०६ उलूखल-बन्धन

राग केदारा

विषय (हिन्दी)

(१४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि को ललित बदन निहारु।
निपटहीं डाँटति निठुर ज्यों लकुट कर तें डारु॥ १॥
मंजु अंजन सहित जल कन चवत लोचन चारु।
स्याम सारस मग मनहुँ ससि स्रवत सुधा सिंगारु॥ २॥
सुभग उर दधि बुंद सुंदर लखि अपनपौ वारु।
मनहुँ मरकत मृदु सिखर पर लसत बिसद तुषारु॥ ३॥
कान्हहू पर सतर भौंहें महरि! मनहिं बिचारु।
दास तुलसी रहति क्यों रिस निरखि नंदकुमारु॥ ४॥

मूल

हरि को ललित बदन निहारु।
निपटहीं डाँटति निठुर ज्यों लकुट कर तें डारु॥ १॥
मंजु अंजन सहित जल कन चवत लोचन चारु।
स्याम सारस मग मनहुँ ससि स्रवत सुधा सिंगारु॥ २॥
सुभग उर दधि बुंद सुंदर लखि अपनपौ वारु।
मनहुँ मरकत मृदु सिखर पर लसत बिसद तुषारु॥ ३॥
कान्हहू पर सतर भौंहें महरि! मनहिं बिचारु।
दास तुलसी रहति क्यों रिस निरखि नंदकुमारु॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्यामसुन्दरने दहीकी मटकी फोड़ दी, माखन बंदरोंको लुटा दिया। यशोदा मैया उन्हें पकड़ने चलीं, वे दौड़े, पर आखिर पकड़े गये। मैयाने छड़ी हाथमें लेकर उन्हें डाँटना आरम्भ किया, वे डर गये, आँखोंसे आँसू बह चले। इसी समय यशोदा मैयाकी समवयस्का कुछ गोपियोंने आकर यशोदासे कहा—)
(अरी यशोदे! सबके मनको बरबस हर लेनेवाले) हरिके सुन्दर मुखकी ओर तो देख। निष्ठुरकी भाँति सर्वथा डाँटनेपर ही उतर पड़ी है। (तुझे दया नहीं आती?) छड़ीको फेंक दे हाथसे॥ १॥ (देख!) सुन्दर नेत्रोंसे कमनीय काजलसे युक्त जलके कण (आँसूकी नन्हीं-नन्हीं बूँदें) किस प्रकार गिर रहे हैं, मानो चन्द्रमासे श्याम कमलके मार्गसे अमृतरूप शृङ्गार-रस स्रवित हो रहा है॥ २॥ (अहा!) शोभामय हृदयपर पड़ी हुई दहीकी बूँद तो ऐसी सुन्दर लगती है कि उसे देखकर अरी सखी! अपनपा (आत्माकी सुध-बुध) ही खो देनी चाहिये, (वह बूँद ऐसी शोभा पा रही है) मानो मरकत मणिके पर्वत-शिखरपर उज्ज्वल हिमखण्ड (बर्फ) सुशोभित हो॥ ३॥ (ऐसे) कन्हैयापर भी टेढ़ी भौंहें—अरी महरि (यशोदे)! मनमें विचार तो कर! तुलसीदासजी कहते हैं कि इस नन्दकुमारको निरखकर क्रोध क्योंकर रह सकता है?॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(१५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

लेत भरि भरि नीर कान्ह कमल नैन।
फरक अधर डर, निरखि लकुट कर, कहि न सकत कछु बैन॥ १॥
दुसह दाँवरी छोरि, थोरी खोरि, कहा कीन्हो,
चीन्हो री सुभाउ तेरो आजु लगे माई मैं न।
तुलसिदास नँद ललन ललित लखि रिस क्यों रहति उर ऐन॥ २॥

मूल

लेत भरि भरि नीर कान्ह कमल नैन।
फरक अधर डर, निरखि लकुट कर, कहि न सकत कछु बैन॥ १॥
दुसह दाँवरी छोरि, थोरी खोरि, कहा कीन्हो,
चीन्हो री सुभाउ तेरो आजु लगे माई मैं न।
तुलसिदास नँद ललन ललित लखि रिस क्यों रहति उर ऐन॥ २॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दूसरी सखी कहती है—) (देख!) कन्हैया अपने नेत्र-कमलोंमें बार-बार जल भरे लेता है (उसकी आँखोंके आँसू सूखते ही नहीं)। तेरे हाथमें छड़ी देखकर डरके मारे उसके होंठ फड़क रहे हैं, वह कुछ भी बोल नहीं पाता॥ १॥ (अरी!) इस कठोर रस्सीको तो खोल दे। थोड़े-से अपराधपर तूने क्या कर डाला। अरी मैया! मैंने आजतक तेरे इस (क्रोधी) स्वभावको नहीं पहचाना था। तुलसीदासजी कहते हैं कि इस मन-मोहन नन्दलालको देखकर भी तेरे हृदय-भवनमें क्रोध क्योंकर टिक पाता है?॥ २॥

विषय (हिन्दी)

(१६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

हा हा री महरि! बारो, कहा रिस बस भई,
कोखि के जाए सों रोषु केतो बड़ो कियो है।
ढीली करि दाँवरी, बावरी! साँवरेहि देखि,
सकुचि सहमि सिसु भारी भय भियो है॥ १॥
दूध दधि माखन भो, लाखन गोधन धन
जब ते जनम हलधर हरि लियो है।
खायो, कै खवायो, कै बिगारॺो, ढारॺो लरिका री,
ऐसे सुत पर कोह, कैसो तेरो हियो है?॥ २॥
मुनि कहैं सुकृती न नंद जसुमति सम
न भयो, न भावी, नहीं विद्यमान बियो है।
कौन जानै कौनें तप, कौनें जोग जाग जप
कान्ह सो सुवन तोको महादेव दियो है॥ ३॥
इन्हही के आए ते बधाए ब्रज नित नए
नादत बाढ़त सब सब सुख जियो है।
नंदलाल बाल जस संत सुर सरबस
गाइ सो अमिय रस तुलसिहुँ पियो है॥ ४॥

मूल

हा हा री महरि! बारो, कहा रिस बस भई,
कोखि के जाए सों रोषु केतो बड़ो कियो है।
ढीली करि दाँवरी, बावरी! साँवरेहि देखि,
सकुचि सहमि सिसु भारी भय भियो है॥ १॥
दूध दधि माखन भो, लाखन गोधन धन
जब ते जनम हलधर हरि लियो है।
खायो, कै खवायो, कै बिगारॺो, ढारॺो लरिका री,
ऐसे सुत पर कोह, कैसो तेरो हियो है?॥ २॥
मुनि कहैं सुकृती न नंद जसुमति सम
न भयो, न भावी, नहीं विद्यमान बियो है।
कौन जानै कौनें तप, कौनें जोग जाग जप
कान्ह सो सुवन तोको महादेव दियो है॥ ३॥
इन्हही के आए ते बधाए ब्रज नित नए
नादत बाढ़त सब सब सुख जियो है।
नंदलाल बाल जस संत सुर सरबस
गाइ सो अमिय रस तुलसिहुँ पियो है॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

(तीसरी सखी बोली—) हाय, हाय! अरी महरि! यह बालक (नादान) है। क्या क्रोधके वश हो रही है? अपनी कोखके जायेपर कितना भारी गुस्सा किया है? रस्सी ढीली कर दे; अरी पगली! इस साँवरे-सलोनेको तो देख। यह सकुच और सहम गया है, बच्चा बड़े भारी भयसे भीत हो रहा है॥ १॥ जबसे इन हलधर (बलराम) और हरि (श्याम) ने जन्म लिया है, तबसे (तेरे घर) दूध, दही, मक्खन (ही नहीं), लाखों गायें तथा अन्य प्रकारका धन हो गया है। अरी, बच्चा ही तो है (क्या हुआ जो) उसने थोड़ा-सा खा लिया या (बंदरोंको) खिला दिया, खराब कर दिया अथवा गिरा दिया। ऐसे (सुन्दर) पुत्रपर क्रोध? तेरा कैसा (वज्रका) हृदय है!॥ २॥ मुनि (गर्गजी) तो कह गये हैं कि नन्द और यशोदाके समान पुण्यवान् (जगत् में) न हुआ, न होगा और न वर्तमानमें ही दूसरा कोई है। जाने किस तप, किस योग, यज्ञ अथवा जपके फलस्वरूप (औढरदानी) श्रीमहादेवजीने तुझे कन्हैया-जैसा पुत्र दिया है॥ ३॥ इन्हीं (भाग्यशाली नीलमणि) के पधारनेसे (आज)व्रजमें नित्य नयी बधाइयाँ बजती हैं, सबकी उन्नति हो रही है, सभी लोग सुखपूर्वक जीवन-यापन कर रहे हैं। इस बालक नन्दलालका यश ही तो संतों (भक्तों) और देवताओंका सर्वस्व है। तुलसीदासजी कहते हैं कि मैंने भी इसका गान करके अमृतरसका पान किया है॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(१७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

ललित लालन निहारि, महरि मन बिचारि,
डारि दै घरबसी लकुटी बेगि कर तें।
कछु न कहि सकत, सुसुकत सकुचत,
डरहू को डर कान्ह डरै तेरे डर तें॥ १॥
कह्यो मेरो मानि, हित जानि, तू सयानी बड़ी,
बड़े भाग पायो पूत बिधि हरि हर तें।
ताहि बाँधिबे को धाई, ग्वालिन गोरस बहाई,
लै लै आईं बावरी दाँवरी घर-घर तें॥ २॥
कुलगुरु तिय के बचन कमनीय सुनि
सुधि भए बचन जे सुने मुनिबर तें।
छोरि, लिए लाइ उर, बरषैं सुमन सुर
मंगल है तिहूँ पुर हरि हलधर तें॥ ३॥
आनँद बधावनो मुदित गोप-गोपीगन,
आजु परी कुसल कठिन करवर तें।
तुलसी जे तोरे तरु, किए देव दियो बरु,
कै न लह्यो कौन फरु देव दामोदर तें॥ ४॥

मूल

ललित लालन निहारि, महरि मन बिचारि,
डारि दै घरबसी लकुटी बेगि कर तें।
कछु न कहि सकत, सुसुकत सकुचत,
डरहू को डर कान्ह डरै तेरे डर तें॥ १॥
कह्यो मेरो मानि, हित जानि, तू सयानी बड़ी,
बड़े भाग पायो पूत बिधि हरि हर तें।
ताहि बाँधिबे को धाई, ग्वालिन गोरस बहाई,
लै लै आईं बावरी दाँवरी घर-घर तें॥ २॥
कुलगुरु तिय के बचन कमनीय सुनि
सुधि भए बचन जे सुने मुनिबर तें।
छोरि, लिए लाइ उर, बरषैं सुमन सुर
मंगल है तिहूँ पुर हरि हलधर तें॥ ३॥
आनँद बधावनो मुदित गोप-गोपीगन,
आजु परी कुसल कठिन करवर तें।
तुलसी जे तोरे तरु, किए देव दियो बरु,
कै न लह्यो कौन फरु देव दामोदर तें॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

(नन्दबाबाके पुरोहित शाण्डिल्य मुनिकी पत्नीने अन्तमें समझाते हुए कहा—) ‘महरि! इस ललित (सुन्दर) लालको देखकर मनमें विचार कर और, अरी भली औरत, तुरंत अपने हाथसे इस छड़ीको फेंक दे। बच्चा कुछ कह तो सकता नहीं, सिसकियाँ भर रहा है और सकुचा रहा है। भयको भी भीत करनेवाला यह कन्हैया आज तेरे डरसे डर रहा है॥ १॥ अब बस, मेरा कहना मान ले। इसीमें अपनी भलाई समझ। अरी! तू तो बड़ी सयानी है। बड़े सौभाग्यसे ब्रह्मा-विष्णु-महेश (की कृपा) से यह पुत्र मिला है! अरी दूध-दहीके लिये हाय-हाय करनेवाली ग्वालिनी! उसीको बाँधनेके लिये तू दौड़ी, और पगली! घर-घरसे रस्सियाँ ले-लेकर आयी!॥ २॥ इस प्रकार पुरोहितानीजीके सुन्दर वचन सुनकर यशोदाजीको वे वचन याद आ गये, जो उन्होंने मुनिश्रेष्ठ गर्गजीसे सुने थे। (बस, तुरंत माताने) बन्धन खोलकर अपने लालको हृदयसे लगा लिया, देवता पुष्पोंकी वर्षा करने लगे। तीनों लोकोंका मङ्गल श्रीकृष्ण-बलरामसे ही तो है॥ ३॥ आनन्दकी बधाइयाँ बज रही हैं। गोप और गोपिकाएँ मुदित हो रही हैं, आज (कन्हैयाकी) बड़े भारी संकटसे रक्षा हुई है! तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीकृष्णने जिन (दो जुड़वे) वृक्षोंको उखाड़ा, उन्हें देवता बनाकर वरदान दिया। इन देव (-देव) भगवान् दामोदरसे भला, किसने कौन फल नहीं पाया?॥ ४॥