१० शोभा-वर्णन

राग बिलावल

विषय (हिन्दी)

(२१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखु सखी हरि बदन इंदु पर।
चिक्कन कुटिल अलक-अवली-छबि,
कहि न जाइ सोभा अनूप बर॥ १॥
बाल भुअंगिनि निकर मनहुँ मिलि
रहीं घेरि रस जानि सुधाकर।
तजि न सकहिं, नहिं करहिं पान, कहु,
कारन कौन बिचारि डरहिं डर॥ २॥
अरुन बनज लोचन कपोल सुभ,
स्रुति मंडित कुंडल अति सुंदर।
मनहुँ सिंधु निज सुतहि मनावन
पठए जुगुल बसीठ बारिचर॥ ३॥
नंदनँदन मुख की सुंदरता
कहि न सकत स्रुति सेष उमाबर।
तुलसिदास त्रैलोक्यबिमोहन
रूप कपट नर त्रिबिध सूल हर॥ ४॥

मूल

देखु सखी हरि बदन इंदु पर।
चिक्कन कुटिल अलक-अवली-छबि,
कहि न जाइ सोभा अनूप बर॥ १॥
बाल भुअंगिनि निकर मनहुँ मिलि
रहीं घेरि रस जानि सुधाकर।
तजि न सकहिं, नहिं करहिं पान, कहु,
कारन कौन बिचारि डरहिं डर॥ २॥
अरुन बनज लोचन कपोल सुभ,
स्रुति मंडित कुंडल अति सुंदर।
मनहुँ सिंधु निज सुतहि मनावन
पठए जुगुल बसीठ बारिचर॥ ३॥
नंदनँदन मुख की सुंदरता
कहि न सकत स्रुति सेष उमाबर।
तुलसिदास त्रैलोक्यबिमोहन
रूप कपट नर त्रिबिध सूल हर॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

(प्रियतम श्रीकृष्णके मुखचन्द्रको देखकर एक सखी कहती है—) सखी! (प्रियतम) श्यामसुन्दरके मुखचन्द्रपर चिकनी और घुँघराली अलकावलीकी छवि तो देख। उसकी ऐसी अनुपम और श्रेष्ठ शोभा है कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥ १॥ ऐसा लगता है कि मानो बाल नागिनियोंके दलने चन्द्रमाको अमृतरूप जानकर घेर लिया है। पर वे न तो उसे छोड़ ही सकती हैं और न पान ही करती हैं। सोचकर बताओ तो इसका क्या कारण है, वे किस डरसे डरी हुई हैं॥ २॥ श्यामसुन्दरके लाल कमलके सदृश नेत्र हैं, मनोहर कपोल हैं, कान अत्यन्त सुन्दर कुण्डलोंसे सुशोभित हैं। ऐसा लगता है मानो समुद्रने अपने पुत्र (चन्द्रमा) को मनानेके लिये (मकराकृति दो कुण्डलोंके रूपमें) दो जलचरों (मगरों) को दूत बनाकर भेजा है॥ ३॥ नन्दनन्दनके श्रीमुखकी सुन्दरताका वर्णन वेद, शेषजी और पार्वतीपति शंकरजी भी नहीं कर सकते। तुलसीदासजी कहते हैं कि लीलासे मनुष्य बने हुए एवं तीनों लोकोंको विमोहित करनेवाले श्रीकृष्णका यह रूप तीनों (दैहिक, दैविक, भौतिक) तापोंको हर लेता है॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(२२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

आजु उनीदे आए मुरारी।
आलसवंत सुभग लोचन सखि!
छिन मूदत छिन देत उघारी॥ १॥
मनहुँ इंदु पर खंजरीट द्वै
कछुक अरुन बिधि रचे सँवारी।
कुटिल अलक जनु मार फंद कर,
गहे सजग ह्वै रह्यो सँभारी॥ २॥
मनहुँ उड़न चाहत अति चंचल
पलक पंख छिन देत पसारी।
नासिक कीर, बचन पिक, सुनि करि,
संगति मनु गुनि रहत बिचारी॥ ३॥
रुचिर कपोल, चारु कुंडल बर,
भ्रुकुटि सरासन की अनुहारी।
परम चपल तेहि त्रास मनहुँ खग
प्रगटत दुरत न मानत हारी॥ ४॥
जदुपति मुख छबि कलप कोटि लगि
कहि न जाइ जाकें मुख चारी।
तुलसिदास जेहि निरखि ग्वालिनी
भजीं तात पति तनय बिसारी॥ ५॥

मूल

आजु उनीदे आए मुरारी।
आलसवंत सुभग लोचन सखि!
छिन मूदत छिन देत उघारी॥ १॥
मनहुँ इंदु पर खंजरीट द्वै
कछुक अरुन बिधि रचे सँवारी।
कुटिल अलक जनु मार फंद कर,
गहे सजग ह्वै रह्यो सँभारी॥ २॥
मनहुँ उड़न चाहत अति चंचल
पलक पंख छिन देत पसारी।
नासिक कीर, बचन पिक, सुनि करि,
संगति मनु गुनि रहत बिचारी॥ ३॥
रुचिर कपोल, चारु कुंडल बर,
भ्रुकुटि सरासन की अनुहारी।
परम चपल तेहि त्रास मनहुँ खग
प्रगटत दुरत न मानत हारी॥ ४॥
जदुपति मुख छबि कलप कोटि लगि
कहि न जाइ जाकें मुख चारी।
तुलसिदास जेहि निरखि ग्वालिनी
भजीं तात पति तनय बिसारी॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दूसरी सखी बोली—) सखि! आज श्यामसुन्दर यहाँ नींदके बीचसे ही उठकर आ गये हैं, तभी तो वे अपने अलसाते हुए सुन्दर नेत्रोंको क्षण-क्षणमें बंद कर रहे और खोल रहे हैं॥ १॥ (ऐसा लगता है) मानो चन्द्रमण्डलपर ब्रह्माजीने कुछ ललाई लिये हुए दो खंजनोंको सजाकर बना (बैठा) दिया है। (गालोंतक नाचती हुई) घुँघराली अलकें तो मानो कामदेवके फंदे हैं, जिन्हें सावधानीसे हाथमें लेकर वह सँभाले हुए है (और जिनके द्वारा उन खंजनोंको वह फँसाना चाहता है। इसी डरसे) वे खंजन मानो उड़ना चाहते हैं, अत्यन्त चञ्चल होकर क्षण-क्षणमें पलकरूपी पंखोंको फैला देते हैं, पर नासिकारूपी शुक (को देखकर) तथा वचनरूपी कोयलकी (मधुर) वाणीको सुनकर, उन (सब) का साथ देखकर (अपनेको अकेला न समझकर) (उड़ते नहीं,) रह जाते हैं॥ २-३॥ मनोहर कपोल हैं, (कानोंमें) सुन्दर श्रेष्ठ कुण्डल हैं, धनुषके समान टेढ़ी भौंहें हैं। परम चपल (नेत्ररूपी खंजन) पक्षी मानो उसीके (भौंहरूपी धनुषके) भयसे कभी प्रकट हो जाते हैं, कभी छिप जाते हैं; परंतु हार नहीं मान रहे हैं॥ ४॥ तुलसीदासजी कहते हैं कि यदुपति श्रीकृष्णकी मोहिनी मुख-छविका वर्णन चार मुखवाले ब्रह्माजी भी (करना चाहें तो) करोड़ों कल्पोंमें भी नहीं कर सकते, जिस (छवि) को देखकर गोपियोंने अपने पिता, पति तथा पुत्रोंतकको भुला दिया और (इनके समीप) भाग आयीं॥ ५॥

राग गौरी

विषय (हिन्दी)

(२३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोपाल गोकुल बल्लवी प्रिय गोप गोसुत बल्लभं।
चरनारबिंदमहं भजे भजनीय सुर मुनि दुर्लभं॥ १॥
घनश्याम काम अनेक छबि, लोकाभिराम मनोहरं।
किंजल्क बसन, किसोर मूरति भूरि गुन करुनाकरं॥ २॥
सिर केकि पच्छ बिलोल कुंडल, अरुन बनरुह लोचनं।
गुंजावतंस बिचित्र सब अँग धातु, भव भय मोचनं॥ ३॥
कच कुटिल, सुंदर तिलक भ्रू, राका मयंक समाननं।
अपहरन तुलसीदास त्रास बिहार बृंदाकाननं॥ ४॥

मूल

गोपाल गोकुल बल्लवी प्रिय गोप गोसुत बल्लभं।
चरनारबिंदमहं भजे भजनीय सुर मुनि दुर्लभं॥ १॥
घनश्याम काम अनेक छबि, लोकाभिराम मनोहरं।
किंजल्क बसन, किसोर मूरति भूरि गुन करुनाकरं॥ २॥
सिर केकि पच्छ बिलोल कुंडल, अरुन बनरुह लोचनं।
गुंजावतंस बिचित्र सब अँग धातु, भव भय मोचनं॥ ३॥
कच कुटिल, सुंदर तिलक भ्रू, राका मयंक समाननं।
अपहरन तुलसीदास त्रास बिहार बृंदाकाननं॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

(गोपाङ्गनाओंकी इस मिलनलीलाके प्रेमका दिग्दर्शन कराकर अब श्रीतुलसीदासजी विरहलीलाके प्रेमका स्वरूप बतलाना चाहते हैं। श्यामसुन्दर मथुरा पधार गये हैं। एक सखी प्रियतम श्रीकृष्णकी रूपमाधुरीको मानो अपने सामने देखती हुई कहती है कि बस, मैं तो उन सुर-मुनि-दुर्लभ श्रीकृष्ण-चरण-कमलका ही सेवन करूँगी—) श्रीकृष्ण गौओंके रक्षक हैं, हम गोकुलकी ग्वालिनियोंके प्रियतम हैं, गोपों तथा गो-सुतों(बछड़ों)के प्राणप्रिय हैं, भजन करनेयोग्य तो (एकमात्र) उनके चरणारविन्द ही हैं, यद्यपि वे (भक्तिसे शून्य) देव-मुनियोंके लिये भी दुर्लभ हैं; मैं तो बस, उन चरण-कमलोंका ही भजन करती हूँ। (मेरे सर्वस्व तो वे ही हैं)॥ १॥ (अहा!) उन नव-नीरद-श्यामसुन्दरकी अनेक कामदेवोंके समान शोभा है, वे त्रिभुवन-मोहन हैं, सबके मनोंको हरण करनेवाले हैं, कमलके केसर-सदृश पीत पट धारण किये हुए हैं, किशोरमूर्ति हैं, अनन्त गुणोंसे युक्त हैं, करुणाकी खान हैं॥ २॥ उनके सिरपर मयूरपिच्छ शोभित है, कानोंमें कुण्डल नाच रहे हैं, अरुण कमलके सदृश नेत्र हैं, गुंजाओंकी माला है, समस्त अङ्गोंको धातुओंसे चित्रित कर रखा है, वे संसार-भयसे मुक्त करनेवाले हैं॥ ३॥ उनकी घुँघराली टेढ़ी केशराशि है, सुन्दर तिलक है, मनोहर भौंहें हैं, पूर्णिमाके चन्द्रमाके समान मुख है। तुलसीदासजी कहते हैं, वे वृन्दावनविहारी श्यामसुन्दर ही हमारी त्रास हरण करनेमें समर्थ हैं॥ ४॥