२२ श्रीराम-नाम-जाप

राग भैरव

विषय (हिन्दी)

(६५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राम रमु, राम राम रटु, राम राम जपु जीहा।
रामनाम-नवनेह-मेहको, मन! हठि होहि पपीहा॥ १॥
सब साधन-फल कूप-सरित-सर, सागर-सलिल-निरासा।
रामनाम-रति-स्वाति-सुधा-सुभ-सीकर प्रेमपियासा॥ २॥
गरजि, तरजि, पाषान बरषि पवि, प्रीति परखि जिय जानै।
अधिक अधिक अनुराग उमँग उर, पर परमिति पहिचानै॥ ३॥
रामनाम-गति, रामनाम-मति, राम-नाम-अनुरागी।
ह्वै गये, हैं, जे होहिंगे, तेइ त्रिभुवन गनियत बड़भागी॥ ४॥
एक अंग मग अगमु गवन कर, बिलमु न छिन छिन छाहैं।
तुलसी हित अपनो अपनी दिसि, निरुपधि नेम निबाहैं॥ ५॥

मूल

राम राम रमु, राम राम रटु, राम राम जपु जीहा।
रामनाम-नवनेह-मेहको, मन! हठि होहि पपीहा॥ १॥
सब साधन-फल कूप-सरित-सर, सागर-सलिल-निरासा।
रामनाम-रति-स्वाति-सुधा-सुभ-सीकर प्रेमपियासा॥ २॥
गरजि, तरजि, पाषान बरषि पवि, प्रीति परखि जिय जानै।
अधिक अधिक अनुराग उमँग उर, पर परमिति पहिचानै॥ ३॥
रामनाम-गति, रामनाम-मति, राम-नाम-अनुरागी।
ह्वै गये, हैं, जे होहिंगे, तेइ त्रिभुवन गनियत बड़भागी॥ ४॥
एक अंग मग अगमु गवन कर, बिलमु न छिन छिन छाहैं।
तुलसी हित अपनो अपनी दिसि, निरुपधि नेम निबाहैं॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे जीभ! तू सदा राम राममें रमा कर, राम राम रटा कर और राम रामका जाप किया कर। हे मन! तू भी रामनाममें प्रेमरूपी नित्य-नवीन मेघके लिये हठ करके पपीहा बन जा॥ १॥ जैसे पपीहा कुआँ, नदी, तालाब और समुद्रतकके जलकी जरा-सी भी आशा न कर केवल स्वाती-नक्षत्रके जलकी एक प्रेम-बूँदके लिये प्यासा रहता है, ऐसे ही तू भी और सारे साधनों तथा उनके फलोंकी आशा न कर केवल श्रीरामनामके प्रेमरूपी अमृतकी बूँदमें ही प्रीति कर॥ २॥ पपीहेपर उसका प्रेमी मेघ गरजता है, डाँट बतलाता है, ओले बरसाता है, वज्रपात करता है, इस प्रकार कठिन-से-कठिन परीक्षा करके पपीहेके अनन्य प्रेमको पूर्णरूपसे परखकर जब वह इस बातको जान लेता है कि ज्यों-ज्यों परीक्षा लेता हूँ त्यों-त्यों इस पपीहेका प्रेम अधिकाधिक बढ़ता है, (तब उसे स्वातीकी बूँद मिलती है)॥ ३॥ इसी प्रकार (भगवान् की दयासे परीक्षाके लिये कैसे ही संकट आकर तुझे विचलित करनेकी चेष्टा क्यों न करें) तू तो (अनन्य मनसे) श्रीरामनामकी ही शरण ग्रहण कर, रामनाममें ही बुद्धि लगा, राम-नामका ही प्रेमी बन। ऐसे रामनामके आश्रित जितने भक्त हो गये हैं, अभी हैं और जो आगे होंगे, त्रिलोकीमें उन्हींको बड़ा भाग्यवान् समझना चाहिये॥ ४॥ यह (रामनाममें अनन्य प्रेम करनेका) एकांगी मार्ग बड़ा ही कठिन है, यदि तू इस मार्गपर चला जाय तो क्षण-क्षणमें (सांसारिक सुखोंकी) छाया लेनेके लिये ठहरकर देर न करना। हे तुलसीदास! तेरा भला तो अपनी ओरसे श्रीरामनाममें निरुपधि अर्थात् निष्कपट प्रेमके निबाहनेसे ही होगा॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(६६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे।
घोर भव-नीर-निधि नाम निज नाव रे॥ १॥
एक ही साधन सब रिद्धि-सिद्धि साधि रे।
ग्रसे कलि-रोग जोग-संजम-समाधि रे॥ २॥
भलो जो है, पोच जो है, दाहिनो जो, बाम रे।
राम-नाम ही सों अंत सब ही को काम रे॥ ३॥
जग नभ-बाटिका रही है फलि फूलि रे।
धुवाँ कैसे धौरहर देखि तू न भूलि रे॥ ४॥
राम-नाम छाड़ि जो भरोसो करै और रे।
तुलसी परोसो त्यागि माँगै कूर कौर रे॥ ५॥

मूल

राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे।
घोर भव-नीर-निधि नाम निज नाव रे॥ १॥
एक ही साधन सब रिद्धि-सिद्धि साधि रे।
ग्रसे कलि-रोग जोग-संजम-समाधि रे॥ २॥
भलो जो है, पोच जो है, दाहिनो जो, बाम रे।
राम-नाम ही सों अंत सब ही को काम रे॥ ३॥
जग नभ-बाटिका रही है फलि फूलि रे।
धुवाँ कैसे धौरहर देखि तू न भूलि रे॥ ४॥
राम-नाम छाड़ि जो भरोसो करै और रे।
तुलसी परोसो त्यागि माँगै कूर कौर रे॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—अरे पागल! राम जप, राम जप, राम जप। इस भयानक संसाररूपी समुद्रसे पार उतरनेके लिये श्रीरामनाम ही अपनी नाव है। अर्थात् इस रामनामरूपी नावमें बैठकर मनुष्य जब चाहे तभी पार उतर सकता है, क्योंकि यह मनुष्यके अधिकारमें है॥ १॥ इसी एक साधनके बलसे सब ऋद्धि-सिद्धियोंको साध ले, क्योंकि योग, संयम और समाधि आदि साधनोंको कलिकालरूपी रोगने ग्रस लिया है॥ २॥ भला हो, बुरा हो, उलटा हो, सीधा हो, अन्तमें सबको एक रामनामसे ही काम पड़ेगा॥ ३॥ यह जगत् भ्रमसे आकाशमें फले-फूले दीखनेवाले बगीचेके समान सर्वथा मिथ्या है, धुएँके महलोंकी भाँति क्षण-क्षणमें दीखने और मिटनेवाले इन सांसारिक पदार्थोंको देखकर तू भूल मत॥ ४॥ जो रामनामको छोड़कर दूसरेका भरोसा करता है, हे तुलसीदास! वह उस मूर्खके समान है, जो सामने परोसे हुए भोजनको छोड़कर एक-एक कौरके लिये कुत्तेकी तरह घर-घर माँगता फिरता है॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(६७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राम जपु जिय सदा सानुराग रे।
कलि न बिराग, जोग, जाग, तप, त्याग रे॥ १॥
राम सुमिरत सब बिधि ही को राज रे।
रामको बिसारिबो निषेध-सिरताज रे॥ २॥
राम-नाम महामनि, फनि जगजाल रे।
मनि लिये फनि जियै, ब्याकुल बिहाल रे॥ ३॥
राम-नाम कामतरु देत फल चारि रे।
कहत पुरान, बेद, पंडित, पुरारि रे॥ ४॥
राम-नाम प्रेम-परमारथको सार रे।
राम-नाम तुलसीको जीवन-अधार रे॥ ५॥

मूल

राम राम जपु जिय सदा सानुराग रे।
कलि न बिराग, जोग, जाग, तप, त्याग रे॥ १॥
राम सुमिरत सब बिधि ही को राज रे।
रामको बिसारिबो निषेध-सिरताज रे॥ २॥
राम-नाम महामनि, फनि जगजाल रे।
मनि लिये फनि जियै, ब्याकुल बिहाल रे॥ ३॥
राम-नाम कामतरु देत फल चारि रे।
कहत पुरान, बेद, पंडित, पुरारि रे॥ ४॥
राम-नाम प्रेम-परमारथको सार रे।
राम-नाम तुलसीको जीवन-अधार रे॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे जीव! सदा अनन्य प्रेमसे श्रीरामनाम जपा कर, इस कलिकालमें रामनामके सिवा वैराग्य, योग, यज्ञ, तप और दानसे कुछ भी नहीं हो सकता॥ १॥ शास्त्रोंमें विधिनिषेधरूपसे कर्म बतलाये हैं, मेरी सम्मतिमें श्रीरामनामका स्मरण करना ही सारी विधियोंमें राज-विधि है और श्रीरामनामको भूल जाना ही सबसे बढ़कर निषिद्ध कर्म है॥ २॥ रामनाम महामणि है और यह जगत् का जाल साँप है, जैसे मणि ले लेनेसे साँप व्याकुल होकर मर-सा जाता है, इसी प्रकार रामनामरूपी मणि ले लेनेसे दुःखरूप जगत्-जाल आप ही नष्टप्राय हो जायगा॥ ३॥ अरे! यह राम-नाम कल्पवृक्ष है, यह अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष चारों फल देता है, इस बातको वेद, पुराण, पण्डित और शिवजी महाराज भी कहते हैं॥ ४॥ श्रीरामनाम प्रेम और परमार्थ अर्थात् भक्ति-मुक्ति दोनोंका सार है और यह रामनाम इस तुलसीदासके तो जीवनका आधार ही है॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(६८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राम राम जीह जौलौं तू न जपिहै।
तौलौं, तू कहूँ जाय, तिहूँ ताप तपिहै॥ १॥
सुरसरि-तीर बिनु नीर दुख पाइहै।
सुरतरु तरे तोहि दारिद सताइहै॥ २॥
जागत, बागत, सपने न सुख सोइहै।
जनम जनम, जुग जुग जग रोइहै॥ ३॥
छूटिबेके जतन बिसेष बाँधो जायगो।
ह्वैहै बिष भोजन जो सुधा-सानि खायगो॥ ४॥
तुलसी तिलोक, तिहूँ काल तोसे दीनको।
रामनाम ही की गति जैसे जल मीनको॥ ५॥

मूल

राम राम राम जीह जौलौं तू न जपिहै।
तौलौं, तू कहूँ जाय, तिहूँ ताप तपिहै॥ १॥
सुरसरि-तीर बिनु नीर दुख पाइहै।
सुरतरु तरे तोहि दारिद सताइहै॥ २॥
जागत, बागत, सपने न सुख सोइहै।
जनम जनम, जुग जुग जग रोइहै॥ ३॥
छूटिबेके जतन बिसेष बाँधो जायगो।
ह्वैहै बिष भोजन जो सुधा-सानि खायगो॥ ४॥
तुलसी तिलोक, तिहूँ काल तोसे दीनको।
रामनाम ही की गति जैसे जल मीनको॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे जीव! जबतक तू जीभसे रामनाम नहीं जपेगा, तबतक तू कहीं भी जा—तीनों तापोंसे जलता ही रहेगा॥ १॥ गंगाजीके तीरपर जानेपर भी तू पानी बिना तरसकर दुःखी होगा, कल्पवृक्षके नीचे भी तुझे दरिद्रता सताती रहेगी॥ २॥ जागते, सोते और सपनेमें तुझे कहीं भी सुख नहीं मिलेगा, इस संसारमें जन्म-जन्म और युग-युगमें तुझे रोना ही पड़ेगा॥ ३॥ जितने ही छूटनेके (दूसरे) उपाय करेगा (रामनामविमुख होनेके कारण) उतना ही और कसकर बँधता जायगा; अमृतमय भोजन भी तेरे लिये विषके समान हो जायगा॥ ४॥ हे तुलसी! तुझ-से दीनको तीनों लोकों और तीनों कालोंमें एक श्रीरामनामका वैसे ही भरोसा है जैसे मछलीको जलका॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(६९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमिरु सनेहसों तू नाम रामरायको।
संबल निसंबलको, सखा असहायको॥ १॥
भाग है अभागेहूको, गुन गुनहीनको।
गाहक गरीबको, दयालु दानि दीनको॥ २॥
कुल अकुलीनको, सुन्यो है बेद साखि है।
पाँगुरेको हाथ-पाँय, आँधरेको आँखि है॥ ३॥
माय-बाप भूखेको, अधार निराधारको।
सेतु भव-सागरको, हेतु सुखसारको॥ ४॥
पतितपावन राम-नाम सो न दूसरो।
सुमिरि सुभूमि भयो तुलसी सो ऊसरो॥ ५॥

मूल

सुमिरु सनेहसों तू नाम रामरायको।
संबल निसंबलको, सखा असहायको॥ १॥
भाग है अभागेहूको, गुन गुनहीनको।
गाहक गरीबको, दयालु दानि दीनको॥ २॥
कुल अकुलीनको, सुन्यो है बेद साखि है।
पाँगुरेको हाथ-पाँय, आँधरेको आँखि है॥ ३॥
माय-बाप भूखेको, अधार निराधारको।
सेतु भव-सागरको, हेतु सुखसारको॥ ४॥
पतितपावन राम-नाम सो न दूसरो।
सुमिरि सुभूमि भयो तुलसी सो ऊसरो॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे जीव! तू प्रेमपूर्वक राजराजेश्वर श्रीरामके नामका स्मरण कर, उनका नाम पाथेयहीन पथिकोंके लिये मार्गव्यय (कलेवा) है, जिसका कोई सहाय नहीं है उसका सहायक है॥ १॥ यह रामनाम भाग्यहीनका भाग्य और गुणहीनका गुण है, (रामनाम जपनेवाले भाग्यहीन और गुणहीन भी परम भाग्यवान् और सर्वगुणसम्पन्न हो जाते हैं।) यह गरीबोंका सम्मान करनेवाला ग्राहक और दीनोंके लिये दयालु दानी है॥ २॥ यह रामनाम कुलहीनोंका उच्च कुल (रामनाम जपनेवाले चाण्डाल भी सबसे ऊँचे समझे जाते हैं) और लँगड़े-लूलोंके हाथ-पैर तथा अन्धोंकी आँखें हैं (रामनाम जपनेवाले संसार-मार्गको सहजहीमें लाँघ जाते हैं) इस सिद्धान्तका वेद साक्षी है॥ ३॥ वह रामनाम भूखोंका माँ-बाप और निराधारका आधार है। संसार-सागरसे पार जानेके लिये यह पुल है और सब सुखोंके सार भगवत्-प्राप्तिका प्रधान कारण है॥ ४॥ रामनामके समान पतित-पावन दूसरा कौन है, जिसके स्मरण करनेसे तुलसीके समान ऊसर भी सुन्दर (भक्ति-प्रेमरूपी प्रचुर धानकी) उपजाऊ भूमि बन गया॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(७०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

भलो भली भाँति है जो मेरे कहे लागिहै।
मन राम-नामसों सुभाय अनुरागिहै॥ १॥
राम-नामको प्रभाउ जानि जूड़ी आगिहै।
सहित सहाय कलिकाल भीरु भागिहै॥ २॥
राम-नामसों बिराग, जोग, जप जागिहै।
बाम बिधि भाल हू न करम दाग दागिहै॥ ३॥
राम-नाम मोदक सनेह सुधा पागिहै।
पाइ परितोष तू न द्वार द्वार बागिहै॥ ४॥
राम-नाम काम-तरु जोइ जोइ माँगिहै।
तुलसिदास स्वारथ परमारथ न खाँगिहै॥ ५॥

मूल

भलो भली भाँति है जो मेरे कहे लागिहै।
मन राम-नामसों सुभाय अनुरागिहै॥ १॥
राम-नामको प्रभाउ जानि जूड़ी आगिहै।
सहित सहाय कलिकाल भीरु भागिहै॥ २॥
राम-नामसों बिराग, जोग, जप जागिहै।
बाम बिधि भाल हू न करम दाग दागिहै॥ ३॥
राम-नाम मोदक सनेह सुधा पागिहै।
पाइ परितोष तू न द्वार द्वार बागिहै॥ ४॥
राम-नाम काम-तरु जोइ जोइ माँगिहै।
तुलसिदास स्वारथ परमारथ न खाँगिहै॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ— हे मन! यदि मेरे कहेपर चलकर, स्वभावसे ही श्रीरामनामसे प्रेम करेगा तो तेरा सब प्रकारसे भला होगा॥ १॥ रामनामका प्रभाव कँपा देनेवाली सर्दीका नाश करनेके लिये अग्निके समान है, मनुष्यकी बुद्धिको विचलित कर देनेवाला कलिकाल अपने (काम-क्रोधादि) सहायकों समेत रामनामके डरसे तुरंत भाग जायगा॥ २॥ रामनामके प्रभावसे वैराग्य, योग, जप, तप आदि आप ही जागृत हो उठेंगे; फिर वाम विधाता भी तेरे मस्तकपर बुरे कर्म-फल अंकित नहीं कर सकेगा, अर्थात् तेरे सारे कर्म क्षीण हो जायँगे॥ ३॥ यदि तू रामनामरूपी लड्डूको प्रेमरूपी अमृतमें पागकर खायगा तो तुझे सदाके लिये परम सन्तोष प्राप्त हो जायगा, फिर सुखके लिये घर-घर भटकना नहीं पड़ेगा॥ ४॥ रामनाम कल्पवृक्ष है, इससे हे तुलसीदास! तू उससे स्वार्थ-परमार्थ जो कुछ भी माँगेगा, सो सभी मिल जायगा, किसी बातकी कमी नहीं रहेगी॥ ५॥