विषय (हिन्दी)
(४९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव—
दनुज-बन-दहन, गुन-गहन, गोविंद नंदादि-आनंद-दाताऽविनाशी।
शंभु, शिव, रुद्र, शंकर, भयंकर, भीम, घोर, तेजायतन, क्रोध-राशी॥ १॥
अनँत, भगवंत-जगदंत-अंतक-त्रास-शमन, श्रीरमन, भुवनाभिरामं।
भूधराधीश जगदीश ईशान, विज्ञानघन, ज्ञान-कल्यान-धामं॥ २॥
वामनाव्यक्त, पावन, परावर, विभो, प्रकट परमात्मा, प्रकृति-स्वामी।
चंद्रशेखर, शूलपाणि, हर, अनघ, अज, अमित, अविछिन्न, वृषभेश-गामी॥ ३॥
नीलजलदाभ तनु श्याम, बहु काम छवि राम राजीवलोचन कृपाला।
कंबु-कर्पूर-वपु धवल, निर्मल मौलि जटा, सुर-तटिनि, सित सुमन माला॥ ४॥
वसन किंजल्कधर, चक्र-सारंग-दर-कंज-कौमोदकी अति विशाला।
मार-करि-मत्त-मृगराज, त्रैनैन, हर, नौमि अपहरण संसार-जाला॥ ५॥
कृष्ण, करुणाभवन, दवन कालीय खल, विपुल कंसादि निर्वंशकारी।
त्रिपुर-मद-भंगकर, मत्तगज-चर्मधर, अन्धकोरग-ग्रसन पन्नगारी॥ ६॥
ब्रह्म, व्यापक, अकल, सकल, पर, परमहित, ग्यान, गोतीत, गुण-वृत्ति-हर्त्ता।
सिंधुसुत-गर्व-गिरि-वज्र, गौरीश, भव, दक्ष-मख अखिल विध्वंसकर्त्ता॥ ७॥
भक्तिप्रिय, भक्तजन-कामधुक धेनु, हरि हरण दुर्घट विकट विपति भारी।
सुखद, नर्मद, वरद, विरज, अनवद्यऽखिल, विपिन-आनंद-वीथिन-विहारी॥ ८॥
रुचिर हरिशंकरी नाम-मंत्रावली द्वंद्वदुख हरनि, आनंदखानी।
विष्णु-शिव-लोक-सोपान-सम सर्वदा वदति तुलसीदास विशद बानी॥ ९॥
मूल
देव—
दनुज-बन-दहन, गुन-गहन, गोविंद नंदादि-आनंद-दाताऽविनाशी।
शंभु, शिव, रुद्र, शंकर, भयंकर, भीम, घोर, तेजायतन, क्रोध-राशी॥ १॥
अनँत, भगवंत-जगदंत-अंतक-त्रास-शमन, श्रीरमन, भुवनाभिरामं।
भूधराधीश जगदीश ईशान, विज्ञानघन, ज्ञान-कल्यान-धामं॥ २॥
वामनाव्यक्त, पावन, परावर, विभो, प्रकट परमात्मा, प्रकृति-स्वामी।
चंद्रशेखर, शूलपाणि, हर, अनघ, अज, अमित, अविछिन्न, वृषभेश-गामी॥ ३॥
नीलजलदाभ तनु श्याम, बहु काम छवि राम राजीवलोचन कृपाला।
कंबु-कर्पूर-वपु धवल, निर्मल मौलि जटा, सुर-तटिनि, सित सुमन माला॥ ४॥
वसन किंजल्कधर, चक्र-सारंग-दर-कंज-कौमोदकी अति विशाला।
मार-करि-मत्त-मृगराज, त्रैनैन, हर, नौमि अपहरण संसार-जाला॥ ५॥
कृष्ण, करुणाभवन, दवन कालीय खल, विपुल कंसादि निर्वंशकारी।
त्रिपुर-मद-भंगकर, मत्तगज-चर्मधर, अन्धकोरग-ग्रसन पन्नगारी॥ ६॥
ब्रह्म, व्यापक, अकल, सकल, पर, परमहित, ग्यान, गोतीत, गुण-वृत्ति-हर्त्ता।
सिंधुसुत-गर्व-गिरि-वज्र, गौरीश, भव, दक्ष-मख अखिल विध्वंसकर्त्ता॥ ७॥
भक्तिप्रिय, भक्तजन-कामधुक धेनु, हरि हरण दुर्घट विकट विपति भारी।
सुखद, नर्मद, वरद, विरज, अनवद्यऽखिल, विपिन-आनंद-वीथिन-विहारी॥ ८॥
रुचिर हरिशंकरी नाम-मंत्रावली द्वंद्वदुख हरनि, आनंदखानी।
विष्णु-शिव-लोक-सोपान-सम सर्वदा वदति तुलसीदास विशद बानी॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
(इस भजनके प्रत्येक पदमें आधेमें भगवान् श्रीविष्णुकी और आधेमें भगवान् शिवकी स्तुति की गयी है, इसीसे इसका नाम हरि-शंकरी है। गोसाईंजी महाराजने विष्णु और शिवकी एक साथ स्तुति करके हरिहरमें अभेद सिद्ध किया है।)
भगवान् विष्णु—दानवरूपी वनके जलानेवाले, गुणोंके वन अर्थात् सात्त्विक सद्गुणोंसे सम्पन्न, इन्द्रियोंके नियन्ता, नन्द-उपनन्द आदिको आनन्द देनेवाले और अविनाशी हैं।
भगवान् शिव—शम्भु, शिव, रुद्र्र, शंकर आदि कल्याणकारी नामोंसे प्रसिद्ध हैं; बड़े भारी भयंकर, महान् तेजस्वी और क्रोधकी राशि हैं॥ १॥
भगवान् विष्णु—अनन्त हैं, छः प्रकारके ऐश्वर्योंसे युक्त हैं, जगत् का अन्त करनेवाले, यमकी त्रासको मिटानेवाले, लक्ष्मीजीके स्वामी और समस्त ब्रह्माण्डको आनन्द देनेवाले हैं।
भगवान् शिव—कैलासके राजा, जगत् के स्वामी, ईशान, विज्ञानघन और ज्ञान तथा मोक्षके धाम हैं॥ २॥
भगवान् विष्णु—वामनरूप धरनेवाले, मन-इन्द्रियोंसे अव्यक्त, पवित्र (विकाररहित), जड़-चेतन और लोक-परलोकके स्वामी, साक्षात् परमात्मा और प्रकृतिके स्वामी हैं।
भगवान् शिव—मस्तकपर चन्द्रमा और हाथमें त्रिशूल धारण करनेवाले, सृष्टिके संहारकर्ता, पापशून्य, अजन्मा, अमेय, अखण्ड और नन्दीपर सवार होकर चलनेवाले हैं॥ ३॥
भगवान् विष्णु—नीले मेघके समान श्याम शरीरवाले, अनेक कामदेवोंकी-सी शोभावाले, कमलके सदृश सुन्दर नेत्रवाले और समस्त विश्वमें रमनेवाले कृपालु हैं।
भगवान् शिव—शंख और कपूरके समान चिकने, श्वेत और सुगन्धित शरीरवाले, मलरहित, मस्तकपर जटाजूट और गंगाजीको धारण करनेवाले तथा सफेद पुष्पोंकी माला पहने हुए हैं॥ ४॥
भगवान् विष्णु—कमलके केसरके समान पीताम्बर धारण किये तथा हाथोंमें शंख, चक्र, पद्म, शार्ङ्ग धनुष और अत्यन्त विशाल कौमोदकी गदा लिये हुए हैं।
भगवान् शिव—कामदेवरूपी मतवाले हाथीको मारनेके लिये सिंहरूप, तीन नेत्रवाले और आवागमनरूपी जगत् के जालका नाश करनेवाले हैं; ऐसे शिवजीको मैं प्रणाम करता हूँ॥ ५॥
भगवान् विष्णु—सबका आकर्षण करनेवाले, करुणाके धाम, कालिय नागके दमन करनेवाले और कंस आदि अनेक दुष्टोंको निर्वंश करनेवाले हैं।
भगवान् शिव—त्रिपुरासुरका मद चूर्ण करनेवाले, मतवाले हाथीका चर्म धारण करनेवाले और अन्धकासुररूपी सर्पको ग्रसनेके लिये गरुड़ हैं॥ ६॥
भगवान् विष्णु—पूर्णब्रह्म, चराचरमें व्यापक, कलारहित, सबसे श्रेष्ठ, परम हितैषी, ज्ञानस्वरूप, अन्तःकरणरूपी भीतरी और श्रवणादि बाहरी इन्द्रियोंसे अतीत और तीनों गुणोंकी वृत्तियोंका हरण करनेवाले हैं।
भगवान् शिव—जलन्धरके गर्वरूपी पर्वतको तोड़नेके लिये वज्ररूप, पार्वतीके पति, संसारके उत्पत्तिस्थान हैं और दक्षके सम्पूर्ण यज्ञके विध्वंस करनेवाले हैं॥ ७॥
भगवान् विष्णु—जिनको भक्ति ही प्यारी है, जो भक्तोंके मनोरथ पूर्ण करनेके लिये कामधेनुके समान हैं और उनकी बड़ी-बड़ी कठिन तथा भयानक विपत्तियोंके हरनेवाले, अतएव हरि कहलानेवाले हैं।
भगवान् शिव—सुख, आनन्द और मनचाहा वर देनेवाले, विरक्त, सब प्रकारके विकारों एवं दोषोंसे रहित और आनन्दवन काशीकी गलियोंमें विहार करनेवाले हैं॥ ८॥
यह हरि और शंकरके नाम-मन्त्रोंकी सुन्दर पंक्तियाँ राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे जनित दुःखको हरनेवाली, आनन्दकी खानि और विष्णु तथा शिवलोकमें जानेके लिये सदा सीढ़ीके समान हैं, यह बात तुलसीदास शुद्ध वाणीसे कहता है॥ ९॥