१३ श्रीराम-स्तुति

विषय (हिन्दी)

(४३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयति सच्चिदव्यापकानंद परब्रह्म-पद विग्रह-व्यक्त लीलावतारी।
विकल ब्रह्मादि, सुर, सिद्ध, संकोचवश, विमल गुण-गेह नर-देह-धारी॥ १॥
जयति कोशलाधीश कल्याण कोशलसुता, कुशल कैवल्य-फल चारु चारी।
वेद-बोधित करम-धरम-धरनीधेनु, विप्र-सेवक साधु-मोदकारी॥ २॥
जयति ऋषि-मखपाल, शमन-सज्जन-साल, शापवश मुनिवधू-पापहारी।
भंजि भवचाप, दलि दाप भूपावली, सहित भृगुनाथ नतमाथ भारी॥ ३॥
जयति धार्मिक-धुर, धीर रघुवीर गुर-मातु-पितु-बंधु-वचनानुसारी।
चित्रकूटाद्रि विन्ध्याद्रि दंडकविपिन, धन्यकृत पुन्यकानन-विहारी॥ ४॥
जयति पाकारिसुत-काक-करतूति-फलदानि खनि गर्त्त गोपित विराधा।
दिव्य देवी वेश देखि लखि निशिचरी जनु विडंबित करी विश्वबाधा॥ ५॥
जयति खर-त्रिशिर-दूषण चतुर्दश-सहस-सुभट-मारीच-संहारकर्ता।
गृध्र-शबरी-भक्ति-विवश करुणासिंधु, चरित निरुपाधि, त्रिविधार्तिहर्त्ता॥ ६॥
जयति मद-अंध कुकबंध बधि, बालि बलशालि बधि, करन सुग्रीव राजा।
सुभट मर्कट-भालु-कटक-संघट-सजत, नमत पद रावणानुज निवाजा॥ ७॥
जयति पाथोधि-कृत-सेतु कौतुक हेतु, काल-मन-अगम लई ललकि लंका।
सकुल, सानुज, सदल दलित दशकंठ रण, लोक-लोकप किये रहित-शंका॥ ८॥
जयति सौमित्रि-सीता-सचिव-सहित चले पुष्पकारूढ़ निज राजधानी।
दासतुलसी मुदित अवधवासी सकल, राम भे भूप वैदेहि रानी॥ ९॥

मूल

जयति सच्चिदव्यापकानंद परब्रह्म-पद विग्रह-व्यक्त लीलावतारी।
विकल ब्रह्मादि, सुर, सिद्ध, संकोचवश, विमल गुण-गेह नर-देह-धारी॥ १॥
जयति कोशलाधीश कल्याण कोशलसुता, कुशल कैवल्य-फल चारु चारी।
वेद-बोधित करम-धरम-धरनीधेनु, विप्र-सेवक साधु-मोदकारी॥ २॥
जयति ऋषि-मखपाल, शमन-सज्जन-साल, शापवश मुनिवधू-पापहारी।
भंजि भवचाप, दलि दाप भूपावली, सहित भृगुनाथ नतमाथ भारी॥ ३॥
जयति धार्मिक-धुर, धीर रघुवीर गुर-मातु-पितु-बंधु-वचनानुसारी।
चित्रकूटाद्रि विन्ध्याद्रि दंडकविपिन, धन्यकृत पुन्यकानन-विहारी॥ ४॥
जयति पाकारिसुत-काक-करतूति-फलदानि खनि गर्त्त गोपित विराधा।
दिव्य देवी वेश देखि लखि निशिचरी जनु विडंबित करी विश्वबाधा॥ ५॥
जयति खर-त्रिशिर-दूषण चतुर्दश-सहस-सुभट-मारीच-संहारकर्ता।
गृध्र-शबरी-भक्ति-विवश करुणासिंधु, चरित निरुपाधि, त्रिविधार्तिहर्त्ता॥ ६॥
जयति मद-अंध कुकबंध बधि, बालि बलशालि बधि, करन सुग्रीव राजा।
सुभट मर्कट-भालु-कटक-संघट-सजत, नमत पद रावणानुज निवाजा॥ ७॥
जयति पाथोधि-कृत-सेतु कौतुक हेतु, काल-मन-अगम लई ललकि लंका।
सकुल, सानुज, सदल दलित दशकंठ रण, लोक-लोकप किये रहित-शंका॥ ८॥
जयति सौमित्रि-सीता-सचिव-सहित चले पुष्पकारूढ़ निज राजधानी।
दासतुलसी मुदित अवधवासी सकल, राम भे भूप वैदेहि रानी॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो। आप सत्, चेतन, व्यापक आनन्दरूप परब्रह्म हैं। आप लीला करनेके लिये ही अव्यक्तसे व्यक्तरूपमें प्रकट हुए हैं। जब ब्रह्मा आदि सब देवता और सिद्धगण दानवोंके अत्याचारसे व्याकुल हो गये, तब उनके संकोचसे आपने निर्मल गुणसम्पन्न नर-शरीर धारण किया॥ १॥ आपकी जय हो—आप कल्याणरूप कोशलनरेश दशरथजी और कल्याण-स्वरूपिणी महारानी कौशल्याके यहाँ चार भाइयोंके रूपमें (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य) मोक्षके सुन्दर चार फल उत्पन्न हुए। आपने वेदोक्त यज्ञादि कर्म, धर्म, पृथ्वी, गौ, ब्राह्मण, भक्त और साधुओंको आनन्द दिया॥ २॥ आपकी जय हो—आपने (राक्षसोंको मारकर) विश्वामित्रजीके यज्ञकी रक्षा की, सज्जनोंको सतानेवाले दुष्टोंका दलन किया, शापके कारण पाषाणरूप हुई गौतम-पत्नी अहल्याके पापोंको हर लिया, शिवजीके धनुषको तोड़कर राजाओंके दलका दर्प चूर्ण किया और बल-वीर्य-विजयके मदसे ऊँचा रहनेवाला परशुरामजीका मस्तक झुका दिया॥ ३॥ आपकी जय हो—आप धर्मके भारको धारण करनेमें बड़े धीर और रघुवंशमें असाधारण वीर हैं। आपने गुरु, माता, पिता और भाईके वचन मानकर चित्रकूट, विन्ध्याचल और दण्डक वनको, उन पवित्र वनोंमें विहार करके, कृतकृत्य कर दिया॥ ४॥ श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो—जिन्होंने इन्द्रके पुत्र काकरूप बने हुए कपटी जयन्तको उसकी करनीका उचित फल दिया, जिन्होंने गड्ढा खोदकर विराध दैत्यको उसमें गाड़ दिया, दिव्य देवकन्याका रूप धरकर आयी हुई राक्षसी शूर्पणखाको पहचानकर उसके नाक-कान कटवाकर मानो संसारभरके सुखमें बाधा पहुँचानेवाले रावणका तिरस्कार किया॥ ५॥ श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो—आप खर, त्रिशिरा, दूषण, उनकी चौदह हजार सेना और मारीचको मारनेवाले हैं, मांसभोजी गृध्र जटायु और नीच जातिकी स्त्री शबरीके प्रेमके वश हो उनका उद्धार करनेवाले, करुणाके समुद्र, निष्कलंक चरित्रवाले और त्रिविध तापोंका हरण करनेवाले हैं॥ ६॥ श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो—जिन्होंने दुष्ट, मदान्ध कबन्धका वध किया, महाबलवान् बालिको मारकर सुग्रीवको राजा बनाया, बड़े-बड़े वीर बंदर तथा रीछोंकी सेनाको एकत्र करके उनको व्यूहाकार सजाया और शरणागत विभीषणको मुक्ति और भक्ति देकर निहाल कर दिया॥ ७॥ श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो—जिन्होंने खेलके लिये ही समुद्रपर पुल बाँध लिया, कालके मनको भी अगम लंकाको उमंगसे ही लपक लिया और कुलसहित, भाईसहित और सारी सेनासहित रावणका रणमें नाश करके तीनों लोकों और इन्द्र, कुबेरादि लोकपालोंको निर्भय कर दिया॥ ८॥ श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो—जो लंका-विजयकर लक्ष्मणजी, जानकीजी और सुग्रीव, हनुमानादि मन्त्रियोंसहित पुष्पक विमानपर चढ़कर अपनी राजधानी अयोध्याको चले। तुलसीदास गाता है कि वहाँ पहुँचकर श्रीरामके महाराजा और श्रीसीताजीके महारानी होनेपर समस्त अवधवासी परम प्रसन्न हो गये॥ ९॥

विषय (हिन्दी)

(४४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयति राज-राजेंद्र राजीवलोचन, राम,
नाम कलि-कामतरु, साम-शाली।
अनय-अंभोधि-कुंभज, निशाचर-निकर-
तिमिर-घनघोर-खरकिरणमाली॥ १॥
जयति मुनि-देव-नरदेव दसरत्थके,
देव-मुनि-वंद्य किय अवध-वासी।
लोकनायक-कोक-शोक-संकट-शमन,
भानुकुल-कमल-कानन-विकासी॥ २॥
जयति शृंगार-सर तामरस-दामदुति-
देह, गुणगेह, विश्वोपकारी।
सकल सौभाग्य-सौंदर्य-सुषमारूप,
मनोभव कोटि गर्वापहारी॥ ३॥
(जयति) सुभग सारंग सुनिखंग सायक शक्ति,
चारु चर्मासि वर वर्मधारी।
धर्मधुरधीर, रघुवीर, भुजबल अतुल,
हेलया दलित भूभार भारी॥ ४॥
जयति कलधौत मणि-मुकुट, कुंडल, तिलक-
झलक भलि भाल, विधु-वदन-शोभा।
दिव्य भूषन, बसन पीत, उपवीत,
किय ध्यान कल्यान-भाजन न को भा॥ ५॥
(जयति) भरत-सौमित्रि-शत्रुघ्न-सेवित, सुमुख,
सचिव-सेवक-सुखद, सर्वदाता।
अधम, आरत, दीन, पतित, पातक-पीन
सकृत नतमात्र कहि ‘पाहि’ पाता॥ ६॥
जयति जय भुवन दसचारि जस जगमगत,
पुन्यमय, धन्य जय रामराजा।
चरित-सुरसरित कवि-मुख्य गिरि निःसरित,
पिबत, मज्जत मुदित सँत-समाजा॥ ७॥
जयति वर्णाश्रमाचारपर नारि-नर,
सत्य-शम-दम-दया-दानशीला ।
विगत दुख-दोष, संतोष सुख सर्वदा,
सुनत, गावत राम राजलीला॥ ८॥
जयति वैराग्य-विज्ञान-वारांनिधे
नमत नर्मद, पाप-ताप-हर्त्ता।
दास तुलसी चरण शरण संशय-हरण,
देहि अवलंब वैदेहि-भर्त्ता॥ ९॥

मूल

जयति राज-राजेंद्र राजीवलोचन, राम,
नाम कलि-कामतरु, साम-शाली।
अनय-अंभोधि-कुंभज, निशाचर-निकर-
तिमिर-घनघोर-खरकिरणमाली॥ १॥
जयति मुनि-देव-नरदेव दसरत्थके,
देव-मुनि-वंद्य किय अवध-वासी।
लोकनायक-कोक-शोक-संकट-शमन,
भानुकुल-कमल-कानन-विकासी॥ २॥
जयति शृंगार-सर तामरस-दामदुति-
देह, गुणगेह, विश्वोपकारी।
सकल सौभाग्य-सौंदर्य-सुषमारूप,
मनोभव कोटि गर्वापहारी॥ ३॥
(जयति) सुभग सारंग सुनिखंग सायक शक्ति,
चारु चर्मासि वर वर्मधारी।
धर्मधुरधीर, रघुवीर, भुजबल अतुल,
हेलया दलित भूभार भारी॥ ४॥
जयति कलधौत मणि-मुकुट, कुंडल, तिलक-
झलक भलि भाल, विधु-वदन-शोभा।
दिव्य भूषन, बसन पीत, उपवीत,
किय ध्यान कल्यान-भाजन न को भा॥ ५॥
(जयति) भरत-सौमित्रि-शत्रुघ्न-सेवित, सुमुख,
सचिव-सेवक-सुखद, सर्वदाता।
अधम, आरत, दीन, पतित, पातक-पीन
सकृत नतमात्र कहि ‘पाहि’ पाता॥ ६॥
जयति जय भुवन दसचारि जस जगमगत,
पुन्यमय, धन्य जय रामराजा।
चरित-सुरसरित कवि-मुख्य गिरि निःसरित,
पिबत, मज्जत मुदित सँत-समाजा॥ ७॥
जयति वर्णाश्रमाचारपर नारि-नर,
सत्य-शम-दम-दया-दानशीला ।
विगत दुख-दोष, संतोष सुख सर्वदा,
सुनत, गावत राम राजलीला॥ ८॥
जयति वैराग्य-विज्ञान-वारांनिधे
नमत नर्मद, पाप-ताप-हर्त्ता।
दास तुलसी चरण शरण संशय-हरण,
देहि अवलंब वैदेहि-भर्त्ता॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो—जो राज-राजेश्वरोंमें इन्द्रके समान हैं, जिनके नेत्र कमलके समान सुन्दर हैं, जिनका नाम कलियुगमें कल्पवृक्षके समान है, जो (शरणागत भक्तोंको) सान्त्वना देनेवाले (ढाढस बँधानेवाले) हैं, अनीतिरूपी समुद्रको सोखनेके लिये जो अगस्त्य ऋषिके समान और दानव-दलरूपी गाढ़ और भयानक अन्धकारका नाश करनेके लिये जो प्रचण्ड सूर्यके समान हैं॥ १॥ श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो—मुनि, देवता और मनुष्योंके स्वामी जिन दशरथ सूनु श्रीरामचन्द्रजीने अवधवासियोंको ऐसा श्रेष्ठ बना दिया कि मुनि और देवता भी उनकी वन्दना करने लगे। जो लोकपालरूपी चकवोंके शोक-सन्तापका नाश करनेवाले और सूर्यकुलरूपी कमलोंके वनको प्रफुल्लित करनेवाले साक्षात् सूर्य हैं॥ २॥ श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो—सौन्दर्यरूपी सरोवरमें उत्पन्न हुए नीले कमलोंकी मालाके समान जिनके शरीरकी आभा है, जो सम्पूर्ण दिव्य गुणोंके धाम हैं, सारे विश्वका हित करनेवाले हैं और समस्त सौभाग्य, सौन्दर्य तथा परम शोभायुक्त अपने रूपसे करोड़ों कामदेवोंके गर्वको खर्व करनेवाले हैं॥ ३॥ श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो—जो सुन्दर शार्ङ्ग धनुष, तरकस, बाण, शक्ति, ढाल, तलवार और श्रेष्ठ कवच धारण किये हैं, धर्मका भार उठानेमें जो धीर हैं, जो रघुवंशमें सर्वश्रेष्ठ वीर हैं, जिनकी प्रचण्ड भुजाओंका अतुलनीय बल है और जिन्होंने खेलसे ही राक्षसोंका नाश करके पृथ्वीका भारी भार हरण कर लिया॥ ४॥ श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो—जो मणि-जड़ित सुवर्णका मुकुट मस्तकपर धारण किये और कानोंमें मकराकृत कुण्डल पहने हैं; जिनके भालपर तिलककी सुन्दर झलक है और चन्द्रमाके समान जिनका मुखमण्डल शोभित हो रहा है; जो पीताम्बर, दिव्य आभूषण और यज्ञोपवीत धारण किये हुए हैं। ऐसा कौन है जो श्रीरामके इस नयनाभिराम रूपका ध्यान करके कल्याणका भागी न हुआ हो॥ ५॥ श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो—जो भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्नसे सेवित तथा सुग्रीव, सुमन्त आदि मन्त्रियों और भक्तोंको सुख एवं सम्पूर्ण इच्छित पदार्थ देनेवाले हैं; जो अधम, आर्त, दीन, पतित और महापापियोंको केवल एक बार प्रणाम करने और ‘मेरी रक्षा करो’ इतना कहनेपर ही जन्म-मरणरूप संसारसे बचा लेते हैं॥ ६॥ महाराज श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो—जिनका पवित्र यश चौदहों भुवनोंमें जगमगा रहा है, जो सर्वथा पुण्यमय और धन्य हैं, जिनकी कथारूपी गंगा आदिकवि महर्षि श्रीवाल्मीकिरूपी हिमालय-पर्वतसे निकली है, जिसमें स्नान कर और जिसके जलका पान कर अर्थात् जिसका श्रवण-मनन कर संत-समाज सदा प्रसन्न रहता है॥ ७॥ श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो—जिनके प्रसिद्ध रामराज्यमें सभी स्त्री-पुरुष अपने-अपने वर्णाश्रम-विहित आचारपर चलनेवाले; सत्य, शम, दम, दया और दानरूपी व्रतोंका पालन करनेवाले; दुःखों और दोषोंसे रहित, सदा सन्तोषी, सब प्रकारसे सुखी और रामकी राज्यलीलाको सदा गाया और सुना करते थे अर्थात् वे निश्चिन्त होकर सदा रामकी लीलाको ही गाते-सुनते थे॥ ८॥ श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो—जो वैराग्य और ज्ञान-विज्ञानके समुद्र हैं, जो प्रणाम करनेवालोंको सुख देते और उनके सारे पाप-तापोंको हर लेते हैं। हे जानकीनाथ! हे संशयका नाश करनेवाले! यह तुलसीदास आपकी शरण पड़ा है, कृपाकर इसे अपने प्रणतपाल चरणोंका सहारा दीजिये॥ ९॥

राग गौरी

विषय (हिन्दी)

(४५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं।
नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज, पद कंजारुणं॥ १॥
कंदर्प अगणित अमित छवि, नवनील नीरद सुंदरं।
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं॥ २॥
भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्य-वंश निकंदनं।
रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद दशरथ-नंदनं॥ ३॥
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं।
आजानुभुज शर-चाप-धर, संग्राम-जित-खरदूषणं॥ ४॥
इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं।
मम हृदय कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं॥ ५॥

मूल

श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं।
नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज, पद कंजारुणं॥ १॥
कंदर्प अगणित अमित छवि, नवनील नीरद सुंदरं।
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक सुतावरं॥ २॥
भजु दीनबंधु दिनेश दानव-दैत्य-वंश निकंदनं।
रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद दशरथ-नंदनं॥ ३॥
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं।
आजानुभुज शर-चाप-धर, संग्राम-जित-खरदूषणं॥ ४॥
इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं।
मम हृदय कंज निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे मन! कृपालु श्रीरामचन्द्रजीका भजन कर। वे संसारके जन्म-मरणरूप दारुण भयको दूर करनेवाले हैं, उनके नेत्र नव-विकसित कमलके समान हैं; मुख, हाथ और चरण भी लाल कमलके सदृश हैं॥ १॥ उनके सौन्दर्यकी छटा अगणित कामदेवोंसे बढ़कर है, उनके शरीरका नवीन नील-सजल मेघके जैसा सुन्दर वर्ण है, पीताम्बर मेघरूप शरीरमें मानो बिजलीके समान चमक रहा है, ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजीको मैं नमस्कार करता हूँ॥ २॥ हे मन! दीनोंके बन्धु, सूर्यके समान तेजस्वी, दानव और दैत्योंके वंशका समूल नाश करनेवाले, आनन्दकन्द, कोशल-देशरूपी आकाशमें निर्मल चन्द्रमाके समान, दशरथनन्दन श्रीरामका भजन कर॥ ३॥ जिनके मस्तकपर रत्नजटित मुकुट, कानोंमें कुण्डल, भालपर सुन्दर तिलक और प्रत्येक अंगमें सुन्दर आभूषण सुशोभित हो रहे हैं; जिनकी भुजाएँ घुटनोंतक लंबी हैं; जो धनुष-बाण लिये हुए हैं; जिन्होंने संग्राममें खर-दूषणको जीत लिया है॥ ४॥ जो शिव, शेष और मुनियोंके मनको प्रसन्न करनेवाले और काम-क्रोध-लोभादि शत्रुओंका नाश करनेवाले हैं। तुलसीदास प्रार्थना करता है कि वे श्रीरघुनाथजी मेरे हृदय-कमलमें सदा निवास करें॥ ५॥