दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
रैनि को भूषन इंदु है, दिवस को भूषन भानु।
दास को भूषन भक्ति है, भक्ति को भूषन ग्यानु॥ ४३॥
ग्यान को भूषन ध्यान है, ध्यान को भूषन त्याग।
त्याग को भूषन शांतिपद, तुलसी अमल अदाग॥ ४४॥
मूल
रैनि को भूषन इंदु है, दिवस को भूषन भानु।
दास को भूषन भक्ति है, भक्ति को भूषन ग्यानु॥ ४३॥
ग्यान को भूषन ध्यान है, ध्यान को भूषन त्याग।
त्याग को भूषन शांतिपद, तुलसी अमल अदाग॥ ४४॥
अनुवाद (हिन्दी)
रात्रिका भूषण (शोभा) चन्द्रमा है, दिनका भूषण सूर्य है, सेवक-(भक्त) का भूषण भक्ति है, भक्तिका भूषण ज्ञान है, ज्ञानका भूषण ध्यान है, ध्यानका भूषण त्याग है। तुलसीदासजी कहते हैं कि त्यागका भूषण शान्तिपद (भगवान् का शान्तिमय परमपद) है, जो (सर्वथा) निर्मल और निष्कलंक है॥ ४३-४४॥
चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमल अदाग शांतिपद सारा।
सकल कलेस न करत प्रहारा॥
तुलसी उर धारै जो कोई।
रहै अनंद सिंधु महँ सोई॥
बिबिध पाप संभव जो तापा।
मिटहिं दोष दुख दुसह कलापा॥
परम सांति सुख रहै समाई।
तहँ उतपात न भेदै आई॥
तुलसी ऐसे सीतल संता।
सदा रहै एहि भाँति एकंता॥
कहा करै खल लोग भुजंगा।
कीन्ह्यौ गरल-सील जो अंगा॥
मूल
अमल अदाग शांतिपद सारा।
सकल कलेस न करत प्रहारा॥
तुलसी उर धारै जो कोई।
रहै अनंद सिंधु महँ सोई॥
बिबिध पाप संभव जो तापा।
मिटहिं दोष दुख दुसह कलापा॥
परम सांति सुख रहै समाई।
तहँ उतपात न भेदै आई॥
तुलसी ऐसे सीतल संता।
सदा रहै एहि भाँति एकंता॥
कहा करै खल लोग भुजंगा।
कीन्ह्यौ गरल-सील जो अंगा॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह निर्मल और निष्कलंक शान्तिपद ही सार (तत्त्व) है। (इसकी प्राप्ति होनेपर) कोई भी क्लेश प्रहार (आक्रमण) नहीं करते (अर्थात् इस स्थितिमें समस्त अविद्याजनित क्लेशोंका नाश हो जाता है)। तुलसीदासजी कहते हैं जो कोई इसे हृदयमें धारण कर लेता है, वह आनन्दसागरमें निमग्न रहता है। विविध पापोंसे उत्पन्न जो ताप (कष्ट) हैं तथा जो दोष एवं असह्य दुःखसमूह हैं, वे मिट जाते हैं और वह उस परमशान्तिरूप सुखमें समा जाता है कि जहाँ कोई भी उत्पात आकर प्रवेश नहीं कर सकता। तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसे शीतल (शान्त) संत सदा इसी प्रकार एकान्तमें (केवल एक शान्तिपदरूप परमात्माके परमपदमें) ही निवास करते हैं। जिन्होंने अपने अंगोंको विषस्वभाव बना लिया है, ऐसे सर्परूप दुष्टलोग उन-(संतों) का क्या (बिगाड़) कर सकते हैं॥ ४५—४७॥
दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति सीतल अतिही अमल, सकल कामना हीन।
तुलसी ताहि अतीत गनि, बृत्ति सांति लयलीन॥ ४८॥
मूल
अति सीतल अतिही अमल, सकल कामना हीन।
तुलसी ताहि अतीत गनि, बृत्ति सांति लयलीन॥ ४८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अत्यन्त शीतल, अत्यन्त ही निर्मल (पवित्र) तथा समस्त कामनाओंसे रहित होता है और जिसकी वृत्ति शान्तिमें लवलीन रहती है, तुलसीदासजी कहते हैं कि उसीको अतीत (गुणातीत) समझना चाहिये॥ ४८॥
चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो कोइ कोप भरे मुख बैना।
सन्मुख हतै गिरा-सर पैना॥
तुलसी तऊ लेस रिस नाहीं।
सो सीतल कहिए जग माहीं॥
मूल
जो कोइ कोप भरे मुख बैना।
सन्मुख हतै गिरा-सर पैना॥
तुलसी तऊ लेस रिस नाहीं।
सो सीतल कहिए जग माहीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं कि यदि कोई क्रोधमें भरकर मुखसे (कठोर वाणी) बोले और सामने ही वचनरूपी तीखे बाणोंकी वर्षा करे तो भी जिसको लेशमात्र भी रोष न हो उसीको जगत् में शीतल (संत) कहते हैं॥ ४९॥
दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात दीप नव खंड लौ, तीनि लोक जग माहिं।
तुलसी सांति समान सुख, अपर दूसरो नाहिं॥ ५०॥
मूल
सात दीप नव खंड लौ, तीनि लोक जग माहिं।
तुलसी सांति समान सुख, अपर दूसरो नाहिं॥ ५०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं कि सातों द्वीप, नवों खण्ड (नहीं-नहीं) तीनों लोक और जगत् भरमें शान्तिके समान दूसरा कोई सुख नहीं है॥ ५०॥
चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहाँ सांति सतगुरु की दई।
तहाँ क्रोध की जर जरि गई॥
सकल काम बासना बिलानी।
तुलसी बहै सांति सहिदानी॥
तुलसी सुखद सांति को सागर।
संतन गायो करन उजागर॥
तामें तन मन रहै समोई।
अहं अगिनि नहिं दाहैं कोई॥
मूल
जहाँ सांति सतगुरु की दई।
तहाँ क्रोध की जर जरि गई॥
सकल काम बासना बिलानी।
तुलसी बहै सांति सहिदानी॥
तुलसी सुखद सांति को सागर।
संतन गायो करन उजागर॥
तामें तन मन रहै समोई।
अहं अगिनि नहिं दाहैं कोई॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ सद्गुरुकी दी हुई शान्ति प्राप्त हुई कि वहीं क्रोधकी जड़ जल गयी और समस्त कामना और वासनाएँ बिला गयीं। तुलसीदासजी कहते हैं कि यही शान्तिकी पहचान है। तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसे संतोंने सुखदायक, शान्तिका समुद्र और (ज्ञानका) प्रकाश करनेवाला बतलाया है, उसमें यदि कोई तन-मनसे समा जाय—लीन हो रहे तो उसे अहंकारकी अग्नि किसी प्रकार नहीं जला सकती॥ ५१-५२॥
दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहंकार की अगिनि में, दहत सकल संसार।
तुलसी बाँचै संतजन, केवल सांति अधार॥ ५३॥
मूल
अहंकार की अगिनि में, दहत सकल संसार।
तुलसी बाँचै संतजन, केवल सांति अधार॥ ५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहंकारकी अग्निमें समस्त संसार जल रहा है। तुलसीदासजी कहते हैं कि केवल संतजन ही शान्तिका आधार लेनेके कारण (उससे) बचते हैं॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महा सांति जल परसि कै, सांत भए जन जोइ।
अहं अगिनि ते नहिं दहैं, कोटि करै जो कोइ॥ ५४॥
मूल
महा सांति जल परसि कै, सांत भए जन जोइ।
अहं अगिनि ते नहिं दहैं, कोटि करै जो कोइ॥ ५४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो (संत) जन महान् शान्तिरूप जलको स्पर्श करके शान्त हो गये हैं, वे अहंकारकी अग्निसे नहीं जलते, चाहे कोई करोड़ों उपाय करे॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेज होत तन तरनि को, अचरज मानत लोइ।
तुलसी जो पानी भया, बहुरि न पावक होइ॥ ५५॥
मूल
तेज होत तन तरनि को, अचरज मानत लोइ।
तुलसी जो पानी भया, बहुरि न पावक होइ॥ ५५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं कि (उस अहंकाररहित संतके) शरीरका तेज सूर्यका-सा हो जाता है, लोग (उसे देख-देखकर) आश्चर्य मानते हैं; परंतु (शान्तिके द्वारा) जो जल (के समान शीतल) हो गया है, वह फिर अग्नि (के समान) नहीं हो सकता (उसमें अहंकारका उदय नहीं होता)॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जद्यपि सीतल सम सुखद, जगमें जीवन प्रान।
तदपि सांति जल जनि गनौ, पावक तेज प्रमान॥ ५६॥
मूल
जद्यपि सीतल सम सुखद, जगमें जीवन प्रान।
तदपि सांति जल जनि गनौ, पावक तेज प्रमान॥ ५६॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि वह शान्तिपद शीतल है, सम है तथा सुखदायक है और जगत् में (संतोंका) जीवन-प्राण है तथापि उसे (साधारण) जल (के समान) मत समझो, (जलके समान शीतल होनेपर भी) उसका तेज अग्निके समान है॥ ५६॥
चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
जरै बरै अरु खीझि खिझावै।
राग द्वेष महँ जनम गँवावै॥
सपनेहुँ सांति नहीं उन देही।
तुलसी जहाँ-जहाँ ब्रत एही॥
मूल
जरै बरै अरु खीझि खिझावै।
राग द्वेष महँ जनम गँवावै॥
सपनेहुँ सांति नहीं उन देही।
तुलसी जहाँ-जहाँ ब्रत एही॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सदा (अहंकार तथा कामनाकी अग्निमें) जलते-बरते रहते हैं, स्वयं क्रोध करके दूसरोंको क्रोधित करते हैं और राग-द्वेषमें ही अपना जन्म (जीवन) खो देते हैं—तुलसीदासजी कहते हैं कि जहाँ-जहाँ ऐसा व्रत है (अर्थात् जिन-जिनका ऐसा स्वभाव है) उनके शरीरमें (जीवनमें) स्वप्नमें भी शान्ति नहीं होती॥ ५७॥
दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोइ पंडित सोइ पारखी, सोई संत सुजान।
सोई सूर सचेत सो, सोई सुभट प्रमान॥ ५८॥
सोइ ग्यानी सोइ गुनी जन, सोई दाता ध्यानि।
तुलसी जाके चित भई, राग द्वेष की हानि॥ ५९॥
मूल
सोइ पंडित सोइ पारखी, सोई संत सुजान।
सोई सूर सचेत सो, सोई सुभट प्रमान॥ ५८॥
सोइ ग्यानी सोइ गुनी जन, सोई दाता ध्यानि।
तुलसी जाके चित भई, राग द्वेष की हानि॥ ५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसके चित्तसे राग-द्वेषका नाश हो गया है, वही पण्डित है, वही (सत्-असत् का) पारखी है; वही चतुर संत है, वही शूरवीर है, वही सावधान है; वही प्रामाणिक योद्धा है, वही ज्ञानी है, वही गुणवान् पुरुष है, वही दाता है और वही ध्यान-सम्पन्न है॥ ५८-५९॥
चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
राग द्वेष की अगिनि बुझानी।
काम क्रोध बासना नसानी॥
तुलसी जबहि सांति गृह आई।
तब उरहीं उर फिरी दोहाई॥
मूल
राग द्वेष की अगिनि बुझानी।
काम क्रोध बासना नसानी॥
तुलसी जबहि सांति गृह आई।
तब उरहीं उर फिरी दोहाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं कि जब राग-द्वेषकी अग्नि बुझ गयी, काम, क्रोध और वासनाका नाश हो गया और घरमें (अन्तःकरणमें) शान्ति आ गयी, तभी हृदयमें भीतर-ही-भीतर (तुरंत रामकी) दोहाई फिर गयी। (फिर अन्तःकरणमें अज्ञान तथा तज्जनित काम-क्रोधादिका साम्राज्य नहीं रहा, वहाँ रामराज्य हो गया, सर्वतोभावसे भगवान् ही छा गये।)॥ ६०॥
दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
फिरी दोहाई राम की, गे कामादिक भाजि।
तुलसी ज्यों रबि कें उदय, तुरत जात तम लाजि॥ ६१॥
मूल
फिरी दोहाई राम की, गे कामादिक भाजि।
तुलसी ज्यों रबि कें उदय, तुरत जात तम लाजि॥ ६१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं कि जब रामकी दोहाई फिर गयी (हृदयमें भगवान् का प्रकाश तथा विस्तार हो गया), तब कामादि (दोष उसी क्षण वैसे ही) भाग गये, जैसे सूर्यके उदय होते ही उसी क्षण अन्धकार लजा (कर भाग) जाता है॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यह बिराग संदीपनी, सुजन सुचित सुनि लेहु।
अनुचित बचन बिचारि के, जस सुधारि तस देहु॥ ६२॥
मूल
यह बिराग संदीपनी, सुजन सुचित सुनि लेहु।
अनुचित बचन बिचारि के, जस सुधारि तस देहु॥ ६२॥
अनुवाद (हिन्दी)
सज्जनो! इस वैराग्य-संदीपनीको सावधान एवं स्थिरचित्तसे सुनो और विचारकर अनुचित वचनोंको जहाँ जैसा उचित हो सुधार दो॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
॥ श्रीगोस्वामी तुलसीदासजीकृत ‘वैराग्य-संदीपनी’ समाप्त॥
मूलम् (समाप्तिः)
॥ श्रीगोस्वामी तुलसीदासजीकृत ‘वैराग्य-संदीपनी’ समाप्त॥
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