राग रामकली
विषय (हिन्दी)
(१७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जय जय भगीरथनन्दिनि, मुनि-चय चकोर-चन्दिनि,
नर-नाग-बिबुध-बन्दिनि जय जह्नु बालिका।
बिस्नु-पद-सरोजजासि, ईस-सीसपर बिभासि,
त्रिपथगासि, पुन्यरासि, पाप-छालिका॥ १॥
बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप-हारि,
भँवर बर बिभंगतर तरंग-मालिका।
पुरजन पूजोपहार, सोभित ससि धवलधार,
भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका॥ २॥
निज तटबासी बिहंग, जल-थर-चर पसु-पतंग,
कीट, जटिल तापस सब सरिस पालिका।
तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुबंस-बीर,
बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका॥ ३॥
मूल
जय जय भगीरथनन्दिनि, मुनि-चय चकोर-चन्दिनि,
नर-नाग-बिबुध-बन्दिनि जय जह्नु बालिका।
बिस्नु-पद-सरोजजासि, ईस-सीसपर बिभासि,
त्रिपथगासि, पुन्यरासि, पाप-छालिका॥ १॥
बिमल बिपुल बहसि बारि, सीतल त्रयताप-हारि,
भँवर बर बिभंगतर तरंग-मालिका।
पुरजन पूजोपहार, सोभित ससि धवलधार,
भंजन भव-भार, भक्ति-कल्पथालिका॥ २॥
निज तटबासी बिहंग, जल-थर-चर पसु-पतंग,
कीट, जटिल तापस सब सरिस पालिका।
तुलसी तव तीर तीर सुमिरत रघुबंस-बीर,
बिचरत मति देहि मोह-महिष-कालिका॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे भगीरथनन्दिनि! तुम्हारी जय हो, जय हो। तुम मुनियोंके समूहरूपी चकोरोंके लिये चन्द्रिकारूप हो। मनुष्य, नाग और देवता तुम्हारी वन्दना करते हैं। हे जह्नुकी पुत्री! तुम्हारी जय हो। तुम भगवान् विष्णुके चरणकमलसे उत्पन्न हुई हो; शिवजीके मस्तकपर शोभा पाती हो; स्वर्ग, भूमि और पाताल—इन तीन मार्गोंसे तीन धाराओंमें होकर बहती हो। पुण्योंकी राशि और पापोंको धोनेवाली हो॥ १॥ तुम अगाध निर्मल जलको धारण किये हो, वह जल शीतल और तीनों तापोंका हरनेवाला है। तुम सुन्दर भँवर और अति चंचल तरंगोंकी माला धारण किये हो। नगर-निवासियोंने पूजाके समय जो सामग्रियाँ भेंट चढ़ायी हैं उनसे तुम्हारी चन्द्रमाके समान धवल धारा शोभित हो रही है। वह धारा संसारके जन्म-मरणरूप भारको नाश करनेवाली तथा भक्तिरूपी कल्पवृक्षकी रक्षाके लिये थाल्हारूप है॥ २॥ तुम अपने तीरपर रहनेवाले पक्षी, जलचर, थलचर, पशु, पतंग, कीट और जटाधारी तपस्वी आदि सबका समानभावसे पालन करती हो। हे मोहरूपी महिषासुरको मारनेके लिये कालिकारूप गंगाजी! मुझ तुलसीदासको ऐसी बुद्धि दो कि जिससे वह श्रीरघुनाथजीका स्मरण करता हुआ तुम्हारे तीरपर विचरा करे॥ ३॥
विषय (हिन्दी)
(१८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयति जय सुरसरी जगदखिल-पावनी।
विष्णु-पदकंज-मकरंद इव अम्बुवर वहसि, दुख दहसि, अघवृन्द-विद्राविनी॥ १॥
मिलित जलपात्र-अज युक्त-हरिचरणरज, विरज-वर-वारि त्रिपुरारि शिर-धामिनी।
जह्नु-कन्या धन्य, पुण्यकृत सगर-सुत, भूधरद्रोणि-विद्दरणि, बहुनामिनी॥ २॥
यक्ष, गंधर्व, मुनि, किन्नरोरग, दनुज, मनुज मज्जहिं सुकृत-पुंज युत-कामिनी।
स्वर्ग-सोपान, विज्ञान-ज्ञानप्रदे, मोह-मद-मदन-पाथोज-हिमयामिनी॥ ३॥
हरित गंभीर वानीर दुहुँ तीरवर, मध्य धारा विशद, विश्व अभिरामिनी।
नील-पर्यंक-कृत-शयन सर्पेश जनु, सहस सीसावली स्रोत सुर-स्वामिनी॥ ४॥
अमित-महिमा, अमितरूप, भूपावली-मुकुट-मनिवंद्य त्रैलोक पथगामिनी।
देहि रघुबीर-पद-प्रीति निर्भर मातु, दासतुलसी त्रासहरणि भवभामिनी॥ ५॥
मूल
जयति जय सुरसरी जगदखिल-पावनी।
विष्णु-पदकंज-मकरंद इव अम्बुवर वहसि, दुख दहसि, अघवृन्द-विद्राविनी॥ १॥
मिलित जलपात्र-अज युक्त-हरिचरणरज, विरज-वर-वारि त्रिपुरारि शिर-धामिनी।
जह्नु-कन्या धन्य, पुण्यकृत सगर-सुत, भूधरद्रोणि-विद्दरणि, बहुनामिनी॥ २॥
यक्ष, गंधर्व, मुनि, किन्नरोरग, दनुज, मनुज मज्जहिं सुकृत-पुंज युत-कामिनी।
स्वर्ग-सोपान, विज्ञान-ज्ञानप्रदे, मोह-मद-मदन-पाथोज-हिमयामिनी॥ ३॥
हरित गंभीर वानीर दुहुँ तीरवर, मध्य धारा विशद, विश्व अभिरामिनी।
नील-पर्यंक-कृत-शयन सर्पेश जनु, सहस सीसावली स्रोत सुर-स्वामिनी॥ ४॥
अमित-महिमा, अमितरूप, भूपावली-मुकुट-मनिवंद्य त्रैलोक पथगामिनी।
देहि रघुबीर-पद-प्रीति निर्भर मातु, दासतुलसी त्रासहरणि भवभामिनी॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे गंगाजी! तुम्हारी जय हो, जय हो। तुम सम्पूर्ण संसारको पवित्र करनेवाली हो। विष्णुभगवान् के चरण-कमलके मकरन्दरसके समान सुन्दर जल धारण करनेवाली हो। दुःखोंको भस्म करनेवाली और पापोंके समूहका नाश करनेवाली हो॥ १॥ भगवान् की चरणरजसे मिश्रित तुम्हारा निर्मल सुन्दर जल ब्रह्माजीके कमण्डलुमें भरा रहता है, तुम शिवजीके मस्तकपर रहनेवाली हो। हे जाह्नवी! तुम्हें धन्य है। तुमने सगरके साठ हजार पुत्रोंका उद्धार कर दिया। तुम पर्वतोंकी कन्दराओंको विदीर्ण करनेवाली हो। तुम्हारे अनेक नाम हैं॥ २॥ जो यक्ष, गन्धर्व, मुनि, किन्नर, नाग, दैत्य और मनुष्य अपनी स्त्रियोंसहित तुम्हारे जलमें स्नान करते हैं, वे अनन्त पुण्योंके भागी हो जाते हैं। तुम स्वर्गकी निसेनी हो और ज्ञान-विज्ञान प्रदान करनेवाली हो। मोह, मद और कामरूपी कमलोंके नाशके लिये तुम शिशिर-ऋतुकी रात्रि हो॥ ३॥ तुम्हारे दोनों सुन्दर तीरोंपर हरे और घने बेंतके वृक्ष लगे हैं और उनके बीचमें संसारको सुख पहुँचानेवाली तुम्हारी विशाल निर्मल धारा बह रही है, यह ऐसा सुन्दर दृश्य है मानो नीले रंगके पलंगपर सहस्र फनवाले शेषनाग सो रहे हैं। हे देवताओंकी स्वामिनी! तुम्हारे हजारों सोते शेषजीकी फनावली-जैसे शोभित हो रहे हैं॥ ४॥ तुम्हारी असीम महिमा है, अगणित रूप हैं, राजाओंकी मुकुटमणियोंसे तुम वन्दनीय हो। हे तीनों मार्गोंसे जानेवाली! हे शिवप्रिये!! हे भव-भयहारिणी जननी!!! मुझ तुलसीदासको श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें अनन्य प्रेम दो॥ ५॥
विषय (हिन्दी)
(१९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
हरनि पाप त्रिबिध ताप सुमिरत सुरसरित।
बिलसति महि कल्प-बेलि मुद-मनोरथ-फरित॥ १॥
सोहत ससि धवल धार सुधा-सलिल-भरित।
बिमलतर तरंग लसत रघुबरके-से चरित॥ २॥
तो बिनु जगदंब गंग कलिजुग का करित?
घोर भव अपारसिंधु तुलसी किमि तरित॥ ३॥
मूल
हरनि पाप त्रिबिध ताप सुमिरत सुरसरित।
बिलसति महि कल्प-बेलि मुद-मनोरथ-फरित॥ १॥
सोहत ससि धवल धार सुधा-सलिल-भरित।
बिमलतर तरंग लसत रघुबरके-से चरित॥ २॥
तो बिनु जगदंब गंग कलिजुग का करित?
घोर भव अपारसिंधु तुलसी किमि तरित॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे गंगाजी! स्मरण करते ही तुम पापों और दैहिक, दैविक, भौतिक—इन तीनों तापोंको हर लेती हो। आनन्द और मनोकामनाओंके फलोंसे फली हुई कल्पलताके सदृश तुम पृथ्वीपर शोभित हो रही हो॥ १॥ अमृतके समान मधुर एवं मृत्युसे छुड़ानेवाले जलसे भरी हुई तुम्हारी चन्द्रमाके सदृश धवल धारा शोभा पा रही है। उसमें निर्मल रामचरित्रके समान अत्यन्त निर्मल तरंगें उठ रही हैं॥ २॥ हे जगज्जननी गंगाजी! तुम न होतीं तो पता नहीं कलियुग क्या-क्या अनर्थ करता और यह तुलसीदास घोर अपार संसार-सागरसे कैसे तरता?॥ ३॥
विषय (हिन्दी)
(२०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईस-सीस बससि, त्रिपथ लससि, नभ-पताल-धरनि।
सुर-नर-मुनि-नाग-सिद्ध-सुजन मंगल-करनि॥ १॥
देखत दुख-दोष-दुरित-दाह-दारिद-दरनि।
सगर-सुवन साँसति-समनि, जलनिधि जल भरनि॥ २॥
महिमाकी अवधि करसि बहु बिधि हरि-हरनि।
तुलसी करु बानि बिमल, बिमल बारि बरनि॥ ३॥
मूल
ईस-सीस बससि, त्रिपथ लससि, नभ-पताल-धरनि।
सुर-नर-मुनि-नाग-सिद्ध-सुजन मंगल-करनि॥ १॥
देखत दुख-दोष-दुरित-दाह-दारिद-दरनि।
सगर-सुवन साँसति-समनि, जलनिधि जल भरनि॥ २॥
महिमाकी अवधि करसि बहु बिधि हरि-हरनि।
तुलसी करु बानि बिमल, बिमल बारि बरनि॥ ३॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे गंगाजी! तुम शिवजीके सिरपर विराजती हो; आकाश, पाताल और पृथ्वी—इन तीनों मार्गोंसे बहती हुई शोभायमान होती हो। देवता, मनुष्य, मुनि, नाग, सिद्ध और सज्जनोंका तुम कल्याण करती हो॥ १॥ तुम देखते ही दुःख, दोष, पाप, ताप और दरिद्रताका नाश कर देती हो। तुमने सगरके साठ हजार पुत्रोंको यम-यातनासे छुड़ा दिया। जलनिधि समुद्रमें तुम सदा जल भरा करती हो॥ २॥ ब्रह्माके कमण्डलुमें रहकर, विष्णुके चरणसे निकलकर और शिवजीके मस्तकपर विराजकर तुम्हींने तीनोंकी महिमा बढ़ा रखी है। हे गंगाजी! जैसा तुम्हारा निर्मल पापनाशक जल है, तुलसीदासकी वाणीको भी वैसी ही निर्मल बना दो, जिससे वह सर्वपापनाशक रामचरितका गान कर सके॥ ३॥