दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरल बरन भाषा सरल, सरल अर्थमय मानि।
तुलसी सरलै संतजन, ताहि परी पहिचानि॥ ८॥
मूल
सरल बरन भाषा सरल, सरल अर्थमय मानि।
तुलसी सरलै संतजन, ताहि परी पहिचानि॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसमें सरल अक्षर हैं, इसकी सरल भाषा है, इसे सरल अर्थसे भरी हुई मानना चाहिये। तुलसीदासजी कहते हैं, जो सरल हृदयके संतजन हैं, उनको इसकी पहचान हो गयी है अर्थात् वे इस वैराग्य-संदीपनीको सरलतासे समझते हैं॥ ८॥
चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति सीतल अति ही सुखदाई।
सम दम राम भजन अधिकाई॥
जड़ जीवन कौं करै सचेता।
जग महँ बिचरत है एहि हेता॥
मूल
अति सीतल अति ही सुखदाई।
सम दम राम भजन अधिकाई॥
जड़ जीवन कौं करै सचेता।
जग महँ बिचरत है एहि हेता॥
अनुवाद (हिन्दी)
(संतजन) अत्यन्त शीतल (शान्त-स्वभाव) और अत्यन्त सुखदायक होते हैं। वे मनपर विजय पाये हुए और इन्द्रियोंको दमन करनेवाले तो हैं ही, श्रीराम-भजनकी उनमें विशेषता होती है। वे मूर्ख (संसारासक्त) जीवोंको सचेत करते हैं—सावधान करके भगवान् की ओर लगाते हैं और इसी हेतुसे जगत् में विचरण करते हैं॥ ९॥
दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुलसी ऐसे कहुँ कहूँ, धन्य धरनि वह संत।
परकाजे परमारथी, प्रीति लिये निबहंत॥ १०॥
मूल
तुलसी ऐसे कहुँ कहूँ, धन्य धरनि वह संत।
परकाजे परमारथी, प्रीति लिये निबहंत॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं—ऐसे संत कहीं-कहीं (विरले ही) होते हैं। वह पृथ्वी धन्य है जहाँ ऐसे संत हैं, जो पराये कार्यमें तथा परमार्थमें अर्थात् दूसरोंकी सेवामें और परमार्थ-साधनमें निमग्न रहते हैं तथा प्रीतिके साथ (अपने) इस व्रतका निर्वाह करते हैं॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
की मुख पट दीन्हे रहैं, जथा अर्थ भाषंत।
तुलसी या संसारमें, सो बिचारजुत संत॥ ११॥
मूल
की मुख पट दीन्हे रहैं, जथा अर्थ भाषंत।
तुलसी या संसारमें, सो बिचारजुत संत॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं कि जो या तो मुखपर पर्दा डाले रहता यानी मौन ही रहता है या केवल यथार्थ (सत्य) भाषण करता है, इस संसारमें वही विचारयुक्त (विवेकी) संत है॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोलै बचन बिचारि कै, लीन्हें संत सुभाव।
तुलसी दुख दुर्बचन के, पंथ देत नहिं पाँव॥ १२॥
मूल
बोलै बचन बिचारि कै, लीन्हें संत सुभाव।
तुलसी दुख दुर्बचन के, पंथ देत नहिं पाँव॥ १२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं कि वह संत (साधु) स्वभावको धारण किये हुए विचारकर वचन बोलता है और दुःख तथा दुष्ट वचनके मार्गपर कभी पैर नहीं रखता अर्थात् वह न तो किसीका जी दुखाता है और न दुष्ट वचन बोलता है॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्रु न काहू करि गनै, मित्र गनै नहिं काहि।
तुलसी यह मत संतको, बोलै समता माहि॥ १३॥
मूल
सत्रु न काहू करि गनै, मित्र गनै नहिं काहि।
तुलसी यह मत संतको, बोलै समता माहि॥ १३॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं कि वह न तो किसीको शत्रु करके मानता है और न किसीको मित्र ही मानता है। संतका यही सिद्धान्त है कि वह समतामें ही यानी सबको समान समझकर ही बोलता है॥ १३॥
चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति अनन्यगति इंद्री जीता।
जाको हरि बिनु कतहुँ न चीता॥
मृग तृष्ना सम जग जिय जानी।
तुलसी ताहि संत पहिचानी॥
मूल
अति अनन्यगति इंद्री जीता।
जाको हरि बिनु कतहुँ न चीता॥
मृग तृष्ना सम जग जिय जानी।
तुलसी ताहि संत पहिचानी॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सर्वथा अनन्यगति हो अर्थात् भगवान् के सिवा अन्य किसीको भी इष्ट मानकर न भजता हो, इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त किये हुए हो, जिसका चित्त श्रीहरिको छोड़कर कहीं भी न लगता हो और जो जगत् को अपने जीमें मृगतृष्णाके* समान मिथ्या जानता हो, तुलसीदासजी कहते हैं कि उसीको संत समझो॥ १४॥
पादटिप्पनी
- सूर्यकी किरणोंके पड़नेसे बालूमें जल प्रतीत होता है, परंतु वस्तुतः वहाँ जल नहीं होता और हरिण उसीको जल समझकर प्यास बुझानेके लिये दौड़ता है। उसीको ‘मृगतृष्णा’ कहते हैं।
दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास।
रामरूप स्वाती जलद, चातक तुलसीदास॥ १५॥
मूल
एक भरोसो एक बल, एक आस बिस्वास।
रामरूप स्वाती जलद, चातक तुलसीदास॥ १५॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसको एकमात्र (भगवान् का ही) आश्रय है, एकमात्र (भगवान् का ही जिसको) बल है, एकमात्र (उन्हींसे जिसको) आशा है और (उन्हींका) भरोसा है, (जिसके लिये) भगवान् श्रीरामचन्द्रजीका रूप ही स्वाती नक्षत्रका मेघ है और (जो स्वयं) चातक (की भाँति उन्हींकी ओर देख रहा है,) (वह संत है)॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो जन जगत जहाज है, जाके राग न दोष।
तुलसी तृष्णा त्यागि कै, गहै सील संतोष॥ १६॥
मूल
सो जन जगत जहाज है, जाके राग न दोष।
तुलसी तृष्णा त्यागि कै, गहै सील संतोष॥ १६॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं कि जिसके राग-द्वेष नहीं है और जो तृष्णाको त्यागकर शील तथा संतोषको ग्रहण किये हुए है, वह संत पुरुष जगत् के (लोगोंको भवसागरसे तारनेके) लिये जहाज है॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सील गहनि सब की सहनि, कहनि हीय मुख राम।
तुलसी रहिए एहि रहनि, संत जनन को काम॥ १७॥
मूल
सील गहनि सब की सहनि, कहनि हीय मुख राम।
तुलसी रहिए एहि रहनि, संत जनन को काम॥ १७॥
अनुवाद (हिन्दी)
शील (विनय तथा सुशीलता)-को पकड़े रहना, सबकी कठोर बातों और व्यवहारोंको सहना; हृदयसे और मुखसे सदा राम-(के नाम तथा लीला-गुणोंको) कहते रहना—तुलसीदासजी कहते हैं कि इस रहनीसे रहना ही संतजनोंका काम है॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निज संगी निज सम करत, दुरजन मन दुख दून।
मलयाचल है संतजन, तुलसी दोष बिहून॥ १८॥
मूल
निज संगी निज सम करत, दुरजन मन दुख दून।
मलयाचल है संतजन, तुलसी दोष बिहून॥ १८॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे अपने संगियोंको (जो उनका सत्संग करते हैं, उनको) अपने ही समान बना लेते हैं; किंतु दुर्जनोंके मनका दुःख दूना करते हैं (द्वेषकी अग्निसे जलते हुए दुर्जनलोग संतोंके साथ विशेष द्वेष करके अपने दुःखको बढ़ा लेते हैं)। (परंतु) तुलसीदासजी कहते हैं कि संत तो (वस्तुतः सदा) चन्दनके समान शीतल और दोषरहित ही हैं॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोमल बानी संत की, स्रवत अमृतमय आइ।
तुलसी ताहि कठोर मन, सुनत मैन होइ जाइ॥ १९॥
मूल
कोमल बानी संत की, स्रवत अमृतमय आइ।
तुलसी ताहि कठोर मन, सुनत मैन होइ जाइ॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
संतकी वाणी कोमल होती है, उससे अमृतमय (रस) झरा करता है। तुलसीदासजी कहते हैं कि उसे सुनते ही कठोर मन भी (पिघलाये हुए) मोमके समान (कोमल) हो जाता है॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुभव सुख उतपति करत, भय-भ्रम धरै उठाइ।
ऐसी बानी संत की, जो उर भेदै आइ॥ २०॥
मूल
अनुभव सुख उतपति करत, भय-भ्रम धरै उठाइ।
ऐसी बानी संत की, जो उर भेदै आइ॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
संतकी वाणी ऐसी होती है कि जो अनुभव-सुख-(आत्मानुभूतिके आनन्द) को उत्पन्न करती है, भय और भ्रमको उठाकर अलग रख देती है और आकर हृदयको भेद डालती (हृदयकी अज्ञानग्रन्थिको तोड़ डालती) है॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीतल बानी संत की, ससिहू ते अनुमान।
तुलसी कोटि तपन हरै, जो कोउ धारै कान॥ २१॥
मूल
सीतल बानी संत की, ससिहू ते अनुमान।
तुलसी कोटि तपन हरै, जो कोउ धारै कान॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
संतकी शीतल वाणी चन्द्रमासे भी बढ़कर अनुमान की जाती है, तुलसीदासजी कहते हैं कि जो कोई उसको कानोंमें धारण करता है, उसके करोड़ों तापोंको हर लेती है॥ २१॥
चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाप ताप सब सूल नसावै।
मोह अंध रबि बचन बहावै॥
तुलसी ऐसे सदगुन साधू।
बेद मध्य गुन बिदित अगाधू॥
मूल
पाप ताप सब सूल नसावै।
मोह अंध रबि बचन बहावै॥
तुलसी ऐसे सदगुन साधू।
बेद मध्य गुन बिदित अगाधू॥
अनुवाद (हिन्दी)
संतजन पाप, ताप और सब प्रकारके शूलोंको नष्ट कर देते हैं। उनके सूर्य-सदृश वचन मोहरूपी अन्धकारका नाश कर डालते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि साधु ऐसे सद्गुणी होते हैं। उनके अगाध गुण वेदोंमें विख्यात हैं॥ २२॥
दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
तन करि मन करि बचन करि, काहू दूखत नाहिं।
तुलसी ऐसे संतजन, रामरूप जग माहिं॥ २३॥
मूल
तन करि मन करि बचन करि, काहू दूखत नाहिं।
तुलसी ऐसे संतजन, रामरूप जग माहिं॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो शरीरसे, मनसे और वचनसे किसीपर दोषारोपण नहीं करते, तुलसीदासजी कहते हैं कि जगत् में ऐसे संतजन श्रीरामचन्द्रजीके रूप ही हैं॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुख दीखत पातक हरै, परसत कर्म बिलाहिं।
बचन सुनत मन मोहगत, पूरुब भाग मिलाहिं॥ २४॥
मूल
मुख दीखत पातक हरै, परसत कर्म बिलाहिं।
बचन सुनत मन मोहगत, पूरुब भाग मिलाहिं॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनका मुख दीखते ही पाप नष्ट हो जाते हैं, स्पर्श होते ही कर्म विलीन हो जाते हैं और वचन सुनते ही मनका मोह (अज्ञान) चला जाता है, ऐसे संत पूर्व (जन्मकृत कर्मोंके कारण) सद्भाग्यसे ही मिलते हैं॥ २४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अति कोमल अरु बिमल रुचि, मानस में मल नाहिं।
तुलसी रत मन होइ रहै, अपने साहिब माहिं॥ २५॥
मूल
अति कोमल अरु बिमल रुचि, मानस में मल नाहिं।
तुलसी रत मन होइ रहै, अपने साहिब माहिं॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
(संतजन) अत्यन्त कोमल और निर्मल रुचिवाले होते हैं। उनके मनमें पाप नहीं होता। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे अपने स्वामीमें नित्य लगे हुए मनवाले होते हैं॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाके मन ते उठि गई, तिल-तिल तृष्ना चाहि।
मनसा बाचा कर्मना, तुलसी बंदत ताहि॥ २६॥
मूल
जाके मन ते उठि गई, तिल-तिल तृष्ना चाहि।
मनसा बाचा कर्मना, तुलसी बंदत ताहि॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके मनसे तृष्णा और चाह तिल-तिल उठ गयी है (जरा भी नहीं रही है), तुलसीदास मनसे, वचनसे और कर्मसे उसकी वन्दना करता है॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कंचन काँचहि सम गनै, कामिनि काष्ठ पषान।
तुलसी ऐसे संतजन, पृथ्वी ब्रह्म समान॥२७॥
मूल
कंचन काँचहि सम गनै, कामिनि काष्ठ पषान।
तुलसी ऐसे संतजन, पृथ्वी ब्रह्म समान॥२७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सोने और काँचको समान समझते हैं और स्त्रीको काठ-पत्थर-(के समान देखते हैं), तुलसीदासजी कहते हैं कि ऐसे संतजन पृथ्वीमें (शुद्ध सच्चिदानन्द) ब्रह्मके समान हैं॥ २७॥
चौपाई
विश्वास-प्रस्तुतिः
कंचन को मृतिका करि मानत।
कामिनि काष्ठ सिला पहिचानत॥
तुलसी भूलि गयो रस एहा।
ते जन प्रगट राम की देहा॥
मूल
कंचन को मृतिका करि मानत।
कामिनि काष्ठ सिला पहिचानत॥
तुलसी भूलि गयो रस एहा।
ते जन प्रगट राम की देहा॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सोनेको मिट्टीके समान मानते हैं और स्त्रीको काठ-पत्थरके रूपमें देखते हैं, तुलसीदासजी कहते हैं कि जो इस (विषय) रसको भूल गये हैं, वे (संत) जन श्रीरामचन्द्रजीके मूर्तिमान् शरीर ही हैं॥ २८॥
दोहा
विश्वास-प्रस्तुतिः
आकिंचन इंद्रीदमन, रमन राम इक तार।
तुलसी ऐसे संत जन, बिरले या संसार॥ २९॥
मूल
आकिंचन इंद्रीदमन, रमन राम इक तार।
तुलसी ऐसे संत जन, बिरले या संसार॥ २९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अकिंचन हैं (जिनके पास ममताकी कोई भी वस्तु नहीं है), जो इन्द्रियोंका दमन किये हुए हैं और जो एकतार (निरन्तर) राममें ही रमण करते हैं, तुलसीदासजी कहते हैं ऐसे संतजन इस संसारमें बिरले ही हैं॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहंबाद ‘मैं’ ‘तैं’ नहीं, दुष्ट संग नहिं कोइ।
दुख ते दुख नहिं ऊपजै, सुख तैं सुख नहिं होइ॥ ३०॥
सम कंचन काँचै गिनत, सत्रु मित्र सम दोइ।
तुलसी या संसारमें, कहत संत जन सोइ॥ ३१॥
मूल
अहंबाद ‘मैं’ ‘तैं’ नहीं, दुष्ट संग नहिं कोइ।
दुख ते दुख नहिं ऊपजै, सुख तैं सुख नहिं होइ॥ ३०॥
सम कंचन काँचै गिनत, सत्रु मित्र सम दोइ।
तुलसी या संसारमें, कहत संत जन सोइ॥ ३१॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसमें न तो अहंकार है, न मैं-तू (या मेरा-तेरा) है, जिसके कोई भी दुष्ट संग नहीं है, जिसको दुःख-(दुःखजनक घटना) से दुःख नहीं होता तथा सुखसे हर्ष नहीं होता, जो सोने और काँचको समान समझता है, जिसको शत्रु-मित्र दोनों समान हैं—तुलसीदासजी कहते हैं कि इस संसारमें उसीको संतजन कहते हैं॥ ३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिरले बिरले पाइए, माया त्यागी संत।
तुलसी कामी कुटिल कलि, केकी केक अनंत॥ ३२॥
मूल
बिरले बिरले पाइए, माया त्यागी संत।
तुलसी कामी कुटिल कलि, केकी केक अनंत॥ ३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं कि कलियुगमें मायाका त्याग कर देनेवाले संत कोई-कोई ही मिलते हैं, पर (ऊपरसे मीठा बोलनेवाले और मौका लगते ही साँपोंको खा जानेवाले) मोर-मोरिनी-जैसे कामी-कुटिल लोगोंका अन्त (पार) नहीं है॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मैं तैं मेट्यो मोह तम, उग्यो आतमा भानु।
संत राज सो जानिये, तुलसी या सहिदानु॥ ३३॥
मूल
मैं तैं मेट्यो मोह तम, उग्यो आतमा भानु।
संत राज सो जानिये, तुलसी या सहिदानु॥ ३३॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके आत्मारूपी सूर्यका उदय हो गया और मैं-तू-रूप अज्ञानान्धकारका नाश हो गया, तुलसीदासजी कहते हैं कि उसको संतराज (संतशिरोमणि) जानना चाहिये; क्योंकि यही उसकी पहचान है॥ ३३॥