राग आसावरी
विषय (हिन्दी)
(६०)
विश्वास-प्रस्तुतिः
कहा भयो कपट जुआ जौ हौं हारी।
समर धीर महाबीर पाँच पति
क्यों दैहैं मोहि होन उघारी॥ १॥
राज समाज सभासद समरथ
भीषम द्रोन धर्म धुर धारी।
अबला अनघ अनवसर अनुचित
होति, हेरि करिहैं रखवारी॥ २॥
यों मन गुनति दुसासन दुरजन
तमक्यो तकि गहि दुहुँ कर सारी।
सकुचि गात गोवति कमठी ज्यों
हहरी हृदयँ, बिकल भइ भारी॥ ३॥
अपनेनि को अपनो बिलोकि बल
सकल आस बिस्वास बिसारी।
हाथ उठाइ अनाथनाथ सों
‘पाहि पाहि प्रभु! पाहि’ पुकारी॥ ४॥
तुलसी परखि प्रतीति प्रीति गति
आरतपाल कृपालु मुरारी।
बसन बेष राखी बिसेषि लखि
बिरुदावलि मूरति नर नारी॥ ५॥
मूल
कहा भयो कपट जुआ जौ हौं हारी।
समर धीर महाबीर पाँच पति
क्यों दैहैं मोहि होन उघारी॥ १॥
राज समाज सभासद समरथ
भीषम द्रोन धर्म धुर धारी।
अबला अनघ अनवसर अनुचित
होति, हेरि करिहैं रखवारी॥ २॥
यों मन गुनति दुसासन दुरजन
तमक्यो तकि गहि दुहुँ कर सारी।
सकुचि गात गोवति कमठी ज्यों
हहरी हृदयँ, बिकल भइ भारी॥ ३॥
अपनेनि को अपनो बिलोकि बल
सकल आस बिस्वास बिसारी।
हाथ उठाइ अनाथनाथ सों
‘पाहि पाहि प्रभु! पाहि’ पुकारी॥ ४॥
तुलसी परखि प्रतीति प्रीति गति
आरतपाल कृपालु मुरारी।
बसन बेष राखी बिसेषि लखि
बिरुदावलि मूरति नर नारी॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
(व्रजलीलाके कुछ अति मधुर प्रसङ्गोंका ललित पदोंमें वर्णन करके अब गोसाईंजी महाराज अगले दो पदोंमें द्रौपदी-लज्जा-रक्षणलीला गाकर श्रीकृष्णगीतावली समाप्त करते हैं—) (दुर्योधनके दुष्ट दरबारमें द्रौपदी मन-ही-मन सोचती है—) ‘क्या हुआ जो मैं कपटसे खेले जानेवाले जुएमें हारी गयी। युद्धमें धैर्यशाली महान् शूरवीर मेरे पाँचों पति मुझे क्योंकर नंगी होने देंगे॥ १॥ (कदाचित् हारे हुए वे न भी बोलें तो) इस राजसभामें धर्मकी धुरीको धारण करनेवाले समर्थ सभासद् भीष्मपितामह, आचार्य द्रोण आदि हैं, वे मुझ निष्पाप अबलाके साथ असमयमें अनुचित व्यवहार (अत्याचार) होते देखकर (अवश्य ही मेरी) रक्षा करेंगे’—॥ २॥ यों द्रौपदी (अपने) मनमें सोच ही रही थी कि दुष्ट दुःशासनने उसकी ओर क्रोध भरी दृष्टिसे देखकर दोनों हाथोंसे उसकी साड़ीको पकड़ लिया। द्रौपदी सकुचाकर (अपने) शरीरको कछुईकी भाँति छिपाती हुई काँप उठी और हृदयमें अत्यन्त व्याकुल हो गयी॥ ३॥ अपना और अपने (सहायक)स्वजनों (पाँचों पाण्डवों तथा भीष्म, द्रोणादि)का बल देखकर (उनको बलहीन जानकर) वह सबके आशा-विश्वासको भूल गयी तथा (दोनों) हाथ उठाकर अनाथनाथ (श्रीकृष्ण) को पुकार उठी—‘रक्षा करो, रक्षा करो, प्रभो! (इस असहाय अबलाकी) रक्षा करो’॥ ४॥ तुलसीदासजी कहते हैं कि आर्तकी रक्षा करनेवाले कृपामय मुरारि (श्रीकृष्ण) ने द्रौपदीके विश्वास, प्रेम तथा परायणताको देखकर(तुरंत) वस्त्रका वेष धारण कर लिया और नरावतार अर्जुनकी प्रिया (द्रौपदी) की, उसे अपनी विरदावली (दीनबन्धुता तथा करुणामयता) की (साक्षात्) मूर्ति (परम अधिकारिणी) जानकर, विशेषरूपसे रक्षा की॥ ५॥
विषय (हिन्दी)
(६१)
विश्वास-प्रस्तुतिः
गहगह गगन दुंदुभी बाजी।
बरषि सुमन सुरगन गावत जस,
हरष मगन मुनि सुजन समाजी॥ १॥
सानुज सगन ससचिव सुजोधन
भए मुख मलिन खाइ खल खाजी।
लाज गाज उपवनि कुचाल कलि
परी बजाइ कहूँ कहुँ गाजी॥ २॥
प्रीति प्रतीति द्रुपदतनया की
भली भूरि भय भभरि न भाजी।
कहि पारथ सारथिहि सराहत
गई बहोरि गरीब नेवाजी॥ ३॥
सिथिल सनेह मुदित मनहीं मन
बसन बीच बिच बधू बिराजी।
सभा सिंधु जदुपति जय जय जनु
रमा प्रगटि त्रिभुवन भरि भ्राजी॥ ४॥
जुग जुग जग साके केसव के
समन कलेस कुसाज सुसाजी।
तुलसी को न होइ सुनि कीरति
कृष्न कृपालु भगति पथ राजी॥ ५॥
मूल
गहगह गगन दुंदुभी बाजी।
बरषि सुमन सुरगन गावत जस,
हरष मगन मुनि सुजन समाजी॥ १॥
सानुज सगन ससचिव सुजोधन
भए मुख मलिन खाइ खल खाजी।
लाज गाज उपवनि कुचाल कलि
परी बजाइ कहूँ कहुँ गाजी॥ २॥
प्रीति प्रतीति द्रुपदतनया की
भली भूरि भय भभरि न भाजी।
कहि पारथ सारथिहि सराहत
गई बहोरि गरीब नेवाजी॥ ३॥
सिथिल सनेह मुदित मनहीं मन
बसन बीच बिच बधू बिराजी।
सभा सिंधु जदुपति जय जय जनु
रमा प्रगटि त्रिभुवन भरि भ्राजी॥ ४॥
जुग जुग जग साके केसव के
समन कलेस कुसाज सुसाजी।
तुलसी को न होइ सुनि कीरति
कृष्न कृपालु भगति पथ राजी॥ ५॥
अनुवाद (हिन्दी)
आकाशमें घमाघम नगारे बजने लगे। देवतागण पुष्पोंकी वर्षा करके (भगवान् का) यश गाने लगे। मुनि तथा संतजनोंका समाज हर्षमें मग्न हो गया॥ १॥ अपने मुँहकी खाकर (बुरी तरह हारकर) भाइयों, साथियों और मन्त्रियोंके साथ दुष्ट दुर्योधनका मुख मलिन हो गया। (साक्षात्) कलियुग (की मूर्ति दुर्योधन) की कुचाल (कुचक्र) रूप मेघघटाकी लज्जाहरणरूप बिजली प्रत्यक्षरूपमें गिरी तो कहीं (पाण्डवोंपर), परंतु उसने गर्जनके साथ आघात किया कहीं अन्यत्र (दुर्योधनके पक्षवालोंपर)। (अर्थात् उसकी चली हुई कुचाल उसीके लिये घातक सिद्ध हुई।)॥ २॥ द्रौपदीका (श्रीकृष्णरूप परमात्माके प्रति) प्रेम और विश्वास इतना आदर्श सिद्ध हुआ कि भारी संकटके समक्ष भी वह घबराकर भागा नहीं (बना रहा) सब लोग पार्थ सारथि (भगवान् श्रीकृष्ण) की दीनबन्धुता—(द्रौपदीकी) गयी हुई (लाज) को पुनः लौटा लानेके विरदको बखान-बखानकर उसकी सराहना कर रहे थे॥ ३॥ द्रौपदी प्रेमसे (सम्पूर्णतया) शिथिल और मन-ही-मन प्रमुदित होती हुई वस्त्रोंके (ढेरके) बीचमें विशेष शोभायमान थी। राजसभारूपी समुद्रमें यदुनाथकी जय-जय-ध्वनिरूपी लक्ष्मीजी प्रकट होकर त्रिभुवनमें व्याप्त एवं सुशोभित हो रही थीं। (तीनों लोक भगवान् की जय-ध्वनिसे भर गये थे)॥ ४॥ तुलसीदासजी कहते हैं कि केशवकी यह कीर्ति प्रत्येक युगमें क्लेशका नाश करनेवाली तथा अमङ्गल-सामग्रीको मङ्गलमय सामग्री बना देनेवाली है। कृपामय श्रीकृष्णकी कीर्ति सुनकर ऐसा कौन है जो उनके भक्तिके पथपर प्रसन्नतासे नहीं चलेगा?॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रीकृष्णार्पणमस्तु
मूलम् (समाप्तिः)
श्रीकृष्णार्पणमस्तु