१८ श्रीरंग-स्तुति

विषय (हिन्दी)

(५७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहि सतसंग निज-अंग श्रीरंग! भवभंग-कारण शरण-शोकहारी।
ये तु भवदंघ्रिपल्लव-समाश्रित सदा, भक्तिरत, विगतसंशय, मुरारी॥ १॥
असुर, सुर, नाग, नर, यक्ष, गंधर्व, खग, रजनिचर, सिद्ध, ये चापि अन्ने।
संत-संसर्ग त्रैवर्गपर, परमपद, प्राप्य निःप्राप्यगति त्वयि प्रसन्ने॥ २॥
वृत्र, बलि, बाण, प्रहलाद, मय, व्याध, गज, गृध्र, द्विजबन्धु निजधर्मत्यागी।
साधुपद-सलिल-निर्धूत-कल्मष सकल, श्वपच-यवनादि कैवल्य-भागी॥ ३॥
शांत, निरपेक्ष, निर्मम, निरामय, अगुण, शब्दब्रह्मैकपर, ब्रह्मज्ञानी।
दक्ष, समदृक, स्वदृक, विगत अति स्वपरमति, परमरति विरति तव चक्रपानी॥ ४॥
विश्व-उपकारहित व्यग्रचित सर्वदा, त्यक्तमदमन्यु, कृत पुण्यरासी।
यत्र तिष्ठन्ति, तत्रैव अज शर्व हरि सहित गच्छन्ति क्षीराब्धिवासी॥ ५॥
वेद-पयसिंधु, सुविचार मंदरमहा, अखिल-मुनिवृंद निर्मथनकर्ता।
सार सतसंगमुद्‍धृत्य इति निश्चितं वदति श्रीकृष्ण वैदर्भिभर्ता॥ ६॥
शोक-संदेह, भय-हर्ष, तम-तर्षगण, साधु-सद्युक्ति विच्छेदकारी।
यथा रघुनाथ-सायक निशाचर-चमू-निचय-निर्दलन-पटु-वेग-भारी॥ ७॥
यत्र कुत्रापि मम जन्म निजकर्मवश भ्रमत जगजोनि संकट अनेकं।
तत्र त्वद्भक्ति, सज्जन-समागम, सदा भवतु मे राम विश्राममेकं॥ ८॥
प्रबल भव-जनित त्रैव्याधि-भैषज भगति, भक्त भैषज्यमद्वैतदरसी।
संत-भगवंत अंतर निरंतर नहीं, किमपि मति मलिन कह दासतुलसी॥ ९॥

मूल

देहि सतसंग निज-अंग श्रीरंग! भवभंग-कारण शरण-शोकहारी।
ये तु भवदंघ्रिपल्लव-समाश्रित सदा, भक्तिरत, विगतसंशय, मुरारी॥ १॥
असुर, सुर, नाग, नर, यक्ष, गंधर्व, खग, रजनिचर, सिद्ध, ये चापि अन्ने।
संत-संसर्ग त्रैवर्गपर, परमपद, प्राप्य निःप्राप्यगति त्वयि प्रसन्ने॥ २॥
वृत्र, बलि, बाण, प्रहलाद, मय, व्याध, गज, गृध्र, द्विजबन्धु निजधर्मत्यागी।
साधुपद-सलिल-निर्धूत-कल्मष सकल, श्वपच-यवनादि कैवल्य-भागी॥ ३॥
शांत, निरपेक्ष, निर्मम, निरामय, अगुण, शब्दब्रह्मैकपर, ब्रह्मज्ञानी।
दक्ष, समदृक, स्वदृक, विगत अति स्वपरमति, परमरति विरति तव चक्रपानी॥ ४॥
विश्व-उपकारहित व्यग्रचित सर्वदा, त्यक्तमदमन्यु, कृत पुण्यरासी।
यत्र तिष्ठन्ति, तत्रैव अज शर्व हरि सहित गच्छन्ति क्षीराब्धिवासी॥ ५॥
वेद-पयसिंधु, सुविचार मंदरमहा, अखिल-मुनिवृंद निर्मथनकर्ता।
सार सतसंगमुद्‍धृत्य इति निश्चितं वदति श्रीकृष्ण वैदर्भिभर्ता॥ ६॥
शोक-संदेह, भय-हर्ष, तम-तर्षगण, साधु-सद्युक्ति विच्छेदकारी।
यथा रघुनाथ-सायक निशाचर-चमू-निचय-निर्दलन-पटु-वेग-भारी॥ ७॥
यत्र कुत्रापि मम जन्म निजकर्मवश भ्रमत जगजोनि संकट अनेकं।
तत्र त्वद्भक्ति, सज्जन-समागम, सदा भवतु मे राम विश्राममेकं॥ ८॥
प्रबल भव-जनित त्रैव्याधि-भैषज भगति, भक्त भैषज्यमद्वैतदरसी।
संत-भगवंत अंतर निरंतर नहीं, किमपि मति मलिन कह दासतुलसी॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे रमापते! मुझे सत्संग दीजिये, क्योंकि वह आपकी प्राप्तिका एक प्रधान साधन है, संसारके आवागमनका नाश करनेवाला है और शरणमें आये हुए जीवोंके शोकका हरनेवाला है। हे मुरारी! जो लोग सदा आपके चरण-पल्लवके आश्रित और आपकी भक्तिमें लगे रहते हैं, उनका अविद्याजनित सन्देह नष्ट हो जाता है॥ १॥ दैत्य, देवता, नाग, मनुष्य, यक्ष, गन्धर्व, पक्षी, राक्षस, सिद्ध तथा और भी दूसरे जितने जीव हैं; वे सभी (आपकी भक्तिमें लगे हुए) संतोंके संसर्गसे अर्थ, धर्म, कामसे परे आपके उस नित्य परमपदको प्राप्त कर लेते हैं, जो अन्य साधनोंसे नहीं मिल सकता, परंतु केवल आपके प्रसन्न होनेसे ही मिलता है॥ २॥ वृत्रासुर, बलि, बाणासुर, प्रह्लाद, मय, व्याध (वाल्मीकि), गजेन्द्र, गिद्ध जटायु और ब्राह्मणोचित कर्मसे पतित अजामिल ब्राह्मण तथा चाण्डाल, यवनादि भी संतोंके चरणोदकसे अपने सारे पापोंको धोकर कल्याण-पदके भागी हो गये॥ ३॥ (वे साधु कैसे हैं) चित्तसे सारी कामनाएँ निकल जानेके कारण शान्त, किसी भी वस्तु या स्थितिकी आकांक्षा न रहनेसे निरपेक्ष, ममतासे रहित, उपाधिरहित, तीनों गुणोंसे अतीत, शब्दब्रह्म अर्थात् वेदके जाननेवालोंमें मुख्य और ब्रह्मवेत्ता हैं। जिस कार्यके लिये मनुष्य-देह मिला है उसे पूरा करनेमें कुशल, सम-द्रष्टा, अपने आत्मस्वरूपको जाननेवाले, अपनी-परायी बुद्धि अर्थात् भेदबुद्धिसे रहित, सब कुछ अपने श्रीरामका समझनेवाले, और हे चक्रपाणे! वे संसारके भोगोंसे विरक्त और आप परमात्माके अनन्य प्रेमी हैं॥ ४॥ संसारके उपकारके लिये उनका चित्त सदा व्याकुल रहता है, मद और क्रोधको उन्होंने त्याग दिया है और पुण्योंकी बड़ी पूँजी कमायी है। ऐसे संत जहाँ रहते हैं, वहाँ ब्रह्मा और शिवजीको साथ लेकर क्षीर-समुद्र-निवासी श्रीहरि भगवान् आप-से-आप दौड़े जाते हैं॥ ५॥ (सत्संग कैसा है) वेद क्षीर-समुद्र है, उसका भलीभाँति विचार ही मन्दराचल है, समस्त मुनियोंके समूह उसे मथनेवाले हैं। मथनेपर सत्संगरूपी सार-अमृत निकला। यह सिद्धान्त रुक्मिणीपति भगवान् श्रीकृष्ण बतलाते हैं॥ ६॥ संत-महात्माओंकी सत्-युक्ति शोक, सन्देह, भय, हर्ष, अज्ञान और वासनाओंके समूहको इस प्रकार नष्ट कर डालती है, जैसे श्रीरघुनाथजीके बाण राक्षसोंकी सेनाके समुदायको कौशल और बड़े वेगसे नष्ट कर देते हैं॥ ७॥ हे रामजी! अपने कर्मवश जहाँ कहीं मेरा जन्म हो, जिस-जिस भी योनिमें अनेक संकट भोगता हुआ भटकूँ, वहाँ ही मुझे आपकी भक्ति और संतोंका संग सदा मिलता रहे। हे राम! बस, मेरा एकमात्र यही आश्रय हो॥ ८॥ संसारजनित (भौतिक, दैहिक और दैविक) तीन प्रकारकी प्रबल पीड़ाका नाश करनेके लिये आपकी भक्ति ही एकमात्र ओषधि है और अद्वैतदर्शी (चराचरमें एक आपको ही देखनेवाले) भक्त ही वैद्य हैं। वास्तवमें संत और भगवान् में कभी किंचित् भी अन्तर नहीं है—मलिन-बुद्धि तुलसीदास तो यही कहता है॥ ९॥

विषय (हिन्दी)

(५८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

देहि अवलंब कर कमल, कमलारमन, दमन-दुख, शमन-संताप भारी।
अज्ञान-राकेश-ग्रासन विधुंतुद, गर्व-काम-करिमत्त-हरि, दूषणारी॥ १॥
वपुष ब्रह्माण्ड सुप्रवृत्ति लंका-दुर्ग, रचित मन दनुज मय-रूपधारी।
विविध कोशौघ, अति रुचिर-मंदिर-निकर, सत्वगुण प्रमुख त्रैकटककारी॥ २॥
कुणप-अभिमान सागर भयंकर घोर, विपुल अवगाह, दुस्तर अपारं।
नक्र-रागादि-संकुल मनोरथ सकल, संग-संकल्प वीची-विकारं॥ ३॥
मोह दशमौलि, तद्‍भ्रात अहँकार, पाकारिजित काम विश्रामहारी।
लोभ अतिकाय, मत्सर महोदर दुष्ट, क्रोध पापिष्ठ-विबुधांतकारी॥ ४॥
द्वेष दुर्मुख, दंभ खर, अकंपन कपट, दर्प मनुजाद मद-शूलपानी।
अमितबल परम दुर्जय निशाचर-निकर सहित षडवर्ग गो-यातुधानी॥ ५॥
जीव भवदंघ्रि-सेवक विभीषण बसत मध्य दुष्टाटवी ग्रसितचिंता।
नियम-यम-सकल सुरलोक-लोकेश लंकेश-वश नाथ! अत्यंत भीता॥ ६॥
ज्ञान-अवधेश-गृह गेहिनी भक्ति शुभ, तत्र अवतार भूभार-हर्ता।
भक्त-संकष्ट अवलोकि पितु-वाक्य कृत गमन किय गहन वैदेहि-भर्ता॥ ७॥
कैवल्य-साधन अखिल भालु मर्कट विपुल ज्ञान-सुग्रीवकृत जलधिसेतू।
प्रबल वैराग्य दारुण प्रभंजन-तनय, विषय वन भवनमिव धूमकेतू॥ ८॥
दुष्ट दनुजेश निर्वंशकृत दासहित, विश्वदुख-हरण बोधैकरासी।
अनुज निज जानकी सहित हरि सर्वदा दासतुलसी हृदय कमलवासी॥ ९॥

मूल

देहि अवलंब कर कमल, कमलारमन, दमन-दुख, शमन-संताप भारी।
अज्ञान-राकेश-ग्रासन विधुंतुद, गर्व-काम-करिमत्त-हरि, दूषणारी॥ १॥
वपुष ब्रह्माण्ड सुप्रवृत्ति लंका-दुर्ग, रचित मन दनुज मय-रूपधारी।
विविध कोशौघ, अति रुचिर-मंदिर-निकर, सत्वगुण प्रमुख त्रैकटककारी॥ २॥
कुणप-अभिमान सागर भयंकर घोर, विपुल अवगाह, दुस्तर अपारं।
नक्र-रागादि-संकुल मनोरथ सकल, संग-संकल्प वीची-विकारं॥ ३॥
मोह दशमौलि, तद्‍भ्रात अहँकार, पाकारिजित काम विश्रामहारी।
लोभ अतिकाय, मत्सर महोदर दुष्ट, क्रोध पापिष्ठ-विबुधांतकारी॥ ४॥
द्वेष दुर्मुख, दंभ खर, अकंपन कपट, दर्प मनुजाद मद-शूलपानी।
अमितबल परम दुर्जय निशाचर-निकर सहित षडवर्ग गो-यातुधानी॥ ५॥
जीव भवदंघ्रि-सेवक विभीषण बसत मध्य दुष्टाटवी ग्रसितचिंता।
नियम-यम-सकल सुरलोक-लोकेश लंकेश-वश नाथ! अत्यंत भीता॥ ६॥
ज्ञान-अवधेश-गृह गेहिनी भक्ति शुभ, तत्र अवतार भूभार-हर्ता।
भक्त-संकष्ट अवलोकि पितु-वाक्य कृत गमन किय गहन वैदेहि-भर्ता॥ ७॥
कैवल्य-साधन अखिल भालु मर्कट विपुल ज्ञान-सुग्रीवकृत जलधिसेतू।
प्रबल वैराग्य दारुण प्रभंजन-तनय, विषय वन भवनमिव धूमकेतू॥ ८॥
दुष्ट दनुजेश निर्वंशकृत दासहित, विश्वदुख-हरण बोधैकरासी।
अनुज निज जानकी सहित हरि सर्वदा दासतुलसी हृदय कमलवासी॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे लक्ष्मीरमण! इस संसार-सागरमें डूबते हुए मुझको अपने कर-कमलका सहारा दीजिये। क्योंकि आप दुःखोंके दूर करनेवाले और बड़े-बड़े सन्तापोंके नाश करनेवाले हैं। हे दूषणनाशक! आप अज्ञानरूपी चन्द्रमाको ग्रसनेके लिये राहु और गर्व तथा कामरूपी मतवाले हाथियोंके मर्दन करनेके लिये सिंह हैं॥ १॥ शरीररूपी ब्रह्माण्डमें प्रवृत्ति ही लंकाका किला है। मनरूपी मयदानवने इसे बनाया है। इसमें जो अनेक कोश (शरीरमें पाँच कोश हैं—अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय) हैं; वे इसके अत्यन्त सुन्दर महल हैं, सत्त्वगुण आदि तीनों गुण इसके सेनापति हैं॥ २॥ देहाभिमान अत्यन्त भयंकर, अथाह, अपार, दुस्तर समुद्र है, जिसमें राग-द्वेष और कामना आदि अनेक घड़ियाल भरे हैं और आसक्ति तथा संकल्पोंकी लहरें उठ रही हैं॥ ३॥ इस लंकामें मोहरूपी रावण, अहंकाररूपी उसका भाई कुम्भकर्ण और शान्ति नष्ट करनेवाला कामरूपी मेघनाद है। यहाँ लोभरूपी अतिकाय, मत्सररूपी दुष्ट महोदर, क्रोधरूपी महापापी देवान्तक, द्वेषरूपी दुर्मुख, दम्भरूपी खर, कपटरूपी अकम्पन, दर्परूपी मनुजाद और मदरूपी शूलपाणि राक्षस हैं, यह (दुष्ट राजपरिवार और उसके सेनापतिरूपी) राक्षसोंका समूह अत्यन्त पराक्रमी और जीतनेमें बड़ा कठिन है। इन मोह आदि छः राक्षसोंके साथ इन्द्रियरूपी राक्षसियाँ भी हैं॥ ४-५॥ हे नाथ! आपके चरणकमलोंका सेवक जीव विभीषण है, जो इन दुष्टोंसे भरे हुए वनमें सर्वथा चिन्ताग्रस्त हुआ निवास कर रहा है। यम-नियमरूपी दसों दिक्पाल और इन्द्र इस रावणके अधीन होकर अत्यन्त भयभीत रहते हैं॥ ६॥ इसलिये जैसे आपने महाराज दशरथ और कौशल्याके यहाँ पृथ्वीका भार उतारनेके लिये अवतार लिया था, वैसे ही हे जानकीवल्लभ! ज्ञानरूपी दशरथके घर, शुभ भक्तिरूपी कौशल्याजीके द्वारा (इन मोहादि राक्षसोंका नाश करनेके लिये) प्रकट होइये और जैसे भक्तोंका कष्ट देखकर पिताकी आज्ञासे आप उस समय वन पधारे थे, (वैसे ही मेरे हृदयरूपी वनमें पधारिये)॥ ७॥ मोक्षके जो सब साधन हैं, उन अनेक रीछ-बंदरोंके द्वारा ज्ञानरूपी सुग्रीवसे (संसार) सागरपर पुल बँधा दीजिये। फिर प्रबल वैराग्यरूपी महाबलवान् पवनकुमार हनुमान् जी विषयरूपी वन और महलोंको अग्निके समान भस्म कर देंगे॥ ८॥ तदनन्तर हे केवल ज्ञानघन! हे सारे विश्वका दुःख हरनेवाले श्रीरामजी! जीवरूपी दासके लिये मोहरूपी दुष्ट दानवका वंशसहित नाश कर दीजिये और तुलसीदासके हृदयकमलमें सदा-सर्वदा छोटे भाई लक्ष्मण और श्रीजानकीजीसहित निवास कीजिये॥ ९॥

विषय (हिन्दी)

(५९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीन-उद्धरण रघुवर्य करुणाभवन शमन-संताप पापौघहारी।
विमल विज्ञान-विग्रह, अनुग्रहरूप, भूपवर, विबुध, नर्मद, खरारी॥ १॥
संसार-कांतार अति घोर, गंभीर, घन, गहन तरुकर्मसंकुल, मुरारी।
वासना वल्लि खर-कंटकाकुल विपुल, निबिड़ विटपाटवी कठिन भारी॥ २॥
विविध चितवृत्ति-खग निकर श्येनोलूक, काक वक गृध्र आमिष-अहारी।
अखिल खल, निपुण छल, छिद्र निरखत सदा, जीवजनपथिकमन-खेदकारी॥ ३॥
क्रोध करिमत्त, मृगराज, कंदर्प, मद-दर्प वृक-भालु अति उग्रकर्मा।
महिष मत्सर क्रूर, लोभ शूकररूप, फेरु छल, दंभ मार्जारधर्मा॥ ४॥
कपट मर्कट विकट, व्याघ्र पाखण्डमुख, दुखद मृगव्रात, उत्पातकर्ता।
हृदय अवलोकि यह शोक शरणागतं, पाहि मां पाहि भो विश्वभर्त्ता॥ ५॥
प्रबल अहँकार दुरघट महीधर, महामोह गिरि-गुहा निबिड़ांधकारं।
चित्त वेताल, मनुजाद मन, प्रेतगन रोग, भोगौघ वृश्चिक-विकारं॥ ६॥
विषय-सुख-लालसा दंश-मशकादि, खल झिल्लि रूपादि सब सर्प, स्वामी।
तत्र आक्षिप्त तव विषम माया नाथ, अंध मैं मंद, व्यालादगामी॥ ७॥
घोर अवगाह भव आपगा पापजलपूर, दुष्प्रेक्ष्य, दुस्तर, अपारा।
मकर षड्वर्ग, गो नक्र चक्राकुला, कूल शुभ-अशुभ, दुख तीव्र धारा॥ ८॥
सकल संघट पोच शोचवश सर्वदा दासतुलसी विषम गहनग्रस्तं।
त्राहि रघुवंशभूषण कृपा कर, कठिन काल विकराल-कलित्रास-त्रस्तं॥ ९॥

मूल

दीन-उद्धरण रघुवर्य करुणाभवन शमन-संताप पापौघहारी।
विमल विज्ञान-विग्रह, अनुग्रहरूप, भूपवर, विबुध, नर्मद, खरारी॥ १॥
संसार-कांतार अति घोर, गंभीर, घन, गहन तरुकर्मसंकुल, मुरारी।
वासना वल्लि खर-कंटकाकुल विपुल, निबिड़ विटपाटवी कठिन भारी॥ २॥
विविध चितवृत्ति-खग निकर श्येनोलूक, काक वक गृध्र आमिष-अहारी।
अखिल खल, निपुण छल, छिद्र निरखत सदा, जीवजनपथिकमन-खेदकारी॥ ३॥
क्रोध करिमत्त, मृगराज, कंदर्प, मद-दर्प वृक-भालु अति उग्रकर्मा।
महिष मत्सर क्रूर, लोभ शूकररूप, फेरु छल, दंभ मार्जारधर्मा॥ ४॥
कपट मर्कट विकट, व्याघ्र पाखण्डमुख, दुखद मृगव्रात, उत्पातकर्ता।
हृदय अवलोकि यह शोक शरणागतं, पाहि मां पाहि भो विश्वभर्त्ता॥ ५॥
प्रबल अहँकार दुरघट महीधर, महामोह गिरि-गुहा निबिड़ांधकारं।
चित्त वेताल, मनुजाद मन, प्रेतगन रोग, भोगौघ वृश्चिक-विकारं॥ ६॥
विषय-सुख-लालसा दंश-मशकादि, खल झिल्लि रूपादि सब सर्प, स्वामी।
तत्र आक्षिप्त तव विषम माया नाथ, अंध मैं मंद, व्यालादगामी॥ ७॥
घोर अवगाह भव आपगा पापजलपूर, दुष्प्रेक्ष्य, दुस्तर, अपारा।
मकर षड्वर्ग, गो नक्र चक्राकुला, कूल शुभ-अशुभ, दुख तीव्र धारा॥ ८॥
सकल संघट पोच शोचवश सर्वदा दासतुलसी विषम गहनग्रस्तं।
त्राहि रघुवंशभूषण कृपा कर, कठिन काल विकराल-कलित्रास-त्रस्तं॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे श्रीरामजी! आप दीनोंका उद्धार करनेवाले, रघुकुलमें श्रेष्ठ, करुणाके स्थान, सन्तापका नाश करनेवाले और पापोंके समूहके हरनेवाले हैं। आप निर्विकार, विज्ञान-स्वरूप, कृपा-मूर्ति, राजाओंमें शिरोमणि, देवताओंको सुख देनेवाले तथा खर नामक दैत्यके शत्रु हैं॥ १॥ हे मुरारे! यह संसाररूपी वन बड़ा ही भयानक और गहरा है; इसमें कर्मरूपी वृक्ष बड़ी ही सघनतासे लगे हैं, वासनारूपी लताएँ लिपट रही हैं और व्याकुलतारूपी अनेक पैने काँटे बिछ रहे हैं। इस प्रकार यह सघन वृक्षसमूहोंका महाघोर वन है॥ २॥ इस वनमें, चित्तकी जो अनेक प्रकारकी वृत्तियाँ हैं, सो मांसाहारी बाज, उल्लू, काक, बगुले और गिद्ध आदि पक्षियोंका समूह है। ये सभी बड़े दुष्ट और छल करनेमें निपुण हैं। कोई छिद्र देखते ही यह जीवरूपी यात्रियोंके मनको सदा दुःख दिया करते हैं॥ ३॥ इस संसार-वनमें क्रोधरूपी मतवाला हाथी, कामरूपी सिंह, मदरूपी भेड़िया और गर्वरूपी रीछ है, ये सभी बड़े निर्दय हैं। इनके सिवा यहाँ मत्सररूपी क्रूर भैंसा, लोभरूपी शूकर, छलरूपी गीदड़ और दम्भरूपी बिलाव भी हैं॥ ४॥ यहाँ कपटरूपी विकट बंदर और पाखण्डरूपी बाघ हैं, जो संतरूपी मृगोंको सदा दुःख दिया करते और उपद्रव मचाया करते हैं। हे विश्वम्भर! हृदयमें यह शोक देखकर मैं आपकी शरण आया हूँ, हे नाथ! आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये॥ ५॥ इस संसार-वनमें (इन जीव-जन्तुओंसे बच जानेपर भी आगे और विपद् है) अहंकाररूपी बड़ा विशाल पर्वत है, जो सहजमें लाँघा नहीं जा सकता। इस पर्वतमें महामोहरूपी गुफा है जिसके अंदर घना अन्धकार है। यहाँ चित्तरूपी बेताल, मनरूपी मनुष्य-भक्षक राक्षस, रोगरूपी भूत-प्रेतगण और भोग-विलासरूपी बिच्छुओंका जहर फैला हुआ है॥ ६॥ यहाँ विषय-सुखकी लालसारूपी मक्खियाँ और मच्छर हैं, दुष्ट मनुष्यरूपी झिल्ली है, और हे स्वामी! रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्श विषयरूपी सर्प हैं। हे नाथ! आपकी कठिन मायाने मुझ मूर्खको यहाँ लाकर पटक दिया है। हे गरुड़गामी! मैं तो अन्धा हूँ, अर्थात् ज्ञाननेत्र-विहीन हूँ॥ ७॥ इस संसार-वनमें बहनेवाली वासनारूपी भव-नदी बड़ी ही भयंकर और अथाह है, जिसमें पापरूपी जल भरा हुआ है, जिसकी ओर देखना सहज नहीं, इसका पार करना बहुत ही कठिन है; क्योंकि यह अपार है। इसमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सररूपी छः मगर हैं, इन्द्रियरूपी घड़ियाल और भँवर भरे पड़े हैं। शुभ-अशुभ कर्मरूपी इसके दो तीर हैं, इसमें दुःखोंकी तीव्र धारा बह रही है॥ ८॥ हे रघुवंशभूषण! इन सब नीचोंके दलने मुझे पकड़ रखा है, यह आपका दास तुलसी सदा चिन्ताके वश रहता है। इस कराल कलिकालके भयसे डरे हुए मुझको आप कृपा करके बचाइये॥ ९॥