चाहते, केवल एक ‘प्रेम’ चाहते हैं। स्मरण करते ही प्रसन्न हो जाते हैं और सब तरहसे पवित्र कर देते हैं॥ ३॥ सब सुख दे देते हैं और दुःखोंको भस्म कर डालते हैं। वे दुःखी जनोंके बन्धु हैं, गुणोंको ग्रहण करते और अवगुणोंको हर लेते हैं, ऐसे करुणा-सागर हैं॥ ४॥ सब देश और सब समय सदा पूर्ण रहते हैं, ऐसा वेद-पुराण कहते हैं। वे सबके स्वामी हैं, सबमें रमते हैं और सबके मनकी बात जानते हैं॥ ५॥ (ऐसे स्वामीको छोड़कर) करोड़ों प्रकारकी कामना करके दूसरे अनेक देवताओंको कौन पूजे? हे तुलसीदास, (अपने तो) उसीकी सेवा करनी चाहिये, जिसकी सेवा देवदेव महादेवजी करते हैं॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(१०८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

बीर महा अवराधिये, साधे सिधि होय।
सकल काम पूरन करै, जानै सब कोय॥ १॥
बेगि, बिलंब न कीजिये लीजै उपदेस।
बीज महा मंत्र जपिये सोई, जो जपत महेस॥ २॥
प्रेम-बारि-तरपन भलो, घृत सहज सनेहु।
संसय-समिध, अगिनि छमा, ममता-बलि देहु॥ ३॥
अघ-उचाटि, मन बस करै, मारै मद मार।
आकरषै सुख-संपदा-संतोष-बिचार॥ ४॥
जिन्ह यहि भाँति भजन कियो, मिले रघुपति ताहि।
तुलसिदास प्रभुपथ चढॺौ, जौ लेहु निबाहि॥ ५॥

मूल

बीर महा अवराधिये, साधे सिधि होय।
सकल काम पूरन करै, जानै सब कोय॥ १॥
बेगि, बिलंब न कीजिये लीजै उपदेस।
बीज महा मंत्र जपिये सोई, जो जपत महेस॥ २॥
प्रेम-बारि-तरपन भलो, घृत सहज सनेहु।
संसय-समिध, अगिनि छमा, ममता-बलि देहु॥ ३॥
अघ-उचाटि, मन बस करै, मारै मद मार।
आकरषै सुख-संपदा-संतोष-बिचार॥ ४॥
जिन्ह यहि भाँति भजन कियो, मिले रघुपति ताहि।
तुलसिदास प्रभुपथ चढॺौ, जौ लेहु निबाहि॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—महान् वीर श्रीरघुनाथजीकी आराधना करनी चाहिये, जिन्हें साधनेसे सब कुछ सिद्ध हो जाता है। वे सब इच्छाएँ पूर्ण कर देते हैं, इस बातको सब जानते हैं॥ १॥ इस कामको जल्दी ही करना चाहिये, देर करना उचित नहीं है। (सद्‍गुरुसे) उपदेश लेकर उसी बीजमन्त्र (राम) का जप करना चाहिये, जिसे श्रीशिवजी जपा करते हैं॥ २॥ (मन्त्रजपके बाद हवनादिकी विधि इस प्रकार है) प्रेमरूपी जलसे तर्पण करना चाहिये, सहज स्वाभाविक स्नेहका घी बनाना चाहिये और सन्देहरूपी समिधका क्षमारूपी अग्निमें हवन करना चाहिये तथा ममताका बलिदान करना चाहिये॥ ३॥ पापोंका उच्चाटन, मनका वशीकरण, अहंकार और कामका मारण तथा सन्तोष और ज्ञानरूपी सुख-सम्पत्तिका आकर्षण करना चाहिये॥ ४॥ जिसने इस प्रकारसे भजन किया, उसे श्रीरघुनाथजी मिले हैं। तुलसीदास भी इसी मागर्पर चढ़ा है, जिसे प्रभु निबाह लेंगे॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१०९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कस न करहु करुना हरे! दुखहरन मुरारि!
त्रिबिधताप-संदेह-सोक-संसय-भय-हारि॥ १॥
इक कलिकाल-जनित मल, मतिमंद, मलिन-मन।
तेहिपर प्रभु नहिं कर सँभार, केहि भाँति जियै जन॥ २॥
सब प्रकार समरथ प्रभो, मैं सब बिधि दीन।
यह जिय जानि द्रवौ नहीं, मैं करम बिहीन॥ ३॥
भ्रमत अनेक जोनि, रघुपति, पति आन न मोरे।
दुख-सुख सहौं, रहौं सदा सरनागत तोरे॥ ४॥
तो सम देव न कोउ कृपालु, समुझौं मनमाहीं।
तुलसिदास हरि तोषिये, सो साधन नाहीं॥ ५॥

मूल

कस न करहु करुना हरे! दुखहरन मुरारि!
त्रिबिधताप-संदेह-सोक-संसय-भय-हारि॥ १॥
इक कलिकाल-जनित मल, मतिमंद, मलिन-मन।
तेहिपर प्रभु नहिं कर सँभार, केहि भाँति जियै जन॥ २॥
सब प्रकार समरथ प्रभो, मैं सब बिधि दीन।
यह जिय जानि द्रवौ नहीं, मैं करम बिहीन॥ ३॥
भ्रमत अनेक जोनि, रघुपति, पति आन न मोरे।
दुख-सुख सहौं, रहौं सदा सरनागत तोरे॥ ४॥
तो सम देव न कोउ कृपालु, समुझौं मनमाहीं।
तुलसिदास हरि तोषिये, सो साधन नाहीं॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे हरे! हे मुरारे! आप दुःखोंके हरण करनेवाले हैं, फिर मुझपर दया क्यों नहीं करते? आप दैहिक, दैविक, भौतिक तीनों प्रकारके तापोंके और सन्देह, शोक, अज्ञान तथा भयके नाश करनेवाले हैं। (मेरे भी दुःख, ताप और अज्ञान आदिका नाश कीजिये)॥ १॥ एक तो कलिकालसे उत्पन्न होनेवाले पापोंसे मेरी बुद्धि मन्द पड़ गयी है और मन मलिन हो गया है, तिसपर फिर हे स्वामी! आप भी मेरी सँभाल नहीं करते? तब इस दासका जीवन कैसे निभेगा?॥ २॥ हे प्रभो! आप तो सब प्रकारसे समर्थ हैं और मैं सब प्रकारसे दीन हूँ। यह जानकर भी आप मुझपर कृपा नहीं करते, इससे मालूम होता है कि मैं भाग्यहीन ही हूँ॥ ३॥ हे रघुनाथजी! मैं अनेक योनियोंमें भटक आया हूँ; परन्तु आपके सिवा मेरे दूसरा कोई स्वामी नहीं है। दुःख-सुख सहता हुआ भी मैं सदा आपकी ही शरण हूँ॥ ४॥ मैं अपने मनमें तो इस बातको खूब समझता हूँ कि आपके समान दूसरा कोई भी दयालु देव नहीं है, परन्तु हे हरे! आपको प्रसन्न करनेवाले साधन इस तुलसीदासके पास नहीं हैं। (बिना ही साधन केवल शरणागतिसे ही आपको प्रसन्न होना पड़ेगा)॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(११०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु केहि कहिय कृपानिधे! भव-जनित बिपति अति।
इंद्रिय सकल बिकल सदा, निज निज सुभाउ रति॥ १॥
जे सुख-संपति, सरग-नरक संतत सँग लागी।
हरि! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी॥ २॥
मैं अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे।
जो न द्रवहु रघुबीर धीर, दुख काहे न लागे॥ ३॥
जद्यपि मैं अपराध-भवन, दुख-समन मुरारे।
तुलसिदास कहँ आस यहै बहु पतित उधारे॥ ४॥

मूल

कहु केहि कहिय कृपानिधे! भव-जनित बिपति अति।
इंद्रिय सकल बिकल सदा, निज निज सुभाउ रति॥ १॥
जे सुख-संपति, सरग-नरक संतत सँग लागी।
हरि! परिहरि सोइ जतन करत मन मोर अभागी॥ २॥
मैं अति दीन, दयालु देव सुनि मन अनुरागे।
जो न द्रवहु रघुबीर धीर, दुख काहे न लागे॥ ३॥
जद्यपि मैं अपराध-भवन, दुख-समन मुरारे।
तुलसिदास कहँ आस यहै बहु पतित उधारे॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे कृपानिधान! इस संसार-जनित भारी विपत्तिका दुखड़ा आपको छोड़कर और किसके सामने रोऊँ? इन्द्रियाँ तो सब अपने-अपने विषयोंमें आसक्त होकर उनके लिये व्याकुल हो रही हैं॥ १॥ ये तो सदा सुख-सम्पत्ति और स्वर्ग-नरककी उलझनमें फँसी रहती ही हैं; पर हे हरे! मेरा यह अभागा मन भी आपको छोड़कर इन इन्द्रियोंका ही साथ दे रहा है॥ २॥ हे देव! मैं अत्यन्त दीन-दुःखी हूँ—आपका दयालु नाम सुनकर मैंने आपमें मन लगाया है; इतनेपर भी हे रघुवीर! हे धीर! यदि आप मुझपर दया नहीं करते तो मुझे कैसे दुःख नहीं होगा?॥ ३॥ अवश्य ही मैं अपराधोंका घर हूँ; परन्तु हे मुरारे! आप तो (अपराधका विचार न करके) दुःखोंका नाश ही करनेवाले हैं। मुझ तुलसीदासको आपसे सदा यही आशा है, क्योंकि आप अबतक अनेक पतितों (अपराधियों)-का उद्धार कर चुके हैं (इसलिये अब मेरा भी अवश्य करेंगे)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(१११)

विश्वास-प्रस्तुतिः

केसव! कहि न जाइ का कहिये।
देखत तव रचना बिचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये॥ १॥
सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे।
धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे॥ २॥
रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं।
बदन-हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं॥ ३॥
कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै।
तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै॥ ४॥

मूल

केसव! कहि न जाइ का कहिये।
देखत तव रचना बिचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये॥ १॥
सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे।
धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे॥ २॥
रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं।
बदन-हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं॥ ३॥
कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै।
तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे केशव! क्या कहूँ? कुछ कहा नहीं जाता! हे हरे! आपकी यह विचित्र रचना देखकर मन-ही-मन (आपकी लीला) समझकर रह जाता हूँ॥ १॥ कैसी अद्भुत लीला है कि इस (संसाररूपी) चित्रको निराकार (अव्यक्त) चित्रकार (सृष्टिकर्ता परमात्मा) ने शून्य (मायाकी) दीवारपर बिना ही रंगके (संकल्पसे ही) बना दिया। (साधारण स्थूल-चित्र तो धोनेसे मिट जाते हैं, परन्तु) यह (महामायावी-रचित माया-चित्र) किसी प्रकार धोनेसे नहीं मिटता। (साधारण चित्र जड है, उसे मृत्युका डर नहीं लगता परन्तु) इसको मरणका भय बना हुआ है। (साधारण चित्र देखनेसे सुख मिलता है परन्तु) इस संसाररूपी भयानक चित्रकी ओर देखनेसे दुःख होता है॥ २॥ सूर्यकी किरणोंमें (भ्रमसे) जो जल दिखायी देता है उस जलमें एक भयानक मगर रहता है; उस मगरके मुँह नहीं है, तो भी वहाँ जो भी जल पीने जाता है, चाहे वह जड हो या चेतन, यह मगर उसे ग्रस लेता है। भाव यह कि यह संसार सूर्यकी किरणोंमें जलके समान भ्रमजनित है। जैसे सूर्यकी किरणोंमें जल समझकर उनके पीछे दौड़नेवाला मृग जल न पाकर प्यासा ही मर जाता है, उसी प्रकार इस भ्रमात्मक संसारमें सुख समझकर उसके पीछे दौड़नेवालोंको भी बिना मुखका मगर यानी निराकार काल खा जाता है॥ ३॥ इस संसारको कोई सत्य कहता है, कोई मिथ्या बतलाता है और कोई सत्य-मिथ्यासे मिला हुआ मानता है; तुलसीदासके मतसे तो (ये तीनों ही भ्रम हैं) जो इन तीनों भ्रमोंसे निवृत्त हो जाता है (अर्थात् सब कुछ परमात्माकी लीला ही समझता है), वही अपने असली स्वरूपको पहचान सकता है॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(११२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

केसव! कारन कौन गुसाईं।
जेहि अपराध असाध जानि मोहिं तजेउ अग्यकी नाईं॥ १॥
परम पुनीत संत कोमल-चित, तिनहिं तुमहिं बनि आई।
तौ कत बिप्र, ब्याध, गनिकहि तारेहु, कछु रही सगाई?॥ २॥
काल, करम, गति अगति जीवकी, सब हरि! हाथ तुम्हारे।
सोइ कछु करहु, हरहु ममता प्रभु! फिरउँ न तुमहिं बिसारे॥ ३॥
जौ तुम तजहु, भजौं न आन प्रभु, यह प्रमान पन मोरे।
मन-बच-करम नरक-सुरपुर जहँ तहँ रघुबीर निहोरे॥ ४॥
जद्यपि नाथ उचित न होत अस, प्रभु सों करौं ढिठाई।
तुलसिदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई॥ ५॥

मूल

केसव! कारन कौन गुसाईं।
जेहि अपराध असाध जानि मोहिं तजेउ अग्यकी नाईं॥ १॥
परम पुनीत संत कोमल-चित, तिनहिं तुमहिं बनि आई।
तौ कत बिप्र, ब्याध, गनिकहि तारेहु, कछु रही सगाई?॥ २॥
काल, करम, गति अगति जीवकी, सब हरि! हाथ तुम्हारे।
सोइ कछु करहु, हरहु ममता प्रभु! फिरउँ न तुमहिं बिसारे॥ ३॥
जौ तुम तजहु, भजौं न आन प्रभु, यह प्रमान पन मोरे।
मन-बच-करम नरक-सुरपुर जहँ तहँ रघुबीर निहोरे॥ ४॥
जद्यपि नाथ उचित न होत अस, प्रभु सों करौं ढिठाई।
तुलसिदास सीदत निसिदिन देखत तुम्हारि निठुराई॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे केशव! हे स्वामी! ऐसा क्या कारण (अपराध) है जिस अपराधसे आपने मुझे दुष्ट समझकर एक अनजानकी तरह छोड़ दिया?॥ १॥ (यदि आप मुझे तो दुष्ट समझते हैं, और) जिनके आचरण बड़े ही पवित्र हैं, जो कोमल हृदय संत हैं, उन्हींको अपनाते हैं, तो फिर अजामिल, वाल्मीकि और गणिकाका उद्धार क्यों किया था? क्या उनसे आपकी कोई खास रिश्तेदारी थी?॥ २॥ हे हरे! इस जीवका काल, कर्म, सुगति, दुर्गति सब कुछ आपहीके हाथ है; अतः हे प्रभो! मेरी ममताका नाश कर कुछ ऐसा उपाय कीजिये, जिससे मैं आपको भूलकर इधर-उधर भटकता न फिरूँ॥ ३॥ यदि आप मुझे छोड़ भी देंगे, तो भी मैं तो आपहीको भजूँगा, दूसरे किसीको अपना प्रभु कभी नहीं मानूँगा, यह मेरा अटल प्रण है; आप नरक या स्वर्गमें जहाँ कहीं भी भेजेंगे, वहीं हे रघुनाथजी! मन, वचन और कर्मसे मैं आपहीकी विनय करता रहूँगा॥ ४॥ हे नाथ! यद्यपि यह उचित नहीं है कि मैं प्रभुके साथ ऐसी ढिठाई करूँ, परन्तु रात-दिन आपकी निष्ठुरता देखकर यह तुलसीदास बड़ा दुःखी हो रहा है, (इसीसे बाध्य होकर) ऐसा कहना पड़ा॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(११३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

माधव! अब न द्रवहु केहि लेखे।
प्रनतपाल पन तोर, मोर पन जिअहुँ कमलपद देखे॥ १॥
जब लगि मैं न दीन, दयालु तैं, मैं न दास, तैं स्वामी।
तब लगि जो दुख सहेउँ कहेउँ नहिं, जद्यपि अंतरजामी॥ २॥
तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत, श्रुति गावै।
बहुत नात रघुनाथ! तोहि मोहि, अब न तजे बनि आवै॥ ३॥
जनक-जननि, गुरु-बंधु, सुहृद-पति, सब प्रकार हितकारी।
द्वैतरूप तम-कूप परौं नहिं, अस कछु जतन बिचारी॥ ४॥
सुनु अदभ्र करुना बारिजलोचन मोचन भय भारी।
तुलसिदास प्रभु! तव प्रकास बिनु, संसय टरै न टारी॥ ५॥

मूल

माधव! अब न द्रवहु केहि लेखे।
प्रनतपाल पन तोर, मोर पन जिअहुँ कमलपद देखे॥ १॥
जब लगि मैं न दीन, दयालु तैं, मैं न दास, तैं स्वामी।
तब लगि जो दुख सहेउँ कहेउँ नहिं, जद्यपि अंतरजामी॥ २॥
तैं उदार, मैं कृपन, पतित मैं, तैं पुनीत, श्रुति गावै।
बहुत नात रघुनाथ! तोहि मोहि, अब न तजे बनि आवै॥ ३॥
जनक-जननि, गुरु-बंधु, सुहृद-पति, सब प्रकार हितकारी।
द्वैतरूप तम-कूप परौं नहिं, अस कछु जतन बिचारी॥ ४॥
सुनु अदभ्र करुना बारिजलोचन मोचन भय भारी।
तुलसिदास प्रभु! तव प्रकास बिनु, संसय टरै न टारी॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे माधव! अब तुम किस कारण कृपा नहीं करते? तुम्हारा प्रण तो शरणागतका पालन करना है और मेरा प्रण तुम्हारे चरणारविन्दोंको देख-देखकर ही जीना है। भाव यह कि जब मैं तुम्हारे चरण देखे बिना जीवन धारण ही नहीं कर सकता तब तुम प्रणतपाल होकर भी मुझपर कृपा क्यों नहीं करते॥ १॥ जबतक मैं दीन और तुम दयालु, मैं सेवक और तुम स्वामी नहीं बने थे, तबतक तो मैंने जो दुःख सहे सो मैंने तुमसे नहीं कहे, यद्यपि तुम अन्तर्यामीरूपसे सब जानते थे॥ २॥ किन्तु अब तो मेरा-तुम्हारा सम्बन्ध हो गया है। तुम दानी हो और मैं कंगाल हूँ, तुम पतितपावन हो और मैं पतित हूँ, वेद इस बातको गा रहे हैं। हे रघुनाथजी! इस प्रकार मेरे-तुम्हारे अनेक सम्बन्ध हैं; फिर भला, तुम मुझे कैसे त्याग सकते हो?॥ ३॥ मेरे पिता, माता, गुरु, भाई, मित्र, स्वामी और हर तरहसे हितू तुम्हीं हो। अतएव कुछ ऐसा उपाय सोचो, जिससे मैं द्वैतरूपी अँधेरे कुएँमें न गिरूँ, अर्थात् सर्वत्र केवल एक तुम्हें ही देखकर परमानन्दमें मग्न रहूँ॥ ४॥ हे कमलनयन! सुनो, तुम्हारी अपार करुणा भवसागरके भारी भयसे (आवागमनसे) छुड़ा देनेवाली है। हे नाथ! तुलसीदासका अज्ञान (रूपी अन्धकार) बिना तुम्हारे ज्ञानरूप प्रकाशके, बिना तुम्हारे दर्शनके, किसी प्रकार भी नहीं टल सकता (अतएव इसको तुम ही दूर करो)॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(११४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

माधव! मो समान जग माहीं।
सब बिधि हीन, मलीन, दीन अति, लीन-बिषय कोउ नाहीं॥ १॥
तुम सम हेतुरहित कृपालु आरत-हित ईस न त्यागी।
मैं दुख-सोक-बिकल कृपालु! केहि कारन दया न लागी॥ २॥
नाहिंन कछु औगुन तुम्हार, अपराध मोर मैं माना।
ग्यान-भवन तनु दियेहु नाथ, सोउ पाय न मैं प्रभु जाना॥ ३॥
बेनु करील, श्रीखंड बसंतहि दूषन मृषा लगावै।
सार-रहित हत-भाग्य सुरभि, पल्लव सो कहु किमि पावै॥ ४॥
सब प्रकार मैं कठिन, मृदुल हरि, दृढ़ बिचार जिय मोरे।
तुलसिदास प्रभु मोह-सृंखला, छुटिहि तुम्हारे छोरे॥ ५॥

मूल

माधव! मो समान जग माहीं।
सब बिधि हीन, मलीन, दीन अति, लीन-बिषय कोउ नाहीं॥ १॥
तुम सम हेतुरहित कृपालु आरत-हित ईस न त्यागी।
मैं दुख-सोक-बिकल कृपालु! केहि कारन दया न लागी॥ २॥
नाहिंन कछु औगुन तुम्हार, अपराध मोर मैं माना।
ग्यान-भवन तनु दियेहु नाथ, सोउ पाय न मैं प्रभु जाना॥ ३॥
बेनु करील, श्रीखंड बसंतहि दूषन मृषा लगावै।
सार-रहित हत-भाग्य सुरभि, पल्लव सो कहु किमि पावै॥ ४॥
सब प्रकार मैं कठिन, मृदुल हरि, दृढ़ बिचार जिय मोरे।
तुलसिदास प्रभु मोह-सृंखला, छुटिहि तुम्हारे छोरे॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे माधव! संसारमें मेरे समान, सब प्रकारसे साधनहीन, पापी, अति दीन और विषय-भोगोंमें डूबा हुआ दूसरा कोई नहीं है॥ १॥ और तुम्हारे समान, बिना ही कारण कृपा करनेवाला, दीन-दुःखियोंके हितार्थ सब कुछ त्याग करनेवाला स्वामी कोई दूसरा नहीं है। भाव यह है कि दीनोंके दुःख दूर करनेके लिये ही तुम वैकुण्ठ या सच्चिदानन्दघनरूप छोड़कर धराधाममें मानवरूपमें अवतीर्ण होते हो, इससे अधिक त्याग और क्या होगा? इतनेपर भी मैं दुःख और शोकसे व्याकुल हो रहा हूँ। हे कृपालो! किस कारण तुमको मुझपर दया नहीं आती?॥ २॥ मैं यह मानता हूँ कि इसमें तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं है, सब मेरा ही अपराध है। क्योंकि तुमने मुझे जो ज्ञानका भण्डार यह मनुष्य-शरीर दिया, उसे पाकर भी मैंने तुम-सरीखे प्रभुको आजतक नहीं पहचाना॥ ३॥ बाँस चन्दनको और करील वसन्तको वृथा ही दोष देते हैं। असलमें दोनों हतभाग्य हैं। बाँसमें सार ही नहीं है, तब बेचारा चन्दन उसमें सुगन्ध कहाँसे भर दे? इसी प्रकार करीलमें पत्ते नहीं होते फिर वसन्त उसे कैसे हरा-भरा कर देगा? (वैसे ही मैं विवेकहीन और भक्तिशून्य कैसे तुमपर दोष लगा सकता हूँ?)॥ ४॥ हे हरे! मैं सब प्रकार कठोर हूँ, पर तुम तो कोमल स्वभाववाले हो; मैंने अपने मनमें यह निश्चयरूपसे विचार कर लिया है कि हे प्रभो! इस तुलसीदासकी मोहरूपी बेड़ी तुम्हारे ही छुड़ानेसे छूट सकेगी, अन्यथा नहीं॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(११५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

माधव! मोह-फाँस क्यों टूटै।
बाहिर कोटि उपाय करिय, अभ्यंतर ग्रन्थि न छूटै॥ १॥
घृतपूरन कराह अंतरगत ससि-प्रतिबिंब दिखावै।
ईंधन अनल लगाय कलपसत, औटत नास न पावै॥ २॥
तरु-कोटर महँ बस बिहंग तरु काटे मरै न जैसे।
साधन करिय बिचार-हीन मन सुद्ध होइ नहिं तैसे॥ ३॥
अंतर मलिन बिषय मन अति, तन पावन करिय पखारे।
मरइ न उरग अनेक जतन बलमीकि बिबिध बिधि मारे॥ ४॥
तुलसिदास हरि-गुरु-करुना बिनु बिमल बिबेक न होई।
बिनु बिबेक संसार-घोर-निधि पार न पावै कोई॥ ५॥

मूल

माधव! मोह-फाँस क्यों टूटै।
बाहिर कोटि उपाय करिय, अभ्यंतर ग्रन्थि न छूटै॥ १॥
घृतपूरन कराह अंतरगत ससि-प्रतिबिंब दिखावै।
ईंधन अनल लगाय कलपसत, औटत नास न पावै॥ २॥
तरु-कोटर महँ बस बिहंग तरु काटे मरै न जैसे।
साधन करिय बिचार-हीन मन सुद्ध होइ नहिं तैसे॥ ३॥
अंतर मलिन बिषय मन अति, तन पावन करिय पखारे।
मरइ न उरग अनेक जतन बलमीकि बिबिध बिधि मारे॥ ४॥
तुलसिदास हरि-गुरु-करुना बिनु बिमल बिबेक न होई।
बिनु बिबेक संसार-घोर-निधि पार न पावै कोई॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे माधव! मेरी यह मोहकी फाँसी कैसे टूटेगी? बाहरसे चाहे करोड़ों साधन क्यों न किये जायँ, उनसे भीतरकी (अज्ञानकी) गाँठ नहीं छूट सकती॥ १॥ घीसे भरे हुए कड़ाहमें जो चन्द्रमाकी परछाईं दिखायी देती है, वह (जबतक घी रहेगा तबतक) सौ कल्पतक ईंधन और आग लगाकर औटानेसे भी नष्ट नहीं हो सकती। (इसी प्रकार जबतक मोह रहेगा तबतक यह आवागमनकी फाँसी भी रहेगी)॥ २॥ जैसे किसी पेड़के कोटरमें कोई पक्षी रहता हो, वह उस पेड़के काट डालनेसे नहीं मर सकता, उसी प्रकार बाहरसे कितने ही साधन क्यों न किये जायँ, पर बिना विवेकके यह मन कभी शुद्ध होकर एकाग्र नहीं हो सकता॥ ३॥ जैसे साँपके बिलपर अनेक प्रकारसे मारनेपर और बाहरसे अन्य उपायोंके करनेपर भी उसमें रहनेवाला साँप नहीं मरता, वैसे ही शरीरको खूब मल-मलकर धोनेसे विषयोंके कारण मलिन हुआ मन भीतरसे कभी पवित्र नहीं हो सकता॥ ४॥ हे तुलसीदास! भगवान् और गुरुकी दयाके बिना संशयशून्य विवेक नहीं होता और विवेक हुए बिना इस घोर संसारसागरसे कोई पार नहीं जा सकता॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(११६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

माधव! असि तुम्हारि यह माया।
करि उपाय पचि मरिय, तरिय नहिं, जब लगि करहु न दाया॥ १॥
सुनिय, गुनिय, समुझिय, समुझाइय, दसा हृदय नहिं आवै।
जेहि अनुभव बिनु मोहजनित भव दारुन बिपति सतावै॥ २॥
ब्रह्म-पियूष मधुर सीतल जो पै मन सो रस पावै।
तौ कत मृगजल-रूप बिषय कारन निसि-बासर धावै॥ ३॥
जेहिके भवन बिमल चिंतामनि, सो कत काँच बटोरै।
सपने परबस परै, जागि देखत केहि जाइ निहोरै॥ ४॥
ग्यान-भगति साधन अनेक, सब सत्य, झूँठ कछु नाहीं।
तुलसिदास हरि-कृपा मिटै भ्रम, यह भरोस मनमाहीं॥ ५॥

मूल

माधव! असि तुम्हारि यह माया।
करि उपाय पचि मरिय, तरिय नहिं, जब लगि करहु न दाया॥ १॥
सुनिय, गुनिय, समुझिय, समुझाइय, दसा हृदय नहिं आवै।
जेहि अनुभव बिनु मोहजनित भव दारुन बिपति सतावै॥ २॥
ब्रह्म-पियूष मधुर सीतल जो पै मन सो रस पावै।
तौ कत मृगजल-रूप बिषय कारन निसि-बासर धावै॥ ३॥
जेहिके भवन बिमल चिंतामनि, सो कत काँच बटोरै।
सपने परबस परै, जागि देखत केहि जाइ निहोरै॥ ४॥
ग्यान-भगति साधन अनेक, सब सत्य, झूँठ कछु नाहीं।
तुलसिदास हरि-कृपा मिटै भ्रम, यह भरोस मनमाहीं॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे माधव! तुम्हारी यह माया ऐसी (दुस्तर) है कि कितने ही उपाय करके पच मरो, पर जबतक तुम दया नहीं करते तबतक इससे पार पा जाना असम्भव ही है॥ १॥ सुनता हूँ, विचारता हूँ, समझता हूँ तथा दूसरोंको समझाता हूँ, पर तुम्हारी इस मायाका यथार्थ रहस्य समझमें नहीं आता और जबतक इसके वास्तविक रहस्यका अनुभव नहीं होता, तबतक मोहजनित संसारकी महान् विपत्तियाँ दुःख देती ही रहेंगी॥ २॥ ब्रह्मामृत बड़ा ही मधुर और शान्तिकर है, यदि मनको वह अमृतरस कहीं चखनेको मिल जाय, तो फिर यह विषयरूपी झूठे मृगजलके लिये क्यों रात-दिन भटकता फिरे॥ ३॥ जिसके घरमें ही निर्मल चिन्तामणि विद्यमान है, वह काँच क्यों बटोरेगा? भाव यह कि जिसे ब्रह्मानन्द प्राप्त हो गया, वह मायिक विषयानन्दकी ओर क्यों ताकने लगा? जैसे कोई सपनेमें किसीके पराधीन हो जाय और (छूटनेके लिये उससे) विनय करे, पर जब जाग जाय तब वह किससे क्यों निहोरा करेगा?॥ ४॥ ज्ञान, भक्ति आदि अनेक साधन हैं और सभी सच्चे हैं, इनमें झूठ एक भी नहीं। परन्तु तुलसीदासके मनमें तो इसी बातका भरोसा है कि अज्ञानका नाश केवल श्रीहरि-कृपासे ही हो सकता है। अर्थात् भगवत्कृपा ही परम साधन है और वह सब जीवोंपर है ही, केवल उसपर भरोसा या परम विश्वास करना चाहिये॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(११७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै।
जेहि उपाय सपनेहुँ दुरलभ गति, सोइ निसि-बासर कीजै॥ १॥
जानत अर्थ अनर्थ-रूप, तमकूप परब यहि लागे।
तदपि न तजत स्वान अज खर ज्यों, फिरत बिषय अनुरागे॥ २॥
भूत-द्रोह कृत मोह-बस्य हित आपन मैं न बिचारो।
मद-मत्सर-अभिमान ग्यान-रिपु, इन महँ रहनि अपारो॥ ३॥
बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जगब्यापी।
बेधत नहिं श्रीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी॥ ४॥
मैं अपराध-सिंधु करुनाकर! जानत अंतरजामी।
तुलसिदास भव-ब्याल-ग्रसित तव सरन उरग-रिपु-गामी॥ ५॥

मूल

हे हरि! कवन दोष तोहिं दीजै।
जेहि उपाय सपनेहुँ दुरलभ गति, सोइ निसि-बासर कीजै॥ १॥
जानत अर्थ अनर्थ-रूप, तमकूप परब यहि लागे।
तदपि न तजत स्वान अज खर ज्यों, फिरत बिषय अनुरागे॥ २॥
भूत-द्रोह कृत मोह-बस्य हित आपन मैं न बिचारो।
मद-मत्सर-अभिमान ग्यान-रिपु, इन महँ रहनि अपारो॥ ३॥
बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जगब्यापी।
बेधत नहिं श्रीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी॥ ४॥
मैं अपराध-सिंधु करुनाकर! जानत अंतरजामी।
तुलसिदास भव-ब्याल-ग्रसित तव सरन उरग-रिपु-गामी॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे हरे! तुम्हें क्या दोष दूँ? (क्योंकि दोष तो सब मेरा ही है) जिन उपायोंसे स्वप्नमें भी मोक्ष मिलना दुर्लभ है, मैं दिन-रात वही किया करता हूँ॥ १॥ जानता हूँ कि इन्द्रियोंके भोग सर्वथा अनर्थरूप हैं, इनमें फँसकर अज्ञानरूपी अँधेरे कुएँमें गिरना होगा, फिर भी मैं विषयोंमें आसक्त होकर कुत्ते, बकरे और गधेकी भाँति इन्हींके पीछे भटकता हूँ॥ २॥ अज्ञानवश जीवोंके साथ द्रोह करता हूँ और अपना हित नहीं सोचता। मद, ईर्ष्या, अहंकार आदि जो ज्ञानके शत्रु हैं, उन्हींमें मैं सदा रचा-पचा रहता हूँ! (बताइये मुझ-सरीखा नीच और कौन होगा?)॥ ३॥ वेदों और पुराणोंमें सुनता हूँ तथा समझता हूँ कि श्रीरामजी ही समस्त संसारमें रम रहे हैं, परन्तु मेरे विवेकहीन पापी मनमें यह बात वैसे ही नहीं समाती, जैसे चन्दनकी सुगन्ध बिना गूदेके साररहित बाँसमें नहीं जाती॥ ४॥ हे करुणाकी खानि! मैं तो अपार अपराधोंका समुद्र हूँ—तुम अन्तर्यामी सब कुछ जानते हो। अतएव हे गरुड़गामी! संसाररूपी सर्पसे डँसा हुआ यह तुलसीदास तुम्हारी शरणमें पड़ा है। (इसे बचाओ, यह संसाररूपी साँप तुम्हारे वाहन गरुड़को देखते ही भयसे भाग जायगा, तुम एक बार इधर आओ तो सही)॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(११८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे हरि! कवन जतन सुख मानहु।
ज्यों गज-दसन तथा मम करनी, सब प्रकार तुम जानहु॥ १॥
जो कछु कहिय करिय भवसागर तरिय बच्छपद जैसे।
रहनि आन बिधि, कहिय आन, हरिपद-सुख पाइय कैसे॥ २॥
देखत चारु मयूर बयन सुभ बोलि सुधा इव सानी।
सबिष उरग-आहार, निठुर अस, यह करनी वह बानी॥ ३॥
अखिल-जीव-वत्सल, निरमत्सर, चरन-कमल-अनुरागी।
ते तव प्रिय रघुबीर धीरमति, अतिसय निज-पर-त्यागी॥ ४॥
जद्यपि मम औगुन अपार संसार-जोग्य रघुराया।
तुलसिदास निज गुन बिचारि करुनानिधान करु दाया॥ ५॥

मूल

हे हरि! कवन जतन सुख मानहु।
ज्यों गज-दसन तथा मम करनी, सब प्रकार तुम जानहु॥ १॥
जो कछु कहिय करिय भवसागर तरिय बच्छपद जैसे।
रहनि आन बिधि, कहिय आन, हरिपद-सुख पाइय कैसे॥ २॥
देखत चारु मयूर बयन सुभ बोलि सुधा इव सानी।
सबिष उरग-आहार, निठुर अस, यह करनी वह बानी॥ ३॥
अखिल-जीव-वत्सल, निरमत्सर, चरन-कमल-अनुरागी।
ते तव प्रिय रघुबीर धीरमति, अतिसय निज-पर-त्यागी॥ ४॥
जद्यपि मम औगुन अपार संसार-जोग्य रघुराया।
तुलसिदास निज गुन बिचारि करुनानिधान करु दाया॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे हरे! मैं किस प्रकार सुख मानूँ? मेरी करनी हाथीके दिखावटी दाँतोंके समान है, यह सब तो तुम भलीभाँति जानते ही हो। भाव यह है कि जैसे हाथीके दाँत दिखानेके और तथा खानेके और होते हैं, उसी प्रकार मैं भी दिखाता कुछ और हूँ और करता कुछ और ही हूँ॥ १॥ मैं दूसरोंसे जो कुछ कहता हूँ वैसा ही स्वयं करनेमें भी लगूँ तो भव-सागरसे बछड़ेके पैरभर जलको लाँघ जानेकी भाँति अनायास ही तर जाऊँ। परन्तु करूँ क्या? मेरा आचरण तो कुछ और है और कहता हूँ कुछ और ही। फिर भला तुम्हारे चरणोंका या परमपदका आनन्द कैसे मिले?॥ २॥ मोर देखनेमें तो सुन्दर लगता है और मीठी वाणीसे अमृतसे सने हुए-से वचन बोलता है; किन्तु उसका आहार जहरीला साँप है! कैसा निष्ठुर है! करनी यह और कथनी वह! (यही मेरा हाल है)॥ ३॥ हे रघुवीर! तुमको तो वे ही संत प्यारे हैं, जो समस्त जीवोंसे प्रेम करते हैं, किसीको भी देखकर तनिक भी नहीं जलते, जो तुम्हारे चरणारविन्दोंके प्रेमी हैं, जो धीर-बुद्धि हैं और जो अपने-परायेका भेद बिलकुल ही छोड़ चुके हैं, अर्थात् सबमें एक तुमको ही देखते हैं (फिर मैं इन गुणोंसे हीन तुम्हें कैसे प्रिय लगूँ?)॥ ४॥ हे रघुनाथजी! यद्यपि मुझमें अनन्त अवगुण हैं और मैं संसारमें ही रहने योग्य हूँ, परन्तु तुम करुणानिधान हो, तनिक अपने गुणोंपर विचार करके ही तुलसीदासपर दया करो!॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(११९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै।
देखत, सुनत, बिचारत यह मन, निज सुभाउ नहिं त्यागै॥ १॥
भगति-ग्यान-बैराग्य सकल साधन यहि लागि उपाई।
कोउ भल कहउ, देउ कछु, असि बासना न उरते जाई॥ २॥
जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तव कृपापात्र जन जागै।
निज करनी बिपरीत देखि मोहिं समुझि महा भय लागै॥ ३॥
जद्यपि भग्न-मनोरथ बिधिबस, सुख इच्छत, दुख पावै।
चित्रकार करहीन जथा स्वारथ बिनु चित्र बनावै॥ ४॥
हृषीकेश सुनि नाउँ जाउँ बलि, अति भरोस जिय मोरे।
तुलसिदास इंद्रिय-संभव दुख, हरे बनिहिं प्रभु तोरे॥ ५॥

मूल

हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै।
देखत, सुनत, बिचारत यह मन, निज सुभाउ नहिं त्यागै॥ १॥
भगति-ग्यान-बैराग्य सकल साधन यहि लागि उपाई।
कोउ भल कहउ, देउ कछु, असि बासना न उरते जाई॥ २॥
जेहि निसि सकल जीव सूतहिं तव कृपापात्र जन जागै।
निज करनी बिपरीत देखि मोहिं समुझि महा भय लागै॥ ३॥
जद्यपि भग्न-मनोरथ बिधिबस, सुख इच्छत, दुख पावै।
चित्रकार करहीन जथा स्वारथ बिनु चित्र बनावै॥ ४॥
हृषीकेश सुनि नाउँ जाउँ बलि, अति भरोस जिय मोरे।
तुलसिदास इंद्रिय-संभव दुख, हरे बनिहिं प्रभु तोरे॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे हरे! मेरा यह (संसारको सत्, नित्य पवित्र और सुखरूप माननेका) भ्रम किस उपायसे दूर होगा? देखता है, सुनता है, सोचता है, फिर भी मेरा यह मन अपने स्वभावको नहीं छोड़ता। (और संसारको सत्य सुखरूप मानकर बार-बार विषयोंमें फँसता है)॥ १॥ भक्ति, ज्ञान, वैराग्य आदि सभी साधन इस मनको शान्त करनेके उपाय हैं, परन्तु मेरे हृदयसे तो यही वासना कभी नहीं जाती कि ‘कोई मुझे अच्छा कहे’ अथवा ‘मुझे कुछ दे।’ (ज्ञान, भक्ति, वैराग्यके साधकोंके मनमें भी प्रायः बड़ाई और धन-मान पानेकी वासना बनी ही रहती है)॥ २॥ जिस (संसाररूपी) रातमें सब जीव सोते हैं उसमें केवल आपका कृपापात्र जन जागता है। किन्तु मुझे तो अपनी करनीको बिलकुल ही विपरीत देखकर बड़ा भारी भय लग रहा है॥ ३॥ यद्यपि दैववश—प्रारब्धवश मनुष्यके सारे मनोरथ नष्ट हो जाते हैं, सांसारिक सुख उसके भाग्यमें (पूर्व सुकृतिके अभावसे) लिखे ही नहीं गये। तथापि वह सुखोंकी इच्छामात्र कर वैसे ही दुःख पाता है जैसे कोई बिना हाथका चित्रकार (केवल मनःकल्पित) चित्रोंसे अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है और भग्नमनोरथ होकर दुःख पाता है (उसी प्रकार मैं भी भजनसाधनरूप सुकृत किये बिना ही यों ही सुख चाहता हूँ)॥ ४॥ आपका हृषीकेश (इन्द्रियोंके स्वामी) नाम सुनकर मैं आपकी बलैया लेता हूँ। मेरे मनमें आपका अत्यन्त भरोसा है। तुलसीदासका इन्द्रियजन्य दुःख आपको अवश्य नष्ट करना ही पड़ेगा॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१२०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे हरि! कस न हरहु भ्रम भारी।
जद्यपि मृषा सत्य भासै जबलगि नहिं कृपा तुम्हारी॥ १॥
अर्थ अबिद्यमान जानिय संसृति नहिं जाइ गोसाईं।
बिन बाँधे निज हठ सठ परबस परॺो कीरकी नाईं॥ २॥
सपने ब्याधि बिबिध बाधा जनु मृत्यु उपस्थित आई।
बैद अनेक उपाय करै जागे बिनु पीर न जाई॥ ३॥
श्रुति-गुरु-साधु-समृति-संमत यह दृश्य असत दुखकारी।
तेहि बिनु तजे, भजे बिनु रघुपति, बिपति सकै को टारी॥ ४॥
बहु उपाय संसार-तरन कहँ, बिमल गिरा श्रुति गावै।
तुलसिदास मैं-मोर गये बिनु जिउ सुख कबहुँ न पावै॥ ५॥

मूल

हे हरि! कस न हरहु भ्रम भारी।
जद्यपि मृषा सत्य भासै जबलगि नहिं कृपा तुम्हारी॥ १॥
अर्थ अबिद्यमान जानिय संसृति नहिं जाइ गोसाईं।
बिन बाँधे निज हठ सठ परबस परॺो कीरकी नाईं॥ २॥
सपने ब्याधि बिबिध बाधा जनु मृत्यु उपस्थित आई।
बैद अनेक उपाय करै जागे बिनु पीर न जाई॥ ३॥
श्रुति-गुरु-साधु-समृति-संमत यह दृश्य असत दुखकारी।
तेहि बिनु तजे, भजे बिनु रघुपति, बिपति सकै को टारी॥ ४॥
बहु उपाय संसार-तरन कहँ, बिमल गिरा श्रुति गावै।
तुलसिदास मैं-मोर गये बिनु जिउ सुख कबहुँ न पावै॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे हरे! मेरे इस (संसारको सत्य और सुखरूप आदि माननेके) भारी भ्रमको क्यों दूर नहीं करते? यद्यपि यह संसार मिथ्या है, असत् है, तथापि जबतक आपकी कृपा नहीं होती, तबतक तो यह सत्य-सा ही भासता है॥ १॥ मैं यह जानता हूँ कि (शरीर-धन-पुत्रादि) विषय यथार्थमें नहीं है, किन्तु हे स्वामी! इतनेपर भी इस संसारसे छुटकारा नहीं पाता। मैं किसी दूसरे द्वारा बाँधे बिना ही अपने ही हठ (मोह)-से तोतेकी तरह परवश बँधा पड़ा हूँ (स्वयं अपने ही अज्ञानसे बँध-सा गया हूँ)॥ २॥ जैसे किसीको स्वप्नमें अनेक प्रकारके रोग हो जायँ जिनसे मानो उसकी मृत्यु ही आ जाय और बाहरसे वैद्य अनेक उपाय करते रहें, परन्तु जबतक वह जागता नहीं तबतक उसकी पीड़ा नहीं मिटती (इसी प्रकार मायाके भ्रममें पड़कर लोग बिना ही हुए संसारकी अनेक पीड़ा भोग रहे हैं और उन्हें दूर करनेके लिये मिथ्या उपाय कर रहे हैं, पर तत्त्वज्ञानके बिना कभी इन पीड़ाओंसे छुटकारा नहीं मिल सकता)॥ ३॥ वेद, गुरु, संत और स्मृतियाँ—सभी एक स्वरसे कहते हैं कि यह दृश्यमान जगत् असत् है (और काल्पनिक सत्ता मान लेनेपर) दुःखरूप है। जबतक इसे त्यागकर श्रीरघुनाथजीका भजन नहीं किया जाता तबतक ऐसी किसकी शक्ति है जो इस विपत्तिका नाश कर सके?॥ ४॥ वेद निर्मल वाणीसे संसारसागरसे पार होनेके अनेक उपाय बतला रहे हैं, किन्तु हे तुलसीदास! जबतक ‘मैं’ और ‘मेरा’ दूर नहीं हो जाता—अहंता-ममता नहीं मिट जाती, तबतक जीव कभी सुख नहीं पा सकता॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१२१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

हे हरि! यह भ्रमकी अधिकाई।
देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई॥ १॥
जो जग मृषा ताप-त्रय-अनुभव होइ कहहु केहि लेखे।
कहि न जाय मृगबारि सत्य, भ्रम ते दुख होइ बिसेखे॥ २॥
सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागै।
कोटिहुँ नाव न पार पाव सो, जब लगि आपु न जागै॥ ३॥
अनबिचार रमनीय सदा, संसार भयंकर भारी।
सम-संतोष-दया-बिबेक तें, ब्यवहारी सुखकारी॥ ४॥
तुलसिदास सब बिधि प्रपंच जग, जदपि झूठ श्रुति गावै।
रघुपति-भगति, संत-संगति बिनु, को भव-त्रास नसावै॥ ५॥

मूल

हे हरि! यह भ्रमकी अधिकाई।
देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई॥ १॥
जो जग मृषा ताप-त्रय-अनुभव होइ कहहु केहि लेखे।
कहि न जाय मृगबारि सत्य, भ्रम ते दुख होइ बिसेखे॥ २॥
सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागै।
कोटिहुँ नाव न पार पाव सो, जब लगि आपु न जागै॥ ३॥
अनबिचार रमनीय सदा, संसार भयंकर भारी।
सम-संतोष-दया-बिबेक तें, ब्यवहारी सुखकारी॥ ४॥
तुलसिदास सब बिधि प्रपंच जग, जदपि झूठ श्रुति गावै।
रघुपति-भगति, संत-संगति बिनु, को भव-त्रास नसावै॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे हरे! यह भ्रमकी ही अधिकता है कि देखने, सुनने, कहने और समझनेपर भी न तो संशय (असत्य जगत् को सत्य मानना) ही जाता है और न (एक परमात्माकी ही अखण्ड सत्ता है या कुछ और भी है—ऐसा) सन्देह ही दूर होता है॥ १॥ (कोई कहे कि) यदि संसार असत्य है, तो फिर तीनों तापोंका अनुभव किस कारणसे होता है? (संसार असत्य है तो संसारके ताप भी असत्य हैं, परन्तु तापोंका अनुभव तो सत्य प्रतीत होता है।) (इसका उत्तर यह है कि) मृगतृष्णाका जल सत्य नहीं कहा जा सकता, परन्तु जबतक भ्रम है, तबतक वह सत्य ही दीखता है और इसी भ्रमके कारण विशेष दुःख होता है। इसी प्रकार जगत् में भी भ्रमवश दुःखोंका अनुभव होता है॥ २॥ जैसे कोई सुन्दर सेजपर सोया हुआ मनुष्य सपनेमें समुद्रमें डूबनेसे भयभीत हो रहा हो पर जबतक वह स्वयं जाग नहीं जाता, तबतक करोड़ों नौकाओंद्वारा भी वह पार नहीं जा सकता। उसी प्रकार यह जीव अज्ञाननिद्रामें अचेत हुआ संसार-सागरमें डूब रहा है, परमात्माके तत्त्वज्ञानमें जागे बिना सहस्रों साधनोंद्वारा भी यह दुःखोंसे मुक्त नहीं हो सकता॥ ३॥ यह अत्यन्त भयानक संसार अज्ञानके कारण ही मनोरम दिखायी देता है। अवश्य ही उनके लिये यह संसार सुखकारी हो सकता है जो सम, सन्तोष, दया और विवेकसे युक्त व्यवहार करते हैं॥ ४॥ हे तुलसीदास! वेद कह रहे हैं कि यद्यपि सांसारिक प्रपंच सब प्रकारसे असत्य है, किन्तु रघुनाथजीकी भक्ति और संतोंकी संगतिके बिना किसमें सामर्थ्य है जो इस संसारके भीषण भयका नाश कर सके, इस भ्रमसे छुड़ा सके॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१२२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैं हरि, साधन करइ न जानी।
जस आमय भेषज न कीन्ह तस, दोष कहा दिरमानी॥ १॥
सपने नृप कहँ घटै बिप्र-बध, बिकल फिरै अघ लागे।
बाजिमेध सत कोटि करै नहिं सुद्ध होइ बिनु जागे॥ २॥
स्रग महँ सर्प बिपुल भयदायक, प्रगट होइ अबिचारे।
बहु आयुध धरि, बल अनेक करि हारहिं, मरइ न मारे॥ ३॥
निज भ्रम ते रबिकर-सम्भव सागर अति भय उपजावै।
अवगाहत बोहित नौका चढ़ि कबहूँ पार न पावै॥ ४॥
तुलसिदास जग आपु सहित जब लगि निरमूल न जाई।
तब लगि कोटि कलप उपाय करि मरिय, तरिय नहिं भाई॥ ५॥

मूल

मैं हरि, साधन करइ न जानी।
जस आमय भेषज न कीन्ह तस, दोष कहा दिरमानी॥ १॥
सपने नृप कहँ घटै बिप्र-बध, बिकल फिरै अघ लागे।
बाजिमेध सत कोटि करै नहिं सुद्ध होइ बिनु जागे॥ २॥
स्रग महँ सर्प बिपुल भयदायक, प्रगट होइ अबिचारे।
बहु आयुध धरि, बल अनेक करि हारहिं, मरइ न मारे॥ ३॥
निज भ्रम ते रबिकर-सम्भव सागर अति भय उपजावै।
अवगाहत बोहित नौका चढ़ि कबहूँ पार न पावै॥ ४॥
तुलसिदास जग आपु सहित जब लगि निरमूल न जाई।
तब लगि कोटि कलप उपाय करि मरिय, तरिय नहिं भाई॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे हरे! मैंने (अज्ञानके नाशके लिये) साधन करना नहीं जाना। जैसा रोग था वैसी दवा नहीं की। इसमें इलाजका क्या दोष है?॥ १॥ जैसे सपनेमें किसी राजाको ब्रह्महत्याका दोष लग जाय और वह उस महापापके कारण व्याकुल हुआ जहाँ-तहाँ भटकता फिरे, परन्तु जबतक वह जागेगा नहीं तबतक सौ करोड़ अश्वमेधयज्ञ करनेपर भी वह शुद्ध नहीं होगा, वैसे ही तत्त्वज्ञानके बिना अज्ञानजनित पापोंसे छुटकारा नहीं मिलता॥ २॥ जैसे अज्ञानके कारण मालामें महान् भयावने सर्पका भ्रम हो जाता है और वह (मिथ्या सर्पका भ्रम न मिटनेतक) अनेक हथियारोंके द्वारा बलसे मारते-मारते थक जानेपर भी नहीं मरता, साँप होता तो हथियारोंसे मरता; इसी प्रकार यह अज्ञानसे भासनेवाला संसार भी ज्ञान हुए बिना बाहरी साधनोंसे नष्ट नहीं होता॥ ३॥ जैसे अपने ही भ्रमसे सूर्यकी किरणोंसे उत्पन्न हुआ (मृगतृष्णाका) समुद्र बड़ा ही भयावना लगता है और उस (मिथ्यासागर)-में डूबा हुआ मनुष्य बाहरी जहाज या नावपर चढ़नेसे पार नहीं पा सकता (यही हाल इस अज्ञानसे उत्पन्न संसार-सागरका है)॥ ४॥ तुलसीदास कहते हैं, जबतक ‘मैं’-पनसहित संसारका निर्मूल नाश नहीं होगा, तबतक हे भाइयो! करोड़ों यत्न कर-करके मर भले ही जाओ, पर इस संसार-सागरसे पार नहीं पा सकोगे॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१२३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कछु समुझि परत रघुराया!
बिनु तव कृपा दयालु! दास-हित! मोह न छूटै माया॥ १॥
बाक्य-ग्यान अत्यंत निपुन भव-पार न पावै कोई।
निसि गृहमध्य दीपकी बातन्ह, तम निबृत्त नहिं होई॥ २॥
जैसे कोइ इक दीन दुखित अति असन-हीन दुख पावै।
चित्र कलपतरु कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै॥ ३॥
षटरस बहुप्रकार भोजन कोउ, दिन अरु रैनि बखानै।
बिनु बोले संतोष-जनित सुख खाइ सोइ पै जानै॥ ४॥
जबलगि नहिं निज हृदि प्रकास, अरु बिषय-आस मनमाहीं।
तुलसिदास तबलगि जग-जोनि भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं॥ ५॥

मूल

अस कछु समुझि परत रघुराया!
बिनु तव कृपा दयालु! दास-हित! मोह न छूटै माया॥ १॥
बाक्य-ग्यान अत्यंत निपुन भव-पार न पावै कोई।
निसि गृहमध्य दीपकी बातन्ह, तम निबृत्त नहिं होई॥ २॥
जैसे कोइ इक दीन दुखित अति असन-हीन दुख पावै।
चित्र कलपतरु कामधेनु गृह लिखे न बिपति नसावै॥ ३॥
षटरस बहुप्रकार भोजन कोउ, दिन अरु रैनि बखानै।
बिनु बोले संतोष-जनित सुख खाइ सोइ पै जानै॥ ४॥
जबलगि नहिं निज हृदि प्रकास, अरु बिषय-आस मनमाहीं।
तुलसिदास तबलगि जग-जोनि भ्रमत सपनेहुँ सुख नाहीं॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रघुनाथजी! मुझे कुछ ऐसा समझ पड़ता है कि हे दयालु! हे सेवक-हितकारी! तुम्हारी कृपाके बिना न तो मोह ही दूर हो सकता है और न माया ही छूटती है॥ १॥ जैसे रातके समय घरमें केवल दीपककी बातें करनेसे अँधेरा दूर नहीं होता, वैसे ही कोई वाचक ज्ञानमें कितना ही निपुण क्यों न हो, संसार-सागरको पार नहीं कर सकता॥ २॥ जैसे कोई एक दीन, दुःखिया, भोजनके अभावमें भूखके मारे दुःख पा रहा हो और कोई उसके घरमें कल्पवृक्ष तथा कामधेनुके चित्र लिख-लिखकर उसकी विपत्ति दूर करना चाहे तो कभी दूर नहीं हो सकती। वैसे ही केवल शास्त्रोंकी बातोंसे ही मोह नहीं मिटता॥ ३॥ कोई मनुष्य रात-दिन अनेक प्रकारके षट्-रस भोजनोंपर व्याख्यान देता रहे; तथापि भोजन करनेपर भूखकी निवृत्ति होनेसे जो सन्तुष्टि होती है उसके सुखको तो वही जानता है जिसने बिना ही कुछ बोले वास्तवमें भोजन कर लिया है। (इसी प्रकार कोरी व्याख्यानबाजीसे कुछ नहीं होता, करनेपर कार्य-सिद्धि होती है)॥ ४॥ जबतक अपने हृदयमें तत्त्व-ज्ञानका प्रकाश नहीं हुआ और मनमें विषयोंकी आशा बनी हुई है, तबतक हे तुलसीदास! इन जगत् की योनियोंमें भटकना ही पड़ेगा, सुख सपनेमें भी नहीं मिलेगा॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१२४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौ निज मन परिहरै बिकारा।
तौ कत द्वैत-जनित संसृति-दुख, संसय, सोक अपारा॥ १॥
सत्रु, मित्र, मध्यस्थ, तीनि ये, मन कीन्हें बरिआईं।
त्यागन, गहन, उपेच्छनीय, अहि, हाटक तृनकी नाईं॥ २॥
असन, बसन, पसु बस्तु बिबिध बिधि सब मनि महँ रह जैसे।
सरग, नरक, चर-अचर लोक बहु, बसत मध्य मन तैसे॥ ३॥
बिटप-मध्य पुतरिका, सूत महँ कंचुकि बिनहिं बनाये।
मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अवसर पाये॥ ४॥
रघुपति-भगति-बारि-छालित-चित, बिनु प्रयास ही सूझै।
तुलसिदास कह चिद-बिलास जग बूझत बूझत बूझै॥ ५॥

मूल

जौ निज मन परिहरै बिकारा।
तौ कत द्वैत-जनित संसृति-दुख, संसय, सोक अपारा॥ १॥
सत्रु, मित्र, मध्यस्थ, तीनि ये, मन कीन्हें बरिआईं।
त्यागन, गहन, उपेच्छनीय, अहि, हाटक तृनकी नाईं॥ २॥
असन, बसन, पसु बस्तु बिबिध बिधि सब मनि महँ रह जैसे।
सरग, नरक, चर-अचर लोक बहु, बसत मध्य मन तैसे॥ ३॥
बिटप-मध्य पुतरिका, सूत महँ कंचुकि बिनहिं बनाये।
मन महँ तथा लीन नाना तनु, प्रगटत अवसर पाये॥ ४॥
रघुपति-भगति-बारि-छालित-चित, बिनु प्रयास ही सूझै।
तुलसिदास कह चिद-बिलास जग बूझत बूझत बूझै॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि हमारा मन विकारोंको छोड़ दे, तो फिर द्वैतभावसे उत्पन्न संसारी दुःख, भ्रम और अपार शोक क्यों हो? (यह सब मनके विकारोंके कारण ही तो होते हैं)॥ १॥ शत्रु, मित्र और उदासीन इन तीनोंकी मनने ही हठसे कल्पना कर रखी है। शत्रुको साँपके समान त्याग देना चाहिये, मित्रको सुवर्णकी तरह ग्रहण करना चाहिये और उदासीनकी तृणकी तरह उपेक्षा कर देनी चाहिये। ये सब मनकी ही कल्पनाएँ हैं॥ २॥ जैसे (बहुमूल्य) मणिमें भोजन, वस्त्र, पशु और अनेक प्रकारकी चीजें रहती हैं वैसे ही स्वर्ग, नरक, चर, अचर और बहुत-से लोक इस मनमें रहते हैं। भाव यह कि छोटी-सी मणिके मोलसे जो चाहे सो खाने, पीने, पहननेकी चीजें खरीदी जा सकती हैं, वैसे ही इस मनके प्रतापसे जीव स्वर्ग-नरकादिमें जा सकता है॥ ३॥ जैसे पेड़के बीचमें कठपुतली और सूतमें वस्त्र, बिना बनाये ही सदा रहते हैं, उसी प्रकार इस मनमें भी अनेक प्रकारके शरीर लीन रहते हैं, जो समय पाकर प्रकट हो जाते हैं॥ ४॥ इस मनके विकार कब छूटेंगे, जब श्रीरघुनाथजीकी भक्तिरूपी जलसे धुलकर चित्त निर्मल हो जायगा, तब अनायास ही सत्यरूप परमात्मा दिखलायी देंगे। किन्तु तुलसीदास कहते हैं, इस चैतन्यके विलासरूप जगत् का सत्य तत्त्व परमात्मा समझते-समझते ही समझमें आवेगा॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१२५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैं केहि कहौं बिपति अति भारी।
श्रीरघुबीर धीर हितकारी॥ १॥
मम हृदय भवन प्रभु तोरा।
तहँ बसे आइ बहु चोरा॥ २॥
अति कठिन करहिं बरजोरा।
मानहिं नहिं बिनय निहोरा॥ ३॥
तम, मोह, लोभ, अहँकारा।
मद, क्रोध, बोध-रिपु मारा॥ ४॥
अति करहिं उपद्रव नाथा।
मरदहिं मोहि जानि अनाथा॥ ५॥
मैं एक, अमित बटपारा।
कोउ सुनै न मोर पुकारा॥ ६॥
भागेहु नहिं नाथ! उबारा।
रघुनायक, करहुँ सँभारा॥ ७॥
कह तुलसिदास सुनु रामा।
लूटहिं तसकर तव धामा॥ ८॥
चिंता यह मोहिं अपारा।
अपजस नहिं होइ तुम्हारा॥ ९॥

मूल

मैं केहि कहौं बिपति अति भारी।
श्रीरघुबीर धीर हितकारी॥ १॥
मम हृदय भवन प्रभु तोरा।
तहँ बसे आइ बहु चोरा॥ २॥
अति कठिन करहिं बरजोरा।
मानहिं नहिं बिनय निहोरा॥ ३॥
तम, मोह, लोभ, अहँकारा।
मद, क्रोध, बोध-रिपु मारा॥ ४॥
अति करहिं उपद्रव नाथा।
मरदहिं मोहि जानि अनाथा॥ ५॥
मैं एक, अमित बटपारा।
कोउ सुनै न मोर पुकारा॥ ६॥
भागेहु नहिं नाथ! उबारा।
रघुनायक, करहुँ सँभारा॥ ७॥
कह तुलसिदास सुनु रामा।
लूटहिं तसकर तव धामा॥ ८॥
चिंता यह मोहिं अपारा।
अपजस नहिं होइ तुम्हारा॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रघुनाथजी! हे धैर्यवान्! (बिना ही उकताये) हित करनेवाले मैं तुम्हें छोड़कर, अपनी दारुण विपत्ति और किसे सुनाऊँ?॥ १॥ हे नाथ! मेरा हृदय है तो तुम्हारा निवास-स्थान, परन्तु आजकल उसमें बस गये हैं आकर बहुत-से चोर! तुम्हारे मन्दिरमें चोरोंने घर कर लिया है॥ २॥ (मैं उन्हें निकालना चाहता हूँ, परन्तु वे लोग बड़े ही कठोर हृदय हैं) सदा जबरदस्ती ही करते रहते हैं। मेरी विनती-निहोरा कुछ भी नहीं मानते॥ ३॥ इन चोरोंमें प्रधान सात हैं—अज्ञान, मोह, लोभ, अहंकार, मद, क्रोध और ज्ञानका शत्रु काम॥ ४॥ हे नाथ! ये सब बड़ा ही उपद्रव कर रहे हैं, मुझे अनाथ जानकर कुचले डालते हैं॥ ५॥ मैं अकेला हूँ और ये उपद्रवी चोर अपार हैं। कोई मेरी पुकारतक नहीं सुनता॥ ६॥ हे नाथ! भाग जाऊँ तो भी इनसे पिण्ड छूटना कठिन है, क्योंकि ये पीछे लगे ही रहते हैं। अब हे रघुनाथजी! आप ही मेरी रक्षा कीजिये॥ ७॥ तुलसीदास कहता है कि हे राम! इसमें मेरा क्या जाता है, चोर तुम्हारे ही घरको लूट रहे हैं॥ ८॥ मुझे तो इसी बातकी बड़ी चिन्ता लग रही है कि कहीं तुम्हारी बदनामी न हो जाय (आपका भक्त कहलानेपर भी मेरे हृदयके सात्त्विक रत्नोंको यदि काम, क्रोध आदि डाकू लूट ले जायँगे तो इसमें आपकी ही बदनामी होगी। अतएव इस अपने घरकी आप ही सँभाल कीजिये)॥ ९॥

विषय (हिन्दी)

(१२६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन मेरे, मानहि सिख मेरी।
जो निजु भगति चहै हरि केरी॥ १॥
उर आनहि प्रभु-कृत हित जेते।
सेवहि ते जे अपनपौ चेते॥ २॥
दुख-सुख अरु अपमान-बड़ाई।
सब सम लेखहि बिपति बिहाई॥ ३॥
सुनु सठ काल-ग्रसित यह देही।
जनि तेहि लागि बिदूषहि केही॥ ४॥
तुलसिदास बिनु असि मति आये।
मिलहिं न राम कपट लौ लाये॥ ५॥

मूल

मन मेरे, मानहि सिख मेरी।
जो निजु भगति चहै हरि केरी॥ १॥
उर आनहि प्रभु-कृत हित जेते।
सेवहि ते जे अपनपौ चेते॥ २॥
दुख-सुख अरु अपमान-बड़ाई।
सब सम लेखहि बिपति बिहाई॥ ३॥
सुनु सठ काल-ग्रसित यह देही।
जनि तेहि लागि बिदूषहि केही॥ ४॥
तुलसिदास बिनु असि मति आये।
मिलहिं न राम कपट लौ लाये॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे मेरे मन! यदि तू अपने हृदयमें भगवान् की शक्ति चाहता है, ते मेरी सीख मान॥ १॥ भगवान् ने (गर्भवाससे लेकर अबतक) तेरे ऊपर जो (अपार) उपकार किये हैं उनको याद कर, और अहंकार छोड़कर, बड़ी सावधानीसे तत्पर होकर उनकी सेवा कर॥ २॥ सुख-दुःख, मान-अपमान, सबको समान समझ; तभी तेरी विपत्ति दूर होगी॥ ३॥ अरे दुष्ट! इस शरीरको तो कालने ग्रस ही रखा है, इसके लिये किसीको दोष मत दे॥ ४॥ तुलसीदास कहता है कि ऐसी बुद्धि हुए बिना, केवल कपट-समाधि लगानेसे श्रीरामजी कभी नहीं मिलते, वे तो सच्चे प्रेमसे ही मिलते हैं॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१२७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैं जानी, हरिपद-रति नाहीं।
सपनेहुँ नहिं बिराग मन माहीं॥ १॥
जे रघुबीर चरन अनुरागे।
तिन्ह सब भोग रोगसम त्यागे॥ २॥
काम-भुजंग डसत जब जाही।
बिषय-नींब कटु लगत न ताही॥ ३॥
असमंजस अस हृदय बिचारी।
बढ़त सोच नित नूतन भारी॥ ४॥
जब कब राम-कृपा दुख जाई।
तुलसिदास नहिं आन उपाई॥ ५॥

मूल

मैं जानी, हरिपद-रति नाहीं।
सपनेहुँ नहिं बिराग मन माहीं॥ १॥
जे रघुबीर चरन अनुरागे।
तिन्ह सब भोग रोगसम त्यागे॥ २॥
काम-भुजंग डसत जब जाही।
बिषय-नींब कटु लगत न ताही॥ ३॥
असमंजस अस हृदय बिचारी।
बढ़त सोच नित नूतन भारी॥ ४॥
जब कब राम-कृपा दुख जाई।
तुलसिदास नहिं आन उपाई॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मैंने जान लिया है कि श्रीहरिके चरणोंमें मेरा प्रेम नहीं है; क्योंकि सपनेमें भी मेरे मनमें वैराग्य नहीं होता (संसारके भोगोंमें वैराग्य होना ही तो भगवच्चरणोंमें प्रेम होनेकी कसौटी है)॥ १॥ जिनका श्रीरामके चरणोंमें प्रेम है, उन्होंने सारे विषय-भोगोंको रोगकी तरह छोड़ दिया है॥ २॥ जब जिसे कामरूपी साँप डस लेता है, तभी उसे विषयरूपी नीम कड़वी नहीं लगती॥ ३॥ ऐसा विचारकर हृदयमें बड़ा असमंजस हो रहा है कि क्या करूँ? इसी विचारसे मेरे मनमें नित नया सोच बढ़ता जा रहा है॥ ४॥ हे तुलसीदास! और कोई उपाय नहीं है; जब कभी यह दुःख दूर होगा तो बस श्रीराम-कृपासे ही होगा॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१२८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमिरु सनेह-सहित सीतापति।
रामचरन तजि नहिंन आनि गति॥ १॥
जप, तप, तीरथ, जोग समाधी।
कलिमति बिकल, न कछु निरुपाधी॥ २॥
करतहुँ सुकृत न पाप सिराहीं।
रकतबीज जिमि बाढ़त जाहीं॥ ३॥
हरति एक अघ-असुर-जालिका।
तुलसिदास प्रभु-कृपा-कालिका॥ ४॥

मूल

सुमिरु सनेह-सहित सीतापति।
रामचरन तजि नहिंन आनि गति॥ १॥
जप, तप, तीरथ, जोग समाधी।
कलिमति बिकल, न कछु निरुपाधी॥ २॥
करतहुँ सुकृत न पाप सिराहीं।
रकतबीज जिमि बाढ़त जाहीं॥ ३॥
हरति एक अघ-असुर-जालिका।
तुलसिदास प्रभु-कृपा-कालिका॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—रे मन! प्रेमके साथ श्रीजानकी-वल्लभ रामजीका स्मरण कर। क्योंकि श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंको छोड़कर तुझे और कहीं गति नहीं है॥ १॥ जप, तप, तीर्थ, योगाभ्यास, समाधि आदि साधन हैं; परन्तु कलियुगमें जीवोंकी बुद्धि स्थिर नहीं है इससे इन साधनोंमेंसे कोई भी विघ्नरहित नहीं रहा॥ २॥ आज पुण्य करते भी (बुद्धि ठिकाने न होनेसे) पापोंका नाश नहीं होता। रक्तबीज राक्षसकी भाँति ये पाप तो बढ़ते ही जा रहे हैं। भाव यह है कि बुद्धिकी विकलतासे पापमें पुण्य-बुद्धि और पुण्यमें पाप-बुद्धि हो रही है, इससे पुण्य करते भी पाप ही बढ़ रहे हैं॥ ३॥ हे तुलसीदास! इस पापरूपी राक्षसोंके समूहको नाश तो केवल प्रभुकी कृपारूपी कालिकाजी ही करेंगी। (भगवत्कृपाकी शरण लेनेके सिवा अब अन्य किसी साधनसे काम नहीं निकलेगा)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(१२९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुचिर रसना तू राम राम राम क्यों न रटत।
सुमिरत सुख-सुकृत बढ़त, अघ-अमंगल घटत॥ १॥
बिनु श्रम कलि-कलुषजाल कटु कराल कटत।
दिनकरके उदय जैसे तिमिर-तोम फटत॥ २॥
जोग, जाग, जप, बिराग, तप, सुतीरथ-अटत।
बाँधिबेको भव-गयंद रेनुकी रजु बटत॥ ३॥
परिहरि सुर-मनि सुनाम, गुंजा लखि लटत।
लालच लघु तेरो लखि, तुलसि तोहिं हटत॥ ४॥

मूल

रुचिर रसना तू राम राम राम क्यों न रटत।
सुमिरत सुख-सुकृत बढ़त, अघ-अमंगल घटत॥ १॥
बिनु श्रम कलि-कलुषजाल कटु कराल कटत।
दिनकरके उदय जैसे तिमिर-तोम फटत॥ २॥
जोग, जाग, जप, बिराग, तप, सुतीरथ-अटत।
बाँधिबेको भव-गयंद रेनुकी रजु बटत॥ ३॥
परिहरि सुर-मनि सुनाम, गुंजा लखि लटत।
लालच लघु तेरो लखि, तुलसि तोहिं हटत॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे सुन्दर जीभ! तू राम-राम क्यों नहीं रटती? जिस रामनामके स्मरणसे सुख और पुण्य बढ़ते हैं तथा पाप और अशुभ घटते हैं॥ १॥ रामनाम-स्मरणसे बिना ही परिश्रमके, कलियुगके कटु और भयानक पापोंका जाल वैसे ही कट जाता है, जैसे सूर्यके उदय होनेसे अन्धकारका समूह फट जाता है॥ २॥ रामनामको छोड़कर योग, यज्ञ, जप, तप, वैराग्य और तीर्थाटन करना वैसा ही है जैसे संसाररूपी गजराजके बाँधनेके लिये धूलके कणोंकी रस्सी बटना; अर्थात् जैसे धूलकी रस्सीसे हाथीका बाँधना असम्भव है, वैसे ही रामनामहीन साधनोंसे मनका परमात्मामें लगना असम्भव है॥ ३॥ सुन्दर राम-नामरूपी चिन्तामणि छोड़, तू विषयरूपी घुँघचियोंको देखकर उनपर ललचा रही है, तेरा यह तुच्छ लोभ देखकर ही तुलसी तुझे फटकार रहा है॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(१३०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राम, राम राम, राम राम, जपत।
मंगल-मुद उदित होत, कलि-मल-छल छपत॥ १॥
कहु के लहे फल रसाल, बबुर बीज बपत।
हारहि जनि जनम जाय गाल गूल गपत॥ २॥
काल, करम, गुन, सुभाउ सबके सीस तपत।
राम-नाम-महिमाकी चरचा चले चपत॥ ३॥
साधन बिनु सिद्धि सकल बिकल लोग लपत।
कलिजुग बर बनिज बिपुल, नाम-नगर खपत॥ ४॥
नाम सों प्रतीति-प्रीति हृदय सुथिर थपत।
पावन किये रावन-रिपु तुलसिहु-से अपत॥ ५॥

मूल

राम राम, राम राम, राम राम, जपत।
मंगल-मुद उदित होत, कलि-मल-छल छपत॥ १॥
कहु के लहे फल रसाल, बबुर बीज बपत।
हारहि जनि जनम जाय गाल गूल गपत॥ २॥
काल, करम, गुन, सुभाउ सबके सीस तपत।
राम-नाम-महिमाकी चरचा चले चपत॥ ३॥
साधन बिनु सिद्धि सकल बिकल लोग लपत।
कलिजुग बर बनिज बिपुल, नाम-नगर खपत॥ ४॥
नाम सों प्रतीति-प्रीति हृदय सुथिर थपत।
पावन किये रावन-रिपु तुलसिहु-से अपत॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—राम-नामके जपसे कल्याण और आनन्दका उदय होता है और कलियुगके पाप तथा छल-छिद्र छिप जाते हैं॥ १॥ बबूलका बीज बोकर आजतक किसने आमके फल पाये? अतएव तू व्यर्थ गप्पें मारकर अपने (दुर्लभ मनुष्य) जन्मको नष्ट मत कर (गप्पोंका फल तो दुर्गति ही होगा; इसलिये राम-नाम जप, इसीमें कल्याण है)॥ २॥ काल, कर्म, गुण (सत्त्व, रज और तम) और स्वभाव—ये सभीके सिरोंपर तप रहे हैं, अर्थात् इनके प्रभावसे सभीको दुःख भोगना और कर्म करना पड़ता है; परन्तु श्रीराम-नामकी महिमाकी चर्चा आरम्भ होते ही ये सब दब जाते हैं, इनका कोई प्रभाव नहीं रह जाता (इसलिये राम-नामका जप कर)॥ ३॥ लोग बिना ही साधनोंके सारी सिद्धियाँ पानेके लिये व्याकुल हैं; पर यह कब सम्भव है? हाँ, कलियुगका ढेर-का-ढेर बनिज व्यापार, माल-मत्ता नाम-नगरमें खप जाता है, अर्थात् कलियुगका पापसमूह राम-नामके प्रतापसे नष्ट हो जाता है॥ ४॥ नाममें विश्वास और प्रेम करनेसे हृदय भलीभाँति स्थिर—शान्त हो जाता है। रामजीके नामने रावण-सरीखे शत्रु और तुलसी-सरीखे पतितको भी पावन कर दिया है॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१३१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

पावन प्रेम राम-चरन-कमल जनम लाहु परम।
रामनाम लेत होत, सुलभ सकल धरम॥ १॥
जोग, मख, बिबेक, बिरत, बेद-बिदित करम।
करिबे कहँ कटु कठोर, सुनत मधुर, नरम॥ २॥
तुलसी सुनि, जानि-बूझि, भूलहि जनि भरम।
तेहि प्रभुको होहि, जाहि सब ही की सरम॥ ३॥

मूल

पावन प्रेम राम-चरन-कमल जनम लाहु परम।
रामनाम लेत होत, सुलभ सकल धरम॥ १॥
जोग, मख, बिबेक, बिरत, बेद-बिदित करम।
करिबे कहँ कटु कठोर, सुनत मधुर, नरम॥ २॥
तुलसी सुनि, जानि-बूझि, भूलहि जनि भरम।
तेहि प्रभुको होहि, जाहि सब ही की सरम॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंमें विशुद्ध (निष्काम) प्रेमका होना ही जीवनका परम फल है। राम-नाम लेते ही सारे धर्म सुलभ हो जाते हैं॥ १॥ वैसे तो योग, यज्ञ, विवेक, वैराग्य आदि अनेक कर्म वेदोंमें बतलाये गये हैं, जो सुननेमें तो बड़े ही मधुर और कोमल जान पड़ते हैं, परन्तु करनेमें बड़े ही कटु और कठोर हैं॥ २॥ इसलिये, हे तुलसीदास! सुन और जान-बूझकर इस भ्रममें मत भूल, तू तो उस प्रभुका ही (दास) हो जा, जिसे सबकी लाज है!॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(१३२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम-से प्रीतमकी प्रीति-रहित जीव जाय जियत।
जेहि सुख सुख मानि लेत, सुख सो समुझ कियत॥ १॥
जहँ-जहँ जेहि जोनि जनम महि, पताल, बियत।
तहँ-तहँ तू बिषय-सुखहिं, चहत लहत नियत॥ २॥
कत बिमोह लटॺो फटॺो, गगन मगन सियत।
तुलसी प्रभु-सुजस गाइ, क्यों न सुधा पियत॥ ३॥

मूल

राम-से प्रीतमकी प्रीति-रहित जीव जाय जियत।
जेहि सुख सुख मानि लेत, सुख सो समुझ कियत॥ १॥
जहँ-जहँ जेहि जोनि जनम महि, पताल, बियत।
तहँ-तहँ तू बिषय-सुखहिं, चहत लहत नियत॥ २॥
कत बिमोह लटॺो फटॺो, गगन मगन सियत।
तुलसी प्रभु-सुजस गाइ, क्यों न सुधा पियत॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीराम-सरीखे प्रीतमसे प्रेम न करके यह जीव व्यर्थ ही जीता है; अरे! जिस (विषय-सुख)को तू सुख मान रहा है, तनिक विचार तो कर, वह सुख कितना-सा है?॥ १॥ जहाँ-जहाँ, जिस-जिस योनिमें—पृथ्वी, पाताल और स्वर्गमें तूने जन्म लिया, तहाँ-तहाँ तूने जिस विषय-सुखकी कामना की, वही प्रारब्धके अनुसार तुझे मिला (परन्तु कहीं भी तू परम सुखी तो नहीं हुआ?)॥ २॥ क्यों मोहमें फँसकर फटे आकाशके सीनेमें तल्लीन हो रहा है? भाव यह है कि जैसे आकाशका सीना असम्भव है, वैसे ही सांसारिक विषय-भोगोंमें आनन्द मिलना असम्भव है। इसलिये हे तुलसी! यदि तुझे आनन्दहीकी इच्छा है, तो प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका सुन्दर गुण-गानकर अमृत क्यों नहीं पीता (जिससे अमर होकर आनन्दरूप ही बन जाय।)॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(१३३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

तोसो हौं फिरि फिरि हित, प्रिय, पुनीत सत्य बचन कहत।
सुनि मन, गुनि, समुझि, क्यों न सुगम सुमग गहत॥ १॥
छोटो बड़ो, खोटो खरो, जग जो जहँ रहत।
अपनो अपनेको भलो कहहु, को न चहत॥ २॥
बिधि लगि लघु कीट अवधि सुख सुखी, दुख दहत।
पसु लौं पसुपाल ईस बाँधत छोरत नहत॥ ३॥
बिषय मुद निहार भार सिर काँधे ज्यों बहत।
योंही जिय जानि, मानि सठ! तू साँसति सहत॥ ४॥
पायो केहि घृत बिचारु, हरिन-बारि महत।
तुलसी तकु ताहि सरन, जाते सब लहत॥ ५॥

मूल

तोसो हौं फिरि फिरि हित, प्रिय, पुनीत सत्य बचन कहत।
सुनि मन, गुनि, समुझि, क्यों न सुगम सुमग गहत॥ १॥
छोटो बड़ो, खोटो खरो, जग जो जहँ रहत।
अपनो अपनेको भलो कहहु, को न चहत॥ २॥
बिधि लगि लघु कीट अवधि सुख सुखी, दुख दहत।
पसु लौं पसुपाल ईस बाँधत छोरत नहत॥ ३॥
बिषय मुद निहार भार सिर काँधे ज्यों बहत।
योंही जिय जानि, मानि सठ! तू साँसति सहत॥ ४॥
पायो केहि घृत बिचारु, हरिन-बारि महत।
तुलसी तकु ताहि सरन, जाते सब लहत॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे जीव! मैं तुझसे बार-बार हितकारी, प्रिय, पवित्र और सत्य वचन कहता हूँ, इन्हें सुनकर, मनमें विचारकर और समझकर भी तू सुगम और सुन्दर रास्ता क्यों नहीं पकड़ता? अर्थात् श्रीरामकी शरण क्यों नहीं हो जाता?॥ १॥ छोटा-बड़ा, खोटा-खरा, जो जहाँ संसारमें रहता है, उनमें बता, ऐसा कौन है, जो अपना भला न चाहता हो?॥ २॥ ब्रह्मासे लेकर छोटे-छोटे कीड़ेतक सुखसे सुखी होते हैं और दुःखसे जलते हैं, पशुपालक ग्वालेकी तरह परमात्मा जीवरूपी पशुओंको (अज्ञानसे) बाँधता, (ज्ञानसे) खोलता और उन्हें (कर्मोंमें) जोतता है॥ ३॥ विषयोंके सुखोंको देख। वे तो सिरके बोझेको कन्धेपर रखनेके समान हैं। अर्थात् विषय-सुखमें सुख है ही नहीं, इस तरह मनमें समझकर मान जा। अरे मूर्ख! क्यों कष्ट सह रहा है?॥ ४॥ तनिक विचार तो कर, मृगतृष्णाके जलको मथकर किसने घी पाया है? अर्थात् असत् संसारके काल्पनिक पदार्थोंमें सच्चा सुख कैसे मिल सकता है? हे तुलसी! तू तो उसी प्रभुकी शरणमें जा, जिससे सब कुछ प्राप्त होता है॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१३४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताते हौं बार बार देव! द्वार परि पुकार करत।
आरति, नति, दीनता कहें प्रभु संकट हरत॥ १॥
लोकपाल सोक-बिकल रावन-डर डरत।
का सुनि सकुचे कृपालु नर-सरीर धरत॥ २॥
कौसिक, मुनि-तीय, जनक सोच-अनल जरत।
साधन केहि सीतल भये, सो न समुझि परत॥ ३॥
केवट, खग, सबरि सहज चरनकमल न रत।
सनमुख तोहिं होत नाथ! कुतरु सुफरु फरत॥ ४॥
बंधु-बैर कपि-बिभीषन गुरु गलानि गरत।
सेवा केहि रीझि राम, किये सरिस भरत॥ ५॥
सेवक भयो पवनपूत साहिब अनुहरत।
ताको लिये नाम राम सबको सुढर ढरत॥ ६॥
जाने बिनु राम-रीति पचि पचि जग मरत।
परिहरि छल सरन गये तुलसिहु-से तरत॥ ७॥

मूल

ताते हौं बार बार देव! द्वार परि पुकार करत।
आरति, नति, दीनता कहें प्रभु संकट हरत॥ १॥
लोकपाल सोक-बिकल रावन-डर डरत।
का सुनि सकुचे कृपालु नर-सरीर धरत॥ २॥
कौसिक, मुनि-तीय, जनक सोच-अनल जरत।
साधन केहि सीतल भये, सो न समुझि परत॥ ३॥
केवट, खग, सबरि सहज चरनकमल न रत।
सनमुख तोहिं होत नाथ! कुतरु सुफरु फरत॥ ४॥
बंधु-बैर कपि-बिभीषन गुरु गलानि गरत।
सेवा केहि रीझि राम, किये सरिस भरत॥ ५॥
सेवक भयो पवनपूत साहिब अनुहरत।
ताको लिये नाम राम सबको सुढर ढरत॥ ६॥
जाने बिनु राम-रीति पचि पचि जग मरत।
परिहरि छल सरन गये तुलसिहु-से तरत॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! मैं तुम्हारे इसी स्वभावको जानकर द्वारपर पड़ा हुआ बार-बार पुकार रहा हूँ कि हे प्रभो! तुम दुःख, नम्रता और दीनता सुनाते ही सारे संकट हर लेते हो॥ १॥ जब रावणके भयके मारे इन्द्र, कुबेर आदि लोकपाल डरकर शोकसे व्याकुल हो गये थे, तब हे कृपालु! तुमने क्या सुनकर संकोचसे नरशरीर धारण किया था?॥ २॥ यह समझमें नहीं आता कि जो विश्वामित्र, अहल्या और जनक चिन्ताकी अग्निमें जले जा रहे थे, वे किस साधनसे शीतल हो गये?॥ ३॥ गुह निषाद, पक्षी (जटायु), शबरी आदि स्वभावसे ही तुम्हारे चरण-कमलोंमें रत नहीं थे; किन्तु हे नाथ! तुम्हारे सामने आते ही (इन) बुरे-बुरे वृक्षोंमें भी अच्छे-अच्छे फल फल गये! भाव यह कि निषाद, शबरी आदि पापी भी तुम्हारी शरणागतिसे तर गये॥ ४॥ अपने-अपने भाईके साथ शत्रुता करनेसे सुग्रीव और विभीषण बड़े भारी दुःखसे गले जाते थे। हे रामजी! तुमने किस सेवासे रीझकर उन्हें भरतजीके समान मान लिया॥ ५॥ हनुमान् जी तुम्हारी सेवा करते-करते तुम्हारे ही समान हो गये। हे रामजी! उन (हनुमान् जी) का नाम लेते ही तुम सबपर भलीभाँति प्रसन्न हो जाते हो॥ ६॥ (यह सब क्यों हुआ? दुःख, नम्रता और दीनताके कारण ही तुमने ऐसा किया) इसलिये हे नाथ! तुम्हारी (रीझनेकी) रीति न जाननेके कारण ही जगत् अन्यान्य साधनोंमें पच-पचकर मर रहा है। तुम दुःखियों, नम्रों और दीनोंपर प्रसन्न होते हो यह जानकर जो तुम्हारी शरण हो जाय वह तो तर ही जाता है, क्योंकि कपट छोड़कर तुम्हारी शरणमें जानेसे तुलसी-जैसे जीव भी तो संसार-सागरसे तर गये॥ ७॥

राग सूहो बिलावल

विषय (हिन्दी)

(१३५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम सनेही सों तैं न सनेह कियो।
अगम जो अमरनि हूँ सो तनु तोहिं दियो॥
दियो सुकुल जनम, सरीर सुंदर, हेतु जो फल चारिको।
जो पाइ पंडित परमपद, पावत पुरारि-मुरारिको॥
यह भरतखंड, समीप सुरसरि, थल भलो, संगति भली।
तेरी कुमति कायर! कलप-बल्ली चहति है बिष फल फली॥ १॥


अजहूँ समुझि चित दै सुनु परमारथ।
है हितु सो जगहूँ जाहिते स्वारथ॥
स्वारथहि प्रिय, स्वारथ सो का ते कौन बेद बखानई।
देखु खल, अहि-खेल परिहरि, सो प्रभुहि पहिचानई॥
पितु-मात, गुरु, स्वामी, अपनपौ, तिय, तनय, सेवक, सखा।
प्रिय लगत जाके प्रेमसों, बिनु हेतु हित तैं नहिं लखा॥ २॥


दूरि न सो हितू हेरि हिये ही है।
छलहि छाँड़ि सुमिरे छोहु किये ही है॥
किये छोहु छाया कमल करकी भगतपर भजतहि भजै।
जगदीश, जीवन जीवको, जो साज सब सबको सजै॥
हरिहि हरिता, बिधिहि बिधिता, सिवहि सिवता जो दई।
सोइ जानकी-पति मधुर मूरति, मोदमय मंगल मई॥ ३॥


ठाकुर अतिहि बड़ो, सील, सरल, सुठि।
ध्यान अगम सिवहूँ, भेंटॺो केवट उठि॥
भरि अंक भेंटॺो सजल नचन, सनेह सिथिल सरीर सो।
सुर, सिद्ध, मुनि, कबि कहत कोउ न प्रेमप्रिय रघुबीर सो॥
खग, सबरि, निसिचर, भालु, कपि किये आपु ते बंदित बड़े।
तापर तिन्ह कि सेवा सुमिरि जिय जात जनु सकुचनि गड़े॥ ४॥


स्वामीको सुभाव कह्यो सो जब उर आनिहै।
सोच सकल मिटिहैं, राम भलो मन मानिहैं॥
भलो मानिहैं रघुनाथ जोरि जो हाथ माथो नाइहै।
ततकाल तुलसीदास जीवन-जनमको फल पाइहै॥
जपि नाम करहि प्रनाम, कहि गुन-ग्राम, रामहिं धरि हिये।
बिचरहि अवनि अवनीस-चरनसरोज मन-मधुकर किये॥ ५॥

मूल

राम सनेही सों तैं न सनेह कियो।
अगम जो अमरनि हूँ सो तनु तोहिं दियो॥
दियो सुकुल जनम, सरीर सुंदर, हेतु जो फल चारिको।
जो पाइ पंडित परमपद, पावत पुरारि-मुरारिको॥
यह भरतखंड, समीप सुरसरि, थल भलो, संगति भली।
तेरी कुमति कायर! कलप-बल्ली चहति है बिष फल फली॥ १॥


अजहूँ समुझि चित दै सुनु परमारथ।
है हितु सो जगहूँ जाहिते स्वारथ॥
स्वारथहि प्रिय, स्वारथ सो का ते कौन बेद बखानई।
देखु खल, अहि-खेल परिहरि, सो प्रभुहि पहिचानई॥
पितु-मात, गुरु, स्वामी, अपनपौ, तिय, तनय, सेवक, सखा।
प्रिय लगत जाके प्रेमसों, बिनु हेतु हित तैं नहिं लखा॥ २॥


दूरि न सो हितू हेरि हिये ही है।
छलहि छाँड़ि सुमिरे छोहु किये ही है॥
किये छोहु छाया कमल करकी भगतपर भजतहि भजै।
जगदीश, जीवन जीवको, जो साज सब सबको सजै॥
हरिहि हरिता, बिधिहि बिधिता, सिवहि सिवता जो दई।
सोइ जानकी-पति मधुर मूरति, मोदमय मंगल मई॥ ३॥


ठाकुर अतिहि बड़ो, सील, सरल, सुठि।
ध्यान अगम सिवहूँ, भेंटॺो केवट उठि॥
भरि अंक भेंटॺो सजल नचन, सनेह सिथिल सरीर सो।
सुर, सिद्ध, मुनि, कबि कहत कोउ न प्रेमप्रिय रघुबीर सो॥
खग, सबरि, निसिचर, भालु, कपि किये आपु ते बंदित बड़े।
तापर तिन्ह कि सेवा सुमिरि जिय जात जनु सकुचनि गड़े॥ ४॥


स्वामीको सुभाव कह्यो सो जब उर आनिहै।
सोच सकल मिटिहैं, राम भलो मन मानिहैं॥
भलो मानिहैं रघुनाथ जोरि जो हाथ माथो नाइहै।
ततकाल तुलसीदास जीवन-जनमको फल पाइहै॥
जपि नाम करहि प्रनाम, कहि गुन-ग्राम, रामहिं धरि हिये।
बिचरहि अवनि अवनीस-चरनसरोज मन-मधुकर किये॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे! जिन्होंने तुझे देव-दुर्लभ मनुष्य-शरीर दिया, उन परम प्रेमी श्रीरामजीके साथ तूने प्रेम नहीं किया। उन्होंने ऐसे अच्छे कुलमें जन्म और सुन्दर शरीर दिया है, जो अर्थ, धर्म, काम और मोक्षका कारण है। जिसे पाकर ज्ञानी लोग भगवान् शिव अथवा कृष्णके* परमपदको प्राप्त करते हैं। फिर यह भारतवर्ष देश, पास ही देव-नदी गंगाजी, कैसा सुन्दर स्थान है! साथ ही सत्संग भी उत्तम है। इतनेपर भी अरे कायर! तेरी कुबुद्धिके कारण इन सब साधनोंकी कल्पलता भी (जन्ममरणरूपी) विषैले फल फला चाहती है! अर्थात् इतने सुन्दर साधनोंको पाकर भी तू अपने बुद्धिदोषसे इनका दुरुपयोग ही कर रहा है॥ १॥ अब भी समझ ले। मन लगाकर परमार्थकी बात सुन। वह बात कल्याण करनेवाली है और इस संसारमें भी उससे अपना स्वार्थ सिद्ध होता है। यदि तुझे स्वार्थ ही अच्छा लगता है, विचार कर, वह कौन है जिससे स्वार्थ प्राप्त होगा, और जिसे वेद गाते हैं (अर्थात् श्रीरामजी ही हैं)। अरे दुष्ट! देख, (विषयरूपी) साँपके साथ खेलना छोड़ दे, उस स्वामीको पहचान, जिस (सबमें रमनेवाले आत्मारूपी राम) के प्रेमके कारण ही पिता, गुरु, स्वामी, शरीर, पुत्र, सेवक, मित्र आदि सब प्रिय जान पड़ते हैं, उस अहैतुक हित करनेवाले परम सुहृद् प्रभुको तूने नहीं पहचाना॥ २॥ वह तेरा हितकारी प्रभु हरि दूर नहीं है, तेरे हृदयमें ही है। छल छोड़कर उसका स्मरण करनेपर वह सदा कृपा किये ही रहता है। भाव यह है कि परमात्मा हृदयमें तो अवश्य है किन्तु बीचमें कपटका परदा पड़ा है, इसीसे उसका साक्षात्कार नहीं होता। परदा हटा कि प्यारेका मुखकमल दीखा! वह कृपा करके अपने भक्तोंपर कर-कमलोंकी छाया किये रहता है, स्वयं सदा उनकी रक्षा करता है। जो उसे भजता है, वह भी उसे भजता है। वह जगत् का ईश्वर है, जीवका जीवन है। जो सबके लिये सब तरहके साज सजाता है, जिसने विष्णुको विष्णुत्व, ब्रह्माको ब्रह्मत्व और शिवको शिवत्व दिया, वह यही श्रीजानकी-नाथ रघुनाथजीकी मधुर आनन्दस्वरूपिणी मंगलमयी मूर्ति है॥ ३॥ यद्यपि वह बहुत ही बड़ा स्वामी है, सभीका अधीश्वर है, तथापि वह महान् सुशील, सुन्दर और सरल है। अरे! जिसका ध्यान शिवको भी दुर्लभ है उसने उठकर केवटको हृदयसे लगा लिया! हृदयसे लगाकर मिलते ही उसकी आँखोंमें आँसू भर आये और प्रेमवश शरीर शिथिल-सा हो गया। देवता, सिद्ध, मुनि और कवि कहते हैं कि श्रीरघुनाथजीके समान कोई भी प्रेमप्रिय नहीं है, उन्हें जितना प्रेम प्यारा लगता है उतना और किसीको नहीं लगता। उन्होंने पक्षी (जटायु), शबरी, राक्षस (विभीषण), रीछ (जाम्बवान् आदि) और बंदरों (हनुमान् जी आदि) को अपनेसे भी अधिक पूजनीय बना दिया। (अब शीलकी ओर देखिये) इतनेपर भी वे जब उन लोगोंद्वारा की हुई सेवा याद करते हैं, तब संकोचके मारे मन-ही-मन गड़े-से जाते हैं॥ ४॥ प्रभु श्रीरामजीका जो शील-स्वभाव मैंने कहा है उसे जब तू हृदयमें लावेगा, तब तेरी सारी चिन्ताएँ मिट जायँगी और प्रभु रामचन्द्रजी भी मनमें प्रसन्न होंगे। अरे श्रीरघुनाथजी तो तभी प्रसन्न हो जायँगे, जब तू हाथ जोड़कर मस्तक नवा देगा। तुलसीदास! तू उसी क्षण जन्म और जीवनका फल पा जायगा, अर्थात् तुझे श्रीरामजी दर्शन देंगे। तू राम-नामका जप कर, रामको प्रणाम कर, उनके गुण-समूहोंका कीर्तन कर और हृदयमें श्रीरामजीको विराजित कर तथा अपने मनको जगदीश श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंमें नित्य निवास करनेवाला भ्रमर बनाकर पृथ्वीपर निर्भय विचरण कर॥ ५॥

पादटिप्पनी
  • इससे यह सिद्ध है कि गोसाईंजी भगवान् शिव, कृष्ण और राममें कोई भेद नहीं मानते थे।
विषय (हिन्दी)

(१३६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

(१)
जिव जबतें हरितें बिलगान्यो।
तबतें देह गेह निज जान्यो॥
मायाबस स्वरूप बिसरायो।
तेहि भ्रमतें दारुन दुख पायो॥
पायो जो दारुन दुसह दुख, सुख-लेस सपनेहुँ नहिं मिल्यो।
भव-सूल, सोक अनेक जेहि, तेहि पंथ तू हठि हठि चल्यो॥
बहु जोनि जनम, जरा, बिपति, मतिमंद! हरि जान्यो नहीं।
श्रीराम बिनु बिश्राम मूढ़! बिचारु, लखि पायो कहीं॥

मूल

(१)
जिव जबतें हरितें बिलगान्यो।
तबतें देह गेह निज जान्यो॥
मायाबस स्वरूप बिसरायो।
तेहि भ्रमतें दारुन दुख पायो॥
पायो जो दारुन दुसह दुख, सुख-लेस सपनेहुँ नहिं मिल्यो।
भव-सूल, सोक अनेक जेहि, तेहि पंथ तू हठि हठि चल्यो॥
बहु जोनि जनम, जरा, बिपति, मतिमंद! हरि जान्यो नहीं।
श्रीराम बिनु बिश्राम मूढ़! बिचारु, लखि पायो कहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे जीव! जबसे तू भगवान् से अलग हुआ तभीसे तूने शरीरको अपना घर मान लिया। मायाके वश होकर तूने अपने ‘सच्चिदानन्द’ स्वरूपको भुला दिया, और इसी भ्रमके कारण तुझे दारुण दुःख भोगने पड़े। तुझे बड़े ही कठिन (जन्म-मरणरूपी) असहनीय दुःख मिले। सुखका तो स्वप्नमें भी लेश नहीं रहा। जिस मार्गमें अनेक संसारी कष्ट और शोक भरे पड़े हैं, तू उसीपर हठपूर्वक बार-बार चलता रहा। अनेक योनियोंमें भटका, बूढ़ा हुआ, विपत्तियाँ सहीं, (मर गया)। पर, अरे मूर्ख! तूने इतनेपर भी श्रीहरिको नहीं पहचाना! अरे मूढ़! विचारकर देख, श्रीरामजीको छोड़कर (किसीने) क्या कहीं शान्ति प्राप्त की है?

विश्वास-प्रस्तुतिः

(२)
आनँद-सिंधु-मध्य तव बासा।
बिनु जाने कस मरसि पियासा॥
मृग-भ्रम-बारि सत्य जिय जानी।
तहँ तू मगन भयो सुख मानी॥
तहँ मगन मज्जसि, पान करि, त्रयकाल जल नाहीं जहाँ।
निज सहज अनुभव रूप तव खल! भूलि अब आयो तहाँ॥
निरमल, निरंजन निरबिकार, उदार सुख तैं परिहरॺो।
निःकाज राज बिहाय नृप इव सपन कारागृह परॺो॥

मूल

(२)
आनँद-सिंधु-मध्य तव बासा।
बिनु जाने कस मरसि पियासा॥
मृग-भ्रम-बारि सत्य जिय जानी।
तहँ तू मगन भयो सुख मानी॥
तहँ मगन मज्जसि, पान करि, त्रयकाल जल नाहीं जहाँ।
निज सहज अनुभव रूप तव खल! भूलि अब आयो तहाँ॥
निरमल, निरंजन निरबिकार, उदार सुख तैं परिहरॺो।
निःकाज राज बिहाय नृप इव सपन कारागृह परॺो॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे जीव! तेरा निवास तो आनन्दसागरमें है, अर्थात् तू आनन्दस्वरूप ही है, तो भी तू उसे भुलाकर क्यों प्यासा मर रहा है? तू (विषय-भोगरूपी) मृगजलको सच्चा जानकर उसीमें सुख समझकर मग्न हो रहा है। उसीमें डूबकर नहा रहा है और उसीको पी रहा है; परन्तु उस (विषय-भोगरूपी) मृगतृष्णाके जलमें तो (सुखरूपी) सच्चा जल तीन कालमें भी नहीं है। अरे दुष्ट! तू अपने सहज अनुभव-रूपको भूलकर आज यहाँ आ पड़ा है। तूने अपने उस विशुद्ध, अविनाशी और विकाररहित परम सुखस्वरूपको छोड़ दिया है और व्यर्थ ही (उसी प्रकार दुःखी हो रहा है) जैसे कोई राजा सपनेमें राज छोड़कर कैदखानेमें पड़ जाता है और व्यर्थ ही दुःखी होता है अर्थात् सपनेमें भी राजा राजा ही है, परन्तु मोहवश अपने संकल्पसे राज्यसे वंचित होकर कारागारमें पड़ जाता है और जबतक जागता नहीं, तबतक व्यर्थ ही दुःख भोगता है। इसी प्रकार जीव भी सच्चिदानन्दस्वरूपको भ्रमवश भूलकर जगत् में अपनेको मायासे बँधा मान लेता है और दुःखी होता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

(३)
तैं निज करम-डोरि दृढ़ कीन्हीं।
अपने करनि गाँठि गहि दीन्हीं॥
ताते परबस परॺो अभागे।
ता फल गरभ-बास-दुख आगे॥
आगे अनेक समूह संसृत उदरगत जान्यो सोऊ।
सिर हेठ, ऊपर चरन, संकट बात नहिं पूछै कोऊ॥
सोनित-पुरीष जो मूत्र-मल कृमि-कर्दमावृत सोवई।
कोमल सरीर, गँभीर बेदन, सीस धुनि-धुनि रोवई॥

मूल

(३)
तैं निज करम-डोरि दृढ़ कीन्हीं।
अपने करनि गाँठि गहि दीन्हीं॥
ताते परबस परॺो अभागे।
ता फल गरभ-बास-दुख आगे॥
आगे अनेक समूह संसृत उदरगत जान्यो सोऊ।
सिर हेठ, ऊपर चरन, संकट बात नहिं पूछै कोऊ॥
सोनित-पुरीष जो मूत्र-मल कृमि-कर्दमावृत सोवई।
कोमल सरीर, गँभीर बेदन, सीस धुनि-धुनि रोवई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तूने स्वयं ही (अज्ञानसे) अपनी कर्मरूपी रस्सी मजबूत कर ली, और अपने ही हाथोंसे उसमें (अविद्याकी) पक्की गाँठ भी लगा दी। इसीसे हे अभागे! तू परतन्त्र पड़ा हुआ है। और इसीका फल आगे गर्भमें रहनेका दुःख होगा। संसारमें जो अनेक क्लेशोंके समूह हैं उन्हें वही जानता है जो माताके पेटमें पड़ा है। गर्भमें सिर तो नीचे और पैर ऊपर रहते हैं। इस भयानक संकटके समय कोई बात भी नहीं पूछता। रक्त, मल, मूत्र, विष्ठा, कीड़े और कीचसे घिरा हुआ (गर्भमें) सोता है। कोमल शरीरमें जब बड़ी भारी वेदना होती है, तब सिर धुन-धुनकर रोता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

(४)
तू निज करम-जाल जहँ घेरो।
श्रीहरि संग तज्यो नहिं तेरो॥
बहुबिधि प्रतिपालन प्रभु कीन्हों।
परम कृपालु ग्यान तोहि दीन्हों॥
तोहि दियो ग्यान-बिबेक, जनम अनेककी तब सुधि भई।
तेहि ईसकी हौं सरन, जाकी बिषम माया गुनमई॥
जेहि किये जीव-निकाय बस, रसहीन, दिन-दिन अति नई।
सो करौ बेगि सँभारि श्रीपति, बिपति, महँ जेहि मति दई॥

मूल

(४)
तू निज करम-जाल जहँ घेरो।
श्रीहरि संग तज्यो नहिं तेरो॥
बहुबिधि प्रतिपालन प्रभु कीन्हों।
परम कृपालु ग्यान तोहि दीन्हों॥
तोहि दियो ग्यान-बिबेक, जनम अनेककी तब सुधि भई।
तेहि ईसकी हौं सरन, जाकी बिषम माया गुनमई॥
जेहि किये जीव-निकाय बस, रसहीन, दिन-दिन अति नई।
सो करौ बेगि सँभारि श्रीपति, बिपति, महँ जेहि मति दई॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार जहाँ तुझे तेरे कर्मजालने घेर लिया था (और उसके कारण तू दुःख पाता था) श्रीहरिने वहाँ भी तेरा साथ नहीं छोड़ा। (गर्भमें) प्रभुने नाना प्रकारसे तेरा पालन-पोषण किया, और फिर परम कृपालु स्वामीने तुझे वहीं ज्ञान भी दिया। जब तुझे हरिने ज्ञान-विवेक दिया, तब तुझे अपने अनेक जन्मोंकी बातें याद आयीं और तू कहने लगा—‘जिसकी यह त्रिगुणमयी माया अति दुस्तर है, मैं उसी परमेश्वरकी शरण हूँ। जिस मायाने जीव-समूहको अपने वशमें करके उनके जीवनको नीरस अर्थात् आनन्दरहित कर दिया है और जो प्रतिदिन अत्यन्त नयी बनी रहती है, (ऐसी मायारूपी) जिस लक्ष्मीके पतिने गर्भकालकी इस विपत्तिमें मुझे ऐसी विवेक-बुद्धि दी है वही मेरी इससे तुरंत रक्षा करें।’

विश्वास-प्रस्तुतिः

(५)
पुनि बहुबिधि गलानि जिय मानी।
अब जग जाइ भजौं चक्रपानी॥
ऐसेहि करि बिचार चुप साधी।
प्रसव-पवन प्रेरेउ अपराधी॥
प्रेरॺो जो परम प्रचंड मारुत, कष्ट नाना तैं सह्यो।
सो ग्यान, ध्यान, बिराग, अनुभव जातना-पावक दह्यो॥
अति खेद ब्याकुल, अलप बल, छिन एक बोलि न आवई।
तव तीब्र कष्ट न जान कोउ, सब लोग हरषित गावई॥

मूल

(५)
पुनि बहुबिधि गलानि जिय मानी।
अब जग जाइ भजौं चक्रपानी॥
ऐसेहि करि बिचार चुप साधी।
प्रसव-पवन प्रेरेउ अपराधी॥
प्रेरॺो जो परम प्रचंड मारुत, कष्ट नाना तैं सह्यो।
सो ग्यान, ध्यान, बिराग, अनुभव जातना-पावक दह्यो॥
अति खेद ब्याकुल, अलप बल, छिन एक बोलि न आवई।
तव तीब्र कष्ट न जान कोउ, सब लोग हरषित गावई॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तू (पूर्व-जन्मोंमें भजन न करनेके लिये) अपने मनमें बहुत भाँतिसे ग्लानि मानकर कहने लगा कि अबकी बार (संसारमें) जन्म लेकर तो चक्रधारी भगवान् का भजन ही करूँगा। ऐसा विचारकर ज्यों ही चुप हुआ कि प्रसवकालके पवनने तुझ अपराधीको प्रेरित किया, उस अति प्रचण्ड वायुके द्वारा प्रेरित होकर तूने (जन्मके समय) नाना प्रकारके कष्टोंको सहा। उस समय उस भयानक कष्टकी आगमें तेरा ज्ञान, ध्यान, वैराग्य और अनुभव सभी कुछ जल गया, अर्थात् मारे कष्टके तू सब भूल गया। अत्यन्त कष्टके कारण तू व्याकुल हो गया और थोड़ा बल होनेसे एक क्षण भी तुझसे बोला नहीं गया। उस समयके तेरे दारुण दुःखको किसीने न जाना, उलटे सब लोग (पुत्र होनेके आनन्दमें) हर्षित होकर गाने लगे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

(६)
बाल दसा जेते दुख पाये।
अति असीम, नहिं जाहिं गनाये॥
छुधा-ब्याधि-बाधा भइ भारी।
बेदन नहिं जानै महतारी॥
जननी न जानै पीर सो, केहि हेतु सिसु रोदन करै।
सोइ करै बिबिध उपाय, जातें अधिक तुव छाती जरै॥
कौमार, सैसव अरु किसोर अपार अघ को कहि सकै।
ब्यतिरेक तोहि निरदय! महाखल! आन कहु को सहि सकै॥

मूल

(६)
बाल दसा जेते दुख पाये।
अति असीम, नहिं जाहिं गनाये॥
छुधा-ब्याधि-बाधा भइ भारी।
बेदन नहिं जानै महतारी॥
जननी न जानै पीर सो, केहि हेतु सिसु रोदन करै।
सोइ करै बिबिध उपाय, जातें अधिक तुव छाती जरै॥
कौमार, सैसव अरु किसोर अपार अघ को कहि सकै।
ब्यतिरेक तोहि निरदय! महाखल! आन कहु को सहि सकै॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर बचपनमें तूने जितने महान् कष्ट पाये, वे इतने अधिक हैं कि उनकी गणना करना असम्भव है। भूख, रोग और अनेक बड़ी-बड़ी बाधाओंने तुझे घेर लिया, पर तेरी माँको तेरे इन सब कष्टोंका यथार्थ पता नहीं लगा। माँ यह नहीं जानती कि बच्चा किसलिये रो रहा है, इससे वह बार-बार ऐसे ही उपाय करती है, जिससे तेरी छाती और भी अधिक जले। (जैसे अजीर्णके कारण पेट दुखनेसे बच्चा रोता है, पर माता उसे भूखा समझकर और खिलाती है, जिससे उसकी बीमारी बढ़ जाती है।) शिशु, कुमार और किशोरावस्थामें तू जो अपार पाप करता है, उसका वर्णन कौन करे? अरे निर्दय! महादुष्ट! तुझे छोड़कर और कौन ऐसा है जो इन्हें सह सकेगा?

विश्वास-प्रस्तुतिः

(७)
जोबन जुवती सँग रँग रात्यो।
तब तू महा मोह-मद मात्यो॥
ताते तजी धरम-मरजादा।
बिसरे तब सब प्रथम बिषादा॥
बिसरे बिषाद, निकाय-संकट समुझि नहिं फाटत हियो।
फिरि गर्भगत-आवर्त संसृतिचक्र जेहि होइ सोइ कियो॥
कृमि-भस्म-बिट-परिनाम तनु, तेहि लागि जग बैरी भयो।
परदार, परधन, द्रोहपर, संसार बाढ़ै नित नयो॥

मूल

(७)
जोबन जुवती सँग रँग रात्यो।
तब तू महा मोह-मद मात्यो॥
ताते तजी धरम-मरजादा।
बिसरे तब सब प्रथम बिषादा॥
बिसरे बिषाद, निकाय-संकट समुझि नहिं फाटत हियो।
फिरि गर्भगत-आवर्त संसृतिचक्र जेहि होइ सोइ कियो॥
कृमि-भस्म-बिट-परिनाम तनु, तेहि लागि जग बैरी भयो।
परदार, परधन, द्रोहपर, संसार बाढ़ै नित नयो॥

अनुवाद (हिन्दी)

जवानीमें तू युवती स्त्रीकी आसक्तिमें फँसा, तब तो महान् अज्ञान और मदमें मतवाला हो गया। उस जवानीके नशेमें तूने धर्मकी मर्यादा छोड़ दी और पहले (गर्भमें और लड़कपनमें) जो कष्ट हुए थे, उन सबको भुला दिया (और पाप करने लगा)। पिछले कष्टसमूहोंको भूल गया। (अब पाप करनेसे) आगे तुझे जो संकट प्राप्त होंगे, अरे, उनपर विचार करके तेरी छाती नहीं फट जाती? जिससे फिर गर्भके गड्ढेमें गिरना पड़े, संसार-चक्रमें आना पड़े, तूने बारंबार वैसे ही कर्म किये। जिस शरीरका परिणाम (मरनेपर) कीड़ा, राख या विष्ठा होगा, (कब्रमें गाड़नेसे सड़कर कीड़ोंके रूपमें बदल जायगा, जलानेपर राख हो जायगा या जीव-जन्तु खा डालेंगे तो उनकी विष्ठा बन जायगा) उसीके लिये तू सारे संसारका शत्रु बन बैठा। परायी स्त्री और पराये धन (पर प्रीति) और दूसरोंसे द्रोह, यही संसारमें नित्य नया बढ़ता गया।

विश्वास-प्रस्तुतिः

(८)
देखत ही आई बिरुधाई।
जो तैं सपनेहुँ नाहिं बुलाई॥
ताके गुन कछु कहे न जाहीं।
सो अब प्रगट देखु तनु माहीं॥
सो प्रगट तनु जरजर जराबस, ब्याधि, सूल सतावई।
सिर-कंप, इन्द्रिय-सक्ति प्रतिहत, बचन काहु न भावई॥
गृहपालहूतें अति निरादर, खान-पान न पावई।
ऐसिहु दसा न बिराग तहँ, तृष्णा-तरंग बढ़ावई॥

मूल

(८)
देखत ही आई बिरुधाई।
जो तैं सपनेहुँ नाहिं बुलाई॥
ताके गुन कछु कहे न जाहीं।
सो अब प्रगट देखु तनु माहीं॥
सो प्रगट तनु जरजर जराबस, ब्याधि, सूल सतावई।
सिर-कंप, इन्द्रिय-सक्ति प्रतिहत, बचन काहु न भावई॥
गृहपालहूतें अति निरादर, खान-पान न पावई।
ऐसिहु दसा न बिराग तहँ, तृष्णा-तरंग बढ़ावई॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखते-ही-देखते बुढ़ापा आ पहुँचा, जिसे तूने स्वप्नमें भी नहीं बुलाया था; उस बुढ़ापेका हाल कहा नहीं जाता। उसे अब अपने शरीरमें प्रत्यक्ष देख ले, शरीर जर्जर हो गया है; बुढ़ापेके कारण रोग और शूल सता रहे हैं, सिर हिल रहा है, इन्द्रियोंकी शक्ति नष्ट हो गयी है। तेरा बोलना किसीको अच्छा नहीं लगता, घरकी रखवाली करनेवाला कुत्ता भी तेरा निरादर करता है अथवा कुत्तेसे भी बढ़कर तेरा निरादर होने लगा है। (कुत्तेको दूरसे रोटी फेंकते हैं, पर उसे समयपर तो दे देते हैं, तेरी उतनी भी सँभाल नहीं) अधिक क्या तू खाने-पीनेतकको नहीं पाता। बुढ़ापेमें ऐसी दुर्दशा होनेपर तुझे वैराग्य नहीं होता? इस दशामें भी तू तृष्णाकी तरंगोंको बढ़ाता ही जाता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

(९)
कहि को सकै महाभव तेरे।
जनम एकके कछुक गनेरे॥
चारि खानि संतत अवगाहीं।
अजहुँ न करु बिचार मन माहीं॥
अजहुँ बिचारु, बिकार तजि, भजु राम जन-सुखदायकं।
भवसिंधु दुस्तर जलरथं, भजु चक्रधर सुरनायकं॥
बिनु हेतु करुनाकर, उदार, अपार-माया-तारनं।
कैवल्य-पति, जगपति, रमापति, प्रानपति, गतिकारनं॥

मूल

(९)
कहि को सकै महाभव तेरे।
जनम एकके कछुक गनेरे॥
चारि खानि संतत अवगाहीं।
अजहुँ न करु बिचार मन माहीं॥
अजहुँ बिचारु, बिकार तजि, भजु राम जन-सुखदायकं।
भवसिंधु दुस्तर जलरथं, भजु चक्रधर सुरनायकं॥
बिनु हेतु करुनाकर, उदार, अपार-माया-तारनं।
कैवल्य-पति, जगपति, रमापति, प्रानपति, गतिकारनं॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये तो तेरे एक जन्मके कुछ थोड़े-से कष्ट गिनाये गये हैं, ऐसे अनेक बड़े-बड़े जन्मोंकी सबकी कथा तो कौन कह सकता है? सदा चार खानों (पिण्डज, अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज) में घूमना पड़ता है। अब भी तू मनमें विचार नहीं करता! अब भी विचारकर अज्ञानको छोड़ दे और भक्तोंको सुख देनेवाले भगवान् श्रीरामजीका भजन कर। वे दुस्तर भव-सागरके लिये जहाजरूप हैं, तू उन सुदर्शनचक्र धारण करनेवाले देवपति भगवान् का भजन कर। वे बिना ही हेतु दया करनेवाले हैं, बड़े ही उदार हैं और इस अपार मायासे तारनेवाले हैं। वे मोक्षके, संसारके, लक्ष्मीके और इन प्राणोंके नाथ हैं एवं मुक्तिके कारण हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

(१०)
रघुपति-भगति सुलभ, सुखकारी।
सो त्रयताप-सोक-भय-हारी॥
बिनु सतसंग भगति नहिं होई।
ते तब मिलैं द्रवै जब सोई॥
जब द्रवै दीनदयालु राघव, साधु-संगति पाइये।
जेहि दरस-परस-समागमादिक पापरासि नसाइये॥
जिनके मिले दुख-सुख समान, अमानतादिक गुन भये।
मद-मोह लोभ-बिषाद-क्रोध सुबोधतें सहजहिं गये॥

मूल

(१०)
रघुपति-भगति सुलभ, सुखकारी।
सो त्रयताप-सोक-भय-हारी॥
बिनु सतसंग भगति नहिं होई।
ते तब मिलैं द्रवै जब सोई॥
जब द्रवै दीनदयालु राघव, साधु-संगति पाइये।
जेहि दरस-परस-समागमादिक पापरासि नसाइये॥
जिनके मिले दुख-सुख समान, अमानतादिक गुन भये।
मद-मोह लोभ-बिषाद-क्रोध सुबोधतें सहजहिं गये॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीकी भक्ति सुलभ और सुखदायिनी है। वह संसारके तीनों ताप, शोक और भयको हरनेवाली है। किन्तु वह भक्ति सत्संगके बिना प्राप्त नहीं होती; और संत तभी मिलते हैं जब रघुनाथजी कृपा करते हैं। जब दीनदयालु रघुनाथजी कृपा करते हैं तब संतसमागम होता है। जिन संतोंके दर्शन, स्पर्श और सत्संगसे पाप-समूह समूल नष्ट हो जाते हैं, जिनके मिलनेसे सुख-दुःखमें समबुद्धि हो जाती है, अमानिता आदि अनेक सद्‍गुण प्रकट हो जाते हैं तथा भलीभाँति परमात्माका बोध हो जानेके कारण मद, मोह, लोभ, शोक, क्रोध आदि सहज ही दूर हो जाते हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

(११)
सेवत साधु द्वैत-भय भागै।
श्रीरघुबीर-चरन लय लागै॥
देह-जनित बिकार सब त्यागै।
तब फिरि निज स्वरूप अनुरागै॥
अनुराग सो निज रूप जो जगतें बिलच्छन देखिये।
सन्तोष, सम, सीतल, सदा दम, देहवंत न लेखिये॥
निरमल, निरामय, एकरस, तेहि हरष-सोक न ब्यापई।
त्रैलोक-पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई॥

मूल

(११)
सेवत साधु द्वैत-भय भागै।
श्रीरघुबीर-चरन लय लागै॥
देह-जनित बिकार सब त्यागै।
तब फिरि निज स्वरूप अनुरागै॥
अनुराग सो निज रूप जो जगतें बिलच्छन देखिये।
सन्तोष, सम, सीतल, सदा दम, देहवंत न लेखिये॥
निरमल, निरामय, एकरस, तेहि हरष-सोक न ब्यापई।
त्रैलोक-पावन सो सदा जाकी दसा ऐसी भई॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे साधुओंका सेवन करनेसे द्वैतका भय भाग जाता है, (सर्वत्र परमात्म-बुद्धि हो जानेसे वह निर्भय हो जाता है) श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें ध्यान लग जाता है। शरीरसे उत्पन्न हुए सब विकार छूट जाते हैं, और तब अपने स्वरूपमें—आत्मस्वरूपमें प्रेम होता है। जिसका अपने स्वरूपमें अनुराग हो जाता है, अर्थात् जो आत्मस्वरूपको प्राप्त हो जाता है उसकी दशा संसारमें कुछ विलक्षण ही हो जाती है। सन्तोष, समता, शान्ति और मन-इन्द्रियोंका निग्रह उसके स्वाभाविक हो जाते हैं, फिर वह अपनेको देहधारी नहीं मानता अर्थात् उसका देहात्म-बोध चला जाता है। वह विशुद्ध संसार-रोग-रहित और एकरस (परमात्मस्वरूपमें नित्य स्थित) हो जाता है। फिर उसे हर्ष-शोक नहीं व्यापता। जिसकी ऐसी नित्य-स्थिति हो गयी वह तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाला होता है।

विश्वास-प्रस्तुतिः

(१२)
जो तेहि पंथ चलै मन लाई।
तौ हरि काहे न होहिं सहाई॥
जो मारग श्रुति-साधु दिखावै।
तेहि पथ चलत सबै सुख पावै॥
पावै सदा सुख हरि-कृपा, संसार-आसा तजि रहै।
सपनेहुँ नहीं सुख द्वैत-दरसन, बात कोटिक को कहै॥
द्विज, देव, गुरु, हरि, संत बिनु संसार-पार न पाइये।
यह जानि तुलसीदास त्रासहरन रमापति गाइये॥

मूल

(१२)
जो तेहि पंथ चलै मन लाई।
तौ हरि काहे न होहिं सहाई॥
जो मारग श्रुति-साधु दिखावै।
तेहि पथ चलत सबै सुख पावै॥
पावै सदा सुख हरि-कृपा, संसार-आसा तजि रहै।
सपनेहुँ नहीं सुख द्वैत-दरसन, बात कोटिक को कहै॥
द्विज, देव, गुरु, हरि, संत बिनु संसार-पार न पाइये।
यह जानि तुलसीदास त्रासहरन रमापति गाइये॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य इस मार्गपर मन लगाकर चलता है, भगवान् उसकी सहायता क्यों न करेंगे? यह जो मार्ग वेद और संतोंने दिखा दिया है, उसपर चलनेसे सभी प्रकारके सुखोंकी प्राप्ति होगी। इस मार्गपर चलनेवाला साधक सांसारिक (विषयोंसे सुखकी) आशाको त्यागकर भगवत्कृपासे नित्य (अद्वैत ब्रह्मके) सुखको प्राप्त करता है। यों तो करोड़ों बातें हैं, उन्हें कौन कहता फिरे? परन्तु जहाँतक द्वैत दिखलायी भी देता है वहाँतक सपनेमें भी सच्चा सुख नहीं मिल सकता, (सच्चा सुख अद्वैत-ब्रह्मस्वरूपमें स्थित होनेमें ही है, इसीको संसार-सागरसे पार होना कहते हैं) परन्तु ब्राह्मण, देवता, गुरु, हरि और संतों (की कृपा)के बिना कोई संसार-सागरका पार नहीं पा सकता, यह समझकर तुलसीदास भी (संसारके) भयको दूर करनेवाले लक्ष्मीपति भगवान् के गुण गाता है।

राग बिलावल

विषय (हिन्दी)

(१३७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो पै कृपा रघुपति कृपालुकी, बैर औरके कहा सरै।
होइ न बाँको बार भगतको, जो कोउ कोटि उपाय करै॥ १॥
तकै नीचु जो मीचु साधुकी, सो पामर तेहि मीचु मरै।
बेद-बिदित प्रहलाद-कथा सुनि, को न भगति-पथ पाउँ धरै?॥ २॥
गज उधारि हरि थप्यो बिभीषन, ध्रुव अबिचल कबहूँ न टरै।
अंबरीष की साप सुरति करि, अजहुँ महामुनि ग्लानि गरै॥ ३॥
सों धौं कहा जु न कियो सुजोधन, अबुध आपने मान जरै।
प्रभु-प्रसाद सौभाग्य बिजय-जस, पांडवनै* बरिआइ बरै॥ ४॥
जोइ जोइ कूप खनैगो परकहँ, सो सठ फिरि तेहि कूप परै।
सपनेहुँ सुख न संतद्रोहीकहँ, सुरतरु सोउ बिष-फरनि फरै॥ ५॥
हैं काके द्वै सीस ईसके जो हठि जनकी सीवँ चरै।
तुलसिदास रघुबीर-बाहुबल सदा अभय काहू न डरै॥ ६॥

मूल

जो पै कृपा रघुपति कृपालुकी, बैर औरके कहा सरै।
होइ न बाँको बार भगतको, जो कोउ कोटि उपाय करै॥ १॥
तकै नीचु जो मीचु साधुकी, सो पामर तेहि मीचु मरै।
बेद-बिदित प्रहलाद-कथा सुनि, को न भगति-पथ पाउँ धरै?॥ २॥
गज उधारि हरि थप्यो बिभीषन, ध्रुव अबिचल कबहूँ न टरै।
अंबरीष की साप सुरति करि, अजहुँ महामुनि ग्लानि गरै॥ ३॥
सों धौं कहा जु न कियो सुजोधन, अबुध आपने मान जरै।
प्रभु-प्रसाद सौभाग्य बिजय-जस, पांडवनै* बरिआइ बरै॥ ४॥
जोइ जोइ कूप खनैगो परकहँ, सो सठ फिरि तेहि कूप परै।
सपनेहुँ सुख न संतद्रोहीकहँ, सुरतरु सोउ बिष-फरनि फरै॥ ५॥
हैं काके द्वै सीस ईसके जो हठि जनकी सीवँ चरै।
तुलसिदास रघुबीर-बाहुबल सदा अभय काहू न डरै॥ ६॥

पादटिप्पनी
  • ‘पांडवनै’ पाठ ही शुद्ध है। ‘पांडुतनै’ पाठ कर देनेवालोंने भूल की है। अवधीमें पाण्डवका बहुवचन कर्मकारकका शुद्ध रूप है ‘पांडवनहिं’ वा ‘पांडवनै’। ‘पांडवन्हि’ भी लाघवसे बनता है, परन्तु यहाँ एक मात्रा उससे अधिक चाहिये थी।
अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि कृपालु रघुनाथजीकी कृपा है, तो दूसरोंके वैर करनेसे उनका क्या काम निकल सकता है? भक्तका बाल भी बाँका नहीं होता, चाहे कोई करोड़ों उपाय क्यों न करे॥ १॥ जो नीच संतकी मौत विचारता है, वह पामर स्वयं उसी मौतसे मरता है। प्रह्लादकी कथा वेदोंमें प्रसिद्ध है, उसे सुनकर ऐसा कौन (अभागा) होगा, जो भक्ति-मार्गपर पैर न रखेगा, यानी भक्ति न करेगा?॥ २॥ श्रीहरिने गजराजका उद्धार किया, विभीषणको राज्य-सिंहासनपर बैठाया, ध्रुवको ऐसा अटल पद दे दिया जो कभी हटता ही नहीं और अम्बरीषकी तो बात ही निराली है, महामुनि (दुर्वासा)ने जो उनको शाप था, उसका परिणाम याद करके अब भी वे ग्लानिसे गले जाते हैं, लाजसे मरे जाते हैं॥ ३॥ दुर्योधनने अपनी जानमें, ऐसी कौन-सी बुराई है, जो पाण्डवोंके साथ नहीं की। वह मूर्ख अपने ही घमंडमें जलता रहा। पर भगवान् की कृपासे सौभाग्य, विजय और यशने पाण्डवोंको ही हठपूर्वक अपनाया॥ ४॥ जो दूसरेके लिये कुआँ खोदेगा, वह दुष्ट स्वयं उसीमें गिरेगा। संतोंके साथ वैर करनेवालेको स्वप्नमें भी सुख नहीं हो सकता। उसके लिये तो कल्पवृक्ष भी जहरीले फल ही फलेगा॥ ५॥ किसके दो सिर हैं जो भगवान् के भक्तकी सीमा लाँघेगा? हे तुलसीदास! जिसके श्रीरघुनाथजीका बाहु-बल सहायक है, वह सदा निर्भय है, किसीसे भी नहीं डर सकता॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(१३८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबहुँ सो कर-सरोज रघुनायक! धरिहौ नाथ सीस मेरे।
जेहि कर अभय किये जन आरत, बारक बिबस नाम टेरे॥ १॥
जेहि कर-कमल कठोर संभुधनु भंजि जनक-संसय मेटॺो।
जेहि कर-कमल उठाइ बंधु ज्यों, परम प्रीती केवट भेंटॺो॥ २॥
जेहि कर-कमल कृपालु गीधकहँ, पिंड देइ निजधाम दियो।
जेहि कर बालि बिदारि दास-हित, कपिकुल-पति सुग्रीव कियो॥ ३॥
आयो सरन सभीत बिभीषन जेहि कर-कमल तिलक कीन्हों।
जेहि कर गहि सर चाप असुर हति, अभयदान देवन्ह दीन्हों॥ ४॥
सीतल सुखद छाँह जेहि करकी, मेटति पाप, ताप, माया।
निसि-बासर तेहि कर सरोजकी, चाहत तुलसिदास छाया॥ ५॥

मूल

कबहुँ सो कर-सरोज रघुनायक! धरिहौ नाथ सीस मेरे।
जेहि कर अभय किये जन आरत, बारक बिबस नाम टेरे॥ १॥
जेहि कर-कमल कठोर संभुधनु भंजि जनक-संसय मेटॺो।
जेहि कर-कमल उठाइ बंधु ज्यों, परम प्रीती केवट भेंटॺो॥ २॥
जेहि कर-कमल कृपालु गीधकहँ, पिंड देइ निजधाम दियो।
जेहि कर बालि बिदारि दास-हित, कपिकुल-पति सुग्रीव कियो॥ ३॥
आयो सरन सभीत बिभीषन जेहि कर-कमल तिलक कीन्हों।
जेहि कर गहि सर चाप असुर हति, अभयदान देवन्ह दीन्हों॥ ४॥
सीतल सुखद छाँह जेहि करकी, मेटति पाप, ताप, माया।
निसि-बासर तेहि कर सरोजकी, चाहत तुलसिदास छाया॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रघुनाथजी! हे स्वामी! क्या आप कभी अपने उस कर-कमलको मेरे माथेपर रखेंगे, जिससे आपने, परतन्त्रतावश एक बार आपका नाम लेकर पुकार करनेवाले आर्त्त भक्तोंको अभय कर दिया था॥ १॥ जिस कर-कमलसे महादेवजीका कठोर धनुष तोड़कर आपने महाराज जनकका सन्देह दूर किया था और जिस कर-कमलसे गुह-निषादको उठाकर भाईके समान बड़े ही प्रेमसे हृदयसे लगा लिया था॥ २॥ हे कृपालु! जिस कर-कमलसे आपने (जटायु) गीधको (पिताके समान) पिण्ड-दान देकर अपना परम धाम दिया था, और जिस हाथसे, अपने दासके लिये बालिको मारकर, सुग्रीवको बंदरोंके कुलका राजा बना दिया था॥ ३॥ जिस कर-कमलसे आपने भयभीत शरणागत विभीषणका राज्याभिषेक किया था और जिस हाथसे धनुष-बाण चढ़ा राक्षसोंका विनाश कर देवताओंको अभय-दान दिया था॥ ४॥ तथा जिस कर-कमलकी शीतल और सुखदायक छाया पाप, सन्ताप और मायाका नाश कर डालती है, हे प्रभु! आपके उसी कर-कमलकी छाया यह तुलसीदास रात-दिन चाहा करता है॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१३९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीनदयालु, दुरित दारिद दुख दुनी दुसह तिहुँ ताप तई है।
देव दुवार पुकारत आरत, सबकी सब सुख हानि भई है॥ १॥
प्रभुके बचन, बेद-बुध-सम्मत, ‘मम मूरति महिदेवमई है’।
तिनकी मति रिस-राग-मोह-मद, लोभ लालची लीलि लई है॥ २॥
राज-समाज कुसाज कोटि कटु कलपित कलुष कुचाल नई है।
नीति, प्रतीति, प्रीति परमित पति हेतुबाद हठि हेरि हई है॥ ३॥
आश्रम-बरन-धरम-बिरहित जग, लोक-बेद-मरजाद गई है।
प्रजा पतित, पाखंड-पापरत, अपने अपने रंग रई है॥ ४॥
सांति, सत्य, सुभ, रीति गई घटि, बढ़ी कुरीति, कपट-कलई है।
सीदत साधु, साधुता सोचति, खल बिलसत, हुलसति खलई है॥ ५॥
परमारथ स्वारथ, साधन भये अफल, सफल नहिं सिद्धि सई है।
कामधेनु-धरनी कलि-गोमर-बिबस बिकल जामति न बई है॥ ६॥
कलि-करनी बरनिये कहाँ लौं, करत फिरत बिनु टहल टई है।
तापर दाँत पीसि कर मींजत, को जानै चित कहा ठई है॥ ७॥
त्यों त्यों नीच चढ़त सिर ऊपर, ज्यों ज्यों सीलबस ढील दई है।
सरुष बरजि तरजिये तरजनी, कुम्हिलैहै कुम्हड़ेकी जई है॥ ८॥
दीजै दादि देखि ना तौ बलि, मही मोद-मंगल रितई है।
भरे भाग अनुराग लोग कहैं, राम कृपा-चितवनि चितई है॥ ९॥
बिनती सुनि सानंद हेरि हँसि, करुना-बारि भूमि भिजई है।
राम-राज भयो काज, सगुन सुभ, राजा राम जगत-बिजई है॥ १०॥
समरथ बड़ो, सुजान सुसाहब, सुकृत-सैन हारत जितई है।
सुजन सुभाव सराहत सादर, अनायास साँसति बितई है॥ ११॥
उथपे थपन, उजारि बसावन, गई बहोरि बिरद सदई है।
तुलसी प्रभु आरत-आरतिहर, अभयबाँह केहि केहि न दई है॥ १२॥

मूल

दीनदयालु, दुरित दारिद दुख दुनी दुसह तिहुँ ताप तई है।
देव दुवार पुकारत आरत, सबकी सब सुख हानि भई है॥ १॥
प्रभुके बचन, बेद-बुध-सम्मत, ‘मम मूरति महिदेवमई है’।
तिनकी मति रिस-राग-मोह-मद, लोभ लालची लीलि लई है॥ २॥
राज-समाज कुसाज कोटि कटु कलपित कलुष कुचाल नई है।
नीति, प्रतीति, प्रीति परमित पति हेतुबाद हठि हेरि हई है॥ ३॥
आश्रम-बरन-धरम-बिरहित जग, लोक-बेद-मरजाद गई है।
प्रजा पतित, पाखंड-पापरत, अपने अपने रंग रई है॥ ४॥
सांति, सत्य, सुभ, रीति गई घटि, बढ़ी कुरीति, कपट-कलई है।
सीदत साधु, साधुता सोचति, खल बिलसत, हुलसति खलई है॥ ५॥
परमारथ स्वारथ, साधन भये अफल, सफल नहिं सिद्धि सई है।
कामधेनु-धरनी कलि-गोमर-बिबस बिकल जामति न बई है॥ ६॥
कलि-करनी बरनिये कहाँ लौं, करत फिरत बिनु टहल टई है।
तापर दाँत पीसि कर मींजत, को जानै चित कहा ठई है॥ ७॥
त्यों त्यों नीच चढ़त सिर ऊपर, ज्यों ज्यों सीलबस ढील दई है।
सरुष बरजि तरजिये तरजनी, कुम्हिलैहै कुम्हड़ेकी जई है॥ ८॥
दीजै दादि देखि ना तौ बलि, मही मोद-मंगल रितई है।
भरे भाग अनुराग लोग कहैं, राम कृपा-चितवनि चितई है॥ ९॥
बिनती सुनि सानंद हेरि हँसि, करुना-बारि भूमि भिजई है।
राम-राज भयो काज, सगुन सुभ, राजा राम जगत-बिजई है॥ १०॥
समरथ बड़ो, सुजान सुसाहब, सुकृत-सैन हारत जितई है।
सुजन सुभाव सराहत सादर, अनायास साँसति बितई है॥ ११॥
उथपे थपन, उजारि बसावन, गई बहोरि बिरद सदई है।
तुलसी प्रभु आरत-आरतिहर, अभयबाँह केहि केहि न दई है॥ १२॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे दीनदयालु! पाप, दारिद्रॺ, दुःख और तीन प्रकारके दुःसह दैविक, दैहिक, भौतिक तापोंसे दुनिया जली जा रही है। हे भगवन्! यह आर्त्त आपके द्वारपर पुकार रहा है, क्योंकि सभीके सब प्रकारके सुख जाते रहे हैं॥ १॥ वेद और विद्वानोंकी सम्मति है तथा प्रभुके श्रीमुखके वचन हैं कि ब्राह्मण साक्षात् मेरा ही स्वरूप हैं; पर आज उन ब्राह्मणोंकी बुद्धिको क्रोध, आसक्ति, मोह, मद और लालची लोभने निगल लिया है अर्थात् वे अपने स्वाभाविक शम-दमादि गुणोंको छोड़कर अज्ञानी, कामी, क्रोधी, घमंडी और लोभी हो गये हैं॥ २॥ इसी तरह राजसमाज (क्षत्रिय-जाति) करोड़ों कुचालोंसे भर गया है, वे (मनमाने रूपमें लूटमार, अन्याय, अत्याचार, व्यभिचार, अनाचाररूप) नित्य नयी कुचालें चल रहे हैं और हेतुवाद (नास्तिकता) ने राजनीति, (ईश्वर और शास्त्रपर यथार्थ) विश्वास, प्रेम, धर्मकी और कुलकी मर्यादाका ढूँढ़-ढूँढ़कर नाश कर दिया है॥ ३॥ संसार वर्ण और आश्रम-धर्मसे भलीभाँति विहीन हो गया है। लोक और वेद दोनोंकी मर्यादा चली गयी। न कोई लोकाचार मानता है और न शास्त्रकी आज्ञा ही सुनता है। प्रजा अवनत होकर पाखण्ड और पापमें रत हो रही है। सभी अपने-अपने रंगमें रँग रहे हैं, यथेच्छाचारी हो गये हैं॥ ४॥ शान्ति, सत्य और सुप्रथाएँ घट गयीं और कुप्रथाएँ बढ़ गयी हैं तथा (सभी आचरणोंपर) कपट (दम्भ) की कलई हो गयी है (एवं दुराचार तथा छल-कपटकी बढ़ती हो रही है)। साधुपुरुष कष्ट पाते हैं, साधुता शोकग्रस्त है, दुष्ट मौज कर रहे हैं और दुष्टता आनन्द मना रही है अर्थात् बगुला-भक्ति बढ़ गयी है॥ ५॥ परमार्थ स्वार्थमें परिणत हो गया अर्थात् ज्ञान, भक्ति, परोपकार और धर्मके नामपर लोग धन बटोरने लगे हैं। (विधिपूर्वक न करनेसे) साधन निष्फल होने लगे हैं और सिद्धियाँ प्राप्त होनी बंद हो गयी हैं, कामधेनुरूपी पृथ्वी कलियुगरूपी गोमर (कसाई)के हाथमें पड़कर ऐसी व्याकुल हो गयी है कि उसमें जो बोया जाता है, वह जमता ही नहीं (जहाँ-तहाँ दुर्भिक्ष पड़ रहे हैं)॥ ६॥ कलियुगकी करनी कहाँतक बखानी जाय? यह बिना कामका काम करता फिरता है। इतनेपर भी दाँत पीस-पीसकर हाथ मल रहा है। न जाने इसके मनमें अभी क्या-क्या है॥ ७॥ हे प्रभु! ज्यों-ज्यों आप शीलवश इसे ढील दे रहे हैं, क्षमा करते जाते हैं, त्यों-ही-त्यों यह नीच सिरपर चढ़ता जाता है। जरा क्रोध करके इसे डाँट दीजिये। आपकी तरजनी देखते ही यह कुम्हड़ेकी बतियाकी तरह मुरझा जायगा॥ ८॥ आपकी बलैया लेता हूँ, देखकर न्याय कीजिये, नहीं तो अब पृथ्वी आनन्द-मंगलसे शून्य हो जायगी। ऐसा कीजिये, जिसमें लोग बड़भागी होकर प्रेमपूर्वक यह कहें कि श्रीरामजीने हमें कृपादृष्टिसे देखा है (बड़भागी वही है जिसका रामके चरणोंमें अनुराग है। यह अनुराग श्रीरामकृपासे ही प्राप्त होता है)॥ ९॥ मेरी यह विनती सुनकर श्रीरामजीने आनन्दसे मेरी ओर देखा और मुसकराकर करुणाकी ऐसी वृष्टि की जिससे सारी भूमि तर हो गयी। (हृदयका सारा स्थान शान्तिसे पूर्ण हो गया) रामराज्य होनेसे सब काम सफल हो गये। शुभ शकुन होने लगे, क्योंकि महाराज रामचन्द्रजी जगद्विजयी हैं (हृदयमें उनके विराजित होते ही कलियुगकी सारी सेना भाग गयी)॥ १०॥ सर्वसमर्थ ज्ञानस्वरूप दयालु स्वामीने पुण्यरूपी सेनाको हारनेसे जिता लिया, सद्भक्त स्वभावसे ही आदरपूर्वक उनकी सराहना करते हैं कि नाथने सहज ही सारी यातनाएँ दूर कर दीं॥ ११॥ (परन्तु) आप ऐसा क्यों न करते? आपका तो सदासे यह बाना चला आता है कि उजड़े हुएको बसाना और गयी हुई वस्तुको फिरसे दिला देना (जैसे विभीषण और सुग्रीवको राज्यपर बिठा देना, जैसे रावणके भयसे डरे हुए देवताओंको फिरसे स्वर्गमें बसा देना)। हे तुलसी! दुःखियोंके दुःख दूरकर भगवान् ने किस-किसको अभय बाँह नहीं दी?॥ १२॥

विषय (हिन्दी)

(१४०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते नर नरकरूप जीवत जग भव-भंजन-पद-बिमुख अभागी।
निसिबासर रुचिपाप असुचिमन, खलमति-मलिन, निगमपथ-त्यागी॥ १॥
नहिं सतसंग भजन नहिं हरिको, स्रवन न राम-कथा-अनुरागी।
सुत-बित-दार-भवन-ममता-निसि सोवत अति, न कबहुँ मति जागी॥ २॥
तुलसिदास हरिनाम-सुधा तजि, सठ हठि पियत बिषय-बिष माँगी।
सूकर-स्वान-सृगाल-सरिस जन, जनमत जगत जननि-दुख लागी॥ ३॥

मूल

ते नर नरकरूप जीवत जग भव-भंजन-पद-बिमुख अभागी।
निसिबासर रुचिपाप असुचिमन, खलमति-मलिन, निगमपथ-त्यागी॥ १॥
नहिं सतसंग भजन नहिं हरिको, स्रवन न राम-कथा-अनुरागी।
सुत-बित-दार-भवन-ममता-निसि सोवत अति, न कबहुँ मति जागी॥ २॥
तुलसिदास हरिनाम-सुधा तजि, सठ हठि पियत बिषय-बिष माँगी।
सूकर-स्वान-सृगाल-सरिस जन, जनमत जगत जननि-दुख लागी॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—वे अभागे मनुष्य संसारमें नरकरूप होकर जी रहे हैं, जो जन्म-मरणरूप भवका भंजन करनेवाले श्रीभगवान् के चरणोंसे विमुख हैं। उनकी रुचि रात-दिन पापोंमें ही लगी रहती है। उनका मन अशुद्ध रहता है। उन दुष्टोंकी बुद्धि मलिन रहती है, और वे वेदोक्त मार्गको छोड़े हुए हैं॥ १॥ न तो वे संतोंका संग ही करते हैं, न भगवद्भजन करते हैं और न उनके कानोंको श्रीरामकी कथा प्यारी लगती है। वे तो बस, सदा-सर्वदा स्त्री-पुत्र-धन और मकान आदिकी ममतारूपी रात्रिमें ही अचेत सोते रहते हैं। उनकी बुद्धि (इस ‘मेरे-मेरे’ की निद्रासे) कभी जागती ही नहीं॥ २॥ हे तुलसीदास! जो दुष्ट श्रीहरि-नाम-रूपी अमृतको छोड़कर हठपूर्वक विषयरूपी जहर माँग-माँगकर (धन-पुत्र आदिकी कामना करके) पीते हैं, वे मनुष्य सूअर, कुत्ते और गीदड़के समान जगत् में केवल अपनी माँको दुःख देनेके लिये ही जन्म लेते हैं॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(१४१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामचंद्र! रघुनायक तुमसों हौं बिनती केहि भाँति करौं।
अघ अनेक अवलोकि आपने, अनघ नाम अनुमानि डरौं॥ १॥
पर-दुख दुखी सुखी पर-सुख ते, संत-सील नहिं हृदय धरौं।
देखि आनकी बिपति परम सुख, सुनि संपति बिनु आगि जरौं॥ २॥
भगति-बिराग-ग्यान साधन कहि बहु बिधि डहकत लोग फिरौं।
सिव-सरबस सुखधाम नाम तव, बेंचि नरकप्रद उदर भरौं॥ ३॥
जानत हौं निज पाप जलधि जिय, जल-सीकर सम सुनत लरौं।
रज-सम पर-अवगुन सुमेरु करि, गुन गिरि-सम रजतें निदरौं॥ ४॥
नाना बेष बनाय दिवस-निसि, पर-बित जेहि तेहि जुगुति हरौं।
एकौ पल न कबहुँ अलोल चित हित दै पद-सरोज सुमिरौं॥ ५॥
जो आचरन बिचारहु मेरो, कलप कोटि लगि औटि मरौं।
तुलसिदास प्रभु कृपा-बिलोकनि, गोपद-ज्यों भवसिंधु तरौं॥ ६॥

मूल

रामचंद्र! रघुनायक तुमसों हौं बिनती केहि भाँति करौं।
अघ अनेक अवलोकि आपने, अनघ नाम अनुमानि डरौं॥ १॥
पर-दुख दुखी सुखी पर-सुख ते, संत-सील नहिं हृदय धरौं।
देखि आनकी बिपति परम सुख, सुनि संपति बिनु आगि जरौं॥ २॥
भगति-बिराग-ग्यान साधन कहि बहु बिधि डहकत लोग फिरौं।
सिव-सरबस सुखधाम नाम तव, बेंचि नरकप्रद उदर भरौं॥ ३॥
जानत हौं निज पाप जलधि जिय, जल-सीकर सम सुनत लरौं।
रज-सम पर-अवगुन सुमेरु करि, गुन गिरि-सम रजतें निदरौं॥ ४॥
नाना बेष बनाय दिवस-निसि, पर-बित जेहि तेहि जुगुति हरौं।
एकौ पल न कबहुँ अलोल चित हित दै पद-सरोज सुमिरौं॥ ५॥
जो आचरन बिचारहु मेरो, कलप कोटि लगि औटि मरौं।
तुलसिदास प्रभु कृपा-बिलोकनि, गोपद-ज्यों भवसिंधु तरौं॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रघुकुलश्रेष्ठ रामचन्द्रजी! मैं किस प्रकार तुमसे विनय करूँ? अपने अनेक अघों (पापों) की ओर देखकर और तुम्हारा अनघ (पापरहित) नाम विचारकर डर रहा हूँ॥ १॥ दूसरेके दुःखसे दुःखी तथा दूसरेके सुखसे सुखी होना संतोंका शील-स्वभाव है, उसे तो मैं कभी हृदयमें धारण ही नहीं करता। प्रत्युत दूसरोंकी विपत्ति देखकर परम सुखी होता हूँ और दूसरोंकी सम्पत्ति सुनकर तो बिना ही आगके जला करता हूँ॥ २॥ भक्ति, वैराग्य, ज्ञान आदिके साधनोंका उपदेश देता हुआ मैं लोगोंको भाँति-भाँतिसे ठगता फिरता हूँ और शिवके सर्वस्व तथा आनन्दके धाम तुम्हारे राम-नामको बेच-बेचकर नरकमें ले जानेवाले (पापी) पेटको भरता हूँ॥ ३॥ मनमें जानता हूँ कि मेरे पाप समुद्रके समान अपार हैं; परन्तु जब दूसरे किसीके मुखसे अपने पापोंके लिये यह सुनता हूँ कि मेरेमें पानीकी बूँदके बराबर भी पाप हैं तब उससे लड़ने लगता हूँ। भाव यह है कि महापापी होनेपर भी लोगोंके मुखसे परम पुण्यात्मा ही कहलाना चाहता हूँ, परन्तु दूसरोंके धूलके कणके समान मामूली दोषोंको भी सुमेरुपर्वतके समान बढ़ाकर बतलाता हूँ। और उनके पर्वतके समान (महान्) गुणोंको धूलके समान तुच्छ बतलाकर उनका तिरस्कार करता हूँ (मेरी ऐसी करनी है)॥ ४॥ भाँति-भाँतिके भेष बना-बनाकर दिन-रात जिस किसी भी उपायसे दूसरोंका धन हरण करता हूँ। कभी एक पल भी स्थिरचित्त होकर प्रेमसे तुम्हारे चरण-कमलोंका स्मरण नहीं करता॥ ५॥ यदि तुम मेरे आचरणोंपर विचार करने लगोगे तब तो मुझे करोड़ों कल्पतक संसाररूपी कड़ाहमें औंट-औंटकर जल मरना पड़ेगा, जन्म-मरणसे कभी नहीं छूटूँगा। पर यदि तुम एक बार कृपादृष्टि कर दोगे, तो हे प्रभो! मैं तुलसीदास उसीके प्रभावसे इस संसार-सागरको गायके खुरके समान सहज ही पार कर जाऊँगा॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(१४२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकुचत हौं अति राम कृपानिधि! क्यों करि बिनय सुनावौं।
सकल धरम बिपरीत करत, केहि भाँति नाथ! मन भावौं॥ १॥
जानत हौं हरि रूप चराचर, मैं हठि नयन न लावौं।
अंजन-केस-सिखा जुवती, तहँ लोचन-सलभ पठावौं॥ २॥
स्रवननिको फल कथा तुम्हारी, यह समुझौं, समुझावौं।
तिन्ह स्रवननि परदोष निरंतर सुनि सुनि भरि भरि तावौं॥ ३॥
जेहि रसना गुन गाइ तिहारे, बिनु प्रयास सुख पावौं।
तेहि मुख पर-अपवाद भेक ज्यों रटि-रटि जनम नसावौं॥ ४॥
‘करहु हृदय अति बिमल बसहिं हरि,’ कहि कहि सबहिं सिखावौं।
हौं निज उर अभिमान-मोह-मद खल-मंडली बसावौं॥ ५॥
जो तनु धरि हरिपद साधहिं जन, सो बिनु काज गँवावौं।
हाटक-घट भरि धरॺो सुधा गृह, तजि नभ कूप खनावौं॥ ६॥
मन-क्रम-बचन लाइ कीन्हे अघ, ते करि जतन दुरावौं।
पर-प्रेरित इरषा बस कबहुँक किय कछु सुभ, सो जनावौं॥ ७॥
बिप्र-द्रोह जनु बाँट परॺो, हठि सबसों बैर बढ़ावौं।
ताहूपर निज मति-बिलास सब संतन माँझ गनावौं॥ ८॥
निगम सेस सारद निहोरि जो अपने दोष कहावौं।
तौ न सिराहिं कलप सत लगि प्रभु, कहा एक मुख गावौं॥ ९॥
जो करनी आपनी बिचारौं, तौ कि सरन हौं आवौं।
मृदुल सुभाउ सील रघुपतिको, सो बल मनहिं दिखावौं॥ १०॥
तुलसिदास प्रभु सो गुन नहिं, जेहि सपनेहुँ तुमहिं रिझावौं।
नाथ-कृपा भवसिंधु धेनुपद सम जो जानि सिरावौं॥ ११॥

मूल

सकुचत हौं अति राम कृपानिधि! क्यों करि बिनय सुनावौं।
सकल धरम बिपरीत करत, केहि भाँति नाथ! मन भावौं॥ १॥
जानत हौं हरि रूप चराचर, मैं हठि नयन न लावौं।
अंजन-केस-सिखा जुवती, तहँ लोचन-सलभ पठावौं॥ २॥
स्रवननिको फल कथा तुम्हारी, यह समुझौं, समुझावौं।
तिन्ह स्रवननि परदोष निरंतर सुनि सुनि भरि भरि तावौं॥ ३॥
जेहि रसना गुन गाइ तिहारे, बिनु प्रयास सुख पावौं।
तेहि मुख पर-अपवाद भेक ज्यों रटि-रटि जनम नसावौं॥ ४॥
‘करहु हृदय अति बिमल बसहिं हरि,’ कहि कहि सबहिं सिखावौं।
हौं निज उर अभिमान-मोह-मद खल-मंडली बसावौं॥ ५॥
जो तनु धरि हरिपद साधहिं जन, सो बिनु काज गँवावौं।
हाटक-घट भरि धरॺो सुधा गृह, तजि नभ कूप खनावौं॥ ६॥
मन-क्रम-बचन लाइ कीन्हे अघ, ते करि जतन दुरावौं।
पर-प्रेरित इरषा बस कबहुँक किय कछु सुभ, सो जनावौं॥ ७॥
बिप्र-द्रोह जनु बाँट परॺो, हठि सबसों बैर बढ़ावौं।
ताहूपर निज मति-बिलास सब संतन माँझ गनावौं॥ ८॥
निगम सेस सारद निहोरि जो अपने दोष कहावौं।
तौ न सिराहिं कलप सत लगि प्रभु, कहा एक मुख गावौं॥ ९॥
जो करनी आपनी बिचारौं, तौ कि सरन हौं आवौं।
मृदुल सुभाउ सील रघुपतिको, सो बल मनहिं दिखावौं॥ १०॥
तुलसिदास प्रभु सो गुन नहिं, जेहि सपनेहुँ तुमहिं रिझावौं।
नाथ-कृपा भवसिंधु धेनुपद सम जो जानि सिरावौं॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे कृपानिधि रामजी! मुझे बड़ा संकोच हो रहा है, मैं किस प्रकार आपको अपनी विनती सुनाऊँ? जो कुछ भी मैं करता हूँ, सो सभी धर्मके विरुद्ध होता है। फिर नाथ! आपको मैं क्यों अच्छा लगने लगा?॥ १॥ यद्यपि मैं यह जानता हूँ कि सम्पूर्ण जड़-चेतन भगवान् श्रीहरिका ही रूप है, पर मैं उस हरिस्वरूपको भूलकर भी नहीं देखता। मैं तो अपने नेत्ररूपी पतंगोंको कामिनीरूपी अग्निकी शिखामें (जलनेके लिये) भेजता हूँ॥ २॥ मैं यह समझता हूँ और दूसरोंको भी समझाता हूँ कि कानोंकी सार्थकता तो आपकी कथा सुननेमें ही है; परन्तु मैं तो उन कानोंसे सदा दूसरोंके दोष सुन-सुनकर उन्हें हृदयमें भरता और सन्तप्त होता हूँ॥ ३॥ जिस जीभसे आपके गुणानुवाद गाकर बिना ही परिश्रमके परमसुख प्राप्त कर सकता हूँ, उस मुखसे (जीभसे) मेढककी नाईं दूसरोंकी निन्दाएँ रट-रटकर अपना जन्म खो रहा हूँ॥ ४॥ मैं यह बात सबको सिखाता फिरता हूँ, कि ‘हृदयको अत्यन्त शुद्ध कर लो, तभी उसमें भगवान् श्रीहरि विराजेंगे’ किन्तु मैं स्वयं अपने हृदयमें अभिमान, मोह और मद आदि दुष्टोंकी मण्डलीको बसाता हूँ॥ ५॥ जिस दुर्लभ मनुष्य-शरीरको धारण कर भक्तजन भगवान् के परमपदको प्राप्त करनेकी साधना करते हैं, मैं उसे व्यर्थ ही खो रहा हूँ। घरमें सोनेके घड़ोंमें अमृत भरा रखा है, पर उसे छोड़कर आकाशमें कुआँ खुदवाता हूँ॥ ६॥ मनसे, कर्मसे और वचनसे मैंने जो पाप किये हैं, उन्हें तो मैं यत्न कर-कर बड़े जतनसे छिपाता हूँ। और यदि दूसरोंकी प्रेरणासे अथवा ईर्ष्यावश कहीं कोई शुभ कर्म बन गया है, तो उसे जनाता फिरता हूँ॥ ७॥ ब्राह्मणोंके साथ द्रोह करना तो मानो मेरे हिस्सेमें ही आ गया है। जबरदस्ती ही सबसे वैर बढ़ाता हूँ। इतना (बुद्धिभ्रष्ट) होनेपर भी, मैं सब संतोंके बीच बैठकर अपनी बुद्धिके विलासको गिनाता हूँ (उनमें उत्तम ज्ञानी संत बनता हूँ)॥ ८॥ चारों वेद, शेषनाग और शारदा आदिका निहोरा करके उनसे यदि मैं अपने दोषोंका बखान कराऊँ, तब भी, हे प्रभो! मेरे वे दोष सौ कल्पतक समाप्त न होंगे! फिर, भला मैं एक मुखसे उनका कहाँतक वर्णन करूँ?॥ ९॥ यदि मैं अपनी करनीपर विचार करूँ, तो क्या मैं आपकी शरणमें आनेका साहस भी कर सकूँ? परन्तु श्रीरामजीका बड़ा ही कोमल स्वभाव और असीम शील है, इसी बातका बल मनको दिखाता रहता हूँ॥ १०॥ हे प्रभो! इस तुलसीदासके पास ऐसा एक भी गुण नहीं है, जिससे स्वप्नमें भी आपको रिझा सके। किन्तु हे नाथ! आपकी कृपाके आगे यह संसार-सागर गायके खुरके समान है। यह जानकर जीमें सन्तोष कर लेता हूँ (कि आपकी कृपासे मैं विपरीत आचरणवाला होनेपर भी संसार-समुद्रसे सहज ही तर जाऊँगा)॥ ११॥

विषय (हिन्दी)

(१४३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनहु राम रघुबीर गुसाईं, मन अनीति-रत मेरो।
चरन-सरोज बिसारि तिहारे, निसिदिन फिरत अनेरो॥ १॥
मानत नाहिं निगम-अनुसासन, त्रास न काहू केरो।
भूल्यो सूल करम-कोलुन्ह तिल ज्यों बहु बारनि पेरो॥ २॥
जहँ सतसंग कथा माधवकी, सपनेहुँ करत न फेरो।
लोभ-मोह-मद-काम-कोह-रत, तिन्हसों प्रेम घनेरो॥ ३॥
पर-गुन सुनत दाह, पर-दूषन सुनत हरख बहुतेरो।
आप पापको नगर बसावत, सहि न सकत पर खेरो॥ ४॥
साधन-फल, श्रुति-सार नाम तव, भव-सरिता कहँ बेरो।
सो पर-कर काँकिनी लागि सठ, बेंचि होत हठि चेरो॥ ५॥
कबहुँक हौं संगति-प्रभावतें, जाउँ सुमारग नेरो।
तब करि क्रोध संग कुमनोरथ देत कठिन भटभेरो॥ ६॥
इक हौं दीन, मलीन, हीनमति, बिपतिजाल अति घेरो।
तापर सहि न जाय करुनानिधि, मनको दुसह दरेरो॥ ७॥
हारि परॺो करि जतन बहुत बिधि, तातें कहत सबेरो।
तुलसिदास यह त्रास मिटै जब हृदय करहु तुम डेरो॥ ८॥

मूल

सुनहु राम रघुबीर गुसाईं, मन अनीति-रत मेरो।
चरन-सरोज बिसारि तिहारे, निसिदिन फिरत अनेरो॥ १॥
मानत नाहिं निगम-अनुसासन, त्रास न काहू केरो।
भूल्यो सूल करम-कोलुन्ह तिल ज्यों बहु बारनि पेरो॥ २॥
जहँ सतसंग कथा माधवकी, सपनेहुँ करत न फेरो।
लोभ-मोह-मद-काम-कोह-रत, तिन्हसों प्रेम घनेरो॥ ३॥
पर-गुन सुनत दाह, पर-दूषन सुनत हरख बहुतेरो।
आप पापको नगर बसावत, सहि न सकत पर खेरो॥ ४॥
साधन-फल, श्रुति-सार नाम तव, भव-सरिता कहँ बेरो।
सो पर-कर काँकिनी लागि सठ, बेंचि होत हठि चेरो॥ ५॥
कबहुँक हौं संगति-प्रभावतें, जाउँ सुमारग नेरो।
तब करि क्रोध संग कुमनोरथ देत कठिन भटभेरो॥ ६॥
इक हौं दीन, मलीन, हीनमति, बिपतिजाल अति घेरो।
तापर सहि न जाय करुनानिधि, मनको दुसह दरेरो॥ ७॥
हारि परॺो करि जतन बहुत बिधि, तातें कहत सबेरो।
तुलसिदास यह त्रास मिटै जब हृदय करहु तुम डेरो॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रामजी! हे रघुनाथजी! हे स्वामी! सुनिये—मेरा मन अन्यायमें लगा हुआ है, आपके चरण-कमलोंको भूलकर दिन-रात इधर-उधर (विषयोंमें) भटकता फिरता है॥ १॥ न तो वह वेदकी ही आज्ञा मानता है और न उसे किसीका डर ही है। वह बहुत बार कर्मरूपी कोल्हूमें तिलकी तरह पेरा जा चुका है, पर अब उस कष्टको भूल गया है॥ २॥ जहाँ सत्संग होता है, भगवान् की कथा होती है, वहाँ वह मन स्वप्नमें भी भूलकर भी नहीं जाता। परन्तु जो लोभ, मोह, मद, काम और क्रोधमें मग्न रहते हैं, उन्हीं (दुष्टों)से वह अधिक प्रेम करता है॥ ३॥ दूसरोंके गुण सुनकर वह (डाहके मारे) जला जाता है और दूसरोंके दोष सुनकर बड़ा भारी हरखाता है। स्वयं तो पापोंका नगर बसा रहा है, पर दूसरेके (पापोंके) खेड़ेको भी नहीं देख सकता। भाव यह कि अपने बड़े-बड़े पापोंपर तो कुछ भी ध्यान नहीं देता, परन्तु दूसरोंके जरासे पापको देखकर ही उनकी निन्दा करता है॥ ४॥ आपका राम-नाम सारे साधनोंका फल, वेदोंका सार और संसाररूपी नदीसे पार जानेके लिये बेड़ा है, ऐसे राम-नामको यह दुष्ट दूसरेके हाथमें कौड़ी-कौड़ीके लिये बेचता हुआ जबरदस्ती उनका गुलाम बनता फिरता है॥ ५॥ यदि कभी सत्संगके प्रभावसे भगवत् के मार्गके समीप जाता भी हूँ तो विषयोंकी आसक्ति उभड़कर मनको तुरंत सांसारिक बुरी कामनारूपी गढ्ढेमें धक्का दे देती है॥ ६॥ एक तो मैं वैसे ही दीन, पापी और बुद्धिहीन हूँ तथा विपत्तियोंके जालमें खूब फँसा पड़ा हूँ, तिसपर, हे करुणानिधि! मनके इस असह्य धक्केको मैं कैसे सह सकता हूँ?॥ ७॥ मैं अनेक यत्न करके हार गया इससे मैं पहलेसे ही कहे देता हूँ कि तुलसीदासका यह भय (जन्म-मरणका त्रास) तभी दूर होगा, जब आप उसके हृदयमें निवास करेंगे॥ ८॥

विषय (हिन्दी)

(१४४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो धौं को जो नाम-लाज तें, नहिं राख्यो रघुबीर।
कारुनीक बिनु कारन ही हरि हरी सकल भव-भीर॥ १॥
बेद-बिदित, जग-बिदित अजामिल बिप्रवंधु अघ-धाम।
घोर जमालय जात निवारॺो सुत-हित सुमिरत नाम॥ २॥
पसु पामर अभिमान-सिंधु गज ग्रस्यो आइ जब ग्राह।
सुमिरत सकृत सपदि आये प्रभु, हरॺो दुसह उर दाह॥ ३॥
ब्याध, निषाद, गीध, गनिकादिक, अगनित औगुन-मूल।
नाम-ओटतें राम सबनिकी दूरि करी सब सूल॥ ४॥
केहि आचरन घाटि हौं तिनतें, रघुकुल-भूषन भूप।
सीदत तुलसिदास निसिबासर परॺो भीम तम-कूप॥ ५॥

मूल

सो धौं को जो नाम-लाज तें, नहिं राख्यो रघुबीर।
कारुनीक बिनु कारन ही हरि हरी सकल भव-भीर॥ १॥
बेद-बिदित, जग-बिदित अजामिल बिप्रवंधु अघ-धाम।
घोर जमालय जात निवारॺो सुत-हित सुमिरत नाम॥ २॥
पसु पामर अभिमान-सिंधु गज ग्रस्यो आइ जब ग्राह।
सुमिरत सकृत सपदि आये प्रभु, हरॺो दुसह उर दाह॥ ३॥
ब्याध, निषाद, गीध, गनिकादिक, अगनित औगुन-मूल।
नाम-ओटतें राम सबनिकी दूरि करी सब सूल॥ ४॥
केहि आचरन घाटि हौं तिनतें, रघुकुल-भूषन भूप।
सीदत तुलसिदास निसिबासर परॺो भीम तम-कूप॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रघुवीर! ऐसा कौन है, जिसे आपने अपने नामकी लाजसे अपनी शरणमें नहीं रखा? हे हरि! आप तो बिना ही कारण करुणा करनेवाले और (जन्म-मरणरूपी) संसारके भयको दूर करनेवाले हैं॥ १॥ वेदमें प्रकट है और संसारमें भी प्रसिद्ध है कि अजामिल जातिका ब्राह्मण महान् पापोंका स्थान था। यमलोक जाते समय जब उसने पुत्रके बहाने आपका ‘नारायण’ नाम लिया तब आपने उसे यमलोक जानेसे रोक दिया॥ २॥ जब मगरने महान् अभिमानी पामर पशु हाथीको पकड़ लिया, तब उसके एक ही बार स्मरण करनेपर, हे प्रभो! आप वहाँ दौड़े आये और उसकी दुःसह हार्दिक पीड़ाको मिटा दिया (मगरसे छुड़ाकर उसे परमधाम प्रदान कर दिया)॥ ३॥ व्याध (वाल्मीकि), निषाद (गुह), गीध (जटायु), गणिका (पिंगला) इत्यादि अगणित जीव जो पापोंकी जड़ थे, परन्तु हे रामजी! आपने अपने नामकी ओटसे इन सबकी सारी पीड़ाओंका नाश कर दिया॥ ४॥ हे रघुवंशभूषण महाराज! मैं इन सबोंसे किस आचरणमें कम हूँ? फिर भी मैं तुलसीदास रात-दिन भयानक अज्ञानरूपी कुएँमें पड़ा दुःख भोग रहा हूँ (सबको निकाला है तो अब मुझे भी निकालिये)॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१४५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृपासिंधु! जन दीन दुवारे दादि न पावत काहे।
जब जहँ तुमहिं पुकारत आरत, तहँ तिन्हके दुख दाहे॥ १॥
गज, प्रहलाद, पांडुसुत, कपि सबको रिपु-संकट मेटॺो।
प्रनत, बंधु-भय-बिकल, बिभीषन, उठि सो भरत ज्यों भेटॺो॥ २॥
मैं तुम्हरो लेइ नाम ग्राम इक उर आपने बसावों।
भजन, बिबेक, बिराग, लोग भले, मैं क्रम-क्रम करि ल्यावों॥ ३॥
सुनि रिस भरे कुटिल कामादिक, करहिं जोर बरिआईं।
तिन्हहिं उजारि नारि-अरि-धन पुर राखहिं राम गुसाईं॥ ४॥
सम-सेवा-छल-दान-दंड हौं, रचि उपाय पचि हारॺो।
बिनु कारनको कलह बड़ो दुख, प्रभुसों प्रगटि पुकारॺो॥ ५॥
सुर स्वारथी, अनीस, अलायक, निठुर, दया चित नाहीं।
जाउँ कहाँ, को बिपति-निवारक, भवतारक जग माहीं॥ ६॥
तुलसी जदपि पोच, तउ तुम्हरो, और न काहू केरो।
दीजै भगति-बाँह बारक, ज्यों सुबस बसै अब खेरो॥ ७॥

मूल

कृपासिंधु! जन दीन दुवारे दादि न पावत काहे।
जब जहँ तुमहिं पुकारत आरत, तहँ तिन्हके दुख दाहे॥ १॥
गज, प्रहलाद, पांडुसुत, कपि सबको रिपु-संकट मेटॺो।
प्रनत, बंधु-भय-बिकल, बिभीषन, उठि सो भरत ज्यों भेटॺो॥ २॥
मैं तुम्हरो लेइ नाम ग्राम इक उर आपने बसावों।
भजन, बिबेक, बिराग, लोग भले, मैं क्रम-क्रम करि ल्यावों॥ ३॥
सुनि रिस भरे कुटिल कामादिक, करहिं जोर बरिआईं।
तिन्हहिं उजारि नारि-अरि-धन पुर राखहिं राम गुसाईं॥ ४॥
सम-सेवा-छल-दान-दंड हौं, रचि उपाय पचि हारॺो।
बिनु कारनको कलह बड़ो दुख, प्रभुसों प्रगटि पुकारॺो॥ ५॥
सुर स्वारथी, अनीस, अलायक, निठुर, दया चित नाहीं।
जाउँ कहाँ, को बिपति-निवारक, भवतारक जग माहीं॥ ६॥
तुलसी जदपि पोच, तउ तुम्हरो, और न काहू केरो।
दीजै भगति-बाँह बारक, ज्यों सुबस बसै अब खेरो॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे कृपासागर! यह तुम्हारा दीन जन तुम्हारे द्वारपर सहायता क्यों नहीं पाता? जब, जहाँपर, दुःखियोंने तुम्हें पुकारा, तब वहींपर तुमने उनके दुःख दूर कर दिये॥ १॥ गजराज, प्रह्लाद, पाण्डव, सुग्रीव आदि सबके शत्रुओंसे दिये गये कष्ट तुमने दूर कर दिये। भाई रावणके डरसे व्याकुल शरणागत विभीषणको उठाकर तुमने भरतकी नाईं हृदयसे लगा लिया (फिर मेरे लिये ही ऐसा क्यों नहीं होता)॥ २॥ मैं तुम्हारा नाम लेकर अपने हृदयमें एक गाँव बसाना चाहता हूँ और उसमें बसानेके लिये मैं धीरे-धीरे भजन, विवेक, वैराग्य आदि सज्जनोंको इधर-उधरसे लाता हूँ॥ ३॥ पर यह सुनकर क्रोधित हो दुष्ट काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य आदि जबरदस्ती करते हैं और उन बेचारे भजन आदि भले आदमियोंको निकाल-निकालकर, हे प्रभो! उस गाँवमें दुष्ट स्त्री, शत्रु और धन आदि नीचोंको ला-लाकर बसाते हैं॥ ४॥ साम, दाम, दण्ड, भेद और सेवा-टहल करके तथा और अनेक उपाय करके मैं थक गया हूँ, तब हे प्रभो! इस बिना ही कारणकी लड़ाईके इस महान् दुःखको आज मैंने तुम्हारे सामने खुलकर निवेदन कर दिया है॥ ५॥ (तुम्हारे सिवा यह दुःख और सुनाता भी किसे, क्योंकि) देवता तो स्वार्थी, असमर्थ, अयोग्य और निष्ठुर हैं। उनके चित्तमें तो दया नहीं है। मैं कहाँ जाऊँ? (तुम्हारे सिवा) कौन विपत्ति दूर करनेवाला है? कौन इस संसार-सागरसे पार उतारनेवाला है?॥ ६॥ तुलसी यद्यपि नीच है, पर है तो तुम्हारा ही, और किसीका गुलाम तो नहीं है। अपना जानकर एक बार भक्तिरूपी बाँह दे दो; जिससे यह (तुम्हारे नामका) गाँव अच्छी तरह आबाद हो जाय। अर्थात् हृदयमें तुम्हारी भक्तिके प्रतापसे भजन, ज्ञान, वैराग्यका विकास होकर काम-क्रोधादिका नाश हो जाय॥ ७॥

विषय (हिन्दी)

(१४६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

हौं सब बिधि राम, रावरो चाहत भयो चेरो।
ठौर ठौर साहबी होत है, ख्याल काल कलि केरो॥ १॥
काल-करम-इंद्रिय-बिषय गाहकगन घेरो।
हौं न कबूलत, बाँधि कै मोल करत करेरो॥ २॥
बंदि-छोर तेरो नाम है, बिरुदैत बड़ेरो।
मैं कह्यो, तब छल-प्रीति कै माँगे उर डेरो॥ ३॥
नाम-ओट अब लगि बच्यो मलजुग जग जेरो।
अब गरीब जन पोषिये पाइबो न हेरो॥ ४॥
जेहि कौतुक बक खग स्वानको प्रभु न्याव निबेरो।
तेहि कौतुक कहिये कृपालु! ‘तुलसी है मेरो’॥ ५॥

मूल

हौं सब बिधि राम, रावरो चाहत भयो चेरो।
ठौर ठौर साहबी होत है, ख्याल काल कलि केरो॥ १॥
काल-करम-इंद्रिय-बिषय गाहकगन घेरो।
हौं न कबूलत, बाँधि कै मोल करत करेरो॥ २॥
बंदि-छोर तेरो नाम है, बिरुदैत बड़ेरो।
मैं कह्यो, तब छल-प्रीति कै माँगे उर डेरो॥ ३॥
नाम-ओट अब लगि बच्यो मलजुग जग जेरो।
अब गरीब जन पोषिये पाइबो न हेरो॥ ४॥
जेहि कौतुक बक खग स्वानको प्रभु न्याव निबेरो।
तेहि कौतुक कहिये कृपालु! ‘तुलसी है मेरो’॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रामजी! मैं सब प्रकार आपका दास बनना चाहता हूँ, पर यहाँ तो जगह-जगह साहबी हो रही है। भाव यह कि मन और इन्द्रियाँ सभी मेरे मालिक बन बैठे हैं। यह सब कलिकालके खेल हैं॥ १॥ काल, कर्म और इन्द्रियरूपी ग्राहकोंने मुझे घेर रखा है। जब मैं उनके हाथ बिकना कबूल नहीं करता, तब वे मुझे बाँधकर मुझपर कड़ा दाम चढ़ाते हैं, अर्थात् जैसे-तैसे लालच दिखाकर अपने वशमें करना चाहते हैं॥ २॥ आपका नाम बन्धनसे छुड़ानेवाला है और आपका बाना भी बड़ा है; जब मैंने उन (ग्राहकों)-से यह कहा कि भाई! मैं तो रघुनाथजीके हाथ बिक चुका हूँ, तब वे कपट-प्रेम दिखाकर मुझसे मेरे हृदयमें बसनेके लिये स्थान माँगने लगे (यदि उन्हें स्थान दिये देता हूँ, तो अभी तो वे दीनता दिखा रहे हैं, पर जगह मिल जानेपर धीरे-धीरे उसपर अपना अधिकार जमा लेंगे)॥ ३॥ अबतक मैं आपके नामके सहारे बचा रहा, पर अब तो यह कलियुग मुझे जेर किये है। अतएव, अब इस गरीब गुलामका पालन कीजिये, नहीं तो फिर खोजनेसे भी इसका पता न लगेगा॥ ४॥ हे नाथ! आपने जिस लीलासे पक्षी (उल्लू)का१ और कुत्तेका२ फैसला कर दिया था, उसी लीलासे (इस कलियुगसे) यह भी कह दीजिये कि ‘तुलसी मेरा है।’ (इतना कह देनेसे फिर कलियुगका इसपर कुछ भी वश न चलेगा)॥ ५॥

पादटिप्पनी

१—वनमें उल्लू और गीध एक ही घरमें रहते थे। एक दिन गीधने बुरी नीयतसे घरपर अपना अधिकार करना चाहा और उल्लूसे कहा—‘हमारा घर खाली कर दो, इसपर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं, नहीं मानते तो चलो राजाजीसे न्याय करा लें।’ अन्तमें दोनों श्रीरामजीके दरबारमें आये। रामचन्द्रजीने उल्लूसे कहा—‘घर किसका है? तू उसमें कबसे रहता है?’ उल्लूने उत्तर दिया—‘महाराज! जबसे वृक्षोंकी सृष्टि हुई, तबसे मैं उस घरमें रहता हूँ।’ गीधने कहा कि ‘जबसे मनुष्योंकी सृष्टि हुई, तबसे मैं रहता हूँ।’ भगवान् ने कहा कि ‘वृक्षोंकी सृष्टि मनुष्योंसे पहले हुई है, इसलिये घर उल्लूका ही है, तुम्हारा नहीं। तुम घर खाली कर दो।’
२—एक दिन श्रीरामजीके राजदरबारमें एक कुत्ता आया और रोता हुआ कहने लगा—‘महाराज, तीर्थसिद्धिनामक ब्राह्मणने बिना ही अपराध लाठीसे मेरा सिर फोड़ दिया, आप मेरा न्याय कर दीजिये।’ भगवान् ने ब्राह्मणको बुलाया और उससे पूछा कि ‘तुमने निरपराध कुत्तेके सिरपर क्यों लाठी मारी?’ ब्राह्मणने कहा कि ‘मैं भीख माँगता फिरता था, इसे मैंने रास्तेसे हटाया, जब यह न हटा, तब मैंने लकड़ी मार दी।’ ब्राह्मणको अदण्डनीय समझकर भगवान् विचार करने लगे! इतनेमें कुत्तेने कहा कि ‘भगवन्! आप इसे कालिंजरका महन्त बना दीजिये। मैं भी पूर्वजन्ममें एक महन्त था। भक्ष्याभक्ष्य खानेसे मुझे कुत्ता होना पड़ा, महन्ती बहुत बुरी है।’ कुत्तेके कहनेपर भगवान् ने उसे कालिंजरका महन्त बना दिया।

विषय (हिन्दी)

(१४७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृपासिंधु ताते रहौं निसिदिन मन मारे।
महाराज! लाज आपुही निज जाँघ उघारे॥ १॥
मिले रहैं, मारॺौ चहैं कामादि संघाती।
मो बिनु रहैं न, मेरियै जारैं छल छाती॥ २॥
बसत हिये हित जानि मैं सबकी रुचि पाली।
कियो कथकको दंड हौं जड़ करम कुचाली॥ ३॥
देखी सुनी न आजु लौं अपनायति ऐसी।
करहिं सबै सिर मेरे ही फिरि परै अनैसी॥ ४॥
बड़े अलेखी लखि परैं, परिहरै न जाहीं।
असमंजसमें मगन हौं, लीजै गहि बाहीं॥ ५॥
बारक बलि अवलोकिये, कौतुक जन जी को।
अनायास मिटि जाइगो संकट तुलसीको॥ ६॥

मूल

कृपासिंधु ताते रहौं निसिदिन मन मारे।
महाराज! लाज आपुही निज जाँघ उघारे॥ १॥
मिले रहैं, मारॺौ चहैं कामादि संघाती।
मो बिनु रहैं न, मेरियै जारैं छल छाती॥ २॥
बसत हिये हित जानि मैं सबकी रुचि पाली।
कियो कथकको दंड हौं जड़ करम कुचाली॥ ३॥
देखी सुनी न आजु लौं अपनायति ऐसी।
करहिं सबै सिर मेरे ही फिरि परै अनैसी॥ ४॥
बड़े अलेखी लखि परैं, परिहरै न जाहीं।
असमंजसमें मगन हौं, लीजै गहि बाहीं॥ ५॥
बारक बलि अवलोकिये, कौतुक जन जी को।
अनायास मिटि जाइगो संकट तुलसीको॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे कृपासिन्धु! इसीलिये मैं रात-दिन मन मारे रहता हूँ, कि हे महाराज! अपनी जाँघ उघाड़नेसे अपनेको ही लाज लगती है॥ १॥ यह काम, क्रोध, लोभ आदि साथी मिले भी रहते हैं और मारना भी चाहते हैं, ऐसे दुष्ट हैं! ये मेरे बिना रहते भी नहीं और छल करके मेरी ही छाती जलाते हैं। भाव यह कि अपने ही बनकर मारते हैं॥ २॥ ये मेरे हृदयमें बसते हैं, मैंने ऐसा समझकर प्रेमपूर्वक इन सबकी रुचि भी पूरी कर दी है, अर्थात् सब विषय भोग चुका हूँ, फिर भी इन दुष्टों और कुचालियोंने मुझे कत्थक (जादूगर) की लकड़ी बना रखा है (लकड़ीके इशारेसे जैसे नाच नचाते हैं, वैसे ही ये मुझे नचाते हैं)॥ ३॥ ऐसी अपनायत (आत्मीयता) तो आजतक मैंने कहीं भी नहीं देखी-सुनी। कर्म तो करें सब आप, और जो कुछ बुराई हो, वह मेरे सिर आवे॥ ४॥ मुझे ये सब बड़े ही अन्यायी दीखते हैं! पर छोड़े नहीं जाते। बड़े ही असमंजसमें पड़ा हुआ हूँ। अब हाथ पकड़कर आप ही निकालिये (नहीं तो अपने-से बने हुए ये मुझे मारकर ही छोड़ेंगे)॥ ५॥ आपकी बलैया लेता हूँ, कृपाकर एक बार अपने इस दासका यह कौतुक तो देखिये। आपके देखते ही तुलसीका दुःख सहज ही दूर हो जायगा॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(१४८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहौं कौन मुहँ लाइ कै रघुबीर गुसाईं।
सकुचत समुझत आपनी सब साइँ दुहाई॥ १॥
सेवत बस, सुमिरत सखा, सरनागत सो हौं।
गुनगन सीतानाथके चित करत न हौं हौं॥ २॥
कृपासिंधु बंधु दीनके आरत-हितकारी।
प्रनत-पाल बिरुदावली सुनि जानि बिसारी॥ ३॥
सेइ न धेइ न सुमिरि कै पद-प्रीति सुधारी।
पाइ सुसाहिब राम सों, भरि पेट बिगारी॥ ४॥
नाथ गरीबनिवाज हैं, मैं गही न गरीबी।
तुलसी प्रभु निज ओर तें बनि परै सो कीबी॥ ५॥

मूल

कहौं कौन मुहँ लाइ कै रघुबीर गुसाईं।
सकुचत समुझत आपनी सब साइँ दुहाई॥ १॥
सेवत बस, सुमिरत सखा, सरनागत सो हौं।
गुनगन सीतानाथके चित करत न हौं हौं॥ २॥
कृपासिंधु बंधु दीनके आरत-हितकारी।
प्रनत-पाल बिरुदावली सुनि जानि बिसारी॥ ३॥
सेइ न धेइ न सुमिरि कै पद-प्रीति सुधारी।
पाइ सुसाहिब राम सों, भरि पेट बिगारी॥ ४॥
नाथ गरीबनिवाज हैं, मैं गही न गरीबी।
तुलसी प्रभु निज ओर तें बनि परै सो कीबी॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रघुवीर! हे स्वामी! कौन-सा मुहँ लेकर आपसे कुछ कहूँ? स्वामीकी दुहाई है, जब मैं अपनी करनीपर विचार करता हूँ, तब संकोचके मारे चुप हो रहता हूँ॥ १॥ सेवा करनेसे वशमें हो जाते हैं, स्मरण करनेसे मित्र बन जाते हैं और शरणमें आनेसे सामने प्रकट हो जाते हैं। ऐसे आप श्रीसीतानाथजीके गुण-समूहपर भी मैं ध्यान नहीं देता॥ २॥ आप कृपाके समुद्र हैं, दीनोंके बन्धु हैं, दुःखियोंके हितू हैं और शरणागतोंके पालनेवाले हैं, आपकी ऐसी विरदावली सुनकर और जानकर भी मैं भूल गया हूँ॥ ३॥ मैंने न तो सेवा ही की और न ध्यान ही किया। स्मरण करके आपके चरणोंमें सच्चा प्रेम भी नहीं किया। आप-सरीखे श्रेष्ठ स्वामीको पाकर भी मैंने आपके साथ भर पेट बिगाड़ ही किया॥ ४॥ आप गरीबोंपर कृपा करनेवाले हैं; पर मैंने गरीबी धारण नहीं की। (अतएव मेरी ओर देखनेसे तो कुछ भी नहीं होगा) अब हे नाथ! अपनी ओर देखकर ही जो आपसे बन पड़े सो कीजिये॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१४९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहाँ जाउँ, कासों कहौं, और ठौर न मेरे।
जनम गँवायो तेरे ही द्वार किंकर तेरे॥ १॥
मैं तो बिगारी नाथ सों आरतिके लीन्हें।
तोहि कृपानिधि क्यों बनै मेरी-सी कीन्हें॥ २॥
दिन-दुरदिन दिन-दुरदसा, दिन-दुख दिन-दूषन।
जब लौं तू न बिलोकिहै रघुबंस-बिभूषन॥ ३॥
दई पीठ बिनु डीठ मैं तुम बिस्व-बिलोचन।
तो सों तुही न दूसरो नत-सोच-बिमोचन॥ ४॥
पराधीन देव दीन हौं, स्वाधीन गुसाईं।
बोलनिहारे सों करै बलि बिनयकी झाईं॥ ५॥
आपु देखि मोहि देखिये जन मानिय साँचो।
बड़ी ओट रामनामकी जेहि लई सो बाँचो॥ ६॥
रहनि रीति राम रावरी नित हिय हुलसी है।
ज्यों भावै त्यों करु कृपा तेरो तुलसी है॥ ७॥

मूल

कहाँ जाउँ, कासों कहौं, और ठौर न मेरे।
जनम गँवायो तेरे ही द्वार किंकर तेरे॥ १॥
मैं तो बिगारी नाथ सों आरतिके लीन्हें।
तोहि कृपानिधि क्यों बनै मेरी-सी कीन्हें॥ २॥
दिन-दुरदिन दिन-दुरदसा, दिन-दुख दिन-दूषन।
जब लौं तू न बिलोकिहै रघुबंस-बिभूषन॥ ३॥
दई पीठ बिनु डीठ मैं तुम बिस्व-बिलोचन।
तो सों तुही न दूसरो नत-सोच-बिमोचन॥ ४॥
पराधीन देव दीन हौं, स्वाधीन गुसाईं।
बोलनिहारे सों करै बलि बिनयकी झाईं॥ ५॥
आपु देखि मोहि देखिये जन मानिय साँचो।
बड़ी ओट रामनामकी जेहि लई सो बाँचो॥ ६॥
रहनि रीति राम रावरी नित हिय हुलसी है।
ज्यों भावै त्यों करु कृपा तेरो तुलसी है॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कहाँ जाऊँ? किससे कहूँ? मुझे कोई और ठौर ही नहीं। इस तेरे गुलामने तो तेरे ही दरवाजेपर (पड़े-पड़े) जिन्दगी काटी है॥ १॥ मैंने तो जो अपनी करनी बिगाड़ी सो हे नाथ! दुःखोंसे घबराया हुआ होनेके कारण बिगाड़ी। परन्तु हे कृपानिधे! यदि तू भी मेरी करनीकी ओर देखकर फल देगा तो कैसे काम चलेगा?॥ २॥ हे रघुकुलमें श्रेष्ठ! जबतक तू (इस जीवकी ओर कृपादृष्टिसे) नहीं देखेगा, तबतक नित्य ही खोटे दिन, नित्य ही बुरी दशा, नित्य ही दुःख और नित्य ही दोष लगे रहेंगे॥ ३॥ मैं जो तुझे पीठ दिये फिरता हूँ, तुझसे विमुख हो रहा हूँ, सो मैं तो दृष्टिहीन हूँ, अन्धा हूँ (अज्ञानी हूँ) पर तू तो सारे विश्वका द्रष्टा है! (तू मुझसे विमुख कैसे होगा?) तुझ-सा तो तू ही है, तेरे सिवा दीन-दुःखियोंके शोक हरनेवाला दूसरा कोई नहीं है॥ ४॥ हे देव! मैं परतन्त्र हूँ, दीन हूँ, पर तू तो स्वतन्त्र है, स्वामी है। तेरी बलिहारी! (चैतन्यरूप) बोलनेवालेसे उसकी परछाईं क्या विनय कर सकती है?॥ ५॥ अतएव तू पहले अपनी ओर देख, फिर मेरी ओर देख, तभी इस दासको सच्चा मानना। राम-नामकी ओट बड़ी भारी है। जिस किसीने भी राम-नामकी ओट ले ली वह (जन्म-मरणके चक्रसे) बच गया॥ ६॥ हे राम! तेरी रहन-सहन सदा मेरे हृदयमें हुलस रही है, तेरे शील-स्वभाव विचारकर मैं मन-ही-मन बड़ा प्रसन्न हो रहा हूँ कि अब मेरी सारी करनी बन जायगी। बस, यह तुलसी तेरा है, जिस तरह हो, उसी तरह इसपर कृपा कर॥ ७॥

विषय (हिन्दी)

(१५०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामभद्र! मोहिं आपनो सोच है अरु नाहीं।
जीव सकल संतापके भाजन जग माहीं॥ १॥
नातो बड़े समर्थ सों इक ओर किधौं हूँ।
तोको मोसे अति घने मोको एकै तूँ॥ २॥
बड़ी गलानि हिय हानि है सरबग्य गुसाईं।
कूर कुसेवक कहत हौं सेवककी नाईं॥ ३॥
भलो पोच रामको कहैं मोहि सब नरनारी।
बिगरे सेवक स्वान ज्यों साहिब-सिर गारी॥ ४॥
असमंजस मनको मिटै सो उपाय न सूझै।
दीनबंधु! कीजै सोई बनि परै जो बूझै॥ ५॥
बिरुदावली बिलोकिये तिन्हमें कोउ हौं हौं।
तुलसी प्रभुको परिहरॺो सरनागत सो हौं॥ ६॥

मूल

रामभद्र! मोहिं आपनो सोच है अरु नाहीं।
जीव सकल संतापके भाजन जग माहीं॥ १॥
नातो बड़े समर्थ सों इक ओर किधौं हूँ।
तोको मोसे अति घने मोको एकै तूँ॥ २॥
बड़ी गलानि हिय हानि है सरबग्य गुसाईं।
कूर कुसेवक कहत हौं सेवककी नाईं॥ ३॥
भलो पोच रामको कहैं मोहि सब नरनारी।
बिगरे सेवक स्वान ज्यों साहिब-सिर गारी॥ ४॥
असमंजस मनको मिटै सो उपाय न सूझै।
दीनबंधु! कीजै सोई बनि परै जो बूझै॥ ५॥
बिरुदावली बिलोकिये तिन्हमें कोउ हौं हौं।
तुलसी प्रभुको परिहरॺो सरनागत सो हौं॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे कल्याण-स्वरूप रामचन्द्रजी! मुझे अपना सोच है भी और नहीं भी है, क्योंकि इस संसारमें जितने जीव हैं वे सभी संतापके पात्र हैं, (सभी दुःखी हैं)॥ १॥ पर क्या आप-जैसे बड़े समर्थसे सिर्फ एक मेरी ही ओरसे सम्बन्ध है? (शायद यही हो क्योंकि) आपको तो मेरे-जैसे बहुतेरे हैं, किन्तु मेरे तो एक आप ही हैं॥ २॥ हे नाथ! आप तो घट-घटकी जानते हैं, मेरे हृदयमें यही बड़ी ग्लानि हो रही है और इसीको मैं हानि समझता हूँ कि, मैं हूँ तो दुष्ट और बुरा सेवक, नमकहराम नौकर, पर बातें कर रहा हूँ सच्चे सेवक-जैसी। भाव यह है कि मेरा यह दम्भ आप सर्वज्ञके सामने कैसे छिप सकता है?॥ ३॥ परन्तु भला हूँ या बुरा, सब स्त्री-पुरुष मुझे कहते तो रामका ही हैं न? सेवक और कुत्तेके बिगड़नेसे स्वामीके सिर ही गालियाँ पड़ती हैं। भाव यह कि यदि मैं बुराई करूँगा तो लोग आपको ही बुरा कहेंगे॥ ४॥ मुझे वह उपाय भी नहीं सूझ रहा है, कि जिससे चित्तका यह असमंजस मिटे अर्थात् मेरी नीचता दूर हो जाय और आपको भी कोई भला-बुरा न कहे। अब हे दीनबन्धु! जो आपको उचित जान पड़े और जो बन सके, वही (मेरे लिये) कीजिये॥ ५॥ तनिक अपनी विरदावलीकी ओर तो देखिये! मैं उन्हींमें कोई हूँगा! (भाव यह कि आप दीनबन्धु हैं, तो क्या मैं दीन नहीं हूँ, आप पतित-पावन हैं, तो क्या मैं पतित नहीं हूँ, आप प्रणतपाल हैं, तो क्या मैं प्रणत नहीं हूँ? इनमेंसे कुछ भी तो हूँगा।) (इतनेपर भी) यदि स्वामी इस तुलसीको छोड़ देंगे, तो भी यह उन्हींके सामने शरणमें जाकर पड़ा रहेगा। (आपको छोड़कर कहीं जा नहीं सकता)॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(१५१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो पै चेराई रामकी करतो न लजातो।
तौ तू दाम कुदाम ज्यों कर-कर न बिकातो॥ १॥
जपत जीह रघुनाथको नाम नहिं अलसातो।
बाजीगरके सूम ज्यों खल खेह न खातो॥ २॥
जौ तू मन! मेरे कहे राम-नाम कमातो।
सीतापति सनमुख सुखी सब ठाँव समातो॥ ३॥
राम सोहाते तोहिं जौ तू सबहिं सोहातो।
काल करम कुल कारनी कोऊ न कोहातो॥ ४॥
राम-नाम अनुरागही जिय जो रतिआतो।
स्वारथ-परमारथ-पथी तोहिं सब पतिआतो॥ ५॥
सेइ साधु सुनि समुझि कै पर-पीर पिरातो।
जनम कोटिको काँदलो ह्रद-हृदय थिरातो॥ ६॥
भव-मग अगम अनंत है, बिनु श्रमहि सिरातो।
महिमा उलटे नामकी मुनि कियो किरातो॥ ७॥
अमर-अगम तनु पाइ सो जड़ जाय न जातो।
होतो मंगल-मूल तू, अनुकूल बिधातो॥ ८॥
जो मन, प्रीति-प्रतीतिसों राम-नामहिं रातो।
तुलसी रामप्रसादसों तिहुँताप न तातो॥ ९॥

मूल

जो पै चेराई रामकी करतो न लजातो।
तौ तू दाम कुदाम ज्यों कर-कर न बिकातो॥ १॥
जपत जीह रघुनाथको नाम नहिं अलसातो।
बाजीगरके सूम ज्यों खल खेह न खातो॥ २॥
जौ तू मन! मेरे कहे राम-नाम कमातो।
सीतापति सनमुख सुखी सब ठाँव समातो॥ ३॥
राम सोहाते तोहिं जौ तू सबहिं सोहातो।
काल करम कुल कारनी कोऊ न कोहातो॥ ४॥
राम-नाम अनुरागही जिय जो रतिआतो।
स्वारथ-परमारथ-पथी तोहिं सब पतिआतो॥ ५॥
सेइ साधु सुनि समुझि कै पर-पीर पिरातो।
जनम कोटिको काँदलो ह्रद-हृदय थिरातो॥ ६॥
भव-मग अगम अनंत है, बिनु श्रमहि सिरातो।
महिमा उलटे नामकी मुनि कियो किरातो॥ ७॥
अमर-अगम तनु पाइ सो जड़ जाय न जातो।
होतो मंगल-मूल तू, अनुकूल बिधातो॥ ८॥
जो मन, प्रीति-प्रतीतिसों राम-नामहिं रातो।
तुलसी रामप्रसादसों तिहुँताप न तातो॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे! जो तू श्रीरामजीकी गुलामी करनेमें न लजाता तो तू खरा दाम होकर भी, खोटे दामकी भाँति इस हाथसे उस हाथ न बिकता फिरता। भाव यह कि परमात्माका सत्य अंश होनेपर भी उनको भूल जानेके कारण जीवरूपसे एक योनिसे दूसरी योनिमें भटकता फिर रहा है॥ १॥ यदि तू जीभसे श्रीरघुनाथजीका नाम जपनेमें आलस्य न करता, तो आज तुझे बाजीगरके सूमके सदृश धूल न फाँकनी पड़ती॥ २॥ अरे मन! यदि तू मेरा कहा मानकर राम-नामरूपी धन कमाता, तो श्रीजानकीनाथ रघुनाथजीके सम्मुख उनकी शरणमें जाकर सुखी हो जाता और सर्वत्र तेरा आदर होता। लोक-परलोक दोनों बन जाते॥ ३॥ जो तुझे श्रीरामजी अच्छे लगे होते, तो तू भी सबको अच्छा लगता; काल, कर्म और कुल आदि जितने (इस जीवके) प्रेरक हैं, वे सब फिर कोई भी तुझपर क्रोध न करते। सभी तेरे अनुकूल हो जाते॥ ४॥ यदि तू श्रीराम-नामसे प्रेम करता और उसीमें अपनी लगन लगाता, तो स्वार्थ और परमार्थ इन दोनोंके ही बटोही तुझपर विश्वास करते। अर्थात् तू संसार और परलोक दोनोंमें ही सुखी होता॥ ५॥ जो तू संतोंकी सेवा करता एवं दूसरोंका दुःख सुन और समझकर दुःखी होता तो तेरे हृदयरूपी तालाबमें जो करोड़ों जन्मोंका मैल जमा है, वह नीचे बैठ जाता, तेरा अन्तःकरण निर्मल हो जाता॥ ६॥ श्रीरामका नाम न लेनेवालोंके लिये संसारका मार्ग अगम्य है और अनन्त है, किन्तु उसीको तू बिना ही श्रमके पार कर जाता। जब श्रीरामके उलटे नामकी भी इतनी महिमा है कि उससे व्याध (वाल्मीकि) मुनि बन गये थे, तब सीधा नाम जपनेसे क्या नहीं हो जायगा?॥ ७॥ अरे मूर्ख! तेरा यह देवताओंको भी दुर्लभ (मानव) शरीर यों ही न चला जाता! तू कल्याणका मूल हो जाता और विधाता तेरे अनुकूल हो जाते॥ ८॥ अरे मन! यदि तू प्रेम और विश्वाससे राम-नाममें लौ लगा देता, तो हे तुलसी! श्रीराम-कृपासे तू तीनों तापोंमें कभी न जलता॥ ९॥

विषय (हिन्दी)

(१५२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम भलाई आपनी भल कियो न काको।
जुग जुग जानकिनाथको जग जागत साको॥ १॥
ब्रह्मादिक बिनती करी कहि दुख बसुधाको।
रबिकुल-कैरव-चंद भो आनंद-सुधाको॥ २॥
कौसिक गरत तुषार ज्यों तकि तेज तियाको।
प्रभु अनहित हित को दियो फल कोप कृपाको॥ ३॥
हरॺो पाप आप जाइकै संताप सिलाको।
सोच-मगन काढॺो सही साहिब मिथिलाको॥ ४॥
रोष-रासि भृगुपति धनी अहमिति ममताको।
चितवत भाजन करि लियो उपसम समताको॥ ५॥
मुदित मानि आयसु चले बन मातु-पिताको।
धरम-धुरंधर धीरधुर गुन-सील-जिता को?॥ ६॥
गुह गरीब गतग्याति हू जेहि जिउ न भखा को?
पायो पावन प्रेम तें सनमान सखाको॥ ७॥
सदगति सबरी गीधकी सादर करता को?
सोच-सींव सुग्रीवके संकट-हरता को?॥ ८॥
(राखि बिभीषनको सकै अस काल-गहा तेहि काल कहाँ को?)
आज बिराजत राज है दसकंठ जहाँको॥ ९॥
बालिस बासी अवधको बूझिये न खाको।
सो पाँवर पहुँचो तहाँ जहँ मुनि-मन थाको॥ १०॥
गति न लहै राम-नामसों बिधि सो सिरजा को?
सुमिरत कहत प्रचारि कै बल्लभ गिरिजाको॥ ११॥
अकनि अजामिलकी कथा सानंद न भा को?
नाम लेत कलिकालहू हरिपुरहिं न गा को?॥ १२॥
राम-नाम-महिमा करै काम-भुरुह आको।
साखी बेद पुरान हैं तुलसी-तन ताको॥ १३॥

मूल

राम भलाई आपनी भल कियो न काको।
जुग जुग जानकिनाथको जग जागत साको॥ १॥
ब्रह्मादिक बिनती करी कहि दुख बसुधाको।
रबिकुल-कैरव-चंद भो आनंद-सुधाको॥ २॥
कौसिक गरत तुषार ज्यों तकि तेज तियाको।
प्रभु अनहित हित को दियो फल कोप कृपाको॥ ३॥
हरॺो पाप आप जाइकै संताप सिलाको।
सोच-मगन काढॺो सही साहिब मिथिलाको॥ ४॥
रोष-रासि भृगुपति धनी अहमिति ममताको।
चितवत भाजन करि लियो उपसम समताको॥ ५॥
मुदित मानि आयसु चले बन मातु-पिताको।
धरम-धुरंधर धीरधुर गुन-सील-जिता को?॥ ६॥
गुह गरीब गतग्याति हू जेहि जिउ न भखा को?
पायो पावन प्रेम तें सनमान सखाको॥ ७॥
सदगति सबरी गीधकी सादर करता को?
सोच-सींव सुग्रीवके संकट-हरता को?॥ ८॥
(राखि बिभीषनको सकै अस काल-गहा तेहि काल कहाँ को?)
आज बिराजत राज है दसकंठ जहाँको॥ ९॥
बालिस बासी अवधको बूझिये न खाको।
सो पाँवर पहुँचो तहाँ जहँ मुनि-मन थाको॥ १०॥
गति न लहै राम-नामसों बिधि सो सिरजा को?
सुमिरत कहत प्रचारि कै बल्लभ गिरिजाको॥ ११॥
अकनि अजामिलकी कथा सानंद न भा को?
नाम लेत कलिकालहू हरिपुरहिं न गा को?॥ १२॥
राम-नाम-महिमा करै काम-भुरुह आको।
साखी बेद पुरान हैं तुलसी-तन ताको॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामजीने अपने भले स्वभावसे किसका भला नहीं किया? युग-युगसे श्रीजानकीनाथजीका यह कार्य जगत् में प्रसिद्ध है॥ १॥ ब्रह्मा आदि देवताओंने पृथ्वीका दुःख सुनाकर (जब) विनय की थी, (तब पृथ्वीका भार हरनेके लिये और राक्षसोंको मारनेके लिये) सूर्यवंशरूपी कुमुदिनीको प्रफुल्लित करनेवाले चन्द्ररूप एवं अमृतके समान आनन्द देनेवाले श्रीरामचन्द्रजी प्रकट हुए॥ २॥ विश्वामित्र ताड़काका तेज देखकर ओलेकी नाईं गले जाते थे। प्रभुने ताड़काको मारकर, शत्रुको मित्रका-सा फल दिया एवं क्रोधरूपी परम कृपा की। भाव यह है कि दुष्ट ताड़काको सद्‍गति देकर उसपर कृपा की॥ ३॥ स्वयं जाकर शिला (बनी हुई अहल्या)-का पाप-संताप दूर कर दिया, फिर (धनुषयज्ञके समय) शोक-सागरमेंसे डूबते हुए मिथिलाके महाराज जनकको निकाल लिया, अर्थात् धनुष तोड़कर उनकी प्रतिज्ञा पूरी कर दी॥ ४॥ परशुराम क्रोधके ढेर एवं अहंकार और ममत्वके धनी थे, उन्हें भी आपने देखते ही शान्त और समताका पात्र बना लिया। अर्थात् वह क्रोधीसे शान्त और अहंकारीसे समद्रष्टा हो गये॥ ५॥ माता (कैकेयी) और पिताकी आज्ञा मानकर प्रसन्नचित्तसे वन चले गये। ऐसा धर्मधुरन्धर और धीरजधारी तथा सद्‍गुण और शीलको जीतनेवाला दूसरा कौन है? कोई भी नहीं॥ ६॥ नीच जातिका गरीब गुह निषाद, जिसने, ऐसा कौन जीव है जिसे नहीं खाया हो अर्थात् जो सब प्रकारके जीवोंका भक्षण कर चुका था, उसने भी पवित्र प्रेमके कारण श्रीरघुनाथजीसे सखा-जैसा आदर प्राप्त किया॥ ७॥ शबरी और गीध (जटायु)-को सत्कारके साथ मोक्ष देनेवाला कौन है? और शोककी सीमा अर्थात् महान् दुःखी सुग्रीवका संकट दूर करनेवाला कौन है? (श्रीरामजी ही हैं)॥ ८॥ ऐसा कौन कालका ग्रास था, जो (रावणसे निकाले हुए) विभीषणको अपनी शरणमें रखता? (अथवा ‘तेहि काल कहाँको’ ऐसा पाठ होनेपर—उस समय ऐसा कौन था जो विभीषणको अपनी शरणमें रखता) जिस रावणके राज्यमें आज भी विभीषण राजा बना बैठा है (यह सब रघुनाथजीकी ही कृपा है)॥ ९॥ अयोध्याका रहनेवाला मूर्ख धोबी, जिसमें बुद्धिका नाम भी नहीं था, वह पामर भी वहाँ पहुँच गया, जहाँ पहुँचनेमें मुनियोंका मन भी थक जाता है। (महामुनिगण जिस परम धामके सम्बन्धमें तत्त्वका विचार भी नहीं कर सकते, वह धोबी वहीं चला गया)॥ १०॥ ब्रह्माने ऐसा किसे रचा है, जो राम-नाम लेकर मुक्तिका भागी न हो? पार्वतीवल्लभ शिवजी (जिस) राम-नामका स्वयं स्मरण करते हैं और दूसरोंको उपदेश देकर उसका प्रचार करते हैं॥ ११॥ अजामिलकी कथा सुनकर कौन प्रसन्न नहीं हुआ? और राम-नाम लेकर, इस कलिकालमें भी कौन भगवान् हरिके परम धाममें नहीं गया?॥ १२॥ राम-नामकी महिमा ऐसी है कि वह आकके पेड़को भी कल्पवृक्ष बना सकती है। वेद और पुराण इस बातके साक्षी हैं, (इसपर भी विश्वास न हो, तो) तुलसीकी ओर देखो। भाव यह है, कि मैं क्या था और अब राम-नामके प्रभावसे कैसा राम-भक्त हो गया हूँ॥ १३॥

विषय (हिन्दी)

(१५३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरे रावरियै गति है रघुपति बलि जाउँ।
निलज नीच निरधन निरगुन कहँ, जग दूसरो न ठाकुर ठाउँ॥ १॥
हैं घर-घर बहु भरे सुसाहिब, सूझत सबनि आपनो दाउँ।
बानर-बंधु बिभीषन-हितु बिनु, कोसलपाल कहूँ न समाउँ॥ २॥
प्रनतारति-भंजन जन-रंजन, सरनागत पबि-पंजर नाउँ।
कीजै दास दासतुलसी अब, कृपासिंधु बिनु मोल बिकाउँ॥ ३॥

मूल

मेरे रावरियै गति है रघुपति बलि जाउँ।
निलज नीच निरधन निरगुन कहँ, जग दूसरो न ठाकुर ठाउँ॥ १॥
हैं घर-घर बहु भरे सुसाहिब, सूझत सबनि आपनो दाउँ।
बानर-बंधु बिभीषन-हितु बिनु, कोसलपाल कहूँ न समाउँ॥ २॥
प्रनतारति-भंजन जन-रंजन, सरनागत पबि-पंजर नाउँ।
कीजै दास दासतुलसी अब, कृपासिंधु बिनु मोल बिकाउँ॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रघुनाथजी! आपपर बलिहारी जाता हूँ, मुझे तो बस आपकी ही शरण है। क्योंकि इस निर्लज्ज, नीच, कंगाल और गुणहीनके लिये संसारमें (आपको छोड़कर) न तो कोई मालिक है, और न कोई ठौर-ठिकाना ही॥ १॥ वैसे तो घर-घर बहुतेरे अच्छे-अच्छे मालिक हैं, किन्तु उन सबको अपना ही स्वार्थ सूझता है। मैं तो बंदर (सुग्रीव)-के मित्र और विभीषणके हितैषी कोशलेश श्रीरामचन्द्रजीको छोड़कर और कहीं भी शरण नहीं पा सकता, और किसी मालिकके यहाँ मेरा टिकाव नहीं हो सकता॥ २॥ आप आश्रितोंके दुःखोंका नाश करनेवाले और भक्तोंको सुख देनेवाले हैं। शरणागतोंके लिये तो आपका नाम ही वज्रके पिंजरेके समान है। भाव यह कि आपका नाम लेते ही वे तो सुरक्षित हो जाते हैं। अतः हे कृपासागर! अब तुलसीदासको तो अपना दास बना ही लीजिये! मैं अब बिना ही मोलके (आपके हाथमें) बिकना चाहता हूँ॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(१५४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

देव! दूसरो कौन दीनको दयालु।
सीलनिधान सुजान-सिरोमनि, सरनागत-प्रिय प्रनत-पालु॥ १॥
को समरथ सरबग्य सकल प्रभु, सिव-सनेह-मानस मरालु।
को साहिब किये मीत प्रीतिबस खग निसिचर कपि भील भालु॥ २॥
नाथ हाथ माया-प्रपंच सब, जीव-दोष-गुन-करम-कालु।
तुलसिदास भलो पोच रावरो, नेकु निरखि कीजिये निहालु॥ ३॥

मूल

देव! दूसरो कौन दीनको दयालु।
सीलनिधान सुजान-सिरोमनि, सरनागत-प्रिय प्रनत-पालु॥ १॥
को समरथ सरबग्य सकल प्रभु, सिव-सनेह-मानस मरालु।
को साहिब किये मीत प्रीतिबस खग निसिचर कपि भील भालु॥ २॥
नाथ हाथ माया-प्रपंच सब, जीव-दोष-गुन-करम-कालु।
तुलसिदास भलो पोच रावरो, नेकु निरखि कीजिये निहालु॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे देव! (आपके सिवा) दीनोंपर दया करनेवाला दूसरा कौन है? आप शीलके भण्डार, ज्ञानियोंके शिरोमणि, शरणागतोंके प्यारे और आश्रितोंके रक्षक हैं॥ १॥ आपके समान समर्थ कौन है? आप सब जाननेवाले हैं, सारे चराचरके स्वामी हैं, और शिवजीके प्रेमरूपी मानसरोवरमें (विहार करनेवाले) हंस हैं। (दूसरा) कौन ऐसा स्वामी है जिसने प्रेमके वश होकर पक्षी (जटायु), राक्षस (विभीषण), बंदर, भील (निषाद) और भालुओंको अपना मित्र बनाया है?॥ २॥ हे नाथ! मायाका सारा प्रपंच एवं जीवोंके दोष, गुण, कर्म और काल सब आपके ही हाथ हैं। यह तुलसीदास, भला हो या बुरा, आपका ही है। तनिक इसकी ओर कृपादृष्टि कर इसे निहाल कर दीजिये॥ ३॥

राग सारंग

विषय (हिन्दी)

(१५५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिस्वास एक राम-नामको।
मानत नहिं परतीति अनत ऐसोइ सुभाव मन बामको॥ १॥
पढ़िबो परॺो न छठी छ मत रिगु जजुर अथर्वन सामको।
ब्रत तीरथ तप सुनि सहमत पचि मरै करै तन छाम को?॥ २॥
करम-जाल कलिकाल कठिन आधीन सुसाधित दामको।
ग्यान बिराग जोग जप तप, भय लोभ मोह कोह कामको॥ ३॥
सब दिन सब लायक भव गायक रघुनायक गुन-ग्रामको।
बैठे नाम-कामतरु-तर डर कौन घोर घन घामको॥ ४॥
को जानै को जैहै जमपुर को सुरपुर पर धामको।
तुलसिहिं बहुत भलो लागत जग जीवन रामगुलामको॥ ५॥

मूल

बिस्वास एक राम-नामको।
मानत नहिं परतीति अनत ऐसोइ सुभाव मन बामको॥ १॥
पढ़िबो परॺो न छठी छ मत रिगु जजुर अथर्वन सामको।
ब्रत तीरथ तप सुनि सहमत पचि मरै करै तन छाम को?॥ २॥
करम-जाल कलिकाल कठिन आधीन सुसाधित दामको।
ग्यान बिराग जोग जप तप, भय लोभ मोह कोह कामको॥ ३॥
सब दिन सब लायक भव गायक रघुनायक गुन-ग्रामको।
बैठे नाम-कामतरु-तर डर कौन घोर घन घामको॥ ४॥
को जानै को जैहै जमपुर को सुरपुर पर धामको।
तुलसिहिं बहुत भलो लागत जग जीवन रामगुलामको॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मुझे तो एक राम-नामका ही विश्वास है। मेरे कुटिल मनका कुछ ऐसा ही स्वभाव है कि वह और कहीं विश्वास ही नहीं करता॥ १॥ छः (न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त) शास्त्रोंका तथा ऋक्, यजु, अथर्वण और साम वेदोंका पढ़ना तो मेरी छठीमें ही नहीं पड़ा (भाग्यमें ही नहीं लिखा गया) है, और व्रत, तीर्थ, तप आदिका तो नाम सुनकर मन डर रहा है। कौन (इन साधनोंमें) पच-पचकर मरे या शरीरको क्षीण करे?॥ २॥ कर्मकाण्ड (यज्ञादि) कलियुगमें कठिन है और उसका होना भी धनके अधीन है। (अब रहे) ज्ञान, वैराग्य, योग, जप और तप आदि साधन, सो इनके करनेमें काम, क्रोध, लोभ, मोह आदिका भय लगा है॥ ३॥ इस भव (संसार)-में श्रीरघुनाथजीके गुणसमूहको गानेवाले ही सदा सब प्रकारसे योग्य हैं। जो राम-नामरूपी कल्पवृक्षकी छायामें बैठे हैं, उन्हें घनघोर घटा (तमोमय अज्ञान) अथवा तेज धूप (विषयोंकी चकाचौंध)-का क्या डर है? भाव यह है कि वे अज्ञानके वश होकर विषयोंमें नहीं फँस सकते। इससे पाप-ताप उनसे सदा दूर रहते हैं॥ ४॥ कौन जानता है कि कौन नरक जायगा, कौन स्वर्ग जायगा और कौन परमधाम जायगा? तुलसीदासको तो इस संसारमें रामजीका गुलाम होकर जीना ही बहुत अच्छा लगता है॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१५६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलि नाम कामतरु रामको।
दलनिहार दारिद दुकाल दुख, दोष घोर घन घामको॥ १॥
नाम लेत दाहिनो होत मन, बाम बिधाता बामको।
कहत मुनीस महेस महातम, उलटे सूधे नामको॥ २॥
भलो लोक-परलोक तासु जाके बल ललित-ललामको।
तुलसी जग जानियत नामते सोच न कूच मुकामको॥ ३॥

मूल

कलि नाम कामतरु रामको।
दलनिहार दारिद दुकाल दुख, दोष घोर घन घामको॥ १॥
नाम लेत दाहिनो होत मन, बाम बिधाता बामको।
कहत मुनीस महेस महातम, उलटे सूधे नामको॥ २॥
भलो लोक-परलोक तासु जाके बल ललित-ललामको।
तुलसी जग जानियत नामते सोच न कूच मुकामको॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कलियुगमें श्रीराम-नाम ही कल्पवृक्ष है। क्योंकि वह दारिद्रॺ, दुर्भिक्ष, दुःख, दोष और घनघटा (अज्ञान) तथा कड़ी धूप (विषय-विलास)-का नाश करनेवाला है॥ १॥ राम-नाम लेते ही प्रतिकूल विधाताका प्रतिकूल मन भी अनुकूल हो जाता है। मुनीश्वर वाल्मीकिने उलटे अर्थात् ‘मरा-मरा’ नामकी महिमा गायी है और शिवजीने सीधे राम-नामका माहात्म्य बताया है। तात्पर्य यह है कि उलटा नाम जपते-जपते वाल्मीकि व्याधसे ब्रह्मर्षि हो गये और शिवजी सीधा नाम जपनेसे हलाहल विषका पान कर गये तथा स्वयं भगवत्स्वरूप माने गये॥ २॥ जिसे इस परम सुन्दर राम-नामका बल है, उसके लोक और परलोक दोनों ही सुखमय हैं। हे तुलसी! राम-नामका बल होनेपर न तो इस संसारसे जानेमें सोच प्रतीत होता है और न यहाँ रहनेमें ही। भाव यह है कि उसके लिये परमानन्दमें मग्न रहनेके कारण जीवन-मरण समान हो जाते हैं॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(१५७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेइये सुसाहिब राम सो।
सुखद सुसील सुजान सूर सुचि, सुंदर कोटिक काम सो॥ १॥
सारद सेस साधु महिमा कहैं, गुनगन-गायक साम सो।
सुमिरि सप्रेम नाम जासों रति चाहत चंद्र-ललाम सो॥ २॥
गमन बिदेस न लेस कलेसको, सकुचत सकृत प्रनाम सो।
साखी ताको बिदित बिभीषन, बैठो है अबिचल धाम सो॥ ३॥
टहल सहल जन महल-महल, जागत चारो जुग जाम सो।
देखत दोष न खीझत, रीझत सुनि सेवक गुन-ग्राम सो॥ ४॥
जाके भजे तिलोक-तिलक भये, त्रिजग जोनि तनु तामसो।
तुलसी ऐसे प्रभुहिं भजै जो न ताहि बिधाता बाम सो॥ ५॥

मूल

सेइये सुसाहिब राम सो।
सुखद सुसील सुजान सूर सुचि, सुंदर कोटिक काम सो॥ १॥
सारद सेस साधु महिमा कहैं, गुनगन-गायक साम सो।
सुमिरि सप्रेम नाम जासों रति चाहत चंद्र-ललाम सो॥ २॥
गमन बिदेस न लेस कलेसको, सकुचत सकृत प्रनाम सो।
साखी ताको बिदित बिभीषन, बैठो है अबिचल धाम सो॥ ३॥
टहल सहल जन महल-महल, जागत चारो जुग जाम सो।
देखत दोष न खीझत, रीझत सुनि सेवक गुन-ग्राम सो॥ ४॥
जाके भजे तिलोक-तिलक भये, त्रिजग जोनि तनु तामसो।
तुलसी ऐसे प्रभुहिं भजै जो न ताहि बिधाता बाम सो॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीराम-सरीखे सुन्दर स्वामीकी सेवा करनी चाहिये। जो सुख देनेवाले, सुशील, चतुर, वीर, पवित्र और करोड़ों कामदेवोंके समान सुन्दर हैं॥ १॥ सरस्वती, शेषनाग और संतजन जिनकी महिमाका बखान करते हैं। सामवेद-सरीखे जिनके गुणोंका गान करते हैं। शिवजी-सरीखे भी जिनके नामका प्रेमपूर्वक स्मरण करते हुए प्रेम करना चाहते हैं॥ २॥ जिन्हें (पिताकी आज्ञासे) विदेश अर्थात् वन जाते समय तनिक भी क्लेश नहीं हुआ। जिन्हें एक बार भी कोई प्रणाम कर लेता है तो संकोचके मारे दब जाते हैं; इस बातका साक्षी विभीषण प्रसिद्ध है, कि जो आज भी (लंकामें) अटल राज्य कर रहा है॥ ३॥ जिनकी चाकरी करना बड़ा सहल है (क्योंकि वे सेवककी भूल-चूककी ओर देखते ही नहीं); जो अपने भक्तोंके घट-घटमें चारों युगोंमें, चारों पहर, जागते रहते हैं। (हृदयमें बैठकर सदा रखवाली करते हैं।) अपराध देखते हुए भी सेवकपर क्रोध नहीं करते। परन्तु जब अपने सेवककी गुणावली सुनते हैं, तब उसपर रीझ जाते हैं॥ ४॥ जिन्हें भजनेसे, तिर्यक्-योनिके (पशु-पक्षी) एवं तामसी शरीरवाले (राक्षस) भी तीनों लोकोंके तिलक बन गये। हे तुलसी! ऐसे (सुखद, सुशील, सुन्दर, भक्तवत्सल, चतुर पतितपावन) प्रभुको जो नहीं भजते उनपर विधाता प्रतिकूल ही है॥ ५॥

राग नट

विषय (हिन्दी)

(१५८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कैसे देउँ नाथहिं खोरि।
काम-लोलुप भ्रमत मन हरि भगति परिहरि तोरि॥ १॥
बहुत प्रीति पुजाइबे पर, पूजिबे पर थोरि।
देत सिख सिखयो न मानत, मूढ़ता असि मोरि॥ २॥
किये सहित सनेह जे अघ हृदय राखे चोरि।
संग-बस किये सुभ सुनाये सकल लोक निहोरि॥ ३॥
करौं जो कछु धरौं सचि-पचि सुकृत-सिला बटोरि।
पैठि उर बरबस दयानिधि दंभ लेत अँजोरि॥ ४॥
लोभ मनहिं नचाव कपि ज्यों गरे आसा-डोरि।
बात कहौं बनाइ बुध ज्यों, बर बिराग निचोरि॥ ५॥
एतेहुँ पर तुम्हरो कहावत, लाज अँचई घोरि।
निलजता पर रीझि रघुबर, देहु तुलसिहिं छोरि॥ ६॥

मूल

कैसे देउँ नाथहिं खोरि।
काम-लोलुप भ्रमत मन हरि भगति परिहरि तोरि॥ १॥
बहुत प्रीति पुजाइबे पर, पूजिबे पर थोरि।
देत सिख सिखयो न मानत, मूढ़ता असि मोरि॥ २॥
किये सहित सनेह जे अघ हृदय राखे चोरि।
संग-बस किये सुभ सुनाये सकल लोक निहोरि॥ ३॥
करौं जो कछु धरौं सचि-पचि सुकृत-सिला बटोरि।
पैठि उर बरबस दयानिधि दंभ लेत अँजोरि॥ ४॥
लोभ मनहिं नचाव कपि ज्यों गरे आसा-डोरि।
बात कहौं बनाइ बुध ज्यों, बर बिराग निचोरि॥ ५॥
एतेहुँ पर तुम्हरो कहावत, लाज अँचई घोरि।
निलजता पर रीझि रघुबर, देहु तुलसिहिं छोरि॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—स्वामीको कैसे दोष दूँ? हे हरे! मेरा मन तुम्हारी भक्तिको छोड़कर कामनाओंमें फँसा हुआ इधर-उधर भटका करता है॥ १॥ अपने पुजानेमें तो मेरा बड़ा प्रेम है, (सदा यही चाहता हूँ, कि लोग मुझे ज्ञानी-भक्त मानकर पूजा करें;) किन्तु तुम्हें पूजनेमें मेरी बहुत ही कम प्रीति है। दूसरोंको तो खूब सीख दिया करता हूँ, पर स्वयं किसीकी शिक्षा नहीं मानता। मेरी ऐसी मूर्खता है॥ २॥ जिन-जिन पापोंको मैंने बड़े अनुरागसे किया था, उन्हें तो हृदयमें छिपाकर रखता हूँ। पर कभी किसी अच्छे संगके प्रभावसे (बिना ही प्रेम) मुझसे जो कोई अच्छे काम बन गये हैं, उन्हें दुनियाको निहोरा कर-कर सुनाता फिरता हूँ। भाव यह कि मुझे कोई भी पापी न समझकर सब लोग बड़ा धर्मात्मा समझें॥ ३॥ कभी जो कुछ सत्कर्म बन जाता है उसे खेतमें पड़े हुए अन्नके दानोंकी तरह बटोर-बटोरकर रख लेता हूँ, किन्तु हे दयानिधान! दम्भ जबरदस्ती हृदयमें घुसकर उसे बाहर निकाल फेंकता है। भाव यह है कि दम्भ बढ़कर थोड़े-बहुत सुकृतको भी नष्ट कर देता है॥ ४॥ इसके सिवा लोभ मेरे मनको आशारूपी रस्सीसे इस तरह नचा रहा है, जैसे बाजीगर बंदरके गलेमें डोरी बाँधकर उसे मनमाना नचाता है। (इतनेपर भी मैं दम्भसे) एक बड़े पण्डितकी नाईं परम वैराग्यके तत्त्वकी बातें बना-बनाकर सुनाता फिरता हूँ॥ ५॥ इतना (दम्भी) होनेपर भी मैं तुम्हारा (दास) कहाता हूँ। लाजको तो मानो मैं घोलकर ही पी गया हूँ। हे रघुनाथजी! तुम उदार हो, इस निर्लज्जतापर ही रीझकर तुलसीका बन्धन काट दो। (मुझे भव-बन्धनसे मुक्त कर दो)॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(१५९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

है प्रभु! मेरोई सब दोसु।
सीलसिंधु कृपालु नाथ अनाथ आरत-पोसु॥ १॥
बेष बचन बिराग मन अघ अवगुननिको कोसु।
राम प्रीति प्रतीति पोली, कपट-करतब ठोसु॥ २॥
राग-रंग कुसंग ही सों, साधु-संगति रोसु।
चहत केहरि-जसहिं सेइ सृगाल ज्यों खरगोसु॥ ३॥
संभु-सिखवन रसन हूँ नित राम-नामहिं घोसु।
दंभहू कलि नाम कुंभज सोच-सागर-सोसु॥ ४॥
मोद-मंगल-मूल अति अनुकूल निज निरजोसु।
रामनाम प्रभाव सुनि तुलसिहुँ परम परितोसु॥ ५॥

मूल

है प्रभु! मेरोई सब दोसु।
सीलसिंधु कृपालु नाथ अनाथ आरत-पोसु॥ १॥
बेष बचन बिराग मन अघ अवगुननिको कोसु।
राम प्रीति प्रतीति पोली, कपट-करतब ठोसु॥ २॥
राग-रंग कुसंग ही सों, साधु-संगति रोसु।
चहत केहरि-जसहिं सेइ सृगाल ज्यों खरगोसु॥ ३॥
संभु-सिखवन रसन हूँ नित राम-नामहिं घोसु।
दंभहू कलि नाम कुंभज सोच-सागर-सोसु॥ ४॥
मोद-मंगल-मूल अति अनुकूल निज निरजोसु।
रामनाम प्रभाव सुनि तुलसिहुँ परम परितोसु॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे प्रभो! सब मेरा ही दोष है। आप तो शीलके समुद्र, कृपालु, अनाथोंके नाथ और दीन-दुःखियोंके पालने-पोसनेवाले हैं॥ १॥ मेरे भेष और वचनोंमें तो वैराग्य दीखता है, किन्तु मेरा मन पापों और अवगुणोंका खजाना है। हे रामजी! आपके प्रेम और विश्वासके लिये मेरा मन पोला है अर्थात् उसमें तनिक भी प्रेम और विश्वास नहीं है; हाँ, कपटकी करनीके लिये तो खूब ठोस है, कपट-ही-कपट भरा है॥ २॥ जैसे खरगोश सियारकी सेवा करके सिंहकी कीर्ति चाहता है, वैसे ही मैं कुसंगतिसे तो प्रेम करता हूँ और साधुओंके संगमें झुँझलाया करता हूँ। (जैसे खरगोश गीदड़के बलपर सिंहकी-सी कीर्ति चाहता है, पर सियार तो उसे खा ही डालता है। कीर्तिके बदले प्राण ही चले जाते हैं। इसी प्रकार जो कुसंगमें पड़कर कीर्ति चाहता है, उसे कीर्तिका मिलना तो दूर रहा, उसके सद्‍‍‍‍गुणोंका भी नाश हो जायगा, जिससे बारंबार मृत्युके चक्रमें जाना पड़ेगा)॥ ३॥ शिवजीका उपदेश यही है कि ‘नित्य जीभसे राम-नामका कीर्तन करो।’ कलियुगमें दम्भसे भी लिया हुआ राम-नाम अगस्त्यकी तरह दुःख-सागरको सोख लेता है (दम्भसे लिया हुआ नाम भी लोक-परलोक दोनोंकी चिन्ताओंको दूर कर देता है)॥ ४॥ वह राम-नाम आनन्द और कल्याणकी जड़ है। श्रीराम-नाम अपने लिये ऐसा अत्यन्त अनुकूल है कि जिसकी किसी अनुकूलतासे तुलना नहीं हो सकती। राम-नामका ऐसा प्रभाव सुनकर तुलसीको भी परम सन्तोष है (क्योंकि यही उसका अवलम्बन है)॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१६०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैं हरि पतित-पावन सुने।
मैं पतित तुम पतित-पावन दोउ बानक बने॥ १॥
ब्याध गनिका गज अजामिल साखि निगमनि भने।
और अधम अनेक तारे जात कापै गने॥ २॥
जानि नाम अजानि लीन्हें नरक सुरपुर* मने।
दासतुलसी सरन आयो, राखिये आपने॥ ३॥

मूल

मैं हरि पतित-पावन सुने।
मैं पतित तुम पतित-पावन दोउ बानक बने॥ १॥
ब्याध गनिका गज अजामिल साखि निगमनि भने।
और अधम अनेक तारे जात कापै गने॥ २॥
जानि नाम अजानि लीन्हें नरक सुरपुर* मने।
दासतुलसी सरन आयो, राखिये आपने॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे हरे! मैंने तुम्हें पतितोंको पवित्र करनेवाला सुना है। सो मैं तो पतित हूँ और तुम पतितपावन हो; बस दोनोंके बानक बन गये, दोनोंका मेल मिल गया। (अब मेरे पावन होनेमें क्या सन्देह है?)॥ १॥ वेद साक्षी दे रहे हैं कि तुमने व्याध (वाल्मीकि), गणिका (पिंगला वेश्या), गजेन्द्र और अजामिलको तथा और भी अनेक नीचोंको संसार-सागरसे पार कर दिया है, जिनकी गिनती ही किससे हो सकती है?॥ २॥ जिन्होंने जानकर या बिना जाने तुम्हारा नाम ले लिया, उन्हें नरक और स्वर्गमें जानेकी मनाई कर दी गयी है। अर्थात् वे भवसागरसे पार होकर मुक्त हो जाते हैं (यह सब समझ-बूझकर ही अब) तुलसी भी तुम्हारी शरणमें आया है, इसे भी अपना लो॥ ३॥

पादटिप्पनी
  • आजकलकी प्रचलित प्रतियोंमें प्रायः ‘नरक जमपुर मने’ पाठ है। परन्तु मैंने एक प्राचीन प्रतिमें ‘नरक सुरपुर मने’ पाठ देखा था और यही ठीक मालूम होता है, क्योंकि नरक और यमपुर एकार्थवाचक होनेसे पुनरुक्ति-दोष आता है; इसके सिवा बिना जाने भी अन्तकालमें भगवान् का नाम लेनेवालेकी मुक्ति बतायी गयी है, न कि स्वर्गगमन; इसलिये यही पाठ ठीक है।

राग मलार

विषय (हिन्दी)

(१६१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

तो सों प्रभु जो पै कहूँ कोउ होतो।
तो सहि निपट निरादर निसिदिन, रटि लटि ऐसो घटि को तो॥ १॥
कृपा-सुधा-जलदान माँगिबो कहौं सो साँच निसोतो।
स्वाति-सनेह-सलिल-सुख चाहत चित-चातक सो पोतो॥ २॥
काल-करम-बस मन कुमनोरथ कबहुँ कबहुँ कुछ भो तो।
ज्यों मुदमय बसि मीन बारि तजि उछरि भभरि लेत गोतो॥ ३॥
जितो दुराव दासतुलसी उर क्यों कहि आवत ओतो।
तेरे राज राय दशरथके, लयो बयो बिनु जोतो॥ ४॥

मूल

तो सों प्रभु जो पै कहूँ कोउ होतो।
तो सहि निपट निरादर निसिदिन, रटि लटि ऐसो घटि को तो॥ १॥
कृपा-सुधा-जलदान माँगिबो कहौं सो साँच निसोतो।
स्वाति-सनेह-सलिल-सुख चाहत चित-चातक सो पोतो॥ २॥
काल-करम-बस मन कुमनोरथ कबहुँ कबहुँ कुछ भो तो।
ज्यों मुदमय बसि मीन बारि तजि उछरि भभरि लेत गोतो॥ ३॥
जितो दुराव दासतुलसी उर क्यों कहि आवत ओतो।
तेरे राज राय दशरथके, लयो बयो बिनु जोतो॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि तुझ-सरीखा कहीं कोई दूसरा समर्थ स्वामी होता, तो भला ऐसा कौन क्षुद्र था, जो निपट ही निरादर सहकर एवं दिन-रात तेरा नाम रट-रटकर दुबला होता?॥ १॥ मैं जो तुझसे कृपारूपी अमृतजल माँग रहा हूँ, वह सचमुच ही निराला है। मेरा चित्तरूपी चातकका बच्चा प्रेमरूपी स्वाति-नक्षत्रका आनन्दरूपी जल चाहता है॥ २॥ काल तथा कर्मके प्रभावसे यदि कभी-कभी मनमें कोई बुरी कामना आ जाती है, (जिससे तेरी ओरसे चित्त हटने लगता है) तो वह ऐसा ही है, जैसे आनन्दसे जलमें रहती हुई मछली कभी-कभी उछलकर फिर घबराकर उसीमें गोता लगा जाती है, (जैसे मछलीको क्षणभरका भी जलका वियोग सहन नहीं होता, वैसे ही मेरा चित्त-चातक तेरे प्रेमजलसे अलग होनेपर घबरा जाता है, और फिर तेरे ही लिये चेष्टा करता है)॥ ३॥ (परन्तु ऐसा कहना भी नहीं बनता क्योंकि) तुलसीदासके हृदयमें जितना कपट है, उतना किस प्रकार कहा जा सकता है? पर हे दशरथ-दुलारे! तेरे राज्यमें लोगोंने बिना ही जोते-बोये पाया है। अर्थात् बिना ही सत्कर्म किये केवल तेरे नामसे ही अनेक पापी तर गये हैं, वैसे ही मैं भी तर जाऊँगा, यही विश्वास है॥ ४॥

राग सोरठ

विषय (हिन्दी)

(१६२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसो को उदार जग माहीं।
बिनु सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ नाहीं॥ १॥
जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी।
सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी॥ २॥
जो संपति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्हीं।
सो संपदा बिभीषन कहँ अति सकुच-सहित हरि दीन्हीं॥ ३॥
तुलसिदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो।
तौ भजु राम, काम सब पूरन करैं कृपानिधि तेरो॥ ४॥

मूल

ऐसो को उदार जग माहीं।
बिनु सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ नाहीं॥ १॥
जो गति जोग बिराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी।
सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी॥ २॥
जो संपति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्हीं।
सो संपदा बिभीषन कहँ अति सकुच-सहित हरि दीन्हीं॥ ३॥
तुलसिदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो।
तौ भजु राम, काम सब पूरन करैं कृपानिधि तेरो॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—संसारमें ऐसा कौन उदार है, जो बिना ही सेवा किये दीन-दुःखियोंपर (उन्हें देखते ही) द्रवित हो जाता हो? ऐसे एक श्रीरामचन्द्र ही हैं, उनके समान दूसरा कोई नहीं॥ १॥ बड़े-बड़े ज्ञानी मुनि योग, वैराग्य आदि अनेक साधन करके भी जिस परम गतिको नहीं पाते, वह गति प्रभु रघुनाथजीने गीध और शबरीतकको दे दी और उसको उन्होंने अपने मनमें कुछ बहुत नहीं समझा॥ २॥ जिस सम्पत्तिको रावणने शिवजीको अपने दसों सिर चढ़ाकर प्राप्त किया था; वही सम्पत्ति श्रीरामजीने बड़े ही संकोचके साथ विभीषणको दे डाली॥ ३॥ तुलसीदास कहते हैं कि अरे मेरे मन, जो तू सब तरहसे सब सुख चाहता है, तो श्रीरामजीका भजन कर। कृपानिधान प्रभु तेरी सारी कामनाएँ पूरी कर देंगे॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(१६३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकै दानि-सिरोमनि साँचो।
जोइ जाच्यो सोइ जाचकताबस, फिरि बहु नाच न नाचो॥ १॥
सब स्वारथी असुर सुर नर मुनि कोउ न देत बिनु पाये।
कोसलपालु कृपालु कलपतरु, द्रवत सकृत सिर नाये॥ २॥
हरिहु और अवतार आपने, राखी बेद-बड़ाई।
लै चिउरा निधि दई सुदामहिं जद्यपि बाल मिताई॥ ३॥
कपि सबरी सुग्रीव बिभीषन, को नहिं कियो अजाची।
अब तुलसिहि दुख देति दयानिधि दारुन आस-पिसाची॥ ४॥

मूल

एकै दानि-सिरोमनि साँचो।
जोइ जाच्यो सोइ जाचकताबस, फिरि बहु नाच न नाचो॥ १॥
सब स्वारथी असुर सुर नर मुनि कोउ न देत बिनु पाये।
कोसलपालु कृपालु कलपतरु, द्रवत सकृत सिर नाये॥ २॥
हरिहु और अवतार आपने, राखी बेद-बड़ाई।
लै चिउरा निधि दई सुदामहिं जद्यपि बाल मिताई॥ ३॥
कपि सबरी सुग्रीव बिभीषन, को नहिं कियो अजाची।
अब तुलसिहि दुख देति दयानिधि दारुन आस-पिसाची॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीराम! सच्चे दानियोंमें शिरोमणि एक आप ही हैं। जिस किसीने (एक बार) आपसे माँगा, फिर उसे माँगनेके लिये बहुत नाच नहीं नाचने पड़े अर्थात् वह पूर्णकाम हो गया॥ १॥ दैत्य, देवता, मनुष्य, मुनि—ये सभी स्वार्थी हैं। बिना कुछ लिये कोई कुछ नहीं देते। किन्तु हे कोशलपति! आप ऐसे कृपालु कल्पतरु हैं, जो एक बार प्रणाम करते ही कृपावश पिघल जाते हैं॥ २॥ आपने अपने दूसरे-दूसरे अवतारोंमें भी वेदोंकी मर्यादा पाली है। जैसे, यद्यपि सुदामासे आपकी बचपनकी मित्रता थी, पर उससे जब चिउरा ले लिये, तभी उसे सम्पत्ति प्रदान की॥ ३॥ हे रामजी! आपने सुग्रीव, शबरी, विभीषण और हनुमान् इनमेंसे किस-किसको याचनारहित (पूर्णकाम) नहीं कर दिया। हे दयानिधे! अब तुलसीको यह दारुण आशारूपी पिशाचिनी दुःख दे रही है (इससे मेरा पिण्ड छुड़ा दो और मुझे भी अपने दर्शन देकर कृतार्थ करो)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(१६४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानत प्रीति-रीति रघुराई।
नाते सब हाते करि राखत, राम सनेह-सगाई॥ १॥
नेह निबाहि देह तजि दसरथ, कीरति अचल चलाई।
ऐसेहु पितु तें अधिक गीधपर ममता गुन गरुआई॥ २॥
तिय-बिरही सुग्रीव सखा लखि प्रानप्रिया बिसराई।
रन परॺो बंधु बिभीषन ही को, सोच हृदय अधिकाई॥ ३॥
घर गुरुगृह प्रिय सदन सासुरे, भइ जब जहँ पहुनाई।
तब तहँ कहि सबरीके फलनिकी रुचि माधुरी न पाई॥ ४॥
सहज सरूप कथा मुनि बरनत रहत सकुचि सिर नाई।
केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बडराई॥ ५॥
प्रेम-कनौड़ो रामसो प्रभु त्रिभुवन तिहुँकाल न भाई।
तेरो रिनी हौं कह्यो कपि सों ऐसी मानिहि को सेवकाई॥ ६॥
तुलसी राम-सनेह-सील लखि, जो न भगति उर आई।
तौ तोहिं जनमि जाय जननी जड़ तनु-तरुनता गवाँई॥ ७॥

मूल

जानत प्रीति-रीति रघुराई।
नाते सब हाते करि राखत, राम सनेह-सगाई॥ १॥
नेह निबाहि देह तजि दसरथ, कीरति अचल चलाई।
ऐसेहु पितु तें अधिक गीधपर ममता गुन गरुआई॥ २॥
तिय-बिरही सुग्रीव सखा लखि प्रानप्रिया बिसराई।
रन परॺो बंधु बिभीषन ही को, सोच हृदय अधिकाई॥ ३॥
घर गुरुगृह प्रिय सदन सासुरे, भइ जब जहँ पहुनाई।
तब तहँ कहि सबरीके फलनिकी रुचि माधुरी न पाई॥ ४॥
सहज सरूप कथा मुनि बरनत रहत सकुचि सिर नाई।
केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बडराई॥ ५॥
प्रेम-कनौड़ो रामसो प्रभु त्रिभुवन तिहुँकाल न भाई।
तेरो रिनी हौं कह्यो कपि सों ऐसी मानिहि को सेवकाई॥ ६॥
तुलसी राम-सनेह-सील लखि, जो न भगति उर आई।
तौ तोहिं जनमि जाय जननी जड़ तनु-तरुनता गवाँई॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—प्रीतिकी रीति एक श्रीरघुनाथजी ही जानते हैं। श्रीरामजी सब नातोंको छोड़कर केवल प्रेमका ही नाता रखते हैं॥ १॥ जिन महाराज दशरथने प्रेमके निभानेमें शरीर छोड़कर, अपनी अचल कीर्ति स्थापित कर दी, उन प्रेमी पितासे भी आपने जटायु गीधपर अधिक ममता और गुण-गौरवता दिखायी, (दशरथका मरण रामके सामने नहीं हुआ, परन्तु प्यारे गीधके प्राण तो रामकी गोदमें निकले और हाथों पिण्डदान देकर उसका उद्धार किया)॥ २॥ मित्र सुग्रीवको स्त्रीके विरहमें देखकर आपने अपनी प्राणाधिका प्यारी सीताजीको भी भुला दिया (जानकीजीका पता लगानेकी बात भुला पहले बालिको मारकर सुग्रीवका दुःख दूर किया)। रणभूमिमें शक्तिके लगनेसे प्यारे भाई लक्ष्मण मूर्च्छित होकर पड़े हैं, पर (उनका दुःख भूलकर) आप हृदयमें विभीषणहीकी चिन्ता करने लगे (कि जब लक्ष्मण ही न बचेंगे, तब मैं रावणके साथ युद्ध करके क्या करूँगा? ऐसा होनेपर वानर, भालु तो अपने घर चले जायँगे, परन्तु बेचारा विभीषण कहाँ जायगा?)॥ ३॥ घरमें, गुरु वसिष्ठके आश्रममें, प्रिय मित्रोंके यहाँ अथवा ससुरालमें, जब-जब जहाँ आपकी मेहमानी हुई, तब वहाँ आपने यही कहा, कि मुझे जैसा शबरीके बेरोंमें स्वाद और मिठास मिला था, वैसा कहीं नहीं मिला॥ ४॥ जब मुनिलोग आपके सहज स्वरूप अर्थात् निर्गुण परमात्म-स्वरूपका बखान करने लगते हैं, तब तो आप लज्जाके मारे सिर झुका लिया करते हैं। किन्तु जब केवट और बंदर आपको ‘मित्र’ एवं ‘भाई’ कहते हैं, तो अपनी बड़ाई मानते हैं (अथवा केवटका मित्र कहे जानेपर आप प्रसन्न होते हैं और वानरबन्धु कहलानेमें अपना बड़प्पन समझते हैं)॥ ५॥ हे भाई! रघुनाथजीके समान प्रेमके वश रहनेवाला तीनों लोकों और तीनों कालोंमें दूसरा कोई नहीं है। जिन्होंने हनुमान् जी से यहाँतक कह दिया कि ‘मैं तेरा ऋणी हूँ’ उनके समान सेवाके लिये कृतज्ञ होनेवाला और कौन है?॥ ६॥ हे तुलसी! श्रीरामचन्द्रजीका ऐसा स्नेह और शील देखकर भी उनके प्रति यदि तेरे हृदयमें भक्तिका उदय न हुआ, तो तुझे जन्म देकर तेरी माँने व्यर्थ ही अपनी जवानी खोयी॥ ७॥

विषय (हिन्दी)

(१६५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

रघुबर! रावरि यहै बड़ाई।
निदरि गनी आदर गरीबपर, करत कृपा अधिकाई॥ १॥
थके देव साधन करि सब, सपनेहु नहिं देत दिखाई।
केवट कुटिल भालु कपि कौनप, कियो सकल सँग भाई॥ २॥
मिलि मुनिबृंद फिरत दंडक बन, सो चरचौ न चलाई।
बारहि बार गीध सबरीकी बरनत प्रीति सुहाई॥ ३॥
स्वान कहे तें कियो पुर बाहिर, जती गयंद चढ़ाई।
तिय-निंदक मतिमंद प्रजा रज निज नय नगर बसाई॥ ४॥
यहि दरबार दीनको आदर, रीति सदा चलि आई।
दीनदयालु दीन तुलसीकी काहु न सुरति कराई॥ ५॥

मूल

रघुबर! रावरि यहै बड़ाई।
निदरि गनी आदर गरीबपर, करत कृपा अधिकाई॥ १॥
थके देव साधन करि सब, सपनेहु नहिं देत दिखाई।
केवट कुटिल भालु कपि कौनप, कियो सकल सँग भाई॥ २॥
मिलि मुनिबृंद फिरत दंडक बन, सो चरचौ न चलाई।
बारहि बार गीध सबरीकी बरनत प्रीति सुहाई॥ ३॥
स्वान कहे तें कियो पुर बाहिर, जती गयंद चढ़ाई।
तिय-निंदक मतिमंद प्रजा रज निज नय नगर बसाई॥ ४॥
यहि दरबार दीनको आदर, रीति सदा चलि आई।
दीनदयालु दीन तुलसीकी काहु न सुरति कराई॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रघुश्रेष्ठ! आपकी यही बड़ाई है कि आप धनियोंका—धनान्धों या गण्यमान्योंका (धन, विद्या या पदके अभिमानियोंका) अनादर कर गरीबोंका आदर करते हैं, उनपर बड़ी कृपा करते हैं॥ १॥ देवता अनेक साधन करके थक गये, पर उन्हें आपने स्वप्नमें भी दर्शन न दिया, किन्तु निषाद एवं कपटी रीछ, बंदर और राक्षस (विभीषण)-के साथ भाई-चारा कर लिया, (इसीलिये कि ये सब दीन-निरभिमानी थे)॥ २॥ दण्डकारण्यमें घूमते तो फिरे मुनियोंके साथ हिलमिलकर, परन्तु उनकी तो चर्चातक नहीं चलायी, लेकिन गीध (जटायु) और शबरीके प्रेमका बारंबार सुन्दर बखान करना आपको सदा अच्छा लगा। (यहाँ भी वही दीनता और निरभिमानकी बात है)॥ ३॥ कुत्तेके कहनेपर संन्यासीको तो हाथीपर चढ़ाकर नगरके बाहर निकाल दिया और श्रीसीताजीकी झूठी निन्दा करनेवाले मूर्ख धोबीको अपनी प्रजा समझकर, नीतिसे अपने नगर अयोध्यामें बसा लिया (क्योंकि वह दीन-गरीब था)॥ ४॥ (इससे सिद्ध है कि) इस दरबारमें, रामराज्यमें, दीनोंके आदर करनेकी रीति सदासे चली आ रही है। किन्तु हे दीनदयालु! (क्या) इस दीन तुलसीका ध्यान आपको (आजतक) किसीने नहीं दिलाया॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१६६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसे राम-दीन हितकारी।
अतिकोमल करुनानिधान बिनु कारन पर-उपकारी॥ १॥
साधन-हीन दीन निज अघ-बस, सिला भई मुनि-नारी।
गृहतें गवनि परसि पद पावन घोर सापतें तारी॥ २॥
हिंसारत निषाद तामस बपु, पसु-समान बनचारी।
भेंटॺो हृदय लगाइ प्रेमबस, नहिं कुल जाति बिचारी॥ ३॥
जद्यपि द्रोह कियो सुरपति-सुत, कहि न जाय अति भारी।
सकल लोक अवलोकि सोकहत, सरन गये भय टारी॥ ४॥
बिहँग जोनि आमिष अहार पर, गीध कौन ब्रतधारी।
जनक-समान क्रिया ताकी निज कर सब भाँति सँवारी॥ ५॥
अधम जाति सबरी जोषित जड़, लोक-बेद तें न्यारी।
जानि प्रीति, दै दरस कृपानिधि, सोउ रघुनाथ उधारी॥ ६॥
कपि सुग्रीव बंधु-भय-ब्याकुल आयो सरन पुकारी।
सहि न सके दारुन दुख जनके, हत्यो बालि, सहि गारी॥ ७॥
रिपुको अनुज बिभीषन निशिचर, कौन भजन अधिकारी।
सरन गये आगे ह्वै लीन्हों भेंटॺो भुजा पसारी॥ ८॥
असुभ होइ जिन्हके सुमिरे ते बानर रीछ बिकारी।
बेद-बिदित पावन किये ते सब, महिमा नाथ! तुम्हारी॥ ९॥
कहँ लगि कहौं दीन अगनित जिन्हकी तुम बिपति निवारी।
कलिमल-ग्रसित दासतुलसीपर, काहे कृपा बिसारी?॥ १०॥

मूल

ऐसे राम-दीन हितकारी।
अतिकोमल करुनानिधान बिनु कारन पर-उपकारी॥ १॥
साधन-हीन दीन निज अघ-बस, सिला भई मुनि-नारी।
गृहतें गवनि परसि पद पावन घोर सापतें तारी॥ २॥
हिंसारत निषाद तामस बपु, पसु-समान बनचारी।
भेंटॺो हृदय लगाइ प्रेमबस, नहिं कुल जाति बिचारी॥ ३॥
जद्यपि द्रोह कियो सुरपति-सुत, कहि न जाय अति भारी।
सकल लोक अवलोकि सोकहत, सरन गये भय टारी॥ ४॥
बिहँग जोनि आमिष अहार पर, गीध कौन ब्रतधारी।
जनक-समान क्रिया ताकी निज कर सब भाँति सँवारी॥ ५॥
अधम जाति सबरी जोषित जड़, लोक-बेद तें न्यारी।
जानि प्रीति, दै दरस कृपानिधि, सोउ रघुनाथ उधारी॥ ६॥
कपि सुग्रीव बंधु-भय-ब्याकुल आयो सरन पुकारी।
सहि न सके दारुन दुख जनके, हत्यो बालि, सहि गारी॥ ७॥
रिपुको अनुज बिभीषन निशिचर, कौन भजन अधिकारी।
सरन गये आगे ह्वै लीन्हों भेंटॺो भुजा पसारी॥ ८॥
असुभ होइ जिन्हके सुमिरे ते बानर रीछ बिकारी।
बेद-बिदित पावन किये ते सब, महिमा नाथ! तुम्हारी॥ ९॥
कहँ लगि कहौं दीन अगनित जिन्हकी तुम बिपति निवारी।
कलिमल-ग्रसित दासतुलसीपर, काहे कृपा बिसारी?॥ १०॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—दीनोंका ऐसा हित करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी हैं, वे अति कोमल, करुणाके भण्डार और बिना ही कारण दूसरोंका उपकार करनेवाले हैं॥ १॥ साधनोंसे रहित, दीन, गौतम ऋषिकी स्त्री अहल्या, अपने पापोंके कारण शिला हो गयी थी। उसे आपने घरसे चलकर, अपने पवित्र चरणसे छूकर, घोर शापसे छुड़ा दिया॥ २॥ हिंसामें रत गुह निषाद जिसका तामसी शरीर था, और जो पशुकी तरह वनमें फिरता रहता था, उसे आपने वंश और जातिका विचार किये बिना ही, प्रेमके वश होकर हृदयसे लगा लिया॥ ३॥ यद्यपि इन्द्रके पुत्र जयन्तने (काकरूपसे श्रीसीताजीके चरणमें चोंच मारकर) इतना भारी अपराध किया था, कि कुछ कहा नहीं जा सकता तथापि जब वह (बाणके मारे घबराकर रक्षाके लिये) सब लोकोंको देख फिरा और फिर शोकसे व्याकुल होकर शरणमें आया, तब उसका सारा भय दूर कर दिया॥ ४॥ जटायु गीध पक्षीकी योनिका था, सदा मांस खाया करता था। उसने ऐसा कौन-सा व्रत धारण किया था कि जिसकी आपने अपने हाथसे, पिताके समान अन्त्येष्टि-क्रिया कर सब बातें सुधार दीं, अर्थात् मुक्ति प्रदान कर दी॥ ५॥ शबरी नीच जातिकी मूर्खा स्त्री थी। जो लोक और वेद दोनोंसे ही बाहर थी। परन्तु उसका सच्चा प्रेम समझकर कृपालु रघुनाथजीने उसे भी कृपापूर्वक दर्शन देकर उद्धार कर दिया॥ ६॥ सुग्रीव बन्दर अपने भाई (बालि)-के भयसे व्याकुल होकर जब पुकारता हुआ आपकी शरणमें आया, तब आप अपने उस दासका दारुण दुःख नहीं सह सके और गालियाँ सहकर भी बालिका वध कर डाला॥ ७॥ विभीषण, शत्रु (रावण)-का भाई था और जातिका राक्षस था! वह किस भजनका अधिकारी था? किन्तु जब वह आपकी शरणमें आया तब आपने उसे आगे बढ़कर लिया और भुजा पसारकर हृदयसे लगाया॥ ८॥ बन्दर और रीछ ऐसे अधर्मी हैं कि उनका नामतक लेनेसे अमंगल होता है, किंतु हे नाथ! उनको भी आपने पवित्र बना दिया। वेद इस बातके साक्षी हैं। यह सब आपकी महिमा है॥ ९॥ मैं कहाँतक कहूँ ऐसे असंख्य दीन हैं, जिनकी विपत्तियाँ आपने दूर कर दी हैं, किन्तु न जाने इस तुलसीदासपर, जो कलियुगके पापोंसे जकड़ा हुआ है, आप कृपा करना क्यों भूल गये॥ १०॥

विषय (हिन्दी)

(१६७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

रघुपति-भगति करत कठिनाई।
कहत सुगम करनी अपार जानै सोइ जेहि बनि आई॥ १॥
जो जेहि कला कुसल ताकहँ सोइ सुलभ सदा सुखकारी।
सफरी सनमुख जल-प्रवाह सुरसरी बहै गज भारी॥ २॥
ज्यों सर्करा मिलै सिकता महँ, बलतें न कोउ बिलगावै।
अति रसग्य सूच्छम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै॥ ३॥
सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवै निद्रा तजि जोगी।
सोइ हरिपद अनुभवै परम सुख, अतिसय द्वैत-बियोगी॥ ४॥
सोक मोह भय हरष दिवस-निसि देस-काल तहँ नाहीं।
तुलसिदास यहि दसाहीन संसय निरमूल न जाहीं॥ ५॥

मूल

रघुपति-भगति करत कठिनाई।
कहत सुगम करनी अपार जानै सोइ जेहि बनि आई॥ १॥
जो जेहि कला कुसल ताकहँ सोइ सुलभ सदा सुखकारी।
सफरी सनमुख जल-प्रवाह सुरसरी बहै गज भारी॥ २॥
ज्यों सर्करा मिलै सिकता महँ, बलतें न कोउ बिलगावै।
अति रसग्य सूच्छम पिपीलिका, बिनु प्रयास ही पावै॥ ३॥
सकल दृश्य निज उदर मेलि, सोवै निद्रा तजि जोगी।
सोइ हरिपद अनुभवै परम सुख, अतिसय द्वैत-बियोगी॥ ४॥
सोक मोह भय हरष दिवस-निसि देस-काल तहँ नाहीं।
तुलसिदास यहि दसाहीन संसय निरमूल न जाहीं॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरघुनाथजीकी भक्ति करनेमें बड़ी कठिनता है। कहना तो सहज है, पर उसका करना कठिन। इसे वही जानता है जिससे वह करते बन गयी॥ १॥ जो जिस कलामें चतुर हैं, उसीके लिये वह सरल और सदा सुख देनेवाली है। जैसे (छोटी-सी) मछली तो गंगाजीकी धाराके सामने चली जाती है, पर बड़ा भारी हाथी बह जाता है (क्योंकि मछलीकी तरह उसमें तैरना नहीं जानता)॥ २॥ जैसे यदि धूलमें चीनी मिल जाय तो उसे कोई भी जोर लगाकर अलग नहीं कर सकता, किन्तु उसके रसको जाननेवाली एक छोटी-सी चींटी उसे अनायास ही (अलग करके) पा जाती है॥ ३॥ जो योगी दृश्यमात्रको अपने पेटमें रख (ब्रह्ममें मायाको समेटकर, परमेश्वररूप कारणमें कार्यरूप जगत् का लय करके) (अज्ञान) निद्राको त्यागकर सोता है, वही द्वैतसे आत्यन्तिकरूपसे मुक्त हुआ पुरुष भगवान् के परम पदके परमानन्दकी प्रत्यक्ष अनुभूति कर सकता है॥ ४॥ इस अवस्थामें शोक, मोह, भय, हर्ष, दिन-रात और देश-काल नहीं रह जाते। (एक सच्चिदानन्दघन प्रभु ही रह जाता है।) किन्तु हे तुलसीदास! जबतक इस दशाकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक संशयका समूल नाश नहीं होता॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१६८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो पै राम-चरन-रति होती।
तौ कत त्रिबिध सूल निसिबासर सहते बिपति निसोती॥ १॥
जो संतोष-सुधा निसिबासर सपनेहुँ कबहुँक पावै।
तौ कत बिषय बिलोकि झूँठ जल मन-कुरंग ज्यों धावै॥ २॥
जो श्रीपति-महिमा बिचारि उर भजते भाव बढ़ाए।
तौ कत द्वार-द्वार कूकर ज्यों फिरते पेट खलाए॥ ३॥
जे लोलुप भये दास आसके ते सबहीके चेरे।
प्रभु-बिस्वास आस जीती जिन्ह, ते सेवक हरि केरे॥ ४॥
नहिं एकौ आचरन भजनको, बिनय करत हौं ताते।
कीजै कृपा दासतुलसी पर, नाथ नामके नाते॥ ५॥

मूल

जो पै राम-चरन-रति होती।
तौ कत त्रिबिध सूल निसिबासर सहते बिपति निसोती॥ १॥
जो संतोष-सुधा निसिबासर सपनेहुँ कबहुँक पावै।
तौ कत बिषय बिलोकि झूँठ जल मन-कुरंग ज्यों धावै॥ २॥
जो श्रीपति-महिमा बिचारि उर भजते भाव बढ़ाए।
तौ कत द्वार-द्वार कूकर ज्यों फिरते पेट खलाए॥ ३॥
जे लोलुप भये दास आसके ते सबहीके चेरे।
प्रभु-बिस्वास आस जीती जिन्ह, ते सेवक हरि केरे॥ ४॥
नहिं एकौ आचरन भजनको, बिनय करत हौं ताते।
कीजै कृपा दासतुलसी पर, नाथ नामके नाते॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रेम होता, तो रात-दिन तीनों प्रकारके कष्ट और निखालिस विपत्ति ही क्यों सहनी पड़ती॥ १॥ यदि यह मन दिन-रातमें कभी स्वप्नमें भी सन्तोषरूपी अमृत पा जाय तो विषयरूपी झूठे मृग-जलको देखकर उसके पीछे यह मृग बनकर क्यों दौड़े?॥ २॥ यदि हम भगवान् लक्ष्मीकान्तकी महिमाका हृदयमें विचारकर प्रेम बढ़ाकर उनका भजन करते, तो आज कुत्तेकी तरह द्वार-द्वार पेट दिखाते हुए क्यों मारे-मारे फिरते?॥ ३॥ जो लोभी आशाके दास बन गये हैं, वे तो सभीके गुलाम हैं (विषयोंकी आशा रखनेवालेको ही सबकी गुलामी करनी पड़ती है) और जिन्होंने भगवान् में विश्वास करके आशाको जीत लिया है, वे ही भगवान् के सच्चे सेवक हैं॥ ४॥ मैं आपसे इसलिये विनय कर रहा हूँ कि मुझमें भजनका तो एक भी आचरण नहीं है। (केवल आपका नाम जपता हूँ) हे नाथ! तुलसीदासपर इस नामके नातेसे ही कृपा कीजिये॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१६९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो मोहि राम लागते मीठे।
तौ नवरस षटरस-रस अनरस ह्वै जाते सब सीठे॥ १॥
बंचक बिषय बिबिध तनु धरि अनुभवे सुने अरु डीठे।
यह जानत हौं हृदय आपने सपने न अघाइ उबीठे॥ २॥
तुलसिदास प्रभु सों एकहिं बल बचन कहत अति ढीठे।
नामकी लाज राम करुनाकर केहि न दिये कर चीठे॥ ३॥

मूल

जो मोहि राम लागते मीठे।
तौ नवरस षटरस-रस अनरस ह्वै जाते सब सीठे॥ १॥
बंचक बिषय बिबिध तनु धरि अनुभवे सुने अरु डीठे।
यह जानत हौं हृदय आपने सपने न अघाइ उबीठे॥ २॥
तुलसिदास प्रभु सों एकहिं बल बचन कहत अति ढीठे।
नामकी लाज राम करुनाकर केहि न दिये कर चीठे॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि मुझे श्रीरामचन्द्रजी ही मीठे लगे होते, तो (साहित्यके) नवरस१ एवं (भोजनके) छः रस२ नीरस और फीके पड़ जाते (पर रामजी मीठे नहीं लगते, इसीलिये विषयभोग मीठे मालूम होते हैं)॥ १॥ मैं भाँति-भाँतिके शरीर धारण कर यह अनुभव कर चुका हूँ तथा मैंने सुना और देखा भी है कि (संसारके) विषय ठग हैं। (मायामें भुलाकर परमार्थरूपी धन हर लेते हैं) यद्यपि यह मैं अपने जीमें अच्छी तरह जानता हूँ, तथापि कभी स्वपनमें भी, इनसे तृप्त होकर मेरा मन नहीं उकताया (कैसी नीचता है?)॥ २॥ पर तुलसीदास अपने स्वामी श्रीरघुनाथजीसे एक ही बलपर ये ढिठाई भरे वचन कह रहा है। (और वह बल यह है कि) हे नाथ! आपने अपने नामकी लाजसे किस-किसको दया करके (भवबन्धनसे छूटनेके लिये) परवाने नहीं लिख दिये हैं? (जिसने आपका नाम लिया, उसीको मुक्तिका परवाना मिल गया, इसीलिये मैं भी यों कह रहा हूँ)॥ ३॥

पादटिप्पनी

१. शृंगार, हास्य, करुण, वीर, रौद्र, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त साहित्यके ये नौ रस हैं।
२. कड़ुआ, तीखा, मीठा, कसैला, खट्टा और नमकीन—ये छः भोजनके रस हैं।

विषय (हिन्दी)

(१७०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो।
ज्यों छल छाँड़ि सुभाव निरंतर रहत बिषय अनुराग्यो॥ १॥
ज्यों चितई परनारि, सुने पातक-प्रपंच घर-घरके।
त्यों न साधु, सुरसरि-तरंग-निरमल गुनगन रघुबरके॥ २॥
ज्यों नासा सुगंधरस-बस, रसना षटरस-रति मानी।
राम-प्रसाद-माल जूठन लगि त्यों न ललकि ललचानी॥ ३॥
चंदन-चंदबदनि-भूषन-पट ज्यों चह पाँवर परस्यो।
त्यों रघुपति-पद-पदुम-परस को तनु पातकी न तरस्यो॥ ४॥
ज्यों सब भाँति कुदेव कुठाकुर सेये बपु बचन हिये हूँ।
त्यों न राम सुकृतग्य जे सकुचत सकृत प्रनाम किये हूँ॥ ५॥
चंचल चरन लोभ लगि लोलुप द्वार-द्वार जग बागे।
राम-सीय-आस्रमनि चलत त्यों भये न स्रमित अभागे॥ ६॥
सकल अंग पद-बिमुख नाथ मुख नामकी ओट लई है।
है तुलसिहिं परतीति एक प्रभु-मूरति कृपामई है॥ ७॥

मूल

यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो।
ज्यों छल छाँड़ि सुभाव निरंतर रहत बिषय अनुराग्यो॥ १॥
ज्यों चितई परनारि, सुने पातक-प्रपंच घर-घरके।
त्यों न साधु, सुरसरि-तरंग-निरमल गुनगन रघुबरके॥ २॥
ज्यों नासा सुगंधरस-बस, रसना षटरस-रति मानी।
राम-प्रसाद-माल जूठन लगि त्यों न ललकि ललचानी॥ ३॥
चंदन-चंदबदनि-भूषन-पट ज्यों चह पाँवर परस्यो।
त्यों रघुपति-पद-पदुम-परस को तनु पातकी न तरस्यो॥ ४॥
ज्यों सब भाँति कुदेव कुठाकुर सेये बपु बचन हिये हूँ।
त्यों न राम सुकृतग्य जे सकुचत सकृत प्रनाम किये हूँ॥ ५॥
चंचल चरन लोभ लगि लोलुप द्वार-द्वार जग बागे।
राम-सीय-आस्रमनि चलत त्यों भये न स्रमित अभागे॥ ६॥
सकल अंग पद-बिमुख नाथ मुख नामकी ओट लई है।
है तुलसिहिं परतीति एक प्रभु-मूरति कृपामई है॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मेरा मन आपसे ऐसा कभी नहीं लगा, जैसा कि वह कपट छोड़कर, स्वभावसे ही निरन्तर विषयोंमें लगा रहता है॥ १॥ जैसे मैं परायी स्त्रीको ताकता फिरता हूँ, घर-घरके पापभरे प्रपंच सुनता हूँ, वैसे न तो कभी साधुओंके दर्शन करता हूँ, और न गंगाजीकी निर्मल तरंगोंके समान श्रीरघुनाथजीकी गुणावली ही सुनता हूँ॥ २॥ जैसे नाक अच्छी-अच्छी सुगन्धके रसके अधीन रहती है, और जीभ छः रसोंसे प्रेम करती है, वैसे यह नाक भगवान् पर चढ़ी हुई मालाके लिये और जीभ भगवत्-प्रसादके लिये कभी ललक-ललककर नहीं ललचाती॥ ३॥ जैसे यह अधम शरीर चन्दन, चन्द्रवदनी युवती, सुन्दर गहने और (मुलायम) कपड़ोंको स्पर्श करना चाहता है, वैसे श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंका स्पर्श करनेके लिये यह कभी नहीं तरसता॥ ४॥ जैसे मैंने शरीर, वचन और हृदयसे, बुरे-बुरे देवों और दुष्ट स्वामियोंकी सब प्रकारसे सेवा की, वैसे उन रघुनाथजीकी सेवा कभी नहीं की, जो (तनिक सेवासे) अपनेको खूब ही कृतज्ञ मानने लगते हैं और एक बार प्रणाम करते ही (अपार करुणाके कारण) सकुचा जाते हैं॥ ५॥ जैसे इन चंचल चरणोंने लोभवश, लालची बनकर द्वार-द्वार ठोकरें खायी हैं, वैसे ये अभागे श्रीसीतारामजीके (पुण्य) आश्रमोंमें जाकर कभी स्वप्नमें भी नहीं थके। (स्वप्नमें भी कभी भगवान् के पुण्य आश्रमोंमें जानेका कष्ट नहीं उठाया)॥ ६॥ हे प्रभो! (इस प्रकार) मेरे सभी अंग आपके चरणोंसे विमुख हैं। केवल इस मुखसे आपके नामकी ओट ले रखी है (और यह इसलिये कि) तुलसीको एक यही निश्चय है कि आपकी मूर्ति कृपामयी है। (आप कृपासागर होनेके कारण, नामके प्रभावसे मुझे अवश्य अपना लेंगे)॥ ७॥

विषय (हिन्दी)

(१७१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीजै मोको जमजातनामई।
राम! तुमसे सुचि सुहृद साहिबहिं, मैं सठ पीठि दई॥ १॥
गरभबास दस मास पालि पितु-मातु-रूप हित कीन्हों।
जड़हिं बिबेक, सुसील खलहिं, अपराधिहिं आदर दीन्हों॥ २॥
कपट करौं अंतरजामिहुँ सों, अघ ब्यापकहिं दुरावौं।
ऐसेहु कुमति कुसेवक पर रघुपति न कियो मन बावौं॥ ३॥
उदर भरौं किंकर कहाइ बेंच्यौ बिषयनि हाथ हियो है।
मोसे बंचकको कृपालु छल छाँड़ि कै छोह कियो है॥ ४॥
पल-पलके उपकार रावरे जानि बूझि सुनि नीके।
भिद्यो न कुलिसहुँ ते कठोर चित कबहुँ प्रेम सिय-पीके॥ ५॥
स्वामीकी सेवक-हितता सब, कछु निज साइँ-द्रोहाई।
मैं मति-तुला तौलि देखी भइ मेरेहि दिसि गरुआई॥ ६॥
एतेहु पर हित करत नाथ मेरो, करि आये, अरु करिहैं।
तुलसी अपनी ओर जानियत प्रभुहि कनौड़ो भरिहैं॥ ७॥

मूल

कीजै मोको जमजातनामई।
राम! तुमसे सुचि सुहृद साहिबहिं, मैं सठ पीठि दई॥ १॥
गरभबास दस मास पालि पितु-मातु-रूप हित कीन्हों।
जड़हिं बिबेक, सुसील खलहिं, अपराधिहिं आदर दीन्हों॥ २॥
कपट करौं अंतरजामिहुँ सों, अघ ब्यापकहिं दुरावौं।
ऐसेहु कुमति कुसेवक पर रघुपति न कियो मन बावौं॥ ३॥
उदर भरौं किंकर कहाइ बेंच्यौ बिषयनि हाथ हियो है।
मोसे बंचकको कृपालु छल छाँड़ि कै छोह कियो है॥ ४॥
पल-पलके उपकार रावरे जानि बूझि सुनि नीके।
भिद्यो न कुलिसहुँ ते कठोर चित कबहुँ प्रेम सिय-पीके॥ ५॥
स्वामीकी सेवक-हितता सब, कछु निज साइँ-द्रोहाई।
मैं मति-तुला तौलि देखी भइ मेरेहि दिसि गरुआई॥ ६॥
एतेहु पर हित करत नाथ मेरो, करि आये, अरु करिहैं।
तुलसी अपनी ओर जानियत प्रभुहि कनौड़ो भरिहैं॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! मुझे तो आप यमकी यातनामें ही डाल दीजिये, (नरकोंमें ही भेजिये), क्योंकि हे श्रीरामजी! मैं ऐसा दुष्ट हूँ कि मैंने आप-सरीखे पवित्र और सुहृद् (बिना ही कारण हित करनेवाले) स्वामीको पीठ दे रखी है॥ १॥ गर्भमें आपने माता-पिताके समान दस महीनेतक मेरा पालन-पोषण कर (कितना) हित किया। मुझ मूर्खको आपने शुद्ध ज्ञान, मुझ दुष्टको सुन्दर शील और मुझ अपराधीको आदर दिया। इतनेपर भी मैं आपका भजन न करके आपसे उलटा ही चलता हूँ॥ २॥ मैं अन्तर्यामी प्रभुके साथ भी कपट करता हूँ, घट-घटमें रमनेवाले सर्वव्यापीसे अपने पाप छिपाता हूँ। (परन्तु धन्य है आपको कि) ऐसे दुर्बुद्धि और नीच नौकरपर भी हे रामजी! आपने अपना मन प्रतिकूल नहीं किया॥ ३॥ पेट तो भरता हूँ आपका दास कहाकर, किन्तु हृदयको विषयोंके हाथ बेच रखा है तो भी मुझ-सरीखे ठगपर भी हे कृपालु! आपने निष्कपटभावसे कृपा ही की है॥ ४॥ आपके पल-पलके उपकारोंको भलीभाँति जानकर, समझकर और सुनकर भी मेरा वज्रसे भी अधिक कठोर चित्त कभी श्रीजानकीनाथजीके प्रेममें नहीं भिदा॥ ५॥ मैंने जब अपनी बुद्धिरूपी तराजूपर एक ओर स्वामीकी सारी सेवक-वत्सलता और दूसरी ओर अपना जरा-सा स्वामीद्रोह रखकर तौला, तब देखनेपर मेरी ही ओरका पलड़ा भारी निकला॥ ६॥ इतनेपर भी हे नाथ! आप कृपा कर मेरा हित ही करते चले आ रहे हैं, करते हैं और करेंगे। तुलसी अपनी ओरसे जानता है कि इस कनौड़ेका (एहसानसे दबे हुएका) प्रभु ही पालन करेंगे॥ ७॥

विषय (हिन्दी)

(१७२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो।
श्रीरघुनाथ-कृपालु-कृपातें संत-सुभाव गहौंगो॥ १॥
जथालाभसंतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो।
पर-हित-निरत निरंतर, मन क्रम बचन नेम निबहौंगो॥ २॥
परुष बचन अति दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो।
बिगत मान, सम सीतल मन, पर-गुन नहिं दोष कहौंगो॥ ३॥
परिहरि देह-जनित चिंता, दुख-सुख समबुद्धि सहौंगो।
तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरि-भगति लहौंगो॥ ४॥

मूल

कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो।
श्रीरघुनाथ-कृपालु-कृपातें संत-सुभाव गहौंगो॥ १॥
जथालाभसंतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो।
पर-हित-निरत निरंतर, मन क्रम बचन नेम निबहौंगो॥ २॥
परुष बचन अति दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो।
बिगत मान, सम सीतल मन, पर-गुन नहिं दोष कहौंगो॥ ३॥
परिहरि देह-जनित चिंता, दुख-सुख समबुद्धि सहौंगो।
तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरि-भगति लहौंगो॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—क्या मैं कभी इस रहनीसे रहूँगा? क्या कृपालु श्रीरघुनाथजीकी कृपासे कभी मैं संतोंका-सा स्वभाव ग्रहण करूँगा॥ १॥ जो कुछ मिल जायगा उसीमें सन्तुष्ट रहूँगा, किसीसे (मनुष्य या देवतासे) कुछ भी नहीं चाहूँगा। निरन्तर दूसरोंकी भलाई करनेमें ही लगा रहूँगा। मन, वचन और कर्मसे यम-नियमों* का पालन करूँगा॥ २॥ कानोंसे अति कठोर और असह्य वचन सुनकर भी उससे उत्पन्न हुई (क्रोधकी) आगमें न जलूँगा। अभिमान छोड़कर सबमें समबुद्धि रहूँगा और मनको शान्त रखूँगा। दूसरोंकी स्तुति-निन्दा कुछ भी नहीं करूँगा (सदा आपके चिन्तनमें लगे हुए मुझको दूसरोंकी स्तुति-निन्दाके लिये समय ही नहीं मिलेगा)॥ ३॥ शरीर-सम्बन्धी चिन्ताएँ छोड़कर सुख और दुःखको समान-भावसे सहूँगा। हे नाथ! क्या तुलसीदास इस (उपर्युक्त) मार्गपर रहकर कभी अविचल हरि-भक्तिको प्राप्त करेगा?॥ ४॥

पादटिप्पनी
  • अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान—ये दस यम-नियम हैं।
विषय (हिन्दी)

(१७३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहिंन आवत आन भरोसो।
यहि कलिकाल सकल साधनतरु है स्रम-फलनि फरो सो॥ १॥
तप, तीरथ, उपवास, दान, मख जेहि जो रुचै करो सो।
पायेहि पै जानिबो करम-फल भरि-भरि बेद परोसो॥ २॥
आगम-बिधि जप-जाग करत नर सरत न काज खरो सो।
सुख सपनेहु न जोग-सिधि-साधन, रोग बियोग धरो सो॥ ३॥
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह मिलि ग्यान बिराग हरो सो।
बिगरत मन संन्यास लेत जल नावत आम घरो सो॥ ४॥
बहु मत मुनि बहु पंथ पुराननि जहाँ-तहाँ झगरो सो।
गुरु कह्यो राम-भजन नीको मोहिं लगत राज-डगरो सो॥ ५॥
तुलसी बिनु परतीति प्रीति फिरि-फिरि पचि मरै मरो सो।
रामनाम-बोहित भव-सागर चाहै तरन तरो सो॥ ६॥

मूल

नाहिंन आवत आन भरोसो।
यहि कलिकाल सकल साधनतरु है स्रम-फलनि फरो सो॥ १॥
तप, तीरथ, उपवास, दान, मख जेहि जो रुचै करो सो।
पायेहि पै जानिबो करम-फल भरि-भरि बेद परोसो॥ २॥
आगम-बिधि जप-जाग करत नर सरत न काज खरो सो।
सुख सपनेहु न जोग-सिधि-साधन, रोग बियोग धरो सो॥ ३॥
काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह मिलि ग्यान बिराग हरो सो।
बिगरत मन संन्यास लेत जल नावत आम घरो सो॥ ४॥
बहु मत मुनि बहु पंथ पुराननि जहाँ-तहाँ झगरो सो।
गुरु कह्यो राम-भजन नीको मोहिं लगत राज-डगरो सो॥ ५॥
तुलसी बिनु परतीति प्रीति फिरि-फिरि पचि मरै मरो सो।
रामनाम-बोहित भव-सागर चाहै तरन तरो सो॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(श्रीराम-नामके सिवा) मुझे दूसरे किसी (साधन)-पर भरोसा नहीं होता। इस कलियुगमें सभी साधनरूपी वृक्षोंमें केवल परिश्रमरूपी फल ही फले-से दिखायी देते हैं अर्थात् उन साधनोंमें लगे रहनेसे केवल श्रम ही हाथ लगता है, फल कुछ नहीं होता॥ १॥ तप, तीर्थ, व्रत, दान, यज्ञ आदि जो जिसे अच्छा लगे, सो करे। किन्तु इन सब कर्मोंका फल पानेपर ही जान पड़ेगा, यद्यपि वेदोंने (पत्तल) भर-भरकर फलोंको परोसा है। भाव यह कि वेदोंमें इन कर्मोंकी बड़ी प्रशंसा है, परन्तु कलियुग इन्हें सफल ही नहीं होने देगा तब फल कहाँसे मिलेगा?॥ २॥ शास्त्रकी विधिसे मनुष्य जप और यज्ञ करते हैं किन्तु उनसे असली कार्यकी सिद्धि नहीं होती। योग-सिद्धियोंके साधनमें सुख स्वप्नमें भी नहीं है। (क्रिया जाननेवालोंके अभावसे) इस साधनमें भी रोग और वियोग प्रस्तुत हैं (शरीर रोगी हो जाता है, जिसके फलस्वरूप प्रियजनोंसे विछोह हो जाता है)॥ ३॥ काम, क्रोध, मद, लोभ और मोहने मिलकर ज्ञान-वैराग्यको तो हर-सा लिया है। और संन्यास लेनेपर तो यह मन ऐसा बिगड़ जाता है, जैसे पानीके डालनेसे कच्चा घड़ा गल जाता है॥ ४॥ मुनियोंके अनेक मत हैं, (छः दर्शन हैं) और पुराणोंमें नाना प्रकारके पन्थ देखकर जहाँ-तहाँ झगड़ा-सा ही जान पड़ता है। गुरुने मेरे लिये राम-भजनको ही उत्तम बतलाया है और मुझे भी सीधे राज-मार्गके समान वही अच्छा लगता है॥ ५॥ हे तुलसी! विश्वास और प्रेमके बिना जिसे बार-बार पच-पचकर मरना हो, वह भले ही मरे, किन्तु संसार-सागरसे तरनेके लिये तो राम-नाम ही जहाज है। जिसे पार होना हो, वह (इसपर चढ़कर) पार हो जाय॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(१७४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाके प्रिय न राम-बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥ १॥
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी॥ २॥
नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लौं।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं॥ ३॥
तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।
जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो॥ ४॥

मूल

जाके प्रिय न राम-बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥ १॥
तज्यो पिता प्रहलाद, बिभीषन बंधु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनितन्हि, भये मुद-मंगलकारी॥ २॥
नाते नेह रामके मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लौं।
अंजन कहा आँखि जेहि फूटै, बहुतक कहौं कहाँ लौं॥ ३॥
तुलसी सो सब भाँति परम हित पूज्य प्रानते प्यारो।
जासों होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिसे श्रीराम-जानकीजी प्यारे नहीं, उसे करोड़ों शत्रुओंके समान छोड़ देना चाहिये, चाहे वह अपना अत्यन्त ही प्यारा क्यों न हो॥ १॥ (उदाहरणके लिये देखिये) प्रह्लादने अपने पिता (हिरण्यकशिपु)-को, विभीषणने अपने भाई (रावण)-को, भरतजीने अपनी माता (कैकेयी)-को, राजा बलिने अपने गुरु (शुक्राचार्य)-को और व्रज-गोपियोंने अपने-अपने पतियोंको (भगवत्प्राप्तिमें बाधक समझकर) त्याग दिया, परन्तु ये सभी आनन्द और कल्याण करनेवाले हुए॥ २॥ जितने सुहृद् और अच्छी तरह पूजने योग्य लोग हैं, वे सब श्रीरघुनाथजीके ही सम्बन्ध और प्रेमसे माने जाते हैं, बस, अब अधिक क्या कहूँ। जिस अंजनके लगानेसे आँखें ही फूट जायँ, वह अंजन ही किस कामका?॥ ३॥ हे तुलसीदास! जिसके कारण (जिसके संग या उपदेशसे) श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रेम हो, वही सब प्रकारसे अपना परम हितकारी, पूजनीय और प्राणोंसे भी अधिक प्यारा है। हमारा तो यही मत है॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(१७५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो पै रहनि रामसों नाहीं।
तौ नर खर कूकर सूकर सम बृथा जियत जग माहीं॥ १॥
काम, क्रोध, मद, लोभ, नींद, भय, भूख, प्यास सबहीके।
मनुज देह सुर-साधु सराहत, सो सनेह सिय-पीके॥ २॥
सूर, सुजान, सुपूत सुलच्छन गनियत गुन गरुआई।
बिनु हरिभजन इँदारुनके फल तजत नहीं करुआई॥ ३॥
कीरति, कुल करतूति, भूति भलि, सील सरूप सलोने।
तुलसी प्रभु-अनुराग-रहित जस सालन साग अलोने॥ ४॥

मूल

जो पै रहनि रामसों नाहीं।
तौ नर खर कूकर सूकर सम बृथा जियत जग माहीं॥ १॥
काम, क्रोध, मद, लोभ, नींद, भय, भूख, प्यास सबहीके।
मनुज देह सुर-साधु सराहत, सो सनेह सिय-पीके॥ २॥
सूर, सुजान, सुपूत सुलच्छन गनियत गुन गरुआई।
बिनु हरिभजन इँदारुनके फल तजत नहीं करुआई॥ ३॥
कीरति, कुल करतूति, भूति भलि, सील सरूप सलोने।
तुलसी प्रभु-अनुराग-रहित जस सालन साग अलोने॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिसकी श्रीरामचन्द्रजीसे प्रीति नहीं है, वह इस संसारमें गदहे, कुत्ते और सूअरके समान वृथा ही जी रहा है॥ १॥ काम, क्रोध, मद, लोभ, नींद, भय, भूख और प्यास तो सभीमें है। पर जिस बातके लिये देवता और संतजन इस मनुष्य-शरीरकी प्रशंसा करते हैं, वह तो श्रीसीतानाथ रघुनाथजीका प्रेम ही है (भगवत्प्रेमसे ही मनुष्य-जीवनकी सार्थकता है)॥ २॥ कोई शूरवीर, सुचतुर, माता-पिताकी आज्ञामें रहनेवाला सुपूत, सुन्दर लक्षणवाला तथा बड़े-बड़े गुणोंसे युक्त भले ही श्रेष्ठ गिना जाता हो परन्तु यदि वह हरिभजन नहीं करता है तो वह इन्द्रायणके फलके समान है, जो (सब प्रकारसे देखनेमें सुन्दर होनेपर भी) अपना कड़वापन नहीं छोड़ता॥ ३॥ कीर्ति, ऊँचा कुल, अच्छी करनी, बड़ी विभूति, शील और लावण्यमय स्वरूप होनेपर यदि वह प्रभु श्रीरामचन्द्रजीके प्रति प्रेमसे रहित है, तो ये सब गुण ऐसे ही हैं, जैसे बिना नमककी साग-भाजी॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(१७६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राख्यो राम सुस्वामी सों नीच नेह न नातो।
एते अनादर हूँ तोहि ते न हातो॥ १॥
जोरे नये नाते नेह फोकट फीके।
देहके दाहक, गाहक जीके॥ २॥
अपने अपनेको सब चाहत नीको।
मूल दुहूँको दयालु दूलह सीको॥ ३॥
जीवको जीवन प्रानको प्यारो।
सुखहूको सुख रामसो बिसारो॥ ४॥
कियो करैगो तोसे खलको भलो।
ऐसे सुसाहब सों तू कुचाल क्यों चलो॥ ५॥
तुलसी तेरी भलाई अजहूँ बूझै।
राढ़उ राउत होत फिरिकै जूझै॥ ६॥

मूल

राख्यो राम सुस्वामी सों नीच नेह न नातो।
एते अनादर हूँ तोहि ते न हातो॥ १॥
जोरे नये नाते नेह फोकट फीके।
देहके दाहक, गाहक जीके॥ २॥
अपने अपनेको सब चाहत नीको।
मूल दुहूँको दयालु दूलह सीको॥ ३॥
जीवको जीवन प्रानको प्यारो।
सुखहूको सुख रामसो बिसारो॥ ४॥
कियो करैगो तोसे खलको भलो।
ऐसे सुसाहब सों तू कुचाल क्यों चलो॥ ५॥
तुलसी तेरी भलाई अजहूँ बूझै।
राढ़उ राउत होत फिरिकै जूझै॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे नीच! तूने श्रीरामचन्द्रजी-सरीखे सुन्दर स्वामीसे न प्रेम ही किया और न सम्बन्ध ही जोड़ा। परन्तु इतना अनादर करनेपर भी उन्होंने तुझे नहीं छोड़ा॥ १॥ तूने (जन्म-जन्मान्तरमें) नये-नये नाते और नया-नया प्रेम जोड़ा सो सब व्यर्थ और नीरस थे तथा (उलटे) तेरे शरीरके जलानेवाले और प्राणोंके ग्राहक थे॥ २॥ अपना और अपनोंका तो सभी भला चाहते हैं, किन्तु दोनोंकी भलाईके मूल तो एक श्रीजानकीवल्लभ ही हैं॥ ३॥ वह जीवोंके जीवन हैं, प्राणोंके प्यारे हैं और सुखके भी सुख हैं, ऐसे श्रीरामचन्द्रजीको तूने भुला दिया!॥ ४॥ जिन्होंने तेरा सदा भला किया और आगे भी जो भला ही करेंगे, अरे, ऐसे सुन्दर स्वामीके साथ तू इतनी कुचालें क्यों चला?॥ ५॥ रे तुलसी! यदि तू अब भी समझ जाय तो तेरा भला हो सकता है, क्योंकि बार-बार लड़नेसे कायर भी शूरवीर हो जाता है॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(१७७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो तुम त्यागो राम हौं तौ नहिं त्यागों।
परिहरि पाँय काहि अनुरागों॥ १॥
सुखद सुप्रभु तुम सो जगमाहीं।
श्रवन-नयन मन-गोचर नाहीं॥ २॥
हौं जड़ जीव, ईस रघुराया।
तुम मायापति, हौं बस माया॥ ३॥
हौं तो कुजाचक, स्वामी सुदाता।
हौं कुपूत, तुम हितु पितु-माता॥ ४॥
जो पै कहुँ कोउ बूझत बातो।
तौ तुलसी बिनु मोल बिकातो॥ ५॥

मूल

जो तुम त्यागो राम हौं तौ नहिं त्यागों।
परिहरि पाँय काहि अनुरागों॥ १॥
सुखद सुप्रभु तुम सो जगमाहीं।
श्रवन-नयन मन-गोचर नाहीं॥ २॥
हौं जड़ जीव, ईस रघुराया।
तुम मायापति, हौं बस माया॥ ३॥
हौं तो कुजाचक, स्वामी सुदाता।
हौं कुपूत, तुम हितु पितु-माता॥ ४॥
जो पै कहुँ कोउ बूझत बातो।
तौ तुलसी बिनु मोल बिकातो॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रामजी! यदि आप मुझे त्याग भी देंगे, तो भी मैं आपको नहीं छोड़ूँगा। क्योंकि आपके चरणोंको छोड़कर मैं और किसके साथ प्रेम करूँ?॥ १॥ आपके समान सुख देनेवाला सुन्दर स्वामी इस संसारमें आजतक न कानोंसे सुना है, न आँखोंसे देखा है और न मनसे अनुमानमें ही आता है॥ २॥ हे रघुनाथजी! मैं जड़ जीव हूँ और आप ईश्वर हैं। आप मायाके स्वामी हैं (माया आपके वशमें है) और मैं मायाके वश होकर रहता हूँ॥ ३॥ मैं तो एक कृतघ्न भिखमंगा हूँ और आप बडे़ उदार स्वामी हैं, मैं आपका कुपूत हूँ और आप हित करनेवाले माता-पिता हैं। भाव यह है कि लड़का कुपूत होनेपर भी माँ-बाप उसका हित ही करते हैं, ऐसे ही आप भी सदा मेरा पालन-पोषण ही किया करते हैं॥ ४॥ यदि कहीं कोई भी मेरी बात पूछता, तो यह तुलसीदास बिना ही मोल (उसके हाथ) बिक जाता। (परन्तु आपके सिवा मुझ-सरीखे नीचको कौन रखता है? अतः मैं आपको कभी नहीं छोड़ूँगा)॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१७८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

भयेहूँ उदास राम, मेरे आस रावरी।
आरत स्वारथी सब कहैं बात बावरी॥ १॥
जीवनको दानी घन कहा ताहि चाहिये।
प्रेम-नेमके निबाहे चातक सराहिये॥ २॥
मीनतें न लाभ-लेस पानी पुन्य पीनको।
जल बिनु थल कहा मीचु बिनु मीनको॥ ३॥
बड़े ही की ओट बलि बाँचि आये छोटे हैं।
चलत खरेके संग जहाँ-तहाँ खोटे हैं॥ ४॥
यहि दरबार भलो दाहिनेहु-बामको।
मोको सुभदायक भरोसो राम-नामको॥ ५॥
कहत नसानी ह्वैहै हिये नाथ नीकी है।
जानत कृपानिधान तुलसीके जीकी है॥ ६॥

मूल

भयेहूँ उदास राम, मेरे आस रावरी।
आरत स्वारथी सब कहैं बात बावरी॥ १॥
जीवनको दानी घन कहा ताहि चाहिये।
प्रेम-नेमके निबाहे चातक सराहिये॥ २॥
मीनतें न लाभ-लेस पानी पुन्य पीनको।
जल बिनु थल कहा मीचु बिनु मीनको॥ ३॥
बड़े ही की ओट बलि बाँचि आये छोटे हैं।
चलत खरेके संग जहाँ-तहाँ खोटे हैं॥ ४॥
यहि दरबार भलो दाहिनेहु-बामको।
मोको सुभदायक भरोसो राम-नामको॥ ५॥
कहत नसानी ह्वैहै हिये नाथ नीकी है।
जानत कृपानिधान तुलसीके जीकी है॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रामजी! आप चाहे मुझसे उदासीन हो जायँ, पर मुझे तो आपकी ही आशा है। (मेरे ऐसा कहनेसे आप नाराज न होइयेगा) आर्त अथवा स्वार्थी तो पागलोंकी-सी ही बातें किया करते हैं। भाव यह कि आप जो नित्य अपने जनोंपर कृपा-दृष्टि रखते हैं उनके लिये तो मैं कहता हूँ कि आप चाहे उदासीन हो जायँ और मेरे लिये, यह अभिमानकी बात कहता हूँ कि मुझे तो आपकी ही आशा है, यह पागलोंकी-सी बातें ही तो हैं॥ १॥ जो मेघ पानीका दान करता है, सारे प्राणियोंकी रक्षा करता है उसे किस वस्तुकी कमी है? पानी देकर जीवनकी रक्षा करनेवाले मेघको क्या चाहिये? परन्तु प्रेमका अटल नियम निबाहनेके कारण पपीहेकी ही सराहना होती है। भाव यह कि मेघ पपीहेको बिना ही किसी स्वार्थके स्वातिका जल देता है, इसमें उदारता मेघकी ही है, परन्तु दूसरी ओर न ताकनेके कारण सराहना चातककी हुआ करती है॥ २॥ पवित्र और पुष्ट करनेवाले जलको मछलीसे लेशमात्र भी लाभ नहीं है, पर मछलीके लिये जलको छोड़कर, ऐसा कौन-सा स्थान है, जहाँ वह अपने प्राण बचा सके? भाव यह कि वह जलको छोड़कर कहीं भी जीवित नहीं रह सकती। इसी प्रकार आपको मुझसे कोई लाभ नहीं, परन्तु मैं आपको छोड़कर कहाँ जाऊँ? आपको अपनी शरणमें रखना भी होगा और तारीफ भी मेरी ही होगी॥ ३॥ मैं आपकी बलैया लेता हूँ, देखिये बड़ोंके सहारे ही छोटे (सदा) बचते आये हैं, जहाँ-तहाँ खरे सिक्कोंके साथ खोटे भी चला करते हैं। भाव यह है कि आपके सच्चे भक्त असली सिक्के हैं, और मैं पाखण्डी, नकली सिक्का होनेपर भी आपके नामकी छापसे भवसागरसे तर जाऊँगा॥ ४॥ आपके दरबारमें भले-बुरे सभीका कल्याण होता है, चाहे कोई आपके अनुकूल हो या प्रतिकूल हो (जैसे विभीषण सम्मुख था तथा रावण विमुख था पर दोनों ही मुक्त हो गये) हे श्रीरामजी! मुझे तो केवल आपके कल्याणकारी नामका ही भरोसा है॥ ५॥ हे नाथ! कह देनेसे सब बात बिगड़ जायगी, (सारा भेद खुल जायगा) इससे मनकी मनहीमें रखना अच्छा है; फिर आप तो हे कृपानिधान! तुलसीके मनकी सब जानते ही हैं॥ ६॥

राग बिलावल

विषय (हिन्दी)

(१७९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहाँ जाउँ, कासों कहौं, कौन सुनै दीनकी।
त्रिभुवन तुही गति सब अंगहीनकी॥ १॥
जग जगदीस घर घरनि घनेरे हैं।
निराधारके अधार गुनगन तेरे हैं॥ २॥
गजराज-काज खगराज तजि धायो को।
मोसे दोस-कोस पोसे, तोसे माय जायो को॥ ३॥
मोसे कूर कायर कुपूत कौड़ी आधके।
किये बहुमोल तैं करैया गीध-श्राधके॥ ४॥
तुलसीकी तेरे ही बनाये, बलि, बनैगी।
प्रभुकी बिलंब-अंब दोष-दुख जनैगी॥ ५॥

मूल

कहाँ जाउँ, कासों कहौं, कौन सुनै दीनकी।
त्रिभुवन तुही गति सब अंगहीनकी॥ १॥
जग जगदीस घर घरनि घनेरे हैं।
निराधारके अधार गुनगन तेरे हैं॥ २॥
गजराज-काज खगराज तजि धायो को।
मोसे दोस-कोस पोसे, तोसे माय जायो को॥ ३॥
मोसे कूर कायर कुपूत कौड़ी आधके।
किये बहुमोल तैं करैया गीध-श्राधके॥ ४॥
तुलसीकी तेरे ही बनाये, बलि, बनैगी।
प्रभुकी बिलंब-अंब दोष-दुख जनैगी॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—कहाँ जाऊँ? किससे कहूँ? कौन इस (साधनरूपी धनसे हीन) दीनकी सुनेगा? मुझ-सरीखे सब तरहसे साधनहीनकी गति तो तीनों लोकोंमें एकमात्र तू ही है॥ १॥ यों तो दुनियामें घर-घर ‘जगदीश’ भरे हैं (सभी अपनेको ईश्वर कहते हैं) पर जिसके कोई आधार नहीं उसके लिये तो एक तेरे गुणसमूहका (गान) ही आधार है। भाव यह कि तेरे ही गुणोंका गान कर वह संसार-सागरको पार करता है॥ २॥ गजराजको छुड़ानेके लिये गरुड़को छोड़कर कौन दौड़ा था? जिसने मुझ-जैसे पापोंके भण्डारका भी पालन-पोषण किया, ऐसा एक तुझे छोड़कर, और किसको किस माताने जना है?॥ ३॥ मुझ-जैसे क्रूर, कायर, कुपूत और आधी कौड़ीकी कीमतवालोंको भी, हे जटायुके श्राद्ध करनेवाले! तूने बहुमूल्य बना दिया॥ ४॥ बलिहारी! तुलसीकी (बिगड़ी हुई) बात तेरे ही बनाये बन सकेगी। यदि तूने मेरा उद्धार करनेमें देर की, तो फिर वह देररूपी माता दुःख और दोषरूपी सन्तान ही जनेगी। भाव यह कि तू कृपा करके शीघ्र उद्धार न करेगा तो मैं पाप और दुःखोंसे ही घिर जाऊँगा॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१८०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

बारक बिलोकि बलि कीजै मोहिं आपनो।
राय दशरथके तू उथपन-थापनो॥ १॥
साहिब सरनपाल सबल न दूसरो।
तेरो नाम लेत ही सुखेत होत ऊसरो॥ २॥
बचन करम तेरे मेरे मन गड़े हैं।
देखे सुने जाने मैं जहान जेते बड़े हैं॥ ३॥
कौन कियो समाधान सनमान सीलाको।
भृगुनाथ सो रिषी जितैया कौन लीलाको॥ ४॥
मातु-पितु-बन्धु-हितु, लोक-बेदपाल को।
बोलको अचल, नत करत निहाल को॥ ५॥
संग्रही सनेहबस अधम असाधुको।
गीध सबरीको कहौ करिहै सराधु को॥ ६॥
निराधारको अधार, दीनको दयालु को।
मीत कपि-केवट-रजनिचर-भालु को॥ ७॥
रंक, निरगुनी, नीच जितने निवाजे हैं।
महाराज! सुजन-समाज ते बिराजे हैं॥ ८॥
साँची बिरुदावली न बढ़ि कहि गई है।
सीलसिंधु! ढील तुलसीकी बेर भई है॥ ९॥

मूल

बारक बिलोकि बलि कीजै मोहिं आपनो।
राय दशरथके तू उथपन-थापनो॥ १॥
साहिब सरनपाल सबल न दूसरो।
तेरो नाम लेत ही सुखेत होत ऊसरो॥ २॥
बचन करम तेरे मेरे मन गड़े हैं।
देखे सुने जाने मैं जहान जेते बड़े हैं॥ ३॥
कौन कियो समाधान सनमान सीलाको।
भृगुनाथ सो रिषी जितैया कौन लीलाको॥ ४॥
मातु-पितु-बन्धु-हितु, लोक-बेदपाल को।
बोलको अचल, नत करत निहाल को॥ ५॥
संग्रही सनेहबस अधम असाधुको।
गीध सबरीको कहौ करिहै सराधु को॥ ६॥
निराधारको अधार, दीनको दयालु को।
मीत कपि-केवट-रजनिचर-भालु को॥ ७॥
रंक, निरगुनी, नीच जितने निवाजे हैं।
महाराज! सुजन-समाज ते बिराजे हैं॥ ८॥
साँची बिरुदावली न बढ़ि कहि गई है।
सीलसिंधु! ढील तुलसीकी बेर भई है॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! बलिहारी! एक बार मेरी ओर देखकर मुझे अपना लीजिये। हे श्रीदशरथनन्दन! आप उखड़े हुए जीवोंको फिरसे जमानेवाले हैं॥ १॥ आपके समान कोई दूसरा शरणागतोंका पालनेवाला सर्वशक्तिमान् स्वामी नहीं है। आपका नाम लेते ही ऊसर खेत भी उपजाऊ हो जाता है। भाव यह कि जिनके भाग्यमें सुखका लेश भी नहीं है वे भी आपके नामके जपसे भक्ति-ज्ञानको प्राप्त कर परम आनन्द लाभ करते हैं॥ २॥ आपके वचन और कर्म मेरे मनमें गड़ गये हैं (स्थान-स्थानपर दीनोंके उद्धारकी प्रतिज्ञा और अजामिल, गणिका आदि दीनोंके उद्धाररूपी कर्म देखकर मुझे दृढ़ विश्वास हो गया है) और मैंने उन लोगोंको भी देख, सुन और समझ लिया है जो दुनियामें बड़े कहे जाते हैं॥ ३॥ उनमेंसे किसने शिला बनी हुई अहल्याका शाप दूरकर उसे शान्ति प्रदान की, और किसने लीलासे ही परशुराम-जैसे महाक्रोधी ऋषिको जीत लिया? (किसीने नहीं)॥ ४॥ माता, पिता और भाईके लिये किसने लोक और वेदकी मर्यादाका पालन किया? अपने वचनोंका अडिग कौन है? और प्रणाम करते ही प्रणतको कौन निहाल कर देता है? (केवल एक श्रीरघुनाथजी ही)॥ ५॥ प्रेमके अधीन होकर किसने नीचों और दुष्टोंको इकट्ठा किया, अपनाया? गीध और शबरीका (पिता-माताकी तरह) कौन श्राद्ध करेगा?॥ ६॥ जिनके कहीं कोई सहारा नहीं है, उनका आधार कौन है? दीनोंपर दया करनेवाला कौन है? और बंदर, मल्लाह, राक्षस तथा रीछोंका मित्र कौन है? (सिवा रघुनाथजीके दूसरा कोई नहीं)॥ ७॥ हे महाराज! आपने जितने कंगाल, मूर्ख और नीचोंको निहाल किया है, वे सब ही आज संतोंके समाजमें विराजित हो रहे हैं॥ ८॥ यह आपकी सच्ची-सच्ची बड़ाई कही गयी है, (एक अक्षर भी) बढ़ाकर नहीं कहा है। किंतु हे शीलके समुद्र! तुलसीदासके ही लिये इतनी देर क्यों हो रही है?॥ ९॥

विषय (हिन्दी)

(१८१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

केहू भाँति कृपासिंधु मेरी ओर हेरिये।
मोको और ठौर न, सुटेक एक तेरिये॥ १॥
सहस सिलातें अति जड़ मति भई है।
कासों कहौं कौन गति पाहनहिं दई है॥ २॥
पद-राग-जाग चहौं कौसिक ज्यों कियो हौं।
कलि-मल खल देखि भारी भीति भियो हौं॥ ३॥
करम-कपीस बालि-बली, त्रास-त्रस्यो हौं।
चाहत अनाथ-नाथ! तेरी बाँह बस्यो हौं॥ ४॥
महा मोह-रावन बिभीषन ज्यों हयो हौं।
त्राहि, तुलसीस! त्राहि तिहूँ ताप तयो हौं॥ ५॥

मूल

केहू भाँति कृपासिंधु मेरी ओर हेरिये।
मोको और ठौर न, सुटेक एक तेरिये॥ १॥
सहस सिलातें अति जड़ मति भई है।
कासों कहौं कौन गति पाहनहिं दई है॥ २॥
पद-राग-जाग चहौं कौसिक ज्यों कियो हौं।
कलि-मल खल देखि भारी भीति भियो हौं॥ ३॥
करम-कपीस बालि-बली, त्रास-त्रस्यो हौं।
चाहत अनाथ-नाथ! तेरी बाँह बस्यो हौं॥ ४॥
महा मोह-रावन बिभीषन ज्यों हयो हौं।
त्राहि, तुलसीस! त्राहि तिहूँ ताप तयो हौं॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे कृपासागर! किसी भी तरह मेरी ओर देखो। मुझे और कहीं ठौर-ठिकाना नहीं है, एक तुम्हारा ही पक्का आसरा है॥ १॥ मेरी बुद्धि हजार शिलाओंसे भी अधिक जड़ हो गयी है। (अब मैं उसे चैतन्य करनेके लिये) और किससे कहूँ? पत्थरोंको (तुम्हारे सिवा और) किसने मुक्त किया है?॥ २॥ जिस प्रकार महर्षि विश्वामित्रने (तुम्हारी देख-रेखमें निर्विघ्न) यज्ञ किया था, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे चरणोंमें प्रेमरूपी एक यज्ञ करना चाहता हूँ। किन्तु कलिके पापरूपी दुष्टोंको देखकर मैं बहुत ही भयभीत हो रहा हूँ। (जैसे मारीच, ताड़का आदिसे तुमने विश्वामित्रके यज्ञकी रक्षा की थी वैसे ही इन पापोंसे बचाकर मुझे भी चरणकमलोंका प्रेमी बना लो)॥ ३॥ कुटिल कर्मरूपी बंदरोंके बलवान् राजा बालिसे मैं बहुत डर रहा हूँ, सो हे अनाथोंके नाथ! (जैसे तुमने बालिको मारकर सुग्रीवको अभय कर दिया था, उसी प्रकार) मैं भी आपकी बाहुकी छायामें बसना चाहता हूँ (इन कठिन कर्मोंसे बचाकर आप मुझे अपना लीजिये)॥ ४॥ जैसे रावणने विभीषणको मारा था, उसी प्रकार मुझे भी यह महान् मोह मार रहा है; हे तुलसीके स्वामी! मैं संसारके तीनों तापोंसे जला जा रहा हूँ, मेरी रक्षा करो, रक्षा करो॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१८२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ! गुनगाथ सुनि होत चित चाउ सो।
राम रीझिबेको जानौं भगति न भाउ सो॥ १॥
करम, सुभाउ, काल, ठाकुर न ठाउँ सो।
सुधन न, सुतन न, सुमन, सुआउ सो॥ २॥
जाँचौं जल जाहि कहै अमिय पियाउ सो।
कासों कहौं काहू सों न बढ़त हियाउ सो॥ ३॥
बाप! बलि जाउँ, आप करिये उपाउ सो।
तेरे ही निहारे परै हारेहू सुदाउ सोे॥ ४॥
तेरे ही सुझाये सूझै असुझ सुझाउ सो।
तेरे ही बुझाये बूझै अबुझ बुझाउ सो॥ ५॥
नाम-अवलंबु-अंबु दीन मीन-राउ सो।
प्रभुसों बनाइ कहौं जीह जरि जाउ सो॥ ६॥
सब भाँति बिगरी है एक सुबनाउ-सो।
तुलसी सुसाहिबहिं दियो है जनाउ सो॥ ७॥

मूल

नाथ! गुनगाथ सुनि होत चित चाउ सो।
राम रीझिबेको जानौं भगति न भाउ सो॥ १॥
करम, सुभाउ, काल, ठाकुर न ठाउँ सो।
सुधन न, सुतन न, सुमन, सुआउ सो॥ २॥
जाँचौं जल जाहि कहै अमिय पियाउ सो।
कासों कहौं काहू सों न बढ़त हियाउ सो॥ ३॥
बाप! बलि जाउँ, आप करिये उपाउ सो।
तेरे ही निहारे परै हारेहू सुदाउ सोे॥ ४॥
तेरे ही सुझाये सूझै असुझ सुझाउ सो।
तेरे ही बुझाये बूझै अबुझ बुझाउ सो॥ ५॥
नाम-अवलंबु-अंबु दीन मीन-राउ सो।
प्रभुसों बनाइ कहौं जीह जरि जाउ सो॥ ६॥
सब भाँति बिगरी है एक सुबनाउ-सो।
तुलसी सुसाहिबहिं दियो है जनाउ सो॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! आपके गणोंकी गाथा सुनकर मेरे चित्तमें चाव-सा होता है, किन्तु हे रामजी! जिस भक्ति और भावसे आप प्रसन्न होते हैं, उसे मैं नहीं जानता॥ १॥ कारण कि न तो मेरे कर्म अच्छे हैं, न स्वभाव उत्तम है, और न समय अच्छा है (कलियुग है); न कोई मालिक है, न कहीं ठौर-ठिकाना है, न (साधनरूपी) उत्तम धन है, न सुन्दर (सेवापरायण) शरीर है, न (परमार्थमें लगनेवाला) उत्तम मन है और न (भजनसे पवित्र हुई) उत्तम आयु ही है। सारांश, भगवत्प्राप्तिका एक भी साधन मेरे पास नहीं है, सब प्रकारसे निराधार हूँ॥ २॥ जिससे मैं (प्यासके मारे) पानी माँगता हूँ, वह उलटा मुझसे ही अमृत पिलानेके लिये कहता है। मैं अपनी बात किससे कहूँ? किसीसे भी कहनेकी हिम्मत-सी नहीं पड़ती॥ ३॥ हे बापजी! बलिहारी! आप ही मेरे लिये वैसा कोई अच्छा उपाय कर दीजिये। क्योंकि आपके (कृपादृष्टिसे) देखते ही हारनेपर भी अच्छा दाँव-सा हाथ लग जाता है। भाव, बड़े-बड़े पापी भी आपकी कृपासे वैकुण्ठके अधिकारी हो जाते हैं॥ ४॥ आप यदि सुझा दें तो अदृश्य वस्तु भी दीखने लगती है, और आपके समझा देनेपर नहीं समझमें आनेवाला (आपका स्वरूप) पदार्थ भी समझमें आ जाता है; अब आप उसे ही सुझा और समझा दीजिये॥ ५॥ देखिये, आपके नामका जो अवलम्बन है, वही तो पानी है और उसमें रहनेवाला मैं दीन मीनोंका राजा-सा हूँ, बड़े भारी मत्स्यके समान हूँ। मैं जो प्रभुके सामने इसमें कुछ भी बनावटी बात कहता होऊँ तो मेरी यह जीभ जल जाय॥ ६॥ मेरी बात सभी तरहसे बिगड़ चुकी है, केवल एक ही अच्छा बानक-सा बना हुआ है, और वह यह कि तुलसीदासने यह बात अपने दयालु स्वामीको जना दी है। (अब स्वामी आप ही बिगड़ी बनावेंगे)॥ ७॥

राग आसावरी

विषय (हिन्दी)

(१८३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम! प्रीतिकी रीति आप नीके जनियत है।
बड़ेकी बड़ाई, छोटेकी छोटाई दूरि करै,
ऐसी बिरुदावली, बलि, बेद मनियत है॥ १॥
गीधको कियो सराध, भीलनीको खायो फल,
सोऊ साधु-सभा भलीभाँति भनियत है।
रावरे आदरे लोक बेद हूँ आदरियत,
जोग ग्यान हूँ तें गरू गनियत है॥ २॥
प्रभुकी कृपा कृपालु! कठिन कलि हूँ काल,
महिमा समुझि उर अनियत है।
तुलसी पराये बस भये रस अनरस,
दीनबंधु! द्वारे हठ ठनियत है॥ ३॥

मूल

राम! प्रीतिकी रीति आप नीके जनियत है।
बड़ेकी बड़ाई, छोटेकी छोटाई दूरि करै,
ऐसी बिरुदावली, बलि, बेद मनियत है॥ १॥
गीधको कियो सराध, भीलनीको खायो फल,
सोऊ साधु-सभा भलीभाँति भनियत है।
रावरे आदरे लोक बेद हूँ आदरियत,
जोग ग्यान हूँ तें गरू गनियत है॥ २॥
प्रभुकी कृपा कृपालु! कठिन कलि हूँ काल,
महिमा समुझि उर अनियत है।
तुलसी पराये बस भये रस अनरस,
दीनबंधु! द्वारे हठ ठनियत है॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! प्रीतिकी रीति आप ही भलीभाँति जानते हैं। बलिहारी! वेद आपकी विरदावलीको इस प्रकार मान रहे हैं कि आप बड़ेका बड़प्पन (अभिमान) एवं छोटेकी छोटाई (दीनता)-को दूर कर देते हैं॥ १॥ आपने जटायु गीधका श्राद्ध किया और शबरीके फल (बेर) खाये; यह बात भी संत-समाजमें अच्छी तरह बखानी जाती है कि जिस किसीका आपने आदर किया, लोक और वेद दोनों ही उसका आदर करते हैं। आपका प्रेम योग तथा ज्ञानसे भी बड़ा माना जाता है॥ २॥ हे कृपालु! आपकी कृपासे इस कठिन कलिकालमें भी आपकी महिमाको समझकर भक्तजन हृदयमें धारण करते हैं। यद्यपि तुलसी दूसरोंके (विषयोंके) अधीन होनेके कारण (आपके प्रेमसे) अनरस अर्थात् प्रेमहीन हो रहा है, तथापि हे दीनबन्धु! वह आपके द्वारपर धरना दिये बैठा है (आपकी कृपा-दृष्टि पाये बिना हटनेका नहीं)॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(१८४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम-नामके जपे जाइ जियकी जरनि।
कलिकाल अपर उपाय ते अपाय भये,
जैसे तम नासिबेको चित्रके तरनि॥ १॥
करम-कलाप परिताप पाप-साने सब,
ज्यों सुफूल फूले तरु फोकट फरनि।
दंभ, लोभ, लालच, उपासना बिनासि नीके,
सुगति साधन भई उदर भरनि॥ २॥
जोग न समाधि निरुपाधि न बिराग-ग्यान,
बचन बिशेष बेष, कहूँ न करनि।
कपट कुपथ कोटि, कहनि-रहनि खोटि,
सकल सराहैं निज निज आचरनि॥ ३॥
मरत महेस उपदेस हैं कहा करत,
सुरसरि-तीर कासी धरम-धरनि।
राम-नामको प्रताप हर कहैं, जपैं आप,
जुग जुग जानैं जग, बेदहूँ बरनि॥ ४॥
मति राम-नाम ही सों, रति राम-नाम ही सों,
गति राम-नाम ही की बिपति-हरनि।
राम-नामसों प्रतीति प्रीति राखे कबहुँक,
तुलसी ढरैंगे राम आपनी ढरनि॥ ५॥

मूल

राम-नामके जपे जाइ जियकी जरनि।
कलिकाल अपर उपाय ते अपाय भये,
जैसे तम नासिबेको चित्रके तरनि॥ १॥
करम-कलाप परिताप पाप-साने सब,
ज्यों सुफूल फूले तरु फोकट फरनि।
दंभ, लोभ, लालच, उपासना बिनासि नीके,
सुगति साधन भई उदर भरनि॥ २॥
जोग न समाधि निरुपाधि न बिराग-ग्यान,
बचन बिशेष बेष, कहूँ न करनि।
कपट कुपथ कोटि, कहनि-रहनि खोटि,
सकल सराहैं निज निज आचरनि॥ ३॥
मरत महेस उपदेस हैं कहा करत,
सुरसरि-तीर कासी धरम-धरनि।
राम-नामको प्रताप हर कहैं, जपैं आप,
जुग जुग जानैं जग, बेदहूँ बरनि॥ ४॥
मति राम-नाम ही सों, रति राम-नाम ही सों,
गति राम-नाम ही की बिपति-हरनि।
राम-नामसों प्रतीति प्रीति राखे कबहुँक,
तुलसी ढरैंगे राम आपनी ढरनि॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीराम-नाम जपनेसे ही मनकी जलन मिट जाती है। इस कलियुगमें (योग-यज्ञादि) दूसरे साधन तो सब वैसे ही व्यर्थ हो गये हैं, जैसे अँधेरा दूर करनेके लिये चित्रलिखित सूर्य व्यर्थ है॥ १॥ कर्म तो बहुतेरे दुःख और पापोंमें सने हैं। कर्मोंका करना इस समय ऐसा है, जैसे किसी वृक्षमें बड़े ही सुन्दर फूल फूलें, पर फल लगे ही नहीं। दम्भ, लोभ और लालचने उपासनाका भलीभाँति नाश कर दिया है। और मोक्षका साधन ज्ञान आज पेट भरनेका साधन हो रहा है। (इस प्रकार कर्म, उपासना और ज्ञान तीनोंकी ही बुरी दशा है)॥ २॥ न तो योग ही बनता है, न समाधि ही उपाधिरहित है, वैराग्य और ज्ञान लंबी-चौड़ी बातें बनाने और वेष बनानेभरके ही रह गये हैं। करनी कुछ भी नहीं, केवल कथनी है। कपटभरे करोड़ों कुमार्ग चल पड़े हैं। कहनी और रहनी सभी खोटी हो गयी हैं। सभी अपने-अपने आचरणोंकी सराहना करते हैं॥ ३॥ (एक राम-नामकी महिमा रही है) शिवजी गंगाके किनारे काशीकी धर्मभूमिपर मरते समय जीवको क्या उपदेश देते हैं? वे श्रीराम-नामके प्रतापका वर्णन करते हैं। दूसरोंसे कहते हैं और स्वयं भी जपते हैं। अनेक युगोंसे इसे संसार जानता है और वेद भी कहते चले आये हैं॥ ४॥ अब तो राम-नामहीमें अपनी बुद्धिको लगाना चाहिये, राम-नामहीसे प्रेम करना चाहिये और राम-नामहीकी शरण लेनी चाहिये। क्योंकि एक यही साधना जीवकी जन्म-मरणरूप विपत्तियोंको दूर करनेवाली है। हे तुलसी! राम-नामपर विश्वास और दृढ़ प्रेम बनाये रखेगा, तो कभी-न-कभी श्रीरामजी अवश्य ही अपने दयालु स्वभावसे तुझपर दया करेंगे॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१८५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाज न लागत दास कहावत।
सो आचरन बिसारि सोच तजि, जो हरि तुम कहँ भावत॥ १॥
सकल संग तजि भजत जाहि मुनि, जप तप जाग बनावत।
मो-सम मंद महाखल पाँवर, कौन जतन तेहि पावत॥ २॥
हरि निरमल, मलग्रसित हृदय, असमंजस मोहि जनावत।
जेहि सर काक कंक बक सूकर, क्यों मराल तहँ आवत॥ ३॥
जाकी सरन जाइ कोबिद दारुन त्रयताप बुझावत।
तहूँ गये मद मोह लोभ अति, सरगहुँ मिटत न सावत॥ ४॥
भव-सरिता कहँ नाउ संत, यह कहि औरनि समुझावत।
हौं तिनसों हरि! परम बैर करि, तुम सों भलो मनावत॥ ५॥
नाहिंन और ठौर मो कहँ, ताते हठि नातो लावत।
राखु सरन उदार-चूड़ामनि! तुलसिदास गुन गावत॥ ६॥

मूल

लाज न लागत दास कहावत।
सो आचरन बिसारि सोच तजि, जो हरि तुम कहँ भावत॥ १॥
सकल संग तजि भजत जाहि मुनि, जप तप जाग बनावत।
मो-सम मंद महाखल पाँवर, कौन जतन तेहि पावत॥ २॥
हरि निरमल, मलग्रसित हृदय, असमंजस मोहि जनावत।
जेहि सर काक कंक बक सूकर, क्यों मराल तहँ आवत॥ ३॥
जाकी सरन जाइ कोबिद दारुन त्रयताप बुझावत।
तहूँ गये मद मोह लोभ अति, सरगहुँ मिटत न सावत॥ ४॥
भव-सरिता कहँ नाउ संत, यह कहि औरनि समुझावत।
हौं तिनसों हरि! परम बैर करि, तुम सों भलो मनावत॥ ५॥
नाहिंन और ठौर मो कहँ, ताते हठि नातो लावत।
राखु सरन उदार-चूड़ामनि! तुलसिदास गुन गावत॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे हरे! मुझे (आपका) दास कहलानेमें लज्जा भी नहीं आती! जो आचरण आपको अच्छा लगता है, उसे मैं बिना किसी विचारके छोड़ देता हूँ। (संतोंके आचरण छोड़ देनेमें मुझे पश्चात्तापतक भी नहीं होता। इतनेपर भी मैं आपका दास बनता हूँ)॥ १॥ मुनिगण जिसे सब प्रकारकी आसक्ति छोड़कर भजते हैं, जिसके लिये जप, तप, और यज्ञ करते हैं, उस प्रभुको मुझ-जैसा मूर्ख, महान् दुष्ट और पापी कैसे पा सकता है?॥ २॥ भगवान् तो विशुद्ध हैं और मेरा हृदय पापपूर्ण महामलिन है, मुझे यह असमंजस जान पड़ता है। जिस तालाबमें कौए, गीध, बगुले और सूअर रहते हैं वहाँ हंस क्यों आने लगे? भाव यह कि मेरे काम, क्रोध, लोभ, मोहभरे मलिन हृदयमें भगवान् नहीं आवेंगे। वह तो उन्हीं मुनियोंके हृदय-मन्दिरमें विहार करेंगे जिन्होंने निष्काम कर्म, वैराग्य, भक्ति, ज्ञान आदि साधनोंद्वारा अपने हृदयको निर्मल बना लिया है॥ ३॥ जिन (तीर्थों)-की शरणमें जाकर ज्ञानके साधक पुरुष सांसारिक तीनों कठिन तापोंको बुझाते हैं, वहाँ भी जानेपर मुझे तो अहंकार, अज्ञान और लोभ और भी अधिक सतावेंगे, क्योंकि सौतियाडाह स्वर्गमें भी नहीं छूटता, वहाँ भी साथ लगा फिरता है॥ ४॥ मैं दूसरोंको यह कहकर समझाता फिरता हूँ कि ‘देखो, संसाररूपी नदीके पार जानेके लिये संतजन ही नौका हैं’—किन्तु हे हरे! मैं (स्वयं) उनसे बड़ी भारी शत्रुता करके आपसे अपना कल्याण चाहता हूँ॥ ५॥ (पर ऐसा होनेपर भी कहाँ जाऊँ) मुझे और कहीं ठौर-ठिकाना नहीं है, इसीसे (नालायक होता हुआ भी) आपसे जबरदस्ती सम्बन्ध जोड़ता फिरता हूँ। हे दाताओंमें शिरोमणि रघुनाथ! यह तुलसीदास आपके गुण गा रहा है, (भलाई-बुराईकी ओर न देखकर अपने दयालु स्वभावसे ही) इसको अपना लीजिये॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(१८६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कौन जतन बिनती करिये।
निज आचरन बिचारि हारि हिय मानि जानि डरिये॥ १॥
जेहि साधन हरि! द्रवहु जानि जन सो हठि परिहरिये।
जाते बिपति-जाल निसिदिन दुख, तेहि पथ अनुसरिये॥ २॥
जानत हूँ मन बचन करम पर-हित कीन्हें तरिये।
सो बिपरीत देखि पर-सुख, बिनु कारन ही जरिये॥ ३॥
श्रुति पुरान सबको मत यह सतसंग सुदृढ़ धरिये।
निज अभिमान मोह इरिषा बस तिनहिं न आदरिये॥ ४॥
संतत सोइ प्रिय मोहिं सदा जातें भवनिधि परिये।
कहौ अब नाथ, कौन बलतें संसार-सोग हरिये॥ ५॥
जब कब निज करुना-सुभावतें, द्रवहु तौ निस्तरिये।
तुलसिदास बिस्वास आन नहिं, कत पचि-पचि मरिये॥ ६॥

मूल

कौन जतन बिनती करिये।
निज आचरन बिचारि हारि हिय मानि जानि डरिये॥ १॥
जेहि साधन हरि! द्रवहु जानि जन सो हठि परिहरिये।
जाते बिपति-जाल निसिदिन दुख, तेहि पथ अनुसरिये॥ २॥
जानत हूँ मन बचन करम पर-हित कीन्हें तरिये।
सो बिपरीत देखि पर-सुख, बिनु कारन ही जरिये॥ ३॥
श्रुति पुरान सबको मत यह सतसंग सुदृढ़ धरिये।
निज अभिमान मोह इरिषा बस तिनहिं न आदरिये॥ ४॥
संतत सोइ प्रिय मोहिं सदा जातें भवनिधि परिये।
कहौ अब नाथ, कौन बलतें संसार-सोग हरिये॥ ५॥
जब कब निज करुना-सुभावतें, द्रवहु तौ निस्तरिये।
तुलसिदास बिस्वास आन नहिं, कत पचि-पचि मरिये॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! मैं किस प्रकार आपकी विनती करूँ? जब अपने (नीच) आचरणोंपर विचार करता हूँ और समझता हूँ, तब हृदयमें हार मानकर डर जाता हूँ (प्रार्थना करनेका साहस ही नहीं रह जाता)॥ १॥ हे हरे! जिस साधनसे आप मनुष्यको दास जानकर उसपर कृपा करते हैं, उसे तो मैं हठपूर्वक छोड़ रहा हूँ। और जहाँ विपत्तिके जालमें फँसकर दिन-रात दुःख ही मिलता है, उसी (कु)-मार्गपर चला करता हूँ॥ २॥ यह जानता हूँ कि मन, वचन और कर्मसे दूसरोंकी भलाई करनेसे संसार-सागरसे तर जाऊँगा, पर मैं इससे उलटा ही आचरण करता हूँ, दूसरोंके सुखको देखकर बिना ही कारण (ईर्ष्याग्निसे) जला जा रहा हूँ॥ ३॥ वेद-पुराण सभीका यह सिद्धान्त है कि खूब दृढ़तापूर्वक सत्संगका आश्रय लेना चाहिये, किन्तु मैं अपने अभिमान, अज्ञान और ईर्ष्याके वश कभी सत्संगका आदर नहीं करता, मैं तो संतोंसे सदा द्रोह ही किया करता हूँ॥ ४॥ (बात तो यह है कि) मुझे सदा वही अच्छा लगता है, जिससे संसारसागरहीमें पड़ा रहूँ। फिर, हे नाथ! आप ही कहिये, मैं किस बलसे संसारके दुःख दूर करूँ?॥ ५॥ जब कभी आप अपने दयालु स्वभावसे मुझपर पिघल जायँगे, तभी मेरा निस्तार होगा, नहीं तो नहीं। क्योंकि तुलसीदासको और किसीका विश्वास ही नहीं है, फिर वह किसलिये (अन्यान्य साधनोंमें) पच-पचकर मरे॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(१८७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताहि तें आयो सरन सबेरें।
ग्यान बिराग भगति साधन कछु सपनेहुँ नाथ! न मेरें॥ १॥
लोभ-मोह-मद-काम-क्रोध रिपु फिरत रैनि-दिन घेरें।
तिनहिं मिले मन भयो कुपथ-रत, फिरै तिहारेहि फेरें॥ २॥
दोष-निलय यह बिषय सोक-प्रद कहत संत श्रुति टेरें।
जानत हूँ अनुराग तहाँ अति सो, हरि तुम्हरेहि प्रेरें?॥ ३॥
बिष पियूष सम करहु अगिनि हिम, तारि सकहु बिनु बेरें।
तुम सम ईस कृपालु परम हित पुनि न पाइहौं हेरें॥ ४॥
यह जिय जानि रहौं सब तजि रघुबीर भरोसे तेरें।
तुलसिदास यह बिपति बागुरौ तुम्हहिं सों बनै निबेरें॥ ५॥

मूल

ताहि तें आयो सरन सबेरें।
ग्यान बिराग भगति साधन कछु सपनेहुँ नाथ! न मेरें॥ १॥
लोभ-मोह-मद-काम-क्रोध रिपु फिरत रैनि-दिन घेरें।
तिनहिं मिले मन भयो कुपथ-रत, फिरै तिहारेहि फेरें॥ २॥
दोष-निलय यह बिषय सोक-प्रद कहत संत श्रुति टेरें।
जानत हूँ अनुराग तहाँ अति सो, हरि तुम्हरेहि प्रेरें?॥ ३॥
बिष पियूष सम करहु अगिनि हिम, तारि सकहु बिनु बेरें।
तुम सम ईस कृपालु परम हित पुनि न पाइहौं हेरें॥ ४॥
यह जिय जानि रहौं सब तजि रघुबीर भरोसे तेरें।
तुलसिदास यह बिपति बागुरौ तुम्हहिं सों बनै निबेरें॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! (केवल तुम्हारा ही भरोसा है) इसी कारणसे मैं पहलेसे ही तुम्हारी शरणमें आ गया हूँ। ज्ञान, वैराग्य, भक्ति आदि साधन तो मेरे पास स्वप्नमें भी नहीं हैं (जिनके बलसे मैं संसार-सागरसे पार हो जाता)॥ १॥ मुझे तो लोभ, अज्ञान, घमंड, काम और क्रोधरूपी शत्रु ही रात-दिन घेरे रहते हैं, ये क्षणभर भी मेरा पिण्ड नहीं छोड़ते। इन सबके साथ मिलकर यह मन भी कुमार्गी हो गया है। अब यह तुम्हारे ही फेरनेसे फिरेगा॥ २॥ संतजन और वेद पुकार-पुकारकर कहते हैं कि संसारके यह सब विषय पापोंके घर हैं और शोकप्रद हैं, यह जानते हुए भी मेरा उन विषयोंमें ही जो इतना अनुराग है सो हे हरि! यह तुम्हारी ही प्रेरणासे तो नहीं है? (नहीं तो मैं जान-बूझकर ऐसा क्यों करता?)॥ ३॥ (जो कुछ भी हो, तुम चाहो तो) विषको अमृत एवं अग्निको बरफ बना सकते हो और बिना ही जहाजोंके संसार-सागरसे पार कर सकते हो। तुम-सरीखा कृपालु और परम हितकारी स्वामी ढूँढ़नेपर भी कहीं नहीं मिलेगा। (ऐसे स्वामीको पाकर भी मैंने अपना काम नहीं बनाया तो फिर मेरे समान मूर्ख और कौन होगा?)॥ ४॥ इसी बातको हृदयमें जानकर, हे रघुनाथजी! मैं सब छोड़-छाड़कर तुम्हारे भरोसे आ पड़ा हूँ। तुलसीदासका यह विपत्तिरूपी जाल तुम्हारे ही काटे कटेगा!॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१८८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैं तोहिं अब जान्यो संसार।
बाँधि न सकहिं मोहि हरिके बल, प्रगट कपट-आगार॥ १॥
देखत ही कमनीय, कछू नाहिंन पुनि किये बिचार।
ज्यों कदलीतरु-मध्य निहारत, कबहुँ न निकसत सार॥ २॥
तेरे लिये जनम अनेक मैं फिरत न पायो पार।
महामोह-मृगजल-सरिता महँ बोरॺो हौं बारहिं बार॥ ३॥
सुनु खल! छल-बल कोटि किये बस होहिं न भगत उदार।
सहित सहाय तहाँ बसि अब, जेहि हृदय न नंदकुमार॥ ४॥
तासों करहु चातुरी जो नहिं जानै मरम तुम्हार।
सो परि डरै मरै रजु-अहि तें, बूझै नहिं ब्यवहार॥ ५॥
निज हित सुनु सठ! हठ न करहि, जो चहहि कुसल परिवार।
तुलसिदास प्रभुके दासनि तजि भजहि जहाँ मद मार॥ ६॥

मूल

मैं तोहिं अब जान्यो संसार।
बाँधि न सकहिं मोहि हरिके बल, प्रगट कपट-आगार॥ १॥
देखत ही कमनीय, कछू नाहिंन पुनि किये बिचार।
ज्यों कदलीतरु-मध्य निहारत, कबहुँ न निकसत सार॥ २॥
तेरे लिये जनम अनेक मैं फिरत न पायो पार।
महामोह-मृगजल-सरिता महँ बोरॺो हौं बारहिं बार॥ ३॥
सुनु खल! छल-बल कोटि किये बस होहिं न भगत उदार।
सहित सहाय तहाँ बसि अब, जेहि हृदय न नंदकुमार॥ ४॥
तासों करहु चातुरी जो नहिं जानै मरम तुम्हार।
सो परि डरै मरै रजु-अहि तें, बूझै नहिं ब्यवहार॥ ५॥
निज हित सुनु सठ! हठ न करहि, जो चहहि कुसल परिवार।
तुलसिदास प्रभुके दासनि तजि भजहि जहाँ मद मार॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे (मायावी) संसार! अब मैंने तुझे (यथार्थ) जान लिया, तू प्रत्यक्ष ही कपटका घर है, पर अब मुझे भगवान् का बल मिल गया है इससे तू (अपने कपटजालमें) मुझको नहीं बाँध सकता, (परमात्माके बलका आश्रय लेते ही परमात्माकी मायासे बना हुआ संसार सर्वथा मिट गया, इसलिये अब मैं संसारके मायावी फंदेमें नहीं आ सकता)॥ १॥ तू देखनेमात्रको ही सुन्दर है, पर विचार करनेपर तो कुछ भी नहीं है, वस्तुतः तेरा अस्तित्व ही नहीं है। जैसे केलेके पेड़को देखो, उसमेंसे कभी गूदा निकलता ही नहीं (कितना ही छीलो, छिलका-ही-छिलका निकलता जायगा। यही दशा संसारकी है)॥ २॥ अरे, तेरे लिये मैं अनेक जन्मोंमें भटकता फिरा, अनेक योनियोंमें गया, पर तेरा पार नहीं पाया। तू मुझे महामोहरूपी मृगतृष्णाकी नदीमें बार-बार डुबाता ही रहा॥ ३॥ अरे दुष्ट! सुन, तू चाहे करोड़ों प्रकारके छल-बल कर; पर भगवान् का परम-भक्त तेरे वशमें नहीं हो सकता, तू अपनी (विषयोंकी) सेनासमेत वहीं जाकर डेरा डाल, जिस हृदयमें नन्दनन्दन श्रीकृष्ण* भगवान् का वास न हो (जिस भक्तके हृदयमें भगवान् का वास है वहाँ तेरा क्या काम?)॥ ४॥ जो तेरा भेद न जानता हो, उसीके साथ अपनी कपटकी चाल चल। वही रस्सीरूपी साँपसे डरकर मरेगा, जो उसके भेदको न जानता होगा॥ ५॥ अरे शठ! अपने हितकी बात सुन, जो तू कुटुम्बसमेत अपनी खैर चाहता है तो हठ न कर। तुलसीदासके प्रभु श्रीरघुनाथजीके सेवकोंको छोड़कर तू वहीं भाग जा, जहाँ अहंकार और काम रहते हों (जहाँ राम रहते हैं वहाँ अहंकार तथा काम नहीं; और जहाँ ये नहीं, वहाँ मायाका संसार कैसे रह सकता है?)॥ ६॥

पादटिप्पनी
  • इससे सिद्ध है कि गोसाईंजी श्रीराम और श्रीकृष्णमें कोई भेद नहीं मानते थे, जो वास्तविक सिद्धान्त है।

राग गौरी

विषय (हिन्दी)

(१८९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम कहत चलु, राम कहत चलु, राम कहत चलु भाई रे।
नाहिं तौ भव-बेगारि महँ परिहै, छुटत अति कठिनाई रे॥ १॥
बाँस पुरान साज सब अठकठ, सरल तिकोन खटोला रे।
हमहिं दिहल करि कुटिल करमचँद* मंद मोल बिनु डोला रे॥ २॥
बिषम कहार मार-मद-माते चलहिं न पाउँ बटोरा रे।
मंद बिलंद अभेरा दलकन पाइय दुख झकझोरा रे॥ ३॥
काँट कुराय लपेटन लोटन ठावहिं ठाउँ बझाऊ रे।
जस जस चलिय दूरि तस तस निज बास न भेंट लगाऊ रे॥ ४॥
मारग अगम, संग नहिं संबल, नाउँ गाउँकर भूला रे।
तुलसिदास भव त्रास हरहु अब, होहु राम अनुकूला रे॥ ५॥

मूल

राम कहत चलु, राम कहत चलु, राम कहत चलु भाई रे।
नाहिं तौ भव-बेगारि महँ परिहै, छुटत अति कठिनाई रे॥ १॥
बाँस पुरान साज सब अठकठ, सरल तिकोन खटोला रे।
हमहिं दिहल करि कुटिल करमचँद* मंद मोल बिनु डोला रे॥ २॥
बिषम कहार मार-मद-माते चलहिं न पाउँ बटोरा रे।
मंद बिलंद अभेरा दलकन पाइय दुख झकझोरा रे॥ ३॥
काँट कुराय लपेटन लोटन ठावहिं ठाउँ बझाऊ रे।
जस जस चलिय दूरि तस तस निज बास न भेंट लगाऊ रे॥ ४॥
मारग अगम, संग नहिं संबल, नाउँ गाउँकर भूला रे।
तुलसिदास भव त्रास हरहु अब, होहु राम अनुकूला रे॥ ५॥

पादटिप्पनी
  • ‘करमचन्द’ बुरे प्रारब्धके लिये व्यंगोक्ति है। ‘बड़ी-बड़ी बातें बनाता है, अपने करमचन्दकी करतूत तो देख’ लोग ऐसा कहा करते हैं।
अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे भाई! राम-राम, राम-राम कहते चलो, नहीं तो कहीं संसारकी बेगारमें पकड़े जाओगे तो फिर छूटना अत्यन्त कठिन हो जायगा। (राजाकी बेगारसे दो-चार दिनोंमें छूटा जा सकता है, पर संसारका जन्म-मरणका चक्र तो ज्ञान न होनेतक सदा चलता ही रहेगा। यदि राम-राम जपता चला जायगा, तो मायाजन्य विषयरूपी शत्रु तुझे बेगारमें न पकड़ सकेंगे। क्योंकि रामके दासपर रामकी माया नहीं चलती॥ १॥ कुटिल कर्मचन्दने (हमारे पूर्व-जन्मकृत पाप-कर्मोंके प्रारब्धने) बिना ही मोलके (संसार-चक्रकी कर्मानुसार स्वाभाविक गतिके अनुसार) ऐसा बुरा खटोला (भजनहीन तामसप्रधान मनुष्य-शरीर) हमें दिया है कि जिसके पुराना तो बाँस (अनादिकालीन अविद्या-मोह) लगा है, जिसके साज सब अंटसंट हैं, चित्तकी तामस विषयाकार वृत्तियाँ हैं, (जिनके कारण शरीरसे बुरे कर्म होते हैं—मनुष्य कुमार्गमें जाता है) जो सीधा तिकोन है (केवल अर्थ, काम और सकाम धर्मकी प्राप्तिमें ही लगा हुआ है, जिसे मोक्षका ध्यान ही नहीं है)॥ २॥ जिसके (उठाकर चलनेवाले) कहार विषम हैं और कामके मदमें मतवाले हो रहे हैं (शरीरको चलानेवाली पाँच इन्द्रियाँ हैं, कहारोंकी जोड़ी होनी चाहिये, पाँच होनेसे जोड़ी नहीं है इसलिये विषम हैं, एक-से नहीं हैं और पाँचों ही इन्द्रियाँ विषय-भोगोंके पीछे मतवाली हो रही हैं। कुकर्मोंके कारण जब शरीर और मन ही तामस विषयाकार हैं, तब इन्द्रियाँ विषयोंसे हटी हुई कैसे हों?) और वे पाँव बटोरकर—समान पैर रखकर नहीं चलते। (इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयोंकी ओर दौड़ती हैं) इससे कभी ऊँचे, कभी नीचे चलनेसे धक्के और झटके लग रहे हैं, इस खींचतानमें बड़ा ही दुःख हो रहा है। (कभी स्वर्ग या कीर्ति आदिकी इच्छासे धर्म-कार्यमें, कभी भोगोंकी प्राप्तिके लिये संसारके विविध व्यवसायोंमें, कभी कामवश होकर स्त्रियोंके पीछे। सो भी समानभावसे नहीं—शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध इन अपने-अपने विषयोंद्वारा कभी ऊँचे और कभी नीचे जाती हैं, फलस्वरूप जीव महान् क्लेश पाता है)॥ ३॥ रास्तेमें काँटे बिछे हैं, कंकड़ पड़े हैं, (विषैली बेलें लपेटती हैं और झाड़ियाँ उलझा लेती हैं, इस प्रकार जगह-जगह रुकना पड़ता है। परमात्माको भुलाकर सांसारिक विषयोंके घने जंगलमें दौड़नेवाली इन्द्रियोंके विषय-नाशरूपी काँटे प्रतिकूल विषयरूपी कंकड़, घर-परिवारकी ममतारूपी लपेटनेवाली बेलें और कामनारूपी उलझन है, जिनसे पद-पदपर रुककर दुःख भोगते हुए चलना पड़ता है।) फिर ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं त्यों-ही-त्यों अपना घर दूर होता चला जा रहा है। (संसारके भोगोंमें ज्यों-ज्यों मन फँसता है त्यों-ही-त्यों भगवत्-प्राप्तिरूप निज-निकेतन दूर होता जाता है) और कोई राह बतानेवाला भी नहीं है। (विषयी पुरुष संतोंका संग ही नहीं करते, फिर उन्हें सीधा परमार्थका रास्ता कौन बतावे? संगवाले तो उलटा ही मार्ग बतलाते हैं)॥ ४॥ मार्ग बड़ा कठिन है, (विषयोंके झाड़-झंखाड़ों और पहाड़-जंगलोंसे परिपूर्ण है) साथमें (भजनरूपी) राह-खर्च नहीं है, यहाँतक कि अपने गाँवका नामतक भूल गये हैं (भूलकर भी परमात्माका नाम नहीं लेते और परमात्म-स्वरूपपर विचार नहीं करते, अतएव भगवान् की कृपा बिना इस शरीरके द्वारा तो परमपदरूपी घर पहुँचना असम्भव ही है); इसलिये हे श्रीरामजी! अब आप ही कृपा करके इस तुलसीदासके (जन्म-मरणरूपी) संसार-भयको दूर कीजिये॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१९०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहज सनेही रामसों तैं कियो न सहज सनेह।
तातें भव-भाजन भयो, सुनु अजहुँ सिखावन एह॥ १॥
ज्यों मुख मुकुर बिलोकिये अरु चित न रहै अनुहारि।
त्यों सेवतहुँ न आपने, ये मातु-पिता, सुत-नारि॥ २॥
दै दै सुमन तिल बासिकै, अरु खरि परिहरि रस लेत।
स्वारथ हित भूतल भरे, मन मेचक, तन सेत॥ ३॥
करि बीत्यो, अब करतु है करिबे हित मीत अपार।
कबहुँ न कोउ रघुबीर सो नेह निबाहनिहार॥ ४॥
जासों सब नातों फुरै, तासों न करी पहिचानि।
तातें कछू समुझॺो नहीं, कहा लाभ कह हानि॥ ५॥
साँचो जान्यो झूठको, झूठे कहँ साँचो जानि।
को न गयो, को जात है, को न जैहै करि हितहानि॥ ६॥
बेद कह्यो, बुध कहत हैं, अरु हौंहुँ कहत हौं टेरि।
तुलसी प्रभु साँचो हितू, तू हियकी आँखिन हेरि॥ ७॥

मूल

सहज सनेही रामसों तैं कियो न सहज सनेह।
तातें भव-भाजन भयो, सुनु अजहुँ सिखावन एह॥ १॥
ज्यों मुख मुकुर बिलोकिये अरु चित न रहै अनुहारि।
त्यों सेवतहुँ न आपने, ये मातु-पिता, सुत-नारि॥ २॥
दै दै सुमन तिल बासिकै, अरु खरि परिहरि रस लेत।
स्वारथ हित भूतल भरे, मन मेचक, तन सेत॥ ३॥
करि बीत्यो, अब करतु है करिबे हित मीत अपार।
कबहुँ न कोउ रघुबीर सो नेह निबाहनिहार॥ ४॥
जासों सब नातों फुरै, तासों न करी पहिचानि।
तातें कछू समुझॺो नहीं, कहा लाभ कह हानि॥ ५॥
साँचो जान्यो झूठको, झूठे कहँ साँचो जानि।
को न गयो, को जात है, को न जैहै करि हितहानि॥ ६॥
बेद कह्यो, बुध कहत हैं, अरु हौंहुँ कहत हौं टेरि।
तुलसी प्रभु साँचो हितू, तू हियकी आँखिन हेरि॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तूने स्वभावसे ही स्नेह करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीसे स्वाभाविक स्नेह नहीं किया। इसीसे तू संसारी हो गया है (जन्म-मरणके चक्रमें पड़ा है), परन्तु अब भी यह शिक्षा सुन॥ १॥ जैसे दर्पणमें मुखका प्रतिविम्ब दीख पड़ता है, पर वह मुख वास्तवमें दर्पणके अंदर नहीं होता, वैसे ही ये माता, पिता, पुत्र और स्त्री सेवा करते हुए भी अपने नहीं हैं (मायारूपी दर्पणके साथ तादात्म्य होनेसे ही इनमें अपना भाव दीखता है)॥ २॥ (संसारका सम्बन्ध तो स्वार्थका है) जैसे तिलोंमें फूल रख-रखकर उन्हें सुगन्धमय बनाते हैं किन्तु तेल निकाल लेनेपर खलीको व्यर्थ समझकर फेंक देते हैं, वैसे ही सम्बन्धियोंकी दशा है (अर्थात् जबतक स्वार्थसाधन होता है तबतक संगी रहते हैं और सम्मान करते हैं, फिर कोई बात भी नहीं पूछता)। इस पृथ्वीपर ऐसे स्वार्थी भरे पड़े हैं, जिनका मन काला है, और शरीर सफेद है॥ ३॥ तूने कितने मित्र बनाये, कितने बना रहा है और कितने अभी बनायेगा; किन्तु श्रीरघुनाथजी-जैसा प्रेमको (सदा एकरस) निभानेवाला मित्र कभी कोई मिलनेका ही नहीं॥ ४॥ अरे! जिस (श्रीभगवान्)-के कारण ही सारे नाते सच्चे प्रतीत होते हैं, उसके साथ तूने (आजतक) कभी पहचान ही नहीं की! इसलिये तू अभीतक इस तत्त्वको नहीं समझ पाया कि (वास्तविक) लाभ क्या है और हानि क्या है॥ ५॥ जिन्होंने मिथ्या (जगत्)-को सत्य और सत्य (परमात्मा)-को मिथ्या (असत्) मान रखा है, उनमें ऐसा कौन है जो अपने यथार्थ कल्याणका नाश करके (संसारसे) नहीं चला गया, नहीं जा रहा है, और नहीं जायगा (सारांश, ऐसे मूढ़ जीव बिना ही परमात्माको प्राप्त किये व्यर्थ ही मनुष्य-जीवनको खो देते हैं)॥ ६॥ वेदोंने कहा है और विद्वान् भी कहते हैं तथा मैं भी पुकारकर कह रहा हूँ कि तुलसीके स्वामी श्रीरघुनाथजी ही सच्चे हितू हैं। तू तनिक अपने हृदयके नेत्रोंसे देख॥ ७॥

विषय (हिन्दी)

(१९१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक सनेही साचिलो केवल कोसलपालु।
प्रेम-कनोड़ो रामसो नहिं दूसरो दयालु॥ १॥
तन-साथी सब स्वारथी, सुर ब्यवहार-सुजान।
आरत-अधम-अनाथ हित को रघुबीर समान॥ २॥
नाद निठुर, समचर सिखी, सलिल सनेह न सूर।
ससि सरोग, दिनकरु बड़े, पयद प्रेम-पथ कूर॥ ३॥
जाको मन जासों बँध्यो, ताको सुखदायक सोइ।
सरल सील साहिब सदा सीतापति सरिस न कोइ॥ ४॥
सुनि सेवा सही को करै, परिहरै को दूषन देखि।
केहि दिवान दिन दीन को आदर-अनुराग बिसेखि॥ ५॥
खग-सबरी पितु-मातु ज्यों माने, कपि को किये मीत।
केवट भेंटॺो भरत ज्यों, ऐसो को कहु पतित-पुनीत॥ ६॥
देइ अभागहिं भागु को, को राखै सरन सभीत।
बेद-बिदित बिरुदावली, कबि-कोबिद गावत गीत॥ ७॥
कैसेउ पाँवर पातकी, जेहि लई नामकी ओट।
गाँठी बाँध्यो दाम तो, परख्यो न फेरि खर-खोट॥ ८॥
मन-मलीन, कलि किलबिषी होत सुनत जासु कृत-काज।
सो तुलसी कियो आपुनो रघुबीर गरीब-निवाज॥ ९॥

मूल

एक सनेही साचिलो केवल कोसलपालु।
प्रेम-कनोड़ो रामसो नहिं दूसरो दयालु॥ १॥
तन-साथी सब स्वारथी, सुर ब्यवहार-सुजान।
आरत-अधम-अनाथ हित को रघुबीर समान॥ २॥
नाद निठुर, समचर सिखी, सलिल सनेह न सूर।
ससि सरोग, दिनकरु बड़े, पयद प्रेम-पथ कूर॥ ३॥
जाको मन जासों बँध्यो, ताको सुखदायक सोइ।
सरल सील साहिब सदा सीतापति सरिस न कोइ॥ ४॥
सुनि सेवा सही को करै, परिहरै को दूषन देखि।
केहि दिवान दिन दीन को आदर-अनुराग बिसेखि॥ ५॥
खग-सबरी पितु-मातु ज्यों माने, कपि को किये मीत।
केवट भेंटॺो भरत ज्यों, ऐसो को कहु पतित-पुनीत॥ ६॥
देइ अभागहिं भागु को, को राखै सरन सभीत।
बेद-बिदित बिरुदावली, कबि-कोबिद गावत गीत॥ ७॥
कैसेउ पाँवर पातकी, जेहि लई नामकी ओट।
गाँठी बाँध्यो दाम तो, परख्यो न फेरि खर-खोट॥ ८॥
मन-मलीन, कलि किलबिषी होत सुनत जासु कृत-काज।
सो तुलसी कियो आपुनो रघुबीर गरीब-निवाज॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सच्चे स्नेही तो केवल एक कोशलेन्द्र श्रीरामचन्द्रजी ही हैं। प्रेमका कृतज्ञ रामजीके समान कोई दूसरा दयालु नहीं है॥ १॥ इस शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाले सभी स्वार्थी हैं, देवता व्यवहारमें चतुर हैं (जितनी सेवा करोगे, उतना ही फल देंगे और यदि कुछ बिगड़ गया, तो सारा किया-कराया व्यर्थ कर देंगे)। दुःखी, नीच और अनाथका हित करनेवाला श्रीरघुनाथजीके समान दूसरा कौन है? (कोई भी नहीं)॥ २॥ (अब प्रेमियोंकी दशा देखिये) राग अथवा संगीतका स्वर निर्दय होता है (उसीके कारण बेचारा हिरण जालमें फँसकर मारा जाता है)। अग्नि सबके साथ समान व्यवहार करनेवाली है, (बेचारे पतंगको उसीमें पड़कर भस्म होना पड़ता है) जल भी प्रेमके निबाहनेमें वीर नहीं है (मछली तो उसके बिना क्षणभर भी जीवित नहीं रहती, पर वह ऐसा है कि उसको मछलीके बिना कोई दुःख नहीं होता)। चन्द्रमा (आजन्म) रोगी है (उसका प्रेमी चकोर तो उसपर मुग्ध होकर अंगारे चुगता है, किन्तु चन्द्रमा उसपर तनिक भी तरस नहीं खाता)। सूर्य बड़प्पनमें भूल रहा है (कमलकी तो कली-कली उसे देखकर खिल उठती है, पर वह उसे नीच समझकर क्षणभरमें ही सुखा डालता है) और मेघ तो प्रेम-पथके लिये बड़ा ही निर्दय है (बेचारे चातकको तरसाता ही नहीं, उसपर गरज-गरजकर ओले बरसाता है और बिजली गिराता है)॥ ३॥ (पर क्या किया जाय) जिसका मन जिससे बँध गया, उसके लिये वही सुख देनेवाला होता है। (दुःखको भी सुख मान लेता है); किन्तु (मेरी दृष्टिमें) श्रीरघुनाथजी-सरीखा सरल, सुशील स्वामी दूसरा नहीं है॥ ४॥ सेवा सुनते ही उसपर ‘सही’ कर देनेवाला—सेवा मान लेनेवाला दूसरा कौन है? और अपराध देखकर भी उनपर कौन खयाल नहीं करता? किसके दरबारमें दीनोंका सम्मान विशेष प्रेमसे किया जाता है॥ ५॥ पक्षी (जटायु) और शबरीको किसने पिता और माताके समान माना? बंदरों (सुग्रीव आदि)-को किसने अपना मित्र बनाया? गुह निषादसे जो अपने सगे भाई भरतकी तरह हृदयसे लगाकर मिले, भला बताओ तो, पापियोंको पवित्र करनेवाला ऐसा दूसरा कौन है? (कोई नहीं)॥ ६॥ अभागेको कौन भाग्यवान् बनाता है? डरे हुओंको कौन अपनी शरणमें रखता है? वेदोंमें किसकी यश-गाथा गायी जा रही है और कवि एवं विद्वान् किसके गीत गा रहे हैं? (भगवान् रामचन्द्र्र ही एक ऐसे दीनबन्धु भक्तवत्सल हैं)॥ ७॥ जिसने उनके नाम (राम)-का आश्रय लिया, चाहे वह कैसा ही नीच और पापी क्यों न हो, उसे श्रीरामने इस तरह अपना लिया, जैसे कोई (मिले हुए) धनको (तुरंत) गाँठमें बाँध लेता है, और उसके खरे या खोटेपनको भी नहीं परखता॥ ८॥ जो ऐसा मलिन मनवाला है कि जिसके कलियुगमें किये हुए कर्मोंको सुनकर सुननेवाले भी पापी हो जाते हैं, उस तुलसीदासको भी उन्होंने अपना दास मान लिया। श्रीरघुनाथजी ऐसे ही गरीबनिवाज हैं॥ ९॥

विषय (हिन्दी)

(१९२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो पै जानकिनाथ सों नातो नेहु न नीच।
स्वारथ-परमारथ कहा, कलि कुटिल बिगोयो बीच॥ १॥
धरम बरन आश्रमनिके पैयत पोथिही पुरान।
करतब बिनु बेष देखिये, ज्यों सरीर बिनु प्रान॥ २॥
बेदबिहित साधन सबै, सुनियत दायक फल चारि।
राम-प्रेम बिनु जानिबो जैसे सर-सरिता बिनु बारि॥ ३॥
नाना पथ निरबानके, नाना बिधान बहु भाँति।
तुलसी तू मेरे कहे जपु राम-नाम दिन-राति॥ ४॥

मूल

जो पै जानकिनाथ सों नातो नेहु न नीच।
स्वारथ-परमारथ कहा, कलि कुटिल बिगोयो बीच॥ १॥
धरम बरन आश्रमनिके पैयत पोथिही पुरान।
करतब बिनु बेष देखिये, ज्यों सरीर बिनु प्रान॥ २॥
बेदबिहित साधन सबै, सुनियत दायक फल चारि।
राम-प्रेम बिनु जानिबो जैसे सर-सरिता बिनु बारि॥ ३॥
नाना पथ निरबानके, नाना बिधान बहु भाँति।
तुलसी तू मेरे कहे जपु राम-नाम दिन-राति॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे नीच! यदि श्रीजानकीनाथ रामचन्द्रजीसे तेरा प्रेम और नाता नहीं है, तो तेरे स्वार्थ और परमार्थ कैसे सिद्ध होंगे? इस अवस्थामें तो कुटिल कलियुगने तुझको बीचमें ही ठग लिया, (जिससे लोक-परलोक दोनों ही बिगड़ गये)॥ १॥ (भगवान् के प्रेमसे विहीन लोगोंके लिये) वर्ण और आश्रमके धर्म केवल पोथियों और पुराणोंमें ही लिखे पाये जाते हैं। उनके अनुसार कर्तव्य कोई नहीं करता, ऐसे कर्तव्यहीन कोरे भेष वैसे ही हैं जैसे बिना प्राणोंके शरीर हों। (उनसे कोई लाभ नहीं)॥ २॥ सुनते हैं कि वेदोंमें जितने प्रसिद्ध-प्रसिद्ध (यज्ञ आदि) साधन हैं, वे सब अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारोंको देनेवाले हैं; किन्तु बिना श्रीराम-प्रेमके उन सबका जानना-मानना वैसा ही है जैसे बिना पानीके तालाब और नदियाँ। सारांश यह कि भगवत्-प्रेम-विहीन सभी क्रियाएँ व्यर्थ हैं॥ ३॥ मुक्तिके अनेक मार्ग हैं और भाँति-भाँतिके साधन हैं, किंतु हे तुलसी! तू तो मेरे कहनेसे दिन-रात केवल राम-नामका ही जप किया कर (तेरा तो इसीसे कल्याण हो जायगा)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(१९३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजहुँ आपने रामके करतब समुझत हित होइ।
कहँ तू, कहँ कोसलधनी, तोको कहा कहत सब कोइ॥ १॥
रीझि निवाज्यो कबहिं तू, कब खीझि दई तोहिं गारि।
दरपन बदन निहारिकै, सुबिचारि मान हिय हारि॥ २॥
बिगरी जनम अनेककी सुधरत पल लगै न आधु।
‘पाहि कृपानिधि’ प्रेमसों कहे को न राम कियो साधु॥ ३॥
बालमीकि-केवट-कथा, कपि-भील-भालु-सनमान।
सुनि सनमुख जो न रामसों, तिहि को उपदेसहि ग्यान॥ ४॥
का सेवा सुग्रीवकी, का प्रीति-रीति-निरबाहु।
जासु बंधु बध्यो ब्याध ज्यों, सो सुनत सोहात न काहु॥ ५॥
भजन बिभीषनको कहा, फल कहा दियो रघुराज।
राम गरीब-निवाजके बड़ी बाँह-बोलकी लाज॥ ६॥
जपहि नाम रघुनाथको, चरचा दूसरी न चालु।
सुमुख, सुखद, साहिब, सुधी, समरथ, कृपालु, नतपालु॥ ७॥
सजल नयन, गदगद गिरा, गहबर मन, पुलक सरीर।
गावत गुनगन रामके केहिकी न मिटी भव-भीर॥ ८॥
प्रभु कृतग्य सरबग्य हैं, परिहरु पाछिली गलानि।
तुलसी तोसों रामसों कछु नई न जान-पहिचानि॥ ९॥

मूल

अजहुँ आपने रामके करतब समुझत हित होइ।
कहँ तू, कहँ कोसलधनी, तोको कहा कहत सब कोइ॥ १॥
रीझि निवाज्यो कबहिं तू, कब खीझि दई तोहिं गारि।
दरपन बदन निहारिकै, सुबिचारि मान हिय हारि॥ २॥
बिगरी जनम अनेककी सुधरत पल लगै न आधु।
‘पाहि कृपानिधि’ प्रेमसों कहे को न राम कियो साधु॥ ३॥
बालमीकि-केवट-कथा, कपि-भील-भालु-सनमान।
सुनि सनमुख जो न रामसों, तिहि को उपदेसहि ग्यान॥ ४॥
का सेवा सुग्रीवकी, का प्रीति-रीति-निरबाहु।
जासु बंधु बध्यो ब्याध ज्यों, सो सुनत सोहात न काहु॥ ५॥
भजन बिभीषनको कहा, फल कहा दियो रघुराज।
राम गरीब-निवाजके बड़ी बाँह-बोलकी लाज॥ ६॥
जपहि नाम रघुनाथको, चरचा दूसरी न चालु।
सुमुख, सुखद, साहिब, सुधी, समरथ, कृपालु, नतपालु॥ ७॥
सजल नयन, गदगद गिरा, गहबर मन, पुलक सरीर।
गावत गुनगन रामके केहिकी न मिटी भव-भीर॥ ८॥
प्रभु कृतग्य सरबग्य हैं, परिहरु पाछिली गलानि।
तुलसी तोसों रामसों कछु नई न जान-पहिचानि॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अब भी यदि तू अपनी (नीच करतूतोंको) और श्रीरामजीके (दयासे पूर्ण) करतबोंको समझ ले तो तेरा कल्याण हो सकता है; कहाँ तू (रामविमुख, विषयोंमें लगा हुआ जीव) और कहाँ (अहैतुकी दयाके समुद्र) कोशलपति भगवान् श्रीरामचन्द्रजी! तुझे सब लोग क्या कहते हैं? (कि यह रामका भक्त है। भक्त और भगवान् में कोई भेद नहीं होता। ऐसा कहलाना क्या तेरी करतूतोंका फल है?)॥ १॥ अरे, जरा (विवेकरूपी) दर्पणमें (अपने मनरूपी) मुखको तो देख कि कब तो श्रीरामजीने प्रसन्न होकर तुझपर कृपा की है और कब गुस्सेमें आकर तुझे गालियाँ दी है? (विचारनेसे तुझे यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि श्रीरामने तो सदा कृपा ही की है, जो कुछ दोष है, सो तेरा ही है। भगवान् गुस्से होकर गालियाँ देने लगें तो जीवका निस्तार ही कैसे हो?) फिर (अपनी करतूतोंके लिये) अपनी हार मान (न तो यह समझ कि मेरी करनीसे मैं भक्त कहलाया हूँ और न उनपर दोषारोपण ही कर कि भक्त होनेपर भी वे मेरा उद्धार क्यों नहीं करते?)॥ २॥ अरे, (उनको उद्धार करते देर ही क्या लगती है) अनेक जन्मोंकी बिगड़ी हुई दशा सुधारनेमें उन्हें आधा पल भी नहीं लगता। ‘हे कृपानिधान! मेरी रक्षा कीजिये’—प्रेमसे इतना कहते ही ऐसा कौन पापी है जिसको श्रीरामचन्द्रजीने (सच्चा) साधु नहीं बना दिया?॥ ३॥ वाल्मीकि और गुह निषादकी कथा तथा सुग्रीव, हनुमान्, शबरी, रीछ जाम्बवान् आदिके आदर-सत्कारकी बात सुनकर भी जो श्रीरामजीके शरण नहीं हुआ, उस (मूर्ख)-को कौन ज्ञानका उपदेश कर सकता है?॥ ४॥ सुग्रीवने कौन-सी सेवा की, और कौन-सी प्रीतिकी रीति निबाही थी? (राज्य पाकर वह तो श्रीरामजीके कार्यको भूल गया!) पर उसके भी भाई बालिको (अपने ऊपर कलंक लेकर भी) व्याधकी नाईं मार डाला। इस प्रकार मारनेकी बात सुनकर (भक्तोंके अतिरिक्त और) किसीको भी वह अच्छी नहीं लगती॥ ५॥ विभीषणने कौन-सा भजन किया था? किन्तु रघुनाथजीने उसे, उसके बदलेमें क्या फल दिया (लंकाका महान् साम्राज्य और अपना अचल प्रेम)। असलमें गरीबनिवाज श्रीरामचन्द्रजीको (शरणागतके) रक्षा करनेके वचनकी बड़ी लाज है। (शरण आये हुए के पिछले कर्मोंकी ओर वे देखते ही नहीं)॥ ६॥ इसलिये तू रघुनाथजीका ही नाम जपा कर, दूसरी चर्चा ही न चलाया कर, क्योंकि सुन्दर, सुख देनेवाले, बुद्धिमान्, समर्थ, कृपासागर और शरणागतकी रक्षा करनेवाले स्वामी एक वही हैं॥ ७॥ ऐसा कौन है जिसने आँखोंमें आँसू भरकर, गद्‍गद वाणीसे, प्रेमपूर्ण चित्तसे तथा पुलकित होकर श्रीरामचन्द्रजीकी गुणावलिका गान किया हो, और उसका सांसारिक कष्ट (जन्म-मरण) नहीं छूट गया हो?॥ ८॥ पश्चात्ताप करना छोड़ दें। प्रभु रामचन्द्रजी उपकार मानने वाले और सभी बाहर-भीतरकी, आगे-पीछेकी बातोंको जाननेवाले हैं (उनसे तेरी कोई करनी छिपी नहीं है)। तुलसीदास! रामजीसे तेरी कुछ नयी जान-पहचान नहीं है। (उनपर दृढ़ भरोसा रख)॥ ९॥

विषय (हिन्दी)

(१९४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो अनुराग न राम सनेही सों।
तौ लह्यो लाहु कहा नर-देही सों॥ १॥
जो तनु धरि, परिहरि सब सुख, भये सुमति राम-अनुरागी।
सो तनु पाइ अघाइ किये अघ, अवगुन-उदधि अभागी॥ २॥
ग्यान-बिराग, जोग-जप, तप-मख, जग मुद-मग नहिं थोरे।
राम-प्रेम बिनु नेम जाय जैसे मृग-जल-जलधि-हिलोरे॥ ३॥
लोक-बिलोकि, पुरान-बेद सुनि, समुझि-बूझि गुरु-ग्यानी।
प्रीति-प्रतीति राम-पद-पंकज सकल-सुमंगल-खानी॥ ४॥
अजहुँ जानि जिय, मानि हारि हिय, होइ पलक महँ नीको।
सुमिरु सनेहसहित हित रामहिं, मानु मतो तुलसीको॥ ५॥

मूल

जो अनुराग न राम सनेही सों।
तौ लह्यो लाहु कहा नर-देही सों॥ १॥
जो तनु धरि, परिहरि सब सुख, भये सुमति राम-अनुरागी।
सो तनु पाइ अघाइ किये अघ, अवगुन-उदधि अभागी॥ २॥
ग्यान-बिराग, जोग-जप, तप-मख, जग मुद-मग नहिं थोरे।
राम-प्रेम बिनु नेम जाय जैसे मृग-जल-जलधि-हिलोरे॥ ३॥
लोक-बिलोकि, पुरान-बेद सुनि, समुझि-बूझि गुरु-ग्यानी।
प्रीति-प्रतीति राम-पद-पंकज सकल-सुमंगल-खानी॥ ४॥
अजहुँ जानि जिय, मानि हारि हिय, होइ पलक महँ नीको।
सुमिरु सनेहसहित हित रामहिं, मानु मतो तुलसीको॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि परम स्नेही श्रीरामचन्द्रजीके प्रति प्रेम नहीं है तो नर-शरीर धारण करनेसे लाभ ही क्या हुआ? (भगवान् में अनन्य प्रेम होना ही तो मनुष्य-जीवनका परम लाभ है)॥ १॥ जिस शरीरको धारण कर शुद्ध बुद्धिवाले पुरुष सारे संसारी सुखोंको (विषवत्) त्याग कर श्रीरामजीके प्रेमी बनते हैं, उस (दुर्लभ) शरीरको भी पाकर, अरे महानीच अभागे! तूने पेट भर-भरकर पाप ही किये!॥ २॥ जगत् में ज्ञान, वैराग्य, योग, जप, तप, यज्ञ आदि आनन्द (मोक्ष)-के मार्गोंकी कमी नहीं है; किन्तु बिना श्रीरामजीके प्रेमके ये सारे साधन वैसे ही व्यर्थ हैं, जैसे मृगतृष्णाके समुद्रकी लहरें॥ ३॥ संसारको देखकर, पुराणों और वेदोंको सुनकर तथा ज्ञानी-गुरुजनोंसे समझ-बूझकर श्रीरामजीके चरणारविन्दोंमें प्रेम और विश्वास करना ही समस्त कल्याणोंकी खानि है॥ ४॥ यदि अब भी तूने मनमें समझ लिया और अपने हृदयमें हार मान ली, (अभिमान छोड़कर शरण हो गया) तो एक क्षणमें ही तेरा कल्याण हो जायगा। प्रेमपूर्वक (सच्चे) हितकारी श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण कर, तुलसीदासका यह सिद्धान्त मान ले॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(१९५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलि जाउँ हौं राम गुसाईं।
कीजै कृपा आपनी नाईं॥ १॥
परमारथ सुरपुर-साधन सब स्वारथ सुखद भलाई।
कलि सकोप लोपी सुचाल, निज कठिन कुचाल चलाई॥ २॥
जहँ जहँ चित चितवत हित, तहँ नित नव बिषाद अधिकाई।
रुचि-भावती भभरि भागहि, समुहाहिं अमित अनभाई॥ ३॥
आधि-मगन मन, ब्याधि-बिकल तन, बचन मलीन झुठाई।
एतेहुँ पर तुमसों तुलसीकी प्रभु सकल सनेह सगाई॥ ४॥

मूल

बलि जाउँ हौं राम गुसाईं।
कीजै कृपा आपनी नाईं॥ १॥
परमारथ सुरपुर-साधन सब स्वारथ सुखद भलाई।
कलि सकोप लोपी सुचाल, निज कठिन कुचाल चलाई॥ २॥
जहँ जहँ चित चितवत हित, तहँ नित नव बिषाद अधिकाई।
रुचि-भावती भभरि भागहि, समुहाहिं अमित अनभाई॥ ३॥
आधि-मगन मन, ब्याधि-बिकल तन, बचन मलीन झुठाई।
एतेहुँ पर तुमसों तुलसीकी प्रभु सकल सनेह सगाई॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे मेरे नाथ श्रीरामजी! मैं आपपर बलि जाता हूँ। आप अपने स्वभावसे ही मुझपर कृपा कीजिये॥ १॥ परमार्थके, स्वर्गके तथा सांसारिक स्वार्थके सुख देनेवाले और कल्याणकारक जितने (शम, दम, तप, यज्ञ आदि) उपाय हैं, उन सबकी रीतियोंको कलियुगने क्रोध करके लुप्त कर दिया है, और अपनी (दम्भ, कपट, निन्दा आदि) दुःखदायक कुचालोंको चला दिया है॥ २॥ जहाँ-जहाँ यह मन अपना हित देखता है, वहीं नित्य नये दुःख बढ़ते ही जाते हैं। रुचिको अच्छी लगनेवाली बातें दूरसे ही डरकर भाग जाती हैं और जिनको मन नहीं चाहता वे ही अपार चीजें सामने आ जाती हैं। अर्थात् सुखके लिये चेष्टा करनेपर भी अपार दुःख ही आते हैं॥ ३॥ मन चिन्ताओंमें डूब रहा है, शरीर रोगोंके मारे व्याकुल है, और वाणी झूठी तथा मलिन हो रही है (सदा असत्य, कठोर और कुवाच्य ही बोलती है)। किन्तु यह सब होते हुए भी हे नाथ! आपके साथ इस तुलसीदासका सम्बन्ध और प्रेम ज्यों-का-त्यों बना हुआ है (धन्य हैं जो इस प्रकारके अधमके साथ भी प्रेमका सम्बन्ध स्थायी रखते हैं।)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(१९६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

काहेको फिरत मन, करत बहु जतन,
मिटै न दुख बिमुख रघुकुल-बीर।
कीजै जो कोटि उपाइ, त्रिबिध ताप न जाइ,
कह्यो जो भुज उठाय मुनिबर कीर॥ १॥
सहज टेव बिसारि तुही धौं देखु बिचारि,
मिलै न मथत बारि घृत बिनु छीर।
समुझि तजहि भ्रम, भजहि पद-जुगम,
सेवत सुगम, गुन गहन गँभीर॥ २॥
आगम निगम ग्रंथ, रिषि-मुनि, सुर-संत,
सब ही को एक मत सुनु, मतिधीर।
तुलसिदास प्रभु बिनु पियास मरै पसु,
जद्यपि है निकट सुरसरि-तीर॥ ३॥

मूल

काहेको फिरत मन, करत बहु जतन,
मिटै न दुख बिमुख रघुकुल-बीर।
कीजै जो कोटि उपाइ, त्रिबिध ताप न जाइ,
कह्यो जो भुज उठाय मुनिबर कीर॥ १॥
सहज टेव बिसारि तुही धौं देखु बिचारि,
मिलै न मथत बारि घृत बिनु छीर।
समुझि तजहि भ्रम, भजहि पद-जुगम,
सेवत सुगम, गुन गहन गँभीर॥ २॥
आगम निगम ग्रंथ, रिषि-मुनि, सुर-संत,
सब ही को एक मत सुनु, मतिधीर।
तुलसिदास प्रभु बिनु पियास मरै पसु,
जद्यपि है निकट सुरसरि-तीर॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे मन! तू किसलिये बहुत-से प्रयत्न करता फिरता है? जबतक तू श्रीरघुकुल-शिरोमणि रामजीसे विमुख है तबतक (दूसरे कितने भी साधनोंसे तेरा दुःख नहीं मिटेगा)। भगवद्विमुख करोड़ों उपाय क्यों न करे, पर उसके दैहिक, दैविक, भौतिक तीनों ताप नष्ट नहीं हो सकते, यह बात मुनिश्रेष्ठ शुकदेवजीने भुजा उठाकर कही है॥ १॥ अपने स्वभावकी टेवको छोड़कर—श्रीराम-विमुखताकी आदत छोड़कर एकाग्र चित्तसे तू ही विचारकर देख कि कहीं पानीके मथनेसे, बिना दूधके घी मिल सकता है? (इसी प्रकार विषयोंमें रत रहनेसे कभी सुख नहीं मिल सकता।) इस बातको समझकर भ्रमको छोड़ दे और श्रीरामचन्द्रजीके उन युगल चरणोंका भजन कर, जो सेवासे सुलभ हैं और सद्‍गुणोंके गम्भीर वन हैं अर्थात् जिन चरणोंकी सेवा करनेसे विवेक, वैराग्य, शान्ति, सुख आदि अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं॥ २॥ बुद्धि स्थिर करके शास्त्रों, वेदों, अन्य ग्रन्थों, ऋषियों, मुनियों, देवताओं और संतोंका जो एक निश्चित सिद्धान्त है, उसे सुन (वह सिद्धान्त यही है कि सब आशाओंको छोड़कर श्रीभगवान् के शरण होना चाहिये)। हे तुलसीदास! यद्यपि गंगाका तट निकट है, तो भी बिना स्वामीके पशु प्यासा ही मरा जाता है (इसी प्रकार यद्यपि भगवत्-प्राप्तिरूप परमसुख सहज ही मिल सकता है, पर भगवान् की शरण हुए बिना वह दुर्लभ हो रहा है)॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(१९७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहिंन चरन-रति ताहि तें सहौं बिपति,
कहत श्रुति सकल मुनि मतिधीर।
बसै जो ससि-उछंग सुधा-स्वादित कुरंग,
ताहि क्यों भ्रम निरखि रबिकर-नीर॥ १॥
सुनिय नाना पुरान, मिटत नाहिं अग्यान,
पढ़िय न समुझिय जिमि खग कीर।
बँधत बिनहिं पास सेमर-सुमन-आस,
करत चरत तेइ फल बिनु हीर॥ २॥
कछु न साधन-सिधि, जानौं न निगम-बिधि,
नहिं जप-तप, बस मन, न समीर।
तुलसिदास भरोस परम करुना-कोस,
प्रभु हरिहैं बिषम भवभीर॥ ३॥

मूल

नाहिंन चरन-रति ताहि तें सहौं बिपति,
कहत श्रुति सकल मुनि मतिधीर।
बसै जो ससि-उछंग सुधा-स्वादित कुरंग,
ताहि क्यों भ्रम निरखि रबिकर-नीर॥ १॥
सुनिय नाना पुरान, मिटत नाहिं अग्यान,
पढ़िय न समुझिय जिमि खग कीर।
बँधत बिनहिं पास सेमर-सुमन-आस,
करत चरत तेइ फल बिनु हीर॥ २॥
कछु न साधन-सिधि, जानौं न निगम-बिधि,
नहिं जप-तप, बस मन, न समीर।
तुलसिदास भरोस परम करुना-कोस,
प्रभु हरिहैं बिषम भवभीर॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें मेरा प्रेम नहीं है, इसीसे मैं विपत्तियोंको भोग रहा हूँ, (मेरा ही नहीं) वेदों और समस्त बुद्धिमान् मुनियोंका (भी) यही कहना है। क्योंकि जो हिरण चन्द्रमाकी गोदमें बैठा अमृतका स्वाद ले रहा है, उसे भला मृगतृष्णाके जलमें भ्रम क्यों होगा? (जिस जीवने श्रीराम-पद-कमलोंके प्रेमानन्दका अनुभव कर लिया, वह मिथ्या संसारी सुखोंमें क्यों भूलेगा?)॥ १॥ जैसे पक्षी (तोता) पढ़ता तो सब है, पर समझता कुछ नहीं है, वैसे ही बिना समझे अनेक पुराण सुननेसे अज्ञान नहीं मिटता। (अज्ञानी) तोता बिना ही फंदेके स्वयं बँध जाता है, आप ही चौंगली पकड़कर लटक रहता है; वह (मूर्ख तोता) सेमरके फूलकी आशा करता है; पर ज्यों ही उसमें चोंच मारता है, उसे बिना गूदेका फल मिलता है अर्थात् रूईके सिवा उसमें खानेके लिये कुछ भी नहीं मिलता, तब पछताता है (इसी प्रकार मनुष्य विषयरूपी चौंगली पकड़कर आप ही बँधा रहता है तथा विषयोंसे सुखी होनेकी आशासे उनके बटोरनेमें लगा रहता है। परन्तु बिछुड़ते ही दुःखी हो जाता है)॥ २॥ न तो मेरे पास कोई साधन है और न मुझे कोई सिद्धि ही प्राप्त है। न मैं वैदिक विधियोंको ही जानता हूँ, न मुझे जप-तप करना आता है और न प्राणायामसे ही मैंने मन वशमें किया है। इस तुलसीदासको तो करुणाके भण्डार भगवान् रामचन्द्रजीका ही एकमात्र भरोसा है। वही इसकी भयानक सांसारिक विपत्तिको दूर करेंगे, जन्म-मरणसे मुक्त करेंगे॥ ३॥

राग भैरवी

विषय (हिन्दी)

(१९८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन पछितैहै अवसर बीते।
दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु ही ते॥ १॥
सहसबाहु दसबदन आदि नृप बचे न काल बली ते।
हम-हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते॥ २॥
सुत-बनितादि जानि स्वारथरत, न करु नेह सबही ते।
अंतहु तोहिं तजैंगे पामर! तू न तजै अबही ते॥ ३॥
अब नाथहिं अनुरागु, जागु जड़, त्यागु दुरासा जी ते।
बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ, बिषय-भोग बहु घी ते॥ ४॥

मूल

मन पछितैहै अवसर बीते।
दुरलभ देह पाइ हरिपद भजु, करम, बचन अरु ही ते॥ १॥
सहसबाहु दसबदन आदि नृप बचे न काल बली ते।
हम-हम करि धन-धाम सँवारे, अंत चले उठि रीते॥ २॥
सुत-बनितादि जानि स्वारथरत, न करु नेह सबही ते।
अंतहु तोहिं तजैंगे पामर! तू न तजै अबही ते॥ ३॥
अब नाथहिं अनुरागु, जागु जड़, त्यागु दुरासा जी ते।
बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ, बिषय-भोग बहु घी ते॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे मन! (मनुष्य-जन्मकी आयुका यह) सुअवसर बीत जानेपर तुझे पछताना पड़ेगा। इसलिये इस दुर्लभ मनुष्य शरीरको पाकर कर्म, वचन और हृदयसे भगवान् के चरण-कमलोंका भजन कर॥ १॥ सहस्रबाहु और रावण आदि (महाप्रतापी) राजा भी बलवान् कालसे नहीं बच सके, उन्हें भी मरना पड़ा। जिन्होंने ‘हम-हम’ करते हुए धन और धाम सँभाल-सँभालकर रखे थे, वे भी अन्त समय यहाँसे खाली हाथ ही चले गये (एक कौड़ी भी साथ न गयी)॥ २॥ पुत्र, स्त्री आदिको स्वार्थी समझ इन सबसे प्रेम न कर। अरे अधम! जब ये सब तुझे अन्त समयमें छोड़ ही देंगे, तो तू इन्हें अभीसे क्यों नहीं छोड़ देता? (इनका मोह छोड़कर अभीसे भगवान् में प्रेम क्यों नहीं करता?)॥ ३॥ अरे मूर्ख! (अज्ञान-निद्र्रासे) जाग, अपने स्वामी (श्रीरघुनाथजी)-से प्रेम कर और हृदयसे (सांसारिक विषयोंसे सुखकी) दुराशाको त्याग दे, (विषयोंमें सुख है ही नहीं, तब मिलेगा कहाँसे?) हे तुलसीदास! जैसे अग्नि बहुत-सा घी डालनेसे नहीं बुझती (अधिक प्रज्वलित होती है), वैसे ही यह कामना भी ज्यों-ज्यों विषय मिलते हैं त्यों-ही-त्यों बढ़ती जाती है। (यह तो सन्तोषरूपी जलसे ही बुझ सकती है)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(१९९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

काहे को फिरत मूढ़ मन धायो।
तजि हरि-चरन-सरोज सुधारस, रबिकर-जल लय लायो॥ १॥
त्रिजग देव नर असुर अपर जग जोनि सकल भ्रमि आयो।
गृह, बनिता, सुत, बंधु भये बहु, मातु-पिता जिन्ह जायो॥ २॥
जाते निरय-निकाय निरंतर, सोइ इन्ह तोहि सिखायो।
तुव हित होइ, कटै भव-बंधन, सो मगु तोहि न बतायो॥ ३॥
अजहुँ बिषय कहँ जतन करत, जद्यपि बहुबिधि डहँकायो।
पावक-काम भोग-घृत तें सठ, कैसे परत बुझायो॥ ४॥
बिषयहीन दुख, मिले बिपति अति, सुख सपनेहुँ नहिं पायो।
उभय प्रकार प्रेत-पावक ज्यों धन दुखप्रद श्रुति गायो॥ ५॥
छिन-छिन छीन होत जीवन, दुरलभ तनु बृथा गँवायो।
तुलसिदास हरि भजहि आस तजि, काल-उरग जग खायो॥ ६॥

मूल

काहे को फिरत मूढ़ मन धायो।
तजि हरि-चरन-सरोज सुधारस, रबिकर-जल लय लायो॥ १॥
त्रिजग देव नर असुर अपर जग जोनि सकल भ्रमि आयो।
गृह, बनिता, सुत, बंधु भये बहु, मातु-पिता जिन्ह जायो॥ २॥
जाते निरय-निकाय निरंतर, सोइ इन्ह तोहि सिखायो।
तुव हित होइ, कटै भव-बंधन, सो मगु तोहि न बतायो॥ ३॥
अजहुँ बिषय कहँ जतन करत, जद्यपि बहुबिधि डहँकायो।
पावक-काम भोग-घृत तें सठ, कैसे परत बुझायो॥ ४॥
बिषयहीन दुख, मिले बिपति अति, सुख सपनेहुँ नहिं पायो।
उभय प्रकार प्रेत-पावक ज्यों धन दुखप्रद श्रुति गायो॥ ५॥
छिन-छिन छीन होत जीवन, दुरलभ तनु बृथा गँवायो।
तुलसिदास हरि भजहि आस तजि, काल-उरग जग खायो॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे मूर्ख मन! किसलिये दौड़ा-दौड़ा फिरता है? श्रीहरिके चरणकमलोंके अमृत-रसको छोड़कर (विषयरूपी) मृगतृष्णाके जलमें क्यों लौ लगा रहा है॥ १॥ पशु-पक्षी, देवता, मनुष्य, राक्षस और अन्यान्य सभी संसारी योनियोंमें तू भटक आया। इन सब योनियोंमें तेरे बहुत-से घर, स्त्री, पुत्र, भाई और तुझे उत्पन्न करनेवाले माता-पिता हो चुके हैं॥ २॥ इन सबने तुझे वही विषय-भोगोंका प्रेम सिखाया, जिसके करनेसे सदा अनेक नरकोंमें जाना पड़ता है। वह मार्ग कभी नहीं बताया, जिसपर चलनेसे तेरा संसारी बन्धन कट जाय—तेरी जन्म-मरणसे मुक्ति हो जाय और तेरा परम कल्याण हो, मोक्षकी प्राप्ति हो॥ ३॥ इस प्रकार यद्यपि तू कई तरहसे छला जा चुका है, फिर भी अबतक तू उन्हीं विषयोंके ही लिये जतन कर रहा है! (बार-बार दुःख भोगकर भी फिर उन्हींमें मन लगाता है) परन्तु अरे दुष्ट! (तनिक विचार तो कर) कामनारूपी अग्निमें भोगरूपी घी डालनेसे वह कैसे शान्त होगी? (जितनी ही भोगोंकी प्राप्ति होगी, कामनाकी अग्नि उतनी ही अधिक भड़केगी)॥ ४॥ जब विषयोंकी प्राप्ति नहीं हुई तब तुझे बड़ा दुःख हुआ, (उनके नाशसे और उनके मिल जानेपर भी) बड़ी विपत्ति प्राप्त हुई, स्वप्नमें भी सुख नहीं मिला। इसलिये वेदोंने इस विषयरूपी धनको, दोनों ही प्रकारसे, भूतकी आगके समान दुःखप्रद बतलाया है (मतलब यह कि विषयी लोगोंको न तो विषयकी प्राप्तिमें सुख होता है, और न अप्राप्तिमें ही)॥ ५॥ अरे! तेरा जीवन क्षण-क्षणमें क्षीण हो रहा है, इस दुर्लभ मनुष्य-शरीरको तूने व्यर्थ ही खो दिया। अतएव, हे तुलसीदास! तू संसारी सुखकी आशा छोड़कर केवल श्रीहरिका भजन कर! सावधान! कालरूपी साँप संसारको खाये जा रहा है (न जाने, कब किस घड़ी तू भी कालका कलेवा हो जाय)॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(२००)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताँबे सो पीठि मनहुँ तन पायो।
नीच, मीच जानत न सीस पर, ईस निपट बिसरायो॥ १॥
अवनि-रवनि, धन-धाम, सुहृद-सुत, को न इन्हहिं अपनायो?
काके भये, गये सँग काके, सब सनेह छल-छायो॥ २॥
जिन्ह भूपनि जग-जीति, बाँधि जम, अपनी बाँह बसायो।
तेऊ काल कलेऊ कीन्हे, तू गिनती कब आयो॥ ३॥
देखु बिचारि, सार का साँचो, कहा निगम निजु गायो।
भजहिं न अजहुँ समुझि तुलसी तेहि, जेहि महेस मन लायो॥ ४॥

मूल

ताँबे सो पीठि मनहुँ तन पायो।
नीच, मीच जानत न सीस पर, ईस निपट बिसरायो॥ १॥
अवनि-रवनि, धन-धाम, सुहृद-सुत, को न इन्हहिं अपनायो?
काके भये, गये सँग काके, सब सनेह छल-छायो॥ २॥
जिन्ह भूपनि जग-जीति, बाँधि जम, अपनी बाँह बसायो।
तेऊ काल कलेऊ कीन्हे, तू गिनती कब आयो॥ ३॥
देखु बिचारि, सार का साँचो, कहा निगम निजु गायो।
भजहिं न अजहुँ समुझि तुलसी तेहि, जेहि महेस मन लायो॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे जीव! मानो तूने ताँबेसे मढ़ा हुआ शरीर पाया है! (तभी तो कच्चे घड़ेके समान फूटनेवाले, पानीके बुद्‍बुदेके समान बात-की-बातमें नाश हो जानेवाले नश्वर शरीरको अजर-अमर मानकर भोगोंमें लीन हो रहा है) और तूने परमात्माको बिलकुल ही भुला दिया। अरे नीच! तू यह नहीं जानता कि मौत तेरे सिरपर नाच रही है!॥ १॥ पृथ्वी, स्त्री, धन, मकान, मित्र और पुत्रको किसने नहीं अपनाया? किन्तु (आजतक) ये किसके हुए? (मरते समय) किसके साथ गये? इन सबके प्रेममें केवल कपट भरा है॥ २॥ जिन राजाओंने दुनियाभरको जीतकर, यमराजको भी कैद कर अपने अधीन कर लिया था, उनका भी कालने जब एक दिन कलेवा कर डाला, तब तेरी तो गिनती ही क्या है॥ ३॥ विचारकर देख, सच्चा सार क्या है? और वेदोंने निश्चयरूपसे क्या कहा है? हे तुलसी! यह समझकर अब भी तू उस श्रीरामको नहीं भजता, जिसमें श्रीशिवजीने अपना मन लगा रखा है॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२०१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

लाभ कहा मानुष-तनु पाये।
काय-बचन-मन सपनेहुँ कबहुँक घटत न काज पराये॥ १॥
जो सुख सुरपुर-नरक, गेह-बन आवत बिनहिं बुलाये।
तेहि सुख कहँ बहु जतन करत मन, समुझत नहिं समुझाये॥ २॥
पर-दारा, पर-द्रोह, मोहबस किये मूढ़ मन भाये।
गरभबास दुखरासि जातना तीब्र बिपति बिसराये॥ ३॥
भय-निद्रा, मैथुन-अहार, सबके समान जग जाये।
सुर-दुरलभ तनु धरि न भजे हरि मद अभिमान गवाँये॥ ४॥
गई न निज-पर-बुद्धि, सुद्ध ह्वै रहे न राम-लय लाये।
तुलसिदास यह अवसर बीते का पुनि के पछिताये॥ ५॥

मूल

लाभ कहा मानुष-तनु पाये।
काय-बचन-मन सपनेहुँ कबहुँक घटत न काज पराये॥ १॥
जो सुख सुरपुर-नरक, गेह-बन आवत बिनहिं बुलाये।
तेहि सुख कहँ बहु जतन करत मन, समुझत नहिं समुझाये॥ २॥
पर-दारा, पर-द्रोह, मोहबस किये मूढ़ मन भाये।
गरभबास दुखरासि जातना तीब्र बिपति बिसराये॥ ३॥
भय-निद्रा, मैथुन-अहार, सबके समान जग जाये।
सुर-दुरलभ तनु धरि न भजे हरि मद अभिमान गवाँये॥ ४॥
गई न निज-पर-बुद्धि, सुद्ध ह्वै रहे न राम-लय लाये।
तुलसिदास यह अवसर बीते का पुनि के पछिताये॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मनुष्य-शरीर पानेसे क्या लाभ हुआ जब कि वह कभी स्वप्नमें भी मन, वाणी और शरीरसे दूसरेके काम नहीं आया॥ १॥ विषय-सम्बन्धी जो सुख स्वर्ग, नरक, घर और वनमें बिना ही बुलाये आप-से-आप आ जाता है, उस सुखके लिये, अरे मन! तू अनेक प्रकारके उपाय कर रहा है! समझानेपर भी नहीं समझता॥ २॥ हे मूढ़! तूने अज्ञानके वश होकर परायी स्त्रीके लिये और दूसरोंसे वैर करनेके लिये मनमाने आचरण किये। गर्भमें महान् दुःख, दारुण कष्ट और विपत्ति भोगी थी, उसे भूल गया (यह नहीं सोचा कि इन मनमाने कुकर्मोंसे फिर वही गर्भवासके दुःख भोगने पड़ेंगे)॥ ३॥ डर, नींद, मैथुन और भोजन आदि तो संसारमें जन्म लेनेवाले सभी जीवोंमें एक-से हैं! परन्तु तूने तो देवताओंको भी दुर्लभ मनुष्य-शरीरको पाकर उससे भी भगवान् का भजन नहीं किया और अहंकार और घमंडमें उसे खो दिया॥ ४॥ जिनकी मेरे-तेरेकी भेदबुद्धि नष्ट नहीं हुई और शुद्ध अन्तःकरणसे जिन्होंने श्रीराममें चित्तको लीन नहीं किया, उन्हें हे तुलसीदास! ऐसा यह (मनुष्य-शरीरका) सुअवसर निकल जानेपर फिर पछतानेसे क्या मिलेगा? (इसलिये चेतकर अभी भगवान् के भजनमें लग जाना चाहिये)॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(२०२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

काजु कहा नरतनु धरि सारॺो।
पर-उपकार सार श्रुतिको जो, सो धोखेहु न बिचारॺो॥ १॥
द्वैत मूल, भय-सूल, सोक-फल, भवतरु टरै न टारॺौ।
रामभजन-तीछन कुठार लै सो नहिं काटि निवारॺो॥ २॥
संसय-सिंधु नाम बोहित भजि निज आतमा न तारॺो।
जनम अनेक विवेकहीन बहु जोनि भ्रमत नहिं हारॺो॥ ३॥
देखि आनकी सहज संपदा द्वेष-अनल मन-जारॺो।
सम, दम, दया, दीन-पालन, सीतल हिय हरि न सँभारॺो॥ ४॥
प्रभु गुरु पिता सखा रघुपति तैं मन क्रम बचन बिसारॺो।
तुलसिदास यहि आस, सरन राखिहि जेहि गीध उधारॺो॥ ५॥

मूल

काजु कहा नरतनु धरि सारॺो।
पर-उपकार सार श्रुतिको जो, सो धोखेहु न बिचारॺो॥ १॥
द्वैत मूल, भय-सूल, सोक-फल, भवतरु टरै न टारॺौ।
रामभजन-तीछन कुठार लै सो नहिं काटि निवारॺो॥ २॥
संसय-सिंधु नाम बोहित भजि निज आतमा न तारॺो।
जनम अनेक विवेकहीन बहु जोनि भ्रमत नहिं हारॺो॥ ३॥
देखि आनकी सहज संपदा द्वेष-अनल मन-जारॺो।
सम, दम, दया, दीन-पालन, सीतल हिय हरि न सँभारॺो॥ ४॥
प्रभु गुरु पिता सखा रघुपति तैं मन क्रम बचन बिसारॺो।
तुलसिदास यहि आस, सरन राखिहि जेहि गीध उधारॺो॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—तूने मनुष्य-शरीर धारणकर कौन-सा कार्य सिद्ध किया? जो परोपकार वेदोंका सार है, उसे तूने भूलकर भी नहीं विचारा॥ १॥ यह संसाररूपी वृक्ष, जिसकी द्वैत अर्थात् भेदबुद्धि जड़ है, जिसमें भयरूपी काँटे है, और दुःख जिसका फल है, हटानेपर भी नहीं हटता (क्योंकि जबतक इसकी द्वैतरूपी अज्ञानकी जड़ नहीं कटती तबतक इसका हटना असम्भव है)। यह केवल रामजीके भजनरूपी तेज कुल्हाड़ीसे ही कटता है, परन्तु तूने भजन करके उसे नहीं काटा॥ २॥ संशय (अज्ञान)-रूपी समुद्रसे पार जानेके लिये राम-नाम नौकारूप है, सो उसका सेवन कर तूने अपने आत्माको नहीं तारा। अनेक जन्मतक, ज्ञानहीन रहकर बहुत-सी योनियोंमें घूमता हुआ भी तू अबतक नहीं थका॥ ३॥ दूसरोंकी सहज सम्पत्ति देखकर द्वेषरूपी अग्निमें मनको जलाता रहा (हाय! उसके धनका नाश क्यों नहीं होता? इसी द्वेषाग्निसे जलता रहा)। शम, दम, दया और दीनोंका पालन करते हुए हृदयको शान्त कर भगवान् का स्मरण नहीं किया॥ ४॥ तूने मनसे, कर्मसे और वचनसे अपने (सच्चे) स्वामी, गुरु, पिता और मित्र उन श्रीरघुनाथजीको भुला दिया। हे तुलसीदास! अब तो यही आशा है कि जिसने जटायु गीधको तार दिया था, वही तुझे भी अपनी शरणमें रखेंगे॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(२०३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीहरि-गुरु-पद-कमल भजहु मन तजि अभिमान।
जेहि सेवत पाइय हरि सुख-निधान भगवान॥ १॥
परिवा प्रथम प्रेम बिनु राम-मिलन अति दूरि।
जद्यपि निकट हृदय निज रहे सकल भरिपूरि॥ २॥
दुइज द्वैत-मति छाड़ि चरहि महि-मंडल धीर।
बिगत मोह-माया-मद हृदय बसत रघुबीर॥ ३॥
तीज त्रिगन-पर परम पुरुष श्रीरमन मुकुंद।
गुन सुभाव त्यागे बिनु दुरलभ परमानंद॥ ४॥
चौथि चारि परिहरहु बुद्धि-मन-चित-अहँकार।
बिमल बिचार परमपद निज सुख सहज उदार॥ ५॥
पाँचइ पाँच परस, रस, सब्द, गंध अरु रूप।
इन्ह कर कहा न कीजिये, बहुरि परब भव-कूप॥ ६॥
छठ षटबरग करिय जय जनकसुता-पित लागि।
रघुपति-कृपा-बारि बिनु नहिं बुताइ लोभागि॥ ७॥
सातैं सप्तधातु-निरमित तनु करिय बिचार।
तेहि तनु केर एक फल, कीजै पर-उपकार॥ ८॥
आठइँ आठ प्रकृति-पर निरबिकार श्रीराम।
केहि प्रकार पाइय हरि, हृदय बसहिं बहु काम॥ ९॥
नवमी नवद्वार-पुर बसि जेहि न आपु भल कीन्ह।
ते नर जोनि अनेक भ्रमत दारुन दुख लीन्ह॥ १०॥
दसइँ दसहु कर संजम जो न करिय जिय जानि।
साधन बृथा होइ सब मिलहिं न सारँगपानि॥ ११॥
एकादसी एक मन बस कै सेवहु जाइ।
सोइ ब्रत कर फल पावै आवागमन नसाइ॥ १२॥
द्वादसि दान देहु अस, अभय होइ त्रैलोक।
परहित-निरत सो पारन बहुरि न ब्यापत सोक॥ १३॥
तेरसि तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवंत।
मन-क्रम-बचन-अगोचर, ब्यापक, ब्याप्य, अनंत॥ १४॥
चौदसि चौदह भुवन अचर-चर-रूप गोपाल।
भेद गये बिनु रघुपति अति न हरहिं जग-जाल॥ १५॥
पूनों प्रेम-भगति-रस हरि-रस जानहिं दास।
सम, सीतल, गत-मान, ग्यानरत, बिषय-उदास॥ १६॥
त्रिबिध सूल होलिय जरै, खेलिय अब फागु।
जो जिय चहसि परमसुख, तौ यहि मारग लागु॥ १७॥
श्रुति-पुरान-बुध-संमत चाँचरि चरित मुरारि।
करि बिचार भव तरिय, परिय न कबहुँ जमधारि॥ १८॥
संसय-समन, दमन दुख, सुखनिधान हरि एक।
साधु-कृपा बिनु मिलहिं न, करिय उपाय अनेक॥ १९॥
भव सागर कहँ नाव सुद्ध संतनके चरन।
तुलसिदास प्रयास बिनु मिलहिं राम दुखहरन॥ २०॥

मूल

श्रीहरि-गुरु-पद-कमल भजहु मन तजि अभिमान।
जेहि सेवत पाइय हरि सुख-निधान भगवान॥ १॥
परिवा प्रथम प्रेम बिनु राम-मिलन अति दूरि।
जद्यपि निकट हृदय निज रहे सकल भरिपूरि॥ २॥
दुइज द्वैत-मति छाड़ि चरहि महि-मंडल धीर।
बिगत मोह-माया-मद हृदय बसत रघुबीर॥ ३॥
तीज त्रिगन-पर परम पुरुष श्रीरमन मुकुंद।
गुन सुभाव त्यागे बिनु दुरलभ परमानंद॥ ४॥
चौथि चारि परिहरहु बुद्धि-मन-चित-अहँकार।
बिमल बिचार परमपद निज सुख सहज उदार॥ ५॥
पाँचइ पाँच परस, रस, सब्द, गंध अरु रूप।
इन्ह कर कहा न कीजिये, बहुरि परब भव-कूप॥ ६॥
छठ षटबरग करिय जय जनकसुता-पित लागि।
रघुपति-कृपा-बारि बिनु नहिं बुताइ लोभागि॥ ७॥
सातैं सप्तधातु-निरमित तनु करिय बिचार।
तेहि तनु केर एक फल, कीजै पर-उपकार॥ ८॥
आठइँ आठ प्रकृति-पर निरबिकार श्रीराम।
केहि प्रकार पाइय हरि, हृदय बसहिं बहु काम॥ ९॥
नवमी नवद्वार-पुर बसि जेहि न आपु भल कीन्ह।
ते नर जोनि अनेक भ्रमत दारुन दुख लीन्ह॥ १०॥
दसइँ दसहु कर संजम जो न करिय जिय जानि।
साधन बृथा होइ सब मिलहिं न सारँगपानि॥ ११॥
एकादसी एक मन बस कै सेवहु जाइ।
सोइ ब्रत कर फल पावै आवागमन नसाइ॥ १२॥
द्वादसि दान देहु अस, अभय होइ त्रैलोक।
परहित-निरत सो पारन बहुरि न ब्यापत सोक॥ १३॥
तेरसि तीन अवस्था तजहु, भजहु भगवंत।
मन-क्रम-बचन-अगोचर, ब्यापक, ब्याप्य, अनंत॥ १४॥
चौदसि चौदह भुवन अचर-चर-रूप गोपाल।
भेद गये बिनु रघुपति अति न हरहिं जग-जाल॥ १५॥
पूनों प्रेम-भगति-रस हरि-रस जानहिं दास।
सम, सीतल, गत-मान, ग्यानरत, बिषय-उदास॥ १६॥
त्रिबिध सूल होलिय जरै, खेलिय अब फागु।
जो जिय चहसि परमसुख, तौ यहि मारग लागु॥ १७॥
श्रुति-पुरान-बुध-संमत चाँचरि चरित मुरारि।
करि बिचार भव तरिय, परिय न कबहुँ जमधारि॥ १८॥
संसय-समन, दमन दुख, सुखनिधान हरि एक।
साधु-कृपा बिनु मिलहिं न, करिय उपाय अनेक॥ १९॥
भव सागर कहँ नाव सुद्ध संतनके चरन।
तुलसिदास प्रयास बिनु मिलहिं राम दुखहरन॥ २०॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे मन! तू अभिमान छोड़कर भगवत्-रूपी श्रीगुरुके चरणारविन्दोंका भजन कर। जिनकी सेवा करनेसे आनन्दघन भगवान् श्रीहरिकी प्राप्ति हो जाती है॥ १॥ जैसे प्रतिपदा (पक्षमें सबसे पहला दिन है) उसी प्रकार (सर्व साधनोंमें) प्रथम प्रेम है। प्रेमके बिना श्रीरामजीका मिलना बहुत दूरकी बात है। यद्यपि वे बहुत ही निकट, सबके हृदयमें ही पूर्णरूपसे निवास करते हैं॥ २॥ धीर भावसे (अचंचल चित्तसे) द्वितीयाके समान दूसरा साधन यह है कि द्वैत-बुद्धि (ईश्वर और जीवमें भेद-बुद्धि) छोड़कर (समदृष्टिसे) समस्त पृथ्वी-मण्डलमें (निश्चिन्त होकर) विचरण करना चाहिये। मोह, माया और घमंडसे रहित हृदयमें सदा श्रीरघुनाथजी निवास करते हैं॥ ३॥ तृतीयाके समान तीसरा उपाय यह है कि परम पुरुष, लक्ष्मीकान्त श्रीमुकुन्द भगवान् तीनों गुणोंसे परे हैं। अतएव (सत्त्व, रज और तम) त्रिगुणमयी प्रकृतिका त्याग कर देना चाहिये। ऐसा किये बिना परमानन्दकी प्राप्ति दुर्लभ है। (जबतक पुरुष प्रकृतिमें स्थित है तभीतक वह जीव है और तभीतक सुख-दुःखका भोक्ता है। इस प्रकृतिमेंसे निकलकर स्व-स्थ—परमात्मारूपी स्व-रूपमें स्थित होनेसे ही मोक्षरूप परमानन्द मिलता है)॥ ४॥ चतुर्थीके समान (भगवत्-प्राप्तिका) चौथा साधन यह है कि बुद्धि, मन, चित्त और अहंकार—इनके समुदायरूप ‘अन्तःकरण’ का त्याग कर देना चाहिये (जबतक शरीर है तबतक अन्तःकरण तो रहेगा ही, इसके त्यागका अर्थ यही है कि इसके साथ जो तादात्म्य हो रहा है उसे त्याग कर इसका द्रष्टा बन जाय। अथवा इसे भगवान् के अर्पण करके इसके द्वारा केवल भगवत्-सम्बन्धी कार्य ही करे) ऐसा करनेसे निर्मल विवेकका उदय होगा, तब अपने आत्मस्वरूपरूपी उदार आनन्दघन परम पदकी प्राप्ति होगी॥ ५॥ पंचमीके अनुसार पाँचवाँ साधन यह है कि स्पर्श, रस, शब्द, गन्ध और रूप—इन पाँचों इन्द्रियोंके विषयोंके कहनेमें अर्थात् इनके अधीन होकर न चलना चाहिये, क्योंकि इनके वश होनेसे जीवको संसाररूपी अँधेरे-गहरे कुएँमें गिरना पड़ेगा, (जन्म-मृत्युके चक्रमें पड़ना होगा)॥ ६॥ षष्ठीके समान छठा उपाय यह है कि श्रीजानकीनाथ श्रीरामजीकी प्राप्तिके लिये काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य—इन छओं शत्रुओंको जीत लेना चाहिये। श्रीरामके कृपारूपी जल बिना लोभरूपी अग्नि नहीं बुझती (भगवत्कृपा जीवपर सदा है ही, अतः उस कृपाका अनुभव कर इन लोभादि शत्रुओंको मारना चाहिये)॥ ७॥ सप्तमीके समान सातवाँ साधन यह है कि सात धातुओं (रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र)-से बने हुए इस (अपवित्र, क्षणभंगुर परन्तु दुर्लभ मनुष्य-) शरीरपर विचार करना चाहिये। इस शरीरका केवल एक यही फल है कि इससे परोपकार ही किया जाय॥ ८॥ अष्टमीके समान आठवाँ उपाय यह है, कि निर्विकारस्वरूप श्रीरामचन्द्रजी अष्टधा जड़ (अपरा) प्रकृति (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार)-से परे हैं। अतएव जबतक हृदयमें नाना प्रकारकी कामनाएँ बनी हुई हैं तबतक वे कैसे मिल सकते हैं?॥ ९॥ नवमीके समान नवाँ साधन यह है कि जिसने इस नौ दरवाजेकी नगरी अर्थात् नौ छेदवाले शरीरमें रहकर अपने आत्माका कल्याण नहीं किया, वह अनेक योनियोंमें भटकता हुआ नाना प्रकारके दारुण दुःखोंको प्राप्त होगा (इसलिये आत्माके कल्याणके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये)॥ १०॥ दशमीके समान दसवाँ साधन यह है कि जिसने दसों इन्द्रियोंका संयम करना नहीं जाना, इन्द्रियोंको वशमें नहीं किया, उसके सारे साधन निष्फल हो जाते हैं और उस इन्द्रियोंके दास, असंयमी मनुष्यको भगवान् की प्राप्ति नहीं हो सकती॥ ११॥ एकादशीके समान ग्यारहवाँ साधन यह है कि मनको वशमें करके एक श्रीभगवान् की ही सेवा करनी चाहिये। इसीसे (परमार्थरूपी एकादशी) व्रतका जन्म-मरणके नाशरूप (परम) फल मिलता है। अर्थात् वह भगवान् को प्राप्त हो जाता है॥ १२॥ द्वादशीके दिन दान दिया जाता है, अतः बारहवाँ साधन यह है कि ऐसा (भगवत्-प्रीत्यर्थ निष्काम बुद्धिसे) दान देना चाहिये जिससे तीनों लोकोंसे भय न रहे (भगवत्प्राप्ति हो जाय) उस द्वादशीरूपी बारहवें साधनका पारण यही है कि सदा परोपकारमें लगे रहना चाहिये। इस दान और पारणसे) फिर शोक नहीं व्यापता॥ १३॥ त्रयोदशीके समान तेरहवाँ साधन यह है कि जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति—इन तीनों अवस्थाओंको त्याग कर भगवान् का भजन करना चाहिये (भाव यह कि नित्य-निरन्तर, सोते-जागते, श्रीभगवद्-भजन ही करना चाहिये)। भगवान् मन, कर्म और वाणीसे जाननेमें नहीं आते, क्योंकि (बर्फमें जलकी भाँति) वे ही सबमें व्याप्त हैं और (स्वप्नके दृश्योंकी भाँति) स्वयं ही व्याप्य हो रहे हैं तथा असीम, अनन्त हैं (उनको तो वही जान सकता है जिसको कृपापूर्वक वे जनाते हैं, उनकी कृपाका अनुभव नित्य-निरन्तर होनेवाले भजनसे होता है, अतः तीनों अवस्थाओंमें भजन ही करना चाहिये)॥ १४॥ चतुर्दशीके समान गो-पाल (इन्द्रियोंके नियन्ता) भगवान् चराचररूपसे चौदहों भुवनोंमें रम रहे हैं। परन्तु जबतक, जीवकी भेद-बुद्धि दूर नहीं होती तबतक श्रीरघुनाथजी संसाररूपी जालको नहीं काटते, जीवको जन्म-मरणसे नहीं छुड़ाते (संसारबन्धनसे छूटना हो तो अभेद-बुद्धिसे भगवान् को भजना चाहिये)॥ १५॥ पूर्णमासीके समान (भगवान् की प्राप्तिका) पंद्रहवाँ साधन, जो सर्वोत्कृष्ट और पूर्ण हैं, यह है कि प्रेम-भक्तिके रसमें सराबोर होकर भक्तको श्रीहरिका रस—भगवान् का परम रहस्यमय तत्त्व जानना चाहिये। इसीसे वह सर्वत्र समदर्शी, शान्त, अहंकाररहित, ज्ञानस्वरूप और विषयोंसे उदासीन हो सकता है॥ १६॥ (यहाँ गोसाईंजीने फाल्गुन-मासकी पूर्णमासीका वर्णन किया है। यह पूर्णमासी और महीनोंकी पूर्णमासीसे कहीं अधिक है, इस आनन्दमयी होलीकी फाल्गुनी पूर्णिमाके दिन) दैहिक, दैविक, भौतिक—इन तीनों तापोंकी होली जलाकर भगवान् के साथ (प्रेमकी) खूब फाग खेलनी चाहिये (यही परम आनन्दकी अवस्था है)। यदि तू इस परमानन्दकी इच्छा करता है तो इसी मार्गपर चल (इन्हीं साधनोंमें लग जा)॥ १७॥ वेद, पुराण और विद्वानोंका यही एक मत है कि भगवान् की लीलाओंका गान ही होलीके गीत हैं। (खूब हरिकीर्तन करना चाहिये)। इन सब साधनोंपर विचार करके संसार-सागरसे तर जाना चाहिये। फिर कभी (भूलकर भी) यमलोकमें ले जानेवाली विषयोंकी धारामें नहीं पड़ना चाहिये॥ १८॥ सारे सन्देहोंके नाश करनेवाले, दुःखोंके दूर करनेवाले और सुखके निधान केवल एक श्रीहरि ही हैं। चाहे जितने ही उपाय कर लो, संतोंकी कृपाके बिना वे नहीं मिल सकते (अतः संत-कृपा ही सर्व साधनोंमें प्रधान है)॥ १९॥ संसाररूपी समुद्रसे तरनेके लिये संतोंके पवित्र चरण ही नौका हैं। हे तुलसीदास! (इस नौकापर चढ़कर अर्थात् संतोंके चरणोंकी सेवा करनेसे) दुःखोंके नाश करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी बिना ही परिश्रमके मिल जायँगे॥ २०॥

राग कान्हरा

विषय (हिन्दी)

(२०४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो मन लागै रामचरन अस।
देह-गेह-सुत-बित-कलत्र महँ मगन होत बिनु जतन किये जस॥ १॥
द्वंद्वरहित, गतमान, ग्यानरत, बिषय-बिरत खटाइ नाना कस*।
सुखनिधान सुजान कोसलपति ह्वै प्रसन्न, कहु, क्यों न होंहि बस॥ २॥
सर्वभूत-हित, निर्ब्यलीक चित, भगति-प्रेम दृढ़ नेम, एकरस।
तुलसिदास यह होइ तबहिं जब द्रवै ईस, जेहि हतो सीसदस॥ ३॥

मूल

जो मन लागै रामचरन अस।
देह-गेह-सुत-बित-कलत्र महँ मगन होत बिनु जतन किये जस॥ १॥
द्वंद्वरहित, गतमान, ग्यानरत, बिषय-बिरत खटाइ नाना कस*।
सुखनिधान सुजान कोसलपति ह्वै प्रसन्न, कहु, क्यों न होंहि बस॥ २॥
सर्वभूत-हित, निर्ब्यलीक चित, भगति-प्रेम दृढ़ नेम, एकरस।
तुलसिदास यह होइ तबहिं जब द्रवै ईस, जेहि हतो सीसदस॥ ३॥

पादटिप्पनी
  • ‘कस’ शब्द ‘कांस्यक’ या ‘कांस्य’ का अपभ्रंश मालूम होता है, कांस्यक पीतलको और कांस्य ताँबा-राँगा मिली हुई धातुको कहते हैं, इन दोनोंके पात्रोंमें ही खटाई बिगड़ जाती है।
अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जो यह मन श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें वैसे ही लग जाय, जैसे कि यह बिना ही किसी प्रयत्नके स्वभावसे ही शरीर, घर, पुत्र, धन और स्त्रीमें मग्न हो जाता है॥ १॥ तो वह द्वन्द्वों (सुख-दुःख आदि)-से रहित हो जाय, उसका अभिमान दूर हो जाय, वह ज्ञानमें तल्लीन हो जाय और विषयोंसे वैसे ही विरक्त हो जाय, जैसे कि पीतल या ताँबा-राँगा मिली हुई धातुके बर्तनमें रखी हुई नाना प्रकारकी खटाइयोंसे उनके कड़वी हो जानेके कारण (मन हट जाता है)। (ऐसे अधिकारी भक्तपर) आनन्दघन चतुरशिरोमणि कोसलनाथ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी प्रसन्न होकर क्यों न उसके अधीन हो जायँ?॥ २॥ (जो जीव भगवच्चरणारविन्दोंमें इस प्रकार प्रेम करेगा वह महापुरुष ही) सब प्राणियोंके हितमें संलग्न, निर्विकार चित्तवाला, एकरस भक्तिप्रेम और भगवदीय नियमोंमें दृढ़ होता है; परन्तु हे तुलसीदास! यह दशा तभी प्राप्त होती है जब रावणके मारनेवाले स्वामी (श्रीरामजी) प्रसन्न होकर कृपा करते हैं॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(२०५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो मन भज्यो चहै हरि-सुरतरु।
तौ तज बिषय-बिकार, सार भज, अजहूँ जो मैं कहौं सोइ करु॥ १॥
सम, संतोष, बिचार बिमल अति, सतसंगति, ये चारि दृढ़ करि धरु।
काम-क्रोध अरु लोभ-मोह-मद, राग-द्वेष निसेष करि परिहरु॥ २॥
श्रवन कथा, मुख नाम, हृदय हरि, सिर प्रनाम, सेवा कर अनुसरु।
नयननि निरखि कृपा-समुद्र हरि अग-जग-रूप भूप सीताबरु॥ ३॥
इहै भगति, बैराग्य-ग्यान यह, हरि-तोषन यह सुभ ब्रत आचरु।
तुलसिदास सिव-मत मारग यहि चलत सदा सपनेहुँ नाहिंन डरु॥ ४॥

मूल

जो मन भज्यो चहै हरि-सुरतरु।
तौ तज बिषय-बिकार, सार भज, अजहूँ जो मैं कहौं सोइ करु॥ १॥
सम, संतोष, बिचार बिमल अति, सतसंगति, ये चारि दृढ़ करि धरु।
काम-क्रोध अरु लोभ-मोह-मद, राग-द्वेष निसेष करि परिहरु॥ २॥
श्रवन कथा, मुख नाम, हृदय हरि, सिर प्रनाम, सेवा कर अनुसरु।
नयननि निरखि कृपा-समुद्र हरि अग-जग-रूप भूप सीताबरु॥ ३॥
इहै भगति, बैराग्य-ग्यान यह, हरि-तोषन यह सुभ ब्रत आचरु।
तुलसिदास सिव-मत मारग यहि चलत सदा सपनेहुँ नाहिंन डरु॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे मन! यदि तू भगवत्-रूपी कल्पवृक्षका सेवन करना चाहता है, तो विषयोंके विकारको छोड़कर साररूप श्रीराम-नामका भजन कर और जो मैं कहता हूँ उसे अब भी कर (अभीतक कुछ बिगड़ा नहीं)॥ १॥ समता, सन्तोष, निर्मल विवेक और सत्संग—इन चारोंको दृढ़तापूर्वक धारण कर। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अभिमान एवं राग और द्वेषको बिलकुल ही छोड़ दे, इनका लेशमात्र भी न रहे॥ २॥ कानोंसे भगवत्कथा सुन, मुखसे (राम) नाम जपा कर, हृदयमें श्रीहरिका ध्यान किया कर, मस्तकसे प्रणाम तथा हाथोंसे भगवान् की सेवा किया कर। नेत्रोंसे कृपासागर चराचर विश्वमय महाराज जानकीवल्लभ रामचन्द्रजीके दर्शन किया कर॥ ३॥ यही भक्ति है, यही वैराग्य है, यही ज्ञान है और इसीसे भगवान् प्रसन्न होते हैं, अतएव तू इसी शुभ व्रतका आचरण कर। हे तुलसीदास! यही शिवजीका बतलाया हुआ मार्ग है। इस (कल्याणमय) मार्गपर चलनेसे स्वप्नमें भी भय नहीं रहता (मनुष्य परमात्माको प्राप्त कर अभय हो जाता है)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२०६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहिन और कोउ सरन लायक दूजो श्रीरघुपति-सम बिपति-निवारन।
काको सहज सुभाउ सेवकबस, काहि प्रनत परप्रीति अकारन॥ १॥
जन-गुन अलप गनत सुमेरु करि, अवगुन कोटि बिलोकि बिसारन।
परम कृपालु, भगत-चिंतामनि, बिरद पुनीत, पतितजन-तारन॥ २॥
सुमिरत सुलभ, दास-दुख सुनि हरि चलत तुरत, पटपीत सँभार न।
साखि पुरान-निगम-आगम सब, जानत द्रुपद-सुता अरु बारन॥ ३॥
जाको जस गावत कबि-कोबिद, जिन्हके लोभ-मोह, मद-मार न।
तुलसिदास तजि आस सकल भजु, कोसलपति मुनिबधू-उधारन॥ ४॥

मूल

नाहिन और कोउ सरन लायक दूजो श्रीरघुपति-सम बिपति-निवारन।
काको सहज सुभाउ सेवकबस, काहि प्रनत परप्रीति अकारन॥ १॥
जन-गुन अलप गनत सुमेरु करि, अवगुन कोटि बिलोकि बिसारन।
परम कृपालु, भगत-चिंतामनि, बिरद पुनीत, पतितजन-तारन॥ २॥
सुमिरत सुलभ, दास-दुख सुनि हरि चलत तुरत, पटपीत सँभार न।
साखि पुरान-निगम-आगम सब, जानत द्रुपद-सुता अरु बारन॥ ३॥
जाको जस गावत कबि-कोबिद, जिन्हके लोभ-मोह, मद-मार न।
तुलसिदास तजि आस सकल भजु, कोसलपति मुनिबधू-उधारन॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरघुनाथजीके समान विपत्तियोंको दूर करनेवाला तथा शरण लेनेयोग्य कोई दूसरा नहीं है। ऐसा किसका सरल स्वभाव है जो अपने सेवकोंके वशमें रहता हो? शरणागत भक्तोंपर किसका अहैतुक प्रेम है?॥ १॥ श्रीरघुनाथजी अपने दासके जरा-से भी गुणको सुमेरु पर्वतके सदृश महान् मानते हैं, और उसके करोड़ों दोषोंको देखकर भी उन्हें भूल जाते हैं। क्योंकि वे बड़े ही कृपालु, भक्तोंके (मनोरथको पूर्ण करनेवाले) चिन्तामणिस्वरूप, पवित्र करनेके विरदवाले और पतितोंको (संसार-सागरसे) उद्धार कर देनेवाले हैं॥ २॥ स्मरण करते ही, सहज ही मिल जाते हैं और अपने दासके दुःखको सुनकर इतनी जल्दी (दुःख दूर करनेके लिये) दौड़े आते हैं कि (देर होनेके भयसे) वे अपने पीताम्बरतकको नहीं सँभालते। इस बातके साक्षी पुराण, वेद, शास्त्र हैं, द्रौपदी और गजेन्द्र (आदि अच्छी तरह) जानते हैं॥ ३॥ जिनके लोभ, मोह, मद और काम नहीं हैं, ऐसे कवि और ज्ञानी महात्मा जिनका यश गाते हैं, हे तुलसीदास! सारी (लोक-परलोककी) आशाओंको छोड़कर अहल्याके उद्धार करनेवाले उन प्रभु श्रीकोसलनाथका ही तू भजन कर॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२०७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

भजिबे लायक, सुखदायक रघुनायक सरिस सरनप्रद दूजो नाहिन।
आनँदभवन, दुखदवन, सोकसमन रमारमन गुन गनत सिराहिं न॥ १॥
आरत, अधम, कुजाति, कुटिल, खल, पतित, सभीत कहूँ जे समाहिं न।
सुमिरत नाम बिबसहूँ बारक पावत सो पद, जहाँ सुर जाहिं न॥ २॥
जाके पद-कमल लुब्ध मुनि-मधुकर, बिरत जे परम सुगतिहु लुभाहिं न।
तुलसिदास सठ तेहि न भजसि कस, कारुनीक जो अनाथहिं दाहिन॥ ३॥

मूल

भजिबे लायक, सुखदायक रघुनायक सरिस सरनप्रद दूजो नाहिन।
आनँदभवन, दुखदवन, सोकसमन रमारमन गुन गनत सिराहिं न॥ १॥
आरत, अधम, कुजाति, कुटिल, खल, पतित, सभीत कहूँ जे समाहिं न।
सुमिरत नाम बिबसहूँ बारक पावत सो पद, जहाँ सुर जाहिं न॥ २॥
जाके पद-कमल लुब्ध मुनि-मधुकर, बिरत जे परम सुगतिहु लुभाहिं न।
तुलसिदास सठ तेहि न भजसि कस, कारुनीक जो अनाथहिं दाहिन॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—भजन करनेयोग्य, सुख देनेवाला और शरणमें रखनेवाला स्वामी श्रीरघुनाथजीके समान दूसरा कोई नहीं है। उन आनन्दधाम, दुःखोंके नाश करनेवाले, शोकके हरनेवाले, लक्ष्मीरमण भगवान् के गुण गिनते-गिनते कभी पूरे नहीं होते॥ १॥ जो दुःखी, नीच, अन्त्यज, कपटी, दुष्ट, पापी और भयभीत कहीं भी आश्रय नहीं पा सकते वे भी विवश होकर एक बार ही श्रीराम-नाम-स्मरण कर उस (परम) पदपर पहुँच जाते हैं, जहाँ देवता भी नहीं जा सकते॥ २॥ जिनके चरणरूपी कमलोंमें ऐसे वैराग्यसम्पन्न मुनिरूपी भ्रमर लुभाये रहते हैं, जिन्हें परमसुन्दर गति मोक्षतकका लोभ नहीं है। हे सठ तुलसीदास! तू उस अनाथोंपर सदा कृपा करनेवाले (परम) करुणामय प्रभुका भजन क्यों नहीं करता?॥ ३॥

राग कल्याण

विषय (हिन्दी)

(२०८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ सों कौन बिनती कहि सुनावौं।
त्रिबिध बिधि अमित अवलोकि अघ आपने,
सरन सनमुख होत सकुचि सिर नावौं॥ १॥
बिरचि हरिभगतिको बेष बर टाटिका,
कपट-दल हरित पल्लवनि छावौं।
नामलगि लाइ लासा ललित-बचन कहि,
ब्याध ज्यों बिषय-बिहँगनि बझावौं॥ २॥
कुटिल सतकोटि मेरे रोमपर वारियहि,
साधु गनतीमें पहलेहि गनावौं।
परम बर्बर खर्ब गर्ब-पर्बत चढ़ॺो,
अग्य सर्बग्य, जन-मनि जनावौं॥ ३॥
साँच किधौं झूठ मोको कहत कोउ-
कोउ राम! रावरो, हौं तुम्हरो कहावौं।
बिरदकी लाज करि दास तुलसिहिं देव!
लेहु अपनाइ अब देहु जनि बावौं॥ ४॥

मूल

नाथ सों कौन बिनती कहि सुनावौं।
त्रिबिध बिधि अमित अवलोकि अघ आपने,
सरन सनमुख होत सकुचि सिर नावौं॥ १॥
बिरचि हरिभगतिको बेष बर टाटिका,
कपट-दल हरित पल्लवनि छावौं।
नामलगि लाइ लासा ललित-बचन कहि,
ब्याध ज्यों बिषय-बिहँगनि बझावौं॥ २॥
कुटिल सतकोटि मेरे रोमपर वारियहि,
साधु गनतीमें पहलेहि गनावौं।
परम बर्बर खर्ब गर्ब-पर्बत चढ़ॺो,
अग्य सर्बग्य, जन-मनि जनावौं॥ ३॥
साँच किधौं झूठ मोको कहत कोउ-
कोउ राम! रावरो, हौं तुम्हरो कहावौं।
बिरदकी लाज करि दास तुलसिहिं देव!
लेहु अपनाइ अब देहु जनि बावौं॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे प्रभो! आपको मैं किस तरह विनती कहकर सुनाऊँ? तीन तरहके (मन, वचन और कर्मसे उत्पन्न) अपरिमित प्रकारोंसे किये जानेवाले अपने पापोंकी ओर देखकर जब मैं आपके शरणमें सम्मुख आना चाहता हूँ तब संकोचके मारे सिर नीचा हो जाता है॥ १॥ भगवद्भक्तोंका भेष बनाकर मानो सुन्दर (धोखेकी) टट्टी बनाता हूँ और कपटरूपी हरे-हरे पत्तोंसे उसे छा देता हूँ। आपके (राम) नामकी लग्गी लगाकर, मधुर वचनोंका लासा लगा देता हूँ! और फिर बहेलियेकी भाँति विषय-रूपी पक्षियोंको फाँस लेता हूँ। (लोगोंकी दृष्टिमें तिलक, माला, कण्ठी, राम-नामके गुणगान करनेवाला और मधुर वाणी बोलनेवाला महात्मा भक्त बना फिरता हूँ, परन्तु मन-ही-मन विषयोंका चिन्तन करता हुआ उन्हींकी ताकमें लगा रहता हूँ)॥ २॥ मैं इतना बड़ा पापी हूँ कि मेरे एक रोमपर सौ करोड़ पापी निछावर किये जा सकते हैं, पर तो भी अपनेको संतोंकी गिनतीमें सबसे पहले गिनवाना चाहता हूँ, संत-शिरोमणि बननेका दावा रखता हूँ। मैं बड़ा ही असभ्य और नीच हूँ, परन्तु घमण्डरूपी पहाड़पर चढ़ा बैठा हूँ। इसीसे तो मूर्ख होनेपर भी अपनेको सर्वज्ञ और भक्तश्रेष्ठ बतलाता हूँ॥ ३॥ हे भगवन्! कह नहीं सकता कि झूठ है या सच, पर कोई-कोई मेरे लिये यह कहते हैं कि ‘यह रामजीका है’ और मैं भी आपहीका कहलाया चाहता हूँ। हे देव! इससे अब अपने बानेकी लाज रखकर इस तुलसीदासको अपना ही लीजिये (क्योंकि जब आपका कहलाकर भी दुष्ट ही रहूँगा तो आपके विरदकी लाज कैसे रहेगी?) अब टालमटोल न कीजिये॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२०९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहिनै नाथ! अवलंब मोहि आनकी।
करम-मन-बचन पन सत्य करुनानिधे!
एक गति राम! भवदीय पदत्रानकी॥ १॥
कोह-मद-मोह-ममतायतन जानि मन,
बात नहिं जाति कहि ग्यान-बिग्यानकी।
काम-संकलप उर निरखि बहु बासनहिं,
आस नहिं एकहू आँक निरबानकी॥ २॥
बेद-बोधित करम धरम बिनु अगम अति,
जदपि जिय लालसा अमरपुर जानकी।
सिद्ध-सुर-मनुज दनुजादिसेवत कठिन,
द्रवहिं हठजोग दिये भोग बलि प्रानकी॥ ३॥
भगति दुरलभ परम, संभु-सुक-मुनि-मधुप,
प्यास पदकंज-मकरंद-मधुपानकी।
पतित-पावन सुनत नाम बिस्रामकृत,
भ्रमित पुनि समुझि चित ग्रंथि अभिमानकी॥ ४॥
नरक-अधिकार मम घोर संसार-तम-
कूपकहिं, भूप! मोहि सक्ति आपानकी।
दासतुलसी सोउ त्रास नहि गनत मन,
सुमिरि गुह गीध गज ग्याति हनुमानकी॥ ५॥

मूल

नाहिनै नाथ! अवलंब मोहि आनकी।
करम-मन-बचन पन सत्य करुनानिधे!
एक गति राम! भवदीय पदत्रानकी॥ १॥
कोह-मद-मोह-ममतायतन जानि मन,
बात नहिं जाति कहि ग्यान-बिग्यानकी।
काम-संकलप उर निरखि बहु बासनहिं,
आस नहिं एकहू आँक निरबानकी॥ २॥
बेद-बोधित करम धरम बिनु अगम अति,
जदपि जिय लालसा अमरपुर जानकी।
सिद्ध-सुर-मनुज दनुजादिसेवत कठिन,
द्रवहिं हठजोग दिये भोग बलि प्रानकी॥ ३॥
भगति दुरलभ परम, संभु-सुक-मुनि-मधुप,
प्यास पदकंज-मकरंद-मधुपानकी।
पतित-पावन सुनत नाम बिस्रामकृत,
भ्रमित पुनि समुझि चित ग्रंथि अभिमानकी॥ ४॥
नरक-अधिकार मम घोर संसार-तम-
कूपकहिं, भूप! मोहि सक्ति आपानकी।
दासतुलसी सोउ त्रास नहि गनत मन,
सुमिरि गुह गीध गज ग्याति हनुमानकी॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! मुझे और किसीका आसरा नहीं है। हे करुणानिधान! मन, वचन और कर्मसे मेरी यह सच्ची प्रतिज्ञा है कि मुझे केवल एक आपकी जूतियोंका ही सहारा है॥ १॥ मेरा मन क्रोध, अभिमान, अज्ञान और ममताका स्थान है; इसलिये ज्ञान-विज्ञानकी बात तो उसके लिये कही ही नहीं जा सकती। हृदयमें अनेक कामनाओंके संकल्प और नाना प्रकारकी (विषय-) वासनाएँ देखकर मोक्षकी तो एक अंश भी आशा नहीं है॥ २॥ यद्यपि (कर्म-धर्म-हीन होकर भी) मेरे मनमें स्वर्ग जानेकी बड़ी लालसा लग रही है, पर वेदोक्त कर्म-धर्म किये बिना स्वर्गकी प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है। इसके सिवा सिद्ध, देवता, मनुष्य एवं राक्षसोंकी सेवा भी बड़ी कठिन है। ये लोग तभी प्रसन्न होंगे जब इनके लिये हठयोग किया जाय, यज्ञका भाग दिया जाय और प्राणोंकी बलि चढ़ायी जाय। (यह सब भी मुझसे नहीं हो सकता, अतएव इन लोगोंकी कृपाकी आशा करना भी व्यर्थ है)॥ ३॥ भक्ति (तो मुझ-सरीखे मनुष्यके लिये) परम दुर्लभ है; क्योंकि शिव, शुकदेव तथा मुनिरूप भौंरे भी आपके चरण-कमलोंके मधुर मकरन्दको पीनेके लिये सदा प्यासे ही बने रहते हैं (इस रसको पीते-पीते जब वे भी नहीं अघाते तब मुझ-जैसा नीच तो किस गिनतीमें है?) हाँ, आपका नाम अवश्य ही पतितोंको पावन करनेवाला तथा शान्ति (मोक्ष) देनेवाला सुना जाता है; किन्तु चित्तमें अभिमानकी गाँठें पड़ी रहनेके कारण (राम-नामके साधनसे भी) मन फिर भ्रम जाता है। (मैं इतना बड़ा समझदार और विद्वान् होकर मामूली राम-नाम लूँ, इस अभिमानके मारे राम-नामसे भी वंचित रह जाता हूँ)॥ ४॥ हे महाराज! इन सब बातोंको देखते मेरा तो, बस, नरकमें ही जानेका अधिकार है, मेरे कर्मोंसे तो मैं घोर संसाररूपी अँधेरे कुएँमें पड़ा रहनेयोग्य ही हूँ, किन्तु इतनेपर भी मुझे आपका ही बल है। यह तुलसीदास अपने मनमें गुह, जटायु, गजेन्द्र और हनुमान् की जाति याद करके संसारके उस (जन्म-मरण) भयको कुछ भी नहीं समझता (अन्त्यज, पशु और पक्षियोंतकका उद्धार हो गया है तब मेरा क्यों न होगा? अर्थात् अवश्य होगा)॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(२१०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

औरु कहँ ठौरु रघुबंस-मनि! मेरे।
पतित-पावन प्रनत-पाल असरन-सरन,
बाँकुरे बिरुद बिरुदैत केहि केरे॥ १॥
समुझि जिय दोस अति रोस करि राम जो,
करत नहिं कान बिनती बदन फेरे।
तदपि ह्वै निडर हौं कहौं करुना-सिंधु,
क्योंऽब रहि जात सुनि बात बिनु हेरे॥ २॥
मुख्य रुचि होत बसिबेकी पुर रावरे,
राम! तेहि रुचिहि कामादि गन घेरे।
अगम अपबरग, अरु सरग सुकृतैकफल,
नाम-बल क्यों बसौं जम-नगर नेरे॥ ३॥
कतहुँ नहिं ठाउँ, कहँ जाउँ कोसलनाथ!
दीन बितहीन हौं, बिकल बिनु डेरे।
दास तुलसिहिं बास देहु अब करि कृपा,
बसत गज गीध ब्याधादि जेहि खेरे॥ ४॥

मूल

औरु कहँ ठौरु रघुबंस-मनि! मेरे।
पतित-पावन प्रनत-पाल असरन-सरन,
बाँकुरे बिरुद बिरुदैत केहि केरे॥ १॥
समुझि जिय दोस अति रोस करि राम जो,
करत नहिं कान बिनती बदन फेरे।
तदपि ह्वै निडर हौं कहौं करुना-सिंधु,
क्योंऽब रहि जात सुनि बात बिनु हेरे॥ २॥
मुख्य रुचि होत बसिबेकी पुर रावरे,
राम! तेहि रुचिहि कामादि गन घेरे।
अगम अपबरग, अरु सरग सुकृतैकफल,
नाम-बल क्यों बसौं जम-नगर नेरे॥ ३॥
कतहुँ नहिं ठाउँ, कहँ जाउँ कोसलनाथ!
दीन बितहीन हौं, बिकल बिनु डेरे।
दास तुलसिहिं बास देहु अब करि कृपा,
बसत गज गीध ब्याधादि जेहि खेरे॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रघुवंशमणि! मेरे लिये (आपके चरणोंको छोड़कर) और कहाँ ठौर है? पापियोंको पवित्र करनेवाले, शरणागतोंका पालन करनेवाले एवं अनाथोंको आश्रय देनेवाले एक आप ही हैं। आपका-सा बाँका बाना किस बानेवालेका है? (किसीका भी नहीं)॥ १॥ हे रघुनाथजी! मेरे अपराधोंको मनमें समझकर, अत्यन्त क्रोधसे यद्यपि आप मेरी विनतीको नहीं सुनते और मेरी ओरसे अपना मुँह फेरे हुए हैं, तथापि मैं तो निर्भय होकर, हे करुणाके समुद्र! यही कहूँगा कि मेरी बात सुनकर (मेरी दीन पुकार सुनकर) मेरी ओर देखे बिना आपसे कैसे रहा जाता है? (करुणाके सागरसे दीनकी आर्त पुकार सुनकर कैसे रहा जाय?)॥ २॥ (यदि आप मेरी मनःकामना पूछते हैं, तो सुनिये) सबसे प्रधान रुचि तो मेरी आपके परमधाममें जाकर निवास करनेकी है; किन्तु हे नाथ! उस मेरी रुचिको काम, क्रोध, लोभ और मोह आदिने घेर रखा है (इनके आक्रमणसे वह कामना दब जाती है)। मोक्ष तो दुर्लभ है, स्वर्ग मिलना भी कठिन है, क्योंकि वह केवल पुण्योंके फलसे ही मिलता है (मैंने कोई उत्तम कर्म तो किये नहीं, फिर स्वर्ग कैसे मिले?) अब रही यमपुरी (नरक) सो उसके समीप भी आपके नामके बलसे नहीं जा सकता (राम-नाम लेनेवालेको यमराज अपनी पुरीके निकट ही नहीं आने देते)॥ ३॥ (इससे) अब मुझे कहीं भी रहनेके लिये स्थान नहीं रहा, आप ही बताइये कहाँ जाऊँ? हे कोसलनाथ! मैं निर्धन और दीन हूँ (धनी होता, तो कहीं घर ही बनवा लेता), आश्रय-स्थानके न होनेसे व्याकुल हो रहा हूँ। इससे हे नाथ! इस तुलसीदासको कृपा कर उसी गाँवमें रहनेकी जगह दे दीजिये जिसमें गजेन्द्र, जटायु, व्याध (वाल्मीकि) आदि रहते हैं॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२११)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबहुँ रघुबंसमनि! सो कृपा करहुगे।
जेहि कृपा ब्याध, गज, बिप्र, खल नर तरे,
तिन्हहिं सम मानि मोहि नाथ उद्धरहुगे॥ १॥
जोनि बहु जनमि किये करम खल बिबिध बिधि,
अधम आचरन कछु हृदय नहि धरहुगे।
दीनहित! अजित सरबग्य समरथ प्रनतपाल
चित मृदुल निज गुननि अनुसरहुगे॥ २॥
मोह-मद-मान-कामादि खलमंडली
सकुल निरमूल करि दुसह दुख हरहुगे।
जोग-जप-जग्य-बिग्यान ते अधिक अति,
अमल दृढ़ भगति दै परम सुख भरहुगे॥ ३॥
मंदजन-मौलिमनि सकल, साधन-हीन,
कुटिल मन, मलिन जिय जानि जो डरहुगे।
दासतुलसी बेद-बिदित बिरुदावली
बिमल जस नाथ! केहि भाँति बिस्तरहुगे॥ ४॥

मूल

कबहुँ रघुबंसमनि! सो कृपा करहुगे।
जेहि कृपा ब्याध, गज, बिप्र, खल नर तरे,
तिन्हहिं सम मानि मोहि नाथ उद्धरहुगे॥ १॥
जोनि बहु जनमि किये करम खल बिबिध बिधि,
अधम आचरन कछु हृदय नहि धरहुगे।
दीनहित! अजित सरबग्य समरथ प्रनतपाल
चित मृदुल निज गुननि अनुसरहुगे॥ २॥
मोह-मद-मान-कामादि खलमंडली
सकुल निरमूल करि दुसह दुख हरहुगे।
जोग-जप-जग्य-बिग्यान ते अधिक अति,
अमल दृढ़ भगति दै परम सुख भरहुगे॥ ३॥
मंदजन-मौलिमनि सकल, साधन-हीन,
कुटिल मन, मलिन जिय जानि जो डरहुगे।
दासतुलसी बेद-बिदित बिरुदावली
बिमल जस नाथ! केहि भाँति बिस्तरहुगे॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रघुवंशमणि! कभी आप मुझपर भी वही कृपा करेंगे, जिसके प्रतापसे व्याध (वाल्मीकि), गजेन्द्र, ब्राह्मण अजामिल और अनेक दुष्ट संसारसागरसे तर गये? हे नाथ! क्या आप मुझे भी उन्हीं पापियोंके समान समझकर मेरा भी उद्धार करेंगे?॥ १॥ अनेक योनियोंमें जन्म ले-लेकर मैंने नाना प्रकारके दुष्ट कर्म किये हैं। आप मेरे नीच आचरणोंकी बात तो हृदयमें न लायँगे? हे दीनोंका हित करनेवाले! क्या आप किसीसे भी न जीते जाने, सबके मनकी बात जानने, सब कुछ करनेमें समर्थ होने और शरणागतोंकी रक्षा करने आदि अपने गुणोंका कोमल स्वभावसे अनुसरण करेंगे? (अर्थात् अपने इन गुणोंकी ओर देखकर, मेरे पापोंसे घिना कर, मेरे मनकी बात जानकर अपनी सर्वशक्तिमत्तासे मुझ शरणमें पड़े हुएका उद्धार करेंगे?)॥ २॥ मेरे हृदयमें अज्ञान, अहंकार, मान, काम आदि दुष्टोंकी जो मण्डली बस रही है, उसे परिवारसहित समूल नष्ट करके क्या आप मेरे असह्य दुःखोंको दूर करेंगे? और क्या आप योग, जप, यज्ञ और विज्ञानकी अपेक्षा निर्मल और अधिक महत्त्ववाली अपनी भक्तिको देकर मेरे हृदयमें परमानन्द भर देंगे॥ ३॥ यदि आप इस तुलसीदासको नीचोंका शिरोमणि, सब साधनोंसे रहित, कुटिल एवं मलिन मनवाला मानकर अपने मनमें कुछ डरेंगे (कि इतने बड़े पापीका उद्धार करनेसे कदाचित् हमपर लोग अन्यायीपनका दोषारोपण करें) तो हे नाथ! फिर आप अपनी वेदविख्यात विरदावली तथा निर्मल कीर्तिका विस्तार कैसे करेंगे? (यदि आपको अपने बानेकी लाज है, तो मेरा उद्धार अवश्य ही कीजिये)॥ ४॥

राग केदारा

विषय (हिन्दी)

(२१२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

रघुपति बिपति-दवन।
परम कृपालु, प्रनत-प्रतिपालक, पतित-पवन॥ १॥
कूर, कुटिल, कुलहीन, दीन, अति मलिन जवन।
सुमिरत नाम राम पठये सब अपने भवन॥ २॥
गज-पिंगला-अजामिल-से खल गनै धौं कवन।
तुलसिदास प्रभु केहि न दीन्हि गति जानकी-रवन॥ ३॥

मूल

रघुपति बिपति-दवन।
परम कृपालु, प्रनत-प्रतिपालक, पतित-पवन॥ १॥
कूर, कुटिल, कुलहीन, दीन, अति मलिन जवन।
सुमिरत नाम राम पठये सब अपने भवन॥ २॥
गज-पिंगला-अजामिल-से खल गनै धौं कवन।
तुलसिदास प्रभु केहि न दीन्हि गति जानकी-रवन॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरघुनाथजी विपत्तियोंको दूर करनेवाले हैं। आप बड़े ही कृपालु, शरणागतोंके प्रतिपालक और पापियोंको पवित्र करनेवाले हैं॥ १॥ निर्दयी, दुष्ट, नीच जाति, गरीब और बड़े ही मलिन म्लेच्छतकको राम-नामका स्मरण करते ही आपने अपने परमधामको भेज दिया॥ २॥ गजेन्द्र, पिंगला वेश्या, अजामिल आदि (विषयोंमें मतवाले) दुष्टोंको कौन गिने (न जाने इनके समान कितने पापियोंको अपना धाम दे दिया) हे तुलसीदास! बात तो यह है कि जानकीनाथ प्रभु रामचन्द्रजीने किस-किसको मुक्त नहीं कर दिया (जिसने शरण ली, उसीको मुक्ति दे दी, फिर मुझे क्यों न देंगे?)॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(२१३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि-सम आपदा-हरन।
नहि कोउ सहज कृपालु दुसह दुख-सागर-तरन॥ १॥
गज निज बल अवलोकि कमल गहि गयो सरन।
दीन बचन सुनि चले गरुड़ तजि सुनाभ-धरन॥ २॥
द्रुपदसुताको लग्यो दुसासन नगन करन।
‘हा हरि पाहि’ कहत पूरे पट बिबिध बरन॥ ३॥
इहै जानि सुर-नर-मुनि-कोबिद सेवत चरन।
तुलसिदास प्रभु को न अभय कियो नृग-उद्धरन॥ ४॥

मूल

हरि-सम आपदा-हरन।
नहि कोउ सहज कृपालु दुसह दुख-सागर-तरन॥ १॥
गज निज बल अवलोकि कमल गहि गयो सरन।
दीन बचन सुनि चले गरुड़ तजि सुनाभ-धरन॥ २॥
द्रुपदसुताको लग्यो दुसासन नगन करन।
‘हा हरि पाहि’ कहत पूरे पट बिबिध बरन॥ ३॥
इहै जानि सुर-नर-मुनि-कोबिद सेवत चरन।
तुलसिदास प्रभु को न अभय कियो नृग-उद्धरन॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—भगवान् श्रीहरिके समान विपत्तियोंका हरनेवाला, सहज ही कृपा करनेवाला और दुःसह दुःखरूपी समुद्रसे तारनेवाला दूसरा कोई नहीं है॥ १॥ जब गजराज अपना बल (क्षीण हुआ) देखकर (भेंटके लिये) कमलका फूल ले आपकी शरणमें गया तब उसके दीन वचन सुनकर सुदर्शनचक्र ले आप गरुड़को वहीं छोड़ तुरंत ही (पैदल दौड़ते हुए) चले आये॥ २॥ जब (भरी सभामें) दुष्ट दुःशासन द्रौपदीका वस्त्र उतारने लगा, तब केवल उसके इतना कहनेपर ही कि ‘हाय! भगवन्, मेरी रक्षा कीजिये’ आपने विविध रंगोंकी साड़ियोंका ढेर लगा दिया॥ ३॥ (आपकी इसी दीनवत्सलताको) जानकर देवता, मनुष्य, मुनि और विद्वान् आपके चरणोंकी सेवा करते हैं। राजा नृगका उद्धार करनेवाले भगवान् ने किसको अभय नहीं किया? (जो उनकी शरणमें गया, उसीको अभय कर दिया)॥ ४॥

राग कल्याण

विषय (हिन्दी)

(२१४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसी कौन प्रभुकी रीति?
बिरद हेतु पुनीत परिहरि पाँवरनि पर प्रीति॥ १॥
गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाइ।
मातुकी गति दई ताहि कृपालु जादवराइ॥ २॥
काममोहित गोपिकनिपर कृपा अतुलित कीन्ह।
जगत-पिता बिरंचि जिन्हके चरनकी रज लीन्ह॥ ३॥
नेमतें सिसुपाल दिन प्रति देत गनि गनि गारि।
कियो लीन सु आपमें हरि राज-सभा मँझारि॥ ४॥
ब्याध चित दै चरन मारॺो मूढ़मति मृग जानि।
सो सदेह स्वलोक पठयो प्रगट करि निज बानि॥ ५॥
कौन तिन्हकी कहै जिन्हके सुकृत अरु अघ दोउ।
प्रगट पातकरूप तुलसी सरन राख्यो सोउ॥ ६॥

मूल

ऐसी कौन प्रभुकी रीति?
बिरद हेतु पुनीत परिहरि पाँवरनि पर प्रीति॥ १॥
गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाइ।
मातुकी गति दई ताहि कृपालु जादवराइ॥ २॥
काममोहित गोपिकनिपर कृपा अतुलित कीन्ह।
जगत-पिता बिरंचि जिन्हके चरनकी रज लीन्ह॥ ३॥
नेमतें सिसुपाल दिन प्रति देत गनि गनि गारि।
कियो लीन सु आपमें हरि राज-सभा मँझारि॥ ४॥
ब्याध चित दै चरन मारॺो मूढ़मति मृग जानि।
सो सदेह स्वलोक पठयो प्रगट करि निज बानि॥ ५॥
कौन तिन्हकी कहै जिन्हके सुकृत अरु अघ दोउ।
प्रगट पातकरूप तुलसी सरन राख्यो सोउ॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(भगवान् के सिवा) और किस स्वामीकी ऐसी रीति है जो अपने विरदके लिये पवित्र जीवोंको छोड़कर पामरोंपर प्रेम करता हो?॥ १॥ राक्षसी पूतना स्तनोंमें विष लगाकर उन्हें (भगवान् कृष्णको) मारने गयी थी, किन्तु कृपालु यादवेन्द्र श्रीकृष्णने उसे माताकी-सी गति प्रदान की (उसका उद्धार कर दिया)॥ २॥ आपने काममोहित गोपियोंपर ऐसी अतुल कृपा की कि जगत्पिता ब्रह्माने भी उनके चरणोंकी धूलि (अपने मस्तकपर) चढ़ायी॥ ३॥ जो शिशुपाल नियमसे प्रतिदिन गिन-गिनकर गालियाँ देता था उसको आपने राजाओंकी सभामें (पाण्डवोंके राजसूय-यज्ञमें) सबके देखते-देखते अपनेमें ही मिला लिया॥ ४॥ मूर्ख बहेलियेने तो मृग समझकर आपके चरणमें निशाना लगाकर (बाण) मारा, पर उसे भी आपने अपनी दयालुताकी बान प्रकट करके सदेह अपने परमधामको भेज दिया॥ ५॥ (इस प्रकारके जीवोंने) जिन्होंने पुण्य और पाप दोनों ही किये हैं उनके लिये तो क्या कही जाय? (क्योंकि उनका तो सद्‍गति पानेका कुछ-न-कुछ अधिकार ही था) किन्तु उन्होंने तो प्रत्यक्ष पापमूर्ति तुलसीको भी शरणमें रख लिया है (इसीसे उनकी बान प्रत्यक्ष सिद्ध हो जाती है)॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(२१५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीरघुबीरकी यह बानि।
नीचहू सों करत नेह सुप्रीति मन अनुमानि॥ १॥
परम अधम निषाद पाँवर, कौन ताकी कानि?
लियो सो उर लाइ सुत ज्यों प्रेमको पहिचानि॥ २॥
गीध कौन दयालु, जो बिधि रच्यो हिंसा सानि?
जनक ज्यों रघुनाथ ताकहँ दियो जल निज पानि॥ ३॥
प्रकृति-मलिन कुजाति सबरी सकल अवगुन-खानि।
खात ताके दिये फल अति रुचि बखानि बखानि॥ ४॥
रजनिचर अरु रिपु बिभीषन सरन आयो जानि।
भरत ज्यों उठि ताहि भेंटत देह-दसा भुलानि॥ ५॥
कौन सुभग सुसील बानर, जिनहिं सुमिरत हानि।
किये ते सब सखा, पूजे भवन अपने आनि॥ ६॥
राम सहज कृपालु कोमल दीनहित दिनदानि।
भजहि ऐसे प्रभुहि तुलसी कुटिल कपट न ठानि॥ ७॥

मूल

श्रीरघुबीरकी यह बानि।
नीचहू सों करत नेह सुप्रीति मन अनुमानि॥ १॥
परम अधम निषाद पाँवर, कौन ताकी कानि?
लियो सो उर लाइ सुत ज्यों प्रेमको पहिचानि॥ २॥
गीध कौन दयालु, जो बिधि रच्यो हिंसा सानि?
जनक ज्यों रघुनाथ ताकहँ दियो जल निज पानि॥ ३॥
प्रकृति-मलिन कुजाति सबरी सकल अवगुन-खानि।
खात ताके दिये फल अति रुचि बखानि बखानि॥ ४॥
रजनिचर अरु रिपु बिभीषन सरन आयो जानि।
भरत ज्यों उठि ताहि भेंटत देह-दसा भुलानि॥ ५॥
कौन सुभग सुसील बानर, जिनहिं सुमिरत हानि।
किये ते सब सखा, पूजे भवन अपने आनि॥ ६॥
राम सहज कृपालु कोमल दीनहित दिनदानि।
भजहि ऐसे प्रभुहि तुलसी कुटिल कपट न ठानि॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरघुनाथजीकी ऐसी ही आदत है कि वे मनमें विशुद्ध और अनन्य प्रेम समझकर नीचके साथ भी स्नेह करते हैं॥ १॥ (प्रमाण सुनिये) गुह निषाद महान् नीच और पापी था, उसकी क्या इज्जत थी? किन्तु भगवान् ने उसका (अनन्य और विशुद्ध) प्रेम पहचानकर उसे पुत्रकी तरह हृदयसे लगा लिया॥ २॥ जटायु गीध, जिसे ब्रह्माने हिंसामय ही बनाया था, कौन-सा दयालु था? किन्तु रघुनाथजीने अपने पिताके समान उसको अपने हाथसे जलांजलि दी॥ ३॥ शबरी स्वभावसे ही मैली-कुचैली, नीच जातिकी और सभी अवगुणोंकी खानि थी; परन्तु (उसकी विशुद्ध और अनन्य प्रीति देखकर) उसके हाथके फल स्वाद बखान-बखानकर आपने बड़े प्रेमसे खाये॥ ४॥ राक्षस एवं शत्रु विभीषणको शरणमें आया जानकर आपने उठकर उसे भरतकी भाँति ऐसे प्रेमसे हृदयसे लगा लिया कि उस प्रेमविह्वलतामें आप अपने शरीरकी सुध-बुध भी भूल गये॥ ५॥ बंदर कौन-से सुन्दर और शील-स्वभावके थे? जिनका नाम लेनेसे भी हानि हुआ करती है, उन्हें भी आपने अपना मित्र बना लिया और अपने घरपर लाकर उनका सब प्रकार आदर-सत्कार किया॥ ६॥ (इन सब प्रमाणोंसे सिद्ध है, कि) श्रीरामचन्द्रजी स्वभावसे ही कृपालु, कोमल स्वभाववाले, गरीबोंके हितू और सदा दान देनेवाले हैं। अतएव हे तुलसी! तू तो कुटिलता और कपट छोड़कर ऐसे प्रभु श्रीरामजीका ही (विशुद्ध और अनन्य प्रेमसे सदा) भजन किया कर॥ ७॥

विषय (हिन्दी)

(२१६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि तजि और भजिये काहि?
नाहिनै कोउ राम सो ममता प्रनतपर जाहि॥ १॥
कनककसिपु बिरंचिको जन करम मन अरु बात।
सुतहिं दुखवत बिधि न बरज्यो कालके घर जात॥ २॥
संभु-सेवक जान जग, बहु बार दिये दस सीस।
करत राम-बिरोध सो सपनेहु न हटक्यो ईस॥ ३॥
और देवनकी कहा कहौं, स्वारथहिके मीत।
कबहु काहु न राख लियो कोउ सरन गयउ सभीत॥ ४॥
को न सेवत देत संपति लोकहू यह रीति।
दासतुलसी दीनपर एक राम ही की प्रीति॥ ५॥

मूल

हरि तजि और भजिये काहि?
नाहिनै कोउ राम सो ममता प्रनतपर जाहि॥ १॥
कनककसिपु बिरंचिको जन करम मन अरु बात।
सुतहिं दुखवत बिधि न बरज्यो कालके घर जात॥ २॥
संभु-सेवक जान जग, बहु बार दिये दस सीस।
करत राम-बिरोध सो सपनेहु न हटक्यो ईस॥ ३॥
और देवनकी कहा कहौं, स्वारथहिके मीत।
कबहु काहु न राख लियो कोउ सरन गयउ सभीत॥ ४॥
को न सेवत देत संपति लोकहू यह रीति।
दासतुलसी दीनपर एक राम ही की प्रीति॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—भगवान् श्रीहरिको छोड़कर और किसका भजन करें? श्रीरघुनाथजीके समान ऐसा कोई भी नहीं है जिसकी दीन शरणागतोंपर ममता हो॥ १॥ (प्रमाण सुनिये) हिरण्यकशिपु ब्रह्माजीका कर्म, मन और वचनसे भक्त था, किन्तु ब्रह्माने (उसके कालको जानते हुए भी) उसे पुत्र (प्रह्लाद) को ताड़ना देते समय नहीं रोका (और फलस्वरूप) वह यमलोक चला गया। (यदि वे पहलेसे उसे रोक देते तो बेचारा क्यों मरता?)॥ २॥ संसार जानता है कि रावण शिवजीका भक्त था और उसने कई बार अपने सिर काट-काटकर शिवजीको अर्पित किये थे, किन्तु जब वह श्रीरघुनाथजीके साथ वैर करने लगा तब आपने उसे स्वप्नमें भी न रोका (यह जानते थे कि श्रीरामजीके साथ वैर करनेसे यह मारा जायगा)॥ ३॥ जब ब्रह्माजी और शिवजीका यह हाल है तब) और देवताओंकी तो बात ही क्या कही जाय? वे तो स्वार्थके मित्र हैं ही। उनमेंसे किसीने भी कभी भयभीत शरणागतकी रक्षा नहीं की॥ ४॥ सेवा करनेसे कौन धन नहीं देता है? (सभी देते हैं।) यह तो दुनियाकी चाल ही है। किन्तु हे तुलसीदास! दीनोंपर तो एक श्रीरघुनाथजीका ही स्नेह है। (वे बिना ही सेवा किये केवल शरण होते ही अपना लेते हैं, देवताओंकी भाँति सर्वांगपूर्ण अनुष्ठानकी अपेक्षा नहीं करते)॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(२१७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो पै दूसरो कोउ होइ।
तौ हौं बारहि बार प्रभु कत दुख सुनावौं रोइ॥ १॥
काहि ममता दीनपर, काको पतितपावन नाम।
पापमूल अजामिलहि केहि दियो अपनो धाम॥ २॥
रहे संभु बिरंचि सुरपति लोकपाल अनेक।
सोक-सरि बूड़त करीसहि दई काहु न टेक॥ ३॥
बिपुल-भूपति-सदसि महँ नर-नारि कह्यो ‘प्रभु पाहि’।
सकल समरथ रहे, काहु न बसन दीन्हों ताहि॥ ४॥
एक मुख क्यों कहौं करुनासिंधुके गुन-गाथ?
भक्तहित धरि देह काह न कियो कोसलनाथ!॥ ५॥
आपसे कहुँ सौंपिये मोहि जो पै अतिहि घिनात।
दासतुलसी और बिधि क्यों चरन परिहरि जात॥ ६॥

मूल

जो पै दूसरो कोउ होइ।
तौ हौं बारहि बार प्रभु कत दुख सुनावौं रोइ॥ १॥
काहि ममता दीनपर, काको पतितपावन नाम।
पापमूल अजामिलहि केहि दियो अपनो धाम॥ २॥
रहे संभु बिरंचि सुरपति लोकपाल अनेक।
सोक-सरि बूड़त करीसहि दई काहु न टेक॥ ३॥
बिपुल-भूपति-सदसि महँ नर-नारि कह्यो ‘प्रभु पाहि’।
सकल समरथ रहे, काहु न बसन दीन्हों ताहि॥ ४॥
एक मुख क्यों कहौं करुनासिंधुके गुन-गाथ?
भक्तहित धरि देह काह न कियो कोसलनाथ!॥ ५॥
आपसे कहुँ सौंपिये मोहि जो पै अतिहि घिनात।
दासतुलसी और बिधि क्यों चरन परिहरि जात॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! यदि कोई दूसरा (मुझे शरणमें रखनेवाला) होता, तो मैं बार-बार रोकर अपना दुःख आपको ही क्यों सुनाता?॥ १॥ (आपको छोड़कर) दीनोंपर किसकी ममता है, पतितपावन किसका नाम है? और महापापी अजामिलको (पुत्रके धोखेसे आपका नारायण नाम लेनेपर) किसने अपना परम धाम दे दिया? (ऐसे एक आप ही हैं और कोई नहीं है)॥ २॥ शिव, ब्रह्मा, इन्द्र आदि अनेक लोकपाल थे; पर शोकरूपी नदीमें डूबते हुए गजराजको किसीने भी नहीं बचाया (आपहीको गरुड़ छोड़कर दौड़ना पड़ा)॥ ३॥ जब बहुत-से राजाओंकी सभामें (नरके अवतार) अर्जुनकी स्त्री द्रौपदीने (दुःशासनद्वारा सताये जानेपर) कहा कि ‘हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिये’—उस समय वहाँ सभी समर्थ थे, पर किसीने उसे वस्त्र नहीं दिया (आपने ही वस्त्रावतार धारण कर उस अबलाकी लाज रखी)॥ ४॥ करुणासागर! आप करुणा-समुद्रके करुणापूर्ण गुणोंकी कथाएँ एक मुँहसे कैसे कहूँ! हे कोसलाधीश! आपने भक्तोंके लिये अवतार धारण कर क्या-क्या नहीं किया? (भक्तोंके हितके लिये सभी कुछ किया)॥ ५॥ यदि आप मुझसे बहुत ही घिनाते हैं, तो मुझे किसी ऐसेके हाथ सौंप दीजिये जो आपके ही समान हो, (नहीं तो) यह तुलसीदास और किसी तरह भी आपके चरणोंको छोड़कर क्यों जाने लगा? भाव यह कि मैं तो आपहीके चरणोंकी शरणमें रहूँगा॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(२१८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबहिं देखाइहौ हरि चरन।
समन सकल कलेस कलि-मल, सकल मंगल-करन॥ १॥
सरद-भव सुंदर तरुनतर अरुन-बारिज-बरन।
लच्छि-लालित-ललित करतल छबि अनूपम धरन॥ २॥
गंग-जनक अनंग-अरि-प्रिय कपट-बटु बलि-छरन।
बिप्रतिय नृग बधिकके दुख-दोस दारुन दरन॥ ३॥
सिद्ध-सुर-मुनि-बृंद-बंदित सुखद सब कहँ सरन।
सकृत उर आनत जिनहिं जन होत तारन-तरन॥ ४॥
कृपासिंधु सुजान रघुबर प्रनत-आरति-हरन।
दरस-आस-पियास तुलसीदास चाहत मरन॥ ५॥

मूल

कबहिं देखाइहौ हरि चरन।
समन सकल कलेस कलि-मल, सकल मंगल-करन॥ १॥
सरद-भव सुंदर तरुनतर अरुन-बारिज-बरन।
लच्छि-लालित-ललित करतल छबि अनूपम धरन॥ २॥
गंग-जनक अनंग-अरि-प्रिय कपट-बटु बलि-छरन।
बिप्रतिय नृग बधिकके दुख-दोस दारुन दरन॥ ३॥
सिद्ध-सुर-मुनि-बृंद-बंदित सुखद सब कहँ सरन।
सकृत उर आनत जिनहिं जन होत तारन-तरन॥ ४॥
कृपासिंधु सुजान रघुबर प्रनत-आरति-हरन।
दरस-आस-पियास तुलसीदास चाहत मरन॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे हरे! क्या कभी आप अपने उस पवित्र चरणोंका दर्शन करायेंगे जो समस्त क्लेशों और कलियुगके सभी पापोंके नाश करनेवाले और सम्पूर्ण कल्याणके कारण हैं?॥ १॥ जिन (चरणों)-का रंग शरद् ऋतुमें उत्पन्न, सुन्दर और तुरंतके खिले हुए लाल-लाल कमलोंके समान है, जिन्हें श्रीलक्ष्मीजी अपनी सुन्दर हथेलियोंसे दबाया करती हैं, और जो अतुलनीय शोभामय हैं॥ २॥ जो गंगाके पिता हैं (जिन चरणोंसे गंगाकी उत्पत्ति हुई है), कामदेवको भस्म करनेवाले शिवजीके प्यारे हैं, तथा जिन्होंने कपट-ब्रह्मचारीका रूप धारण कर राजा बलिको छला है, जिन्होंने (गौतम) ब्राह्मणकी स्त्री अहल्याको और राजा नृगको (शापसे छुड़ाकर परम सुख दिया) और हिंसक निषादके सारे दुःख और घोर पाप दूर कर दिये॥ ३॥ सिद्ध, देवता और मुनियोंके समूह जिनकी सदा वन्दना किया करते हैं; जो सभीको सुख और शरण देनेवाले हैं; एक बार भी जिनका हृदयमें ध्यान करनेसे भक्त स्वयं तर जाता है तथा दूसरोंको तारनेवाला बन जाता है॥ ४॥ हे कृपासागर सुचतुर रघुनाथजी! आप शरणागतोंके दुःख दूर करनेवाले हैं। यह तुलसीदास अब आपके उन चरणोंके दर्शनकी आशारूपी प्यासके मारे मर रहा है। (शीघ्र ही अपने चरण-कमल दिखाकर इसकी रक्षा कीजिये)॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(२१९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वार हौं भोर ही को आजु।
रटत रिरिहा आरि और न, कौर ही तें काजु॥ १॥
कलि कराल दुकाल दारुन, सब कुभाँति कुसाजु।
नीच जन, मन ऊँच, जैसी कोढ़मेंकी खाजु॥ २॥
हहरि हियमें सदय बूझ्यो जाइ साधु-समाजु।
मोहुसे कहुँ कतहुँ कोउ, तिन्ह कह्यो कोसलराजु॥ ३॥
दीनता-दारिद दलै को कृपाबारिधि बाजु।
दानि दसरथरायके, तू बानइत सिरताजु॥ ४॥
जनमको भूखो भिखारी हौं गरीबनिवाजु।
पेट भरि तुलसिहि जेंवाइय भगति-सुधा सुनाजु॥ ५॥

मूल

द्वार हौं भोर ही को आजु।
रटत रिरिहा आरि और न, कौर ही तें काजु॥ १॥
कलि कराल दुकाल दारुन, सब कुभाँति कुसाजु।
नीच जन, मन ऊँच, जैसी कोढ़मेंकी खाजु॥ २॥
हहरि हियमें सदय बूझ्यो जाइ साधु-समाजु।
मोहुसे कहुँ कतहुँ कोउ, तिन्ह कह्यो कोसलराजु॥ ३॥
दीनता-दारिद दलै को कृपाबारिधि बाजु।
दानि दसरथरायके, तू बानइत सिरताजु॥ ४॥
जनमको भूखो भिखारी हौं गरीबनिवाजु।
पेट भरि तुलसिहि जेंवाइय भगति-सुधा सुनाजु॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे भगवन्! आज सबेरेसे ही मैं आपके दरवाजेपर अड़ा बैठा हूँ। रें-रें करके रट रहा हूँ, गिड़गिड़ाकर माँग रहा हूँ, मुझे और कुछ नहीं चाहिये। बस, एक कौर टुकड़ेसे ही काम बन जायगा। (जरा-सी कृपा-दृष्टिसे ही मैं पूर्णकाम हो जाऊँगा)॥ १॥ (यदि आप यह कहें कि कोई उद्यम क्यों नहीं करता? गिड़गिड़ाकर भीख क्यों माँगता है, तो इसका उत्तर यही है कि) इस भयंकर कलियुगमें (उत्तम साधनरूपी उद्यमका) बड़ा ही दारुण दुर्भिक्ष पड़ गया है, जितने उद्यम और उपाय-साधन हैं, सभी बुरे हैं। कोई-सा भी निर्विघ्न पूरा नहीं होता, इससे आपसे भीख माँगना ही मैंने उचित समझा है। (कलियुगी) मनुष्योंकी करतूत तो नीच है (दिन-रात विषयोंके लिये ही पापमें रत रहते हैं) और उनका मन ऊँचा है (चाहते हैं सच्चा सुख मिले, परन्तु सच्चा मोक्षरूप सुख बिना भगवत्कृपा हुए मिलता नहीं), जैसी कि कोढ़की खाज (जिसे खुजलाते समय सुख मिलता है, पर पीछे मवाद निकलनेपर जलन पैदा हो जाती है उसीके समान इन्द्रियोंके साथ विषयका संयोग होनेपर आरम्भमें तो सुख भासता है, परन्तु परिणाममें महादुःख होता है। इसलिये विषय केवल दुःखदायी ही हैं, इसी बातको समझकर मैंने किसी भी उद्यममें मन नहीं लगाया)॥ २॥ मैंने हृदयमें डरकर कृपालु संत-समाजसे पूछा कि कहिये, मुझ-सरीखे (उद्यमहीनको) भी कोई शरणमें लेगा? संतोंने (एक स्वरसे) यही उत्तर दिया कि एक कोसलपति महाराज श्रीरामचन्द्रजी ही (ऐसोंको शरणमें) रख सकते हैं॥ ३॥ हे कृपाके समुद्र! आपको छोड़कर दीनता और दरिद्रताका नाश कौन कर सकता है? हे दशरथनन्दन! दानियोंका बाना रखनेवालोंमें आप श्रेष्ठ हैं॥ ४॥ हे गरीबनिवाज! मैं जन्मका भूखा गरीब भिखमंगा हूँ। बस, अब इस तुलसीको भक्तिरूपी अमृतके समान सुन्दर भोजन पेटभर खिला दीजिये (अपने चरणोंमें ऐसी भक्ति दे दीजिये कि फिर दूसरी कोई कामना ही न रह जाय)॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(२२०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

करिय सँभार, कोसलराय!
और ठौर न और गति, अवलंब नाम बिहाय॥ १॥
बूझि अपनी आपनो हितु आप बाप न माय।
राम! राउर नाम गुर, सुर, स्वामि, सखा, सहाय॥ २॥
रामराज न चले मानस-मलिनके छल छाय।
कोप तेहि कलिकाल कायर मुएहि घालत घाय॥ ३॥
लेत केहरिको बयर ज्यों भेक हनि गोमाय।
त्योंहि राम-गुलाम जानि निकाम देत कुदाय॥ ४॥
अकनि याके कपट-करतब, अमित अनय-अपाय।
सुखी हरिपुर बसत होत परीछितहि पछिताय॥ ५॥
कृपासिंधु! बिलोकिये, जन-मनकी साँसति साय।
सरन आयो, देव! दीनदयालु! देखन पाय॥ ६॥
निकट बोलि न बरजिये, बलि जाउँ, हनिय न हाय।
देखिहैं हनुमान गोमुख नाहरनिके न्याय॥ ७॥
अरुन मुख, भ्रू बिकट, पिंगल नयन रोष-कषाय।
बीर सुमिरि समीरको घटिहै चपल चित चाय॥ ८॥
बिनय सुनि बिहँसे अनुजसों बचनके कहि भाय।
‘भली कही’ कह्यो लषन हूँ हँसि, बने सकल बनाय॥ ९॥
दई दीनहिं दादि, सो सुनि सुजन-सदन बधाय।
मिटे संकट-सोच, पोच-प्रपंच, पाप-निकाय॥ १०॥
पेखि प्रीति-प्रतीति जनपर अगुन अनघ अमाय।
दासतुलसी कहत मुनिगन, ‘जयति जय उरुगाय’॥ ११॥

मूल

करिय सँभार, कोसलराय!
और ठौर न और गति, अवलंब नाम बिहाय॥ १॥
बूझि अपनी आपनो हितु आप बाप न माय।
राम! राउर नाम गुर, सुर, स्वामि, सखा, सहाय॥ २॥
रामराज न चले मानस-मलिनके छल छाय।
कोप तेहि कलिकाल कायर मुएहि घालत घाय॥ ३॥
लेत केहरिको बयर ज्यों भेक हनि गोमाय।
त्योंहि राम-गुलाम जानि निकाम देत कुदाय॥ ४॥
अकनि याके कपट-करतब, अमित अनय-अपाय।
सुखी हरिपुर बसत होत परीछितहि पछिताय॥ ५॥
कृपासिंधु! बिलोकिये, जन-मनकी साँसति साय।
सरन आयो, देव! दीनदयालु! देखन पाय॥ ६॥
निकट बोलि न बरजिये, बलि जाउँ, हनिय न हाय।
देखिहैं हनुमान गोमुख नाहरनिके न्याय॥ ७॥
अरुन मुख, भ्रू बिकट, पिंगल नयन रोष-कषाय।
बीर सुमिरि समीरको घटिहै चपल चित चाय॥ ८॥
बिनय सुनि बिहँसे अनुजसों बचनके कहि भाय।
‘भली कही’ कह्यो लषन हूँ हँसि, बने सकल बनाय॥ ९॥
दई दीनहिं दादि, सो सुनि सुजन-सदन बधाय।
मिटे संकट-सोच, पोच-प्रपंच, पाप-निकाय॥ १०॥
पेखि प्रीति-प्रतीति जनपर अगुन अनघ अमाय।
दासतुलसी कहत मुनिगन, ‘जयति जय उरुगाय’॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे कोसलराज! मेरी रक्षा कीजिये। आपके नामको छोड़कर मुझे न तो कहीं और ठौर-ठिकाना है, और न किसीका सहारा ही है (मेरी तो बस, आपके नामतक ही दौड़ है)॥ १॥ आप स्वयं समझ-बूझकर अपने सेवकोंका ऐसा कल्याण कर देते हैं, जैसा (सगे) माता-पिता भी नहीं करते (माता-पिता भी मोक्षसुख नहीं दे सकते।) हे श्रीरामजी! आपका नाम ही मेरा गुरु, देवता, स्वामी, मित्र और सहायक है॥ २॥ हे नाथ! आपके ‘रामराज्य’ में मलिन मनवाले (कलिकाल)-के कपटकी छाया भी नहीं पड़ सकती; किन्तु यह कायर कलिकाल उसी क्रोधके कारण मुझ मरे हुएको भी अपनी चोटोंसे घायल कर रहा है। (इसे इतना भी तो भय नहीं कि मैं ‘रामराज्य’ में बस रहा हूँ)॥ ३॥ जैसे गीदड़ मेढकको मारकर सिंहके वैरका बदला लेना चाहता है, वैसे ही यह मुझे आपका दास जानकर मुझपर गहरी चोट कर रहा है (दुःख तो इसको आपसे है, क्योंकि जिसका मन आपके राज्यमें बसता है, उसमें यह प्रवेश नहीं कर पाता; परन्तु आपपर तो इसका जोर चलता नहीं, मुझ-सरीखे क्षुद्र दासको सता रहा है)॥ ४॥ भगवान् के परमधाममें आनन्दपूर्वक निवास करनेवाले महाराज परीक्षित् के मनमें भी इसकी कपटभरी करतूतों, असंख्य अनीतियों और (साधुओंके मार्गमें डाले गये) अनेक विघ्न-बाधाओंको सुनकर पछतावा हो रहा है (इसीलिये कि इसे पकड़कर हमने क्यों जीता छोड़ दिया?)॥ ५॥ हे कृपासागर! तनिक कृपादृष्टि कीजिये, जिससे इस दासके मनकी पीड़ा शान्त हो जाय। हे दीनदयालो! हे देव! मैं आपके चरणोंका दर्शन करनेके लिये आपकी शरण आया हूँ॥ ६॥ यदि आप (दयावश) उस (कलियुग)-को पास बुलाकर रोकना नहीं चाहते, या उसकी ‘हाय-हाय’ की पुकार सुनकर उसे मारना नहीं चाहते, तो मैं आपकी बलैया लेता हूँ (आप तनिक हनुमान् जी को ही संकेत कर दीजिये, आपका इशारा पाकर) वे इसकी ओर वैसे ही देखेंगे, जैसे सिंह गायके मुखकी ओर देखता है॥ ७॥ (इस प्रकार कलियुगकी कुटिल करनीके कारण) जब हनुमान् जी लाल मुँह, टेढ़ी भौंहें और पीली आँखोंको क्रोधसे लाल कर लेंगे, तब पवनकुमार वीरवर हनुमान् जी का स्मरण कर इस चंचल चित्तवाले (कलि)-का सारा चाव चम्पत हो जायगा (वह अपनी सारी शक्ति भूल जायगा)॥ ८॥ मेरी यह विनती सुनकर श्रीरघुनाथजी मुसकराये और अपने छोटे भाई लक्ष्मणको इन बातोंका तात्पर्य समझाये (कि देखो, तुलसी कैसा चतुर है!) लक्ष्मणजीने हँसकर कहा कि ठीक ही तो कहता है। बस, इस प्रकार मेरी सारी बात बन गयी॥ ९॥ भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने इस गरीबका न्याय कर दिया। यह सुनकर संतोंके घर बधाई बजने लगी। दुःख, चिन्ता, छल-कपट और पापके समूह सब नष्ट हो गये॥ १०॥ निर्गुण (श्रीरामजीकी) अपने दासपर ऐसी अलौकिक (त्रिगुणमयी लौकिक प्रीति नहीं) पवित्र और मायारहित प्रेम और विश्वास देखकर, हे तुलसीदास! मुनिलोग कहने लगे कि ‘विपुल कीर्तिवाले भगवान् की जय हो, जय हो’॥ ११॥

विषय (हिन्दी)

(२२१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ! कृपाहीको पंथ चितवत दीन हौं दिनराति।
होइ धौं केहि काल दीनदयालु! जानि न जाति॥ १॥
सुगुन, ग्यान-बिराग-भगति, सु-साधननिकी पाँति।
भजे बिकल बिलोकि कलि अघ-अवगुननिकी थाति॥ २॥
अति अनीति-कुरीति भइ भुइँ तरनि हू ते ताति।
जाउँ कहँ? बलि जाउँ, कहूँ न ठाउँ मति अकुलाति॥ ३॥
आप सहित न आपनो कोउ, बाप! कठिन कुभाँति।
स्यामघन! सींचिये तुलसी, सालि सफल सुखाति॥ ४॥

मूल

नाथ! कृपाहीको पंथ चितवत दीन हौं दिनराति।
होइ धौं केहि काल दीनदयालु! जानि न जाति॥ १॥
सुगुन, ग्यान-बिराग-भगति, सु-साधननिकी पाँति।
भजे बिकल बिलोकि कलि अघ-अवगुननिकी थाति॥ २॥
अति अनीति-कुरीति भइ भुइँ तरनि हू ते ताति।
जाउँ कहँ? बलि जाउँ, कहूँ न ठाउँ मति अकुलाति॥ ३॥
आप सहित न आपनो कोउ, बाप! कठिन कुभाँति।
स्यामघन! सींचिये तुलसी, सालि सफल सुखाति॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! मैं दीन दिन-रात आपकी कृपाकी ही बाट देखता रहता हूँ। हे दीनदयालो! पता नहीं, आपकी वह कृपा मुझपर कब होगी?॥ १॥ (दैवी सम्पदाके) सद्‍गुण, ज्ञान, वैराग्य और भक्ति आदि सुन्दर साधनोंके समूह कलियुगको देखते ही व्याकुल होकर भाग गये। रह गये पापों और दुर्गुणोंके समूह॥ २॥ बड़े-बड़े अन्यायों और अनाचारोंसे पृथ्वी सूर्यसे भी अधिक गरम हो गयी है (यहाँ सिवा जलनेके शान्तिका कोई साधन ही नहीं रहा) अब मैं कहाँ जाऊँ? मैं आपकी बलैया ले रहा हूँ। मुझे और कहीं ठौर-ठिकाना नहीं है। मेरी बुद्धि बड़ी ही व्याकुल हो रही है॥ ३॥ हे बापजी! इस अपनी देहके सहित कोई भी अपना नहीं है (किसका सहारा लूँ)। सभी कठोर दुराचारी दिखायी देते हैं। हे घनश्याम! यह तुलसीरूपी फूली-फली धानकी खेती सूखी जा रही है, अब भी मेघ बनकर (कृपा-जलकी वर्षासे) इसे सींच दीजिये॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२२२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलि जाउँ, और कासों कहौं?
सदगुनसिंधु स्वामि सेवक-हित कहुँ न कृपानिधि-सो लहौं॥ १॥
जहँ जहँ लोभ लोल लालचबस निजहित चित चाहनि चहौं।
तहँ तहँ तरनि तकत उलूक ज्यों भटकि कुतरु-कोटर गहौं॥ २॥
काल-सुभाउ-करम बिचित्र फलदायक सुनि सिर धुनि रहौं।
मोको तौ सकल सदा एकहि रस दुसह दाह दारुन दहौं॥ ३॥
उचित अनाथ होइ दुखभाजन भयो नाथ! किंकर न हौं।
अब रावरो कहाइ न बूझिये, सरनपाल! साँसति सहौं॥ ४॥
महाराज! राजीवबिलोचन! मगन-पाप-संताप हौं।
तुलसी प्रभु! जब तब जेहि तेहि बिधि राम निबाहे निरबहौं॥ ५॥

मूल

बलि जाउँ, और कासों कहौं?
सदगुनसिंधु स्वामि सेवक-हित कहुँ न कृपानिधि-सो लहौं॥ १॥
जहँ जहँ लोभ लोल लालचबस निजहित चित चाहनि चहौं।
तहँ तहँ तरनि तकत उलूक ज्यों भटकि कुतरु-कोटर गहौं॥ २॥
काल-सुभाउ-करम बिचित्र फलदायक सुनि सिर धुनि रहौं।
मोको तौ सकल सदा एकहि रस दुसह दाह दारुन दहौं॥ ३॥
उचित अनाथ होइ दुखभाजन भयो नाथ! किंकर न हौं।
अब रावरो कहाइ न बूझिये, सरनपाल! साँसति सहौं॥ ४॥
महाराज! राजीवबिलोचन! मगन-पाप-संताप हौं।
तुलसी प्रभु! जब तब जेहि तेहि बिधि राम निबाहे निरबहौं॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—प्रभो! बलिहारी! (मैं अपने दुःख) और किसे सुनाऊँ? आपके सदृश सद्‍गुणोंका समुद्र, सेवकोंका कल्याण करनेवाला और कृपानिधान स्वामी अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलता॥ १॥ जहाँ-जहाँ लोभ और लालचवश चंचल चित्तमें अपने कल्याणकी कामना करता हूँ, वहाँ-वहाँसे मैं इस तरह निराश हो लौट आता हूँ, जैसे सूर्यको देखते ही उल्लू भटकता हुआ आकर वृक्षके कोटरमें घुस जाता है। (जहाँ जिसके पास जाता हूँ, वहीं दुःखकी आग तैयार मिलती है)॥ २॥ जब यह सुनता हूँ कि काल, स्वभाव और कर्म विचित्र फल देनेवाले हैं, तब सिर धुन-धुनकर रह जाता हूँ, क्योंकि मेरे लिये तो ये तीनों सदा एक-से ही हैं, मैं तो सदा ही दुःसह और दारुण दाहसे जला करता हूँ॥ ३॥ हे नाथ! मैं अबतक अपनेको अनाथ समझकर दुःखोंका पात्र बन रहा था सो उचित ही था, क्योंकि मैं आपका दास नहीं बना था; किन्तु हे शरणागत-रक्षक! अब आपका दास कहाकर भी मैं दुःख भोग रहा हूँ, इसका कारण समझमें नहीं आ रहा है॥ ४॥ हे महाराज! हे कमलनेत्र! मैं पाप-सन्तापमें डूब रहा हूँ। हे प्रभो! तुलसीदासका तभी निर्वाह हो सकता है, जब आप ही जिस-किसी प्रकारसे उसका निर्वाह करेंगे॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(२२३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपनो कबहुँ करि जानिहौ।
राम गरीबनिवाज राजमनि, बिरद-लाज उर आनिहौ॥ १॥
सील-सिंधु, सुंदर, सब लायक, समरथ, सदगुन-खानि हौ।
पाल्यो है, पालत, पालहुगे प्रभु, प्रनत-प्रेम पहिचानिहौ॥ २॥
बेद-पुरान कहत, जग जानत, दीनदयालु दिन-दानि हौ।
कहि आवत, बलि जाऊँ, मनहुँ मेरी बार बिसारे बानि हौ॥ ३॥
आरत-दीन-अनाथनिके हित मानत लौकिक कानि हौ।
है परिनाम भलो तुलसीको सरनागत-भय-भानि हौ॥ ४॥

मूल

आपनो कबहुँ करि जानिहौ।
राम गरीबनिवाज राजमनि, बिरद-लाज उर आनिहौ॥ १॥
सील-सिंधु, सुंदर, सब लायक, समरथ, सदगुन-खानि हौ।
पाल्यो है, पालत, पालहुगे प्रभु, प्रनत-प्रेम पहिचानिहौ॥ २॥
बेद-पुरान कहत, जग जानत, दीनदयालु दिन-दानि हौ।
कहि आवत, बलि जाऊँ, मनहुँ मेरी बार बिसारे बानि हौ॥ ३॥
आरत-दीन-अनाथनिके हित मानत लौकिक कानि हौ।
है परिनाम भलो तुलसीको सरनागत-भय-भानि हौ॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! क्या कभी आप मुझे अपना समझेंगे? हे राम! आप गरीबनिवाज और राजाधिराज हैं। क्या आप कभी अपने विरदकी लाजका मनमें विचार करेंगे?॥ १॥ आप शीलके समुद्र हैं, सुन्दर हैं, सब कुछ करनेयोग्य हैं, समर्थ हैं और सभी सद्‍गुणोंकी खानि हैं। हे प्रभो! आपने शरणागतोंका पालन किया है, कर रहे हैं और करेंगे। क्या इस (तुच्छ) शरणागतका प्रेम भी पहिचानेंगे?॥ २॥ वेद और पुराण कह रहे हैं, तथा संसार भी जानता है कि आप दीनोंपर दया करनेवाले और प्रतिदिन उन्हें कल्याण-दान देनेवाले हैं। बाध्य होकर कहना ही पड़ता है, मैं आपकी बलैया लेता हूँ, आपने मानो मेरी बार अपनी आदतको ही भुला दिया है॥ ३॥ आप दीन, दुःखियों और अनाथोंके हितू होनेपर भी क्या संसारका (यह) भय मान रहे हैं? (कि ऐसे पापीको अपनानेसे कहीं कोई अन्यायी न कह दे।) जो कुछ भी हो, तुलसीदासका तो अन्तमें कल्याण ही होगा, क्योंकि आप शरणागतके भयको भंजन करनेवाले हैं॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२२४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

रघुबरहि कबहुँ मन लागिहै?
कुपथ, कुचाल, कुमति, कुमनोरथ, कुटिल कपट कब त्यागिहै॥ १॥
जानत गरल अमिय बिमोहबस, अमिय गनत करि आगिहै।
उलटी रीति-प्रीति अपनेकी तजि प्रभुपद अनुरागिहै॥ २॥
आखर अरथ मंजु मृदु मोदक राम-प्रेम-पगि पागिहै।
ऐसे गुन गाइ रिझाइ स्वामिसों पाइहै जो मुँह माँगिहै॥ ३॥
तु यहि बिधि सुख-सयन सोइहै, जियकी जरनि भूरि भागिहै।
राम-प्रसाद दासतुलसी उर राम-भगति-जोग जागिहै॥ ४॥

मूल

रघुबरहि कबहुँ मन लागिहै?
कुपथ, कुचाल, कुमति, कुमनोरथ, कुटिल कपट कब त्यागिहै॥ १॥
जानत गरल अमिय बिमोहबस, अमिय गनत करि आगिहै।
उलटी रीति-प्रीति अपनेकी तजि प्रभुपद अनुरागिहै॥ २॥
आखर अरथ मंजु मृदु मोदक राम-प्रेम-पगि पागिहै।
ऐसे गुन गाइ रिझाइ स्वामिसों पाइहै जो मुँह माँगिहै॥ ३॥
तु यहि बिधि सुख-सयन सोइहै, जियकी जरनि भूरि भागिहै।
राम-प्रसाद दासतुलसी उर राम-भगति-जोग जागिहै॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे मन! क्या कभी तू श्रीरघुनाथजीसे भी लगेगा? रे कुटिल! तू कुमार्ग, बुरी चाल, दुर्बुद्धि, बुरी कामनाएँ और छल-कपट कब छोड़ेगा?॥ १॥ तू बड़े भारी अज्ञानके वश होकर (विषयरूपी) विषको अमृत मान रहा है और (भगवान् के भजनरूपी) अमृतको आगके समान (दुःखदायी) समझ रहा है! अपनी इस उलटी रीति और विषयोंकी प्रीतिको त्याग कर तू श्रीरामजीके चरणोंमें कब प्रेम करेगा?॥ २॥ कब तू रामनामके सुन्दर अक्षर और कोमल अर्थरूपी लड्डुओंको श्रीरघुनाथजीके प्रेमरूपी चाशनीमें पागेगा? भाव यह कि क्या तू प्रेमपूरित हृदयसे कभी अर्थसहित श्रीराम-नामका जप करेगा? जो तू इस तरह अपने स्वामीके गुणोंको गा-गाकर उन्हें रिझा लेगा, तो तुझे मुँहमाँगा पदार्थ मिल जायगा॥ ३॥ इस प्रकार करनेसे तू (मोक्षकी) सुख-सेजपर सदाके लिये सो जायगा और तेरे मनकी (अविद्याजनित) बड़ी भारी जलन (आत्यन्तिक रूपसे) भाग जायगी। हे तुलसीदास! श्रीरामजीकी कृपासे तेरे हृदयमें श्रीरामजीका प्रेमरूप भक्तियोग सिद्ध हो जायगा॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२२५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरोसो और आइहै उर ताके।
कै कहुँ लहै जो रामहि-सो साहिब, कै अपनो बल जाके॥ १॥
कै कलिकाल कराल न सूझत, मोह-मार-मद छाके।
कै सुनि स्वामि-सुभाउ न रह्यो चित, जो हित सब अँग थाके॥ २॥
हौं जानत भलिभाँति अपनपौ, प्रभु-सो सुन्यो न साके।
उपल, भील, खग, मृग, रजनीचर, भले भये करतब काके॥ ३॥
मोको भलो राम-नाम सुरतरु-सो, रामप्रसाद कृपालु कृपाके।
तुलसी सुखी निसोच राज ज्यों बालक माय-बबाके॥ ४॥

मूल

भरोसो और आइहै उर ताके।
कै कहुँ लहै जो रामहि-सो साहिब, कै अपनो बल जाके॥ १॥
कै कलिकाल कराल न सूझत, मोह-मार-मद छाके।
कै सुनि स्वामि-सुभाउ न रह्यो चित, जो हित सब अँग थाके॥ २॥
हौं जानत भलिभाँति अपनपौ, प्रभु-सो सुन्यो न साके।
उपल, भील, खग, मृग, रजनीचर, भले भये करतब काके॥ ३॥
मोको भलो राम-नाम सुरतरु-सो, रामप्रसाद कृपालु कृपाके।
तुलसी सुखी निसोच राज ज्यों बालक माय-बबाके॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—उसीके मनमें किसी दूसरेका भरोसा होगा, जिसे या तो कहीं श्रीरामचन्द्रजीके समान कोई दूसरा मालिक मिल गया हो, या जिसके अपने साधन आदिका बल हो (मुझे न तो कोई ऐसा मालिक ही मिला है, और न किसी प्रकारका साधन-बल ही है)॥ १॥ अथवा जिसे अज्ञान, काम और अभिमानमें मतवाला हो जानके कारण कराल कलिकाल न सूझता हो अथवा जिसके चित्तपर सब प्रकारसे (साधन करके, और इधर-उधर भटककर) थके हुए लोगोंके हितकारी स्वामी रामचन्द्रजीका (दीन और शरणागतवत्सल) स्वभाव सुननेपर भी उसका स्मरण न रहा हो। (मुझे तो अपने स्वामीके दयालु स्वभावका सदा ध्यान बना रहता है)॥ २॥ मैं तो अपने (क्षुद्र) पुरुषार्थको भी भलीभाँति जानता हूँ, एवं मैंने श्रीरघुनाथजीके अतिरिक्त और किसी स्वामीकी ऐसी कीर्ति भी नहीं सुनी (जो इस तरह महापापी शरणागतोंको अपना लेता हो।) पत्थरकी (अहल्या), भील, पक्षी (जटायु), मृग (मारीच) और राक्षस (विभीषण) इन सबोंमें किसके कर्म शुभ थे? (किन्तु भगवान् ने इन सबका उद्धार कर दिया)॥ ३॥ मेरे लिये तो एक राम-नाम ही कल्पवृक्ष हो गया है, और वह कृपालु श्रीरामचन्द्रजीकी कृपासे हुआ है। (इसमें भी मेरा कोई पुरुषार्थ नहीं है)। अब तुलसी इस अनुग्रहके कारण ऐसा सुखी और निश्चिन्त है, जैसे कोई बालक अपने माता-पिताके राज्यमें होता है॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२२६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरोसो जाहि दूसरो सो करो।
मोको तो रामको नाम कलपतरु कलि कल्यान फरो॥ १॥
करम उपासन, ग्यान, बेदमत, सो सब भाँति खरो।
मोहि तो ‘सावनके अंधहि’ ज्यों सूझत रंग हरो॥ २॥
चाटत रह्यो स्वान पातरि ज्यों कबहुँ न पेट भरो।
सो हौं सुमिरत नाम-सुधारस पेखत परुसि धरो॥ ३॥
स्वारथ औ परमारथ हू को नहि कुंजरो-नरो।
सुनियत सेतु पयोधि पषाननि करि कपि कटक-तरो॥ ४॥
प्रीति-प्रतीति जहाँ जाकी, तहँ ताको काज सरो।
मेरे तो माय-बाप दोउ आखर, हौं सिसु-अरनि अरो॥ ५॥
संकर साखि जो राखि कहौं कछु तौ जरि जीह गरो।
अपनो भलो राम-नामहि ते तुलसिहि समुझि परो॥ ६॥

मूल

भरोसो जाहि दूसरो सो करो।
मोको तो रामको नाम कलपतरु कलि कल्यान फरो॥ १॥
करम उपासन, ग्यान, बेदमत, सो सब भाँति खरो।
मोहि तो ‘सावनके अंधहि’ ज्यों सूझत रंग हरो॥ २॥
चाटत रह्यो स्वान पातरि ज्यों कबहुँ न पेट भरो।
सो हौं सुमिरत नाम-सुधारस पेखत परुसि धरो॥ ३॥
स्वारथ औ परमारथ हू को नहि कुंजरो-नरो।
सुनियत सेतु पयोधि पषाननि करि कपि कटक-तरो॥ ४॥
प्रीति-प्रतीति जहाँ जाकी, तहँ ताको काज सरो।
मेरे तो माय-बाप दोउ आखर, हौं सिसु-अरनि अरो॥ ५॥
संकर साखि जो राखि कहौं कछु तौ जरि जीह गरो।
अपनो भलो राम-नामहि ते तुलसिहि समुझि परो॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिसे दूसरेका भरोसा हो, सो करे। मेरे लिये तो इस कलियुगमें एक राम-नाम ही कल्पवृक्ष है, जिसमें कल्याणरूपी फल फला है। भाव यह कि राम-नामसे ही मुझे तो यह भगवत् प्रेम प्राप्त हुआ है॥ १॥ यद्यपि कर्म, उपासना और ज्ञान—ये वैदिक सिद्धान्त सभी सब प्रकारसे सच्चे हैं, किन्तु मुझे तो, सावनके अन्धेकी भाँति, जहाँ देखता हूँ वहाँ हरा-ही-हरा रंग दीखता है। (एक राम-नाम ही सूझ रहा है)॥ २॥ मैं कुत्तेकी नाईं (अनेक जूँठी) पत्तलोंको चाटता फिरा, पर कभी मेरा पेट नहीं भरा। आज मैं नाम-स्मरण करनेसे अमृतरस परोसा हुआ देखता हूँ। (मैंने अनेक देवभोग्य भोग भोगे, परन्तु कहीं तृप्ति नहीं हुई। पूर्ण, नित्य परमानन्द कहीं नहीं मिला। अब श्रीराम-नामका स्मरण करते ही मैं देख रहा हूँ, कि मुक्तिका थाल मेरे सामने परोसा रखा है अर्थात् ब्रह्मानन्दरूप मोक्षपर तो मेरा अधिकार ही हो गया। परोसी थालीके पदार्थको जब चाहूँ तब खा लूँ, इसी प्रकार मोक्ष तो जब चाहूँ तभी मिल जाय। परन्तु मैं तो मुक्त पुरुषोंकी कामनाकी वस्तु श्रीराम-प्रेम-रसका पान कर रहा हूँ।)॥ ३॥ मेरे लिये राम-नाम स्वार्थ और परमार्थ दोनोंका ही साधक है, (मुक्तिरूपी स्वार्थ और भगवत्प्रेमरूपी परम अर्थ दोनों ही मुझे श्रीराम-नामसे मिल गये)। यह बात ‘हाथी है या मनुष्य’ की-सी दुविधा भरी नहीं है, (क्योंकि मुझे तो प्राप्त है)। मैंने सुना है कि इसी नामके प्रभावसे बंदरोंकी सेना पत्थरोंका पुल बनाकर समुद्रको पार कर गयी थी॥ ४॥ जहाँ जिसका प्रेम और विश्वास है, वहीं उसका काम पूरा हुआ है (इसी सिद्धान्तके अनुसार) मेरे तो माँ-बाप ये दोनों अक्षर—‘र’ और ‘म’—हैं। मैं तो इन्हींके आगे बालहठसे अड़ रहा हूँ, मचल रहा हूँ,॥ ५॥ यदि मैं कुछ भी छिपाकर कहता होऊँ तो भगवान् शिवजी साक्षी हैं, मेरी जीभ जलकर या गलकर गिर जाय। (यह ‘कवि-कल्पना’ या अत्युक्ति नहीं है, सच्ची स्थितिका वर्णन है) यही समझमें आया कि अपना कल्याण एक राम-नामसे ही हो सकता है॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(२२७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम राम रावरोई हित मेरे।
स्वारथ-परमारथ साथिन्ह सों भुज उठाइ कहौं टेरे॥ १॥
जननी-जनक तज्यो जनमि, करम बिनु बिधिहु सृज्यो अवडेरे।
मोहुँसो कोउ-कोउ कहत रामहि को, सो प्रसंग केहि केरे॥ २॥
फिरॺौ ललात बिनु नाम उदर लगि, दुखउ दुखित मोहि हेरे।
नाम-प्रसाद लहत रसाल-फल अब हौं बबुर बहेरे॥ ३॥
साधत साधु लोक-परलोकहि, सुनि गुनि जतन घनेरे।
तुलसीके अवलंब नामको, एक गाँठि कइ फेरे॥ ४॥

मूल

नाम राम रावरोई हित मेरे।
स्वारथ-परमारथ साथिन्ह सों भुज उठाइ कहौं टेरे॥ १॥
जननी-जनक तज्यो जनमि, करम बिनु बिधिहु सृज्यो अवडेरे।
मोहुँसो कोउ-कोउ कहत रामहि को, सो प्रसंग केहि केरे॥ २॥
फिरॺौ ललात बिनु नाम उदर लगि, दुखउ दुखित मोहि हेरे।
नाम-प्रसाद लहत रसाल-फल अब हौं बबुर बहेरे॥ ३॥
साधत साधु लोक-परलोकहि, सुनि गुनि जतन घनेरे।
तुलसीके अवलंब नामको, एक गाँठि कइ फेरे॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रामजी! आपका नाम ही मेरा तो कल्याण करनेवाला है। यह बात मैं हाथ उठाकर स्वार्थके और परमार्थके सभी संगी-साथियोंसे (परिवारके लोगोंसे और साधकोंसे) पुकारकर कहता हूँ (घोषणा कर रहा हूँ)॥ १॥ माता-पिताने तो मुझे उत्पन्न करके ही छोड़ दिया था, ब्रह्माने भी अभागा और कुछ बेढब-सा बनाया था। फिर भी कोई-कोई मुझे ‘रामका’ (दास) कहते हैं, यह किस अभिप्रायसे कहते हैं? (यह राम-नामका ही प्रताप है)॥ २॥ जब मैं राम-नामके शरण नहीं हुआ था तब मैं पेट भरनेको (द्वार-द्वारपर) ललचाता फिरता था। मेरी ओर देखकर दुःखको भी दुःख होता था (मेरी ऐसी बुरी दशा थी)। श्रीरामकी कृपासे पहले मेरे लिये जो बबूल और बहेड़ेके वृक्ष थे, उन्हीं पेड़ोंसे मुझे अब आमके फल मिल रहे हैं। (जहाँ जगत् दुःखोंसे भरा भासता था वहाँ आज सब ‘सीय-रामरूप’ दीखनेके कारण वही सुखमय हो गया है)॥ ३॥ संतजन तो (शास्त्रोंको) सुनकर और (उसके अनुसार) मननकर अनेक साधनोंसे अपना लोक और परलोक बना लेते हैं, परन्तु तुलसीके तो एक रामनामका ही अवलम्बन है। जैसे गाँठ तो एक ही होती है, लपेटे चाहे जितने हों (इसी प्रकार साधन चाहे जितने हों, सबका आधार तो एक राम-नाम ही है)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२२८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रिय रामनामतें जाहि न रामो।
ताको भलो कठिन कलिकालहुँ आदि-मध्य-परिनामो॥ १॥
सकुचत समुझि नाम-महिमा मद-लोभ-मोह-कोह-कामो।
राम-नाम-जप-निरत सुजन पर करत छाँह घोर धामो॥ २॥
नाम-प्रभाउ सही जो कहै कोउ सिला सरोरुह जामो।
जो सुनि सुमिरि भाग-भाजन भइ सुकृतसील भील-भामो॥ ३॥
बालमीकि-अजामिलके कछु हुतो न साधन सामो।
उलटे पलटे नाम-महातम गुंजनि जितो ललामो॥ ४॥
रामतें अधिक नाम-करतब, जेहि किये नगर-गत गामो।
भये बजाइ दाहिने जो जपि तुलसिदाससे बामो॥ ५॥

मूल

प्रिय रामनामतें जाहि न रामो।
ताको भलो कठिन कलिकालहुँ आदि-मध्य-परिनामो॥ १॥
सकुचत समुझि नाम-महिमा मद-लोभ-मोह-कोह-कामो।
राम-नाम-जप-निरत सुजन पर करत छाँह घोर धामो॥ २॥
नाम-प्रभाउ सही जो कहै कोउ सिला सरोरुह जामो।
जो सुनि सुमिरि भाग-भाजन भइ सुकृतसील भील-भामो॥ ३॥
बालमीकि-अजामिलके कछु हुतो न साधन सामो।
उलटे पलटे नाम-महातम गुंजनि जितो ललामो॥ ४॥
रामतें अधिक नाम-करतब, जेहि किये नगर-गत गामो।
भये बजाइ दाहिने जो जपि तुलसिदाससे बामो॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिसे श्रीरामजी भी राम-नामकी अपेक्षा अधिक प्यारे नहीं हैं (यदि कोई कहे कि तुम्हें राम मिल जायँगे, पर राम-नाम छोड़ना होगा, तो वह इस बातको भी स्वीकार नहीं करता; वह कहता है कि यदि श्रीरामके मिलनेसे राम-नाम छोड़ना पड़े तो मुझे श्रीरामके मिलनेकी आवश्यकता नहीं है। मुझे तो उनका नाम ही सदा चाहिये। ऐसे नाम-प्रेमीसे राम कितना प्रेम करते हैं, सो तो केवल राम ही जानते हैं, गोसाईंजी कहते हैं कि जो इस प्रकार राम-नामका मतवाला है) उसका इस कराल कलिकालमें, आदि, मध्य और अन्त, तीनों ही कालोंमें कल्याण होगा॥ १॥ नामकी महिमा समझकर अभिमान, लोभ, अज्ञान, क्रोध और काम सकुचा जाते हैं, सामने नहीं आते। जो सज्जन सदा राम-नामका जप करते रहते हैं, उनपर कड़ी धूप भी छाया कर देती है (महान्-से-महान् दुःख भी सुखरूप बन जाते हैं)॥ २॥ यदि कोई कहे कि नामके प्रभावसे पत्थरमें कमल उत्पन्न हो गया, तो उसे भी सच ही समझना चाहिये (क्योंकि राम-नामके प्रभावसे असम्भव भी सम्भव हो जाता है) जिस नामको सुनने और स्मरण करनेसे भीलनी शबरी भी परम भाग्यवती तथा शील और पुण्यमयी बन गयी (उससे क्या नहीं हो सकता?)॥ ३॥ वाल्मीकि और अजामिलके पास तो कोई भी साधनकी सामग्री नहीं थी, किन्तु उन्होंने भी उलटे-पुलटे राम-नामके माहात्म्यसे घुँघचियोंसे जवाहरात जीत लिये (परम रत्न परमात्माको प्राप्त कर लिया)॥ ४॥ नामकी शक्ति श्रीरघुनाथजीसे भी अधिक है, (क्योंकि श्रीरामजी इस नामसे ही वशमें होते हैं) इस राम-नामने ग्रामीण मनुष्योंको चतुर नागरिक बना दिया (असभ्योंको परम पुनीत महात्मा बना दिया)। जिसे जपकर तुलसीदास-सरीखे बुरे जीव भी डंकेकी चोट अच्छे हो गये (फिर कहनेको क्या रह गया?)॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(२२९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

गरैगी जीह जो कहौं औरको हौं।
जानकी-जीवन! जनम-जनम जग ज्यायो तिहारेहि कौरको हौं॥ १॥
तीनि लोक, तिहुँ काल न देखत सुहृद रावरे जोरको हौं।
तुमसों कपट करि कलप-कलप कृमि ह्वैहौं नरक घोरको हौं॥ २॥
कहा भयो जो मन मिलि कलिकालहिं कियो भौंतुवा भौंरको हौं।
तुलसिदास सीतल नित यहि बल, बड़े ठेकाने ठौरको हौं॥ ३॥

मूल

गरैगी जीह जो कहौं औरको हौं।
जानकी-जीवन! जनम-जनम जग ज्यायो तिहारेहि कौरको हौं॥ १॥
तीनि लोक, तिहुँ काल न देखत सुहृद रावरे जोरको हौं।
तुमसों कपट करि कलप-कलप कृमि ह्वैहौं नरक घोरको हौं॥ २॥
कहा भयो जो मन मिलि कलिकालहिं कियो भौंतुवा भौंरको हौं।
तुलसिदास सीतल नित यहि बल, बड़े ठेकाने ठौरको हौं॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि मैं कहूँ कि मैं रामजीको छोड़कर किसी दूसरेका हूँ, तो मेरी यह जीभ गल जाय। हे श्रीजानकी-जीवन! मैं तो इस संसारमें जन्म-जन्ममें आपके ही टुकड़ोंसे (जूठनसे) जी रहा हूँ॥ १॥ तीनों लोकोंमें तथा तीनों कालोंमें (पृथ्वी, पाताल और स्वर्गमें एवं भूत, वर्तमान और भविष्यत् में) आपकी बराबरीका सुहृद् (अहैतुक प्रेमी) दूसरा कहीं नहीं दिखायी दिया। यदि मैं आपके साथ कपट करता होऊँ, तो कल्प-कल्पान्तरतक घोर नरकका कीड़ा होऊँ॥ २॥ क्या हुआ, जो कलियुगने मिलकर मेरे मनको भँवरका भौंतुवा बना दिया? भाव यह कि जैसे भौंतुवा जलमें रहता हुआ भी जलके ऊपर ही तैरता रहता है, उसमें डूब नहीं सकता, वैसे ही कलिने यद्यपि मुझे भव-नदीमें डाल दिया है, तथापि मैं आपके प्रतापसे इस विषय-प्रवाहमें बहूँगा नहीं, ऊपर-ही-ऊपर तैरता रहूँगा। विषयोंका मुझपर कोई असर नहीं होगा। तुलसीदास इसी भरोसेपर सदा शान्त रहता है कि वह बड़े ठौर-ठिकानेका है (श्रीरामजीके दरबारका गुलाम है। कलियुग-सरीखे टुच्चे उसका क्या कर सकते हैं?॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(२३०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकारन को हितू और को है।
बिरद ‘गरीब-निवाज’ कौनको, भौंह जासु जन जोहै॥ १॥
छोटो-बड़ो चहत सब स्वारथ, जो बिरंचि बिरचो है।
कोल कुटिल, कपि-भालु पालिबो कौन कृपालुहि सोहै॥ २॥
काको नाम अनख आलस कहें अघ अवगुननि बिछोहै।
को तुलसीसे कुसेवक संग्रह्यो, सठ सब दिन साईं द्रोहै॥ ३॥

मूल

अकारन को हितू और को है।
बिरद ‘गरीब-निवाज’ कौनको, भौंह जासु जन जोहै॥ १॥
छोटो-बड़ो चहत सब स्वारथ, जो बिरंचि बिरचो है।
कोल कुटिल, कपि-भालु पालिबो कौन कृपालुहि सोहै॥ २॥
काको नाम अनख आलस कहें अघ अवगुननि बिछोहै।
को तुलसीसे कुसेवक संग्रह्यो, सठ सब दिन साईं द्रोहै॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—बिना ही कारण हित करनेवाला (श्रीरामचन्द्रजीको छोड़कर) दूसरा कौन है? गरीबोंको निहाल कर देनेका विरद किसका है कि जिसकी (कृपामयी) भृकुटीकी ओर भक्त ताका करते हैं॥ १॥ छोटे या बड़े जो भी ब्रह्माके रचे हुए हैं वे सभी अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं, (बिना स्वार्थके कोई किसीका हित नहीं करता)। भला भील, बंदर और रीछ आदिका पालन-पोषण करना (श्रीरामजीके सिवा) दूसरे किस कृपालु स्वामीको शोभा देता है?॥ २॥ ऐसा किसका नाम है जिसे आलस्य या क्रोधके साथ भी लेनेपर पाप और अवगुण दूर हो जाते हैं? (श्रीराम-नाम ही ऐसा है)। जिसने मूर्खतावश सदा अपने स्वामीसे द्रोह किया है, उस तुलसी-सरीखे नीच सेवकको भी अपना लिया (इससे अधिक अकारण हित करना और क्या होगा?)॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(२३१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

और मोहि को है, काहि कहिहौं?
रंक-राज ज्यों मनको मनोरथ, केहि सुनाइ सुख लहिहौं॥ १॥
जम-जातना, जोनि-संकट सब सहे दुसह अरु सहिहौं।
मोको अगम, सुगम तुमको प्रभु, तउ फल चारि न चहिहौं॥ २॥
खेलिबेको खग-मृग, तरु-कंकर ह्वै रावरो राम हौं रहिहौं।
यहि नाते नरकहुँ सचु या बिनु परमपदहुँ दुख दहिहौं॥ ३॥
इतनी जिय लालसा दासके, कहत पानही गहिहौं।
दीजै बचन कि हृदय आनिये ‘तुलसीको पन निर्बहिहौं’॥ ४॥

मूल

और मोहि को है, काहि कहिहौं?
रंक-राज ज्यों मनको मनोरथ, केहि सुनाइ सुख लहिहौं॥ १॥
जम-जातना, जोनि-संकट सब सहे दुसह अरु सहिहौं।
मोको अगम, सुगम तुमको प्रभु, तउ फल चारि न चहिहौं॥ २॥
खेलिबेको खग-मृग, तरु-कंकर ह्वै रावरो राम हौं रहिहौं।
यहि नाते नरकहुँ सचु या बिनु परमपदहुँ दुख दहिहौं॥ ३॥
इतनी जिय लालसा दासके, कहत पानही गहिहौं।
दीजै बचन कि हृदय आनिये ‘तुलसीको पन निर्बहिहौं’॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! मेरे दूसरा कौन है, मैं (अपने मनकी बात तुम्हें छोड़कर) और किससे कहूँगा? मेरे मनकी कामना रंकके राजा होने-जैसी है, (हूँ तो मैं निपट साधनहीन, पर चाहता हूँ मोक्षसे भी परेका परमात्म-प्रेमसुख। इस स्थितिमें तुम-सरीखे दयालुको छोड़कर अपना) वह मनोरथ किसे सुनाकर सुख प्राप्त करूँ? (दूसरा कौन मेरी बात सुनकर पूरी करेगा?)॥ १॥ यम-यातना अर्थात् नारकीय क्लेश एवं अनेक योनियोंमें दारुण दुःख सहे हैं और सहूँगा। (मुझे इसकी कुछ भी परवा नहीं है) हे प्रभो! मुझे अर्थ, धर्म, काम और मोक्षकी भी लालसा नहीं है; यद्यपि मेरे लिये ये दुर्लभ हैं, पर तुम चाहो तो इनको सहजमें ही दे सकते हो॥ २॥ हे रामजी! (मेरी मनोकामना तो कुछ दूसरी ही है) मैं तो तुम्हारे हाथके खिलौनेके रूपमें पक्षी, पशु, वृक्ष और कंकर-पत्थर होकर ही रहना चाहता हूँ। इस नातेसे मुझे (घोर) नरकमें भी सुख है और इसके बिना मैं मोक्ष प्राप्त करनेपर भी दुःखसे जलता रहूँगा (मोक्ष नहीं चाहिये; रखो चाहे नरकमें, परन्तु अपने हाथका खिलौना बनाकर रखो। वह खिलौना चाहे चेतन हो या जड़ पेड़-पत्थर हो, मुझे उसीमें परम सुख है)॥ ३॥ इस दासके मनमें बस एक यही कामना है कि यह सदा तुम्हारी जूती पकड़े रहे (शरणमें पड़ा रहे)। या तो मुझे वचन दे दो (कि हम तेरी यह कामना पूरी कर देंगे) अथवा इस बातको मनमें निश्चय कर लो कि हम तुलसीका यह प्रण निबाह देंगे॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२३२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीनबन्धु दूसरो कहँ पावों?
को तुम बिनु पर-पीर पाइ है? केहि दीनता सुनावों॥ १॥
प्रभु अकृपालु, कृपालु अलायक, जहँ-जहँ चितहिं डोलावों।
इहै समुझि सुनि रहौं मौन ही, कहि भ्रम कहा गवावों॥ २॥
गोपद बुड़िबे जोग करम करौं, बातनि जलधि थहावों।
अति लालची, काम-किंकर मन, मुख रावरो कहावों॥ ३॥
तुलसी प्रभु जियकी जानत सब, अपनो कछुक जनावों।
सो कीजै, जेहि भाँति छाँड़ि छल द्वार परो गुन गावों॥ ४॥

मूल

दीनबन्धु दूसरो कहँ पावों?
को तुम बिनु पर-पीर पाइ है? केहि दीनता सुनावों॥ १॥
प्रभु अकृपालु, कृपालु अलायक, जहँ-जहँ चितहिं डोलावों।
इहै समुझि सुनि रहौं मौन ही, कहि भ्रम कहा गवावों॥ २॥
गोपद बुड़िबे जोग करम करौं, बातनि जलधि थहावों।
अति लालची, काम-किंकर मन, मुख रावरो कहावों॥ ३॥
तुलसी प्रभु जियकी जानत सब, अपनो कछुक जनावों।
सो कीजै, जेहि भाँति छाँड़ि छल द्वार परो गुन गावों॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(तुम-सा) दीनबन्धु दूसरा कहाँ पाऊँगा? हे नाथ! तुमको छोड़कर पराये (भक्तके) दुःखसे दुःखी होनेवाला दूसरा कौन है? फिर अपनी दीनताका दुखड़ा किसके आगे रोता फिरूँ?॥ १॥ जहाँ-जहाँ मैं अपने मनको डुलाता हूँ, वहाँ-वहाँ कहीं तो ऐसे स्वामी मिलते हैं जिनके दया नहीं है, और कहीं ऐसे मिलते हैं जो दयालु तो हैं, पर अयोग्य (असमर्थ) हैं। यह सुन-समझकर चुप ही रह जाता हूँ, क्योंकि ऐसोंके सामने कुछ कहकर अपना भरम ही क्यों खोऊँ? (भेद भी खुल जायगा और कुछ होगा भी नहीं)॥ २॥ कर्म तो ऐसे नीच किया करता हूँ कि गायके खुरमें डूब जाऊँ (चुल्लूभर पानीमें डूब मरूँ), पर बातें बनाकर समुद्रकी थाह ले रहा हूँ। (कोरी कथनी-ही-कथनी है, करनी रत्तीभर भी नहीं है)। मेरा मन बड़ा ही लालची है और कामका गुलाम है, परन्तु मुखसे तुम्हारा दास बनता फिरता हूँ॥ ३॥ हे प्रभु! आप तुलसीके मनकी तो सभी (बुरी-भली) बातें जानते हैं, तो भी मैं अपनी कुछ बातें बतलाना चाहता हूँ। अब तो—कुछ ऐसा उपाय कीजिये जिससे कपट छोड़कर (शुद्ध हृदयसे) आपके द्वारपर पड़ा-पड़ा केवल आपके गुण ही गाया करूँ॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२३३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनोरथ मनको एकै भाँति।
चाहत मुनि-मन-अगम सुकृत-फल, मनसा अघ न अघाति॥ १॥
करमभूमि कलि जनम, कुसंगति, मति बिमोह-मद-माति।
करत कुजोग कोटि, क्यों पैयत परमारथ-पद सांति॥ २॥
सेइ साधु-गुरु, सुनि पुरान-श्रुति बूझ्यो राग बाजी ताँति।
तुलसी प्रभु सुभाउ सुरतरु-सो, ज्यों दरपन मुख-कांति॥ ३॥

मूल

मनोरथ मनको एकै भाँति।
चाहत मुनि-मन-अगम सुकृत-फल, मनसा अघ न अघाति॥ १॥
करमभूमि कलि जनम, कुसंगति, मति बिमोह-मद-माति।
करत कुजोग कोटि, क्यों पैयत परमारथ-पद सांति॥ २॥
सेइ साधु-गुरु, सुनि पुरान-श्रुति बूझ्यो राग बाजी ताँति।
तुलसी प्रभु सुभाउ सुरतरु-सो, ज्यों दरपन मुख-कांति॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मनका मनोरथ भी एक (विलक्षण) ही प्रकारका है। वह इच्छा तो करता है ऐसे पुण्योंके फलकी जो मुनियोंके मनको भी दुर्लभ है, किंतु पाप करनेसे उसकी इच्छा कभी पूरी नहीं होती (करूँ पाप और चाहूँ सर्वश्रेष्ठ पुण्यका फल, यह कैसे हो सकता है?)॥ १॥ कर्म-भूमि भारतवर्षमें होनेपर भी कलियुगमें जन्म, नीचोंकी संगति, अज्ञान तथा घमंडसे मतवाली बुद्धि एवं करोड़ों बुरे-बुरे कर्म—इन सबके कारण परम पद और शान्ति कैसे मिल सकती है?॥ २॥ संतों और गुरुकी सेवा करने तथा वेद और पुराणोंके सुननेसे परम शान्तिका ऐसा निश्चय हो जाता है जैसे सारंगी बजते ही राग पहचान लिया जाता है। हे तुलसी! प्रभु रामचन्द्रजीका स्वभाव तो अवश्य ही कल्पवृक्षके समान है (जो उनसे माँगा जाता है, वही मिल जाता है) किन्तु, साथ ही वह ऐसा है, जैसे दर्पणमें मुखका प्रतिविम्ब। (जिस प्रकार अच्छा या बुरा जैसा मुँह बनाकर दर्पणमें देखा जायगा, वह वैसा ही दिखायी देगा, इसी प्रकार भगवान् भी तुम्हारी भावनाके अनुसार ही फल देंगे)॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(२३४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनम गयो बादिहिं बर बीति।
परमारथ पाले न परॺो कछु, अनुदिन अधिक अनीति॥ १॥
खेलत खात लरिकपन गो चलि, जौबन जुवतिन लियो जीति।
रोग-बियोग-सोग-श्रम-संकुल बड़ि बय बृथहि अतीति॥ २॥
राग-रोष-इरिषा-बिमोह-बस रुची न साधु-समीति।
कहे न सुने गुनगन रघुबरके, भइ न रामपद-प्रीति॥ ३॥
हृदय दहत पछिताय-अनल अब, सुनत दुसह भवभीति।
तुलसी प्रभु तें होइ सो कीजिय समुझि बिरदकी रीति॥ ४॥

मूल

जनम गयो बादिहिं बर बीति।
परमारथ पाले न परॺो कछु, अनुदिन अधिक अनीति॥ १॥
खेलत खात लरिकपन गो चलि, जौबन जुवतिन लियो जीति।
रोग-बियोग-सोग-श्रम-संकुल बड़ि बय बृथहि अतीति॥ २॥
राग-रोष-इरिषा-बिमोह-बस रुची न साधु-समीति।
कहे न सुने गुनगन रघुबरके, भइ न रामपद-प्रीति॥ ३॥
हृदय दहत पछिताय-अनल अब, सुनत दुसह भवभीति।
तुलसी प्रभु तें होइ सो कीजिय समुझि बिरदकी रीति॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—सुन्दर (मनुष्य) जीवन व्यर्थ ही बीत गया। तनिक भी परमार्थ पल्ले नहीं पड़ा। दिनोंदिन अनीति बढ़ती ही गयी॥ १॥ लड़कपन तो खेलते-खाते बीत गया, जवानीको स्त्रियोंने जीत लिया और बुढ़ापा रोग, (स्त्री-पुत्रादिके) वियोग, शोक तथा परिश्रमसे परिपूर्ण होनेके कारण वृथा बीत गया॥ २॥ राग, क्रोध, ईर्ष्या और मोहके कारण संतोंकी सभा अच्छी नहीं लगी, और (सत्संगके अभावसे) न तो श्रीरघुनाथजीकी गुणावलीहीको कहा-सुना तथा न श्रीरामजीके चरणोंमें प्रेम ही हुआ॥ ३॥ असहनीय संसारके भयको सुनकर अब यह हृदय पश्चात्तापरूपी आगसे जला जा रहा है, अब इस तुलसीके लिये अपने विरदकी रीतिको सोच-समझकर जो कुछ भी प्रभुसे बन पड़े सो करें॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२३५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐसेहि जनम-समूह सिराने।
प्राननाथ रघुनाथ-से प्रभु तजि सेवत चरन बिराने॥ १॥
जे जड़ जीव कुटिल, कायर, खल, केवल कलिमल-साने।
सूखत बदन प्रसंसत तिन्ह कहँ, हरितें अधिक करि माने॥ २॥
सुख हित कोटि उपाय निरंतर करत न पायँ पिराने।
सदा मलीन पंथके जल ज्यों, कबहुँ न हृदय थिराने॥ ३॥
यह दीनता दूर करिबेको अमित जतन उर आने।
तुलसी चित-चिंता न मिटै बिनु चिंतामनि पहिचाने॥ ४॥

मूल

ऐसेहि जनम-समूह सिराने।
प्राननाथ रघुनाथ-से प्रभु तजि सेवत चरन बिराने॥ १॥
जे जड़ जीव कुटिल, कायर, खल, केवल कलिमल-साने।
सूखत बदन प्रसंसत तिन्ह कहँ, हरितें अधिक करि माने॥ २॥
सुख हित कोटि उपाय निरंतर करत न पायँ पिराने।
सदा मलीन पंथके जल ज्यों, कबहुँ न हृदय थिराने॥ ३॥
यह दीनता दूर करिबेको अमित जतन उर आने।
तुलसी चित-चिंता न मिटै बिनु चिंतामनि पहिचाने॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—इसी प्रकार अनेक जन्म (व्यर्थ) बीत गये। प्राणनाथ रघुनाथजी-सरीखे स्वामीको छोड़कर दूसरोंके चरणोंकी सेवा करता रहा!॥ १॥ जो मूर्ख जीव कुटिल, कायर और दुष्ट हैं तथा जो केवल कलिके पापोंसे सने हुए हैं, उनकी प्रशंसा करते-करते मुँह सूख गया है और उनको भगवान् से भी अधिक समझ रखा है॥ २॥ सुखके लिये निरन्तर करोड़ों उपाय करते-करते कभी पैर नहीं दुखे (दिन-रात विषय-भोगोंके सुखोंमें इधर-उधर भटकता फिरा)। हृदय रास्तेके जलकी भाँति सदा मैला ही बना रहा, कभी निर्मल अथवा स्थिर नहीं हुआ॥ ३॥ इस दीनताको दूर करनेके लिये अगणित उपाय मनमें सोचे, पर हे तुलसी! चिन्तामणि (श्रीरघुनाथजी)-को पहचाने बिना चित्तकी चिन्ता नहीं मिट सकती (परमात्माका और उनकी सुहृदताका ज्ञान होनेसे ही चिन्ताओंका नाश होगा)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२३६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो पै जिय जानकी-नाथ न जाने।
तौ सब करम-धरम श्रमदायक ऐसेइ कहत सयाने॥ १॥
जे सुर, सिद्ध, मुनीस, जोगबिद बेद-पुरान बखाने।
पूजा लेत, देत पलटे सुख हानि-लाभ अनुमाने॥ २॥
काको नाम धोखेहू सुमिरत पातकपुंज पराने।
बिप्र-बधिक, गज-गीध कोटि खल कौनके पेट समाने॥ ३॥
मेरु-से दोष दूरि करि जनके, रेनु-से गुन उर आने।
तुलसिदास तेहि सकल आस तजि भजहि न अजहुँ अयाने॥ ४॥

मूल

जो पै जिय जानकी-नाथ न जाने।
तौ सब करम-धरम श्रमदायक ऐसेइ कहत सयाने॥ १॥
जे सुर, सिद्ध, मुनीस, जोगबिद बेद-पुरान बखाने।
पूजा लेत, देत पलटे सुख हानि-लाभ अनुमाने॥ २॥
काको नाम धोखेहू सुमिरत पातकपुंज पराने।
बिप्र-बधिक, गज-गीध कोटि खल कौनके पेट समाने॥ ३॥
मेरु-से दोष दूरि करि जनके, रेनु-से गुन उर आने।
तुलसिदास तेहि सकल आस तजि भजहि न अजहुँ अयाने॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे जीव! यदि तूने जानकीनाथ श्रीरघुनाथजीको (तत्त्वसे) नहीं जाना तो तेरे सब कर्म, धर्म केवल परिश्रम ही देनेवाले हैं। (उनसे कोई असली लाभ नहीं होगा) बुद्धिमान् पुरुषोंने ऐसा ही कहा है। (श्रीरामचन्द्रजीको तत्त्वसे जान लेनेमें ही सारे कर्म-धर्मोंकी सिद्धि है)॥ १॥ वेद और पुराण कहते हैं कि जितने देवता, सिद्ध, मुनीश्वर और योगके ज्ञाता हैं वे सब पूजा लेकर उसके बदलेमें (नाशवान् सांसारिक विषय) सुख देते हैं और ऐसा भी वे अपनी हानि और लाभका विचार करके करते हैं॥ २॥ आपके सिवा (ऐसा) किसका नाम है जिसका धोखेसे भी स्मरण करनेसे पापोंके समूह नष्ट हो जाते हैं? अजामिल ब्राह्मण, वाल्मीकि व्याध, गजराज, जटायु गीध आदि करोड़ों दुष्ट किसके अंदर समा गये? (आपने ही उनको स्वीकार कर अपना परम धाम दे दिया)॥ ३॥ जो अपने सेवकोंके सुमेरु पहाड़के समान (बड़े-बड़े) अपराधोंको भुलाकर उनकी रजके कणके समान (जरा-जरा-से) गुणोंको हृदयमें रख लेते हैं, हे तुलसीदास! हे मूर्ख! सारी आशा छोड़कर तू उन्हींको क्यों नहीं भजता?॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(२३७)
काहे न रसना, रामहि गावहि?
निसिदिन पर-अपवाद बृथा कत रटि-रटि राग बढ़ावहि॥ १॥
नरमुख सुंदर मंदिर पावन बसि जनि ताहि लजावहि।
ससि समीप रहि त्यागि सुधा कत रबिकर-जल कहँ धावहि॥ २॥
काम-कथा कलि-कैरव-चंदिनि, सुनत श्रवन दै भावहि।
तिनहिं हटकि कहि हरि-कल-कीरति, करन कलंक नसावहि॥ ३॥
जातरूप मति, जुगुति रुचिर मनि रचि-रचि हार बनावहि।
सरन-सुखद रबिकुल-सरोज-रबि राम-नृपहि पहिरावहि॥ ४॥
बाद-बिबाद, स्वाद तजि भजि हरि, सरस चरित चित लावहि।
तुलसिदास भव तरहि, तिहूँ पुर तू पुनीत जस पावहि॥ ५॥

मूल

(२३७)
काहे न रसना, रामहि गावहि?
निसिदिन पर-अपवाद बृथा कत रटि-रटि राग बढ़ावहि॥ १॥
नरमुख सुंदर मंदिर पावन बसि जनि ताहि लजावहि।
ससि समीप रहि त्यागि सुधा कत रबिकर-जल कहँ धावहि॥ २॥
काम-कथा कलि-कैरव-चंदिनि, सुनत श्रवन दै भावहि।
तिनहिं हटकि कहि हरि-कल-कीरति, करन कलंक नसावहि॥ ३॥
जातरूप मति, जुगुति रुचिर मनि रचि-रचि हार बनावहि।
सरन-सुखद रबिकुल-सरोज-रबि राम-नृपहि पहिरावहि॥ ४॥
बाद-बिबाद, स्वाद तजि भजि हरि, सरस चरित चित लावहि।
तुलसिदास भव तरहि, तिहूँ पुर तू पुनीत जस पावहि॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरी जीभ! तू श्रीरामजीका गुणगान क्यों नहीं करती? दिन-रात दूसरोंकी निन्दा कर क्यों व्यर्थ ही आसक्ति बढ़ा रही है?॥ १॥ मनुष्यके मुखरूपी सुन्दर और पवित्र मन्दिरमें बसकर क्यों उसे लजा रही है? (विषयकी बातें छोड़कर श्रीराम-नाम क्यों नहीं लेती?) चन्द्रमाके पास रहती हुई भी अमृतको छोड़कर क्यों मृगतृष्णाके जलके लिये दौड़ रही है? (श्रीराम-नामरूपी अमृतका पान क्यों नहीं करती?)॥ २॥ संसारके भोगोंकी बातें कलियुगरूपी कुमुदिनीके (विकसित करनेके) लिये चाँदनीके सदृश है, उसे खूब कान लगाकर प्रेमपूर्वक सुना करती है। अरी जीभ! उस विषय-चर्चाको रोककर श्रीहरिके सुन्दर यशका गान कर, जिससे कानोंका कलंक दूर हो (विषयोंकी बातें निरन्तर सुनते-सुनते कान कलंकी हो गये हैं, उनका यह कलंक भगवत्कथाके श्रवण करनेसे ही दूर होगा)॥ ३॥ बुद्धिरूपी सुवर्ण और युक्तिरूपी सुन्दर मणियोंका रच-रचकर एक हार तैयारकर और उस हारको शरणागतोंको सुख देनेवाले सूर्यकुलरूपी कमलके (प्रफुल्लित करनेवाले) सूर्य महाराज रामचन्द्रजीको पहिना। (विशुद्ध बुद्धि और उत्तम युक्तियोंद्वारा निश्चय करके श्रीहरिका नाम-गुण-कीर्तन कर)॥ ४॥ वाद-विवाद तथा स्वादको छोड़कर श्रीहरिका भजन कर और उनकी रसीली लीलामें लौ लगा। यदि तू ऐसा करेगी तो तुलसीदास संसार-सागरसे पार हो जायगा (जन्म-मरणसे मुक्त हो जायगा) और तू भी तीनों लोकोंमें पवित्र कीर्तिको प्राप्त होगी॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(२३८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपनो हित रावरेसों जो पै सूझै।
तौ जनु तनुपर अछत सीस सुधि क्यों कबंध ज्यों जूझै॥ १॥
निज अवगुन, गुन राम! रावरे लखि-सुनि मति-मन रूझै।
रहनि-कहनि-समुझनि तुलसीकी को कृपालु बिनु बूझै॥ २॥

मूल

आपनो हित रावरेसों जो पै सूझै।
तौ जनु तनुपर अछत सीस सुधि क्यों कबंध ज्यों जूझै॥ १॥
निज अवगुन, गुन राम! रावरे लखि-सुनि मति-मन रूझै।
रहनि-कहनि-समुझनि तुलसीकी को कृपालु बिनु बूझै॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! यदि इस जीवको अपना कल्याण आपके द्वारा होता दीख पड़े, तो यह जबतक शरीरपर सिर है तबतक (बिना सिरके) कबन्धकी तरह क्यों लड़ता फिरे? (भगवान् की कृपाका भरोसा नहीं है, इसीसे तो सिर रहते हुए ही—सिरपर भगवान् के रहते हुए ही—यह अपनेको मस्तकहीन मानकर—भगवान् को भुलाकर—अन्धेकी-ज्यों सुखके लिये हर किसीसे लड़ रहा है। परन्तु मस्तक बिना—भगवान् के आधार बिना—न तो लड़कर जीत ही सकेगा और न कल्याण ही होगा)॥ १॥ अपने अवगुण और आपके देवदुर्लभ गुणोंको देख-सुनकर, हे रामजी! मेरी बुद्धि और मन रुक जाते हैं। संकोच होता है कि ऐसे मलिन कर्मोंवाला मैं आप सच्चिदानन्दघनके सामने कैसे जाऊँ। हे कृपालो! तुलसीका आचरण, कथन और रहस्य आपको छोड़कर और कौन समझ सकता है? (आप इस दीनकी सारी स्थिति जानते हैं, अपनी कृपा-दृष्टिसे ही इसका उद्धार कीजिये)॥ २॥

विषय (हिन्दी)

(२३९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाको हरि दृढ़ करि अंग करॺो।
सोइ सुसील, पुनीत, बेदबिद, बिद्या-गुननि भरॺो॥ १॥
उतपति पांडु-सुतनकी करनी सुनि सतपंथ डरॺो।
ते त्रैलोक्य-पूज्य, पावन जस सुनि-सुनि लोक तरॺो॥ २॥
जो निज धरम बेदबोधित सो करत न कछु बिसरॺो।
बिनु अवगुन कृकलास कूप मज्जित कर गहि उधरॺो॥ ३॥
ब्रह्म बिसिख ब्रह्मांड दहन छम गर्भ न नृपति जरॺो।
अजर-अमर, कुलिसहुँ नाहिंन बध, सो पुनि फेन मरॺो॥ ४॥
बिप्र अजामिल अरु सुरपति तें कहा जो नहिं बिगरॺो।
उनको कियो सहाय बहुत, उरको संताप हरॺो॥ ५॥
गनिका अरु कंदरपतें जगमहँ अघ न करत उबरॺो।
तिनको चरित पवित्र जानि हरि निज हृदि-भवन धरॺो॥ ६॥
केहि आचरन भलो मानैं प्रभु सो तौ न जानि परॺो।
तुलसिदास रघुनाथ-कृपाको जोवत पंथ खरॺो॥ ७॥

मूल

जाको हरि दृढ़ करि अंग करॺो।
सोइ सुसील, पुनीत, बेदबिद, बिद्या-गुननि भरॺो॥ १॥
उतपति पांडु-सुतनकी करनी सुनि सतपंथ डरॺो।
ते त्रैलोक्य-पूज्य, पावन जस सुनि-सुनि लोक तरॺो॥ २॥
जो निज धरम बेदबोधित सो करत न कछु बिसरॺो।
बिनु अवगुन कृकलास कूप मज्जित कर गहि उधरॺो॥ ३॥
ब्रह्म बिसिख ब्रह्मांड दहन छम गर्भ न नृपति जरॺो।
अजर-अमर, कुलिसहुँ नाहिंन बध, सो पुनि फेन मरॺो॥ ४॥
बिप्र अजामिल अरु सुरपति तें कहा जो नहिं बिगरॺो।
उनको कियो सहाय बहुत, उरको संताप हरॺो॥ ५॥
गनिका अरु कंदरपतें जगमहँ अघ न करत उबरॺो।
तिनको चरित पवित्र जानि हरि निज हृदि-भवन धरॺो॥ ६॥
केहि आचरन भलो मानैं प्रभु सो तौ न जानि परॺो।
तुलसिदास रघुनाथ-कृपाको जोवत पंथ खरॺो॥ ७॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जिसे श्रीहरिने दृढ़तापूर्वक हृदयसे लगा लिया, वही सुशील है, पवित्र है, वेदका ज्ञाता है और समस्त विद्या एवं सद्‍गुणोंसे भरा हुआ है (जिसपर भगवान् कृपा करते हैं, सारे सद्‍गुण अपना गौरव बढ़ानेके लिये उसके अंदर आप ही आ जाते हैं)॥ १॥ पाण्डुके पुत्रोंकी उत्पत्ति और उनकी करतूतको सुनकर सन्मार्गतक डर गया था; किन्तु वे ही श्रीहरि-कृपासे तीनों लोकोंमें पूजनीय हो गये और उनका पवित्र यश सुन-सुनकर लोग तर गये॥ २॥ जिस राजा नृगने वेद-विहित स्वधर्मके पालनमें तनिक भी कसर नहीं की थी और जो बिना ही किसी दोषके गिरगिट होकर कुएँमें पड़ा हुआ था, उसको आपने हाथ पकड़कर बाहर निकाल लिया और उसका उद्धार कर दिया। (गिरगिटकी योनिसे छुड़ाकर दिव्यलोकको भेज दिया)॥ ३॥ सारे ब्रह्माण्डको भस्म कर देनेमें समर्थ (अश्वत्थामाके) ब्रह्मास्त्रसे भी राजा (परीक्षित्) गर्भमें नहीं जला और अजर एवं अमर (नमुचि) दैत्य जो वज्रसे भी नहीं मरा था, वह फेनसे मर गया॥ ४॥ अजामिल ब्राह्मण और इन्द्रके (आचरणोंमें) ऐसी कौन-सी बात थी जो न बिगड़ी हो, किन्तु आपने उनकी बड़ी सहायता की और उनके हृदयका सन्ताप हर लिया॥ ५॥ (पिंगला) वेश्या और कामदेवने जगत् में ऐसा कौन-सा पाप है जो नहीं किया हो, किन्तु भगवान् ने उनका चरित्र पवित्र समझकर उन्हें अपने हृदय-मन्दिरमें स्थान दिया॥ ६॥ भगवान् किस आचरणसे प्रसन्न होते हैं, यह समझमें नहीं आता। तुलसीदास तो बस, खड़ा-खड़ा केवल श्रीरघुनाथजीकी कृपाकी बाट देख रहा है॥ ७॥

विषय (हिन्दी)

(२४०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोइ सुकृती, सुचि साँचो जाहि राम! तुम रीझे।
गनिका, गीध, बधिक हरिपुर गये, लै कासी प्रयाग कब सीझे॥ १॥
कबहुँ न डग्यो निगम-मगतें पग, नृग जग जानि जिते दुख पाये।
गजधौं कौन दिछित, जाके सुमिरत लै सुनाभ बाहन तजि धाये॥ २॥
सुर-मुनि-बिप्र बिहाय बड़े कुल, गोकुल जनम गोपगृह लीन्हो।
बायों दियो बिभव कुरुपतिको, भोजन जाइ बिदुर-घर कीन्हो॥ ३॥
मानत भलहि भलो भगतनितें, कछुक रीति पारथहि जनाई।
तुलसी सहज सनेह राम बस, और सबै जलकी चिकनाई॥ ४॥

मूल

सोइ सुकृती, सुचि साँचो जाहि राम! तुम रीझे।
गनिका, गीध, बधिक हरिपुर गये, लै कासी प्रयाग कब सीझे॥ १॥
कबहुँ न डग्यो निगम-मगतें पग, नृग जग जानि जिते दुख पाये।
गजधौं कौन दिछित, जाके सुमिरत लै सुनाभ बाहन तजि धाये॥ २॥
सुर-मुनि-बिप्र बिहाय बड़े कुल, गोकुल जनम गोपगृह लीन्हो।
बायों दियो बिभव कुरुपतिको, भोजन जाइ बिदुर-घर कीन्हो॥ ३॥
मानत भलहि भलो भगतनितें, कछुक रीति पारथहि जनाई।
तुलसी सहज सनेह राम बस, और सबै जलकी चिकनाई॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रामजी! जिसपर आप प्रसन्न हो गये, वही सच्चा पुण्यात्मा है और वही पवित्र है। वेश्या (पिंगला), गीध (जटायु) और बहेलिया (वाल्मीकि) जो परम धाम वैकुण्ठको चले गये, उन्होंने कब प्रयागमें जाकर तप किया और कण्डोंकी आगमें जलकर मरे?॥ १॥ राजा नृग कभी वेदोक्त मार्गसे नहीं डिगा था, किन्तु संसार जानता है, उसने कितने दुःख भोगे (गिरगिटकी योनि पाकर हजारों वर्ष कुएँमें पड़ा सड़ता रहा!) और वह हाथी कहाँका दीक्षित था, जिसके एक बार याद करते ही आप अपने वाहन गरुड़को छोड़कर सुदर्शनचक्र लिये दौड़े आये?॥ २॥ देवता, मुनि और ब्राह्मणोंके ऊँचे कुलको छोड़कर आपने गोकुलमें एक गोप (नन्दजी)-के घरमें जन्म लिया। कौरव-पति राजा दुर्योधनके ऐश्वर्यको ठुकराकर आपने (दीन) विदुरके घर जाकर (साग-भाजीका) भोजन किया॥ ३॥ भगवान् अपने अनन्य प्रेमी भक्तोंके साथ बहुत भला मानते हैं। इस अनन्य प्रेम-भक्तिकी रीति कुछ-कुछ आपने अर्जुनको बतायी थी। हे तुलसीदास! श्रीरामजी तो सरल स्वाभाविक विशुद्ध प्रेमके अधीन हैं, दूसरे जितने साधन हैं वे ऐसे हैं, जैसे पानीकी चिकनाई! (पानी पड़नेपर, थोड़ी देरके लिये शरीर चिकना-सा मालूम होता है, पर सूखनेपर फिर ज्यों-का-त्यों रूखा हो जाता है। इसी प्रकार दूसरे साधनोंसे कामनाकी पूर्ति होनेपर क्षणिक सुख तो मिलता है, परन्तु दूसरी कामना उत्पन्न होते ही मिट जाता है)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२४१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब तुम मोहूसे सठनिको हठि गति न देते।
कैसेहु नाम लेइ कोउ पामर, सुनि सादर आगे ह्वै लेते॥ १॥
पाप-खानि जिय जानि अजामिल जमगन तमकि तये ताको भे ते।
लियो छुड़ाइ, चले कर मींजत, पीसत दाँत गये रिस-रेते॥ २॥
गौतम-तिय, गज, गीध, बिटप, कपि, हैं नाथहिं नीके मालुम जेते।
तिन्हके काज साधु-समाजु तजि कृपासिंधु तब तब उठिगे ते॥ ३॥
अजहुँ अधिक आदर येहि द्वारे, पतित पुनीत होत नहिं केते।
मेरे पासंगहु न पूजिहैं, ह्वै गये, हैं, होने खल जेते॥ ४॥
हौं अबलौं करतूति तिहारिय चितवत हुतो न रावरे चेते।
अब तुलसी पूतरो बाँधिहै, सहि न जात मोपै परिहास एते॥ ५॥

मूल

तब तुम मोहूसे सठनिको हठि गति न देते।
कैसेहु नाम लेइ कोउ पामर, सुनि सादर आगे ह्वै लेते॥ १॥
पाप-खानि जिय जानि अजामिल जमगन तमकि तये ताको भे ते।
लियो छुड़ाइ, चले कर मींजत, पीसत दाँत गये रिस-रेते॥ २॥
गौतम-तिय, गज, गीध, बिटप, कपि, हैं नाथहिं नीके मालुम जेते।
तिन्हके काज साधु-समाजु तजि कृपासिंधु तब तब उठिगे ते॥ ३॥
अजहुँ अधिक आदर येहि द्वारे, पतित पुनीत होत नहिं केते।
मेरे पासंगहु न पूजिहैं, ह्वै गये, हैं, होने खल जेते॥ ४॥
हौं अबलौं करतूति तिहारिय चितवत हुतो न रावरे चेते।
अब तुलसी पूतरो बाँधिहै, सहि न जात मोपै परिहास एते॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—(जब अनेक दुष्टोंको परम गति दी है) तब आप मुझ-सरीखे दुष्टोंको हठपूर्वक परम पद क्यों नहीं देते? कोई भी पापी कैसे ही आपका नाम लेता हो, सुनते ही आप बड़े आदरके साथ उसे आगे होकर (अपनी गोदमें ले) लेते हैं, फिर मेरे ही लिये ऐसा क्यों नहीं करते?॥ १॥ अजामिलको यमदूतोंने अपने मनमें पापोंकी खान समझ, तमककर भय दिखाते हुए उसे कष्ट दिया, किन्तु आपने उसे (मरते समय धोखेसे ‘नारायण’ नाम लेनेपर ही) उनके हाथसे छुड़ा लिया। यमदूत हाथ मलते और क्रोधके मारे दाँत पीसते हुए खाली हाथ ही लौट गये॥ २॥ गौतमकी स्त्री (अहल्या), गजराज, गीध (जटायु), वृक्ष (यमलार्जुन) और बंदर (सुग्रीव) आदि कैसे थे सो नाथको अच्छी तरह मालूम है, परन्तु जब उन सबका काम पड़ा, तब आप संत-समाजको भी छोड़कर (उनकी सहायताके लिये) वहाँसे चल दिये॥ ३॥ आज भी इस आपके दरवाजेपर ऐसोंका ही अधिक आदर है और न जाने कितने पापी नित्य पवित्र बनाये जाते हैं। ऐसा होते हुए भी अबतक मेरी सुनायी क्यों नहीं हुई? क्या मैं कम पापी हूँ? संसारमें जितने दुष्ट हुए हैं, हैं और होंगे, वे सब तो मेरे पसंगेमें भी पूरे न होंगे॥ ४॥ अबतक तो मैं आपके करतबकी ओर टक लगाये देख रहा था, (बाट देखता था कि मेरा भी उद्धार कभी कर देंगे)। परन्तु आपने इधर कोई ध्यान नहीं दिया। इसलिये बस, अब तुलसीदास आपके नामका पुतला* बाँधेगा, क्योंकि मुझसे अब इतना उपहास सहन नहीं होता॥ ५॥

पादटिप्पनी
  • जब नटोंको खेल दिखानेपर कुछ नहीं मिलता, तब वे कपड़ेका पुतला बनाकर बाँसपर लटकाये हुए कहते फिरते हैं कि देखो यह कैसा अनुदार है। इससे लज्जित होकर लोग उसको कुछ-न-कुछ दे ही देते हैं। इसी तरह मैं भी एक पुतला बनाकर लिये फिरूँगा। लोग पूछेंगे, तो यही उत्तर दूँगा कि यह अयोध्याधिप महाराज श्रीरामचन्द्रजी हैं! इससे आपको लाज लगेगी तब आप ही अपनावेंगे।
विषय (हिन्दी)

(२४२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम सम दीनबंधु, न दीन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई।
मो सम कुटिल-मौलिमनि नहिं जग, तुम सम हरि! न हरन कुटिलाई॥ १॥
हौं मन-बचन-कर्म पातक-रत, तुम कृपालु पतितन-गतिदाई।
हौं अनाथ, प्रभु! तुम अनाथ-हित, चित यहि सुरति कबहुँ नहिं जाई॥ २॥
हौं आरत, आरति-नासक तुम, कीरति निगम पुराननि गाई।
हौं सभीत तुम हरन सकल भय, कारन कवन कृपा बिसराई॥ ३॥
तुम सुखधाम राम श्रम-भंजन, हौं अति दुखित त्रिबिध श्रम पाई।
यह जिय जानि दास तुलसी कहँ राखहु सरन समुझि प्रभुताई॥ ४॥

मूल

तुम सम दीनबंधु, न दीन कोउ मो सम, सुनहु नृपति रघुराई।
मो सम कुटिल-मौलिमनि नहिं जग, तुम सम हरि! न हरन कुटिलाई॥ १॥
हौं मन-बचन-कर्म पातक-रत, तुम कृपालु पतितन-गतिदाई।
हौं अनाथ, प्रभु! तुम अनाथ-हित, चित यहि सुरति कबहुँ नहिं जाई॥ २॥
हौं आरत, आरति-नासक तुम, कीरति निगम पुराननि गाई।
हौं सभीत तुम हरन सकल भय, कारन कवन कृपा बिसराई॥ ३॥
तुम सुखधाम राम श्रम-भंजन, हौं अति दुखित त्रिबिध श्रम पाई।
यह जिय जानि दास तुलसी कहँ राखहु सरन समुझि प्रभुताई॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे महाराज रामचन्द्रजी! आपके समान तो कोई दीनोंका कल्याण करनेवाला बन्धु नहीं है और मेरे समान कोई दीन नहीं है। मेरी बराबरीका संसारमें कोई कुटिलोंका शिरोमणि नहीं है और हे नाथ! आपके बराबर कुटिलताका नाश करनेवाला कोई नहीं है॥ १॥ मैं मनसे, वचनसे और कर्मसे पापोंमें रत हूँ और हे कृपालो! आप पापियोंको परमगति देनेवाले हैं। मैं अनाथ हूँ और हे प्रभो! आप अनाथोंका हित करनेवाले हैं। यह बात मेरे मनसे कभी नहीं जाती॥ २॥ मैं दुःखी हूँ, आप दुःखोंके दूर करनेवाले हैं। आपका यश यह वेद-पुराण गा रहे हैं। मैं (जन्म-मृत्युरूप) संसारसे डरा हुआ हूँ और आप सब भय नाश करनेवाले हैं। (आपके और मेरे इतने सम्बन्ध होनेपर भी) क्या कारण है, कि आप मुझपर कृपा नहीं करते?॥ ३॥ हे श्रीरामजी! आप आनन्दके धाम तथा श्रमके नाश करनेवाले हैं और मैं संसारके तीनों (दैहिक, दैविक और भौतिक) श्रमोंसे अत्यन्त ही दुःखी हो रहा हूँ। इन बातोंको अपने मनमें विचारकर तथा अपनी प्रभुताको समझकर तुलसीदासको अपनी शरणमें रख ही लीजिये॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२४३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

यहै जानि चरनन्हि चित लायो।
नाहिन नाथ! अकारनको हितु तुम समान पुरान-श्रुति गायो॥ १॥
जननि-जनक, सुत-दार, बंधुजन भये बहुत जहँ-जहँ हौं जायो।
सब स्वारथहित प्रीति, कपट चित, काहू नहिं हरिभजन सिखायो॥ २॥
सुर-मुनि, मनुज-दनुज, अहि-किन्नर, मैं तनु धरि सिर काहि न नायो।
जरत फिरत त्रयताप पापबस, काहु न हरि! करि कृपा जुड़ायो॥ ३॥
जतन अनेक किये सुख-कारन, हरिपद-बिमुख सदा दुख पायो।
अब थाक्यो जलहीन नाव ज्यों देखत बिपति-जाल जग छायो॥ ४॥
मो कहँ नाथ! बूझिये, यह गति सुख-निधान निज पति बिसरायो।
अब तजि रोष करहु करुना हरि! तुलसिदास सरनागत आयो॥ ५॥

मूल

यहै जानि चरनन्हि चित लायो।
नाहिन नाथ! अकारनको हितु तुम समान पुरान-श्रुति गायो॥ १॥
जननि-जनक, सुत-दार, बंधुजन भये बहुत जहँ-जहँ हौं जायो।
सब स्वारथहित प्रीति, कपट चित, काहू नहिं हरिभजन सिखायो॥ २॥
सुर-मुनि, मनुज-दनुज, अहि-किन्नर, मैं तनु धरि सिर काहि न नायो।
जरत फिरत त्रयताप पापबस, काहु न हरि! करि कृपा जुड़ायो॥ ३॥
जतन अनेक किये सुख-कारन, हरिपद-बिमुख सदा दुख पायो।
अब थाक्यो जलहीन नाव ज्यों देखत बिपति-जाल जग छायो॥ ४॥
मो कहँ नाथ! बूझिये, यह गति सुख-निधान निज पति बिसरायो।
अब तजि रोष करहु करुना हरि! तुलसिदास सरनागत आयो॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यही जानकर मैंने (सब ओरसे हटाकर) आपके चरणोंमें चित्त लगाया है कि हे नाथ! आपके समान, बिना ही कारण हित करनेवाला दूसरा कोई नहीं है, ऐसा वेद और पुराण गाते हैं॥ १॥ जहाँ-जहाँ (जिस-जिस योनिमें) मैंने जन्म लिया, वहाँ-वहाँ मेरे बहुत-से पिता-माता, पुत्र-स्त्री और भाई-बन्धु हुए। परन्तु वे सभी स्वार्थ-साधनके लिये मुझसे प्रेम करते रहे, उनके मनमें छल-कपट रहा। इसीलिये किसीने भी मुझे श्रीहरिका भजन नहीं सिखाया। (सभी संसारमें फँसे रहनेकी शिक्षा देते रहे, भगवद्भजनका उपदेश नहीं दिया)॥ २॥ शरीर धारण कर मैंने (अपनी भलाई करनेके लिये) देवता-मुनि, मनुष्य-राक्षस, सर्प-किन्नर आदि किसको सिर नहीं नवाया? (सभीके चरणोंमें सिर रख-रखकर खुशामदें की) किन्तु हे हरे! पापके फलस्वरूप तीनों तापोंसे जलते फिरते हुए मुझको किसीने दयाकर शीतल नहीं किया। (मोक्ष-प्रदान कर संसारका ताप कोई नहीं मिटा सके)॥ ३॥ मैंने सुखके लिये बहुत-से साधन किये, पर भगवच्चरणोंसे विमुख होनेके कारण सदा दुःख ही पाया। संसारमें विपत्तियोंका जाल बिछा हुआ देखकर अब मैं (समस्त साधनोंसे) ऐसा थक गया हूँ, जैसे बिना पानीके नौका थक जाती है॥ ४॥ हे नाथ! समझ लीजिये, मेरी यह दशा इसलिये हुई है कि मैंने अपने सुख-निधान स्वामीको भुला दिया। हे हरे! अब मेरे दोषोंका खयाल छोड़कर इस शरणागत तुलसीदासपर दया कीजिये॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(२४४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

याहि ते मैं हरि ग्यान गँवायो।
परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहि, बाहर फिरत बिकल भयो धायो॥ १॥
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि, तरु, लता, भूमि, बिल परम सुगंध कहाँ तें आयो॥ २॥
ज्यों सर बिमल बारि परिपूरन, ऊपर कछु सिवार तृन छायो।
जारत हियो ताहि तजि हौं सठ, चाहत यहि बिधि तृषा बुझायो॥ ३॥
ब्यापत त्रिबिध ताप तनु दारुन, तापर दुसह दरिद्र सतायो।
अपनेहि धाम नाम-सुरतरु तजि बिषय-बबूर-बाग मन लायो॥ ४॥
तुम-सम ग्यान-निधान, मोहि सम मूढ़ न आन पुराननि गायो।
तुलसिदास प्रभु! यह बिचारि जिय कीजै नाथ उचित मन भायो॥ ५॥

मूल

याहि ते मैं हरि ग्यान गँवायो।
परिहरि हृदय-कमल रघुनाथहि, बाहर फिरत बिकल भयो धायो॥ १॥
ज्यों कुरंग निज अंग रुचिर मद अति मतिहीन मरम नहिं पायो।
खोजत गिरि, तरु, लता, भूमि, बिल परम सुगंध कहाँ तें आयो॥ २॥
ज्यों सर बिमल बारि परिपूरन, ऊपर कछु सिवार तृन छायो।
जारत हियो ताहि तजि हौं सठ, चाहत यहि बिधि तृषा बुझायो॥ ३॥
ब्यापत त्रिबिध ताप तनु दारुन, तापर दुसह दरिद्र सतायो।
अपनेहि धाम नाम-सुरतरु तजि बिषय-बबूर-बाग मन लायो॥ ४॥
तुम-सम ग्यान-निधान, मोहि सम मूढ़ न आन पुराननि गायो।
तुलसिदास प्रभु! यह बिचारि जिय कीजै नाथ उचित मन भायो॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे हरे! मैंने इसी कारण ज्ञानको खो दिया कि जो मैं अपने हृदयकमलमें विराजित आपको छोड़कर (सुखके लिये) व्याकुल होकर बाहर इधर-उधरके अनेक साधनोंमें भटकता फिरा॥ १॥ जैसे अत्यन्त बुद्धिहीन हरिण अपने ही शरीरमें सुन्दर कस्तूरी होनेपर भी उसका भेद नहीं जानता और पहाड़, पेड़, लता, पृथ्वी और बिलोंमें ढूँढ़ता फिरता है कि यह श्रेष्ठ सुगन्ध कहाँसे आ रही है (वही हालत मेरी है। सुखस्वरूप स्वामीके हृदयमें रहनेपर भी मैं बाहर ढूँढ़ रहा हूँ)॥ २॥ तालाब निर्मल पानीसे लबालब भरा है, किन्तु ऊपरसे कुछ कोई और घास छायी है। इसीसे (भ्रमवश) उस (तालाबके स्वच्छ) जलको छोड़कर मैं दुष्ट अपना हृदय जला रहा हूँ, और इस प्रकार अपनी प्यास बुझाना चाहता हूँ। (हृदय-सरोवरमें सच्चिदानन्दघन परमात्मारूपी अनन्त शीतल जल भरा है, परन्तु अज्ञानकी काई आ जानेसे मैं मृगजलरूपी सांसारिक भोगोंको प्राप्त करके उनसे परमसुखकी तृष्णा मिटाना चाहता हूँ और फलस्वरूप त्रितापसे जल रहा हूँ)॥ ३॥ एक तो वैसे ही शरीरमें दारुण त्रिविध ताप व्याप रहे हैं, तिसपर यह (साधन-धनके अभावकी) असहनीय दरिद्रता सता रही है। (मैं कैसा महान् मूर्ख हूँ कि) अपने ही (हृदयरूपी) घरमें भगवन्नामरूपी (मनचाहा फल देनेवाला) जो कल्पवृक्ष है उसे छोड़कर मैंने विषयरूपी बबूलके बागमें अपना मन लगा रखा है। (बबूलके बागमें दुःखरूप काँटोंके सिवा और क्या मिल सकता है?)॥ ४॥ आपके समान तो कोई ज्ञान-निधान नहीं है और मेरे समान और कोई मूर्ख नहीं है, यह बात पुराणोंने कही है। इस बातको विचारकर हे नाथ! आपको जो उचित प्रतीत हो इस तुलसीदासके लिये वही कीजिये॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(२४५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहि मूढ़ मन बहुत बिगोयो।
याके लिये सुनहु करुनामय, मैं जग जनमि-जनमि दुख रोयो॥ १॥
सीतल मधुर पियूष सहज सुख निकटहि रहत दूरि जन खोयो।
बहु भाँतिन स्रम करत मोहबस, बृथहि मंदमति बारि बिलोयो॥ २॥
करम-कीच जिय जानि, सानि चित, चाहत कुटिल मलहि मल धोयो।
तृषावंत सुरसरि बिहाय सठ फिरि-फिरि बिकल अकास निचोयो॥ ३॥
तुलसिदास प्रभु! कृपा करहु अब, मैं निज दोष कछू नहिं गोयो।
डासत ही गइ बीति निसा सब, कबहुँ न नाथ! नींद भरि सोयो॥ ४॥

मूल

मोहि मूढ़ मन बहुत बिगोयो।
याके लिये सुनहु करुनामय, मैं जग जनमि-जनमि दुख रोयो॥ १॥
सीतल मधुर पियूष सहज सुख निकटहि रहत दूरि जन खोयो।
बहु भाँतिन स्रम करत मोहबस, बृथहि मंदमति बारि बिलोयो॥ २॥
करम-कीच जिय जानि, सानि चित, चाहत कुटिल मलहि मल धोयो।
तृषावंत सुरसरि बिहाय सठ फिरि-फिरि बिकल अकास निचोयो॥ ३॥
तुलसिदास प्रभु! कृपा करहु अब, मैं निज दोष कछू नहिं गोयो।
डासत ही गइ बीति निसा सब, कबहुँ न नाथ! नींद भरि सोयो॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—इस मूर्ख मनने मुझको खूब ही छकाया। हे करुणामय! सुनिये, इसीके कारण मैं बारंबार जगत् में जनम-जनमकर दुःखसे रोता फिरा॥ १॥ शीतल और मधुर अमृतरूप सहजसुख (ब्रह्मानन्द) जो अत्यन्त निकट ही रहता है, (आत्माका स्वरूप ही सत्, चित्, आनन्दघन है) मैंने इस मनके फेरमें पड़कर उसे यों भुला दिया, मानो वह बहुत ही दूर हो। मोहवश अनेक प्रकारसे परिश्रम कर मुझ मूर्खने व्यर्थ ही पानीको बिलोया (विषयरूपी जलको मथकर उससे परमानन्दरूपी घी निकालना चाहा)॥ २॥ यद्यपि मनमें यह जानता था कि कर्म कीचड़ है, (उसमें पड़ते ही सब ओरसे मलिनता छा जायगी) फिर भी चित्तको उसीमें सानकर (प्यास बुझानेके लिये) मैं कुटिल, मलसे ही मलको धोना चाहता हूँ। प्यास लग रही है, पर मैं ऐसा दुष्ट हूँ कि श्रीगंगाजीको छोड़कर बार-बार व्याकुल हो आकाश निचोड़ता फिरता हूँ, (सच्चे सुखकी प्राप्तिके लिये दुःखरूप विषयोंमें भटकता हूँ)॥ ३॥ हे नाथ! मैंने अपना एक भी दोष आपसे नहीं छिपाया है, अतः अब इस तुलसीदासपर कृपा कीजिये। मुझे बिछौना बिछाते-बिछाते ही सारी रात बीत गयी, पर हे नाथ! कभी नींदभर नहीं सोया। (सुख-प्राप्तिके उपाय करते-करते ही जीवन बीत गया, आपको प्राप्त कर पूर्णकाम हो बोधरूप सुखकी नींदमें कभी नहीं सो पाया। अब तो कृपा कीजिये)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२४६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोक-बेद हूँ बिदित बात सुनि-समुझि
मोह-मोहित बिकल मति थिति न लहति।
छोटे-बड़े, खोटे-खरे, मोटेऊ दूबरे,
राम! रावरे निबाहे सबहीकी निबहति॥ १॥
होती जो आपने बस, रहती एक ही रस,
दूनी न हरष-सोक-साँसति सहति।
चहतो जो जोई जोई, लहतो सो सोई सोई,
केहू भाँति काहूकी न लालसा रहति॥ २॥
करम, काल, सुभाउ गुन-दोष जीव जग मायाते,
सो सभै भौंह चकित चहति।
ईसनि-दिगीसनि, जोगीसनि, मुनीसनि हू,
छोड़ति छोड़ाये तें, गहाये तें गहति॥ ३॥
सतरंजको सो राज, काठको सबै समाज,
महाराज बाजी रची, प्रथम न हति।
तुलसी प्रभुके हाथ हारिबो-जीतिबो नाथ!
बहु बेष, बहु मुख सारदा कहति॥ ४॥

मूल

लोक-बेद हूँ बिदित बात सुनि-समुझि
मोह-मोहित बिकल मति थिति न लहति।
छोटे-बड़े, खोटे-खरे, मोटेऊ दूबरे,
राम! रावरे निबाहे सबहीकी निबहति॥ १॥
होती जो आपने बस, रहती एक ही रस,
दूनी न हरष-सोक-साँसति सहति।
चहतो जो जोई जोई, लहतो सो सोई सोई,
केहू भाँति काहूकी न लालसा रहति॥ २॥
करम, काल, सुभाउ गुन-दोष जीव जग मायाते,
सो सभै भौंह चकित चहति।
ईसनि-दिगीसनि, जोगीसनि, मुनीसनि हू,
छोड़ति छोड़ाये तें, गहाये तें गहति॥ ३॥
सतरंजको सो राज, काठको सबै समाज,
महाराज बाजी रची, प्रथम न हति।
तुलसी प्रभुके हाथ हारिबो-जीतिबो नाथ!
बहु बेष, बहु मुख सारदा कहति॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—छोटे-बड़े, बुरे-भले, मोटे और दुबले, इन सबकी, हे श्रीरामजी! आपके ही निभानेसे निभती है—यह बात संसार और वेदोंमें प्रकट है। किन्तु इसे सुनकर और विचारकर भी मेरी मोहके वश हुई बुद्धि ऐसी व्याकुल हो रही है कि वह कभी स्थिर (निश्चयात्मिका) नहीं होती॥ १॥ जो यह मेरे वशमें होती तो सदा एकरस (निश्चयात्मिका) ही रहती (क्योंकि जीवात्मा नित्य परमात्मसुख ही चाहता है), फिर यह संसारके हर्ष, शोक और संकटोंको क्यों सहती? (बुद्धि ईश्वरमुखी निश्चयात्मिका होनेपर) जो जिस वस्तुकी इच्छा करता, वही उसे मिल जाती। किसीकी कोई भी लालसा बाकी न रहती (परमात्माको प्राप्तकर जीव पूर्णकाम हो जाता)॥ २॥ किन्तु ऐसा है नहीं। जगत् में जीवके कर्म, काल, स्वभाव, गुण, दोष—ये सब आपकी मायासे हैं और वह माया मारे डरके भौंचक्की-सी होकर आपकी भृकुटिकी ओर ताकती रहती है (आपके नचाये नाचती है)। यह माया शिव, ब्रह्मा और दिक्पालोंको, योगीश्वरों और मुनीश्वरोंको आपके ही छुड़ानेसे छोड़ती है और आपके ही पकड़ानेसे पकड़ लेती है॥ ३॥ इस मायाका सारा समाज शतरंजका-सा राज्य है (असत् है), सब काठका बना है (असलमें न कोई राजा है, न वजीर)। हे महाराज! शतरंजकी यह बाजी आपहीकी रची हुई है, यह पहले नहीं थी। तुलसीदास कहते हैं कि हे प्रभो! इस बाजीकी हार-जीत आपहीके हाथमें है! यह बात सरस्वतीने अनेक वेष धारण कर बहुत-से मुखोंसे कही है (सभी विद्वानोंकी वाणीसे यही निकला है कि बन्धन-मोक्ष सब श्रीभगवान् के ही हाथ है)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२४७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम जपु जीह! जानि, प्रीति सों प्रतीत मानि,
रामनाम जपे जैहै जियकी जरनि।
रामनामसों रहनि, रामनामकी कहनि,
कुटिल कलि-मल-सोक-संकट-हरनि॥ १॥
रामनामको प्रभाउ पूजियत गनराउ,
कियो न दुराउ, कही आपनी करनि।
भव-सागरको सेतु, कासीहू सुगति हेतु,
जपत सादर संभु सहित घरनि॥ २॥
बालमीकि ब्याध हे अगाध-अपराध-निधि,
‘मरा’ ‘मरा’ जपे पूजे मुनि अमरनि।
रोक्यो बिंध्य, सोख्यो सिंधु घटजहुँ नाम-बल,
हारॺो हिय, खारो भयो भूसुर-डरनि॥ ३॥
नाम-महिमा अपार, सेष-सुक बार-बार
मति-अनुसार बुध बेदहू बरनि।
नामरति-कामधेनु तुलसीको कामतरु,
रामनाम है बिसोह-तिमिर-तरनि॥ ४॥

मूल

राम जपु जीह! जानि, प्रीति सों प्रतीत मानि,
रामनाम जपे जैहै जियकी जरनि।
रामनामसों रहनि, रामनामकी कहनि,
कुटिल कलि-मल-सोक-संकट-हरनि॥ १॥
रामनामको प्रभाउ पूजियत गनराउ,
कियो न दुराउ, कही आपनी करनि।
भव-सागरको सेतु, कासीहू सुगति हेतु,
जपत सादर संभु सहित घरनि॥ २॥
बालमीकि ब्याध हे अगाध-अपराध-निधि,
‘मरा’ ‘मरा’ जपे पूजे मुनि अमरनि।
रोक्यो बिंध्य, सोख्यो सिंधु घटजहुँ नाम-बल,
हारॺो हिय, खारो भयो भूसुर-डरनि॥ ३॥
नाम-महिमा अपार, सेष-सुक बार-बार
मति-अनुसार बुध बेदहू बरनि।
नामरति-कामधेनु तुलसीको कामतरु,
रामनाम है बिसोह-तिमिर-तरनि॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे जीभ! राम-नामका जप कर, राम-नामके (तत्त्वको) जान और प्रेमपूर्वक उसमें विश्वास कर। एक राम-नामके जपसे तेरे हृदयके (तीनों) ताप शान्त हो जायँगे। राम-नामके परायण हो और राम-नामहीका कथन किया कर। (इस प्रकार नामकी शरणागति) कुटिल-कलियुगके पापों, दुःखों और संकटोंको हरनेवाली है॥ १॥ राम-नामके प्रभावसे गणेश (सर्वप्रथम) पूजे जाते हैं। गणेशजीने अपनी करनीको स्वयं कहा है, कुछ छिपाकर नहीं रखा। यह राम-नाम संसाररूपी समुद्रका पुल है (इसपर चढ़कर भक्तजन सहज ही भवसागरसे तर जाते हैं)। काशीमें भगवान् शंकर भी पार्वतीके सहित जीवोंको मोक्ष देनेके लिये राम-नामको जपा करते हैं॥ २॥ वाल्मीकि व्याधके अनन्त पाप थे, किन्तु उलटा नाम ‘मरा-मरा’ जपकर वे ऐसे हो गये कि मुनियों और देवताओंने भी उनकी पूजा की। अगस्त्य ऋषिने भी इसी रामनामके बलपर विन्ध्याचलपर्वतको रोक लिया एवं समुद्रको सुखा दिया था। पीछे वह समुद्र उन्हीं ब्राह्मण (अगस्त्य)-के भयसे हृदयमें हार मानकर खारा हो गया॥ ३॥ राम-नामकी अपार महिमा है। शेष, शुकदेव, वेद और पण्डितोंने बार-बार अपनी बुद्धिके अनुसार इसका वर्णन किया है। राम-नामसे प्रीति होना तुलसीदासके लिये कामधेनु और कल्पवृक्ष ही है (उसे तो इसी राम-नामसे मनचाहा दुर्लभ पद मिला है)। अधिक क्या, यह राम-नाम अज्ञानके अन्धकारको दूर करनेके लिये साक्षात् सूर्य है॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२४८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाहि, पाहि राम! पाहि रामभद्र, रामचंद्र!
सुजस स्रवन सुनि आयो हौं सरन।
दीनबन्धु! दीनता-दरिद्र-दाह-दोष-दुख
दारुन दुसह दर-दुरित-हरन॥ १॥
जब जब जग-जाल ब्याकुल करम काल,
सब खल भूप भये भूतल-भरन।
तब तब तनु धरि, भूमि-भार दूरि करि
थापे मुनि, सुर, साधु, आस्रम, बरन॥ २॥
बेद, लोक, सब साखी, काहूकी रती न राखी,
रावनकी बंदि लागे अमर मरन।
ओक दै बिसोक किये लोकपति लोकनाथ
रामराज भयो धरम चारिहु चरन॥ ३॥
सिला, गुह, गीध, कपि, भील, भालु, रातिचर,
ख्याल ही कृपालु कीन्हे तारन-तरन।
पील-उद्धरन! सीलसिंधु! ढील देखियतु
तुलसी पै चाहत गलानि ही गरन॥ ४॥

मूल

पाहि, पाहि राम! पाहि रामभद्र, रामचंद्र!
सुजस स्रवन सुनि आयो हौं सरन।
दीनबन्धु! दीनता-दरिद्र-दाह-दोष-दुख
दारुन दुसह दर-दुरित-हरन॥ १॥
जब जब जग-जाल ब्याकुल करम काल,
सब खल भूप भये भूतल-भरन।
तब तब तनु धरि, भूमि-भार दूरि करि
थापे मुनि, सुर, साधु, आस्रम, बरन॥ २॥
बेद, लोक, सब साखी, काहूकी रती न राखी,
रावनकी बंदि लागे अमर मरन।
ओक दै बिसोक किये लोकपति लोकनाथ
रामराज भयो धरम चारिहु चरन॥ ३॥
सिला, गुह, गीध, कपि, भील, भालु, रातिचर,
ख्याल ही कृपालु कीन्हे तारन-तरन।
पील-उद्धरन! सीलसिंधु! ढील देखियतु
तुलसी पै चाहत गलानि ही गरन॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! हे कल्याणस्वरूप रघुनाथजी! रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। आपका सुयश सुनकर शरण आया हूँ। हे दीनबन्धो! आप दीनता, दरिद्रता, सन्ताप, दोष, दारुण दुःख और असहनीय भय तथा पापोंका नाश करनेवाले हैं॥ १॥ जब-जब साधु (संत और गौ-ब्राह्मण) काल और कर्मके वश हो जगज्जालमें फँसकर व्याकुल हुए और सब दुष्ट राजा पृथ्वीपर भारस्वरूप हुए, तब-तब आपने अवतार-शरीर धारण कर (दुष्टोंका संहार कर) पृथ्वीका भार दूर कर दिया और मुनि, देवता, संत एवं वर्णाश्रम-धर्मकी पुनः स्थापना की॥ २॥ वेद और संसार दोनों ही इसके साक्षी हैं कि जब रावणने किसीकी भी प्रतिष्ठा नहीं रहने दी और देवतागण उसके कैदखानेमें पड़े-पड़े मरने लगे, तब हे भगवन्! आपहीने उन लोक-पतियोंको—इन्द्र, कुबेर आदिको आश्रय देकर शोकरहित किया और उन्हें फिरसे अपने-अपने लोकोंका स्वामी बनाया, और हे रामजी! आपके राज्यमें धर्म चारों चरणोंसे युक्त (धर्मराज्य) हो गया (सत्य, तप, दया और दान विकसित हो उठे)॥ ३॥ हे कृपालो! आपने लीलापूर्वक ही अहल्या, निषाद, जटायु, बंदर, भील, भालु और राक्षसोंको तरण-तारण कर दिया, (उन्हें तो तार ही दिया, परन्तु दूसरोंको तारनेकी शक्ति भी उनको दे दी। जिस किसीने उनका संग या अनुकरण किया, वह भी तर गया।) हे गजराजके उद्धारक! हे शीलके सागर! इस तुलसीपर जो आपकी ओरसे कुछ ढील-सी दिखायी देती है, इससे वह मारे ग्लानिके गला चाहता है। अतएव कृपाकर इसका भी शीघ्र ही उद्धार कीजिये॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२४९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

भली भाँति पहिचाने-जाने साहिब जहाँ लौं जग,
जूड़े होत थोरे, थोरे ही गरम।
प्रीति न प्रवीन, नीतिहीन, रीतिके मलीन,
मायाधीन सब किये कालहू करम॥ १॥
दानव-दनुज बड़े महामूढ़ मूँड़ चढ़े,
जीते लोकनाथ नाथ! बलनि भरम।
रीझि-रीझि दिये बर, खीझि-खीझि घाले घर,
आपने निवाजेकी न काहूको सरम॥ २॥
सेवा-सावधान तू सुजान समरथ साँचो,
सदगुन-धाम राम! पावन परम।
सुरुख, सुमुख, एकरस, एकरूप, तोहि
बिदित बिसेषि घटघटके मरम॥ ३॥
तोसो नतपाल न कृपाल, न कँगाल मो-सो
दयामें बसत देव सकल धरम।
राम कामतरु-छाँह चाहै रुचि मन माँह,
तुलसी बिकल, बलि, कलि-कुधरम॥ ४॥

मूल

भली भाँति पहिचाने-जाने साहिब जहाँ लौं जग,
जूड़े होत थोरे, थोरे ही गरम।
प्रीति न प्रवीन, नीतिहीन, रीतिके मलीन,
मायाधीन सब किये कालहू करम॥ १॥
दानव-दनुज बड़े महामूढ़ मूँड़ चढ़े,
जीते लोकनाथ नाथ! बलनि भरम।
रीझि-रीझि दिये बर, खीझि-खीझि घाले घर,
आपने निवाजेकी न काहूको सरम॥ २॥
सेवा-सावधान तू सुजान समरथ साँचो,
सदगुन-धाम राम! पावन परम।
सुरुख, सुमुख, एकरस, एकरूप, तोहि
बिदित बिसेषि घटघटके मरम॥ ३॥
तोसो नतपाल न कृपाल, न कँगाल मो-सो
दयामें बसत देव सकल धरम।
राम कामतरु-छाँह चाहै रुचि मन माँह,
तुलसी बिकल, बलि, कलि-कुधरम॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जगत् में जहाँतक मालिक हैं, उनको मैंने भलीभाँति समझ और पहचान लिया है। वे थोड़ेमें ही प्रसन्न हो जाते हैं और थोड़ेमें ही गरम हो उठते हैं। न तो वे प्रेमके निभानेमें ही चतुर हैं और न नीति ही जानते हैं। उनकी चालें सब बुरी हैं, क्योंकि काल, कर्म और मायाने उन्हें अपने अधीन कर रखा है॥ १॥ हे नाथ! (अपने) बलके भ्रमसे बड़े-बड़े दैत्य-दानव आदि महामूर्ख बनकर (सबके) सिरपर चढ़ गये थे और उन्होंने लोकपालोंको भी जीत लिया था। इन लोगोंको इनके मालिकोंने (देवताओंने) पहले तो (इनके तपपर) रीझ-रीझकर (मनमाने) वर दिये, पर पीछेसे नाराज हो-होकर इनके घरोंको स्वाहा करा दिया! (आपकी प्रार्थना करके) अपने सेवकोंको बिगाड़ते समय किसीको भी शर्म न आयी॥ २॥ हे रामजी! सावधान सेवकोंको तो आप ही भलीभाँति पहचानते हैं, क्योंकि आप ही सच्चे समर्थ, सद्‍गुणोंके स्थान और परमपवित्र हैं। आप सबपर कृपा करनेवाले, प्रसन्न-मुख, सदा एकरस और एकरूप हैं। आपको घट-घटका भेद विशेषरूपसे मालूम है॥ ३॥ हे कृपालो! आपके समान शरणागत कंगालोंको पालनेवाला दूसरा कोई नहीं है और मुझ-सरीखा कोई कंगाल नहीं है। हे देव! सारे धर्मोंका निवास दयामें ही है (अतः मुझ दीनपर दया कर दीजिये)। फिर हे नाथ! आप तो कल्पवृक्ष हैं। इसी कल्पवृक्षकी छायामें रहना चाहता हूँ। बलिहारी! यह तुलसी कलियुगके कुटिल धर्मोंसे बड़ा ही व्याकुल हो रहा है। (कृपाकर इसे शीघ्र ही बचाइये॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२५०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ हौं बार बार प्रभुहि पुकारिकै खिझावतो न,
जो पै मोको होतो कहूँ ठाकुर-ठहरु।
आलसी-अभागे मोसे तैं कृपालु पाले-पोसे,
राजा मेरे राजाराम, अवध सहरु॥ १॥
सेये न दिगीस, न दिनेस, न गनेस, गौरी,
हित कै न माने बिधि हरिउ न हरु।
रामनाम ही सों जोग-छेम, नेम, प्रेम-पन,
सुधा सो भरोसो एहु, दूसरो जहरु॥ २॥
समाचार साथके अनाथ-नाथ! कासों कहौं,
नाथ ही के हाथ सब चोरऊ पहरु।
निज काज, सुरकाज, आरतके काज, राज!
बूझिये बिलंब कहा कहूँ न गहरु॥ ३॥
रीति सुनि रावरी प्रतीति-प्रीति रावरे सों,
डरत हौं देखि कलिकालको कहरु।
कहेही बनैगी कै कहाये, बलि जाउँ, राम,
‘तुलसी! तू मेरो, हारि हिये न हहरु’॥ ४॥

मूल

तौ हौं बार बार प्रभुहि पुकारिकै खिझावतो न,
जो पै मोको होतो कहूँ ठाकुर-ठहरु।
आलसी-अभागे मोसे तैं कृपालु पाले-पोसे,
राजा मेरे राजाराम, अवध सहरु॥ १॥
सेये न दिगीस, न दिनेस, न गनेस, गौरी,
हित कै न माने बिधि हरिउ न हरु।
रामनाम ही सों जोग-छेम, नेम, प्रेम-पन,
सुधा सो भरोसो एहु, दूसरो जहरु॥ २॥
समाचार साथके अनाथ-नाथ! कासों कहौं,
नाथ ही के हाथ सब चोरऊ पहरु।
निज काज, सुरकाज, आरतके काज, राज!
बूझिये बिलंब कहा कहूँ न गहरु॥ ३॥
रीति सुनि रावरी प्रतीति-प्रीति रावरे सों,
डरत हौं देखि कलिकालको कहरु।
कहेही बनैगी कै कहाये, बलि जाउँ, राम,
‘तुलसी! तू मेरो, हारि हिये न हहरु’॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! यदि मुझे कहीं कोई दूसरा स्वामी या (आश्रयके लिये) स्थान मिल जाता, तो मैं बार-बार आपको पुकारकर अप्रसन्न न करता। हे महाराज रामचन्द्रजी! मुझ-सरीखे आलसियों और अभागोंको तो आपने ही पाला-पोसा है। अतएव हे कृपालो! आप ही मेरे राजा हैं और अयोध्या ही मेरे (रहनेके) लिये शहर है॥ १॥ न तो मैंने दिक्पाल, सूर्य, गणेश और पार्वतीहीकी प्रेमपूर्वक सेवा की है और न (श्रद्धासहित) ब्रह्मा, शिव और विष्णुकी ही उपासना की है। मेरा तो योग-क्षेम एक राम-नामसे ही है। (राम-नामसे ही मुझे तो अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्त साधनकी रक्षा हुई है) उसीसे मेरा नेम है, उसीसे प्रेम है और उसीमें अनन्यता है। उसका भरोसा मेरे लिये अमृतके समान है और दूसरे सब साधन विषके समान हैं॥ २॥ हे अनाथोंके नाथ! मेरे साथी चोर और चौकीदार सब आपहीके हाथमें हैं, इससे उनकी बात और किससे कहूँ। (आप काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि चोरोंको भगाकर विवेक-वैराग्यरूपी चौकीदारोंको सचेत कर देंगे तो मेरा राम-नाम-प्रेमरूपी धन बच जायगा।) हे महाराज! जरा विचारिये, आपने अपने कामोंमें, देवताओेंके कामोंमें और दीन-दुःखियोंके कामोंमें क्या कभी देर की है? फिर मेरे ही लिये क्यों इतना विलम्ब हो रहा है?॥ ३॥ आपकी रीति (पतित-पावनता, शरणागत-वत्सलता आदि) सुनकर मुझे आपपर विश्वास और प्रेम हो गया है, किन्तु कलियुगकी अनीति देखकर मैं डरता हूँ (कि कहीं वह मुझे आपसे विमुखकर विषयोंमें न फँसा दे)। हे रघुनाथजी! मैं आपकी बलैया लेता हूँ; मेरी तो आपके इतना कहनेसे या किसीके द्वारा कहलानेसे ही बनेगी कि ‘हे तुलसी! तू मेरा है, निराश होकर हृदयमें मत घबरा’॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२५१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम! रावरो सुभाउ, गुन सील महिमा प्रभाउ,
जान्यो हर, हनुमान, लखन, भरत।
जिन्हके हिये-सुथरु राम-प्रेम-सुरतरु,
लसत सरस सुख फूलत फरत॥ १॥
आप माने स्वामी कै सखा सुभाइ भाइ, पति,
ते सनेह-सावधान रहत डरत।
साहिब-सेवक-रीति, प्रीति-परिमिति, नीति,
नेमको निबाह एक टेक न टरत॥ २॥
सुक-सनकादि, प्रहलाद-नारदादि कहैं,
रामकी भगति बड़ी बिरति-निरत।
जाने बिनु भगति न, जानिबो तिहारे हाथ,
समुझि सयाने नाथ! पगनि परत॥ ३॥
छ-मत बिमत, न पुरान मत, एक मत,
नेति-नेति-नेति नित निगम करत।
औरनिकी कहा चली? एकै बात भलै भली,
राम-नाम लिये तुलसी हू से तरत॥ ४॥

मूल

राम! रावरो सुभाउ, गुन सील महिमा प्रभाउ,
जान्यो हर, हनुमान, लखन, भरत।
जिन्हके हिये-सुथरु राम-प्रेम-सुरतरु,
लसत सरस सुख फूलत फरत॥ १॥
आप माने स्वामी कै सखा सुभाइ भाइ, पति,
ते सनेह-सावधान रहत डरत।
साहिब-सेवक-रीति, प्रीति-परिमिति, नीति,
नेमको निबाह एक टेक न टरत॥ २॥
सुक-सनकादि, प्रहलाद-नारदादि कहैं,
रामकी भगति बड़ी बिरति-निरत।
जाने बिनु भगति न, जानिबो तिहारे हाथ,
समुझि सयाने नाथ! पगनि परत॥ ३॥
छ-मत बिमत, न पुरान मत, एक मत,
नेति-नेति-नेति नित निगम करत।
औरनिकी कहा चली? एकै बात भलै भली,
राम-नाम लिये तुलसी हू से तरत॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रामजी! आपके स्वभाव, गुण, शीलकी महिमा और प्रभावको श्रीशिवजी, हनूमान् जी, लक्ष्मणजी और भरतजीने ही (तत्त्वसे) जाना है, (इसीसे) उनके हृदयरूपी सुन्दर थामलेमें आपके प्रेमका कल्पवृक्ष सुशोभित हो रहा है, जिसमें परम सुखरूपी सरस फूल-फल फूलते और फलते हैं। (जो भगवान् के गुण-शीलकी महिमा जान लेता है, उसका हृदय भगवत्प्रेमसे ही भर जाता है; और जिस हृदयमें भगवत्प्रेम भरा है, उसीमें परमानन्द निवास करता है)॥ १॥ आप अपने स्वभावके वश होकर शिवजीको स्वामी, हनूमान् जी को मित्र और लक्ष्मण तथा भरतको अपना भाई मानते हैं और वे सब आपको अपना मालिक मानते हैं, प्रेममें सदा सावधान रहते हैं और डरा करते हैं (कि कहीं प्रेमकी अनन्यता और विशुद्धतामें कमी न आ जाय)। यदि स्वामी और सेवक दोनों इस रीतिसे प्रेम करते रहें और (प्रेमके) नीति-नियमोंको सदा निबाहते रहें तो उनके (प्रेमकी) टेक कभी टल नहीं सकती और वह सीमाको पहुँच जाती है॥ २॥ शुकदेव, सनकादि, प्रह्लाद और नारद आदि भक्तगण कहते हैं कि परमविरक्त होनेसे ही श्रीरघुनाथजीकी महान् (अनन्य विशुद्ध) भक्ति मिलती है। (भोगोंसे परम वैराग्य उसीको प्राप्त होता है जो भगवान् को तत्त्वसे जान लेता है, अतएव परमात्माके) ज्ञान बिना भक्तिकी प्राप्ति नहीं होती; किन्तु वह ज्ञान, हे नाथ! आपके हाथमें है (ज्ञान किसी साधनसे नहीं होता, यह तो भगवत्कृपासे प्राप्त होता है), इसी बातको समझकर चतुर लोग आपके चरणोंपर आकर गिरते हैं (सारे साधनोंको छोड़कर आपकी शरणमें आते हैं)॥ ३॥ छः शास्त्रोंके मत भिन्न-भिन्न हैं, पुराणोंका भी मत एक-सा नहीं है और वेद भी नित्य ‘नेति-नेति’ करते रहते हैं। फिर औरोंके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है? (इस अवस्थामें आपकी शरणागतिको छोड़कर आपको तत्त्वसे जाननेके लिये और उपाय ही क्या है?)। (इसलिये) मुझे तो बस, एक श्रीराम-नामका आश्रय लेना, यही बात अच्छी जान पड़ती है और इसीसे कल्याण हो सकता है, क्योंकि इससे तुलसीदास-सरीखे भी (संसार-सागरसे) तर गये हैं॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२५२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाप! आपने करत मेरी घनी घटि गई।
लालची लबारकी सुधारिये बारक, बलि,
रावरी भलाई सबहीकी भली भई॥ १॥
रोगबस तनु, कुमनोरथ मलिन मनु,
पर-अपबाद मिथ्या-बाद बानी हई।
साधनकी ऐसी बिधि, साधन बिना न सिधि
बिगरी बनावै कृपानिधिकी कृपा नई॥ २॥
पतित-पावन, हित आरत-अनाथनिको,
निराधारको अधार, दीनबंधु, दई।
इन्हमें न एकौ भयो, बूझि न जूझ्यो न जयो,
ताहिते त्रिताप-तयो, लुनियत बई॥ ३॥
स्वाँग सूधो साधुको, कुचालि कलितें अधिक,
परलोक फीकी मति, लोक-रंग-रई।
बड़े कुसमाज राज! आजुलौं जो पाये दिन,
महाराज! केहू भाँति नाम-ओट लई॥ ४॥
राम! नामको प्रताप जानियत नीके आप,
मोको गति दूसरी न बिधि निरमई।
खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु,
रीझिबे लायक तुलसीकी निलजई॥ ५॥

मूल

बाप! आपने करत मेरी घनी घटि गई।
लालची लबारकी सुधारिये बारक, बलि,
रावरी भलाई सबहीकी भली भई॥ १॥
रोगबस तनु, कुमनोरथ मलिन मनु,
पर-अपबाद मिथ्या-बाद बानी हई।
साधनकी ऐसी बिधि, साधन बिना न सिधि
बिगरी बनावै कृपानिधिकी कृपा नई॥ २॥
पतित-पावन, हित आरत-अनाथनिको,
निराधारको अधार, दीनबंधु, दई।
इन्हमें न एकौ भयो, बूझि न जूझ्यो न जयो,
ताहिते त्रिताप-तयो, लुनियत बई॥ ३॥
स्वाँग सूधो साधुको, कुचालि कलितें अधिक,
परलोक फीकी मति, लोक-रंग-रई।
बड़े कुसमाज राज! आजुलौं जो पाये दिन,
महाराज! केहू भाँति नाम-ओट लई॥ ४॥
राम! नामको प्रताप जानियत नीके आप,
मोको गति दूसरी न बिधि निरमई।
खीझिबे लायक करतब कोटि कोटि कटु,
रीझिबे लायक तुलसीकी निलजई॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे मेरे बापजी! मैंने अपने ही हाथों अपनी करनी बहुत ही बिगाड़ डाली है, आपकी बलैया लेता हूँ, इस लोभी और झूठेकी बात एक बार तो सुधार दीजिये। क्योंकि जिस-जिसके साथ आपने भलाई की, उसीकी बात बन गयी (दया करके आज मेरी भी बिगड़ी बना दीजिये)॥ १॥ शरीर रोगी है, मन बुरी-बुरी कामनाओंसे मलिन हो रहा है और वाणी दूसरोंकी निन्दा करते और झूठ बोलते-बोलते नष्ट हो गयी है; (जिस तन-मन-वचनसे साधन होते हैं, वे तीनों ही साधनके योग्य नहीं रहे, परन्तु) साधनोंका यह नियम है कि बिना साधे वे सिद्ध नहीं होते। इससे (अब तो) हे कृपानिधे! आपकी एक कृपा ही ऐसी अनूठी है, जो मेरी बिगड़ी बातको बना देगी। (आपकी कृपासे ही मुझ साधनहीनका सुधार हो सकता है)॥ २॥ आप पापियोंको पवित्र करनेवाले, दुःखियों और अनाथोंके हितू, निराधारोंके आधार, दीनोंके बन्धु और (स्वाभाविक ही) दयालु हैं। किन्तु, मैं तो इनमेंसे एक भी नहीं हूँ (अहंकारके मारे मैंने अपनेको कभी पतित, दुःखी, दीन, अनाथ और निराधार माना ही नहीं। तब फिर आप इनके नाते मुझपर क्यों कृपा करेंगे?)। न तो मैंने विवेकसे अपने शत्रुओं (काम, क्रोध, लोभ, मोह)-के ही साथ युद्ध किया और न उनपर विजय ही प्राप्त की। इसीसे मैं दैहिक, भौतिक, और दैविक इन तीनों तापोंसे जल रहा हूँ; जैसा बोया वैसा ही काट रहा हूँ (किसे दोष दूँ?)॥ ३॥ मेरा स्वाँग तो सीधे-सादे साधुका-सा है, पर पाप करनेमें मैं कलियुगसे भी बढ़ा हुआ हूँ। मेरी बुद्धिको परलोककी (भगवत्सम्बन्धी) बातें फीकी लगती हैं और वह संसारके रंगमें रँगी हुई है (वह केवल विषय-भोगोंके पाने-न-पानेकी उलझनमें फँसी रहती है)। हे महाराज! इस बड़े भारी दुष्ट-समाजके साथ आजतक जितने दिन बीते सो तो व्यर्थ चले ही गये, अब किसी-न-किसी तरह आपके नामका सहारा लिया है॥ ४॥ हे श्रीरामजी! आप भलीभाँति जानते हैं कि आपके नामका कैसा प्रताप है! (न मालूम मुझ-सरीखे कितने नामके प्रतापसे तर चुके हैं)। मेरे लिये तो सिवा आपके नामके विधाताने दूसरी गति ही नहीं रची है। आपको असन्तुष्ट करनेके लायक मेरे करोड़ों कुकर्म हैं, किन्तु सन्तुष्ट करनेके लायक तो मेरी एक निर्लज्जता ही है। (मेरी निर्लज्जतापर ही प्रसन्न होकर कृपा कीजिये)॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(२५३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम! राखिये सरन, राखि आये सब दिन।
बिदित त्रिलोक तिहुँ काल न दयालु दूजो,
आरत-प्रनत-पाल को है प्रभु बिन॥ १॥
लाले पाले, पोषे तोषे आलसी-अभागी-अघी,
नाथ! पै अनाथनिसों भये न उरिन।
स्वामी समरथ ऐसो, हौं तिहारो जैसो-तैसो
काल-चाल हेरि होति हिये घनी घिन॥ २॥
खीझि-रीझि, बिहँसि-अनख, क्यों हूँ एक बार
‘तुलसी तू मेरो’, बलि, कहियत किन?
जाहिं सूल निरमूल, होहिं सुख अनुकूल,
महाराज राम! रावरी सौं, तेहि छिन॥ ३॥

मूल

राम! राखिये सरन, राखि आये सब दिन।
बिदित त्रिलोक तिहुँ काल न दयालु दूजो,
आरत-प्रनत-पाल को है प्रभु बिन॥ १॥
लाले पाले, पोषे तोषे आलसी-अभागी-अघी,
नाथ! पै अनाथनिसों भये न उरिन।
स्वामी समरथ ऐसो, हौं तिहारो जैसो-तैसो
काल-चाल हेरि होति हिये घनी घिन॥ २॥
खीझि-रीझि, बिहँसि-अनख, क्यों हूँ एक बार
‘तुलसी तू मेरो’, बलि, कहियत किन?
जाहिं सूल निरमूल, होहिं सुख अनुकूल,
महाराज राम! रावरी सौं, तेहि छिन॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! मुझे अपने ही शरणमें रखिये, क्योंकि (मुझ-सरीखोंको) सदासे आप ही अपनाते आये हैं। यह सभी जानते हैं कि तीनों लोकों और तीनों कालोंमें आपके समान दयालु दूसरा कोई नहीं है। हे नाथ! आर्त शरणागतोंकी रक्षा करनेवाला आपके सिवा दूसरा कौन है?॥ १॥ आपने ही आलसी, अभागे और पापी लोगोंका लालन-पालन किया, उन्हें पाला-पोसा और प्रसन्न रखा; तिसपर भी हे नाथ! आप उनसे कभी उऋण नहीं हुए। हे स्वामी! आप तो समर्थ हैं; पर मैं (भला-बुरा) जैसा कुछ हूँ, आपहीका हूँ। कलिकालकी चालें देखकर मेरे हृदयमें बड़ी घिन हो रही है (यह शंका है कि कहीं यह दुष्ट आपके चरणोंकी ओरसे मेरे मनको फेर न दे।)॥ २॥ बलिहारी! एक बार नाराजीसे अथवा राजीसे, मुसकराकर या अनखाकर किसी भी तरह इतना क्यों नहीं कह देते कि ‘तुलसी! तू मेरा है’ इतना कह देनेमात्रसे ही, हे महाराज रामचन्द्रजी! मैं आपकी शपथ खाकर कहता हूँ, उसी क्षण मेरा सारा दुःख जड़से नष्ट हो जायगा और समस्त सुख मेरे अनुकूल हो जायँगे॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(२५४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम! रावरो नाम मेरो मातु-पितु है।
सुजन-सनेही, गुरु-साहिब, सखा-सुहृद्,
राम-नाम प्रेम-पन अबिचल बितु है॥ १॥
सतकोटि चरित अपार दधिनिधि मथि
लियो काढ़ि वामदेव नाम-घृतु है।
नामको भरोसो-बल चारिहू फलको फल,
सुमिरिये छाड़ि छल, भलो कृतु है॥ २॥
स्वारथ-साधक, परमारथ-दायक नाम,
राम-नाम सारिखो न और हितु है।
तुलसी सुभाव कही, साँचिये परैगी सही,
सीतानाथ-नाम नित चितहूको चितु है॥ ३॥

मूल

राम! रावरो नाम मेरो मातु-पितु है।
सुजन-सनेही, गुरु-साहिब, सखा-सुहृद्,
राम-नाम प्रेम-पन अबिचल बितु है॥ १॥
सतकोटि चरित अपार दधिनिधि मथि
लियो काढ़ि वामदेव नाम-घृतु है।
नामको भरोसो-बल चारिहू फलको फल,
सुमिरिये छाड़ि छल, भलो कृतु है॥ २॥
स्वारथ-साधक, परमारथ-दायक नाम,
राम-नाम सारिखो न और हितु है।
तुलसी सुभाव कही, साँचिये परैगी सही,
सीतानाथ-नाम नित चितहूको चितु है॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! आपका नाम ही मेरा माता-पिता, स्वजन-सम्बन्धी, प्रेमी, गुरु, स्वामी, मित्र और अहैतुक हितकारी है। और आपके नामसे जो मेरा अनन्य प्रेम है, वही मेरा अटल धन है॥ १॥ शिवजीने सौ करोड़ चरित्ररूपी अगाध दधि-सागरको मथकर उससे राम-नामरूपी घी निकाला है। आपके नामका बल-भरोसा अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फलोंका (चरम) फल है। कपटभाव छोड़कर इसीका स्मरण करना चाहिये। यही सर्वोत्तम यज्ञ* है॥ २॥ आपका नाम सभी सांसारिक स्वार्थोंका साधनेवाला एवं परमार्थ (मोक्ष)-का प्रदान करनेवाला है। श्रीरामनामके समान हित करनेवाला और कोई भी नहीं है। यह बात तुलसीने स्वभावसे ही कही है, अतएव सचमुच ही इसपर सही पड़ेगी। जानकीरमण श्रीरामका नाम चित्तका भी चित् है॥ ३॥

पादटिप्पनी
  • गीतामें तो श्रीभगवान् ने जप-यज्ञको अपना स्वरूप ही बतलाया है—यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि।
विषय (हिन्दी)

(२५५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम! रावरो नाम साधु-सुरतरु है।
सुमिरे त्रिबिध घाम हरत, पूरत काम,
सकल सुकृत सरसिजको सरु है॥ १॥
लाभहूको लाभ, सुखहूको सुख, सरबस,
पतित-पावन, डरहूको डरु है।
नीचेहूको ऊँचेहूको, रंकहूको रावहूको
सुलभ, सुखद आपनो-सो घरु है॥ २॥
बेद हू, पुरान हू, पुरारि हू पुकारि कह्यो,
नाम-प्रेम चारिफलहूको फरु है।
ऐसे राम-नाम सों न प्रीति, न प्रतीति मन,
मेरे जान, जानिबो सोई नर खरु है॥ ३॥
नाम-सो न मातु-पितु, मीत-हित, बंधु-गुरु,
साहिब सुधी सुसील सुधाकरु है।
नामसों निबाह नेहु, दीनको दयालु! देहु,
दासतुलसीको, बलि, बड़ो बरु है॥ ४॥

मूल

राम! रावरो नाम साधु-सुरतरु है।
सुमिरे त्रिबिध घाम हरत, पूरत काम,
सकल सुकृत सरसिजको सरु है॥ १॥
लाभहूको लाभ, सुखहूको सुख, सरबस,
पतित-पावन, डरहूको डरु है।
नीचेहूको ऊँचेहूको, रंकहूको रावहूको
सुलभ, सुखद आपनो-सो घरु है॥ २॥
बेद हू, पुरान हू, पुरारि हू पुकारि कह्यो,
नाम-प्रेम चारिफलहूको फरु है।
ऐसे राम-नाम सों न प्रीति, न प्रतीति मन,
मेरे जान, जानिबो सोई नर खरु है॥ ३॥
नाम-सो न मातु-पितु, मीत-हित, बंधु-गुरु,
साहिब सुधी सुसील सुधाकरु है।
नामसों निबाह नेहु, दीनको दयालु! देहु,
दासतुलसीको, बलि, बड़ो बरु है॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! साधुओंके लिये तो आपका नाम कल्पवृक्ष है। क्योंकि स्मरण करते ही वह तीनों (दैहिक, भौतिक और दैविक) तापोंको हर लेता है और सारी कामनाएँ पूर्ण कर देता है, मनुष्यको पूर्णकाम बना देता है। (वह आपका नाम) समस्त पुण्यरूपी कमलोंका सरोवर है (राम-नामका आश्रय लेनेवालेको सभी पुण्योंका फल मिल जाता है)॥ १॥ वह लाभका भी लाभ, सुखका भी सुख है और (भक्तोंका) सर्वस्व है। (उससे बढ़कर संतोंका कोई लाभ, सुख या धन नहीं है) वह पतितोंको पावन करनेवाला और (सबको डरानेवाले यमदूतरूपी महा) भयको भी भयभीत करनेवाला है। वह नीच-ऊँच और राव-रंक, सभीके लिये सुलभ है (सभी उसका जप कर सकते हैं)। सभीको सुख देनेवाला है और अपने निजी घरके समान आराम देनेवाला है॥ २॥ वेदोंने, पुराणोंने और शिवजीने भी पुकार-पुकारकर कहा है कि राम-नाममें प्रेम होना ही चारों (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) फलोंका फल है। ऐसे श्रीराम-नामपर जिसके मनमें प्रेम और विश्वास नहीं है, मेरी समझमें उस मनुष्यको गधा समझना चाहिये (वह गधेके समान जीवनमें मनुष्यत्वके अहंकारका भार ही ढोता है)॥ ३॥ पिता-माता, मित्र-हितू, भाई, गुरु और मालिक इनमेंसे कोई भी श्रीराम-नामके समान नहीं है। वह परम सुशील सुधाकर (चन्द्रमा)-के समान बुद्धिमान् स्वामी है। (शरण लेते ही समस्त ताप हर लेता है और मोक्षरूप अमृत पान कराकर सदाके लिये सुखी कर देता है)। हे दयालु! मैं बलैया लेता हूँ, इस तुलसीदासको वही महान् बल दीजिये, जिससे आपके नामके साथ इस दीनका प्रेम सदा निभ जाय॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२५६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहे बिनु रह्यो न परत, कहे राम! रस न रहत।
तुमसे सुसाहिबकी ओट जन खोटो-खरो
कालकी, करमकी कुसाँसति सहत॥ १॥
करत बिचार सार पैयत न कहूँ कछु,
सकल बड़ाई सब कहाँ ते लहत?
नाथकी महिमा सुनि, समुझि आपनी ओर,
हेरि हारि कै हहरि हृदय दहत॥ २॥
सखा न, सुसेवक न, सुतिय न, प्रभु आप,
माय-बाप तुही साँचो तुलसी कहत।
मेरी तौ थोरी है, सुधरैगी बिगरियौ, बलि,
राम! रावरी सौं, रही रावरी चहत॥ ३॥

मूल

कहे बिनु रह्यो न परत, कहे राम! रस न रहत।
तुमसे सुसाहिबकी ओट जन खोटो-खरो
कालकी, करमकी कुसाँसति सहत॥ १॥
करत बिचार सार पैयत न कहूँ कछु,
सकल बड़ाई सब कहाँ ते लहत?
नाथकी महिमा सुनि, समुझि आपनी ओर,
हेरि हारि कै हहरि हृदय दहत॥ २॥
सखा न, सुसेवक न, सुतिय न, प्रभु आप,
माय-बाप तुही साँचो तुलसी कहत।
मेरी तौ थोरी है, सुधरैगी बिगरियौ, बलि,
राम! रावरी सौं, रही रावरी चहत॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! कहे बिना तो रहा नहीं जाता और कह देनेपर कुछ रस (मजा) नहीं रह जाता। (बात यह है कि) आप-सरीखे श्रेष्ठ स्वामीका आश्रय पाकर भी मैं आपका बुरा या भला सेवक काल और कर्मके कारण असह्य दुःख भोग रहा हूँ॥ १॥ (व्याध-निषाद आदिके बड़प्पनपर) विचार करता हूँ, पर कहीं कुछ भी रहस्य नहीं मिलता कि इन सब लोगोंने कहाँसे बड़प्पन प्राप्त किया? (सुना जाता है, आपने ही इनको दीन जानकर अपना लिया, जिससे ये सब महान् पूज्य हो गये) आपकी (ऐसी) महिमा सुन-समझकर जब अपनी दशाकी ओर देखता हूँ तो निराश हो जाता हूँ और घबराहटसे हृदय जलने लगता है (दीन और पतितोंको तारनेवाले होकर भी मुझ शरणागत दीनको अबतक क्यों नहीं अपनाया? यही सोचकर हृदयमें जलन होने लगती है और इसीसे मनमानी बातें कह बैठता हूँ)॥ २॥ (और कहूँ भी किससे, क्योंकि) न तो मेरा कोई मित्र है, न सच्चा सेवक है, न सुलक्षणा स्त्री है और न कोई नाथ है। मेरे तो माँ-बाप आप ही हैं, तुलसी यह सच्ची बात कह रहा है। मेरी तो थोड़ी-सी बात है, बिगड़ी होनेपर भी सुधर जायगी; किन्तु, बलिहारी! मैं आपकी शपथ खाकर कह रहा हूँ मैं तो आपकी बात ही रखना चाहता हूँ (कहीं आपका पतितपावन और शरणागतवत्सल बाना न लज जाय)॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(२५७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीनबंधु! दूरि किये दीनको न दूसरी सरन।
आपको भले हैं सब, आपनेको कोऊ कहूँ,
सबको भलो है राम! रावरो चरन॥ १॥
पाहन, पसु, पतंग, कोल, भील, निसिचर
काँच ते कृपानिधान किये सुबरन।
दंडक-पुहुमि पाय परसि पुनीत भई,
उकठे बिटप लागे फूलन-फरन॥ २॥
पतित-पावन नाम बाम हू दाहिनो, देव!
दुनी न दुसह-दुख-दूषन-दरन।
सीलसिंधु! तोसों ऊँची-नीचियौ कहत सोभा,
तोसो तुही तुलसीको आरति-हरन॥ ३॥

मूल

दीनबंधु! दूरि किये दीनको न दूसरी सरन।
आपको भले हैं सब, आपनेको कोऊ कहूँ,
सबको भलो है राम! रावरो चरन॥ १॥
पाहन, पसु, पतंग, कोल, भील, निसिचर
काँच ते कृपानिधान किये सुबरन।
दंडक-पुहुमि पाय परसि पुनीत भई,
उकठे बिटप लागे फूलन-फरन॥ २॥
पतित-पावन नाम बाम हू दाहिनो, देव!
दुनी न दुसह-दुख-दूषन-दरन।
सीलसिंधु! तोसों ऊँची-नीचियौ कहत सोभा,
तोसो तुही तुलसीको आरति-हरन॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे दीनबन्धो! यदि आपने इस दीनको (अपनी शरणसे) हटा दिया तो फिर इसे और कहीं शरण न मिलेगी। क्योंकि अपनी भलाई चाहनेवाले तो प्रायः सभी हैं, किन्तु अपने दासोंका भला करनेवाला कोई विरला ही है। हे श्रीरामजी! सबका भला करनेवाले तो आपके चरण ही हैं, (आपके चरणोंके आश्रयसे भले-बुरे सभीका कल्याण होता है)॥ १॥ पत्थरकी शिला (अहल्या), पशु (बंदर, रीछ), पक्षी (जटायु), कोल-भील, राक्षस (विभीषण) आदिको हे कृपानिधान! आपने काँचसे सोना बना दिया (विषयी थे जिनको मुक्त कर दिया)। दण्डकवनकी भूमि आपके चरणोंका स्पर्श होते ही पवित्र हो गयी और उखड़े हुए सूखे पेड़ फिर फूलने-फलने लगे॥ २॥ आपका पतित-पावन नाम जो आपसे विमुख हैं उनका भी कल्याण करता है (शत्रुभावसे भजनेवाले भी तर जाते हैं)। हे देव! संसारमें असह्य दुःखों और पापोंका नाश करनेवाला आपको छोड़कर दूसरा कोई नहीं है। आप शीलके समुद्र हैं, अतएव आपसे नीची-ऊँची बात कहनेमें भी शोभा ही है (अधिक क्या कहूँ)। तुलसीके दुःख दूर करनेवाले तो बस आप-सरीखे एक आप ही हैं (इसीसे शरण पड़ा हूँ)॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(२५८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानि पहिचानि मैं बिसारे हौं कृपानिधान!
एतो मान ढीठ हौं उलटि देत खोरि हौं।
करत जतन जासों जोरिबे को जोगीजन,
तासों क्योंहू जुरी, सो अभागो बैठो तोरि हौं॥ १॥
मोसो दोस-कोसको भुवन-कोस दूसरो न,
आपनी समुझि सूझि आयो टकटोरि हौं।
गाड़ीके स्वानकी नाईं, माया मोहकी बड़ाई
छिनहिं तजत, छिन भजत बहोरि हौं॥ २॥
बड़ो साईं-द्रोही न बराबरी मेरीको कोऊ,
नाथकी सपथ किये कहत करोरि हौं।
दूरि कीजै द्वारतें लबार लालची प्रपंची,
सुधा-सो सलिल सूकरी ज्यों गहडोरिहौं॥ ३॥
राखिये नीके सुधारि, नीचको डारिये मारि,
दुहूँ ओरकी बिचारि, अब न निहोरिहौं।
तुलसी कही है साँची रेख बार बार खाँची,
ढील किये नाम-महिमाकी नाव बोरिहौं॥ ४॥

मूल

जानि पहिचानि मैं बिसारे हौं कृपानिधान!
एतो मान ढीठ हौं उलटि देत खोरि हौं।
करत जतन जासों जोरिबे को जोगीजन,
तासों क्योंहू जुरी, सो अभागो बैठो तोरि हौं॥ १॥
मोसो दोस-कोसको भुवन-कोस दूसरो न,
आपनी समुझि सूझि आयो टकटोरि हौं।
गाड़ीके स्वानकी नाईं, माया मोहकी बड़ाई
छिनहिं तजत, छिन भजत बहोरि हौं॥ २॥
बड़ो साईं-द्रोही न बराबरी मेरीको कोऊ,
नाथकी सपथ किये कहत करोरि हौं।
दूरि कीजै द्वारतें लबार लालची प्रपंची,
सुधा-सो सलिल सूकरी ज्यों गहडोरिहौं॥ ३॥
राखिये नीके सुधारि, नीचको डारिये मारि,
दुहूँ ओरकी बिचारि, अब न निहोरिहौं।
तुलसी कही है साँची रेख बार बार खाँची,
ढील किये नाम-महिमाकी नाव बोरिहौं॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे कृपानिधान! मैंने जान-पहचानकर भी आपको भुला दिया है और घमंडके मारे इतना ढीठ हो गया हूँ कि उलटा आपहीपर दोष मढ़ता हूँ (कि आप शीलसिन्धु होकर भी मुझे अपनाते नहीं हैं)। जिससे प्रीति जोड़नेके लिये बड़े-बड़े योगी यत्न किया करते हैं, उससे ज्यों-त्यों करके कुछ प्रीति जुड़ गयी थी, पर मैं अभागा उसे भी तोड़ बैठा॥ १॥ मुझ-सरीखा पापोंका खजाना चौदहों लोकोंमें दूसरा नहीं है, अपनी समझमें मैं खूब ढूँढ़ चुका हूँ। जैसे गाड़ीके पीछे लगा हुआ कुत्ता कभी तो गाड़ीको छोड़कर इधर-उधर भाग जाता है और कभी फिर उसके साथ हो लेता है, वैसे ही मैं क्षणभरमें तो माया-मोहके बड़प्पनको छोड़ बैठता हूँ और दूसरे ही क्षण फिर उसीमें रम जाता हूँ॥ २॥ मैं आपकी करोड़ों शपथ खाकर कह रहा हूँ कि स्वामीके साथ द्रोह करनेवाला मेरी बराबरीका दूसरा कोई भी नहीं है। इसलिये मुझ झूठे, लालची और ठगको दरवाजेसे हटा दीजिये, नहीं तो मैं अमृत-सरीखा जल शूकरीकी तरह गँदला कर डालूँगा (आपका भक्त कहाकर बुरे कर्म करूँगा तो आपके निर्मल यशमें कलंक लग जायगा)॥ ३॥ (अतएव) या तो मुझे अच्छी तरह सुधारकर (अपनी शरणमें) रख लीजिये, नहीं तो मुझ नीचको मार ही डालिये। बस, अब आप ही इन दोनों बातोंपर विचार कर लीजिये, अब मैं आपका निहोरा न करूँगा। तुलसीने बार-बार लकीर खींचकर सच्ची बात कह दी है। यदि आप भी देरी करेंगे, तो मैं आपके नामकी महिमारूपी नौकाको डुबा दूँगा। (मेरी दुर्दशा देखकर लोग आपके नामका विश्वास छोड़ देंगे)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२५९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावरी सुधारी जो बिगारी बिगरैगी मेरी,
कहौं, बलि, बेदकी न, लोक कहा कहैगो?
प्रभुको उदास-भाउ, जनको पाप-प्रभाउ,
दुहूँ भाँति दीनबन्धु! दीन दुख दहैगो॥ १॥
मैं तो दियो छाती पबि, लयो कलिकाल दबि,
साँसति सहत, परबस को न सहैगो?
बाँकी बिरुदावली बनैगी पाले ही कृपालु!
अंत मेरो हाल हेरि यौं न मन रहैगो॥ २॥
करमी-धरमी, साधु-सेवक, बिरत-रत,
आपनी भलाई थल कहाँ कौन लहैगो?
तेरे मुँह फेरे मोसे कायर-कपूत-कूर,
लटे लटपटेनि को कौन परिगहैगो?॥ ३॥
काल पाय फिरत दसा दयालु! सबहीकी,
तोहि बिनु मोहि कबहूँ न कोऊ चहैगो।
बचन-करम-हिये कहौं राम! सौंह किये,
तुलसी पै नाथके निबाहेई निबहैगो॥ ४॥

मूल

रावरी सुधारी जो बिगारी बिगरैगी मेरी,
कहौं, बलि, बेदकी न, लोक कहा कहैगो?
प्रभुको उदास-भाउ, जनको पाप-प्रभाउ,
दुहूँ भाँति दीनबन्धु! दीन दुख दहैगो॥ १॥
मैं तो दियो छाती पबि, लयो कलिकाल दबि,
साँसति सहत, परबस को न सहैगो?
बाँकी बिरुदावली बनैगी पाले ही कृपालु!
अंत मेरो हाल हेरि यौं न मन रहैगो॥ २॥
करमी-धरमी, साधु-सेवक, बिरत-रत,
आपनी भलाई थल कहाँ कौन लहैगो?
तेरे मुँह फेरे मोसे कायर-कपूत-कूर,
लटे लटपटेनि को कौन परिगहैगो?॥ ३॥
काल पाय फिरत दसा दयालु! सबहीकी,
तोहि बिनु मोहि कबहूँ न कोऊ चहैगो।
बचन-करम-हिये कहौं राम! सौंह किये,
तुलसी पै नाथके निबाहेई निबहैगो॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—यदि आपकी सुधारी हुई मेरी बात मेरे बिगाड़नेसे बिगड़ जायगी तो, मैं तुम्हारी बलैया लेता हूँ, फिर वेदकी तो जाने दीजिये, संसार क्या कहेगा? (वेदमें कुछ भी लिखा हो, संसार तो यही कहेगा कि तुलसी ही ईश्वर है, क्योंकि उसने रामजीकी बनायी बातको बिगाड़ दिया।) प्रभुकी उदासीनता और मुझ दासके पापोंका प्रभाव, यदि ये दोनों मिल गये तो हे दीनबन्धो! यह दीन दुःखके मारे जल मरेगा। (मैं तो महापापी हूँ ही पर आप भी उदासीन हो जायँगे मेरी बड़ी ही बुरी गति होगी)॥ १॥ मैंने तो अपनी छातीपर वज्र रख लिया है (दुःख सहनेके लिये तैयार हूँ, परन्तु पाप नहीं छोड़ता) क्योंकि कलियुगने मुझे दबा रखा है। इसीसे कष्ट सह रहा हूँ। (मैं ही क्यों) जो भी परतन्त्र होगा, उसे कष्ट सहने ही पड़ेंगे। किन्तु हे कृपालु! आपको तो अपनी बाँकी विरदावलीके वश होकर मेरी रक्षा करनी ही पडे़गी। (अभी न सही,) अन्त समय तो मेरा (बुरा) हाल देखकर आपका यह उदासीन भाव रह नहीं सकता (दयालु स्वभावसे मेरा दुःख देखा ही नहीं जायगा, तब दौड़कर बचाना होगा)॥ २॥ कर्मकाण्डी, धर्मात्मा, साधु, सेवक, विरक्त और विषयी जीव ये सब तो अपने-अपने भले कर्मोंके अनुसार कहीं कोई-सा स्थान पा ही जायँगे, परन्तु आपके मुँह फेर लेनेसे (उदासीन हो जानेसे) मुझ-सरीखे कायर, कुपूत, क्रूर, साधनहीन और पतित जीवोंको कौन आश्रय देगा (कोई भी नहीं)॥ ३॥ हे दयालो! काल पाकर सभीकी दशा पलटती है, सभीके दिन फिरते हैं, परन्तु आपको छोड़कर मुझे तो कभी कोई नहीं चाहेगा (आपके आश्रयको छोड़कर मुझे कहीं कोई स्थान नहीं मिलनेका)। हे श्रीरामजी! आपकी शपथ खाकर वचन, कर्म और मनसे कहता हूँ कि यह तुलसी तो नाथके ही निबाहे निभेगा॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२६०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहिब उदास भये दास खास खीस होत
मेरी कहा चली? हौं बजाय जाय रह्यो हौं।
लोकमें न ठाउँ, परलोकको भरोसो कौन?
हौं तो, बलि जाउँ, रामनाम ही ते लह्यो हौं॥ १॥
करम, सुभाउ, काल, काम, कोह, लोभ, मोह-
ग्राह अति गहनि गरीबी गाढ़े गह्यो हौं।
छोरिबेको महाराज, बाँधिबेको कोटि भट,
पाहि प्रभु! पाहि, तिहुँ ताप-पाप दह्यो हौं॥ २॥
रीझि-बूझि सबकी प्रतीति-प्रीति एही द्वार,
दूधको जरॺो पियत फूँकि फूँकि मह्यो हौं।
रटत-रटत लटॺो, जाति-पाँति-भाँति घटॺो,
जूठनिको लालची चहौं न दूध-नह्यो हौं॥ ३॥
अनत चह्यो न भलो, सुपथ सुचाल चल्यो
नीके जिय जानि इहाँ भलो अनचह्यो हौं।
तुलसी समुझि समुझायो मन बार बार,
अपनो सो नाथ हू सों कहि निरबह्यो हौं॥ ४॥

मूल

साहिब उदास भये दास खास खीस होत
मेरी कहा चली? हौं बजाय जाय रह्यो हौं।
लोकमें न ठाउँ, परलोकको भरोसो कौन?
हौं तो, बलि जाउँ, रामनाम ही ते लह्यो हौं॥ १॥
करम, सुभाउ, काल, काम, कोह, लोभ, मोह-
ग्राह अति गहनि गरीबी गाढ़े गह्यो हौं।
छोरिबेको महाराज, बाँधिबेको कोटि भट,
पाहि प्रभु! पाहि, तिहुँ ताप-पाप दह्यो हौं॥ २॥
रीझि-बूझि सबकी प्रतीति-प्रीति एही द्वार,
दूधको जरॺो पियत फूँकि फूँकि मह्यो हौं।
रटत-रटत लटॺो, जाति-पाँति-भाँति घटॺो,
जूठनिको लालची चहौं न दूध-नह्यो हौं॥ ३॥
अनत चह्यो न भलो, सुपथ सुचाल चल्यो
नीके जिय जानि इहाँ भलो अनचह्यो हौं।
तुलसी समुझि समुझायो मन बार बार,
अपनो सो नाथ हू सों कहि निरबह्यो हौं॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जब मालिक उदासीन हो जाता है तब खास नौकर भी बरबाद हो जाता है, फिर मेरी तो बात ही क्या है? मैं तो डंकेकी चोट दुःखोंमें बहा चला जा रहा हूँ। जब मेरे लिये इस लोकमें ही कहीं ठौर नहीं है, तब परलोकका क्या भरोसा करूँ? हे श्रीरामजी! मैं आपकी बलैया लेता हूँ, मैं तो एक आपके नामहीके हाथ बिक चुका हूँ (मेरा लोक-परलोक तो उसीसे बनेगा)॥ १॥ कर्म, स्वभाव, काल, काम, क्रोध, लोभ और मोहरूपी बड़े-बड़े ग्राहोंने और (साधनहीनतारूपी) घोर दरिद्रताने मुझको बड़े जोरसे पकड़ रखा है। हे महाराज! बाँधनेके लिये करोड़ों योद्धा हैं, परन्तु बन्धनसे छुड़ानेके लिये तो केवल एक आप ही हैं। अतएव हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। मैं पापरूपी तीनों तापोंसे जल रहा हूँ (अपनी कृपादृष्टिकी सुधावृष्टिसे इन तापोंको शान्त कीजिये)॥ २॥ हे प्रभो! (दूसरे किसके पास जाऊँ?) सबकी रीझ-बूझ और प्रीति-विश्वास एक आपके ही द्वारपर है। (आपके ही दिये हुए अधिकारसे देवतागण आपके ही खजानेसे अपने सेवकोंको कुछ दिया करते हैं, परन्तु वे मुक्ति नहीं दे सकते। उन सबकी पूजा भी आपकी ही पूजा होती है, क्योंकि सबके मूल आप ही हैं।) मैं तो दूधका जला मट्ठा भी फूँक-फूँककर पीता हूँ। भाव यह कि आपको छोड़कर दूसरोंको भजनेसे कभी परमसुख और दिव्य शान्ति नहीं मिली, इसलिये बहुत सावधान होकर चलता हूँ। सुखके लिये देवताओंको पुकारते-पुकारते हार गया और जाति-पाँति तथा चाल-चलन सभीसे हाथ धो बैठा। इसलिये अब मैं केवल आपके जूठनका ही लालची हूँ। मैं दूधसे नहीं नहाना चाहता। भाव, मुझे स्वर्गके ऐश्वर्यकी इच्छा नहीं है, मैं तो केवल आपके चरणोंमें पड़े रहना चाहता हूँ॥ ३॥ मैं और कहीं (दूसरोंकी शरण लेकर) सुखमार्गपर अच्छी चाल चलकर अपना कल्याण नहीं चाहता हूँ और यहाँ (आपके शरणमें) मैं आदर न पाकर भी अच्छी तरह हूँ। (आपके अनोखे विरदके भरोसे निर्भय और निश्चिन्त पड़ा हूँ)। तुलसीने समझकर अपने मनको बार-बार समझा दिया है और वह अपने नाथसे भी कहकर निश्चिन्त हो गया है कि उसका निर्वाह आपके ही हाथमें है॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२६१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरी न बनै बनाये मेरे कोटि कलप लौं
राम! रावरे बनाये बनै पल पाउ मैं।
निपट सयाने हौ कृपानिधान! कहा कहौं?
लिये बेर बदलि अमोल मनि आउ मैं॥ १॥
मानस मलीन, करतब कलिमल पीन
जीह हू न जप्यो नाम, बक्यो आउ-बाउ मैं।
कुपथ कुचाल चल्यो, भयो न भूलिहू भलो,
बाल-दसा हू न खेल्यो खेलत सुदाउ मैं॥ २॥
देखा-देखी दंभ तें कि संग तें भई भलाई,
प्रकटि जनाई, कियो दुरित-दुराउ मैं।
राग रोष द्वेष पोषे, गोगन समेत मन
इनकी भगति कीन्ही इनही को भाउ मैं॥ ३॥
आगिली-पाछिली, अबहूँकी अनुमान ही तें
बूझियत गति, कछु कीन्हों तो न काउ मैं।
जग कहै रामकी प्रतीति-प्रीति तुलसी हू,
झूठे-साँचे आसरो साहब रघुराउ मैं॥ ४॥

मूल

मेरी न बनै बनाये मेरे कोटि कलप लौं
राम! रावरे बनाये बनै पल पाउ मैं।
निपट सयाने हौ कृपानिधान! कहा कहौं?
लिये बेर बदलि अमोल मनि आउ मैं॥ १॥
मानस मलीन, करतब कलिमल पीन
जीह हू न जप्यो नाम, बक्यो आउ-बाउ मैं।
कुपथ कुचाल चल्यो, भयो न भूलिहू भलो,
बाल-दसा हू न खेल्यो खेलत सुदाउ मैं॥ २॥
देखा-देखी दंभ तें कि संग तें भई भलाई,
प्रकटि जनाई, कियो दुरित-दुराउ मैं।
राग रोष द्वेष पोषे, गोगन समेत मन
इनकी भगति कीन्ही इनही को भाउ मैं॥ ३॥
आगिली-पाछिली, अबहूँकी अनुमान ही तें
बूझियत गति, कछु कीन्हों तो न काउ मैं।
जग कहै रामकी प्रतीति-प्रीति तुलसी हू,
झूठे-साँचे आसरो साहब रघुराउ मैं॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! मेरी सद्‍गति मेरे बनाये (साधनोंके द्वारा) तो करोड़ों कल्पतक भी न होगी; परन्तु आप करना चाहें तो पाव पलमें ही हो सकती है। हे कृपानिधान! मैं क्या कहूँ, आप तो स्वयं परम चतुर हैं; मैंने अनमोल मणिके समान आयुके बदलेमें (विषयरूप) बेर ले लिये। (जिस मनुष्य-जीवनको आपकी प्राप्तिमें लगाना चाहिये था उसे विषयोंमें लगाकर व्यर्थ खो दिया)॥ १॥ (जिससे मेरा) मन मलिन हो गया तथा कलियुगके कारण (कु) कर्म और भी पुष्ट हो गये, नित्य नये पाप बढ़ते गये। जीभसे भी आपका नाम नहीं जपा, सदा आयँ-बायँ ही बकता रहा। बुरे-बुरे मार्गोंपर कुचालें ही चलता रहा। भूलकर भी मुझसे कभी किसीका भला नहीं हुआ। अरे! बचपनमें खेलते समय भी कभी अच्छा दाँव हाथ नहीं लगा (भगवत् सम्बन्धी खेल नहीं खेला)॥ २॥ हाँ, किसीकी देखा-देखी (भक्तिका स्वाँग दिखलानेके लिये) दम्भसे या सत्संगके प्रभावसे कभी कोई अच्छा काम बन गया तो उसे ढिंढोरा पीटता हुआ कहता फिरा, और (मनसे चाह-चाहकर) जो पाप किये उन्हें छिपाता रहा। राग, द्वेष और क्रोधको तथा इन्द्रियोंसमेत मनको सदा पालता-पोषता रहा। सदा राग, द्वेष और क्रोधके तथा मन-इन्द्रियोंके ही वशमें रहा। इन्हींकी भक्ति की और इन्हींसे प्रेम किया॥ ३॥ मैंने अपनी बीती हुई, वर्तमान तथा भविष्यकी दशाका अनुमान करके यह समझ लिया है कि मैंने कभी कोई भला काम नहीं किया। किन्तु संसार कह रहा है कि—‘तुलसी रामजीका है’ और मुझे भी आपपर विश्वास और प्रेम है। अब चाहे झूठ हो या सच, हे स्वामी श्रीरघुनाथजी! मैं तो आपके ही आसरे पड़ा हूँ॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२६२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कह्यो न परत, बिनु कहे न रह्यो परत,
बड़ो सुख कहत बड़े सों, बलि, दीनता।
प्रभुकी बड़ाई बड़ी, आपनी छोटाई छोटी,
प्रभुकी पुनीतता, आपनी पाप-पीनता॥ १॥
दुहू ओर समुझि सकुचि सहमत मन,
सनमुख होत सुनि स्वामी-समीचीनता।
नाथ-गुनगाथ गाये, हाथ जोरि माथ नाये,
नीचऊ निवाजे प्रीति-रीतिकी प्रबीनता॥ २॥
एही दरबार है गरब तें सरब-हानि,
लाभ जोग-छेमको गरीबी-मिसकीनता।
मोटो दसकंध सो न दूबरो बिभीषण सो,
बूझि परी रावरेकी प्रेम-पराधीनता॥ ३॥
यहाँकी सयानप, अयानप सहस सम,
सूधौ सतभाय कहे मिटति मलीनता।
गीध-सिला-सबरीकी सुधि सब दिन किये
होइगी न साईं सों सनेह-हित-हीनता॥ ४॥
सकल कामना देत नाम तेरो कामतरु,
सुमिरत होत कलिमल-छल-छीनता।
करुनानिधान! बरदान तुलसी चहत,
सीतापति-भक्ति-सुरसरि-नीर-मीनता॥ ५॥

मूल

कह्यो न परत, बिनु कहे न रह्यो परत,
बड़ो सुख कहत बड़े सों, बलि, दीनता।
प्रभुकी बड़ाई बड़ी, आपनी छोटाई छोटी,
प्रभुकी पुनीतता, आपनी पाप-पीनता॥ १॥
दुहू ओर समुझि सकुचि सहमत मन,
सनमुख होत सुनि स्वामी-समीचीनता।
नाथ-गुनगाथ गाये, हाथ जोरि माथ नाये,
नीचऊ निवाजे प्रीति-रीतिकी प्रबीनता॥ २॥
एही दरबार है गरब तें सरब-हानि,
लाभ जोग-छेमको गरीबी-मिसकीनता।
मोटो दसकंध सो न दूबरो बिभीषण सो,
बूझि परी रावरेकी प्रेम-पराधीनता॥ ३॥
यहाँकी सयानप, अयानप सहस सम,
सूधौ सतभाय कहे मिटति मलीनता।
गीध-सिला-सबरीकी सुधि सब दिन किये
होइगी न साईं सों सनेह-हित-हीनता॥ ४॥
सकल कामना देत नाम तेरो कामतरु,
सुमिरत होत कलिमल-छल-छीनता।
करुनानिधान! बरदान तुलसी चहत,
सीतापति-भक्ति-सुरसरि-नीर-मीनता॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! कुछ कहा भी नहीं जाता और कहे बिना रहा भी नहीं जाता। आपकी बलैया लेता हूँ (यद्यपि) बड़ोंके सामने अपनी गरीबी सुनानेमें बहुत सुख मिलता है। (तथापि कहाँ तो) प्रभुका महान् बड़प्पन और कहाँ मेरी छोटी-सी क्षुद्रता; कहाँ तो प्रभुकी पवित्रता और कहाँ मेरे पापोंकी अधिकता॥ १॥ इन दोनों ओरकी बातोंपर विचार करके मन संकोचके मारे सहम जाता है (कुछ कहनेकी हिम्मत नहीं होती, पैर पीछे पड़ने लगते हैं), परन्तु स्वामीकी सुन्दर साधुता (शरणागत कैसा भी दीन-हीन-मलिन हो, आप उसको आदरके साथ अपना ही लेते हैं)-को सुनकर यह मन फिर सम्मुख जाता है। हे नाथ! आपके गुणोंकी गाथाओंको गानेसे और हाथ जोड़कर मस्तक नवानेसे आपने नीचोंको भी निहाल कर दिया है (यह आपके प्रेमकी रीतिकी चतुरता है)॥ २॥ इस दरबारमें गर्वसे सर्वनाश हो जाता है और गरीबी एवं नम्रतासे ही योगक्षेमकी प्राप्ति होती है। रावण-सरीखा तो कोई प्रतापी नहीं था, और विभीषणके समान कोई दीन-दुर्बल नहीं था। परन्तु इस प्रसंगमें आपकी प्रेमकी पराधीनता ही (स्पष्ट) समझमें आती है। (शरणागत दीन विभीषणको लंकाका राज्य और अपनी अनन्य भक्तिका दान कर दिया तथा रावणका सर्वनाश कर डाला)॥ ३॥ यहाँ, अर्थात् आपके दरबारमें की हुई चतुरता हजारों मूर्खताके समान है। यहाँ तो सीधे-सादे सच्चे भावसे अपना दोष स्वीकार कर लेनेसे ही सारी मलिनता मिट जाती है। यदि तू प्रतिदिन जटायु, अहल्या और शबरीकी (स्थितिको) याद किये रहेगा तो स्वामीके प्रति तेरा प्रेम कभी कम नहीं होगा। (वे बेचारे सरल, अहंकारहीन शरणागत थे, इससे नाथने उन्हें सहज ही अपनाकर कृतार्थ कर दिया)॥ ४॥ आपका नाम कल्पवृक्षकी भाँति समस्त कामनाओंको पूर्ण कर देता है। नामका स्मरण करते ही कलियुगके पाप और कपट क्षीण हो जाते हैं?। हे करुणानिधान! तुलसी यही वरदान चाहता है कि वह सीतापति श्रीरामजीकी भक्तिरूपी गंगाजीके जलमें सदा मछलीकी तरह डूबा रहे॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(२६३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ नीके कै जानिबी ठीक जन-जीयकी।
रावरो भरोसो नाह कै सु-प्रेम-नेम लियो
रुचिर रहनि रुचि मति गति तीयकी॥ १॥
कुकृत-सुकृत बस सब ही सों संग परॺो,
परखी पराई गति, आपने हूँ कीयकी।
मेरे भलेको गोसाईं! पोचको, न सोच-संक
हौंहुँ किये कहौं सौंह साँची सीय-पीयकी॥ २॥
ग्यानहू-गिराके स्वामी, बाहर-अंतरजामी,
यहाँ क्यों दुरैगी बात मुखकी औ हीयकी?
तुलसी तिहारो, तुमहीं पै तुलसीके हित,
राखि कहौं हौं तो जो पै ह्वहौं माखी घीयकी॥ ३॥

मूल

नाथ नीके कै जानिबी ठीक जन-जीयकी।
रावरो भरोसो नाह कै सु-प्रेम-नेम लियो
रुचिर रहनि रुचि मति गति तीयकी॥ १॥
कुकृत-सुकृत बस सब ही सों संग परॺो,
परखी पराई गति, आपने हूँ कीयकी।
मेरे भलेको गोसाईं! पोचको, न सोच-संक
हौंहुँ किये कहौं सौंह साँची सीय-पीयकी॥ २॥
ग्यानहू-गिराके स्वामी, बाहर-अंतरजामी,
यहाँ क्यों दुरैगी बात मुखकी औ हीयकी?
तुलसी तिहारो, तुमहीं पै तुलसीके हित,
राखि कहौं हौं तो जो पै ह्वहौं माखी घीयकी॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! इस अपने दासके मनकी बात आप ठीक-ठीक समझ लीजिये। मेरी बुद्धिरूपी सुन्दर (पतिव्रता) स्त्रीने आपके भरोसेको अपना स्वामी मानकर उसीके साथ विशुद्ध प्रेम करनेका नियम लिया है और सुन्दर आचरणोंमें उसकी रुचि है॥ १॥ पाप और पुण्यके वश होनेके कारण मुझे सभीके साथ रहना पड़ा, इसमें मैं अपनी और परायी दोनोंहीकी चालोंको परख चुका हूँ। हे नाथ! मुझे अपनी भलाई या बुराईकी न तो कोई चिन्ता है, न डर है। (आपके शरण होनेपर भी यदि भले-बुरेकी चिन्ता लगी रही या भय बना रहा तो वह शरणागति ही कैसी? स्वामीके शरण होते ही मैं निश्चिन्त और निर्भय हो गया हूँ।) यह मैं श्रीसीतानाथजीकी शपथ खाकर सच-सच कह रहा हूँ॥ २॥ (बनावटी बात कहूँगा तो वह चलेगी ही नहीं, क्योंकि) आप ज्ञान और वाणीके स्वामी हैं। बाहर और भीतर दोनोंकी बात जाननेवाले हैं। आपके सामने मुँहकी और हृदयकी बात कैसे छिप सकती है? तुलसी आपका है और आप तुलसीका हित करनेवाले हैं। इसमें मैं यदि (कुछ भी कपट) रखकर कहता होऊँ तो मैं घीकी मक्खी हो जाऊँ। भाव, जैसे मक्खी घीमें गिरकर तुरंत मर जाती है, उसी प्रकार मेरा भी सर्वनाश हो जाय॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(२६४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरो कह्यो सुनि पुनि भावै तोहि करि सो।
चारिहू बिलोचन बिलोकु तू तिलोक महँ
तेरो तिहु काल कहु को है हितू हरि-सो॥ १॥
नये-नये नेह अनुभये देह-गेह बसि,
परखे प्रपंची प्रेम, परत उघरि सो।
सुहृद-समाज दगाबाजिहीको सौदा-सूत,
जब जाको काज तब मिलै पाँय परि सो॥ २॥
बिबुध सयाने, पहिचाने कैधौं नाहीं नीके,
देत एक गुन, लेत कोटि गुन भरि सो।
करम-धरम श्रम-फल रघुबर बिनु,
राखको सो होम है, ऊसर कैसो बरिसो॥ ३॥
आदि-अंत-बीच भलो भलो करै सबहीको
जाको जस लोक-बेद रह्यो है बगरि-सो।
सीतापति सारिखो न साहिब सील-निधान,
कैसे कल परै सठ! बैठो सो बिसरि-सो॥ ४॥
जीवको जीवन-प्रान, प्रानको परम हित
प्रीतम, पुनीतकृत नीचन निदरि सो।
तुलसी! तोको कृपालु जो कियो कोसलपालु,
चित्रकूटको चरित्र चेतु चित करि सो॥ ५॥

मूल

मेरो कह्यो सुनि पुनि भावै तोहि करि सो।
चारिहू बिलोचन बिलोकु तू तिलोक महँ
तेरो तिहु काल कहु को है हितू हरि-सो॥ १॥
नये-नये नेह अनुभये देह-गेह बसि,
परखे प्रपंची प्रेम, परत उघरि सो।
सुहृद-समाज दगाबाजिहीको सौदा-सूत,
जब जाको काज तब मिलै पाँय परि सो॥ २॥
बिबुध सयाने, पहिचाने कैधौं नाहीं नीके,
देत एक गुन, लेत कोटि गुन भरि सो।
करम-धरम श्रम-फल रघुबर बिनु,
राखको सो होम है, ऊसर कैसो बरिसो॥ ३॥
आदि-अंत-बीच भलो भलो करै सबहीको
जाको जस लोक-बेद रह्यो है बगरि-सो।
सीतापति सारिखो न साहिब सील-निधान,
कैसे कल परै सठ! बैठो सो बिसरि-सो॥ ४॥
जीवको जीवन-प्रान, प्रानको परम हित
प्रीतम, पुनीतकृत नीचन निदरि सो।
तुलसी! तोको कृपालु जो कियो कोसलपालु,
चित्रकूटको चरित्र चेतु चित करि सो॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे मन! एक बार तू मेरी बात सुन ले। फिर तुझे जो अच्छा लगे सो करना। तू अपने चारों नेत्रों (दो बाहरके और मन-बुद्धिरूप दो भीतरके)-से देखकर बता कि तीनों लोकों और तीनों कालोंमें भगवान् के समान तेरा हित करनेवाला कहीं कोई है?॥ १॥ शरीररूपी घरमें रहकर तूने (अनेक योनियोंमें) नये-नये (सम्बन्धियोंके) प्रेमका अनुभव किया और उनके कपटभरे प्रेमको भी परख लिया। अन्तमें सबके प्रेमका भेद खुल गया। (जगत् के इस विषय-जनित सम्बन्धी) मित्रोंका समाज क्या है! यह दगाबाजीका सौदासूत (लेन-देनका व्यवहार) है। जब जिसका काम (स्वार्थ) होता है तब वह पैरोंपर गिरने लगता है (परन्तु काम निकल जानेपर कोई बात भी नहीं पूछता।)॥ २॥ देवता भी बड़े चतुर हैं, तूने उनको भलीभाँति पहचाना है या नहीं? वे पहले करोड़गुना लेते हैं तब कहीं एकगुना देते हैं। अब रहे कर्म-धर्म, सो वे भी श्रीरामके (आधार) बिना केवल परिश्रममात्र हैं। (जो भगवान् को छोड़कर, ईश्वरकी परवा न कर केवल अपने सत्कर्मोंपर विश्वास करते हैं उनके वे सत्कर्म ठहर ही नहीं सकते) उनका करना तो राखमें हवन करने या ऊसर जमीनपर पानी बरसनेके समान (निष्फल) है॥ ३॥ जो आदिमें, मध्यमें और अन्तमें भले हैं और सभीका सदा कल्याण करते हैं, तथा जिनका यश लोक और वेदमें सर्वत्र फैल रहा है ऐसे श्रीसीतानाथ रामचन्द्रजीके समान शीलनिधान स्वामी दूसरा और कोई नहीं है। अरे दुष्ट! तू उसे भूला-सा बैठा है, फिर तुझे कैसे कल पड़ रहा है॥ ४॥ अरे! जो जीवका जीवन, प्राणोंका परम हितू, अत्यन्त प्रिय और नीचोंको पवित्र करनेवाला है, तू उसका निरादर कर रहा है। तुलसी! कोशलपति कृपालु श्रीरामजीने तेरे लिये चित्रकूटमें जो लीला रची थी, (घोड़ोंपर सवार दो सुन्दर राजपूत वीरोंके वेषमें साक्षात् दर्शन दिये थे) उसे चित्तमें स्मरण कर॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(२६५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन सुचि, मन रुचि, मुख कहौं ‘जन हौं सिय-पीको’।
केहि अभाग जान्यो नहीं, जो न होइ नाथ सों नातो-नेह न नीको॥ १॥
जल चाहत पावक लहौं, बिष होत अमीको।
कलि-कुचाल संतनि कही सोइ सही, मोहि कछु फहम न तरनि तमीको॥ २॥
जानि अंध अंजन कहै बन-बाघिनी-घीको।
सुनि उपचार बिकारको सुबिचार करौं जब, तब बुधि बल हरै हीको॥ ३॥
प्रभु सों कहत सकुचात हौं, परौं जनि फिरि फीको।
निकट बोलि, बलि, बरजिये, परिहरै ख्याल अब तुलसिदास जड़ जीको॥ ४॥

मूल

तन सुचि, मन रुचि, मुख कहौं ‘जन हौं सिय-पीको’।
केहि अभाग जान्यो नहीं, जो न होइ नाथ सों नातो-नेह न नीको॥ १॥
जल चाहत पावक लहौं, बिष होत अमीको।
कलि-कुचाल संतनि कही सोइ सही, मोहि कछु फहम न तरनि तमीको॥ २॥
जानि अंध अंजन कहै बन-बाघिनी-घीको।
सुनि उपचार बिकारको सुबिचार करौं जब, तब बुधि बल हरै हीको॥ ३॥
प्रभु सों कहत सकुचात हौं, परौं जनि फिरि फीको।
निकट बोलि, बलि, बरजिये, परिहरै ख्याल अब तुलसिदास जड़ जीको॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे प्रभो! मैं शरीरको पवित्र रखता हूँ, मनमें भी (आपके प्रेमके लिये) रुचि है और मुँहसे भी कहता हूँ कि मैं श्रीसीतानाथजीका सेवक हूँ; किन्तु समझमें नहीं आता कि किस दुर्भाग्यके कारण नाथके साथ मेरा सर्वश्रेष्ठ सम्बन्ध और प्रेम नहीं होता॥ १॥ मैं पानी चाहता हूँ तो आग मिलती है और इसी प्रकार अमृतका जहर बन जाता है (शान्तिके बदले अशान्तिकी जलन मिलती है और अमृतरूपी सत्कर्म, अभिमानरूपी विष पैदा कर देते हैं)। संतोंने कलियुगकी जो कुटिल चालें कही हैं वे सब ठीक हैं। मुझे सूर्य और रात्रिका कुछ भी ज्ञान नहीं है। (अर्थात् मैं ज्ञान और अज्ञानको यथार्थरूपसे नहीं पहचान सकता)॥ २॥ कलियुग मुझे अन्धा समझकर वनकी सिंहनीके घीका अंजन लगानेको कहता है, जब मैं यह विकार-भरा उपचार सुनकर उसपर विचार करता हूँ कि मुझे उसका घी कैसे मिले? (अज्ञानरूपी वनमें वासनारूपी सिंहनी रहती है। विषय उसका घी है वह तो समीप जाते ही खा जायगी। विषयोंमें फँसे हुए जीवको ज्ञानरूपी नेत्र कैसे मिल सकते हैं?) तब वह मेरे हृदयके बुद्धि-बलको हर लेता है॥ ३॥ (बुद्धि-बलके नष्ट हो जानेसे मुझे कलियुगका बताया हुआ उपचार यानी विषय-भोग अच्छा लगता है और मैं उसीमें लग जाता हूँ। इसी विघ्नके कारण मैं आपके साथ सर्वश्रेष्ठ सम्बन्ध और प्रेम नहीं कर पाता) आपसे कुछ कहना है, पर उसे कहते संकोच हो रहा है कि कहीं मेरी बात फिर फीकी न पड़ जाय (खाली न चली जाय) इससे मैं आपकी बलैया लेता हूँ, (बात यह है कि जरा अपने) पास बुलाकर इसे (कलियुगको) रोक दीजिये, जिससे यह तुलसी-सरीखे जड जीवोंका खयाल छोड़ दे॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२६६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्यों ज्यों निकट भयो चहौं कृपालु! त्यों त्यों दूरि परॺो हौं।
तुम चहुँ जुग रस एक राम! हौं हूँ रावरो, जदपि अघ अवगुननि भरॺो हौं॥ १॥
बीच पाइ एहि नीच बीच ही छरनि छरॺो हौं।
हौं सुबरन कुबरन कियो, नृपतें भिखारि करि, सुमतितें कुमति करॺो हौं॥ २॥
अगनित गिरि-कानन फिरॺो, बिनु आगि जरॺो हौं।
चित्रकूट गये हौं लखि कलिकी कुचालि सब, अब अपडरनि डरॺो हौं॥ ३॥
माथ नाइ नाथ सों कहौं, हाथ जोरि खरॺो हौं।
चीन्हों चोर जिय मारिहै तुलसी सो कथा सुनि प्रभुसों गुदरि निबरॺो हौं॥ ४॥

मूल

ज्यों ज्यों निकट भयो चहौं कृपालु! त्यों त्यों दूरि परॺो हौं।
तुम चहुँ जुग रस एक राम! हौं हूँ रावरो, जदपि अघ अवगुननि भरॺो हौं॥ १॥
बीच पाइ एहि नीच बीच ही छरनि छरॺो हौं।
हौं सुबरन कुबरन कियो, नृपतें भिखारि करि, सुमतितें कुमति करॺो हौं॥ २॥
अगनित गिरि-कानन फिरॺो, बिनु आगि जरॺो हौं।
चित्रकूट गये हौं लखि कलिकी कुचालि सब, अब अपडरनि डरॺो हौं॥ ३॥
माथ नाइ नाथ सों कहौं, हाथ जोरि खरॺो हौं।
चीन्हों चोर जिय मारिहै तुलसी सो कथा सुनि प्रभुसों गुदरि निबरॺो हौं॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे कृपानिधान! ज्यों-ज्यों मैं आपके निकट होना चाहता हूँ, त्यों-ही-त्यों दूर होता चला जाता हूँ। हे रामजी! आप चारों युगोंमें सदा एकरस हैं और मैं भी आपका रहा आया हूँ, यद्यपि मैं पापों और अवगुणोंसे भरा हूँ॥ १॥ आपसे अलग रहनेका मौका पाकर इस नीच कलियुगने मुझे बीचहीमें छलोंसे छल लिया (अज्ञानसे ही इसको जीवत्व प्राप्त हो गया।) मैं सुवर्ण था, पर इसने कुवर्ण कर दिया (नित्य आनन्दघनरूपसे दुःखग्रस्त जीवरूपमें परिणत कर दिया)। राजासे रंक बना डाला और ज्ञानीसे अज्ञानी कर डाला॥ २॥ तबसें मैं (अनेक योनियोंमें) अगणित पहाड़ों और जंगलोंमें भटकता रहा और बिना ही आगके (अज्ञानजनित दुःखदावानलसे) जलता रहा। परन्तु जब मैं चित्रकूट गया, (और वहाँ आपका प्रेमपूर्वक भजन करने लगा) तब (आपकी कृपासे) मैं इस कलिकी सारी कुचालें तो समझ गया (तथापि) अब मैं अपने ही डरसे डर रहा हूँ॥ ३॥ मैं हाथ जोड़कर प्रभुके सामने खड़ा हुआ मस्तक नवाकर कह रहा हूँ कि पहचाना हुआ चोर फिर जीवको (प्रायः) मार ही डालता है; (कलियुग पहचाना हुआ चोर है, वह दाँव देख रहा है) इस बातको सुनकर तुलसी अपने स्वामीसे विनय करके निश्चिन्त हो चुका (अब आप स्वयं ही उचित समझकर उपाय कीजिये)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२६७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

पन करि हौं हठि आजुतें रामद्वार परॺो हौं।
‘तू मेरो’ यह बिन कहे उठिहौं न जनमभरि, प्रभुकी सौंकरि निरॺो हौं॥ १॥
दै दै धक्का जमभट थके, टारे न टरॺो हौं।
उदर दुसह साँसति सही बहुबार जनमि जग, नरकनिदरि निकरॺो हौं॥ २॥
हौं मचला लै छाड़िहौं, जेहि लागि अरॺो हौं।
तुम दयालु, बनिहै दिये, बलि, बिलँब न कीजिये, जात गलानि गरॺो हौं॥ ३॥
प्रगट कहत जो सकुचिये, अपराध-भरॺो हौं।
तौ मनमें अपनाइये, तुलसीहि कृपा करि, कलि बिलोकि हहरॺो हौं॥ ४॥

मूल

पन करि हौं हठि आजुतें रामद्वार परॺो हौं।
‘तू मेरो’ यह बिन कहे उठिहौं न जनमभरि, प्रभुकी सौंकरि निरॺो हौं॥ १॥
दै दै धक्का जमभट थके, टारे न टरॺो हौं।
उदर दुसह साँसति सही बहुबार जनमि जग, नरकनिदरि निकरॺो हौं॥ २॥
हौं मचला लै छाड़िहौं, जेहि लागि अरॺो हौं।
तुम दयालु, बनिहै दिये, बलि, बिलँब न कीजिये, जात गलानि गरॺो हौं॥ ३॥
प्रगट कहत जो सकुचिये, अपराध-भरॺो हौं।
तौ मनमें अपनाइये, तुलसीहि कृपा करि, कलि बिलोकि हहरॺो हौं॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! आजसे मैं सत्याग्रह करनेकी प्रतिज्ञा करके आपके द्वारपर पड़ गया हूँ; जबतक आप यह न कहेंगे कि ‘तू मेरा है’ तबतक मैं यहाँसे जीवनभर नहीं उठूँगा,यह मैं आपकी शपथ खाकर कह चुका हूँ॥ १॥ (यह न समझियेगा कि पुलिसके धक्के खाकर मैं उठ जाऊँगा) यमदूत मुझे धक्के मार-मारकर थक गये, मुझे जबरदस्ती नरकके द्वारसे हटाना चाहा, पर मैं वहाँसे उनके हटाये हटा ही नहीं (इतने अधिक पाप किये कि अनेक जीवन नरकमें ही बीते)। संसारमें बार-बार जन्म लेकर (माताके) पेटकी असह्य पीड़ाको सहा, तब कहीं नरकका निरादर कर वहाँसे निकला हूँ॥ २॥ जिस चीजके लिये मचल गया हूँ और अड़ बैठा हूँ उसे लेकर ही छोड़ूँगा, क्योंकि आप दयालु हैं, (मेरा अड़ना देखकर अन्तमें) आपको वह चीज देनी ही पड़ेगी। मैं आपकी बलैया लेता हूँ (जब देनी ही है, तब तुरंत दे डालिये) देर न कीजिये। क्योंकि मैं ग्लानिके मारे गला जाता हूँ। (लोग कहेंगे कि ऐसे दयालु स्वामीके द्वारपर धरना दिये इतने दिन बीत गये, इसलिये तुरंत इतना कह दीजिये कि ‘तुलसी मेरा है।’ बस, इतना सुनते ही मैं धरना त्याग दूँगा)॥ ३॥ मैं अपराधोंसे भरा हूँ, इस कारणसे यदि आपको सबके सामने प्रकटमें कहते संकोच होता है तो कृपाकर मनमें ही तुलसीको अपना लीजिये, क्योंकि मैं कलिको देखकर बहुत घबरा गया हूँ॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२६८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम अपनायो तब जानिहौं, जब मन फिरि परिहै।
जेहि सुभाव बिषयनि लग्यो, तेहि सहज नाथ सौं नेह छाड़ि छल करिहै॥ १॥
सुतकी प्रीति, प्रतीति मीतकी, नृप ज्यों डर डरिहै।
अपनो सो स्वारथ स्वामिसों, चहुँ बिधि चातक ज्यों एक टेकते नहिं टरिहै॥ २॥
हरषिहै न अति आदरे, निदरे न जरि मरिहै।
हानि-लाभ दुख-सुख सबै समचित हित-अनहित, कलि-कुचालि परिहरिहै॥ ३॥
प्रभु-गुन सुनि मन हरषिहै, नीर नयननि ढरिहै।
तुलसिदास भयो रामको बिस्वास, प्रेम लखि आनँद उमगि उर भरिहै॥ ४॥

मूल

तुम अपनायो तब जानिहौं, जब मन फिरि परिहै।
जेहि सुभाव बिषयनि लग्यो, तेहि सहज नाथ सौं नेह छाड़ि छल करिहै॥ १॥
सुतकी प्रीति, प्रतीति मीतकी, नृप ज्यों डर डरिहै।
अपनो सो स्वारथ स्वामिसों, चहुँ बिधि चातक ज्यों एक टेकते नहिं टरिहै॥ २॥
हरषिहै न अति आदरे, निदरे न जरि मरिहै।
हानि-लाभ दुख-सुख सबै समचित हित-अनहित, कलि-कुचालि परिहरिहै॥ ३॥
प्रभु-गुन सुनि मन हरषिहै, नीर नयननि ढरिहै।
तुलसिदास भयो रामको बिस्वास, प्रेम लखि आनँद उमगि उर भरिहै॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—जब मेरा मन (आपकी ओरको) फिर जायगा, तभी मैं समझूँगा कि आपने मुझे अपना लिया। जब यह मन, जिस सहज स्वभावसे ही विषयोंमें लग रहा है, उसी प्रकार कपट छोड़कर आपके साथ प्रेम करेगा (जबतक ऐसा नहीं होता तबतक मैं कैसे समझूँ कि मुझको आपने अपना दास मान लिया)॥ १॥ जैसे मेरा वह मन पुत्रसे प्रेम करता है, मित्रपर विश्वास करता है और राज-भयसे डरता है, वैसे ही जब वह अपना सब स्वार्थ केवल स्वामीसे ही रखेगा और चारों ओरसे चातककी तरह अपनी अनन्य टेकसे नहीं टलेगा (एक प्रभुपर ही निर्भर करेगा)॥ २॥ अत्यन्त आदर पानेपर जब उसे हर्ष न होगा, निरादर होनेपर वह जलकर न मरेगा और हानि-लाभ, सुख-दुःख, भलाई-बुराई सबमें चित्तको सम रखेगा और कलिकालकी कुचालोंको (सर्वथा) छोड़ देगा (तभी मानूँगा कि नाथ मुझे अपना रहे हैं)॥ ३॥ और जब मेरा मन प्रभुका गुणानुवाद सुनते ही हर्षमें विह्वल हो जायगा, मेरे नेत्रोंसे प्रेमके आँसुओंकी धारा बहने लगेगी तभी तुलसीदासको यह विश्वास होगा कि वह श्रीरामजीका हो गया। तब उस (अनन्य) प्रेमको देखकर हृदयमें आनन्द उमड़कर भर जायगा। (हे प्रभो! शीघ्र ही अपनाकर मेरी ऐसी दशा कर दीजिये)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२६९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम कबहुँ प्रिय लागिहौ जैसे नीर मीनको?
सुख जीवन ज्यों जीवको, मनि ज्यों फनिको हित, ज्यों धन लोभ-लीनको॥ १॥
ज्यों सुभाय प्रिय लगति नागरी नागर नवीनको।
त्यों मेरे मन लालसा करिये करुनाकर! पावन प्रेम पीनको॥ २॥
मनसाको दाता कहैं श्रुति प्रभु प्रबीनको।
तुलसिदासको भावतो, बलि जाउँ दयानिधि! दीजै दान दीनको॥ ३॥

मूल

राम कबहुँ प्रिय लागिहौ जैसे नीर मीनको?
सुख जीवन ज्यों जीवको, मनि ज्यों फनिको हित, ज्यों धन लोभ-लीनको॥ १॥
ज्यों सुभाय प्रिय लगति नागरी नागर नवीनको।
त्यों मेरे मन लालसा करिये करुनाकर! पावन प्रेम पीनको॥ २॥
मनसाको दाता कहैं श्रुति प्रभु प्रबीनको।
तुलसिदासको भावतो, बलि जाउँ दयानिधि! दीजै दान दीनको॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! मुझे क्या कभी आप ऐसे प्यारे लगेंगे, जैसा मछलीको जल प्यारा लगता है, जीवको सुखमय जीवन प्यारा लगता है, साँपको मणि प्रिय लगती है और अत्यन्त लोभीको धन प्यारा लगता है?॥ १॥ अथवा जैसे नवयुवक नायकको स्वभावसे ही नवयुवती चतुरा नायिका प्यारी लगती है, वैसे ही हे करुणाकी खानि! मेरे मनमें केवल आपके प्रति पवित्र और अनन्य प्रेमकी ही एक लालसा उत्पन्न कर दीजिये॥ २॥ वेद कहते हैं कि प्रभु मनमानी वस्तु देनेवाले हैं और बड़े ही चतुर हैं (बिना ही कहे मनकी बात जानकर उसे पूरी कर देते हैं)। हे दयानिधे! मैं आपकी बलैया लेता हूँ, इस दीन तुलसीदासको भी उसकी मनचाही वस्तुका दान दे दीजिये॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(२७०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबहुँ कृपा करि रघुबीर! मोहू चितैहो।
भलो-बुरो जन आपनो, जिय जानि दयानिधि! अवगुन अमित बितैहो॥ १॥
जनम जनम हौं मन जित्यो, अब मोहि जितैहो।
हौं सनाथ ह्वैहौ सही, तुमहू अनाथपति, जो लघुतहि न भितैहो॥ २॥
बिनय करौं अपभयहु तें, तुम्ह परम हितै हो।
तुलसिदास कासों कहै, तुमही सब मेरे, प्रभु-गुरु, मातु-पितै हो॥ ३॥

मूल

कबहुँ कृपा करि रघुबीर! मोहू चितैहो।
भलो-बुरो जन आपनो, जिय जानि दयानिधि! अवगुन अमित बितैहो॥ १॥
जनम जनम हौं मन जित्यो, अब मोहि जितैहो।
हौं सनाथ ह्वैहौ सही, तुमहू अनाथपति, जो लघुतहि न भितैहो॥ २॥
बिनय करौं अपभयहु तें, तुम्ह परम हितै हो।
तुलसिदास कासों कहै, तुमही सब मेरे, प्रभु-गुरु, मातु-पितै हो॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रघुवीर! कभी कृपाकर मेरी ओर भी देखेंगे? हे दयानिधान! ‘भला-बुरा जो कुछ भी हूँ, आपका दास हूँ’, अपने मनमें इस बातको समझकर क्या मेरे अपार अवगुणोंका अन्त कर देंगे? (अपनी दयासे मेरे सब पापोंका नाश कर मुझे अपना लेंगे?)॥ १॥ (अबसे पूर्व) प्रत्येक जन्ममें यह मन मुझे जीतता चला आया है (मैं इससे हारकर विषयोंमें फँसता रहा हूँ), इस बार क्या आप मुझे इससे जिता देंगे?) (क्या यह मेरे वश होकर केवल आपके चरणोंमें लग जायगा?) (तब) मैं तो सनाथ हो ही जाऊँगा किन्तु आप भी यदि मेरी क्षुद्रतासे नहीं डरेंगे, तो ‘अनाथ-पति’ पुकारे जाने लगेंगे (मेरी नीचतापर ध्यान न देकर मुझे अपना लेंगे तो आपका अनाथ-नाथ विरद भी सार्थक हो जायगा)॥ २॥ मैं अपने ही डरके मारे आपसे यों विनय कर रहा हूँ। आप तो मेरे परम हितू हैं। (परन्तु नाथ!) यह तुलसीदास अपना दुःख और किसे सुनाने जाय? क्योंकि मेरे तो मालिक, गुरु, माता, पिता आदि सब कुछ केवल आप ही हैं॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(२७१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसो हौं तैसो राम रावरो जन, जनि परिहरिये।
कृपासिंधु, कोसलधनी! सरनागत-पालक, ढरनि आपनी ढरिये॥ १॥
हौं तौ बिगरायल और को, बिगरो न बिगरिये।
तुम सुधारि आये सदा सबकी सबही बिधि, अब मेरियो सुधरिये॥ २॥
जग हँसिहै मेरे संग्रहे, कत इहि डर डरिये।
कपि-केवट कीन्हे सखा जेहि सील, सरल चित, तेहि सुभाउ अनुसरिये॥ ३॥
अपराधी तउ आपनो, तुलसी न बिसरिये।
टूटियो बाँह गरे परै, फूटेहु बिलोचन पीर होत हित करिये॥ ४॥

मूल

जैसो हौं तैसो राम रावरो जन, जनि परिहरिये।
कृपासिंधु, कोसलधनी! सरनागत-पालक, ढरनि आपनी ढरिये॥ १॥
हौं तौ बिगरायल और को, बिगरो न बिगरिये।
तुम सुधारि आये सदा सबकी सबही बिधि, अब मेरियो सुधरिये॥ २॥
जग हँसिहै मेरे संग्रहे, कत इहि डर डरिये।
कपि-केवट कीन्हे सखा जेहि सील, सरल चित, तेहि सुभाउ अनुसरिये॥ ३॥
अपराधी तउ आपनो, तुलसी न बिसरिये।
टूटियो बाँह गरे परै, फूटेहु बिलोचन पीर होत हित करिये॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! मैं (भला-बुरा) कैसा भी हूँ, पर हूँ तो आपका दास ही, इससे मुझे त्यागिये नहीं। हे कोसलनाथ! आप कृपाके समुद्र और शरणागतोंका पालन करनेवाले हैं। अपनी इस शरणागत-वत्सलताकी रीतिपर ही चलिये॥ १॥ मैं तो (काम, क्रोध आदि) दूसरोंके द्वारा पहले ही बिगाड़ा हुआ हूँ, इस बिगड़े हुएको (शरणमें न रखकर और) न बिगाड़िये। आप तो सदा ही सबकी सब तरहसे सुधारते आये हैं, अब मेरी भी सुधार दीजिये॥ २॥ मुझे अपनानेमें जगत् आपकी हँसी करेगा, आप इस डरसे क्यों डर रहे हैं? (आपका तो सदासे यह बाना ही है।) आपने अपने जिस शील और सरल चित्तसे बंदरों और केवटको अपना मित्र बनाया था, मेरे साथ भी उसी स्वभावके अनुसार बर्ताव कीजिये॥ ३॥ यद्यपि मैं अपराधी हूँ, पर हूँ तो आपका ही। इसलिये तुलसीको आप न भुलाइये। (अपना) टूटा हुआ भी हाथ गले बँध जाता है और फूटी हुई आँखमें भी जब दर्द होता है, तब उसके अच्छे करानेकी चेष्टा की ही जाती है। (इसी प्रकार मैं भी यद्यपि टूटी बाँह और फूटी आँखके समान किसी कामका नहीं हूँ तथापि आपका ही हूँ, इसलिये आप मुझे कैसे छोड़ सकते हैं?)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२७२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम जनि मन मैलो करो, लोचन जनि फेरो।
सुनहु राम! बिनु रावरे लोकहु परलोकहु कोउ न कहूँ हितु मेरो॥ १॥
अगुन-अलायक-आलसी जानि अधम अनेरो।
स्वारथके साथिन्ह तज्यो तिजराको-सो टोटक, औचट उलटि न हेरो॥ २॥
भगतिहीन, बेद-बाहिरो लखि कलिमल घेरो।
देवनिहू देव! परिहरॺो, अन्याव न तिनको हौं अपराधी सब केरो॥ ३॥
नामकी ओट पेट भरत हौं, पै कहावत चेरो।
जगत-बिदित बात ह्वै परी, समुझिये धौं अपने, लोक कि बेद बड़ेरो॥ ४॥
ह्वैहै जब-तब तुम्हहिं तें तुलसीको भलेरो।
दिन-हू-दिन देव! बिगरि है, बलि जाउँ, बिलंब किये, अपनाइये सबेरो॥ ५॥

मूल

तुम जनि मन मैलो करो, लोचन जनि फेरो।
सुनहु राम! बिनु रावरे लोकहु परलोकहु कोउ न कहूँ हितु मेरो॥ १॥
अगुन-अलायक-आलसी जानि अधम अनेरो।
स्वारथके साथिन्ह तज्यो तिजराको-सो टोटक, औचट उलटि न हेरो॥ २॥
भगतिहीन, बेद-बाहिरो लखि कलिमल घेरो।
देवनिहू देव! परिहरॺो, अन्याव न तिनको हौं अपराधी सब केरो॥ ३॥
नामकी ओट पेट भरत हौं, पै कहावत चेरो।
जगत-बिदित बात ह्वै परी, समुझिये धौं अपने, लोक कि बेद बड़ेरो॥ ४॥
ह्वैहै जब-तब तुम्हहिं तें तुलसीको भलेरो।
दिन-हू-दिन देव! बिगरि है, बलि जाउँ, बिलंब किये, अपनाइये सबेरो॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! आप मुझपर मन मैला न कीजिये, मेरी ओरसे अपनी (कृपाकी) नजर न फिराइये (मुझको दोषी समझकर न तो क्रोध कीजिये और न अपनी कृपादृष्टि ही हटाइये)। हे नाथ! सुनिये, इस लोक और परलोकमें आपको छोड़कर मेरा कल्याण करनेवाला कोई दूसरा नहीं है॥ १॥ मुझे गुणहीन, नालायक, आलसी, नीच अथवा दरिद्र और निकम्मा समझकर (जगत् के) स्वार्थके संगियोंने तिजारीके टोटकेकी तरह छोड़ दिया और फिर भूलकर भी पलटकर मुझे नहीं देखा! (स्वार्थ छूटते ही ऐसा छोड़ दिया कि फिर कभी यादतक नहीं किया)॥ २॥ मुझे भक्तिहीन, वेदोक्त मार्गसे बाहर एवं कलियुगके पापोंसे घिरा हुआ देखकर, हे नाथ! देवताओंने भी छोड़ दिया। इसमें उनका कोई अन्याय भी नहीं है, क्योंकि मैं सभीका अपराधी हूँ॥ ३॥ मैं तो बस, आपके नामकी ओट लेकर पेट भर रहा हूँ, इतनेपर भी आपका दास कहलाता हूँ और यह बात सारा संसार जान गया है। अब आप ही विचार कीजिये कि संसार बड़ा है या वेद? (वेदोंकी विधिको देखते तो मैं आपका दास नहीं हूँ, परन्तु जब संसार मुझको आपका दास मानता और कहता है, तब आपको भी यही स्वीकार कर लेना चाहिये।)॥ ४॥ तुलसीका भला तो जब कभी होगा तब आपके ही द्वारा होगा। (आखिर जब आपको मेरा कल्याण करना ही पड़ेगा तो शीघ्र ही कर देना उत्तम है) मैं आपकी बलैया लेता हूँ, यदि आप देर करेंगे, तो यह गरीब दिन-पर-दिन बिगड़ता ही जायगा। (तब सुधारनेमें भी अधिक कष्ट होगा) इसलिये मुझे शीघ्र ही अपना लीजिये॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(२७३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम तजि हौं कासों कहौं, और को हितु मेरे?
दीनबंधु! सेवक, सखा, आरत, अनाथपर सहज छोह केहि केरे॥ १॥
बहुत पतित भवनिधि तरे बिनु तरि बिनु बेरे।
कृपा-कोप-सतिभायहू, धोखेहु-तिरछेहू, राम! तिहारेहि हेरे॥ २॥
जो चितवनि सौंधी लगै, चितइये सबेरे।
तुलसिदास अपनाइये, कीजै न ढील, अब जिवन-अवधि अति नेरे॥ ३॥

मूल

तुम तजि हौं कासों कहौं, और को हितु मेरे?
दीनबंधु! सेवक, सखा, आरत, अनाथपर सहज छोह केहि केरे॥ १॥
बहुत पतित भवनिधि तरे बिनु तरि बिनु बेरे।
कृपा-कोप-सतिभायहू, धोखेहु-तिरछेहू, राम! तिहारेहि हेरे॥ २॥
जो चितवनि सौंधी लगै, चितइये सबेरे।
तुलसिदास अपनाइये, कीजै न ढील, अब जिवन-अवधि अति नेरे॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्र्थ—हे नाथ! आपको छोड़कर मैं और किससे कहूँ? मेरा हितू और कौन है? हे दीनबन्धो! (आपके सिवा) सेवकपर, मित्रपर, दुःखियापर और अनाथपर स्वभावसे ही (और) किसकी कृपा है?॥ १॥ (आपकी नजरसे ही) बहुत-से पापी इस संसार-सागरसे बिना ही नाव और बेड़ेके तर गये। हे रामजी! आपने कृपासे या क्रोधसे, सच्चे भावसे या धोखेसे अथवा तिरछी दृष्टिसे ही एक बार उनकी ओर देखभर लिया था॥ २॥ इन दृष्टियोंमें जो आपको अच्छी लगे, उसी दृष्टिसे जल्दी (मेरी ओर) देख लीजिये (बस, मेरा काम तो आपके देखते ही बन जायगा)। (बात यह है कि) तुलसीदासको अब अपना लीजिये, इसमें देर न कीजिये, क्योंकि अब जीवनका अन्त बहुत ही समीप आ गया है॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(२७४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाउँ कहाँ, ठौर है कहाँ देव! दुखित-दीनको?
को कृपालु स्वामी-सारिखो, राखै सरनागत सब अँग बल-बिहीनको॥ १॥
गनिहि, गुनिहि साहिब लहै, सेवा समीचीनको।
अधम अगुन आलसिनको पालिबो फबि आयो रघुनायक नवीनको॥ २॥
मुखकै कहा कहौं, बिदित है जीकी प्रभु प्र्रबीनको।
तिहू काल, तिहु लोकमें एक टेक रावरी तुलसीसे मन मलीनको॥ ३॥

मूल

जाउँ कहाँ, ठौर है कहाँ देव! दुखित-दीनको?
को कृपालु स्वामी-सारिखो, राखै सरनागत सब अँग बल-बिहीनको॥ १॥
गनिहि, गुनिहि साहिब लहै, सेवा समीचीनको।
अधम अगुन आलसिनको पालिबो फबि आयो रघुनायक नवीनको॥ २॥
मुखकै कहा कहौं, बिदित है जीकी प्रभु प्र्रबीनको।
तिहू काल, तिहु लोकमें एक टेक रावरी तुलसीसे मन मलीनको॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे देव! कहाँ जाऊँ? मुझ दुःखी-दीनको कहाँ ठौर-ठिकाना है? आपके समान कृपालु स्वामी और कौन है, जो सब प्रकारके साधनोंमें बलसे विहीन शरणागतको आश्रय दे?॥ १॥ (आपको छोड़कर संसारमें) जो दूसरे मालिक हैं, वे तो धनी, गुणवान् यानी सद्‍गुण-सम्पन्न और भलीभाँति सेवा करनेवाले सेवकको ही अपनाते हैं। (मैं न तो धनवान् हूँ, न मुझमें कोई सद्‍गुण है और न मैं भलीभाँति सेवा करनेवाला हूँ) मुझ-सरीखे नीच अथवा निर्धन (साधनहीन), सद्‍गुणोंसे हीन, आलसियोंका पालन-पोषण करना तो नित्य उत्साही श्रीरघुनाथजीको ही शोभा देता है॥ २॥ मुँहसे क्या कहूँ प्रभो! आप तो स्वयं चतुर हैं, मेरे जीकी आप सब जानते हैं। तुलसी-सरीखे मलिन मनवालेके लिये तीनों लोकों (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल) और तीनों कालोंमें एक आपका ही सहारा है॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(२७५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वार द्वार दीनता कही, काढ़ि रद, परि पाहूँ।
हैं दयालु दुनी दस दिसा, दुख-दोष-दलन-छम, कियो न सँभाषन काहूँ॥ १॥
तनुजन्यो कुटिल कीट ज्यों, तज्यों मातु-पिताहूँ।
काहेको रोष, दोष काहि धौं, मेरे ही अभाग मोसों सकुचत छुइ सब छाहूँ॥ २॥
दुखित देखि संतन कह्यो, सोचै जनि मन माँहू।
तोसे पसु-पाँवर-पातकी परिहरे न सरन गये, रघुबर ओर बिनाहूँ॥ ३॥
तुलसी तिहारो भये भयो सुखी प्रीति-प्रतीति बिनाहू।
नामकी महिमा, सील नाथको, मेरो भलो बिलोकि अब तें सकुचाहुँ, सिहाहूँ॥ ४॥

मूल

द्वार द्वार दीनता कही, काढ़ि रद, परि पाहूँ।
हैं दयालु दुनी दस दिसा, दुख-दोष-दलन-छम, कियो न सँभाषन काहूँ॥ १॥
तनुजन्यो कुटिल कीट ज्यों, तज्यों मातु-पिताहूँ।
काहेको रोष, दोष काहि धौं, मेरे ही अभाग मोसों सकुचत छुइ सब छाहूँ॥ २॥
दुखित देखि संतन कह्यो, सोचै जनि मन माँहू।
तोसे पसु-पाँवर-पातकी परिहरे न सरन गये, रघुबर ओर बिनाहूँ॥ ३॥
तुलसी तिहारो भये भयो सुखी प्रीति-प्रतीति बिनाहू।
नामकी महिमा, सील नाथको, मेरो भलो बिलोकि अब तें सकुचाहुँ, सिहाहूँ॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे नाथ! मैं द्वार-द्वारपर दाँत निकालकर और पैरों पड़-पड़कर अपनी दीनता सुनाता फिरा। दुनियामें ऐसे-ऐसे दयालु हैं, जो दसों दिशाओंके दुःखों और दोषोंके दमन करनेमें समर्थ हैं, किन्तु मुझसे तो किसीने बात भी नहीं की॥ १॥ माता-पिताने मुझे ऐसा त्याग दिया, जैसे कुटिल कीड़ा अर्थात् सर्पिणी अपने ही शरीरसे जने हुए (बच्चे)-को त्याग देती है। मैं किसलिये क्रोध करूँ और किसको दोष दूँ? यह सब मेरे ही दुर्भाग्यसे हुआ। (मैं ऐसा नीच हूँ कि) मेरी छायातक छूनेमें भी लोग संकोच करते हैं॥ २॥ मुझे दुःखी देखकर संतोंने कहा कि तू मनमें चिन्ता न कर। तुझ-सरीखे पामर और पापी पशु-पक्षियोंतकको, शरणमें जानेपर श्रीरघुनाथजीने नहीं त्यागा और अपनी शरणमें रखकर उनका अन्ततक निर्वाह किया (तू भी उन्हींकी शरणमें जा)॥ ३॥ यह तुलसी तभीसे आपका हो गया और आपपर इसकी प्रीति-प्रतीति न होनेपर भी तभीसे यह बड़े सुखमें भी है। (प्रीति-प्रतीति होती तो आनन्दकी कोई सीमा ही न रहती।) हे नाथ! आपके नामकी महिमा तथा शीलने (मेरी नालायकी होनेपर भी) मेरा कल्याण किया, यह देखकर अब मैं मन-ही-मन सकुचाता हूँ (इसलिये कि मैंने कृपापात्र होने योग्य तो एक भी कार्य नहीं किया, फिर भी मुझ कृतघ्नपर प्रभुकी ऐसी कृपा है) और आपकी शरणागतवत्सलताकी प्रशंसा करता हूँ॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२७६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहा न कियो, कहाँ न गयो, सीस काहि न नायो?
राम रावरे बिन भये जन जनमि-जनमि जग दुख दसहू दिसि पायो॥ १॥
आस-बिबस खास दास ह्वै नीच प्रभुनि जनायो।
हा हा करि दीनता कही द्वार-द्वार बार-बार, परी न छार, मुह बायो॥ २॥
असन-बसन बिनु बावरो जहँ-तहँ उठि धायो।
महिमा मान प्रिय प्रानते तजि खोलि खलनि आगे, खिनु-खिनु पेट खलायो॥ ३॥
नाथ! हाथ कछु नाहि लग्यो, लालच ललचायो।
साँच कहौं, नाच कौन सो जो, न मोहि लोभ लघु हौं निरलज्ज नचायो॥ ४॥
श्रवन-नयन-मग मन लगे, सब थल पतितायो।
मूड़ मारि, हिय हारिकै, हित हेरि हहरि अब चरन-सरन तकि आयो॥ ५॥
दसरथके! समरथ तुहीं, त्रिभुवन जसु गायो।
तुलसी नमत अवलोकिये, बाँह-बोल बलि दै बिरुदावली बुलायो॥ ६॥

मूल

कहा न कियो, कहाँ न गयो, सीस काहि न नायो?
राम रावरे बिन भये जन जनमि-जनमि जग दुख दसहू दिसि पायो॥ १॥
आस-बिबस खास दास ह्वै नीच प्रभुनि जनायो।
हा हा करि दीनता कही द्वार-द्वार बार-बार, परी न छार, मुह बायो॥ २॥
असन-बसन बिनु बावरो जहँ-तहँ उठि धायो।
महिमा मान प्रिय प्रानते तजि खोलि खलनि आगे, खिनु-खिनु पेट खलायो॥ ३॥
नाथ! हाथ कछु नाहि लग्यो, लालच ललचायो।
साँच कहौं, नाच कौन सो जो, न मोहि लोभ लघु हौं निरलज्ज नचायो॥ ४॥
श्रवन-नयन-मग मन लगे, सब थल पतितायो।
मूड़ मारि, हिय हारिकै, हित हेरि हहरि अब चरन-सरन तकि आयो॥ ५॥
दसरथके! समरथ तुहीं, त्रिभुवन जसु गायो।
तुलसी नमत अवलोकिये, बाँह-बोल बलि दै बिरुदावली बुलायो॥ ६॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—मैंने क्या नहीं किया? मैं कहाँ नहीं गया? कौन-सी जगह जानेको बची? और किसके आगे सिर नहीं झुकाया? किन्तु, हे श्रीरामजी! जबतक आपका दास नहीं हुआ, तबतक जगत् में बार-बार जन्म ले-लेकर मैंने दसों दिशाओंमें केवल दुःख ही पाया (कहीं स्वप्नमें भी सुख नहीं मिला)॥ १॥ (आपका खास दास होनेपर भी मैं भ्रमवश विषयोंसे सुख मिलनेकी) आशाके वशमें हो अशुद्ध हृदयके मालिकोंके सामने अपनेको जताता (समर्पण करता) फिरा और बार-बार द्वार-द्वारपर अपनी गरीबी सुनाकर मुँह बाया, पर उसमें खाक भी न पड़ी। (सुख-शान्तिका कहीं आभास भी नहीं मिला)॥ २॥ भोजन और वस्त्रके बिना पागलकी तरह जहाँ-तहाँ दौड़ता फिरा। प्राणोंसे प्यारी मान-प्रतिष्ठाको त्याग कर दुष्टोंके सामने क्षण-क्षणमें अपना यह (खाली) पेट खोलकर दिखाया॥ ३॥ हे नाथ! (विषयोंके) लोभके मारे बहुत ही लालच किया पर कहीं कुछ भी हाथ नहीं लगा। मैं सच कहता हूँ, ऐसा कौन-सा नाच है जो नीच लोभने मुझ निर्लज्जको न नचाया हो?॥ ४॥ कान, आँखें और मनको भी अपने-अपने मार्गमें लगाया, परन्तु सभी जगह उलटा पतित ही होता गया। (सब राजे-महाराजे भी जाँच लिये। कहीं किसी विषयमें किसीके द्वारा भी सुख-शान्ति नहीं मिली, तब) सिर पीटकर हृदयमें हार मान गया—निराश हो गया। इसीसे अब घबराकर आपके चरणोंकी शरण तककर आया हूँ, क्योंकि इसीमें मुझे अपना हित दिखाई देता है॥ ५॥ हे दशरथकुमार! आप ही समर्थ हैं। तीनों लोकमें आपका ही यश गाया जाता है। तुलसी आपके चरणोंमें प्रणाम कर रहा है, इसकी ओर देखिये, मैं आपकी बलैया लेता हूँ। आपकी विरदावलीने ही मुझे बाँह और वचन देकर बुलाया है (आपके पतित-पावन और शरणागतवत्सल विरदकी देख-रेखमें मेरा कल्याण क्यों न होगा?)॥ ६॥

विषय (हिन्दी)

(२७७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राय! बिनु रावरे मेरे को हितु साँचो?
स्वामी-सहित सबसों कहौं, सुनि-गुनि बिसेषि कोउ रेख दूसरी खाँचो॥ १॥
देह-जीव-जोगके सखा मृषा टाँचन टाँचो।
किये बिचार सार कदलि ज्यों, मनि कनकसंग लघु लसत बीच बिच काँचो॥ २॥
‘बिनय-पत्रिका’ दीनकी, बापु! आपु ही बाँचो।
हिये हेरि तुलसी लिखी, सो सुभाय सही करि बहुरि पूँछिये पाँचो॥ ३॥

मूल

राम राय! बिनु रावरे मेरे को हितु साँचो?
स्वामी-सहित सबसों कहौं, सुनि-गुनि बिसेषि कोउ रेख दूसरी खाँचो॥ १॥
देह-जीव-जोगके सखा मृषा टाँचन टाँचो।
किये बिचार सार कदलि ज्यों, मनि कनकसंग लघु लसत बीच बिच काँचो॥ २॥
‘बिनय-पत्रिका’ दीनकी, बापु! आपु ही बाँचो।
हिये हेरि तुलसी लिखी, सो सुभाय सही करि बहुरि पूँछिये पाँचो॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे महाराज श्रीरामचन्द्रजी! आपको छोड़कर मेरा सच्चा हितू और कौन है? मैं अपने स्वामीसहित सभीसे कहता हूँ, उसे सुन-समझकर यदि कोई और बड़ा हो, तो दूसरी लकीर खींच दीजिये॥ १॥ शरीर और जीवात्माके सम्बन्धके जितने सखा या हितू मिलते हैं, वे सब (असत्) मिथ्या टाँकोंसे सिले हुए हैं। (संसारके सभी सम्बन्ध मायिक हैं) विचार करनेपर ये ‘सखा’ केलेके पेड़के सारके समान हैं। (जैसे केलेके पेड़को छीलनेपर छिलके ही निकलते हैं, वैसे ही संसारके सारे सम्बन्ध भी सारहीन केवल अज्ञानजनित ही हैं) ये वैसे ही सुन्दर जान पड़ते हैं, जैसे मणि-सुवर्णके संयोगसे बीच-बीच क्षुद्र काँच भी शोभा देता है॥ २॥ हे बापजी! इस दीनकी लिखी ‘विनय-पत्रिका’ को तो आप स्वयं ही पढि़ये। (किसी दूसरेसे न पढ़वाइये।) तुलसीने इसमें अपने हृदयकी सच्ची बातें ही लिखी हैं, इसपर पहले आप अपने (दयालु) स्वभावसे ‘सही’ बना दीजिये। फिर पीछे पंचोंसे पूछिये॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(२७८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

पवन-सुवन! रिपु-दवन! भरतलाल! लखन! दीनकी।
निज निज अवसर सुधि किये, बलि जाउँ, दास-आस पूजि है खासखीनकी॥ १॥
राज-द्वार भली सब कहैं साधु-समीचीनकी।
सुकृत-सुजस, साहिब-कृपा, स्वारथ-परमारथ, गति भये गति-बिहीनकी॥ २॥
समय सँभारि सुधारिबी तुलसी मलीनकी।
प्रीति-रीति समुझाइबी नतपाल कृपालुहि परमिति पराधीनकी॥ ३॥

मूल

पवन-सुवन! रिपु-दवन! भरतलाल! लखन! दीनकी।
निज निज अवसर सुधि किये, बलि जाउँ, दास-आस पूजि है खासखीनकी॥ १॥
राज-द्वार भली सब कहैं साधु-समीचीनकी।
सुकृत-सुजस, साहिब-कृपा, स्वारथ-परमारथ, गति भये गति-बिहीनकी॥ २॥
समय सँभारि सुधारिबी तुलसी मलीनकी।
प्रीति-रीति समुझाइबी नतपाल कृपालुहि परमिति पराधीनकी॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे पवनकुमार! हे शत्रुघ्नजी! हे भरतलालजी! हे लखनलालजी! अपने-अपने अवसरसे (मौका लगते ही) इस दीन तुलसीको याद करना। मैं आपलोगोंकी बलैया लेता हूँ। आपके (कृपापूर्वक) ऐसा करनेसे इस सर्वथा दुर्बल दासकी आशा पूरी हो जायगी (श्रीरघुनाथजी मेरी पत्रिकापर ‘सही’ कर देंगे)॥ १॥ राज-दरबारमें सच्चे साधुओंकी तो सभी अच्छी कहते हैं, इसमें क्या विशेषता है? किन्तु यदि आपलोग इस शरणरहित दीनकी सिफारिश कर देंगे तो इसको भगवान् की शरण मिल जायगी, आपको पुण्य होगा और सुन्दर यश फैलेगा, आपके स्वामी आपपर कृपा करेंगे (क्योंकि वह दीनोंपर दया करनेवालोंपर स्वाभाविक ही प्रसन्न हुआ करते हैं) आपके स्वार्थ और परमार्थ दोनों बन जायँगे॥ २॥ इसलिये अवसर देखकर (मौका पाते ही) इस पतित तुलसीकी बात सुधार देना। शरणागतवत्सल कृपालु रघुनाथजीसे मुझ पराधीनके प्रेमकी रीतिकी हदको समझाकर कह देना॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(२७९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मारुति-मन, रुचि भरतकी लखि लषन कही है।
कलिकालहु नाथ! नाम सों परतीति-प्रीति एक किंकरकी निबही है॥ १॥
सकल सभा सुनि लै उठी, जानी रीति रही है।
कृपा गरीब निवाजकी, देखत गरीबको साहब बाँह गही है॥ २॥
बिहँसि राम कह्यो ‘सत्य है, सुधि मैं हूँ लही है’।
मुदित माथ नावत, बनी तुलसी अनाथकी, परी रघुनाथ सही है॥ ३॥

मूल

मारुति-मन, रुचि भरतकी लखि लषन कही है।
कलिकालहु नाथ! नाम सों परतीति-प्रीति एक किंकरकी निबही है॥ १॥
सकल सभा सुनि लै उठी, जानी रीति रही है।
कृपा गरीब निवाजकी, देखत गरीबको साहब बाँह गही है॥ २॥
बिहँसि राम कह्यो ‘सत्य है, सुधि मैं हूँ लही है’।
मुदित माथ नावत, बनी तुलसी अनाथकी, परी रघुनाथ सही है॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रसंग—भगवान् श्रीरामका दिव्य दरबार लगा है, प्रभु जगज्जननी श्रीजानकीजीके सहित अलौकिक रत्नजटित राज्यसिंहासनपर विराजमान हैं। हनुमान् जी प्रेममग्न हुए नाथकी ओर अनन्य दृष्टिसे निहारते हुए चरण दबा रहे हैं। भरतजी, लक्ष्मणजी और शत्रुघ्नजी अपने-अपने अधिकारानुसार सेवामें संलग्न हैं। उसी समय तुलसीदासजीकी ‘विनय-पत्रिका’ पहुँची। तुलसीदासजीकी प्रार्थना सबको याद थी। भक्त-प्रिय मारुति श्रीहनुमान् और भरतने धीरेसे लक्ष्मणसे कहा कि बड़ा अच्छा मौका है, इस समय तुलसीदासकी बात छेड़ देनी चाहिये। लक्ष्मणजीने उनकी रुख देखकर प्रभुकी सेवामें ‘विनय-पत्रिका’ पेश कर दी।
भावार्थ—हनुमान् जी और भरतजीका मन और उनकी रुचिको देखकर लक्ष्मणजीने भगवान् से कहा कि हे नाथ! कलियुगमें भी आपके एक दासकी आपके नामसे प्रीति और प्रतीति निभ गयी (देखिये, उसकी यह सच्ची विनय-पत्रिका भी आयी है)॥ १॥ इस बातको सुनकर सारी सभा एकमतसे कह उठी कि हाँ, यह बात सर्वथा सत्य है, हमलोग भी उसकी रीति जानते हैं। गरीब-निवाज भगवान् श्रीरामजीकी उसपर (बड़ी) कृपा है। स्वामीने सबके देखते-देखते उस गरीबकी बाँह पकड़कर उसे अपना लिया है॥ २॥ सबकी बात सुनकर श्रीरामजीने मुसकराकर कहा कि हाँ, यह सत्य है, मुझे भी उसकी खबर मिल गयी है। (श्रीजनकनन्दिनीजी कई बार कह चुकी होंगी, क्योंकि गोसाईंजी पहले उनसे प्रार्थना कर चुके हैं।) बस, फिर क्या था—अनाथ, तुलसीकी रची हुई विनय-पत्रिकापर रघुनाथजीने अपने हाथसे ‘सही’ कर दी। अपनी बात बननेपर मैंने भी परम प्रसन्न होकर भगवान् के चरणोंमें सिर टेक दिया (सदाके लिये शरण हो गया)॥ ३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

॥ श्रीसीतारामार्पणमस्तु॥

मूलम् (समाप्तिः)

॥ श्रीसीतारामार्पणमस्तु॥