विषय (हिन्दी)
(६१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकल सुखकंद, आनंदवन-पुण्यकृत, बिंदुमाधव द्वंद्व-विपतिहारी।
यस्यांघ्रिपाथोज अज-शंभु-सनकादि-शुक-शेष-मुनिवृंद-अलि-निलयकारी॥ १॥
अमल मरकत श्याम, काम शतकोटि छवि, पीतपट तड़ित इव जलदनीलं।
अरुण शतपत्र लोचन, विलोकनि चारु, प्रणतजन-सुखद, करुणार्द्रशीलं॥ २॥
काल-गजराज-मृगराज, दनुजेश-वन-दहन पावक, मोह-निशि-दिनेशं।
चारिभुज चक्र-कौमोदकी-जलज-दर, सरसिजोपरि यथा राजहंसं॥ ३॥
मुकुट, कुंडल, तिलक, अलक अलिव्रात इव, भृकुटि, द्विज, अधरवर, चारुनासा।
रुचिर सुकपोल, दर ग्रीव सुखसीव, हरि, इंदुकर-कुंदमिव मधुरहासा॥ ४॥
उरसि वनमाल सुविशाल नवमंजरी, भ्राज श्रीवत्स-लांछन उदारं।
परम ब्रह्मन्य, अतिधन्य, गतमन्यु, अज, अमितबल, विपुल महिमा अपारं॥ ५॥
हार-केयूर, कर कनक कंकन रतन-जटित मणि-मेखला कटिप्रदेशं।
युगल पद नूपुरामुखर कलहंसवत, सुभग सर्वांग सौंदर्य वेशं॥ ६॥
सकल सौभाग्य-संयुक्त त्रैलोक्य-श्री दक्षि दिशि रुचिर वारीश-कन्या।*
बसत विबुधापगा निकट तट सदनवर, नयन निरखंति नर तेऽति धन्या॥ ७॥
अखिल मंगल-भवन, निबिड़ संशय-शमन दमन-वृजिनाटवी, कष्टहर्त्ता।
विश्वधृत, विश्वहित, अजित, गोतीत, शिव, विश्वपालन, हरण, विश्वकर्त्ता॥ ८॥
ज्ञान-विज्ञान-वैराग्य-ऐश्वर्य-निधि, सिद्धि अणिमादि दे भूरिदानं।
ग्रसित-भव-व्याल अतित्रास तुलसीदास, त्राहि श्रीराम उरगारि-यानं॥ ९॥
मूल
सकल सुखकंद, आनंदवन-पुण्यकृत, बिंदुमाधव द्वंद्व-विपतिहारी।
यस्यांघ्रिपाथोज अज-शंभु-सनकादि-शुक-शेष-मुनिवृंद-अलि-निलयकारी॥ १॥
अमल मरकत श्याम, काम शतकोटि छवि, पीतपट तड़ित इव जलदनीलं।
अरुण शतपत्र लोचन, विलोकनि चारु, प्रणतजन-सुखद, करुणार्द्रशीलं॥ २॥
काल-गजराज-मृगराज, दनुजेश-वन-दहन पावक, मोह-निशि-दिनेशं।
चारिभुज चक्र-कौमोदकी-जलज-दर, सरसिजोपरि यथा राजहंसं॥ ३॥
मुकुट, कुंडल, तिलक, अलक अलिव्रात इव, भृकुटि, द्विज, अधरवर, चारुनासा।
रुचिर सुकपोल, दर ग्रीव सुखसीव, हरि, इंदुकर-कुंदमिव मधुरहासा॥ ४॥
उरसि वनमाल सुविशाल नवमंजरी, भ्राज श्रीवत्स-लांछन उदारं।
परम ब्रह्मन्य, अतिधन्य, गतमन्यु, अज, अमितबल, विपुल महिमा अपारं॥ ५॥
हार-केयूर, कर कनक कंकन रतन-जटित मणि-मेखला कटिप्रदेशं।
युगल पद नूपुरामुखर कलहंसवत, सुभग सर्वांग सौंदर्य वेशं॥ ६॥
सकल सौभाग्य-संयुक्त त्रैलोक्य-श्री दक्षि दिशि रुचिर वारीश-कन्या।*
बसत विबुधापगा निकट तट सदनवर, नयन निरखंति नर तेऽति धन्या॥ ७॥
अखिल मंगल-भवन, निबिड़ संशय-शमन दमन-वृजिनाटवी, कष्टहर्त्ता।
विश्वधृत, विश्वहित, अजित, गोतीत, शिव, विश्वपालन, हरण, विश्वकर्त्ता॥ ८॥
ज्ञान-विज्ञान-वैराग्य-ऐश्वर्य-निधि, सिद्धि अणिमादि दे भूरिदानं।
ग्रसित-भव-व्याल अतित्रास तुलसीदास, त्राहि श्रीराम उरगारि-यानं॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे विन्दुमाधव! आप सब सुखोंकी वर्षा करनेवाले मेघ हैं, आनन्दवन काशीको पवित्र करनेवाले हैं, रागद्वेषादि द्वन्द्वजनित विपत्तिको हरनेवाले हैं; आपके चरणकमलोंमें ब्रह्मा, शिव, सनक-सनन्दनादि, शुकदेवजी, शेषजी और अन्य मुनिजनरूपी भ्रमर सदा निवास किया करते हैं॥ १॥ आप निर्मल नीलमणिके समान श्यामरूप हैं, सौ करोड़ कामदेवोंके समान आपकी सुन्दरता है, पीताम्बर धारण किये हैं। वह पीताम्बर नीले बादलमें बिजलीके समान शोभित हो रहा है। आपके नेत्र लाल कमलके समान हैं, सुन्दर चितवन है, आप भक्तोंको सुख देनेवाले हैं और स्वभावसे ही करुणारससे भीगे रहते हैं॥ २॥ आप कालरूपी हाथीको मारनेके लिये सिंह, राक्षसरूपी वनके जलानेके लिये अग्नि और मोहरूपी रात्रिके नाश करनेके लिये सूर्यरूप हैं। चारों भुजाओंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हैं। आपके हाथमें श्वेत शंख, कमलके ऊपर बैठे हुए राजहंसके समान शोभित हो रहा है॥ ३॥ मस्तकपर मुकुट, कानोंमें कुण्डल, भालपर तिलक, भ्रमरसमूहके समान काली अलकें, टेढ़ी भ्रुकुटी, सुन्दर दाँत, होठ और नासिका बड़ी ही सुन्दर हैं। सुन्दर कपोल और शंखके समान ग्रीवा मानो सब सुखकी सीमा है। हे हरे! आपकी मधुर मुसकान चन्द्रकिरण और कुन्दकुसुमके समान है॥ ४॥ आपके हृदयपर नयी मंजरियोंसहित विशाल वनमाला और सुन्दर श्रीवत्सका चिह्न शोभायमान हो रहा है। आप ब्राह्मणोंका बहुत आदर करनेवाले हैं, तथा क्रोधरहित, अजन्मा, अपरिमित पराक्रमी महान् महिमावाले और अनन्त हैं। आपको धन्य है, धन्य है॥ ५॥ आप हृदयपर हार, भुजाओंपर सोनेके बाजूबंद, हाथोंमें रत्नजड़ित कंकण और कटिदेशमें मणियोंकी तागड़ी धारण किये हैं। दोनों चरणोंमें हंसके समान सुन्दर शब्द करनेवाले नूपुर पहिने हैं। आपके समस्त अंग सुन्दर और आपका सारा ही वेष सुन्दरतामय है॥ ६॥ समस्त सौभाग्यमयी तीनों लोकोंकी शोभा समुद्र-कन्या श्रीलक्ष्मीजी आपके दक्षिणभागमें विराजमान हैं। आप गंगाजीके समीप सुन्दर मन्दिरमें निवास करते हैं; जो मनुष्य नेत्रोंसे आपका दर्शन करते हैं, वे अत्यन्त धन्य हैं॥ ७॥ आप सब कल्याणोंके स्थान, कठिन-कठिन सन्देहोंके नाश करनेवाले, पापरूपी वनको भस्म करनेवाले और कष्टोंके हरनेवाले हैं। आप विश्वको धारण करनेवाले, विश्वके हितकारी, अजेय, मन-इन्द्रियोंसे परे, कल्याणरूप और विश्वका सृजन, पालन तथा संहार करनेवाले हैं॥ ८॥ आप ज्ञान, विज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यके भण्डार हैं, अणिमादि महान् सिद्धियोंके देनेवाले बड़े दानी हैं। मुझ तुलसीदासको संसाररूपी सर्प निगले जा रहा है, इससे मैं अत्यन्त भयभीत हूँ, अतएव हे सर्पोंके नाशक गरुड़की सवारी करनेवाले श्रीरामजी! कृपा करके मुझे बचा लीजिये॥ ९॥
पादटिप्पनी
- वर्तमान विन्दुमाधवजीकी बायीं ओर लक्ष्मीजी विराजती हैं। परंतु यह मूर्ति मसजिद बननेके बादकी स्थापित की हुई है। तुलसीदासजीके समयमें लक्ष्मीजी दाहिनी ओर थीं। वह मूर्ति पड़ोसके एक ब्राह्मणके यहाँ है। उसके पूर्वजने जब देखा कि मुसलमान मन्दिर तोड़नेवाले हैं तो मूर्तियाँ अपने घरमें उठा ले गया। उस समय शैवकाशीके विश्वनाथजीका और वैष्णवकाशीके विन्दुमाधवजीका मन्दिर तोड़ा गया और उसीकी जगह मसजिद बनायी गयी। एक धवरहरा मन्दिरका ही है। दूसरा उसी मेलमें बनाया गया। तुलसीदासजी जहाँगीरके समयमें वैकुण्ठवासी हुए और मन्दिर औरंगजेबके राज्यकालमें तोड़े गये।
राग आसावरी
विषय (हिन्दी)
(६२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
इहै परम फलु, परम बड़ाई।
नखसिख रुचिर बिंदुमाधव छबि निरखहिं नयन अघाई॥ १॥
बिसद किसोर पीन सुंदर बपु, श्याम सुरुचि अधिकाई।
नीलकंज, बारिद, तमाल, मनि, इन्ह तनुते दुति पाई॥ २॥
मृदुल चरन शुभ चिन्ह, पदज, नख अति अभूत उपमाई।
अरुन नील पाथोज प्रसव जनु, मनिजुत दल-समुदाई॥ ३॥
जातरूप मनि-जटित-मनोहर, नूपुर जन-सुखदाई।
जनु हर-उर हरि बिबिध रूप धरि, रहे बर भवन बनाई॥ ४॥
कटितट रटति चारु किंकिनि-रव, अनुपम, बरनि न जाई।
हेम जलज कल कलित मध्य जनु, मधुकर मुखर सुहाई॥ ५॥
उर बिसाल भृगुचरन चारु अति, सूचत कोमलताई।
कंकन चारु बिबिध भूषन बिधि, रचि निज कर मन लाई॥ ६॥
गज-मनिमाल बीच भ्राजत कहि जाति न पदक निकाई।
जनु उडुगन-मंडल बारिदपर, नवग्रह रची अथाई॥ ७॥
भुजगभोग-भुजदंड कंज दर चक्र गदा बनि आई।
सोभासीव ग्रीव, चिबुकाधर, बदन अमित छबि छाई॥ ८॥
कुलिस, कुंद-कुडमल, दामिनि-दुति, दसनन देखि लजाई।
नासा-नयन-कपोल, ललित श्रुति कुंडल भ्रू मोहि भाई॥ ९॥
कुंचित कच सिर मुकुट, भाल पर, तिलक कहौं समुझाई।
अलप तड़ित जुग रेख इंदु महँ, रहि तजि चंचलताई॥ १०॥
निरमल पीत दुकूल अनूपम, उपमा हिय न समाई।
बहु मनिजुत गिरि नील सिखरपर कनक-बसन रुचिराई॥ ११॥
दच्छ भाग अनुराग-सहित इंदिरा अधिक ललिताई।
हेमलता जनु तरु तमाल ढिग, नील निचोल ओढ़ाई॥ १२॥
सत सारदा सेष श्रुति मिलिकै, सोभा कहि न सिराई।
तुलसिदास मतिमंद द्वंदरत कहै कौन बिधि गाई॥ १३॥
मूल
इहै परम फलु, परम बड़ाई।
नखसिख रुचिर बिंदुमाधव छबि निरखहिं नयन अघाई॥ १॥
बिसद किसोर पीन सुंदर बपु, श्याम सुरुचि अधिकाई।
नीलकंज, बारिद, तमाल, मनि, इन्ह तनुते दुति पाई॥ २॥
मृदुल चरन शुभ चिन्ह, पदज, नख अति अभूत उपमाई।
अरुन नील पाथोज प्रसव जनु, मनिजुत दल-समुदाई॥ ३॥
जातरूप मनि-जटित-मनोहर, नूपुर जन-सुखदाई।
जनु हर-उर हरि बिबिध रूप धरि, रहे बर भवन बनाई॥ ४॥
कटितट रटति चारु किंकिनि-रव, अनुपम, बरनि न जाई।
हेम जलज कल कलित मध्य जनु, मधुकर मुखर सुहाई॥ ५॥
उर बिसाल भृगुचरन चारु अति, सूचत कोमलताई।
कंकन चारु बिबिध भूषन बिधि, रचि निज कर मन लाई॥ ६॥
गज-मनिमाल बीच भ्राजत कहि जाति न पदक निकाई।
जनु उडुगन-मंडल बारिदपर, नवग्रह रची अथाई॥ ७॥
भुजगभोग-भुजदंड कंज दर चक्र गदा बनि आई।
सोभासीव ग्रीव, चिबुकाधर, बदन अमित छबि छाई॥ ८॥
कुलिस, कुंद-कुडमल, दामिनि-दुति, दसनन देखि लजाई।
नासा-नयन-कपोल, ललित श्रुति कुंडल भ्रू मोहि भाई॥ ९॥
कुंचित कच सिर मुकुट, भाल पर, तिलक कहौं समुझाई।
अलप तड़ित जुग रेख इंदु महँ, रहि तजि चंचलताई॥ १०॥
निरमल पीत दुकूल अनूपम, उपमा हिय न समाई।
बहु मनिजुत गिरि नील सिखरपर कनक-बसन रुचिराई॥ ११॥
दच्छ भाग अनुराग-सहित इंदिरा अधिक ललिताई।
हेमलता जनु तरु तमाल ढिग, नील निचोल ओढ़ाई॥ १२॥
सत सारदा सेष श्रुति मिलिकै, सोभा कहि न सिराई।
तुलसिदास मतिमंद द्वंदरत कहै कौन बिधि गाई॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—इस शरीरका यही बड़ा भारी फल और इतनी ही महिमा है कि नेत्र तृप्त होकर श्रीविन्दुमाधवकी नखसे शिखतक शोभा देखें॥ १॥ जिनके निर्मल, किशोर (सोलह वर्षके), पुष्ट और सुन्दर श्याम शरीरकी शोभा असीम है। ऐसा जान पड़ता है मानो नील कमल, (श्याम) मेघ, तमाल और नीलममणिने इन्हींके शरीरसे शोभा प्राप्त की है॥ २॥ जिनके कोमल चरणोंमें सुन्दर (वज्र-अंकुशादि) शुभ-चिह्न हैं, अंगुलियों और नखोंकी ऐसी अति अभूतपूर्व उपमा है, मानो लाल और नीले कमलोंसे रत्नयुक्त पत्तोंका समूह निकला हो॥ ३॥ सोनेके रत्नजड़ित नूपुर मनको मोहनेवाले और भक्तोंको सुख देनेवाले हैं, मानो शिवजीके हृदयमें अनेक रूप धारण करके भगवान् विष्णु सुन्दर मन्दिर बनाकर वास कर रहे हों॥ ४॥ कमरमें जो तागड़ीका सुन्दर शब्द हो रहा है, वह अनुपम है, उसका वर्णन नहीं हो सकता, (फिर भी ऐसा कहा जा सकता है) मानो सोनेके कमलकी सुन्दर कलियोंमें भ्रमरोंका सुहावना शब्द (गुंजार) हो रहा हो॥ ५॥ विशाल वक्षःस्थलमें भृगुमुनिके चरणका चिह्न अंकित होकर आपके वक्षःस्थलकी कोमलता बतला रहा है। कंकण आदि नाना प्रकारके गहने ऐसे सुन्दर हैं, मानो ब्रह्माजीने मन लगाकर स्वयं अपने हाथोंसे बनाये हैं॥ ६॥ गजमुक्ताओंकी मालाके बीचमें रत्नोंकी चौकी ऐसी शोभा पा रही है कि उसका वर्णन नहीं हो सकता, (पर समझानेके लिये कहा जाता है कि) मानो (नीले) मेघपर तारागणोंके मण्डलके बीचमें नवग्रहोंने बैठनेका स्थान बनाया हो। (भाव यह है कि नीले मेघके समान भगवान् का शरीर है, तारागणोंका मण्डल गजमुक्ताओंकी माला है और उसके बीचमें स्थान-स्थानपर पिरोये हुए रंग-बिरंगे रत्न नवग्रहोंके बैठनेका स्थान है)॥ ७॥ सर्पके शरीर-सदृश भुजदण्डोंमें कमल, शंख, चक्र और गदा शोभित हो रहे हैं; ग्रीवा सुन्दरताकी सीमा है और ठोड़ी तथा होठोंसहित मुखकी असीम छवि छा रही है॥ ८॥ दाँतोंकी ओर देखकर हीरे, कुन्दकलियाँ और बिजलीकी चमक लजाती है। नासिका, नेत्र, कपोल, सुन्दर कानोंमें कुण्डल और भौंहें मुझे बहुत प्यारी लगती हैं॥ ९॥ सिरपर घुँघराले बाल हैं; उनपर मुकुट पहने हैं, भालपर तिलककी बड़ी शोभा हो रही है, उसे समझाकर कहता हूँ, मानो बिजलीकी दो छोटी-छोटी रेखाएँ अपनी चंचलता छोड़कर चन्द्रमाके मण्डलमें निवास कर रही हैं॥ १०॥ शरीरपर निर्मल अनुपम पीताम्बर धारण किये हैं, जिसकी उपमा हृदयमें समाती नहीं। (फिर भी कल्पना की जाती है) मानो अनेक मणियोंसे युक्त नीले पर्वतके शिखरपर सोनेके समान वस्त्र शोभित हो रहा हो॥ ११॥ दक्षिणभागमें प्रेमसहित लक्ष्मीजी विराजमान हैं। वह ऐसी शोभा पा रही हैं मानो तमालवृक्षके समीप नीला वस्त्र ओढ़े सोनेकी लता बैठी हो॥ १२॥ सैकड़ों सरस्वती, शेषनाग और वेद सब मिलकर इस शोभाका वर्णन करें तो भी पार नहीं पा सकते। फिर भला यह रागद्वेषादि द्वन्द्वोंमें फँसा हुआ मन्दबुद्धि तुलसीदास किस प्रकार गाकर इस शोभाका वर्णन कर सकता है॥ १३॥
राग जैतश्री
विषय (हिन्दी)
(६३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन इतनोई या तनुको परम फलु।
सब अँग* सुभग बिंदुमाधव-छबि, तजि सुभाव, अवलोकु एक पलु॥ १॥
तरुन अरुन अंभोज चरन मृदु, नख-दुति हृदय-तिमिर-हारी।
कुलिस-केतु-जव-जलज रेख बर, अंकुस मन-गज-बसकारी॥ २॥
कनक-जटित मनि नूपुर, मेखल, कटि-तट रटति मधुर बानी।
त्रिबली उदर, गँभीर नाभि सर, जहँ उपजे बिरंचि ग्यानी॥ ३॥
उर बनमाल, पदिक अति सोभित, बिप्र-चरन चित कहँ करषै।
स्याम तामरस-दाम-बरन बपु पीत बसन सोभा बरषै॥ ४॥
कर कंकन केयूर मनोहर, देति मोद मुद्रिक न्यारी।
गदा कंज दर चारु चक्रधर, नाग-सुंड-सम भुज चारी॥ ५॥
कंबुग्रीव, छबिसीव चिबुक द्विज, अधर अरुन, उन्नत नासा।
नव राजीव नयन, ससि आनन, सेवक-सुखद बिसद हासा॥ ६॥
रुचिर कपोल, श्रवन कुंडल, सिर मुकुट, सुतिलक भाल भ्राजै।
ललित भृकुटि, सुंदर चितवनि, कच निरखि मधुप-अवली लाजै॥ ७॥
रूप-सील-गुन-खानि दच्छ दिसि, सिंधु-सुता रत-पद-सेवा।
जाकी कृपा-कटाच्छ चहत सिव, बिधि, मुनि, मनुज, दनुज, देवा॥ ८॥
तुलसिदास भव-त्रास मिटै तब, जब मति येहि सरूप अटकै।
नाहिंत दीन मलीन हीनसुख, कोटि जनम भ्रमि भ्रमि भटकै॥ ९॥
मूल
मन इतनोई या तनुको परम फलु।
सब अँग* सुभग बिंदुमाधव-छबि, तजि सुभाव, अवलोकु एक पलु॥ १॥
तरुन अरुन अंभोज चरन मृदु, नख-दुति हृदय-तिमिर-हारी।
कुलिस-केतु-जव-जलज रेख बर, अंकुस मन-गज-बसकारी॥ २॥
कनक-जटित मनि नूपुर, मेखल, कटि-तट रटति मधुर बानी।
त्रिबली उदर, गँभीर नाभि सर, जहँ उपजे बिरंचि ग्यानी॥ ३॥
उर बनमाल, पदिक अति सोभित, बिप्र-चरन चित कहँ करषै।
स्याम तामरस-दाम-बरन बपु पीत बसन सोभा बरषै॥ ४॥
कर कंकन केयूर मनोहर, देति मोद मुद्रिक न्यारी।
गदा कंज दर चारु चक्रधर, नाग-सुंड-सम भुज चारी॥ ५॥
कंबुग्रीव, छबिसीव चिबुक द्विज, अधर अरुन, उन्नत नासा।
नव राजीव नयन, ससि आनन, सेवक-सुखद बिसद हासा॥ ६॥
रुचिर कपोल, श्रवन कुंडल, सिर मुकुट, सुतिलक भाल भ्राजै।
ललित भृकुटि, सुंदर चितवनि, कच निरखि मधुप-अवली लाजै॥ ७॥
रूप-सील-गुन-खानि दच्छ दिसि, सिंधु-सुता रत-पद-सेवा।
जाकी कृपा-कटाच्छ चहत सिव, बिधि, मुनि, मनुज, दनुज, देवा॥ ८॥
तुलसिदास भव-त्रास मिटै तब, जब मति येहि सरूप अटकै।
नाहिंत दीन मलीन हीनसुख, कोटि जनम भ्रमि भ्रमि भटकै॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे मन! इस शरीरका परम फल केवल इतना ही है कि नखसे शिखतक सुन्दर अंगोंवाले श्रीविन्दुमाधवजीकी छबिका पलभरके लिये अपने चंचल स्वभावको छोड़कर स्थिरताके साथ प्रेमसे दर्शन कर॥ १॥ जिनके कोमल चरण नये खिले हुए लाल कमलके समान हैं, नखोंकी ज्योति हृदयके अज्ञानरूप अन्धकारको हरनेवाली है। जिन चरणोंमें वज्र, ध्वजा, जौ और कमल आदिकी सुन्दर रेखाएँ हैं। और अंकुशका चिह्न मनरूपी हाथीको वशमें करनेवाला है॥ २॥ पैरोंमें सोनेके रत्नजड़ित नूपुर और कमरमें तागड़ी मधुरस्वरसे बज रही है। पेटपर तीन रेखाएँ पड़ी हैं, नाभि सरोवरके समान गहरी है, जहाँसे ब्रह्माजी-सरीखे ज्ञानी उत्पन्न हुए हैं॥ ३॥ हृदयपर वनमाला और उसके बीचमें मणियोंकी चौकी अत्यन्त शोभायमान है, भृगुजीके चरणका चिह्न तो चित्तको खींचे लेता है। नीले कमलके फूलोंकी मालाके समान जिनके शरीरका वर्ण है, उसपर पीताम्बर मानो शोभाकी वर्षा ही कर रहा है॥ ४॥ हाथोंमें मनोहर कंकण और बाजूबंद हैं, अंगूठी निराला ही आनन्द दे रही है। हाथीकी सूँड़सदृश विशाल चारों भुजाओंमें शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हैं॥ ५॥ शंखके समान ग्रीवा सुन्दरताकी सीमा है। सुन्दर ठोड़ी, दाँत, लाल होठ और नुकीली नासिका है, नवीन कमलके सदृश नेत्र, चन्द्रमाके समान मुखमण्डल और मृदु मुसकान भक्तोंको सुख देनेवाली है॥ ६॥ सुन्दर कपोल, कानोंमें कुण्डल, मस्तकपर मुकुट और भालपर सुन्दर तिलक शोभित हो रहा है। सुन्दर कटीली भौंहें और मनोहर चितवन है और जिनके काले केशोंको देखकर भौंरोंकी पंक्ति भी लज्जित हो रही है॥ ७॥ रूप, शील और गुणोंकी खानि सिन्धुसुता श्रीलक्ष्मीजी दक्षिणभागमें विराजित होकर चरणसेवा कर रही हैं, जिनकी कृपादृष्टि शिव, ब्रह्मा, मुनि, मनुष्य, दैत्य और देवता भी चाहते हैं॥ ८॥ तुलसीदासका संसारजनित भय तभी मिट सकता है, जब उसकी बुद्धि इस सुन्दर छविमें अटक जाय; नहीं तो वह दीन, मलीन और सुखहीन होकर करोड़ों जन्मोंतक व्यर्थ ही भटकता फिरेगा॥ ९॥
पादटिप्पनी
- ‘‘सब अँग’’ और ‘‘नखसिख’’ दोनों पाठ मिलते हैं।