विषय (हिन्दी)
(५०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
भानुकुल-कमल-रवि, कोटि-कंदर्प-छवि, काल-कलि-व्यालमिव वैनतेयं।
प्रबल भुजदंड परचंड-कोदंड-धर तूणवर विशिख बलमप्रमेयं॥ १॥
अरुण राजीवदल-नयन, सुषमा-अयन, श्याम तन-कांति वर वारिदाभं।
तप्त कांचन-वस्त्र, शस्त्र-विद्या-निपुण, सिद्ध-सुर-सेव्य, पाथोजनाभं॥ २॥
अखिल लावण्य-गृह, विश्व-विग्रह, परम प्रौढ़, गुणगूढ़, महिमा उदारं।
दुर्धर्ष, दुस्तर, दुर्ग, स्वर्ग-अपवर्ग-पति, भग्न संसार-पादप कुठारं॥ ३॥
शापवश मुनिवधू-मुक्तकृत, विप्रहित, यज्ञ-रक्षण-दक्ष, पक्षकर्ता।
जनक-नृप-सदसि शिवचाप-भंजन, उग्र भार्गवागर्व-गरिमापहर्ता॥ ४॥
गुरु-गिरा-गौरवामर-सुदुस्त्यज राज्य त्यक्त,श्रीसहित सौमित्रि-भ्राता।
संग जनकात्मजा, मनुजमनुसृत्य अज, दुष्ट-वध-निरत, त्रैलोक्यत्राता॥ ५॥
दंडकारण्य कृतपुण्य पावन चरण, हरण मारीच-मायाकुरंगं।
बालि बलमत्त गजराज इव केसरी, सुहृद-सुग्रीव-दुख-राशि-भंगं॥ ६॥
ऋक्ष, मर्कट विकट सुभट उद्भट समर, शैल-संकाश रिपु त्रासकारी।
बद्धपाथोधि, सुर-निकर-मोचन, सकुल दलन दससीस-भुजबीस भारी॥ ७॥
दुष्ट विबुधारि-संघात, अपहरण महि-भार, अवतार कारण अनूपं।
अमल, अनवद्य, अद्वैत, निर्गुण, सगुण, ब्रह्म सुमिरामि नरभूप-रूपं॥ ८॥
शेष-श्रुति-शारदा-शंभु-नारद-सनक गनत गुन अंत नहिं तव चरित्रं।
सोइ राम कामारि-प्रिय अवधपति सर्वदा दासतुलसी-त्रास-निधि वहित्रं॥ ९॥
मूल
भानुकुल-कमल-रवि, कोटि-कंदर्प-छवि, काल-कलि-व्यालमिव वैनतेयं।
प्रबल भुजदंड परचंड-कोदंड-धर तूणवर विशिख बलमप्रमेयं॥ १॥
अरुण राजीवदल-नयन, सुषमा-अयन, श्याम तन-कांति वर वारिदाभं।
तप्त कांचन-वस्त्र, शस्त्र-विद्या-निपुण, सिद्ध-सुर-सेव्य, पाथोजनाभं॥ २॥
अखिल लावण्य-गृह, विश्व-विग्रह, परम प्रौढ़, गुणगूढ़, महिमा उदारं।
दुर्धर्ष, दुस्तर, दुर्ग, स्वर्ग-अपवर्ग-पति, भग्न संसार-पादप कुठारं॥ ३॥
शापवश मुनिवधू-मुक्तकृत, विप्रहित, यज्ञ-रक्षण-दक्ष, पक्षकर्ता।
जनक-नृप-सदसि शिवचाप-भंजन, उग्र भार्गवागर्व-गरिमापहर्ता॥ ४॥
गुरु-गिरा-गौरवामर-सुदुस्त्यज राज्य त्यक्त,श्रीसहित सौमित्रि-भ्राता।
संग जनकात्मजा, मनुजमनुसृत्य अज, दुष्ट-वध-निरत, त्रैलोक्यत्राता॥ ५॥
दंडकारण्य कृतपुण्य पावन चरण, हरण मारीच-मायाकुरंगं।
बालि बलमत्त गजराज इव केसरी, सुहृद-सुग्रीव-दुख-राशि-भंगं॥ ६॥
ऋक्ष, मर्कट विकट सुभट उद्भट समर, शैल-संकाश रिपु त्रासकारी।
बद्धपाथोधि, सुर-निकर-मोचन, सकुल दलन दससीस-भुजबीस भारी॥ ७॥
दुष्ट विबुधारि-संघात, अपहरण महि-भार, अवतार कारण अनूपं।
अमल, अनवद्य, अद्वैत, निर्गुण, सगुण, ब्रह्म सुमिरामि नरभूप-रूपं॥ ८॥
शेष-श्रुति-शारदा-शंभु-नारद-सनक गनत गुन अंत नहिं तव चरित्रं।
सोइ राम कामारि-प्रिय अवधपति सर्वदा दासतुलसी-त्रास-निधि वहित्रं॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—सूर्यवंशरूपी कमलको खिलानेके लिये जो सूर्य हैं, करोड़ों कामदेवोंके समान जिनकी सुन्दरता है, कलिकालरूपी सर्पको ग्रसनेके लिये जो गरुड़ हैं, अपने प्रबल भुजदण्डोंमें जिन्होंने प्रचण्ड धनुष और बाण धारण कर रखे हैं, जो तरकस बाँधे हैं और जिनका बल असीम है॥ १॥ लाल कमलकी पँखुड़ियों-जैसे जिनके नेत्र हैं, जो शोभाके धाम हैं, जिनके साँवरे शरीरकी सुन्दर कान्ति मेघके समान है। जो तपे हुए सोनेके समान पीताम्बर धारण किये हैं, जो शस्त्र-विद्यामें निपुण और सिद्धों तथा देवताओंके उपास्य हैं और जिनकी नाभिसे कमल उत्पन्न हुआ है॥ २॥ जो सम्पूर्ण सुन्दरताके स्थान हैं, सारा विश्व ही जिनकी मूर्ति है, जो बड़े ही बुद्धिमान् और रहस्यमय गुणवाले हैं, जिनकी अपार महिमा है, जिनको कोई भी नहीं जीत सकता और जिनकी लीलाका पार कोई भी नहीं पा सकता, जिनको पहचानना बड़ा कठिन है, जो स्वर्ग और मोक्षके स्वामी तथा आवागमनरूपी संसारके वृक्षकी जड़ काटनेके लिये कुठार हैं॥ ३॥ जो गौतम मुनिकी स्त्री अहल्याको शापसे मुक्त करनेवाले, विश्वामित्रके यज्ञकी रक्षा करनेमें बड़े चतुर और अपने भक्तोंका पक्ष करनेवाले हैं, तथा राजा जनककी सभामें शिवजीके धनुषको तोड़कर महान् तेजस्वी एवं क्रोधी परशुरामजीके गर्व और महत्त्वको हरण करनेवाले हैं॥ ४॥ जिन्होंने पिताके वचनोंका गौरव रखनेके लिये, देवता भी जिसको बड़ी कठिनतासे छोड़ सकते हैं, ऐसे राज्यको सहजमें ही त्याग दिया और भाई लक्ष्मण तथा श्रीजानकीजीको साथ लेकर, अजन्मा परब्रह्म होकर भी नरलीलासे तीनों लोकोंकी रक्षाके लिये रावणादि दुष्ट राक्षसोंका संहार किया॥ ५॥ जिन्होंने अपने पावन चरणकमलोंसे दण्डक वनको पवित्र कर दिया, कपट-मृगरूपी मारीचका नाश कर दिया, जो बालिरूपी महान् बलसे मतवाले हाथीके संहारके लिये सिंहरूप हैं और सुग्रीवके समस्त दुःखोंका नाश करनेवाले परम सुहृद् हैं॥ ६॥ जिन्होंने भयंकर और बड़े भारी शूरवीर रीछ-बन्दरोंको साथ लेकर संग्राममें कुम्भकर्ण-सरीखे पर्वतके समान आकारवाले योद्धाओंको डरा दिया, समुद्रको बाँध लिया, देवताओंके समूहको रावणके बन्धनसे छुड़ा दिया और दस सिर तथा विशाल बीस भुजाओंवाले रावणका कुलसहित नाश कर दिया॥ ७॥ देवताओंके शत्रु दुष्ट राक्षसोंके समूहका, जो पृथ्वीपर भाररूप था, संहार करनेके लिये अवतार लेनेमें उपमारहित कारणवाले, निर्मल, निर्दोष, अद्वैतरूप, वास्तवमें निर्गुण, मायाको साथ लेकर सगुण, परब्रह्म नररूप राजराजेश्वर श्रीरामका मैं स्मरण करता हूँ॥ ८॥ शेषजी, वेद, सरस्वती, शिवजी, नारद और सनकादि सदा जिनके गुण गाते हैं, परंतु जिनकी लीलाका पार नहीं पा सकते, वही शिवजीके प्यारे अयोध्यानाथ श्रीराम इस तुलसीदासको दुःखरूपी समुद्रसे पार उतारनेके लिये सदा-सर्वदा जहाजरूप हैं॥ ९॥
विषय (हिन्दी)
(५१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानकीनाथ, रघुनाथ, रागादि-तम-तरणि, तारुण्यतनु, तेजधामं।
सच्चिदानंद, आनंदकंदाकरं, विश्व-विश्राम, रामाभिरामं॥ १॥
नीलनव-वारिधर-सुभग-शुभकांति, कटि पीत कौशेय वर वसनधारी।
रत्न-हाटक-जटित-मुकुट-मंडित-मौलि, भानु-शत-सदृश उद्योतकारी॥ २॥
श्रवण कुंडल, भाल तिलक, भ्रूरुचिर अति, अरुण अंभोज लोचन विशालं।
वक्र-अवलोक, त्रैलोक-शोकापहं, मार-रिपु-हृदय-मानस-मरालं॥ ३॥
नासिका चारु सुकपोल, द्विज वज्रदुति, अधर बिंबोपमा, मधुरहासं।
कंठ दर, चिबुक वर, वचन गंभीरतर, सत्य-संकल्प, सुरत्रास-नासं॥ ४॥
सुमन सुविचित्र नव तुलसिकादल-युतं मृदुल वनमाल उर भ्राजमानं।
भ्रमत आमोदवश मत्त मधुकर-निकर, मधुरतर मुखर कुर्वन्ति गानं॥ ५॥
सुभग श्रीवत्स, केयूर, कंकण, हार, किंकिणी-रटनि कटि-तट रसालं।
वाम दिसि जनकजासीन-सिंहासनं कनक-मृदुवल्लिवत तरु तमालं॥ ६॥
आजानु भुजदंड कोदंड-मंडित वाम बाहु, दक्षिण पाणि बाणमेकं।
अखिल मुनि-निकर, सुर, सिद्ध, गंधर्व वर नमत नर नाग अवनिप अनेकं॥ ७॥
अनघ, अविछिन्न, सर्वज्ञ, सर्वेश, खलु सर्वतोभद्र-दाताऽसमाकं।
प्रणतजन-खेद-विच्छेद-विद्या-निपुण नौमि श्रीराम सौमित्रिसाकं॥ ८॥
युगल पदपद्म सुखसद्म पद्मालयं, चिह्न कुलिशादि शोभाति भारी।
हनुमंत-हृदि विमल कृत परममंदिर, सदा दासतुलसी-शरण शोकहारी॥ ९॥
मूल
जानकीनाथ, रघुनाथ, रागादि-तम-तरणि, तारुण्यतनु, तेजधामं।
सच्चिदानंद, आनंदकंदाकरं, विश्व-विश्राम, रामाभिरामं॥ १॥
नीलनव-वारिधर-सुभग-शुभकांति, कटि पीत कौशेय वर वसनधारी।
रत्न-हाटक-जटित-मुकुट-मंडित-मौलि, भानु-शत-सदृश उद्योतकारी॥ २॥
श्रवण कुंडल, भाल तिलक, भ्रूरुचिर अति, अरुण अंभोज लोचन विशालं।
वक्र-अवलोक, त्रैलोक-शोकापहं, मार-रिपु-हृदय-मानस-मरालं॥ ३॥
नासिका चारु सुकपोल, द्विज वज्रदुति, अधर बिंबोपमा, मधुरहासं।
कंठ दर, चिबुक वर, वचन गंभीरतर, सत्य-संकल्प, सुरत्रास-नासं॥ ४॥
सुमन सुविचित्र नव तुलसिकादल-युतं मृदुल वनमाल उर भ्राजमानं।
भ्रमत आमोदवश मत्त मधुकर-निकर, मधुरतर मुखर कुर्वन्ति गानं॥ ५॥
सुभग श्रीवत्स, केयूर, कंकण, हार, किंकिणी-रटनि कटि-तट रसालं।
वाम दिसि जनकजासीन-सिंहासनं कनक-मृदुवल्लिवत तरु तमालं॥ ६॥
आजानु भुजदंड कोदंड-मंडित वाम बाहु, दक्षिण पाणि बाणमेकं।
अखिल मुनि-निकर, सुर, सिद्ध, गंधर्व वर नमत नर नाग अवनिप अनेकं॥ ७॥
अनघ, अविछिन्न, सर्वज्ञ, सर्वेश, खलु सर्वतोभद्र-दाताऽसमाकं।
प्रणतजन-खेद-विच्छेद-विद्या-निपुण नौमि श्रीराम सौमित्रिसाकं॥ ८॥
युगल पदपद्म सुखसद्म पद्मालयं, चिह्न कुलिशादि शोभाति भारी।
हनुमंत-हृदि विमल कृत परममंदिर, सदा दासतुलसी-शरण शोकहारी॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—जानकीनाथ श्रीरघुनाथजी राग-द्वेषरूपी अन्धकारका नाश करनेके लिये सूर्यरूप, तरुण शरीरवाले, तेजके धाम, सच्चिदानन्द, आनन्दकन्दकी खानि, संसारको शान्ति देनेवाले, परम सुन्दर हैं॥ १॥ जिनकी नवीन नील सजल मेघके समान सुन्दर और शुभ कान्ति है, जो कटि-तटमें सुन्दर रेशमी पीताम्बर धारण किये हैं, और जिनके मस्तकपर सैकड़ों सूर्योंके समान प्रकाश करनेवाला रत्नजड़ित सुन्दर सुवर्ण-मुकुट शोभित हो रहा है॥ २॥ जो कानोंमें कुण्डल पहिने, भालपर तिलक लगाये, अत्यन्त सुन्दर भ्रुकुटि तथा लाल कमलके समान बड़े-बड़े नेत्रोंवाले, तिरछी चितवनसे देखते हुए, तीनों लोकोंका शोक हरनेवाले और कामारि श्रीशिवजीके हृदयरूपी मानसरोवरमें विहार करनेवाले हंसरूप हैं॥ ३॥ जिनकी नासिका बड़ी सुन्दर है, मनोहर कपोल हैं, दाँत हीरे-जैसे चमकदार हैं, होठ लाल-लाल बिम्बाफलके समान हैं, मधुर मुसकान है, शंखके समान कण्ठ और परम सुन्दर ठोढ़ी है। जिनके वचन बड़े ही गम्भीर होते हैं, जो सत्यसंकल्प और देवताओंके दुःखोंका नाश करनेवाले हैं॥ ४॥ रंग-बिरंगे फूलों और नये तुलसी-पत्रोंकी कोमल वनमाला जिनके हृदयपर सुशोभित हो रही है, उस मालापर सुगन्धके वश मतवाले भौंरोंका समूह मधुर गुंजार करता हुआ उड़ रहा है॥ ५॥ जिनके हृदयपर सुन्दर श्रीवत्सका चिह्न है, बाहुओंपर बाजूबन्द, हाथोंमें कंकण और गलेमें मनोहर हार शोभित हो रहा है, कटि-देशमें सुन्दर तागड़ीका मधुर शब्द हो रहा है। सिंहासनपर वाम भागमें श्रीजानकीजी विराजमान हैं, जो तमाल-वृक्षके समीप कोमल सुवर्ण-लता-सी शोभित हो रही हैं॥ ६॥ जिनके भुजदण्ड घुटनोंतक लंबे हैं; बायें हाथमें धनुष और दाहिने हाथमें एक बाण है; जिनको सम्पूर्ण मुनिमण्डल, देवता, सिद्ध, श्रेष्ठ गन्धर्व, मनुष्य, नाग और अनेक राजा-महाराजागण प्रणाम करते हैं॥ ७॥ जो पापरहित, अखण्ड, सर्वज्ञ, सबके स्वामी और निश्चयपूर्वक हमलोगोंको कल्याण प्रदान करनेवाले हैं; जो शरणागत भक्तोंके कष्ट मिटानेकी कलामें सर्वथा निपुण हैं, ऐसे लक्ष्मणजीसहित श्रीरामचन्द्रजीको मैं प्रणाम करता हूँ॥ ८॥ जिनके दोनों चरणकमल आनन्दके धाम और कमला (लक्ष्मीजी)-के निवासस्थान हैं अर्थात् लक्ष्मीजी सदा उन चरणोंकी सेवामें लगी रहती हैं। वज्र आदि ४८ चिह्नोंसे जो अत्यन्त शोभा पा रहे हैं और जिन्होंने भक्तवर श्रीहनुमान् जी के निर्मल हृदयको अपना श्रेष्ठ मन्दिर बना रखा है यानी श्रीहनुमान् जी के हृदयमें यह चरणकमल सदा बसते हैं, ऐसे शोक हरनेवाले श्रीरामजीके चरणोंकी शरणमें यह तुलसीदास है॥ ९॥
विषय (हिन्दी)
(५२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोशलाधीश, जगदीश, जगदेकहित, अमितगुण, विपुल विस्तार लीला।
गायंति तव चरित सुपवित्र श्रुति-शेष-शुक-शंभु-सनकादि मुनि मननशीला॥ १॥
वारिचर-वपुष धरि भक्त-निस्तारपर, धरणिकृत नाव महिमातिगुर्वी।
सकल यज्ञांशमय उग्र विग्रह क्रोड़, मर्दि दनुजेश उद्धरण उर्वी॥ २॥
कमठ अति विकट तनु कठिन पृष्ठोपरी, भ्रमत मंदर कंडु-सुख मुरारी।
प्रकटकृत अमृत, गो, इंदिरा, इंदु, वृंदारकावृंद-आनंदकारी॥ ३॥
मनुज-मुनि-सिद्ध-सुर-नाग-त्रासक, दुष्ट दनुज द्विज-धर्म-मरजाद-हर्त्ता।
अतुल मृगराज-वपुधरित, विद्दरित अरि, भक्त प्रहलाद-अहलाद-कर्त्ता॥ ४॥
छलन बलि कपट-वटुरूप वामन ब्रह्म, भुवन पर्यंत पद तीन करणं।
चरण-नख-नीर-त्रैलोक-पावन परम, विबुध-जननी-दुसह-शोक-हरणं॥ ५॥
क्षत्रियाधीश-करिनिकर-नव-केसरी, परशुधर विप्र-सस-जलदरूपं।
बीस भुजदंड दससीस खंडन चंड वेग सायक नौमि राम भूपं॥ ६॥
भूमिभर-भार-हर, प्रकट परमातमा, ब्रह्म नररूपधर भक्तहेतू।
वृष्णि-कुल-कुमुद-राकेश राधारमण, कंस-बंसाटवी-धूमकेतू॥ ७॥
प्रबल पाखंड महि-मंडलाकुल देखि, निंद्यकृत अखिल मख कर्म-जालं।
शुद्ध बोधैकघन, ज्ञान-गुणधाम, अज बौद्ध-अवतार वंदे कृपालं॥ ८॥
कालकलिजनित-मल-मलिनमन सर्व नर मोह-निशि-निबिड़यवनांधकारं।
विष्णुयश पुत्र कलकी दिवाकर उदित दासतुलसी हरण विपतिभारं॥ ९॥
मूल
कोशलाधीश, जगदीश, जगदेकहित, अमितगुण, विपुल विस्तार लीला।
गायंति तव चरित सुपवित्र श्रुति-शेष-शुक-शंभु-सनकादि मुनि मननशीला॥ १॥
वारिचर-वपुष धरि भक्त-निस्तारपर, धरणिकृत नाव महिमातिगुर्वी।
सकल यज्ञांशमय उग्र विग्रह क्रोड़, मर्दि दनुजेश उद्धरण उर्वी॥ २॥
कमठ अति विकट तनु कठिन पृष्ठोपरी, भ्रमत मंदर कंडु-सुख मुरारी।
प्रकटकृत अमृत, गो, इंदिरा, इंदु, वृंदारकावृंद-आनंदकारी॥ ३॥
मनुज-मुनि-सिद्ध-सुर-नाग-त्रासक, दुष्ट दनुज द्विज-धर्म-मरजाद-हर्त्ता।
अतुल मृगराज-वपुधरित, विद्दरित अरि, भक्त प्रहलाद-अहलाद-कर्त्ता॥ ४॥
छलन बलि कपट-वटुरूप वामन ब्रह्म, भुवन पर्यंत पद तीन करणं।
चरण-नख-नीर-त्रैलोक-पावन परम, विबुध-जननी-दुसह-शोक-हरणं॥ ५॥
क्षत्रियाधीश-करिनिकर-नव-केसरी, परशुधर विप्र-सस-जलदरूपं।
बीस भुजदंड दससीस खंडन चंड वेग सायक नौमि राम भूपं॥ ६॥
भूमिभर-भार-हर, प्रकट परमातमा, ब्रह्म नररूपधर भक्तहेतू।
वृष्णि-कुल-कुमुद-राकेश राधारमण, कंस-बंसाटवी-धूमकेतू॥ ७॥
प्रबल पाखंड महि-मंडलाकुल देखि, निंद्यकृत अखिल मख कर्म-जालं।
शुद्ध बोधैकघन, ज्ञान-गुणधाम, अज बौद्ध-अवतार वंदे कृपालं॥ ८॥
कालकलिजनित-मल-मलिनमन सर्व नर मोह-निशि-निबिड़यवनांधकारं।
विष्णुयश पुत्र कलकी दिवाकर उदित दासतुलसी हरण विपतिभारं॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे कोसलपति! हे जगदीश्वर!! आप जगत् के एकमात्र हितकारी हैं, आपने अपने अपार गुणोंकी बड़ी लीला फैलायी है। आपके परम पवित्र चरित्रको चारों वेद, शेषजी, शुकदेव, शिव, सनकादि और मननशील मुनि गाते हैं॥ १॥ आपने मत्स्यरूप धारण कर अपने भक्तोंको पार करनेके लिये (महाप्रलयके समय) पृथ्वीकी नौका बनायी; आपकी अपार महिमा है। आप समस्त यज्ञोंके अंशोंसे पूर्ण हैं, आपने बड़े भयंकर शरीरवाले हिरण्याक्ष दानवका मर्दन करके शूकररूपसे पृथ्वीका उद्धार किया॥ २॥ हे मुरारे! आपने अति भयानक कछुएका रूप धारण करके समुद्र-मन्थनके समय रसातलमें जाते हुए मन्दराचल पहाड़को अपनी कठिन पीठपर रख लिया, उस समय उसपर पर्वतके घूमनेसे आपको खुजलाहटका-सा सुख प्रतीत हुआ था। समुद्र मथनेपर आपने उसमेंसे अमृत, कामधेनु, लक्ष्मी और चन्द्रमाको उत्पन्न किया, इससे आपने देवताओंको बहुत आनन्द दिया॥ ३॥ आपने अतुलित बलशाली नृसिंहरूप धारण करके मनुष्य, मुनि, सिद्ध, देवता और नागोंको दुःख देनेवाले, ब्राह्मण और धर्मकी मर्यादाका नाश करनेवाले दुष्ट दानव हिरण्यकशिपुरूप शत्रुको विदीर्ण कर भक्तवर प्रह्लादको आह्लादित कर दिया॥ ४॥ आपने वामन ब्रह्मचारीका रूप धारण कर राजा बलिको छलनेके लिये पहिले तीन पैर पृथ्वी माँगी, पर नापते समय तीन पैरसे सारा ब्रह्माण्डतक नाप लिया। (नापनेके समय) आपके चरण-नखसे तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाला (गंगा) जल निकला। आपने बलिको पातालमें भेज और वह राज्य इन्द्रको देकर देवमाता अदितिका दुःसह शोक हर लिया॥ ५॥ आपने सहस्रबाहु आदि अभिमानी क्षत्रिय राजारूपी हाथियोंके समूहको विदीर्ण करनेके लिये सिंहरूप और ब्राह्मणरूपी धान्यको हरा-भरा करनेके लिये मेघरूप, ऐसा परशुराम-अवतार धारण किया और रामरूपसे दस सिर तथा बीस भुजदण्डवाले रावणको प्रचण्ड बाणोंसे खण्ड-खण्ड कर दिया, ऐसे राजराजेश्वर श्रीरामचन्द्रजीको मैं प्रणाम करता हूँ॥ ६॥ भूमिके भारी भारको हरनेके लिये आप परमात्मा शुद्ध ब्रह्म होकर भी भक्तोंके लिये मनुष्यरूप धारण करके प्रकट हुए, जो वृष्णिवंशरूपी कुमुदिनीको प्रफुल्लित करनेवाले चन्द्रमा, राधाजीके पति और कंसादिके वंशरूपी वनको जलानेके लिये अग्निस्वरूप थे॥ ७॥ प्रबल पाखण्ड-दम्भसे पृथ्वीमण्डलको व्याकुल देखकर आपने यज्ञादि सम्पूर्ण कर्मकाण्डरूपी जालका खण्डन किया, ऐसे शुद्ध-बोधस्वरूप, विज्ञानघन सर्व दिव्य-गुण-सम्पन्न, अजन्मा, कृपालु, बुद्ध भगवान् की मैं वन्दना करता हूँ॥ ८॥ कलिकालजनित पापोंसे सभी मनुष्योंके मन मलिन हो रहे हैं। आप मोहरूपी रात्रिमें म्लेच्छरूपी घने अन्धकारके नाश करनेके लिये सूर्योदयकी तरह विष्णुयश नामक ब्राह्मणके यहाँ पुत्ररूपसे कल्कि-अवतार धारण करेंगे! हे नाथ! आप तुलसीदासकी विपत्तिके भारको दूर करें॥ ९॥
विषय (हिन्दी)
(५३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकल सौभाग्यप्रद सर्वतोभद्र-निधि, सर्व, सर्वेश, सर्वाभिरामं।
शर्व-हृदि-कंज-मकरंद-मधुकर रुचिर-रूप, भूपालमणि नौमि रामं॥ १॥
सर्वसुख-धाम गुणग्राम, विश्रामपद, नाम सर्वसंपदमति पुनीतं।
निर्मलं शांत, सुविशुद्ध, बोधायतन, क्रोध-मद-हरण, करुणा-निकेतं॥ २॥
अजित, निरुपाधि, गोतीतमव्यक्त, विभुमेकमनवद्यमजमद्वितीयं।
प्राकृतं, प्रकट परमातमा, परमहित, प्रेरकानंत वंदे तुरीयं॥ ३॥
भूधरं सुन्दरं, श्रीवरं, मदन-मद-मथन सौन्दर्य-सीमातिरम्यं।
दुष्प्राप्य, दुष्प्रेक्ष्य, दुस्तर्क्य, दुष्पार, संसारहर, सुलभ, मृदुभाव-गम्यं॥ ४॥
सत्यकृत, सत्यरत, सत्यव्रत, सर्वदा, पुष्ट, संतुष्ट, संकष्टहारी।
धर्मवर्मनि ब्रह्मकर्मबोधैक, विप्रपूज्य, ब्रह्मण्यजनप्रिय, मुरारी॥ ५॥
नित्य, निर्मम, नित्यमुक्त, निर्मान, हरि, ज्ञानघन, सच्चिदानंद मूलं।
सर्वरक्षक सर्वभक्षकाध्यक्ष, कूटस्थ, गूढार्चि, भक्तानुकूलं॥ ६॥
सिद्ध-साधक-साध्य, वाच्य-वाचकरूप, मंत्र-जापक-जाप्य, सृष्टि-स्रष्टा।
परम कारण, कंजनाभ, जलदाभतनु, सगुण, निर्गुण, सकल दृश्य-द्रष्टा॥ ७॥
व्योम-व्यापक, विरज, ब्रह्म, वरदेश, वैकुंठ, वामन विमल ब्रह्मचारी।
सिद्ध-वृंदारकावृंदवंदित सदा, खंडि पाखंड-निर्मूलकारी॥ ८॥
पूरनानंदसंदोह, अपहरन संमोह-अज्ञान, गुण-सन्निपातं।
बचन-मन-कर्म-गत शरण तुलसीदास त्रास-पाथोधि इव कुंभजातं॥ ९॥
मूल
सकल सौभाग्यप्रद सर्वतोभद्र-निधि, सर्व, सर्वेश, सर्वाभिरामं।
शर्व-हृदि-कंज-मकरंद-मधुकर रुचिर-रूप, भूपालमणि नौमि रामं॥ १॥
सर्वसुख-धाम गुणग्राम, विश्रामपद, नाम सर्वसंपदमति पुनीतं।
निर्मलं शांत, सुविशुद्ध, बोधायतन, क्रोध-मद-हरण, करुणा-निकेतं॥ २॥
अजित, निरुपाधि, गोतीतमव्यक्त, विभुमेकमनवद्यमजमद्वितीयं।
प्राकृतं, प्रकट परमातमा, परमहित, प्रेरकानंत वंदे तुरीयं॥ ३॥
भूधरं सुन्दरं, श्रीवरं, मदन-मद-मथन सौन्दर्य-सीमातिरम्यं।
दुष्प्राप्य, दुष्प्रेक्ष्य, दुस्तर्क्य, दुष्पार, संसारहर, सुलभ, मृदुभाव-गम्यं॥ ४॥
सत्यकृत, सत्यरत, सत्यव्रत, सर्वदा, पुष्ट, संतुष्ट, संकष्टहारी।
धर्मवर्मनि ब्रह्मकर्मबोधैक, विप्रपूज्य, ब्रह्मण्यजनप्रिय, मुरारी॥ ५॥
नित्य, निर्मम, नित्यमुक्त, निर्मान, हरि, ज्ञानघन, सच्चिदानंद मूलं।
सर्वरक्षक सर्वभक्षकाध्यक्ष, कूटस्थ, गूढार्चि, भक्तानुकूलं॥ ६॥
सिद्ध-साधक-साध्य, वाच्य-वाचकरूप, मंत्र-जापक-जाप्य, सृष्टि-स्रष्टा।
परम कारण, कंजनाभ, जलदाभतनु, सगुण, निर्गुण, सकल दृश्य-द्रष्टा॥ ७॥
व्योम-व्यापक, विरज, ब्रह्म, वरदेश, वैकुंठ, वामन विमल ब्रह्मचारी।
सिद्ध-वृंदारकावृंदवंदित सदा, खंडि पाखंड-निर्मूलकारी॥ ८॥
पूरनानंदसंदोह, अपहरन संमोह-अज्ञान, गुण-सन्निपातं।
बचन-मन-कर्म-गत शरण तुलसीदास त्रास-पाथोधि इव कुंभजातं॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—समस्त सौभाग्यके देनेवाले, सब प्रकारसे कल्याणके भण्डार, विश्वरूप, विश्वके ईश्वर, सबको सुख देनेवाले, शिवजीके हृदय-कमलके मकरन्दको पान करनेके लिये भ्रमररूप, मनोहर रूपवान् एवं राजाओंमें शिरोमणि श्रीरामचन्द्रजीको मैं प्रणाम करता हूँ॥ १॥ हे श्रीरामजी! आप सब सुखोंके धाम, गुणोंकी राशि और परमशान्ति देनेवाले हैं। आपका नाम समस्त पदार्थोंको देनेवाला तथा बड़ा ही पवित्र है। आप शुद्ध, शान्त, अत्यन्त निर्मल, ज्ञानस्वरूप, क्रोध और मदका नाश करनेवाले तथा करुणाके स्थान हैं॥ २॥ आप सबसे अजेय, उपाधिरहित, मन-इन्द्रियोंसे परे, अव्यक्त, व्यापक, एक, निर्विकार, अजन्मा और अद्वितीय हैं। परमात्मा होनेपर भी प्रकृतिको साथ लेकर प्रकट होनेवाले, परम हितकारी, सबके प्रेरक, अनन्त और निर्गुणरूप हैं। ऐसे श्रीरामचन्द्रजीको मैं प्रणाम करता हूँ॥ ३॥ आप पृथ्वीको धारण करनेवाले, सुन्दर, लक्ष्मीपति, सुन्दरतामें कामदेवका गर्व खर्व करनेवाले, सौन्दर्यकी सीमा और अत्यन्त ही मनोहर हैं। आपको प्राप्त करना बड़ा कठिन है, आपके दर्शन बड़े कठिन हैं, तर्कसे कोई आपको नहीं जान सकता, आपकी लीलाका पार पाना बड़ा कठिन है। आप अपनी कृपासे आवागमनरूप संसारके हरनेवाले, भक्तोंको सहजहीमें दर्शन देनेवाले और प्रेम तथा दीनतासे प्राप्त होनेवाले हैं॥ ४॥ आप सत्यको उत्पन्न करनेवाले, सत्यमें रहनेवाले, सत्य-संकल्प, सदा ही पुष्ट—दिव्य शक्ति-सामर्थ्यवान्, सन्तुष्ट और महान् कष्टोंके हरनेवाले हैं। धर्म आपका कवच है, आप ब्रह्म और कर्मके ज्ञानमें अद्वितीय हैं, ब्राह्मणोंके पूज्य हैं, ब्राह्मणों और भक्तोंके प्यारे हैं तथा मुर दानवके मारनेवाले हैं॥ ५॥ हे हरे! आप नित्य, ममतारहित, नित्यमुक्त, मानरहित, पापोंके हरनेवाले, ज्ञानस्वरूप, सच्चिदानन्दघन और सबके मूल कारण हैं। आप सबके रक्षक, सबको मृत्युरूपसे भक्षण करनेवाले यमराजके स्वामी, कूटस्थ, गूढ़ तेजवाले और भक्तोंपर कृपा करनेवाले हैं॥ ६॥ आप ही सिद्ध, साधक और साध्य हैं, आप ही वाच्य और वाचक हैं, आप ही मन्त्र, जापक और जाप्य तथा आप ही सृष्टि और आप ही स्रष्टा हैं। आप परम कारण हैं। आपकी नाभिसे कमल निकला है। आपका शरीर मेघके समान श्यामसुन्दर है। सगुण-निर्गुण दोनों ही आप हैं, यह समस्त दृश्यरूप संसार भी आप हैं और उसके द्रष्टा भी आप ही हैं॥ ७॥ आप आकाशके समान सर्वव्यापी, रागरहित, ब्रह्म और वर देनेवाले देवताओंके स्वामी हैं। आपका नाम वैकुण्ठ और विमल वामन ब्रह्मचारी है। सिद्ध और देवसमूह सदा आपकी वन्दना किया करते हैं, आप पाखण्डका खण्डन कर उसे निर्मूल करनेवाले हैं॥ ८॥ आप पूर्ण आनन्दकी राशि, अविवेक, अज्ञान और सत्त्व, रज, तम गुणोंके त्रिदोषको हरनेवाले हैं। यह तुलसीदास वचन, मन और कर्मसे आपकी शरण पड़ा है; इसके भव-भयरूपी समुद्रके सोखनेके लिये आप ही साक्षात् अगस्त्य ऋषिके समान हैं॥ ९॥
विषय (हिन्दी)
(५४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्व-विख्यात, विश्वेश, विश्वायतन, विश्वमरजाद, व्यालारिगामी।
ब्रह्म, वरदेश, वागीश, व्यापक, विमल, विपुल, बलवान, निर्वानस्वामी॥ १॥
प्रकृति, महतत्व, शब्दादि गुण, देवता व्योम, मरुदग्नि, अमलांबु, उर्वी।
बुद्धि, मन, इंद्रिय, प्राण, चित्तातमा, काल, परमाणु, चिच्छक्ति गुर्वी॥ २॥
सर्वमेवात्र त्वद्रूप भूपालमणि! व्यक्तमव्यक्त, गतभेद, विष्णो।
भुवन भवदंग, कामारि-वंदित, पदद्वंद्व मंदाकिनी-जनक, जिष्णो॥ ३॥
आदिमध्यांत, भगवंत! त्वं सर्वगतमीश, पश्यन्ति ये ब्रह्मवादी।
यथा पट-तंतु, घट-मृत्तिका, सर्प-स्रग, दारु करि, कनक-कटकांगदादी॥ ४॥
गूढ़, गंभीर, गर्वघ्न, गूढार्थवित, गुप्त, गोतीत, गुरु, ग्यान-ग्याता।
ग्येय, ग्यानप्रिय, प्रचुर गरिमागार, घोर-संसार-पर, पार दाता॥ ५॥
सत्यसंकल्प, अतिकल्प, कल्पांतकृत, कल्पनातीत, अहि-तल्पवासी।
वनज-लोचन, वनज-नाभ, वनदाभ-वपु, वनचरध्वज-कोटि-लावण्यरासी॥ ६॥
सुकर, दुःकर, दुराराध्य, दुर्व्यसनहर, दुर्ग, दुर्द्धर्ष, दुर्गार्त्तिहर्त्ता।
वेदगर्भार्भकादर्भ-गुनगर्व, अर्वागपर-गर्व-निर्वाप-कर्त्ता॥ ७॥
भक्त-अनुकूल, भवशूल-निर्मूलकर, तूल-अघ-नाम पावक-समानं।
तरलतृष्णा-तमी-तरणि, धरणीधरण, शरण-भयहरण, करुणानिधानं॥ ८॥
बहुल वृंदारकावृंद-वंदारु-पद-द्वंद्व मंदार-मालोर-धारी।
पाहि मामीश संताप-संकुल सदा दास तुलसी प्रणत रावणारी॥ ९॥
मूल
विश्व-विख्यात, विश्वेश, विश्वायतन, विश्वमरजाद, व्यालारिगामी।
ब्रह्म, वरदेश, वागीश, व्यापक, विमल, विपुल, बलवान, निर्वानस्वामी॥ १॥
प्रकृति, महतत्व, शब्दादि गुण, देवता व्योम, मरुदग्नि, अमलांबु, उर्वी।
बुद्धि, मन, इंद्रिय, प्राण, चित्तातमा, काल, परमाणु, चिच्छक्ति गुर्वी॥ २॥
सर्वमेवात्र त्वद्रूप भूपालमणि! व्यक्तमव्यक्त, गतभेद, विष्णो।
भुवन भवदंग, कामारि-वंदित, पदद्वंद्व मंदाकिनी-जनक, जिष्णो॥ ३॥
आदिमध्यांत, भगवंत! त्वं सर्वगतमीश, पश्यन्ति ये ब्रह्मवादी।
यथा पट-तंतु, घट-मृत्तिका, सर्प-स्रग, दारु करि, कनक-कटकांगदादी॥ ४॥
गूढ़, गंभीर, गर्वघ्न, गूढार्थवित, गुप्त, गोतीत, गुरु, ग्यान-ग्याता।
ग्येय, ग्यानप्रिय, प्रचुर गरिमागार, घोर-संसार-पर, पार दाता॥ ५॥
सत्यसंकल्प, अतिकल्प, कल्पांतकृत, कल्पनातीत, अहि-तल्पवासी।
वनज-लोचन, वनज-नाभ, वनदाभ-वपु, वनचरध्वज-कोटि-लावण्यरासी॥ ६॥
सुकर, दुःकर, दुराराध्य, दुर्व्यसनहर, दुर्ग, दुर्द्धर्ष, दुर्गार्त्तिहर्त्ता।
वेदगर्भार्भकादर्भ-गुनगर्व, अर्वागपर-गर्व-निर्वाप-कर्त्ता॥ ७॥
भक्त-अनुकूल, भवशूल-निर्मूलकर, तूल-अघ-नाम पावक-समानं।
तरलतृष्णा-तमी-तरणि, धरणीधरण, शरण-भयहरण, करुणानिधानं॥ ८॥
बहुल वृंदारकावृंद-वंदारु-पद-द्वंद्व मंदार-मालोर-धारी।
पाहि मामीश संताप-संकुल सदा दास तुलसी प्रणत रावणारी॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे श्रीरामजी! आप विश्वमें प्रसिद्ध, अखिल ब्रह्माण्डके स्वामी, विश्वरूप, विश्वकी मर्यादा और गरुड़पर जानेवाले हैं। आप ब्रह्म हैं। वर देनेवाले ब्रह्मादि देवताओंके और वाणीके स्वामी हैं। आप सर्वव्यापक, निर्मल, बड़े बलवान् और मोक्ष-पदके अधीश्वर हैं॥ १॥ मूल प्रकृति, महत्तत्त्व, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सत्त्व, रज, तमोगुण; समस्त देवता; आकाश, वायु, अग्नि, निर्मल जल, पृथ्वी, बुद्धि, मन, दसों इन्द्रियाँ; प्राण, अपान, समान, व्यान, उदाननामक पंच प्राण; चित्त, आत्मा, काल, परमाणु और महान् चैतन्य-शक्ति आदि सभी कुछ आपका ही रूप है। हे राजशिरोमणि! प्रकट और अप्रकट सब कुछ आप ही हैं; आप अभेदरूपसे अखिल विश्वमें रम रहे हैं। यह समस्त जगत् आपके अंशमें स्थित है। शिवजी आपके दोनों चरणकमलोंकी वन्दना करते हैं, श्रीगंगाजी इन्हीं चरणोंसे निकली हैं। आप सर्वविजयी हैं॥ २-३॥ हे भगवन्! आप ही आदि, मध्य और अन्त हैं। आप सबमें व्याप्त हैं। हे ईश! ब्रह्मवादी ज्ञानीजन आपको सबमें ऐसे ओत-प्रोत देखते हैं, जैसे वस्त्रमें सूत, घड़ेमें मिट्टी, सर्पमें माला, लकड़ीके बने हुए हाथीमें लकड़ी और कड़े, बाजू आदि गहनोंमें सोना ओत-प्रोत है॥ ४॥ इस प्रकार आप अत्यन्त गूढ़, गम्भीर, दर्पहारी, गुप्त रहस्यके ज्ञाता, गुप्त, मन-इन्द्रियोंसे अतीत, सबके गुरु, ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेयस्वरूप, ज्ञानप्रिय, महान् गौरवके भण्डार और इस घोर भवसागरसे पार उतार देनेवाले हैं॥ ५॥ आपका संकल्प सत्य है, आप प्रलय और महाप्रलय करनेवाले हैं। मन-बुद्धिसे आपकी कोई कल्पना नहीं कर सकता। आप शेषनागकी शय्यापर निवास करनेवाले हैं। आपके कमलके समान नेत्र हैं, आपकी नाभिसे कमल उत्पन्न हुआ है, आपके शरीरकी कान्ति मेघके समान श्याम है और करोड़ों कामदेवोंके समान आप सुन्दरताकी राशि हैं॥ ६॥ आप भक्तोंके लिये सुलभ, दुष्टोंके लिये दुर्लभ हैं, आपकी आराधनामें (परीक्षाके लिये) बड़े-बड़े कष्ट आते हैं, आप भक्तोंके सारे दुर्गुणोंका नाश कर देते हैं, बड़े दुर्गम (बड़ी कठिनाईसे मिलते हैं) दुर्द्धर्ष हैं और कठिन दुःखोंके हरनेवाले हैं। आप ब्रह्माजीके पुत्र सनकादिको अपनी परा-अपरा विद्याका जो गर्व था, उसे हरण करनेवाले हैं॥ ७॥ आप भक्तोंपर प्रसन्न रहनेवाले, जन्म-मरणरूप संसारके क्लेशको जड़से उखाड़नेवाले हैं। आपका रामनाम पापरूपी रूईको जलानेके लिये अग्निरूप है। चंचल तृष्णारूपी रात्रिका नाश करनेके लिये आप सूर्य हैं, पृथ्वीको धारण करनेवाले, शरणागतका भय हरनेवाले और करुणाके स्थान हैं॥ ८॥ आपके चरणयुगलोंकी बहुत-से देवताओंके समूह वन्दना करते हैं। आप मन्दारकी माला हृदयपर धारण किये रहते हैं। हे रावणके शत्रु श्रीरामजी! सदा सन्तापसे व्याकुल मैं तुलसीदास आपकी शरण हूँ। हे नाथ! मेरी रक्षा कीजिये॥ ९॥
विषय (हिन्दी)
(५५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
संत-संतापहर, विश्व-विश्रामकर, राम कामारि, अभिरामकारी।
शुद्ध बोधायतन, सच्चिदानंदघन, सज्जनानंद-वर्धन, खरारी॥ १॥
शील-समता-भवन, विषमता-मति-शमन, राम, रामारमन, रावनारी।
खड्ग, कर चर्मवर, वर्मधर, रुचिर कटि तूण, शर-शक्ति-सारंगधारी॥ २॥
सत्यसंधान, निर्वानप्रद, सर्वहित, सर्वगुण-ज्ञान-विज्ञानशाली।
सघन-तम-घोर-संसार-भर-शर्वरी नाम दिवसेश खर-किरणमाली॥ ३॥
तपन तीच्छन तरुन तीव्र तापघ्न, तपरूप, तनभूप, तमपर, तपस्वी।
मान-मद-मदन-मत्सर-मनोरथ-मथन, मोह-अंभोधि-मंदर, मनस्वी॥ ४॥
वेद-विख्यात, वरदेश, वामन, विरज, विमल, वागीश, वैकुंठस्वामी।
काम-क्रोधादिमर्दन, विवर्धन, छमा-शांति-विग्रह, विहगराज-गामी॥ ५॥
परम पावन, पाप-पुंज-मुंजाटवी-अनल इव निमिष निर्मूलकर्त्ता।
भुवन-भूषण, दूषणारि-भुवनेश, भूनाथ, श्रुतिमाथ जय भुवनभर्त्ता॥ ६॥
अमल, अविचल, अकल, सकल, संतप्त-कलि-विकलता-भंजनानंदरासी।
उरगनायक-शयन, तरुणपंकज-नयन, छीरसागर-अयन, सर्ववासी॥ ७॥
सिद्ध-कवि-कोविदानंद-दायक पदद्वंद्व मंदात्ममनुजैर्दुरापं।
यत्र संभूत अतिपूत जल सुरसरी दर्शनादेव अपहरति पापं॥ ८॥
नित्य निर्मुक्त, संयुक्तगुण, निर्गुणानंद, भगवंत, न्यामक, नियंता।
विश्व-पोषण-भरण, विश्व-कारण-करण, शरण तुलसीदास त्रास-हंता॥ ९॥
मूल
संत-संतापहर, विश्व-विश्रामकर, राम कामारि, अभिरामकारी।
शुद्ध बोधायतन, सच्चिदानंदघन, सज्जनानंद-वर्धन, खरारी॥ १॥
शील-समता-भवन, विषमता-मति-शमन, राम, रामारमन, रावनारी।
खड्ग, कर चर्मवर, वर्मधर, रुचिर कटि तूण, शर-शक्ति-सारंगधारी॥ २॥
सत्यसंधान, निर्वानप्रद, सर्वहित, सर्वगुण-ज्ञान-विज्ञानशाली।
सघन-तम-घोर-संसार-भर-शर्वरी नाम दिवसेश खर-किरणमाली॥ ३॥
तपन तीच्छन तरुन तीव्र तापघ्न, तपरूप, तनभूप, तमपर, तपस्वी।
मान-मद-मदन-मत्सर-मनोरथ-मथन, मोह-अंभोधि-मंदर, मनस्वी॥ ४॥
वेद-विख्यात, वरदेश, वामन, विरज, विमल, वागीश, वैकुंठस्वामी।
काम-क्रोधादिमर्दन, विवर्धन, छमा-शांति-विग्रह, विहगराज-गामी॥ ५॥
परम पावन, पाप-पुंज-मुंजाटवी-अनल इव निमिष निर्मूलकर्त्ता।
भुवन-भूषण, दूषणारि-भुवनेश, भूनाथ, श्रुतिमाथ जय भुवनभर्त्ता॥ ६॥
अमल, अविचल, अकल, सकल, संतप्त-कलि-विकलता-भंजनानंदरासी।
उरगनायक-शयन, तरुणपंकज-नयन, छीरसागर-अयन, सर्ववासी॥ ७॥
सिद्ध-कवि-कोविदानंद-दायक पदद्वंद्व मंदात्ममनुजैर्दुरापं।
यत्र संभूत अतिपूत जल सुरसरी दर्शनादेव अपहरति पापं॥ ८॥
नित्य निर्मुक्त, संयुक्तगुण, निर्गुणानंद, भगवंत, न्यामक, नियंता।
विश्व-पोषण-भरण, विश्व-कारण-करण, शरण तुलसीदास त्रास-हंता॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे श्रीरामजी! आप संतोंके सन्ताप हरनेवाले, महाप्रलयके समय सारे विश्वको अपनेमें विश्राम देनेवाले तथा शिवजीको आनन्द देनेवाले हैं। आप शुद्ध-बोध-धाम, सच्चिदानन्दघन, सज्जनोंके आनन्दको बढ़ानेवाले और खर दैत्यके शत्रु हैं॥ १॥ हे श्रीरामजी! आप शील और समताके स्थान, भेद-बुद्धिरूप विषमताके नाशक, लक्ष्मीरमण और रावणके शत्रु हैं। बाण, धनुष और शक्ति धारण किये हैं, आप हाथमें तलवार और सुन्दर ढाल लिये हुए हैं, शरीरपर कवच धारण किये हैं और सुन्दर कमरमें तरकस कसे हैं॥ २॥ आप सत्यसंकल्प, कल्याणके दाता, सबके हितकारी, सर्व दिव्यगुण और ज्ञान, विज्ञानसे पूर्ण हैं। आपका राम-नाम (अज्ञानरूपी) अत्यन्त घन अन्धकारसे पूर्ण घोर संसाररूपी रात्रिका नाश करनेके लिये प्रचण्ड किरणयुक्त सूर्यके समान है॥ ३॥ आपका तेज बड़ा ही तीक्ष्ण है, संसारके नये-नये तीव्र तापोंका आप नाश करनेवाले हैं, राजाका शरीर होनेपर भी आपका स्वरूप तपोमय है। आप अज्ञानसे परे और तपस्वी हैं। मान, मद, काम, मत्सर, कामना और मोहरूपी समुद्रके मथनेके लिये आप मन्दराचल हैं; आप बड़े विचारशील हैं॥ ४॥ वेदोंमें प्रसिद्ध, वर देनेवाले देवताओंके स्वामी, वामन, विरक्त, विमल, वाणीके अधीश्वर और वैकुण्ठके स्वामी हैं। आप काम, क्रोध, लोभ आदिके नाश करनेवाले, क्षमा बढ़ानेवाले, शान्तिरूप और पक्षिराज गरुड़पर चढ़कर जानेवाले हैं॥ ५॥ आप परम पवित्र और पापपुंजरूपी मूजके वनको पलभरमें जड़सहित जला देनेवाले अग्निरूप हैं। आप ब्रह्माण्डके भूषण, दूषण दैत्यके शत्रु, जगत् के स्वामी, पृथ्वीके पति, वेदके मस्तक और सारे विश्वका भरण-पोषण करनेवाले हैं। आपकी जय हो॥ ६॥ आप निर्मल, एकरस, कलारहित, कलासहित और कलियुगके तापसे तपे हुए जीवोंकी व्याकुलताका नाश करनेवाले, आनन्दकी राशि हैं। आप शेषनागपर शयन करते हैं, आपके नेत्र अत्यन्त प्रफुल्लित कमलके समान हैं। आप व्यक्तरूपसे क्षीर-सागरमें निवास करते हैं और अव्यक्तरूपसे सबमें रहते हैं॥ ७॥ सिद्धों, कवियों और विद्वानोंको सुख देनेवाले आपके वे चरण-युगल दुष्टात्मा मनुष्योंको बड़े दुर्लभ हैं, जिन पवित्र चरणोंसे परम पवित्र जलवाली गंगाजी निकली हैं, जिनके दर्शनमात्रसे ही पाप दूर हो जाते हैं॥ ८॥ आप नित्य हैं; मायासे सर्वथा मुक्त हैं, दिव्य गुण-सम्पन्न हैं, तीनों गुणोंसे रहित हैं, आनन्दस्वरूप हैं, छः प्रकारके ऐश्वर्यसे युक्त भगवान् हैं, नियमोंके कर्ता और सबपर शासन करनेवाले हैं। आप समस्त विश्वके पालन-पोषण करनेवाले, जगत् के आदि-कारण और शरणागत तुलसीदासका भय हरनेवाले हैं॥ ९॥
विषय (हिन्दी)
(५६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
दनुजसूदन दयासिंधु, दंभापहन दहन दुर्दोष, दर्पापहर्त्ता।
दुष्टतादमन, दमभवन, दुःखौघहर दुर्ग दुर्वासना नाश कर्त्ता॥ १॥
भूरिभूषण, भानुमंत, भगवंत, भवभंजनाभयद, भुवनेश भारी।
भावनातीत, भववंद्य, भवभक्तहित, भूमिउद्धरण, भूधरण-धारी॥ २॥
वरद, वनदाभ, वागीश, विश्वातमा, विरज, वैकुण्ठ-मन्दिर-विहारी।
व्यापक व्योम, वंदारु, वामन, विभो, ब्रह्मविद, ब्रह्म, चिंतापहारी॥ ३॥
सहज सुन्दर, सुमुख, सुमन, शुभ सर्वदा, शुद्ध सर्वज्ञ, स्वछन्दचारी।
सर्वकृत, सर्वभृत, सर्वजित, सर्वहित, सत्य-संकल्प, कल्पांतकारी॥ ४॥
नित्य, निर्मोह, निर्गुण, निरंजन, निजानंद, निर्वाण, निर्वाणदाता।
निर्भरानंद, निःकंप, निःसीम, निर्मुक्त, निरुपाधि, निर्मम, विधाता॥ ५॥
महामंगलमूल, मोद-महिमायतन, मुग्ध-मधु-मथन, मानद, अमानी।
मदनमर्दन, मदातीत, मायारहित, मंजु मानाथ, पाथोजपानी॥ ६॥
कमल-लोचन, कलाकोश, कोदंडधर, कोशलाधीश, कल्याणराशी।
यातुधान प्रचुर मत्तकरि-केसरी, भक्तमन-पुण्य-आरण्यवासी॥ ७॥
अनघ, अद्वैत, अनवद्य, अव्यक्त, अज, अमित, अविकार, आनंदसिंधो।
अचल, अनिकेत, अविरल, अनामय, अनारंभ, अंभोदनादहन-बंधो॥ ८॥
दासतुलसी खेदखिन्न, आपन्न इह, शोकसंपन्न अतिशय सभीतं।
प्रणतपालक राम, परम करुणाधाम, पाहि मामुर्विपति, दुर्विनीतं॥ ९॥
मूल
दनुजसूदन दयासिंधु, दंभापहन दहन दुर्दोष, दर्पापहर्त्ता।
दुष्टतादमन, दमभवन, दुःखौघहर दुर्ग दुर्वासना नाश कर्त्ता॥ १॥
भूरिभूषण, भानुमंत, भगवंत, भवभंजनाभयद, भुवनेश भारी।
भावनातीत, भववंद्य, भवभक्तहित, भूमिउद्धरण, भूधरण-धारी॥ २॥
वरद, वनदाभ, वागीश, विश्वातमा, विरज, वैकुण्ठ-मन्दिर-विहारी।
व्यापक व्योम, वंदारु, वामन, विभो, ब्रह्मविद, ब्रह्म, चिंतापहारी॥ ३॥
सहज सुन्दर, सुमुख, सुमन, शुभ सर्वदा, शुद्ध सर्वज्ञ, स्वछन्दचारी।
सर्वकृत, सर्वभृत, सर्वजित, सर्वहित, सत्य-संकल्प, कल्पांतकारी॥ ४॥
नित्य, निर्मोह, निर्गुण, निरंजन, निजानंद, निर्वाण, निर्वाणदाता।
निर्भरानंद, निःकंप, निःसीम, निर्मुक्त, निरुपाधि, निर्मम, विधाता॥ ५॥
महामंगलमूल, मोद-महिमायतन, मुग्ध-मधु-मथन, मानद, अमानी।
मदनमर्दन, मदातीत, मायारहित, मंजु मानाथ, पाथोजपानी॥ ६॥
कमल-लोचन, कलाकोश, कोदंडधर, कोशलाधीश, कल्याणराशी।
यातुधान प्रचुर मत्तकरि-केसरी, भक्तमन-पुण्य-आरण्यवासी॥ ७॥
अनघ, अद्वैत, अनवद्य, अव्यक्त, अज, अमित, अविकार, आनंदसिंधो।
अचल, अनिकेत, अविरल, अनामय, अनारंभ, अंभोदनादहन-बंधो॥ ८॥
दासतुलसी खेदखिन्न, आपन्न इह, शोकसंपन्न अतिशय सभीतं।
प्रणतपालक राम, परम करुणाधाम, पाहि मामुर्विपति, दुर्विनीतं॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे श्रीरामजी! आप दानवोंके नाशकर्ता, दयाके समुद्र, दम्भ दूर करनेवाले, दुष्कृतोंको भस्म करनेवाले और दर्पको हरनेवाले हैं; आप दुष्टताका नाश करनेवाले, दमके स्थान अर्थात् जितेन्द्रियोंमें श्रेष्ठ, दुःखोंके समूहको हरनेवाले और कठिन तथा बुरी वासनाओंके विनाशक हैं॥ १॥ आप अनेक अलंकार धारण किये, सूर्यके समान प्रकाशमान, ऐश्वर्यादि छः दिव्य गुणोंसे युक्त, संसारसे छुड़ानेवाले, अभय दान देनेवाले और सबसे बड़े जगदीश्वर हैं। आप मन-बुद्धिकी भावनाओंसे परे, शिवजीसे वन्दनीय, शिवभक्तोंके हितकारी, भूमिका उद्धार करनेवाले और (गोवर्द्धन) पर्वतको धारण करनेवाले हैं॥ २॥ हे वरद! आपका शरीर मेघके समान श्याम है! आप वाणीके अधीश्वर, विश्वके आत्मा, रागरहित और वैकुण्ठ-मन्दिरमें नित्य विहार करनेवाले हैं। आप आकाशके समान सर्वत्र व्याप्त हैं, सबसे वन्दनीय, वामनरूपधारी सर्वसमर्थ, ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्मरूप और चिन्ताओंको दूर करनेवाले हैं॥ ३॥ आप स्वभावसे ही सुन्दर, सुन्दर मुखवाले और शुद्ध मनवाले हैं। आप सदा शुभस्वरूप, निर्मल, सर्वज्ञ और स्वतन्त्र आचरण करनेवाले हैं। आप सब कुछ करनेवाले, सबका भरण-पोषण करनेवाले, सबको जीतनेवाले, सबके हितकारी, सत्यसंकल्प और कल्पका अन्त अर्थात् प्रलय करनेवाले हैं॥ ४॥ आप नित्य हैं, मोहरहित हैं, निर्गुण हैं, निरंजन हैं, निजानन्दरूप हैं तथा मुक्तिस्वरूप और मुक्ति प्रदान करनेवाले हैं। आप पूर्ण आनन्दस्वरूप, अचल, सीमारहित, मोक्षरूप, उपाधिरहित, ममतारहित और सबके विधाता हैं॥ ५॥ आप बड़े-बड़े मंगलोंके मूल, आनन्द और महिमाके स्थान, मूर्ख मधु दैत्यको मारनेवाले, दूसरोंको मान देनेवाले और स्वयं मानरहित हैं। आप कामदेवके नाशक, मदसे रहित, मायासे रहित, सुन्दरी लक्ष्मी देवीके स्वामी और हाथमें कमल लेनेवाले हैं॥ ६॥ आपके नेत्र कमलके समान हैं, आप चौंसठ कलाओंके भण्डार, धनुष धारण करनेवाले, कोशलदेशके स्वामी और कल्याणकी राशि हैं। राक्षसरूपी बहुत-से मतवाले हाथियोंको मारनेके लिये सिंह हैं, भक्तोंके मनरूपी पवित्र वनमें निवास करनेवाले हैं॥ ७॥ आप पापरहित, अद्वितीय, दोषरहित, अप्रकट, अजन्मा, सीमारहित, निर्विकार और आनन्दके समुद्र हैं। आप अचल हैं, (पर) एक ही स्थानमें आपका निवास नहीं है—आप सर्वत्र हैं, परिपूर्ण हैं, नीरोग अर्थात् मायाके विकारोंसे रहित हैं और अनादि हैं। आप ही मेघनादके मारनेवाले लक्ष्मणजीके बड़े भाई हैं॥ ८॥ यह तुलसीदास संसारके दुःखोंसे दुःखी, विपद्ग्रस्त, शोकयुक्त और अत्यन्त भयभीत हो रहा है; हे शरणागतपालक! हे परम करुणाके धाम! हे पृथ्वीपति रामजी! इस दुर्विनीतकी रक्षा कीजिये॥ ९॥