राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(२५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयति अंजनी-गर्भ-अंभोधि-संभूत विधु विबुध-कुल-कैरवानंदकारी।
केसरी-चारु-लोचन-चकोरक-सुखद, लोकगन-शोक-संतापहारी॥ १॥
जयति जय बालकपि केलि-कौतुक उदित-चंडकर-मंडल-ग्रासकर्त्ता।
राहु-रवि-शक्र-पवि-गर्व-खर्वीकरण शरण-भयहरण जय भुवन-भर्त्ता॥ २॥
जयति रणधीर, रघुवीरहित, देवमणि, रुद्र-अवतार, संसार-पाता।
विप्र-सुर-सिद्ध-मुनि-आशिषाकारवपु, विमलगुण, बुद्धि-वारिधि-विधाता॥ ३॥
जयति सुग्रीव-ऋक्षादि-रक्षण-निपुण, बालि-बलशालि-बध-मुख्यहेतू।
जलधि-लंघन सिंह सिंहिका-मद-मथन, रजनिचर-नगर-उत्पात-केतू॥ ४॥
जयति भूनन्दिनी-शोच-मोचन विपिन-दलन घननादवश विगतशंका।
लूमलीला अनलज्वालमालाकुलित होलिकाकरण लंकेश-लंका॥ ५॥
जयति सौमित्रि-रघुनंदनानंदकर, ऋक्ष-कपि-कटक-संघट-विधायी।
बद्ध-वारिधि-सेतु अमर-मंगल-हेतु, भानुकुलकेतु-रण-विजयदायी॥ ६॥
जयति जय वज्रतनु दशन नख मुख विकट, चंड-भुजदंड तरु-शैल-पानी।
समर-तैलिक-यंत्र तिल-तमीचर-निकर, पेरि डारे सुभट घालि घानी॥ ७॥
जयति दशकंठ-घटकर्ण-वारिद-नाद-कदन-कारन, कालनेमि-हंता।
अघटघटना-सुघट सुघट-विघटन विकट, भूमि-पाताल-जल-गगन-गंता॥ ८॥
जयति विश्व-विख्यात बानैत-विरुदावली, विदुष बरनत वेद विमल बानी।
दास तुलसी त्रास शमन सीतारमण संग शोभित राम-राजधानी॥ ९॥
मूल
जयति अंजनी-गर्भ-अंभोधि-संभूत विधु विबुध-कुल-कैरवानंदकारी।
केसरी-चारु-लोचन-चकोरक-सुखद, लोकगन-शोक-संतापहारी॥ १॥
जयति जय बालकपि केलि-कौतुक उदित-चंडकर-मंडल-ग्रासकर्त्ता।
राहु-रवि-शक्र-पवि-गर्व-खर्वीकरण शरण-भयहरण जय भुवन-भर्त्ता॥ २॥
जयति रणधीर, रघुवीरहित, देवमणि, रुद्र-अवतार, संसार-पाता।
विप्र-सुर-सिद्ध-मुनि-आशिषाकारवपु, विमलगुण, बुद्धि-वारिधि-विधाता॥ ३॥
जयति सुग्रीव-ऋक्षादि-रक्षण-निपुण, बालि-बलशालि-बध-मुख्यहेतू।
जलधि-लंघन सिंह सिंहिका-मद-मथन, रजनिचर-नगर-उत्पात-केतू॥ ४॥
जयति भूनन्दिनी-शोच-मोचन विपिन-दलन घननादवश विगतशंका।
लूमलीला अनलज्वालमालाकुलित होलिकाकरण लंकेश-लंका॥ ५॥
जयति सौमित्रि-रघुनंदनानंदकर, ऋक्ष-कपि-कटक-संघट-विधायी।
बद्ध-वारिधि-सेतु अमर-मंगल-हेतु, भानुकुलकेतु-रण-विजयदायी॥ ६॥
जयति जय वज्रतनु दशन नख मुख विकट, चंड-भुजदंड तरु-शैल-पानी।
समर-तैलिक-यंत्र तिल-तमीचर-निकर, पेरि डारे सुभट घालि घानी॥ ७॥
जयति दशकंठ-घटकर्ण-वारिद-नाद-कदन-कारन, कालनेमि-हंता।
अघटघटना-सुघट सुघट-विघटन विकट, भूमि-पाताल-जल-गगन-गंता॥ ८॥
जयति विश्व-विख्यात बानैत-विरुदावली, विदुष बरनत वेद विमल बानी।
दास तुलसी त्रास शमन सीतारमण संग शोभित राम-राजधानी॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे हनुमान् जी! तुम्हारी जय हो। तुम अंजनीके गर्भरूपी समुद्रसे चन्द्ररूप उत्पन्न होकर देव-कुलरूपी कुमुदोंको प्रफुल्लित करनेवाले हो, पिता केसरीके सुन्दर नेत्ररूपी चकोरोंको आनन्द देनेवाले हो और समस्त लोकोंका शोक-सन्ताप हरनेवाले हो॥ १॥ तुम्हारी जय हो, जय हो। तुमने बचपनमें ही बाललीलासे उदयकालीन प्रचण्ड सूर्यके मण्डलको लाल-लाल खिलौना समझकर निगल लिया था। उस समय तुमने राहु, सूर्य, इन्द्र और वज्रका गर्व चूर्ण कर दिया था। हे शरणागतके भय हरनेवाले! हे विश्वका भरण-पोषण करनेवाले!! तुम्हारी जय हो॥ २॥ तुम्हारी जय हो, तुम रणमें बड़े धीर, सदा श्रीरामजीका हित करनेवाले, देव-शिरोमणि रुद्रके अवतार और संसारके रक्षक हो। तुम्हारा शरीर ब्राह्मण, देवता, सिद्ध और मुनियोंके आशीर्वादका मूर्तिमान् रूप है। तुम निर्मल गुण और बुद्धिके समुद्र तथा विधाता हो॥ ३॥ तुम्हारी जय हो! तुम सुग्रीव तथा रीछ (जाम्बवन्त) आदिकी रक्षा करनेमें कुशल हो। महाबलवान् बालिके मरवानेमें तुम्हीं मुख्य कारण हो। तुम्हीं समुद्र लाँघनेके समय सिंहिका राक्षसीका मर्दन करनेमें सिंहरूप तथा राक्षसोंकी लंकापुरीके लिये धूमकेतु (पुच्छल तारे)-रूप हो॥ ४॥ तुम्हारी जय हो। तुम श्रीसीताजीको रामका सन्देशा सुनाकर उनकी चिन्ता दूर करनेवाले और रावणके अशोकवनको उजाड़नेवाले हो। तुमने अपनेको निःशंक होकर मेघनादसे ब्रह्मास्त्रमें बँधवा लिया था तथा अपनी पूँछकी लीलासे अग्निकी धधकती हुई लपटोंसे व्याकुल हुए रावणकी लंकामें चारों ओर होली जला दी थी॥ ५॥ तुम्हारी जय हो। तुम श्रीराम-लक्ष्मणको आनन्द देनेवाले, रीछ और बन्दरोंकी सेना इकट्ठी कर समुद्रपर पुल बाँधनेवाले, देवताओंका कल्याण करनेवाले और सूर्यकुल-केतु श्रीरामजीको संग्राममें विजय-लाभ करानेवाले हो॥ ६॥ तुम्हारी जय हो, जय हो। तुम्हारा शरीर, दाँत, नख और विकराल मुख वज्रके समान है। तुम्हारे भुजदण्ड बड़े ही प्रचण्ड हैं, तुम वृक्षों और पर्वतोंको हाथोंपर उठानेवाले हो। तुमने संग्रामरूपी कोल्हूमें राक्षसोंके समूह और बड़े-बड़े योद्धारूपी तिलोंको डाल-डालकर घानीकी तरह पेर डाला॥ ७॥ तुम्हारी जय हो। रावण, कुम्भकर्ण और मेघनादके नाशमें तुम्हीं कारण हो; कपटी कालनेमिको तुम्हींने मारा था। तुम असम्भवको सम्भव और सम्भवको असम्भव कर दिखलानेवाले और बड़े विकट हो। पृथ्वी, पाताल, समुद्र और आकाश सभी स्थानोंमें तुम्हारी अबाधित गति है॥ ८॥ तुम्हारी जय हो। तुम विश्वमें विख्यात हो, वीरताका बाना सदा ही कसे रहते हो। विद्वान् और वेद अपनी विशुद्ध वाणीसे तुम्हारी विरदावलीका वर्णन करते हैं। तुम तुलसीदासके भव-भयको नाश करनेवाले हो और अयोध्यामें सीतारमण श्रीरामजीके साथ सदा शोभायमान रहते हो॥ ९॥
विषय (हिन्दी)
(२६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयति मर्कटाधीश, मृगराज-विक्रम, महादेव, मुद-मंगलालय, कपाली।
मोह-मद-क्रोध-कामादि-खल-संकुला, घोर संसार-निशि किरणमाली॥ १॥
जयति लसदंजनादितिज, कपि-केसरी-कश्यप-प्रभव, जगदार्त्तिहर्त्ता।
लोक-लोकप-कोक-कोकनद-शोकहर, हंस हनुमान कल्याणकर्ता॥ २॥
जयति सुविशाल-विकराल-विग्रह, वज्रसार सर्वांग भुजदण्ड भारी।
कुलिशनख, दशनवर लसत, बालधि बृहद, वैरि-शस्त्रास्त्रधर कुधरधारी॥ ३॥
जयति जानकी-शोच-संताप-मोचन, रामलक्ष्मणानंद-वारिज-विकासी।
कीश-कौतुक-केलि-लूम-लंका-दहन, दलन कानन तरुण तेजरासी॥ ४॥
जयति पाथोधि-पाषाण-जलयानकर, यातुधान-प्रचुर-हर्ष-हाता।
दुष्ट रावण-कुंभकर्ण-पाकारिजित-मर्मभित्, कर्म-परिपाक-दाता॥ ५॥
जयति भुवनैकभूषण, विभीषणवरद, विहित कृत राम-संग्राम साका।
पुष्पकारूढ़ सौमित्रि-सीता-सहित, भानु-कुलभानु-कीरति-पताका॥ ६॥
जयति पर-यंत्रमंत्राभिचार-ग्रसन, कारमन-कूट-कृत्यादि-हंता।
शाकिनी-डाकिनी-पूतना-प्रेत-वेताल-भूत-प्रमथ-यूथ-यंता॥ ७॥
जयति वेदान्तविद विविध-विद्या-विशद, वेद-वेदांगविद ब्रह्मवादी।
ज्ञान-विज्ञान-वैराग्य-भाजन विभो, विमल गुण गनति शुकनारदादी॥ ८॥
जयति काल-गुण-कर्म-माया-मथन, निश्चलज्ञान, व्रत-सत्यरत, धर्मचारी।
सिद्ध-सुरवृंद-योगींद्र-सेवित सदा, दास तुलसी प्रणत भय-तमारी॥ ९॥
मूल
जयति मर्कटाधीश, मृगराज-विक्रम, महादेव, मुद-मंगलालय, कपाली।
मोह-मद-क्रोध-कामादि-खल-संकुला, घोर संसार-निशि किरणमाली॥ १॥
जयति लसदंजनादितिज, कपि-केसरी-कश्यप-प्रभव, जगदार्त्तिहर्त्ता।
लोक-लोकप-कोक-कोकनद-शोकहर, हंस हनुमान कल्याणकर्ता॥ २॥
जयति सुविशाल-विकराल-विग्रह, वज्रसार सर्वांग भुजदण्ड भारी।
कुलिशनख, दशनवर लसत, बालधि बृहद, वैरि-शस्त्रास्त्रधर कुधरधारी॥ ३॥
जयति जानकी-शोच-संताप-मोचन, रामलक्ष्मणानंद-वारिज-विकासी।
कीश-कौतुक-केलि-लूम-लंका-दहन, दलन कानन तरुण तेजरासी॥ ४॥
जयति पाथोधि-पाषाण-जलयानकर, यातुधान-प्रचुर-हर्ष-हाता।
दुष्ट रावण-कुंभकर्ण-पाकारिजित-मर्मभित्, कर्म-परिपाक-दाता॥ ५॥
जयति भुवनैकभूषण, विभीषणवरद, विहित कृत राम-संग्राम साका।
पुष्पकारूढ़ सौमित्रि-सीता-सहित, भानु-कुलभानु-कीरति-पताका॥ ६॥
जयति पर-यंत्रमंत्राभिचार-ग्रसन, कारमन-कूट-कृत्यादि-हंता।
शाकिनी-डाकिनी-पूतना-प्रेत-वेताल-भूत-प्रमथ-यूथ-यंता॥ ७॥
जयति वेदान्तविद विविध-विद्या-विशद, वेद-वेदांगविद ब्रह्मवादी।
ज्ञान-विज्ञान-वैराग्य-भाजन विभो, विमल गुण गनति शुकनारदादी॥ ८॥
जयति काल-गुण-कर्म-माया-मथन, निश्चलज्ञान, व्रत-सत्यरत, धर्मचारी।
सिद्ध-सुरवृंद-योगींद्र-सेवित सदा, दास तुलसी प्रणत भय-तमारी॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे हनुमान् जी! तुम्हारी जय हो। तुम बंदरोंके राजा, सिंहके समान पराक्रमी, देवताओंमें श्रेष्ठ, आनन्द और कल्याणके स्थान तथा कपालधारी शिवजीके अवतार हो। मोह, मद, क्रोध, काम आदि दुष्टोंसे व्याप्त घोर संसाररूपी अन्धकारमयी रात्रिके नाश करनेवाले तुम साक्षात् सूर्य हो॥ १॥ तुम्हारी जय हो। तुम्हारा जन्म अंजनीरूपी अदिति (देवमाता) और वानरोंमें सिंहके समान केसरीरूपी कश्यपसे हुआ है। तुम जगत् के कष्टोंको हरनेवाले हो तथा लोक और लोकपालरूपी चकवा-चकवी और कमलोंका शोक नाश करनेवाले साक्षात् कल्याण-मूर्ति सूर्य हो॥ २॥ तुम्हारी जय हो। तुम्हारा शरीर बड़ा विशाल और भयंकर है, प्रत्येक अंग वज्रके समान है, भुजदण्ड बड़े भारी हैं तथा वज्रके समान नख और सुन्दर दाँत शोभित हो रहे हैं। तुम्हारी पूँछ बड़ी लम्बी है, शत्रुओंके संहारके लिये तुम अनेक प्रकारके अस्त्र, शस्त्र और पर्वतोंको लिये रहते हो॥ ३॥ तुम्हारी जय हो। तुम श्रीसीताजीके शोक-सन्तापका नाश करनेवाले और श्रीराम-लक्ष्मणके आनन्दरूपी कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाले हो। बन्दर-स्वभावसे खेलमें ही पूँछसे लंका जला देनेवाले, अशोक-वनको उजाड़नेवाले, तरुण तेजके पुंज मध्याह्नकालके सूर्यरूप हो॥ ४॥ तुम्हारी जय हो। तुम समुद्रपर पत्थरका पुल बाँधनेवाले, राक्षसोंके महान् आनन्दके नाश करनेवाले तथा दुष्ट रावण, कुम्भकर्ण और मेघनादके मर्म-स्थानोंको तोड़कर उनके कर्मोंका फल देनेवाले हो॥ ५॥ तुम्हारी जय हो। तुम त्रिभुवनके भूषण हो, विभीषणको राम-भक्तिका वर देनेवाले हो और रणमें श्रीरामजीके साथ बड़े-बड़े काम करनेवाले हो। लक्ष्मण और सीताजीसहित पुष्पक-विमानपर विराजमान सूर्यकुलके सूर्य श्रीरामजीकी कीर्ति-पताका तुम्हीं हो॥ ६॥ तुम्हारी जय हो। तुम शत्रुओंद्वारा किये जानेवाले यन्त्र-मन्त्र ओर अभिचार (मोहन-उच्चाटन आदि प्रयोगों तथा जादू-टोने)-को ग्रसनेवाले तथा गुप्त मारण-प्रयोग और प्राणनाशिनी कृत्या आदि क्रूर देवियोंका नाश करनेवाले हो। शाकिनी, डाकिनी, पूतना, प्रेत, वेताल, भूत और प्रमथ आदि भयानक जीवोंके नियन्त्रण-कर्ता शासक हो॥ ७॥ तुम्हारी जय हो। तुम वेदान्तके जाननेवाले, नाना प्रकारकी विद्याओंमें विशारद, चार वेद और छः वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष)-के ज्ञाता तथा शुद्ध ब्रह्मके स्वरूपका निरूपण करनेवाले हो। ज्ञान, विज्ञान और वैराग्यके पात्र हो अर्थात् तुम्हींने इनको अच्छी तरहसे जाना है। तुम समर्थ हो। इसीसे शुकदेव और नारद आदि देवर्षि सदा तुम्हारी निर्मल गुणावली गाया करते हैं॥ ८॥ तुम्हारी जय हो। तुम काल (दिन, घड़ी, पल आदि), त्रिगुण (सत्त्व, रज, तम), कर्म (संचित, प्रारब्ध, क्रियमाण) और मायाका नाश करनेवाले हो। तुम्हारा ज्ञानरूप व्रत सदा निश्चल है तथा तुम सत्यपरायण और धर्मका आचरण करनेवाले हो। सिद्ध, देवगण और योगिराज सदा तुम्हारी सेवा किया करते हैं। हे भव-भयरूपी अन्धकारका नाश करनेवाले सूर्य! यह दास तुलसी तुम्हारी शरण है॥ ९॥
विषय (हिन्दी)
(२७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयति मंगलागार, संसारभारापहर, वानराकारविग्रह पुरारी।
राम-रोषानल-ज्वालमाला-मिष ध्वांतचर-सलभ-संहारकारी॥ १॥
जयति मरुदंजनामोद-मंदिर, नतग्रीव सुग्रीव-दुःखैकबंधो।
यातुधानोद्धत-क्रुद्ध-कालाग्निहर, सिद्ध-सुर-सज्जनानंद-सिंधो॥ २॥
जयति रुद्राग्रणी, विश्व-वंद्याग्रणी, विश्वविख्यात-भट-चक्रवर्ती।
सामगाताग्रणी, कामजेताग्रणी, रामहित, रामभक्तानुवर्ती॥ ३॥
जयति संग्रामजय, रामसंदेसहर, कौशला-कुशल-कल्याणभाषी।
राम-विरहार्क-संतप्त-भरतादि-नरनारि-शीतलकरण कल्पशाषी॥ ४॥
जयति सिंहासनासीन सीतारमण, निरखि, निर्भरहरष नृत्यकारी।
राम संभ्राज शोभा-सहित सर्वदा तुलसिमानस-रामपुर-विहारी॥ ५॥
मूल
जयति मंगलागार, संसारभारापहर, वानराकारविग्रह पुरारी।
राम-रोषानल-ज्वालमाला-मिष ध्वांतचर-सलभ-संहारकारी॥ १॥
जयति मरुदंजनामोद-मंदिर, नतग्रीव सुग्रीव-दुःखैकबंधो।
यातुधानोद्धत-क्रुद्ध-कालाग्निहर, सिद्ध-सुर-सज्जनानंद-सिंधो॥ २॥
जयति रुद्राग्रणी, विश्व-वंद्याग्रणी, विश्वविख्यात-भट-चक्रवर्ती।
सामगाताग्रणी, कामजेताग्रणी, रामहित, रामभक्तानुवर्ती॥ ३॥
जयति संग्रामजय, रामसंदेसहर, कौशला-कुशल-कल्याणभाषी।
राम-विरहार्क-संतप्त-भरतादि-नरनारि-शीतलकरण कल्पशाषी॥ ४॥
जयति सिंहासनासीन सीतारमण, निरखि, निर्भरहरष नृत्यकारी।
राम संभ्राज शोभा-सहित सर्वदा तुलसिमानस-रामपुर-विहारी॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ— हे हनुमान् जी! तुम्हारी जय हो। तुम कल्याणके स्थान, संसारके भारको हरनेवाले, बन्दरके आकारमें साक्षात् शिवस्वरूप हो। तुम राक्षसरूपी पतंगोंको भस्म करनेवाली श्रीरामचन्द्रजीके क्रोधरूपी अग्निकी ज्वालमालाके मूर्तिमान् स्वरूप हो॥ १॥ तुम्हारी जय हो। तुम पवन और अंजनी देवीके आनन्दके स्थान हो। नीची गर्दन किये हुए, दुःखी सुग्रीवके दुःखमें तुम सच्चे बन्धुके समान सहायक हुए थे। तुम राक्षसोंके कराल क्रोधरूपी प्रलयकालकी अग्निका नाश करनेवाले और सिद्ध, देवता तथा सज्जनोंके लिये आनन्दके समुद्र हो॥ २॥ तुम्हारी जय हो। तुम एकादश रुद्रोंमें और जगत्पूज्य ज्ञानियोंमें अग्रगण्य हो, संसारभरके शूरवीरोंके प्रसिद्ध सम्राट् हो। तुम सामवेदका गान करनेवालोंमें और कामदेवको जीतनेवालोंमें सबसे श्रेष्ठ हो। तुम श्रीरामजीके हितकारी और श्रीराम-भक्तोंके साथ रहनेवाले रक्षक हो॥ ३॥ तुम्हारी जय हो। तुम संग्राममें विजय पानेवाले, श्रीरामजीका सन्देशा (सीताजीके पास) पहुँचानेवाले और अयोध्याका कुशल-मंगल (श्रीरघुनाथजीसे) कहनेवाले हो। तुम श्रीरामजीके वियोगरूपी सूर्यसे जलते हुए भरत आदि अयोध्यावासी नर-नारियोंका ताप मिटानेके लिये कल्पवृक्ष हो॥ ४॥ तुम्हारी जय हो। तुम श्रीरामजीको राज्य-सिंहासनपर विराजमान देख, आनन्दमें विह्वल होकर नाचनेवाले हो। जैसे श्रीरामजी अयोध्यामें सिंहासनपर विराजित हो शोभा पा रहे थे, वैसे ही तुम इस तुलसीदासकी मानसरूपी अयोध्यामें सदा विहार करते रहो॥ ५॥
विषय (हिन्दी)
(२८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयति वात-संजात, विख्यात विक्रम, बृहद्बाहु, बलबिपुल, बालधिबिसाला।
जातरूपाचलाकार विग्रह, लसत लोम विद्युल्लता ज्वालमाला॥ १॥
जयति बालार्क वर-वदन, पिंगल-नयन, कपिश-कर्कश-जटाजूटधारी।
विकट भृकुटी, वज्र दशन नख, वैरि-मदमत्त-कुंजर-पुंज-कुंजरारी॥ २॥
जयति भीमार्जुन-व्यालसूदन-गर्वहर, धनंजय-रथ-त्राण-केतू।
भीष्म-द्रोण-कर्णादि-पालित, कालदृक सुयोधन-चमू-निधन-हेतू॥ ३॥
जयति गतराजदातार, हंतार संसार-संकट, दनुज-दर्पहारी।
ईति-अति-भीति-ग्रह-प्रेत-चौरानल-व्याधिबाधा-शमन घोर मारी॥ ४॥
जयति निगमागम व्याकरण करणलिपि, काव्यकौतुक-कला-कोटि-सिंधो।
सामगायक, भक्त-कामदायक, वामदेव, श्रीराम-प्रिय-प्रेम बंधो॥ ५॥
जयति घर्मांशु-संदग्ध-संपाति-नवपक्ष-लोचन-दिव्य-देहदाता।
कालकलि-पापसंताप-संकुल सदा, प्रणत तुलसीदास तात-माता॥ ६॥
मूल
जयति वात-संजात, विख्यात विक्रम, बृहद्बाहु, बलबिपुल, बालधिबिसाला।
जातरूपाचलाकार विग्रह, लसत लोम विद्युल्लता ज्वालमाला॥ १॥
जयति बालार्क वर-वदन, पिंगल-नयन, कपिश-कर्कश-जटाजूटधारी।
विकट भृकुटी, वज्र दशन नख, वैरि-मदमत्त-कुंजर-पुंज-कुंजरारी॥ २॥
जयति भीमार्जुन-व्यालसूदन-गर्वहर, धनंजय-रथ-त्राण-केतू।
भीष्म-द्रोण-कर्णादि-पालित, कालदृक सुयोधन-चमू-निधन-हेतू॥ ३॥
जयति गतराजदातार, हंतार संसार-संकट, दनुज-दर्पहारी।
ईति-अति-भीति-ग्रह-प्रेत-चौरानल-व्याधिबाधा-शमन घोर मारी॥ ४॥
जयति निगमागम व्याकरण करणलिपि, काव्यकौतुक-कला-कोटि-सिंधो।
सामगायक, भक्त-कामदायक, वामदेव, श्रीराम-प्रिय-प्रेम बंधो॥ ५॥
जयति घर्मांशु-संदग्ध-संपाति-नवपक्ष-लोचन-दिव्य-देहदाता।
कालकलि-पापसंताप-संकुल सदा, प्रणत तुलसीदास तात-माता॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे हनुमान् जी! तुम्हारी जय हो। तुम पवनसे उत्पन्न हुए हो, तुम्हारा पराक्रम प्रसिद्ध है। तुम्हारी भुजाएँ बड़ी विशाल हैं, तुम्हारा बल अपार है। तुम्हारी पूँछ बड़ी लम्बी है। तुम्हारा शरीर सुमेरु-पर्वतके समान विशाल एवं तेजस्वी है। तुम्हारी रोमावली बिजलीकी रेखा अथवा ज्वालाओंकी मालाके समान जगमगा रही है॥ १॥ तुम्हारी जय हो। तुम्हारा मुख उदयकालीन सूर्यके समान सुन्दर है, नेत्र पीले हैं। तुम्हारे सिरपर भूरे रंगकी कठोर जटाओंका जूड़ा बँधा हुआ है। तुम्हारी भौंहें टेढ़ी हैं। तुम्हारे दाँत और नख वज्रके समान हैं, तुम शत्रुरूपी मदमत्त हाथियोंके दलको विदीर्ण करनेवाले सिंहके समान हो॥ २॥ तुम्हारी जय हो। तुम भीमसेन, अर्जुन और गरुड़के गर्वको हरनेवाले तथा अर्जुनके रथकी पताकापर बैठकर उसकी रक्षा करनेवाले हो। तुम भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य और कर्ण आदिसे रक्षित कालकी दृष्टिके समान भयानक, दुर्योधनकी महान् सेनाका नाश करनेमें मुख्य कारण हो॥ ३॥ तुम्हारी जय हो। तुम सुग्रीवके गये हुए राज्यको फिरसे दिलानेवाले, संसारके संकटोंका नाश करनेवाले और दानवोंके दर्पको चूर्ण करनेवाले हो। तुम अतिवृष्टि, अनावृष्टि, टिड्डी, चूहे, पक्षी और राज्यके आक्रमणरूप खेतीमें बाधक छः प्रकारकी ईति, महाभाव, ग्रह, प्रेत, चोर, अग्निकाण्ड, रोग, बाधा और महामारी आदि क्लेशोंके नाश करनेवाले हो॥ ४॥ तुम्हारी जय हो। तुम वेद, शास्त्र और व्याकरणपर भाष्य लिखनेवाले और काव्यके कौतुक तथा करोड़ों कलाओंके समुद्र हो। तुम सामवेदका गान करनेवाले, भक्तोंकी कामना पूर्ण करनेवाले साक्षात् शिवरूप हो और श्रीरामके प्यारे प्रेमी बन्धु हो॥ ५॥ तुम्हारी जय हो। तुम सूर्यसे जले हुए सम्पाती नामक (जटायुके भाई) गृध्रको नये पंख, नेत्र और दिव्य शरीरके देनेवाले हो और कलिकालके पाप-सन्तापोंसे पूर्ण इस शरणागत तुलसीदासके माता-पिता हो॥ ६॥
विषय (हिन्दी)
(२९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयति निर्भरानंद-संदोह कपिकेसरी, केसरी-सुवन भुवनैकभर्त्ता।
दिव्यभूम्यंजना-मंजुलाकर-मणे, भक्त-संताप-चिंतापहर्त्ता॥ १॥
जयति धर्मार्थ-कामापवर्गद विभो, ब्रह्मलोकादि-वैभव-विरागी।
वचन-मानस-कर्म सत्य-धर्मव्रती, जानकीनाथ-चरणानुरागी॥ २॥
जयति बिहगेश-बलबुद्धि-बेगाति-मद-मथन, मनमथ-मथन, ऊर्ध्वरेता।
महानाटक-निपुन, कोटि-कविकुल-तिलक, गानगुण-गर्व-गंधर्व-जेता॥ ३॥
जयति मंदोदरी-केश-कर्षण, विद्यमान दशकंठ भट-मुकुट मानी।
भूमिजा-दुःख-संजात रोषांतकृत-जातनाजंतु कृत जातुधानी॥ ४॥
जयति रामायण-श्रवण-संजात रोमांच, लोचन सजल, शिथिल वाणी।
रामपदपद्म-मकरंद-मधुकर, पाहि, दास तुलसी शरण, शूलपाणी॥ ५॥
मूल
जयति निर्भरानंद-संदोह कपिकेसरी, केसरी-सुवन भुवनैकभर्त्ता।
दिव्यभूम्यंजना-मंजुलाकर-मणे, भक्त-संताप-चिंतापहर्त्ता॥ १॥
जयति धर्मार्थ-कामापवर्गद विभो, ब्रह्मलोकादि-वैभव-विरागी।
वचन-मानस-कर्म सत्य-धर्मव्रती, जानकीनाथ-चरणानुरागी॥ २॥
जयति बिहगेश-बलबुद्धि-बेगाति-मद-मथन, मनमथ-मथन, ऊर्ध्वरेता।
महानाटक-निपुन, कोटि-कविकुल-तिलक, गानगुण-गर्व-गंधर्व-जेता॥ ३॥
जयति मंदोदरी-केश-कर्षण, विद्यमान दशकंठ भट-मुकुट मानी।
भूमिजा-दुःख-संजात रोषांतकृत-जातनाजंतु कृत जातुधानी॥ ४॥
जयति रामायण-श्रवण-संजात रोमांच, लोचन सजल, शिथिल वाणी।
रामपदपद्म-मकरंद-मधुकर, पाहि, दास तुलसी शरण, शूलपाणी॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे हनुमान् जी! तुम्हारी जय हो। तुम पूर्ण आनन्दके समूह, वानरोंमें साक्षात् केसरी सिंह (बबर शेर), केसरीके पुत्र और संसारके एकमात्र भरण-पोषण करनेवाले हो। तुम अंजनीरूपी दिव्य भूमिकी सुन्दर खानिसे निकली हुई मनोहर मणि हो और भक्तोंके सन्ताप और चिन्ताओंको सदा नाश करते हो॥ १॥ हे विभो! तुम्हारी जय हो। तुम धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके देनेवाले हो, ब्रह्मलोकतकके समस्त भोग-ऐश्वर्योंमें वैराग्यवान् हो। मन, वचन और कर्मसे सत्यरूप धर्मके व्र्रतका पालन करनेवाले हो और श्रीजानकीनाथ रामजीके चरणोंके परम प्रेमी हो॥ २॥ तुम्हारी जय हो। तुम गरुड़के बल, बुद्धि और वेगके बड़े भारी गर्वको खर्व करनेवाले तथा कामदेवके नाश करनेवाले बाल-ब्रह्मचारी हो, तुम बड़े-बड़े नाटकोंके निर्माण और अभिनयमें निपुण हो, करोड़ों महाकवियोंके कुलशिरोमणि और गान-विद्याका गर्व करनेवाले विजय पानेवाले हो॥ ३॥ तुम्हारी जय हो। तुम वीरोंके मुकुटमणि, महा अभिमानी रावणके सामने उसकी स्त्री मन्दोदरीके बाल खींचनेवाले हो। तुमने श्रीजानकीजीके दुःखको देखकर उत्पन्न हुए क्रोधके वश हो राक्षसियोंको ऐसा क्लेश दिया जैसा यमराज पापी प्राणियोंको दिया करता है॥ ४॥ तुम्हारी जय हो। श्रीरामजीका चरित्र सुनते ही तुम्हारा शरीर पुलकित हो जाता है, तुम्हारे नेत्रोंमें प्रेमके आँसू भर आते हैं और तुम्हारी वाणी गद्गद हो जाती है। हे श्रीरामके चरण-कमल-परागके रसिक भौंरे! हे हनुमान्-रूपी त्रिशूलधारी शिव! यह दास तुलसी तुम्हारी शरण है, इसकी रक्षा करो॥ ५॥
राग सारंग
विषय (हिन्दी)
(३०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाके गति है हनुमानकी।
ताकी पैज पूजि आई, यह रेखा कुलिस पषानकी॥ १॥
अघटित-घटन, सुघट-बिघटन, ऐसी बिरुदावलि नहिं आनकी।
सुमिरत संकट-सोच-बिमोचन, मूरति मोद-निधानकी॥ २॥
तापर सानुकूल, गिरिजा, हर, लषन, राम अरु जानकी।
तुलसी कपिकी कृपा-बिलोकनि, खानि सकल कल्यानकी॥ ३॥
मूल
जाके गति है हनुमानकी।
ताकी पैज पूजि आई, यह रेखा कुलिस पषानकी॥ १॥
अघटित-घटन, सुघट-बिघटन, ऐसी बिरुदावलि नहिं आनकी।
सुमिरत संकट-सोच-बिमोचन, मूरति मोद-निधानकी॥ २॥
तापर सानुकूल, गिरिजा, हर, लषन, राम अरु जानकी।
तुलसी कपिकी कृपा-बिलोकनि, खानि सकल कल्यानकी॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—जिसको (सब प्रकारसे) श्रीहनुमान् जी का आश्रय है, उसकी प्रतिज्ञा पूरी हो ही गयी। यह सिद्धान्त वज्र (हीरे)-की लकीरके समान अमिट है॥ १॥ क्योंकि श्रीहनुमान् जी असम्भव घटनाको सम्भव और सम्भवको असम्भव करनेवाले हैं, ऐसे यशका बाना दूसरे किसीका भी नहीं है। श्रीहनुमान् जी की आनन्दमयी मूर्तिका स्मरण करते ही सारे संकट और शोक मिट जाते हैं॥ २॥ सब प्रकारके कल्याणोंकी खानि श्रीहनुमान् जी की कृपादृष्टि जिसपर है, हे तुलसीदास! उसपर पार्वती, शंकर, लक्ष्मण, श्रीराम और जानकीजी सदा कृपा किया करती हैं॥ ३॥
राग गौरी
विषय (हिन्दी)
(३१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताकिहै तमकि ताकी ओर को।
जाको है सब भाँति भरोसो कपि केसरी-किसोरको॥ १॥
जन-रंजन अरिगन-गंजन मुख-भंजन खल बरजोरको।
बेद-पुरान-प्रगट पुरुषारथ सकल-सुभट-सिरमोर को॥ २॥
उथपे-थपन, थपे उथपन पन, बिबुधबृंद बँदिछोर को।
जलधि लाँघि दहि लंक प्रबल बल दलन निसाचर घोर को॥ ३॥
जाको बालबिनोद समुझि जिय डरत दिवाकर भोरको।
जाकी चिबुक-चोट चूरन किय रद-मद कुलिस कठोरको॥ ४॥
लोकपाल अनुकूल बिलोकिवो चहत बिलोचन-कोरको।
सदा अभय, जय, मुद-मंगलमय जो सेवक रनरोरको॥ ५॥
भगत-कामतरु नाम राम परिपूरन चंद चकोरको।
तुलसी फल चारों करतल जस गावत गई बहोरको॥ ६॥
मूल
ताकिहै तमकि ताकी ओर को।
जाको है सब भाँति भरोसो कपि केसरी-किसोरको॥ १॥
जन-रंजन अरिगन-गंजन मुख-भंजन खल बरजोरको।
बेद-पुरान-प्रगट पुरुषारथ सकल-सुभट-सिरमोर को॥ २॥
उथपे-थपन, थपे उथपन पन, बिबुधबृंद बँदिछोर को।
जलधि लाँघि दहि लंक प्रबल बल दलन निसाचर घोर को॥ ३॥
जाको बालबिनोद समुझि जिय डरत दिवाकर भोरको।
जाकी चिबुक-चोट चूरन किय रद-मद कुलिस कठोरको॥ ४॥
लोकपाल अनुकूल बिलोकिवो चहत बिलोचन-कोरको।
सदा अभय, जय, मुद-मंगलमय जो सेवक रनरोरको॥ ५॥
भगत-कामतरु नाम राम परिपूरन चंद चकोरको।
तुलसी फल चारों करतल जस गावत गई बहोरको॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—जिसे सब प्रकारसे केसरीनन्दन श्रीहनुमान् जी का भरोसा है, उसकी ओर भला क्रोधभरी दृष्टिसे कौन ताक सकता है?॥ १॥ हनुमान् जी के समान भक्तोंको प्रसन्न करनेवाला, शत्रुओंका नाश करनेवाला, दुष्टोंका मुँह तोड़नेवाला बड़ा बलवान् संसारमें और कौन है? इनका पुरुषार्थ वेदों और पुराणोंमें प्रकट है। इनके समान समस्त शूरवीरोंमें शिरोमणि दूसरा कौन है?॥ २॥ इनके समान (सुग्रीव, विभीषण आदि) राज्यबहिष्कृतोंको पुनः स्थापित करनेवाला, सिंहासनपर स्थित (बालि, रावण आदि) राजाधिराजोंको राज्यच्युत करनेवाला, देवताओंको प्रण करके रावणके बन्धनसे छुड़ानेवाला, समुद्र लाँघकर लंकाको जलानेवाला और बड़े-बड़े बलवान् भयानक राक्षसोंके बलका नाश करनेवाला दूसरा कौन है?॥ ३॥ जिनके बाल-विनोदको याद करके अब भी प्रातःकालके सूर्यदेव डरा करते हैं, जिनकी ठोड़ीकी चोटने कठोर वज्रके दाँतोंका घमंड चूर कर दिया॥ ४॥ बड़े-बड़े लोकपाल भी जिनका कृपाकटाक्ष चाहते हैं, ऐसे रणबाँकुरे हनुमान् जी की जो सेवा करता है, वह सदा निडर रहता है, शत्रुओंपर विजयी होता है और संसारके सभी सुख तथा कल्याणरूप मोक्षको प्राप्त करता है॥ ५॥ पूर्णकला-सम्पन्न चन्द्रमा-जैसे श्रीरामचन्द्रजीके मुखको अनिमेष-दृष्टिसे देखनेवाले चकोररूप हनुमान् जी का नाम भक्तोंके लिये कल्पवृक्षके समान है। हे तुलसीदास! गयी हुई वस्तुको फिरसे दिला देनेवाले श्रीहनुमान् जी का जो गुण गाता है, अर्थ, धर्म, काम, मोक्षरूप चारों फल सदा उसकी हथेलीपर धरे रहते हैं॥ ६॥
राग बिलावल
विषय (हिन्दी)
(३२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐसी तोहि न बूझिये हनुमान हठीले।
साहेब कहूँ न रामसे, तोसे न उसीले॥ १॥
तेरे देखत सिंहके सिसु मेंढक लीले।
जानत हौं कलि तेरेऊ मन गुनगन कीले॥ २॥
हाँक सुनत दसकंधके भये बंधन ढीले।
सो बल गयो किधौं भये अब गरबगहीले॥ ३॥
सेवकको परदा फटे तू समरथ सीले।
अधिक आपुते आपुनो सुनि मान सही ले॥ ४॥
साँसति तुलसीदासकी सुनि सुजस तुही ले।
तिहूँकाल तिनको भलौ जे राम-रँगीले॥ ५॥
मूल
ऐसी तोहि न बूझिये हनुमान हठीले।
साहेब कहूँ न रामसे, तोसे न उसीले॥ १॥
तेरे देखत सिंहके सिसु मेंढक लीले।
जानत हौं कलि तेरेऊ मन गुनगन कीले॥ २॥
हाँक सुनत दसकंधके भये बंधन ढीले।
सो बल गयो किधौं भये अब गरबगहीले॥ ३॥
सेवकको परदा फटे तू समरथ सीले।
अधिक आपुते आपुनो सुनि मान सही ले॥ ४॥
साँसति तुलसीदासकी सुनि सुजस तुही ले।
तिहूँकाल तिनको भलौ जे राम-रँगीले॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे हठीले (भक्तोंके कष्ट बरबस दूर करनेवाले) हनुमान्! तुझे ऐसा नहीं चाहिये। श्रीराम-सरीखे तो कहीं स्वामी नहीं हैं और तेरे समान कहीं सहायक नहीं हैं॥ १॥ यह होते हुए भी आज तेरे देखते-देखते मुझ सिंहके बच्चेको (तुझ सिंहरूप सहायकके शरणागत मुझ बालकको) कलियुगरूपी मेंढक (जिसकी तेरे सामने कोई हस्ती नहीं है) निगले लेता है। मालूम होता है, इस कलियुगने तेरे भक्तवत्सलता, शरणागतकी रक्षाके लिये हठकारिता, उदारता आदि गुणोंको कील दिया है॥ २॥ एक दिन तेरी हुंकार सुनते ही रावणके अंग-अंगके जोड़ ढीले पड़ गये थे, वह तेरा बल-पराक्रम आज कहाँ गया? अथवा क्या तू अब दयालुके बदले घमंडी हो गया है?॥ ३॥ आज तेरे सेवकका पर्दा फट रहा है उसे तू सी दे—जाती हुई इज्जतको बचा दे, तू बड़ा समर्थ है, पहले तो तू सेवकको अपनेसे अधिक मानता, उसकी सुनता,सहता था, पर अब क्या हो गया?॥ ४॥ इस तुलसीदासके संकटको सुनकर उसे दूर करके यह सुयश तू ही ले ले। वास्तवमें तो जो रामके रँगीले भक्त हैं उनका तीनों कालोंमें कल्याण ही है॥ ५॥
विषय (हिन्दी)
(३३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
समरथ सुअन समीरके, रघुबीर-पियारे।
मोपर कीबी तोहि जो करि लेहि भिया रे॥ १॥
तेरी महिमा ते चलैं चिंचिनी-चिया रे।
अँधियारो मेरी बार क्यों, त्रिभुवन-उजियारे॥ २॥
केहि करनी जन जानिकै सनमान किया रे।
केहि अघ औगुन आपने कर डारि दिया रे॥ ३॥
खाई खोंची माँगि मैं तेरो नाम लिया रे।
तेरे बल, बलि, आजु लौं जग जागि जिया रे॥ ४॥
जो तोसों होतौ फिरौं मेरो हेतु हिया रे।
तौ क्यों बदन देखावतो कहि बचन इयारे॥ ५॥
तोसो ग्यान-निधान को सरबग्य बिया रे।
हौं समुझत साईं-द्रोहकी गति छार छिया रे॥ ६॥
तेरे स्वामी राम से, स्वामिनी सिया रे।
तहँ तुलसीके कौनको काको तकिया रे॥ ७॥
मूल
समरथ सुअन समीरके, रघुबीर-पियारे।
मोपर कीबी तोहि जो करि लेहि भिया रे॥ १॥
तेरी महिमा ते चलैं चिंचिनी-चिया रे।
अँधियारो मेरी बार क्यों, त्रिभुवन-उजियारे॥ २॥
केहि करनी जन जानिकै सनमान किया रे।
केहि अघ औगुन आपने कर डारि दिया रे॥ ३॥
खाई खोंची माँगि मैं तेरो नाम लिया रे।
तेरे बल, बलि, आजु लौं जग जागि जिया रे॥ ४॥
जो तोसों होतौ फिरौं मेरो हेतु हिया रे।
तौ क्यों बदन देखावतो कहि बचन इयारे॥ ५॥
तोसो ग्यान-निधान को सरबग्य बिया रे।
हौं समुझत साईं-द्रोहकी गति छार छिया रे॥ ६॥
तेरे स्वामी राम से, स्वामिनी सिया रे।
तहँ तुलसीके कौनको काको तकिया रे॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे सर्वशक्तिमान् पवनकुमार! हे रामजीके प्यारे! तुझे मुझपर जो कुछ करना हो सो भैया अभी कर ले॥ १॥ तेरे प्रतापसे इमलीके चियें भी (रुपये-अशरफीकी जगह) चल सकते हैं; अर्थात् यदि तू चाहे तो मेरे-जैसे निकम्मोंकी भी गणना भक्तोंमें हो सकती है। फिर मेरे लिये, हे त्रिभुवन-उजागर! इतना अँधेरा क्यों कर रखा है?॥ २॥ पहले मेरी कौन-सी अच्छी करनी जानकर तूने मुझे अपना दास समझा था तथा मेरा सम्मान किया था और अब किस पाप तथा अवगुणसे मुझे हाथसे फेंक दिया, अपनाकर भी त्याग दिया?॥ ३॥ मैंने तो सदासे ही तेरे नामपर टुकड़ा माँगकर खाया है, तेरी बलैया लेता हूँ, मैं तो तेरे ही बलके भरोसेपर जगत् में उजागर होकर अबतक जीता रहा हूँ॥ ४॥ जो मैं तुझसे विमुख होता तो मेरा हृदय ही उसमें कारण होता, फिर मैं निज परिवारके मनुष्यकी तरह भली-बुरी सुनाकर तुझे अपना मुँह कैसे दिखाता?॥ ५॥ तू मेरे मनकी सब कुछ जानता है, क्योंकि तेरे समान ज्ञानकी खानि और सबके मनकी जाननेवाला दूसरा कौन है? यह तो मैं भी समझता हूँ कि स्वामीके साथ द्रोह करनेवालेको नष्ट-भ्रष्ट हो जाना पड़ता है॥ ६॥ तेरे स्वामी श्रीरामजी और स्वामिनी श्रीसीताजी-सरीखी हैं, वहाँ तुलसीदासका तेरे सिवा और किस मनुष्यका और किस वस्तुका सहारा है? इसलिये तू ही मुझे वहाँतक पहुँचा दे॥ ७॥
विषय (हिन्दी)
(३४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति आरत, अति स्वारथी, अति दीन-दुखारी।
इनको बिलगु न मानिये, बोलहिं न बिचारी॥ १॥
लोक-रीति देखी सुनी, व्याकुल नर-नारी।
अति बरषे अनबरषेहूँ, देहिं दैवहिं गारी॥ २॥
नाकहि आये नाथसों, साँसति भय भारी।
कहि आयो, कीबी छमा, निज ओर निहारी॥ ३॥
समै साँकरे सुमिरिये, समरथ हितकारी।
सो सब बिधि ऊबर करै, अपराध बिसारी॥ ४॥
बिगरी सेवककी सदा, साहेबहिं सुधारी।
तुलसीपर तेरी कृपा, निरुपाधि निरारी॥ ५॥
मूल
अति आरत, अति स्वारथी, अति दीन-दुखारी।
इनको बिलगु न मानिये, बोलहिं न बिचारी॥ १॥
लोक-रीति देखी सुनी, व्याकुल नर-नारी।
अति बरषे अनबरषेहूँ, देहिं दैवहिं गारी॥ २॥
नाकहि आये नाथसों, साँसति भय भारी।
कहि आयो, कीबी छमा, निज ओर निहारी॥ ३॥
समै साँकरे सुमिरिये, समरथ हितकारी।
सो सब बिधि ऊबर करै, अपराध बिसारी॥ ४॥
बिगरी सेवककी सदा, साहेबहिं सुधारी।
तुलसीपर तेरी कृपा, निरुपाधि निरारी॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ— हे हनुमान् जी! अति पीड़ित, अति स्वार्थी, अति दीन और अति दुःखीके कहेका बुरा नहीं मानना चाहिये, क्योंकि ये घबराये हुए रहनेके कारण भले-बुरेका विचार करके नहीं बोलते॥ १॥ संसारमें यह प्रत्यक्ष देखा-सुना जाता है कि वर्षा अधिक होने या बिलकुल न होनेपर व्याकुल हुए स्त्री-पुरुष दैवको गालियाँ सुनाया करते हैं; परंतु इसका परमेश्वर कोई खयाल नहीं करता॥ २॥ जब कलियुगके कष्ट और भवसागरके भारी भयसे मेरे नाकों दम आ गया, तभी मैं भली-बुरी कह बैठा। अब तुम अपनी भक्तवत्सलताकी ओर देखकर मुझे क्षमा कर दो॥ ३॥ संकटके समय लोग समर्थ और अपने हितकारीको ही याद करते हैं और वह भी उनके सारे अपराधोंको भुलाकर उनकी सब प्रकारसे रक्षा करता है॥ ४॥ सेवककी भूलोंको सदासे स्वामी ही सुधारते आये हैं। फिर इस तुलसीदासपर तो तुम्हारी एक निराली एवं निश्छल कृपा है॥ ५॥
विषय (हिन्दी)
(३५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कटु कहिये गाढ़े परे, सुनि समुझि सुसाईं।
करहिं अनभलेउ को भलो, आपनी भलाई॥ १॥
समरथ सुभ जो पाइये, बीर पीर पराई।
ताहि तकैं सब ज्यों नदी बारिधि न बुलाई॥ २॥
अपने अपनेको भलो, चहैं लोग लुगाई।
भावै जो जेहि तेहि भजै, सुभ असुभ सगाई॥ ३॥
बाँह बोलि दै थापिये, जो निज बरिआई।
बिन सेवा सों पालिये, सेवककी नाईं॥ ४॥
चूक-चपलता मेरियै, तू बड़ो बड़ाई।
होत आदरे ढीठ है, अति नीच निचाई॥ ५॥
बंदिछोर बिरुदावली, निगमागम गाई।
नीको तुलसीदासको, तेरियै निकाई॥ ६॥
मूल
कटु कहिये गाढ़े परे, सुनि समुझि सुसाईं।
करहिं अनभलेउ को भलो, आपनी भलाई॥ १॥
समरथ सुभ जो पाइये, बीर पीर पराई।
ताहि तकैं सब ज्यों नदी बारिधि न बुलाई॥ २॥
अपने अपनेको भलो, चहैं लोग लुगाई।
भावै जो जेहि तेहि भजै, सुभ असुभ सगाई॥ ३॥
बाँह बोलि दै थापिये, जो निज बरिआई।
बिन सेवा सों पालिये, सेवककी नाईं॥ ४॥
चूक-चपलता मेरियै, तू बड़ो बड़ाई।
होत आदरे ढीठ है, अति नीच निचाई॥ ५॥
बंदिछोर बिरुदावली, निगमागम गाई।
नीको तुलसीदासको, तेरियै निकाई॥ ६॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—जब संकट पड़ता है, तभी अपने स्वामीको भला-बुरा कहा जाता है, और अच्छे स्वामी यह समझ-बूझकर अपनी भलाईसे उस बुरे सेवकका भी भला कर देते हैं॥ १॥ समर्थ, कल्याणकारी और ऐसे शूरवीरको पाकर जो दूसरोंकी विपत्तिमें सहायता देता है, सब लोग उस ओर ऐसे देखा करते हैं, जैसे समुद्रके पास नदियाँ बिना बुलाये ही दौड़-दौड़कर जाती हैं॥ २॥ संसारमें सभी स्त्री-पुरुष अपनी-अपनी भलाई चाहते हैं, शुभ-अशुभके नातेसे जो (देवता) जिसको अच्छा लगता है, वह उसी देवताको भजता है। मुझे तो एक तुम्हारा ही भरोसा है॥ ३॥ जिसे जबरदस्ती अपने बलका भरोसा देकर रख लिया वह यदि तुम्हारी सेवा नहीं करता, तो भी उसे सेवककी तरह पालना चाहिये॥ ४॥ भूल और चंचलता तो सब मेरी ही है; पर तुम बड़े हो, मुझ-जैसे अपराधियोंको क्षमा करनेमें ही तुम्हारी बड़ाई है। यह तो सभी जानते हैं कि आदर करनेसे नीच भी ढीठ हो जाता और नीचता करने लगता है॥ ५॥ तुम बन्धनोंसे छुड़ानेवाले हो—तुम्हारा ऐसा सुयश वेद-शास्त्र गाते हैं। मुझ तुलसीदासका भला अब तुम्हारी भलाईसे ही होगा, अन्यथा मैं तो किसी भी योग्य नहीं हूँ॥ ६॥
विषय (हिन्दी)
राग गौरी
(३६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
मंगल-मूरति मारुत-नंदन।
सकल-अमंगल-मूल-निकंदन॥ १॥
पवनतनय संतन-हितकारी।
हृदय बिराजत अवध-बिहारी॥ २॥
मातु-पिता, गुरु, गनपति, सारद।
सिवा-समेत संभु, सुक, नारद॥ ३॥
चरन बंदि बिनवौं सब काहू।
देहु रामपद-नेह-निबाहू॥ ४॥
बंदौं राम-लखन-बैदेही।
जे तुलसीके परम सनेही॥ ५॥
मूल
मंगल-मूरति मारुत-नंदन।
सकल-अमंगल-मूल-निकंदन॥ १॥
पवनतनय संतन-हितकारी।
हृदय बिराजत अवध-बिहारी॥ २॥
मातु-पिता, गुरु, गनपति, सारद।
सिवा-समेत संभु, सुक, नारद॥ ३॥
चरन बंदि बिनवौं सब काहू।
देहु रामपद-नेह-निबाहू॥ ४॥
बंदौं राम-लखन-बैदेही।
जे तुलसीके परम सनेही॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—पवनकुमार हनुमान् जी कल्याणकी मूर्ति हैं। वे सारी बुराइयोंकी जड़ काटनेवाले हैं॥ १॥ पवनके पुत्र हैं, संतोंका हित करनेवाले हैं। अवधविहारी श्रीरामजी सदा इनके हृदयमें विराजते हैं॥ २॥ इनके तथा माता-पिता, गुरु, गणेश, सरस्वती, पार्वतीसहित शिवजी, शुकदेवजी, नारद॥ ३॥ इन सबके चरणोंमें प्रणाम करके मैं यह विनती करता हूँ कि श्रीरघुनाथजीके चरण-कमलोंमें मेरा प्रेम सदा एक-सा निबह रहे, यह वरदान दीजिये॥ ४॥ अन्तमें मैं श्रीराम, लक्ष्मण और जानकीजीको प्रणाम करता हूँ, जो तुलसीदासके परमप्रेमी और सर्वस्व हैं॥ ५॥