१२ श्रीसीता-स्तुति*

पादटिप्पनी
  • कई पुरानी प्रतियोंमें श्रीसीता-स्तुति-प्रसंगमें नीचे लिखा दण्डक भी मिलता है। इसे ४०क संख्या देकर हम यहाँ टिप्पणीके रूपमें देते हैं, क्योंकि कोई-कोई इसे क्षेपक भी समझते हैं।
    जयति श्रीजानकी भानुकुल-भानुकी प्राणप्रियवल्लभे तरणि भूपे।
    राम आनंद-चैतन्यघन-विग्रहा शक्ति आह्लादिनी साररूपे॥
    जयति चित चरण चिन्तनि जेहि धरति हृत काम-भय-कोह-मद-मोह माया।
    रुद्र-विधि-विष्णु-सुर-सिद्ध-वंदितपदे जयति सर्वेश्वरी रामजाया॥
    कर्म जप योग विज्ञान वैराग्य लहि मोक्षहित योगि जे प्रभु मनावैं।
    जयति वैदेहि सब शक्तिशिरभूषणे ते न तव दृष्टि बिनु कबहुँ पावैं॥
    जयति जय कोटि ब्रह्माण्डकी ईशि, जेहि निगम-मुनि बुद्धितें अगम गावैं।
    विदित यह गाथ अहदानकुलमाथ सो नाथ तव दान ते हाथ आवैं॥
    दिव्य शत वर्ष जप-ध्यान जब शिव धरॺो राम गुरुरूप मिलि पथ बतायो।
    चितै हित लीन लखि कृपा कीन्हीं तबै देवि, दुर्लभ देव-दरस पायो॥
    जयति श्रीस्वामिनी सीय सुभनामिनी, दामिनी कोटि निज देह दरसैं।
    इंदिरा आदि दै मत्त गजगामिनी देवभामिनी सबै पाँव परसैं॥
    दुखित लखि भक्त बिनु दरस निज रूप तप यजन जप तंत्रतें सुलभ नाहीं।
    कृपा करि पूर्ण नवकंजदललोचना प्रकट भइ जनकनृप-अजिर माहीं॥
    रमित तव विपिन प्रिय प्रेम प्रगटन करन लंकपति व्याज कछु खेल ठान्यौ।
    गोपिका कृष्ण तव तुल्य बहु जतन करि तोहि मिलि ईश आनंद मान्यौ॥
    हीन तव सुमुखि कै संग रहि रंकसों विमुख जो देव नहिं नाथ नेरौ।
    अधम उद्धरण यह जानि गहि शरण तव दासतुलसी भयौ आय चेरौ॥ ४०क॥

राग केदारा

विषय (हिन्दी)

(४१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबहुँक अंब, अवसर पाइ।
मेरिऔ सुधि द्याइबी, कछु करुन-कथा चलाइ॥ १॥
दीन, सब अँगहीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ।
नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ॥ २॥
बूझिहैं ‘सो है कौन’, कहिबी नाम दसा जनाइ।
सुनत राम कृपालुके मेरी बिगरिऔ बनि जाइ॥ ३॥
जानकी जगजननि जनकी किये बचन सहाइ।
तरै तुलसीदास भव तव नाथ-गुन-गन गाइ॥ ४॥

मूल

कबहुँक अंब, अवसर पाइ।
मेरिऔ सुधि द्याइबी, कछु करुन-कथा चलाइ॥ १॥
दीन, सब अँगहीन, छीन, मलीन, अघी अघाइ।
नाम लै भरै उदर एक प्रभु-दासी-दास कहाइ॥ २॥
बूझिहैं ‘सो है कौन’, कहिबी नाम दसा जनाइ।
सुनत राम कृपालुके मेरी बिगरिऔ बनि जाइ॥ ३॥
जानकी जगजननि जनकी किये बचन सहाइ।
तरै तुलसीदास भव तव नाथ-गुन-गन गाइ॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे माता! कभी अवसर हो तो कुछ करुणाकी बात छोड़कर श्रीरामचन्द्रजीको मेरी भी याद दिला देना, (इसीसे मेरा काम बन जायगा)॥ १॥ यों कहना कि एक अत्यन्त दीन, सर्व साधनोंसे हीन, मनमलीन, दुर्बल और पूरा पापी मनुष्य आपकी दासी (तुलसी)-का दास कहलाकर और आपका नाम ले-लेकर पेट भरता है॥ २॥ इसपर प्रभु कृपा करके पूछें कि वह कौन है, तो मेरा नाम और मेरी दशा उन्हें बता देना। कृपालु रामचन्द्रजीके इतना सुन लेनेसे ही मेरी सारी बिगड़ी बात बन जायगी॥ ३॥ हे जगज्जननी जानकीजी! यदि इस दासकी आपने इस प्रकार वचनोंसे ही सहायता कर दी तो यह तुलसीदास आपके स्वामीकी गुणावली गाकर भवसागरसे तर जायगा॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(४२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबहुँ समय सुधि द्यायबी, मेरी मातु जानकी।
जन कहाइ नाम लेत हौं, किये पन चातक ज्यों, प्यास प्रेम-पानकी॥ १॥
सरल कहाई प्रकृति आपु जानिए करुना-निधानकी।
निजगुन, अरिकृत अनहितौ, दास-दोष सुरति चित रहत न दिये दानकी॥ २॥
बानि बिसारनसील है मानद अमानकी।
तुलसीदास न बिसारिये, मन करम बचन जाके, सपनेहुँ गति न आनकी॥ ३॥

मूल

कबहुँ समय सुधि द्यायबी, मेरी मातु जानकी।
जन कहाइ नाम लेत हौं, किये पन चातक ज्यों, प्यास प्रेम-पानकी॥ १॥
सरल कहाई प्रकृति आपु जानिए करुना-निधानकी।
निजगुन, अरिकृत अनहितौ, दास-दोष सुरति चित रहत न दिये दानकी॥ २॥
बानि बिसारनसील है मानद अमानकी।
तुलसीदास न बिसारिये, मन करम बचन जाके, सपनेहुँ गति न आनकी॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

भावार्थ—हे जानकी माता! कभी मौका पाकर श्रीरामचन्द्रजीको मेरी याद दिला देना। मैं उन्हींका दास कहाता हूँ, उन्हींका नाम लेता हूँ, उन्हींके लिये पपीहेकी तरह प्रण किये बैठा हूँ, मुझे उनके स्वाती-जलरूपी प्रेमरसकी बड़ी प्यास लग रही है॥ १॥ यह तो आप जानती ही हैं कि करुणा-निधान रामजीका स्वभाव बड़ा सरल है; उन्हें अपना गुण, शत्रुद्वारा किया हुआ अनिष्ट, दासका अपराध और दिये हुए दानकी बात कभी याद ही नहीं रहती॥ २॥ उनकी आदत भूल जानेकी है; जिसका कहीं मान नहीं होता, उसको वह मान दिया करते हैं; पर वह भी भूल जाते हैं! हे माता! तुम उनसे कहना कि तुलसीदासको न भूलिये, क्योंकि उसे मन, वचन और कर्मसे स्वप्नमें भी किसी दूसरेका आश्रय नहीं है॥ ३॥