विषय (हिन्दी)
(३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
को जाँचिये संभु तजि आन।
दीनदयालु भगत-आरति-हर, सब प्रकार समरथ भगवान॥ १॥
कालकूट-जुर जरत सुरासुर, निज पन लागि किये बिष पान।
दारुन दनुज, जगत-दुखदायक, मारेउ त्रिपुर एक ही बान॥ २॥
जो गति अगम महामुनि दुर्लभ, कहत संत, श्रुति, सकल पुरान।
सो गति मरन-काल अपने पुर, देत सदासिव सबहिं समान॥ ३॥
सेवत सुलभ, उदार कलपतरु, पारबती-पति परम सुजान।
देहु काम-रिपु राम-चरन-रति, तुलसिदास कहँ कृपानिधान॥ ४॥
मूल
को जाँचिये संभु तजि आन।
दीनदयालु भगत-आरति-हर, सब प्रकार समरथ भगवान॥ १॥
कालकूट-जुर जरत सुरासुर, निज पन लागि किये बिष पान।
दारुन दनुज, जगत-दुखदायक, मारेउ त्रिपुर एक ही बान॥ २॥
जो गति अगम महामुनि दुर्लभ, कहत संत, श्रुति, सकल पुरान।
सो गति मरन-काल अपने पुर, देत सदासिव सबहिं समान॥ ३॥
सेवत सुलभ, उदार कलपतरु, पारबती-पति परम सुजान।
देहु काम-रिपु राम-चरन-रति, तुलसिदास कहँ कृपानिधान॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—भगवान् शिवजीको छोड़कर और किससे याचना की जाय? आप दीनोंपर दया करनेवाले, भक्तोंके कष्ट हरनेवाले और सब प्रकारसे समर्थ ईश्वर हैं॥ १॥ समुद्र-मन्थनके समय जब कालकूट विषकी ज्वालासे सब देवता और राक्षस जल उठे, तब आप अपने दीनोंपर दया करनेके प्रणकी रक्षाके लिये तुरंत उस विषको पी गये। जब दारुण दानव त्रिपुरासुर जगत् को बहुत दुःख देने लगा, तब आपने उसको एक ही बाणसे मार डाला॥ २॥ जिस परम गतिको संत-महात्मा, वेद और सब पुराण महान् मुनियोंके लिये भी दुर्लभ बताते हैं, हे सदाशिव! वही परम गति काशीमें मरनेपर आप सभीको समानभावसे देते हैं॥ ३॥ हे पार्वतीपति! हे परम सुजान!! सेवा करनेपर आप सहजमें ही प्राप्त हो जाते हैं, आप कल्पवृक्षके समान मुँहमाँगा फल देनेवाले उदार हैं, आप कामदेवके शत्रु हैं। अतएव, हे कृपानिधान! तुलसीदासको श्रीरामके चरणोंकी प्रीति दीजिये॥ ४॥
राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
दानी कहुँ संकर-सम नाहीं।
दीन-दयालु दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं॥ १॥
मारिकै मार थप्यौ जगमें, जाकी प्रथम रेख भट माहीं।
ता ठाकुर कौ रीझि निवाजिबौ, कह्यौ क्यों परत मो पाहीं॥ २॥
जोग कोटि करि जो गति हरिसों, मुनि माँगत सकुचाहीं।
बेद-बिदित तेहि पद पुरारि-पुर, कीट पतंग समाहीं॥ ३॥
ईस उदार उमापति परिहरि, अनत जे जाचन जाहीं।
तुलसिदास ते मूढ़ माँगने, कबहुँ न पेट अघाहीं॥ ४॥
मूल
दानी कहुँ संकर-सम नाहीं।
दीन-दयालु दिबोई भावै, जाचक सदा सोहाहीं॥ १॥
मारिकै मार थप्यौ जगमें, जाकी प्रथम रेख भट माहीं।
ता ठाकुर कौ रीझि निवाजिबौ, कह्यौ क्यों परत मो पाहीं॥ २॥
जोग कोटि करि जो गति हरिसों, मुनि माँगत सकुचाहीं।
बेद-बिदित तेहि पद पुरारि-पुर, कीट पतंग समाहीं॥ ३॥
ईस उदार उमापति परिहरि, अनत जे जाचन जाहीं।
तुलसिदास ते मूढ़ माँगने, कबहुँ न पेट अघाहीं॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—शंकरके समान दानी कहीं नहीं है। वे दीनदयालु हैं, देना ही उनके मन भाता है, माँगनेवाले उन्हें सदा सुहाते हैं॥ १॥ वीरोंमें अग्रणी कामदेवको भस्म करके फिर बिना ही शरीर जगत् में उसे रहने दिया, ऐसे प्रभुका प्रसन्न होकर कृपा करना मुझसे क्योंकर कहा जा सकता है?॥ २॥ करोड़ों प्रकारसे योगकी साधना करके मुनिगण जिस परम गतिको भगवान् हरिसे माँगते हुए सकुचाते हैं वही परम गति त्रिपुरारि शिवजीकी पुरी काशीमें कीट-पतंग भी पा जाते हैं, यह वेदोंसे प्रकट है॥ ३॥ ऐसे परम उदार भगवान् पार्वतीपतिको छोड़कर जो लोग दूसरी जगह माँगने जाते हैं, उन मूर्ख माँगनेवालोंका पेट भलीभाँति कभी नहीं भरता॥ ४॥
विषय (हिन्दी)
(५)
विश्वास-प्रस्तुतिः
बावरो रावरो नाह भवानी।
दानि बड़ो दिन देत दये बिनु, बेद-बड़ाई भानी॥ १॥
निज घरकी बरबात बिलोकहु, हौ तुम परम सयानी।
सिवकी दई संपदा देखत, श्री-सारदा सिहानी॥ २॥
जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुखकी नहीं निसानी।
तिन रंकनकौ नाक सँवारत, हौं आयो नकबानी॥ ३॥
दुख-दीनता दुखी इनके दुख, जाचकता अकुलानी।
यह अधिकार सौंपिये औरहिं, भीख भली मैं जानी॥ ४॥
प्रेम-प्रसंसा-बिनय-ब्यंगजुत, सुनि बिधिकी बर बानी।
तुलसी मुदित महेस मनहिं मन, जगत-मातु मुसुकानी॥ ५॥
मूल
बावरो रावरो नाह भवानी।
दानि बड़ो दिन देत दये बिनु, बेद-बड़ाई भानी॥ १॥
निज घरकी बरबात बिलोकहु, हौ तुम परम सयानी।
सिवकी दई संपदा देखत, श्री-सारदा सिहानी॥ २॥
जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुखकी नहीं निसानी।
तिन रंकनकौ नाक सँवारत, हौं आयो नकबानी॥ ३॥
दुख-दीनता दुखी इनके दुख, जाचकता अकुलानी।
यह अधिकार सौंपिये औरहिं, भीख भली मैं जानी॥ ४॥
प्रेम-प्रसंसा-बिनय-ब्यंगजुत, सुनि बिधिकी बर बानी।
तुलसी मुदित महेस मनहिं मन, जगत-मातु मुसुकानी॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—(ब्रह्माजी लोगोंका भाग्य बदलते-बदलते हैरान होकर पार्वतीजीके पास जाकर कहने लगे) हे भवानी! आपके नाथ (शिवजी) पागल हैं। सदा देते ही रहते हैं। जिन लोगोंने कभी किसीको दान देकर बदलेमें पानेका कुछ भी अधिकार नहीं प्राप्त किया, ऐसे लोगोंको भी वे दे डालते हैं, जिससे वेदकी मर्यादा टूटती है॥ १॥ आप बड़ी सयानी हैं, अपने घरकी भलाई तो देखिये (यों देते-देते घर खाली होने लगा है, अनधिकारियोंको) शिवजीकी दी हुई अपार सम्पत्ति देख-देखकर लक्ष्मी और सरस्वती भी (व्यंगसे) आपकी बड़ाई कर रही हैं॥ २॥ जिन लोगोंके मस्तकपर मैंने सुखका नाम-निशान भी नहीं लिखा था, आपके पति शिवजीके पागलपनके कारण उन कंगालोंके लिये स्वर्ग सजाते-सजाते मेरे नाकों दम आ गया है॥ ३॥ कहीं भी रहनेको जगह न पाकर दीनता और दुःखियोंके दुःख भी दुःखी हो रहे हैं और याचकता तो व्याकुल हो उठी है। लोगोंकी भाग्यलिपि बनानेका यह अधिकार कृपाकर आप किसी दूसरेको सौंपिये, मैं तो इस अधिकारकी अपेक्षा भीख माँगकर खाना अच्छा समझता हूँ॥ ४॥ इस प्रकार ब्रह्माजीकी प्रेम, प्रशंसा, विनय और व्यंगसे भरी हुई सुन्दर वाणी सुनकर महादेवजी मन-ही-मन मुदित हुए और जगज्जननी पार्वती मुसकराने लगीं॥ ५॥
राग रामकली
विषय (हिन्दी)
(६)
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाँचिये गिरिजापति कासी।
जासु भवन अनिमादिक दासी॥ १॥
औढर-दानि द्रवत पुनि थोरें।
सकत न देखि दीन करजोरें॥ २॥
सुख-संपति, मति-सुगति सुहाई।
सकल सुलभ संकर-सेवकाई॥ ३॥
गये सरन आरतिकै लीन्हे।
निरखि निहाल निमिषमहँ कीन्हे॥ ४॥
तुलसिदास जाचक जस गावै।
बिमल भगति रघुपतिकी पावै॥ ५॥
मूल
जाँचिये गिरिजापति कासी।
जासु भवन अनिमादिक दासी॥ १॥
औढर-दानि द्रवत पुनि थोरें।
सकत न देखि दीन करजोरें॥ २॥
सुख-संपति, मति-सुगति सुहाई।
सकल सुलभ संकर-सेवकाई॥ ३॥
गये सरन आरतिकै लीन्हे।
निरखि निहाल निमिषमहँ कीन्हे॥ ४॥
तुलसिदास जाचक जस गावै।
बिमल भगति रघुपतिकी पावै॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—पार्वतीपति शिवजीसे ही याचना करनी चाहिये, जिनका घर काशी है और अणिमा, गरिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व नामक आठों सिद्धियाँ जिनकी दासी हैं॥ १॥ शिवजी महाराज औढरदानी हैं, थोड़ी-सी सेवासे ही पिघल जाते हैं। वह दीनोंको हाथ जोड़े खड़ा नहीं देख सकते, उनकी कामना बहुत शीघ्र पूरी कर देते हैं॥ २॥ शंकरकी सेवासे सुख, सम्पत्ति, सुबुद्धि और उत्तम गति आदि सभी पदार्थ सुलभ हो जाते हैं॥ ३॥ जो आतुर जीव उनकी शरण गये, उन्हें शिवजीने तुरंत अपना लिया और देखते ही पलभरमें सबको निहाल कर दिया॥ ४॥ भिखारी तुलसीदास भी यश गाता है, इसे भी रामकी निर्मल भक्तिकी भीख मिले!॥ ५॥
विषय (हिन्दी)
(७)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस न दीनपर द्रवहु उमाबर।
दारुन बिपति हरन करुनाकर॥ १॥
बेद-पुरान कहत उदार हर।
हमरि बेर कस भयेहु कृपिनतर॥ २॥
कवनि भगति कीन्ही गुन निधि द्विज।
होइ प्रसन्न दीन्हेहु सिव पद निज॥ ३॥
जो गति अगम महामुनि गावहिं।
तव पुर कीट पतंगहु पावहिं॥ ४॥
देहु काम-रिपु! राम-चरन-रति।
तुलसिदास प्रभु! हरहु भेद-मति॥ ५॥
मूल
कस न दीनपर द्रवहु उमाबर।
दारुन बिपति हरन करुनाकर॥ १॥
बेद-पुरान कहत उदार हर।
हमरि बेर कस भयेहु कृपिनतर॥ २॥
कवनि भगति कीन्ही गुन निधि द्विज।
होइ प्रसन्न दीन्हेहु सिव पद निज॥ ३॥
जो गति अगम महामुनि गावहिं।
तव पुर कीट पतंगहु पावहिं॥ ४॥
देहु काम-रिपु! राम-चरन-रति।
तुलसिदास प्रभु! हरहु भेद-मति॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे उमा-रमण! आप इस दीनपर कैसे कृपा नहीं करते? हे करुणाकी खानि! आप घोर विपत्तियोंके हरनेवाले हैं॥ १॥ वेद-पुराण कहते हैं कि शिवजी बड़े उदार हैं, फिर मेरे लिये आप इतने अधिक कृपण कैसे हो गये?॥ २॥ गुणनिधि नामक ब्राह्मणने आपकी कौन-सी भक्ति की थी, जिसपर प्रसन्न होकर आपने उसे अपना कल्याणपद दे दिया॥ ३॥ जिस परम गतिको महान् मुनिगण भी दुर्लभ बतलाते हैं, वह आपकी काशीपुरीमें कीट-पतंगोंको भी मिल जाती है॥ ४॥ हे कामारि शिव! हे स्वामी!! तुलसीदासकी भेद-बुद्धि हरणकर उसे श्रीरामके चरणोंकी भक्ति दीजिये॥ ५॥
विषय (हिन्दी)
(८)
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव बड़े, दाता बड़े, संकर बड़े भोरे।
किये दूर दुख सबनिके, जिन्ह-जिन्ह कर जोरे॥ १॥
सेवा, सुमिरन, पूजिबौ, पात आखत थोरे।
दिये जगत जहँ लगि सबै, सुख, गज, रथ, घोरे॥ २॥
गाँव बसत बामदेव, मैं कबहूँ न निहोरे।
अधिभौतिक बाधा भई, ते किंकर तोरे॥ ३॥
बेगि बोलि बलि बरजिये, करतूति कठोरे।
तुलसी दलि, रूँध्यो चहैं सठ साखि सिहोरे॥ ४॥
मूल
देव बड़े, दाता बड़े, संकर बड़े भोरे।
किये दूर दुख सबनिके, जिन्ह-जिन्ह कर जोरे॥ १॥
सेवा, सुमिरन, पूजिबौ, पात आखत थोरे।
दिये जगत जहँ लगि सबै, सुख, गज, रथ, घोरे॥ २॥
गाँव बसत बामदेव, मैं कबहूँ न निहोरे।
अधिभौतिक बाधा भई, ते किंकर तोरे॥ ३॥
बेगि बोलि बलि बरजिये, करतूति कठोरे।
तुलसी दलि, रूँध्यो चहैं सठ साखि सिहोरे॥ ४॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे शंकर! आप बड़े देव हैं, बड़े दानी हैं और बड़े भोले हैं। जिन-जिन लोगोंने आपके सामने हाथ जोड़े, आपने बिना भेद-भावके उन सब लोगोंके दुःख दूर कर दिये॥ १॥ आपकी सेवा, स्मरण और पूजनमें तो थोड़े-से बेलपत्र और चावलोंसे ही काम चल जाता है, परंतु इनके बदलेमें आप हाथी, रथ, घोड़े और जगत् में जितने सुखके पदार्थ हैं, सो सभी दे डालते हैं॥ २॥ हे वामदेव! मैं आपके गाँव (काशी)-में रहता हूँ, मैंने कभी आपसे कुछ माँगा नहीं, अब आधिभौतिक कष्टके रूपमें ये आपके किंकरगण मुझे सताने लगे हैं॥ ३॥ इसलिये आप इन कठोर कर्म करनेवालोंको जल्दी बुलाकर डाँट दीजिये, मैं आपकी बलैया लेता हूँ, क्योंकि ये दुष्ट तुलसीदासरूपी तुलसीके पेड़को कुचलकर उसकी जगह शाखोट (सहोर)-के पेड़ लगाना चाहते हैं॥ ४॥
विषय (हिन्दी)
(९)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिव! सिव! होइ प्रसन्न करु दाया ।
करुनामय उदार कीरति, बलि जाउँ हरहु निज माया॥ १॥
जलज-नयन, गुन-अयन, मयन-रिपु, महिमा जान न कोई।
बिनु तव कृपा राम-पद-पंकज, सपनेहुँ भगति न होई॥ २॥
रिषय, सिद्ध, मुनि, मनुज, दनुज, सुर, अपर जीव जग माहीं।
तव पद बिमुख न पार पाव कोउ, कलप कोटि चलि जाहीं॥ ३॥
अहिभूषन, दूषन-रिपु-सेवक, देव-देव, त्रिपुरारी।
मोह-निहार-दिवाकर संकर, सरन सोक-भयहारी॥ ४॥
गिरिजा-मन-मानस-मराल, कासीस, मसान-निवासी।
तुलसिदास हरि-चरन-कमल-बर, देहु भगति अबिनासी॥ ५॥
मूल
सिव! सिव! होइ प्रसन्न करु दाया ।
करुनामय उदार कीरति, बलि जाउँ हरहु निज माया॥ १॥
जलज-नयन, गुन-अयन, मयन-रिपु, महिमा जान न कोई।
बिनु तव कृपा राम-पद-पंकज, सपनेहुँ भगति न होई॥ २॥
रिषय, सिद्ध, मुनि, मनुज, दनुज, सुर, अपर जीव जग माहीं।
तव पद बिमुख न पार पाव कोउ, कलप कोटि चलि जाहीं॥ ३॥
अहिभूषन, दूषन-रिपु-सेवक, देव-देव, त्रिपुरारी।
मोह-निहार-दिवाकर संकर, सरन सोक-भयहारी॥ ४॥
गिरिजा-मन-मानस-मराल, कासीस, मसान-निवासी।
तुलसिदास हरि-चरन-कमल-बर, देहु भगति अबिनासी॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे कल्याणरूप शिवजी! प्रसन्न होकर दया कीजिये। आप करुणामय हैं, आपकी कीर्ति सब ओर फैली हुई है, मैं बलिहारी जाता हूँ, कृपापूर्वक अपनी माया हर लीजिये॥ १॥ आपके नेत्र कमलके समान हैं, आप सर्वगुणसम्पन्न हैं, कामदेवके शत्रु हैं। आपकी कृपा बिना न तो कोई आपकी महिमा जान सकता है और न श्रीरामके चरणकमलोंमें स्वप्नमें भी उसकी भक्ति होती है॥ २॥ ऋषि, सिद्ध, मुनि, मनुष्य, दैत्य, देवता और जगत् में जितने जीव हैं, वे सब आपके चरणोंसे विमुख रहते हुए करोड़ों कल्प बीत जानेपर भी संसार-सागरका पार नहीं पा सकते॥ ३॥ सर्प आपके भूषण हैं, दूषणको मारनेवाले (और सारे दोषोंको हरनेवाले) भगवान् श्रीरामके आप सेवक हैं, आप देवाधिदेव हैं, त्रिपुरासुरका संहार करनेवाले हैं। हे शंकर! आप मोहरूपी कोहरेका नाश करनेके लिये साक्षात् सूर्य हैं, शरणागत जीवोंका शोक और भय हरण करनेवाले हैं॥ ४॥ हे काशीपते! हे श्मशाननिवासी!! हे पार्वतीके मनरूपी मानसरोवरमें विहार करनेवाले राजहंस!!! तुलसीदासको श्रीहरिके श्रेष्ठ चरणकमलोंमें अनपायिनी भक्तिका वरदान दीजिये॥ ५॥
राग धनाश्री
विषय (हिन्दी)
(१०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव, मोह-तम-तरणि, हर, रुद्र, शंकर, शरण, हरण, मम शोक लोकाभिरामं।
बाल-शशि-भाल, सुविशाल लोचन-कमल, काम-सतकोटि-लावण्य-धामं॥ १॥
कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-विग्रह रुचिर, तरुण-रवि-कोटि तनु तेज भ्राजै।
भस्म सर्वांग अर्धांग शैलात्मजा, व्याल-नृकपाल-माला विराजै॥ २॥
मौलिसंकुल जटा-मुकुट विद्युच्छटा, तटिनि-वर-वारि हरि-चरण-पूतं।
श्रवण कुंडल, गरल कंठ, करुणाकंद, सच्चिदानंद वंदेऽवधूतं॥ ३॥
शूल-शायक पिनाकासि-कर, शत्रु-वन-दहन इव धूमध्वज, वृषभ-यानं।
व्याघ्र-गज-चर्म-परिधान, विज्ञान-घन, सिद्ध-सुर-मुनि-मनुज-सेव्यमानं॥ ४॥
तांडवित-नृत्यपर, डमरु डिंडिम प्रवर, अशुभ इव भाति कल्याणराशी।
महाकल्पांत ब्रह्मांड-मंडल-दवन, भवन कैलास, आसीन काशी॥ ५॥
तज्ञ, सर्वज्ञ, यज्ञेश, अच्युत, विभो, विश्व भवदंशसंभव पुरारी।
ब्रह्मेंद्र, चंद्रार्क, वरुणाग्नि, वसु, मरुत, यम, अर्चि भवदंघ्रि सर्वाधिकारी॥ ६॥
अकल, निरुपाधि, निर्गुण, निरंजन, ब्रह्म, कर्म-पथमेकमज निर्विकारं।
अखिलविग्रह, उग्ररूप, शिव, भूपसुर, सर्वगत, शर्व सर्वोपकारं॥ ७॥
ज्ञान-वैराग्य, धन-धर्म, कैवल्य-सुख, सुभग सौभाग्य शिव! सानुकूलं।
तदपि नर मूढ आरूढ संसार-पथ, भ्रमत भव, विमुख तव पादमूलं॥ ८॥
नष्टमति, दुष्ट अति, कष्ट-रत, खेद-गत, दास तुलसी शंभु-शरण आया।
देहि कामारि! श्रीराम-पद-पंकजे भक्ति अनवरत गत-भेद-माया॥ ९॥
मूल
देव, मोह-तम-तरणि, हर, रुद्र, शंकर, शरण, हरण, मम शोक लोकाभिरामं।
बाल-शशि-भाल, सुविशाल लोचन-कमल, काम-सतकोटि-लावण्य-धामं॥ १॥
कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-विग्रह रुचिर, तरुण-रवि-कोटि तनु तेज भ्राजै।
भस्म सर्वांग अर्धांग शैलात्मजा, व्याल-नृकपाल-माला विराजै॥ २॥
मौलिसंकुल जटा-मुकुट विद्युच्छटा, तटिनि-वर-वारि हरि-चरण-पूतं।
श्रवण कुंडल, गरल कंठ, करुणाकंद, सच्चिदानंद वंदेऽवधूतं॥ ३॥
शूल-शायक पिनाकासि-कर, शत्रु-वन-दहन इव धूमध्वज, वृषभ-यानं।
व्याघ्र-गज-चर्म-परिधान, विज्ञान-घन, सिद्ध-सुर-मुनि-मनुज-सेव्यमानं॥ ४॥
तांडवित-नृत्यपर, डमरु डिंडिम प्रवर, अशुभ इव भाति कल्याणराशी।
महाकल्पांत ब्रह्मांड-मंडल-दवन, भवन कैलास, आसीन काशी॥ ५॥
तज्ञ, सर्वज्ञ, यज्ञेश, अच्युत, विभो, विश्व भवदंशसंभव पुरारी।
ब्रह्मेंद्र, चंद्रार्क, वरुणाग्नि, वसु, मरुत, यम, अर्चि भवदंघ्रि सर्वाधिकारी॥ ६॥
अकल, निरुपाधि, निर्गुण, निरंजन, ब्रह्म, कर्म-पथमेकमज निर्विकारं।
अखिलविग्रह, उग्ररूप, शिव, भूपसुर, सर्वगत, शर्व सर्वोपकारं॥ ७॥
ज्ञान-वैराग्य, धन-धर्म, कैवल्य-सुख, सुभग सौभाग्य शिव! सानुकूलं।
तदपि नर मूढ आरूढ संसार-पथ, भ्रमत भव, विमुख तव पादमूलं॥ ८॥
नष्टमति, दुष्ट अति, कष्ट-रत, खेद-गत, दास तुलसी शंभु-शरण आया।
देहि कामारि! श्रीराम-पद-पंकजे भक्ति अनवरत गत-भेद-माया॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे शिव! मोहान्धकारका नाश करनेके लिये आप साक्षात् सूर्य हैं। हे हर! हे रुद्र! हे शरण्य! हे लोकाभिराम! आप मेरा शोक हरण करनेवाले हैं, आपके मस्तकपर द्वितीयाका बाल-चन्द्र शोभा पा रहा है, आपके बड़े-बड़े नेत्र कमलके समान हैं। आप सौ करोड़ कामदेवके समान सुन्दरताके भण्डार हैं॥ १॥ आपकी सुन्दर मूर्ति शंख, कुन्द, चन्द्रमा और कपूरके समान शुभ्रवर्ण है; करोड़ों मध्याह्नके सूर्योंके समान आपके शरीरका तेज झलमला रहा है; समस्त शरीरमें भस्म लगी हुई है। आधे अंगमें हिमाचल-कन्या पार्वतीजी शोभित हो रही हैं; साँपों और नर-कपालोंकी माला आपके गलेमें विराज रही है॥ २॥ मस्तकपर बिजलीके समान चमकते हुए पिंगलवर्ण जटा-जूटका मुकुट है तथा भगवान् श्रीहरिके चरणोंसे पवित्र हुई गंगाजीका श्रेष्ठ जल शोभित है। कानोंमें कुंडल हैं; कण्ठमें हलाहल विष झलक रहा है; ऐसे करुणाकन्द सच्चिदानन्दस्वरूप, अवधूतवेश भगवान् शिवजीकी मैं वन्दना करता हूँ॥ ३॥ आपके करकमलोंमें शूल, बाण, धनुष और तलवार है; शत्रुरूपी वनको भस्म करनेके लिये आप अग्निके समान हैं। बैल आपकी सवारी है। बाघ और हाथीका चमड़ा आप शरीरमें लपेटे हुए हैं। आप विज्ञानघन हैं यानी आपके ज्ञानमें कहीं कभी अवकाश नहीं है तथा आप सिद्ध, देव, मुनि, मनुष्य आदिके द्वारा सेवित हैं॥ ४॥ आप ताण्डव-नृत्य करते हुए सुन्दर डमरूको डिमडिम-डिमडिम बजाते हैं, देखनेमें अशुभरूप प्रतीत होनेपर भी आप कल्याणकी खानि हैं। महाप्रलयके समय आप सारे ब्रह्माण्डको भस्म कर डालते हैं, कैलास आपका भवन है और काशीमें आप आसन लगाये रहते हैं॥ ५॥ आप तत्त्वके जाननेवाले हैं, सर्वज्ञ हैं, यज्ञोंके स्वामी हैं, विभु (व्यापक) हैं, सदा अपने स्वरूपमें स्थित रहते हैं। हे पुरारि! यह सारा विश्व आपके ही अंशसे उत्पन्न है। ब्रह्मा, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य, वरुण, अग्नि, आठ वसु, उनचास मरुत् और यम आपके चरणोंकी पूजा करनेसे ही सर्वाधिकारी बने हैं॥ ६॥ आप कलारहित हैं, उपाधिरहित हैं, निर्गुण हैं, निर्लेप हैं, परब्रह्म हैं। कर्म-पथमें एक ही हैं, जन्मरहित और निर्विकार हैं। सारा विश्व आपकी ही मूर्ति है, आपका रूप बड़ा उग्र होनेपर भी आप मंगलमय हैं, आप देवताओंके स्वामी हैं, सर्वव्यापी हैं, संहारकर्ता होते हुए भी सबका उपकार करनेवाले हैं॥ ७॥ हे शिव! आप जिसपर अनुकूल होते हैं उसको ज्ञान, वैराग्य, धन-धर्म, कैवल्य-सुख (मोक्ष) और सुन्दर सौभाग्य आदि सब सहज ही मिल जाते हैं; तो भी खेद है कि मूर्ख मनुष्य आपकी चरणसेवासे मुँह मोड़कर संसारके विकट पथपर इधर-उधर भटकते फिरते हैं॥ ८॥ हे शम्भो! हे कामारि!! मैं नष्ट-बुद्धि, अत्यन्त दुष्ट, कष्टोंमें पड़ा हुआ, दुःखी तुलसीदास आपकी शरण आया हूँ; आप मुझे श्रीरामके चरणारविन्दमें ऐसी अनन्य एवं अटल भक्ति दीजिये जिससे भेदरूप मायाका नाश हो जाय॥ ९॥
भैरवरूप शिव-स्तुति
विषय (हिन्दी)
(११)
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव, भीषणाकार, भैरव, भयंकर, भूत-प्रेत-प्रमथाधिपति, विपति-हर्ता।
मोह-मूषक-मार्जार, संसार-भय-हरण, तारण-तरण, अभय कर्ता॥ १॥
अतुल बल, विपुल विस्तार, विग्रह गौर, अमल अति धवल धरणीधराभं।
शिरसि संकुलित-कल-जूट पिंगलजटा, पटल शत-कोटि-विद्युच्छटाभं॥ २॥
भ्राज विबुधापगा आप पावन परम, मौलि-मालेव शोभा विचित्रं।
ललित लल्लाटपर राज रजनीशकल, कलाधर, नौमि हर धनद-मित्रं॥ ३॥
इंदु-पावक-भानु-नयन, मर्दन-मयन, गुण-अयन, ज्ञान-विज्ञान-रूपं।
रमण-गिरिजा, भवन भूधराधिप सदा, श्रवण कुंडल, वदनछवि अनूपं॥ ४॥
चर्म-असि-शूल-धर, डमरु-शर-चाप-कर, यान वृषभेश, करुणा-निधानं।
जरत सुर-असुर, नरलोक शोकाकुलं, मृदुल चित, अजित, कृत गरलपानं॥ ५॥
भस्म तनु-भूषणं, व्याघ्र-चर्माम्बरं, उरग-नर-मौलि उर मालधारी।
डाकिनी, शाकिनी, खेचरं, भूचरं, यंत्र-मंत्र-भंजन, प्रबल कल्मषारी॥ ६॥
काल अतिकाल, कलिकाल, व्यालादि-खग, त्रिपुर-मर्दन, भीम-कर्म भारी।
सकल लोकान्त-कल्पान्त शूलाग्र कृत दिग्गजाव्यक्त-गुण नृत्यकारी॥ ७॥
पाप-संताप-घनघोर संसृति दीन, भ्रमत जग योनि नहिं कोपि त्राता।
पाहि भैरव-रूप राम-रूपी रुद्र, बंधु, गुरु, जनक, जननी, विधाता॥ ८॥
यस्य गुण-गण गणति विमल मति शारदा, निगम नारद-प्रमुख ब्रह्मचारी।
शेष, सर्वेश, आसीन आनंदवन, दास तुलसी प्रणत-त्रासहारी॥ ९॥
मूल
देव, भीषणाकार, भैरव, भयंकर, भूत-प्रेत-प्रमथाधिपति, विपति-हर्ता।
मोह-मूषक-मार्जार, संसार-भय-हरण, तारण-तरण, अभय कर्ता॥ १॥
अतुल बल, विपुल विस्तार, विग्रह गौर, अमल अति धवल धरणीधराभं।
शिरसि संकुलित-कल-जूट पिंगलजटा, पटल शत-कोटि-विद्युच्छटाभं॥ २॥
भ्राज विबुधापगा आप पावन परम, मौलि-मालेव शोभा विचित्रं।
ललित लल्लाटपर राज रजनीशकल, कलाधर, नौमि हर धनद-मित्रं॥ ३॥
इंदु-पावक-भानु-नयन, मर्दन-मयन, गुण-अयन, ज्ञान-विज्ञान-रूपं।
रमण-गिरिजा, भवन भूधराधिप सदा, श्रवण कुंडल, वदनछवि अनूपं॥ ४॥
चर्म-असि-शूल-धर, डमरु-शर-चाप-कर, यान वृषभेश, करुणा-निधानं।
जरत सुर-असुर, नरलोक शोकाकुलं, मृदुल चित, अजित, कृत गरलपानं॥ ५॥
भस्म तनु-भूषणं, व्याघ्र-चर्माम्बरं, उरग-नर-मौलि उर मालधारी।
डाकिनी, शाकिनी, खेचरं, भूचरं, यंत्र-मंत्र-भंजन, प्रबल कल्मषारी॥ ६॥
काल अतिकाल, कलिकाल, व्यालादि-खग, त्रिपुर-मर्दन, भीम-कर्म भारी।
सकल लोकान्त-कल्पान्त शूलाग्र कृत दिग्गजाव्यक्त-गुण नृत्यकारी॥ ७॥
पाप-संताप-घनघोर संसृति दीन, भ्रमत जग योनि नहिं कोपि त्राता।
पाहि भैरव-रूप राम-रूपी रुद्र, बंधु, गुरु, जनक, जननी, विधाता॥ ८॥
यस्य गुण-गण गणति विमल मति शारदा, निगम नारद-प्रमुख ब्रह्मचारी।
शेष, सर्वेश, आसीन आनंदवन, दास तुलसी प्रणत-त्रासहारी॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—हे भीषणमूर्ति भैरव! आप भयंकर हैं। भूत, प्रेत और गणोंके स्वामी हैं। विपत्तियोंके हरण करनेवाले हैं। मोहरूपी चूहेके लिये आप बिलाव हैं; जन्म-मरणरूप संसारके भयको दूर करनेवाले हैं; सबको तारनेवाले, स्वयं मुक्तरूप और सबको अभय करनेवाले हैं॥ १॥ आपका बल अतुलनीय है तथा अति विशाल शरीर गौरवर्ण, निर्मल, उज्ज्वल और शेषनागकी-सी कान्तिवाला है। सिरपर सुन्दर पीले रंगका सौ करोड़ बिजलियोंके समान आभावाला जटाजूट शोभित हो रहा है॥ २॥ मस्तकपर मालाकी तरह विचित्र शोभावाली, परम पवित्र जलमयी देवनदी गंगा विराजमान है। सुन्दर ललाटपर चन्द्रमाकी कमनीय कला शोभा दे रही है, ऐसे कुबेरके मित्र शिवजीको मैं नमस्कार करता हूँ॥ ३॥ चन्द्रमा, अग्नि और सूर्य आपके नेत्र हैं; आप कामदेवका दमन करनेवाले हैं, गुणोंके भण्डार और ज्ञान-विज्ञानरूप हैं। पार्वतीके साथ आप विहार करते हैं और सदा ही पर्वतराज कैलास आपका भवन है। आपके कानोंमें कुण्डल हैं और आपके मुखकी सुन्दरता अनुपम है॥ ४॥ आप ढाल, तलवार और शूल धारण किये हुए हैं; आपके हाथोंमें डमरू, बाण और धनुष हैं। बैल आपकी सवारी है और आप करुणाके खजाने हैं। आपकी करुणाका इसीसे पता लगता है कि आप समुद्रसे निकले हुए भयानक अजेय विषकी ज्वालासे देवता, राक्षस और मनुष्यलोकको जलता हुआ और शोकमें व्याकुल देखकर करुणाके वश होकर उसे स्वयं पी गये॥ ५॥ भस्म आपके शरीरका भूषण है, आप बाघंबर धारण किये हुए हैं। आपने साँपों और नरमुण्डोंकी माला हृदयपर धारण कर रखी है। डाकिनी, शाकिनी, खेचर (आकाशमें विचरनेवाली दुष्ट आत्माओं), भूचर (पृथ्वीपर विचरनेवाले भूत-प्रेत आदि) तथा यन्त्र-मन्त्रका आप नाश करनेवाले हैं। प्रबल पापोंको पलभरमें नष्ट कर डालते हैं॥ ६॥ आप कालके भी महाकाल हैं, कलिकालरूपी सर्पोंके लिये आप गरुड़ हैं। त्रिपुरासुरका मर्दन करनेवाले तथा और बड़े-बड़े भयानक कार्य करनेवाले हैं। समस्त लोकोंके नाश करनेवाले महाप्रलयके समय अपनी त्रिशूलकी नोकसे दिग्गजोंको छेदकर आप गुणातीत होकर नृत्य करते हैं॥ ७॥ इस पाप-सन्तापसे पूर्ण भयानक संसारमें मैं दीन होकर चौरासी लाख योनियोंमें भटक रहा हूँ, मुझे कोई भी बचानेवाला नहीं है। हे भैरवरूप! हे रामरूपी रुद्र!! आप ही मेरे बन्धु, गुरु, पिता, माता और विधाता हैं। मेरी रक्षा कीजिये॥ ८॥ जिनके गुणोंका निर्मल बुद्धिवाली सरस्वती, वेद और नारद आदि ब्रह्मज्ञानी तथा शेषजी सदा गान करते हैं, तुलसीदास कहते हैं, वे भक्तोंको अभय प्रदान करनेवाले सर्वेश्वर शिवजी आनन्दवन काशीमें विराजमान हैं॥ ९॥
विषय (हिन्दी)
(१२)
विश्वास-प्रस्तुतिः
शंकरं, शंप्रदं, सज्जनानंददं,
शैल-कन्या-वरं, परमरम्यं।
काम-मद-मोचनं, तामरस-लोचनं,
वामदेवं भजे भावगम्यं॥ १॥
कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-गौरं शिवं,
सुंदरं, सच्चिदानंदकंदं।
सिद्ध-सनकादि-योगींद्र-वृंदारका,
विष्णु-विधि-वन्द्य चरणारविंदं॥ २॥
ब्रह्म-कुल-वल्लभं, सुलभ मति दुर्लभं,
विकट-वेषं, विभुं, वेदपारं।
नौमि करुणाकरं, गरल-गंगाधरं,
निर्मलं, निर्गुणं, निर्विकारं॥ ३॥
लोकनाथं, शोक-शूल-निर्मूलिनं,
शूलिनं मोह-तम-भूरि-भानुं।
कालकालं, कलातीतमजरं, हरं,
कठिन-कलिकाल-कानन-कृशानुं॥ ४॥
तज्ञमज्ञान-पाथोधि-घटसंभवं,
सर्वगं, सर्वसौभाग्यमूलं।
प्रचुर-भव-भंजनं, प्रणत-जन-रंजनं,
दास तुलसी शरण सानुकूलं॥ ५॥
मूल
शंकरं, शंप्रदं, सज्जनानंददं,
शैल-कन्या-वरं, परमरम्यं।
काम-मद-मोचनं, तामरस-लोचनं,
वामदेवं भजे भावगम्यं॥ १॥
कंबु-कुंदेंदु-कर्पूर-गौरं शिवं,
सुंदरं, सच्चिदानंदकंदं।
सिद्ध-सनकादि-योगींद्र-वृंदारका,
विष्णु-विधि-वन्द्य चरणारविंदं॥ २॥
ब्रह्म-कुल-वल्लभं, सुलभ मति दुर्लभं,
विकट-वेषं, विभुं, वेदपारं।
नौमि करुणाकरं, गरल-गंगाधरं,
निर्मलं, निर्गुणं, निर्विकारं॥ ३॥
लोकनाथं, शोक-शूल-निर्मूलिनं,
शूलिनं मोह-तम-भूरि-भानुं।
कालकालं, कलातीतमजरं, हरं,
कठिन-कलिकाल-कानन-कृशानुं॥ ४॥
तज्ञमज्ञान-पाथोधि-घटसंभवं,
सर्वगं, सर्वसौभाग्यमूलं।
प्रचुर-भव-भंजनं, प्रणत-जन-रंजनं,
दास तुलसी शरण सानुकूलं॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—कल्याणकारी, कल्याणके दाता, संतजनोंको आनन्द देनेवाले, हिमाचलकन्या पार्वतीके पति, परम रमणीय, कामदेवके घमण्डको चूर्ण करनेवाले, कमलनेत्र, भक्तिसे प्राप्त होनेवाले महादेवका मैं भजन करता हूँ॥ १॥ जिनका शरीर शंख, कुन्द, चन्द्र और कपूरके समान चिकना, कोमल, शीतल, श्वेत और सुगन्धित है; जो कल्याणरूप, सुन्दर और सच्चिदानन्द कन्द हैं। सिद्ध, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, योगिराज, देवता, विष्णु और ब्रह्मा जिनके चरणारविन्दकी वन्दना किया करते हैं॥ २॥ जिनको ब्राह्मणोंका कुल प्रिय है; जो संतोंको सुलभ और दुर्जनोंको दुर्लभ हैं; जिनका वेष बड़ा विकराल है; जो विभु हैं और वेदोंसे अतीत हैं; जो करुणाकी खान हैं; गरलको (कण्ठमें) और गंगाको (मस्तकपर) धारण करनेवाले हैं; ऐसे निर्मल, निर्गुण और निर्विकार शिवजीको मैं नमस्कार करता हूँ॥ ३॥ जो लोकोंके स्वामी, शोक और शूलको निर्मूल करनेवाले; त्रिशूलधारी तथा महान् मोहान्धकारको नाश करनेवाले सूर्य हैं। जो कालके भी काल हैं, कलातीत हैं, अजर हैं, आवागमनरूप संसारको हरनेवाले और कठिन कलिकालरूपी वनको जलानेके लिये अग्नि हैं॥ ४॥ यह तुलसीदास उन तत्त्ववेत्ता, अज्ञानरूपी समुद्रके सोखनेके लिये अगस्त्यरूप, सर्वान्तर्यामी, सब प्रकारके सौभाग्यकी जड़, जन्म-मरणरूप अपार संसारका नाश करनेवाले, शरणागत जनोंको सुख देनेवाले, सदा सानुकूल शिवजीकी शरण है॥ ५॥
राग वसन्त
विषय (हिन्दी)
(१३)
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवहु सिव-चरन-सरोज-रेनु।
कल्यान-अखिल-प्रद कामधेनु॥ १॥
कर्पूर-गौर, करुना-उदार।
संसार-सार, भुजगेन्द्र-हार॥ २॥
सुख-जन्मभूमि, महिमा अपार।
निर्गुन, गुननायक, निराकार॥ ३॥
त्रयनयन, मयन-मर्दन महेस।
अहँकार निहार-उदित दिनेस॥ ४॥
बर बाल निसाकर मौलि भ्राज।
त्रैलोक-सोकहर प्रमथराज॥ ५॥
जिन्ह कहँ बिधि सुगति न लिखी भाल।
तिन्ह की गति कासीपति कृपाल॥ ६॥
उपकारी कोऽपर हर-समान।
सुर-असुर जरत कृत गरल पान॥ ७॥
बहु कल्प उपायन करि अनेक।
बिनु संभु-कृपा नहिं भव-बिबेक॥ ८॥
बिग्यान-भवन, गिरिसुता-रमन।
कह तुलसिदास मम त्राससमन॥ ९॥
मूल
सेवहु सिव-चरन-सरोज-रेनु।
कल्यान-अखिल-प्रद कामधेनु॥ १॥
कर्पूर-गौर, करुना-उदार।
संसार-सार, भुजगेन्द्र-हार॥ २॥
सुख-जन्मभूमि, महिमा अपार।
निर्गुन, गुननायक, निराकार॥ ३॥
त्रयनयन, मयन-मर्दन महेस।
अहँकार निहार-उदित दिनेस॥ ४॥
बर बाल निसाकर मौलि भ्राज।
त्रैलोक-सोकहर प्रमथराज॥ ५॥
जिन्ह कहँ बिधि सुगति न लिखी भाल।
तिन्ह की गति कासीपति कृपाल॥ ६॥
उपकारी कोऽपर हर-समान।
सुर-असुर जरत कृत गरल पान॥ ७॥
बहु कल्प उपायन करि अनेक।
बिनु संभु-कृपा नहिं भव-बिबेक॥ ८॥
बिग्यान-भवन, गिरिसुता-रमन।
कह तुलसिदास मम त्राससमन॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—सम्पूर्ण कल्याणके देनेवाली कामधेनुकी तरह शिवजीके चरण-कमलकी रजका सेवन करो॥ १॥ वे शिवजी कपूरके समान गौरवर्ण हैं, करुणा करनेमें बड़े उदार हैं, इस अनात्मरूप असार संसारमें आत्मरूप सार-तत्त्व हैं, सर्पोंके राजा वासुकिका हार पहने रहते हैं॥ २॥ वे सुखकी जन्मभूमि हैं—समस्त सुख उन सुखरूपसे ही निकलते हैं, उनकी अपार महिमा है, वे तीनों गुणोंसे अतीत हैं, सब प्रकारके दिव्य गुणोंके स्वामी हैं, वस्तुतः उनका कोई आकार नहीं है॥ ३॥ उनके तीन नेत्र हैं, वे मदनका मर्दन करनेवाले महेश्वर, अहंकाररूप कोहरेके लिये उदय हुए सूर्य हैं॥ ४॥ उनके मस्तकपर सुन्दर बाल चन्द्रमा शोभित है, वे तीनों लोकोंका शोक हरण करनेवाले तथा गणोंके राजा हैं॥ ५॥ विधाताने जिनके मस्तकपर अच्छी गतिका कोई योग नहीं लिखा, काशीनाथ कृपालु शिवजी उनकी गति हैं—शिवजीकी कृपासे वे भी सुगति पा जाते हैं॥ ६॥ श्रीशंकरके समान उपकारी संसारमें दूसरा कौन है, जिन्होंने विषकी ज्वालासे जलते हुए देव-दानवोंको बचानेके लिये स्वयं विष पी लिया॥ ७॥ अनेक कल्पोंतक कितने ही उपाय क्यों न किये जायँ, शिवजीकी कृपा बिना संसारके असली स्वरूपका ज्ञान कभी नहीं हो सकता॥ ८॥ तुलसीदास कहते हैं कि हे विज्ञानके धाम पार्वती-रमण शंकर! आप ही मेरे भयको दूर करनेवाले हैं॥ ९॥
विषय (हिन्दी)
(१४)
विश्वास-प्रस्तुतिः
देखो देखो, बन बन्यो आजु उमाकंत।
मानों देखन तुमहिं आई रितु बसंत॥ १॥
जनु तनुदुति चंपक-कुसुम-माल।
बर बसन नील नूतन तमाल॥ २॥
कलकदलि जंघ, पद कमल लाल।
सूचत कटि केहरि, गति मराल॥ ३॥
भूषन प्रसून बहु बिबिध रंग।
नूपुर किंकिनि कलरव बिहंग॥ ४॥
कर नवल बकुल-पल्लव रसाल।
श्रीफल कुच, कंचुकि लता-जाल॥ ५॥
आनन सरोज, कच मधुप गुंज।
लोचन बिसाल नव नील कंज॥ ६॥
पिक बचन चरित बर बर्हि कीर।
सित सुमन हास, लीला समीर॥ ७॥
कह तुलसिदास सुनु सिव सुजान।
उर बसि प्रपंच रचे पंचबान॥ ८॥
करि कृपा हरिय भ्रम-फंद काम।
जेहि हृदय बसहिं सुखरासि राम॥ ९॥
मूल
देखो देखो, बन बन्यो आजु उमाकंत।
मानों देखन तुमहिं आई रितु बसंत॥ १॥
जनु तनुदुति चंपक-कुसुम-माल।
बर बसन नील नूतन तमाल॥ २॥
कलकदलि जंघ, पद कमल लाल।
सूचत कटि केहरि, गति मराल॥ ३॥
भूषन प्रसून बहु बिबिध रंग।
नूपुर किंकिनि कलरव बिहंग॥ ४॥
कर नवल बकुल-पल्लव रसाल।
श्रीफल कुच, कंचुकि लता-जाल॥ ५॥
आनन सरोज, कच मधुप गुंज।
लोचन बिसाल नव नील कंज॥ ६॥
पिक बचन चरित बर बर्हि कीर।
सित सुमन हास, लीला समीर॥ ७॥
कह तुलसिदास सुनु सिव सुजान।
उर बसि प्रपंच रचे पंचबान॥ ८॥
करि कृपा हरिय भ्रम-फंद काम।
जेहि हृदय बसहिं सुखरासि राम॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
भावार्थ—देखिये, शिवजी! आज आप वन बन गये हैं। आपके अर्द्धांगमें स्थित श्रीपार्वतीजी मानो वसन्त-ऋतु बनकर आपको देखने आयी हैं॥ १॥ आपके शरीरकी कान्ति मानो चम्पाके फूलोंकी माला है, सुन्दर नीले वस्त्र नवीन तमाल-पत्र हैं॥ २॥ सुन्दर जंघाएँ केलेके वृक्ष और चरण लाल कमल हैं, पतली कमर सिंहकी और सुन्दर चाल हंसकी सूचना दे रही है॥ ३॥ गहने अनेक रंगोंके बहुत-से फूल हैं, नूपुर (पैंजनी) और किंकिणी (करधनी) पक्षियोंका सुमधुर शब्द है॥ ४॥ हाथ मौलसिरी और आमके पत्ते हैं, स्तन बेलके फल और चोली लताओंका जाल है॥ ५॥ मुख कमल और बाल गूँजते हुए भौंरे हैं, विशाल नेत्र नवीन नील कमलकी पंखड़ियाँ हैं॥ ६॥ मधुर वचन कोयल तथा सुन्दर चरित्र मोर और तोते हैं, हँसी सफेद फूल और लीला शीतल-मन्द-सुगन्ध समीर है॥ ७॥ तुलसीदास कहते हैं कि हे परम ज्ञानी शिवजी! यह कामदेव मेरे हृदयमें बसकर बड़ा प्रपंच रचता है॥ ८॥ इस कामकी भ्रम-फाँसीको काट डालिये, जिससे सुखस्वरूप श्रीराम मेरे हृदयमें सदा निवास करें॥ ९॥