०५ गोपी-उपालम्भ

राग आसावरी

विषय (हिन्दी)

(३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

तोहि स्याम की सपथ जसोदा! आइ देखु गृह मेरें।
जैसी हाल करी यहि ढोटा छोटे निपट अनेरें॥ १॥
गोरस हानि सहौं, न कहौं कछु, यहि ब्रजबास बसेरें।
दिन प्रति भाजन कौन बेसाहै? घर निधि काहू केरें॥ २॥
किएँ निहोरो हँसत, खिझे तें डाँटत नयन तरेरें।
अबहीं तें ये सिखे कहाँ धौं चरित ललित सुत तेरें॥ ३॥
बैठो सकुचि साधु भयो चाहत मातु बदन तन हेरें।
तुलसिदास प्रभु कहौं ते बातैं जे कहि भजे सबेरें॥ ४॥

मूल

तोहि स्याम की सपथ जसोदा! आइ देखु गृह मेरें।
जैसी हाल करी यहि ढोटा छोटे निपट अनेरें॥ १॥
गोरस हानि सहौं, न कहौं कछु, यहि ब्रजबास बसेरें।
दिन प्रति भाजन कौन बेसाहै? घर निधि काहू केरें॥ २॥
किएँ निहोरो हँसत, खिझे तें डाँटत नयन तरेरें।
अबहीं तें ये सिखे कहाँ धौं चरित ललित सुत तेरें॥ ३॥
बैठो सकुचि साधु भयो चाहत मातु बदन तन हेरें।
तुलसिदास प्रभु कहौं ते बातैं जे कहि भजे सबेरें॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

(ग्वालिनी यशोदाजीको उलाहना देती हुई कहती हैं—) तुम्हें श्यामसुन्दरकी शपथ है, (तुम्हारे) इस निपट अन्यायी छोटे-से लड़ैतेने (मेरे घरकी) जैसी दुर्दशा की है, उसे मेरे घर आकर देखो तो सही॥ १॥ दूध-दही-माखनकी हानि तो सह लेती हूँ, कुछ (भी) नहीं कहती, क्योंकि इसी व्रजकी बस्तीमें रहना है। पर नित्य (नये) बर्तन कौन खरीदे; क्या किसीके घरमें धनका खजाना भरा है?॥ २॥ निहोरा (अनुनय-विनय) करनेपर यह हँसने लगता है, खीझनेसे आँखें तरेरकर डाँटता है। जाने अभीसे तुम्हारे इस ललित लालने ये सब चरित्र कहाँसे सीख लिये हैं?॥ ३॥ इस समय माँके मुँहकी ओर निहारता हुआ ऐसा सकुचाकर (सिमटकर स्थिर होकर) बैठा है; मानो (सबकी दृष्टिमें) साधु सजना चाहता है। तुलसीदासजीके शब्दोंमें ग्वालिनी श्रीकृष्णसे कहती है कि ‘प्रभुजी! सबेरे जो कुछ कहकर आप भाग आये थे, क्या उन बातोंको मैं कह दूँ?’॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(४)

विश्वास-प्रस्तुतिः

मो कहँ झूठेहुँ दोष लगावहिं।
मैया! इन्हहि बानि पर घर की, नाना जुगुति बनावहिं॥ १॥
इन्ह के लिएँ खेलिबो छाँडॺो, तऊ न उबरन पावहिं।
भाजन फोरि, बोरि कर गोरस, देन उरहनो आवहिं॥ २॥
कबहुँक बाल रोवाइ पानि गहि, मिस करि उठि-उठि धावहिं।
करहिं आपु, सिर धरहिं आन के, बचन बिरंचि हरावहिं॥ ३॥
मेरी टेव बूझि हलधर सों, संतत संग खेलावहिं।
जे अन्याउ करहिं काहू को, ते सिसु मोहि न भावहिं॥ ४॥
सुनि सुनि बचन चातुरी ग्वालिनि हँसि हँसि बदन दुरावहिं।
बाल गोपाल केलि कल कीरति तुलसिदास मुनि गावहिं॥ ५॥

मूल

मो कहँ झूठेहुँ दोष लगावहिं।
मैया! इन्हहि बानि पर घर की, नाना जुगुति बनावहिं॥ १॥
इन्ह के लिएँ खेलिबो छाँडॺो, तऊ न उबरन पावहिं।
भाजन फोरि, बोरि कर गोरस, देन उरहनो आवहिं॥ २॥
कबहुँक बाल रोवाइ पानि गहि, मिस करि उठि-उठि धावहिं।
करहिं आपु, सिर धरहिं आन के, बचन बिरंचि हरावहिं॥ ३॥
मेरी टेव बूझि हलधर सों, संतत संग खेलावहिं।
जे अन्याउ करहिं काहू को, ते सिसु मोहि न भावहिं॥ ४॥
सुनि सुनि बचन चातुरी ग्वालिनि हँसि हँसि बदन दुरावहिं।
बाल गोपाल केलि कल कीरति तुलसिदास मुनि गावहिं॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीकृष्ण कहने लगे—) मैया! ये मुझपर झूठ-मूठ दोष लगाती हैं। इन्हें तो पराये घर भटकनेकी टेव पड़ गयी है, इसीसे ये (अपने यहाँ आनेके लिये) तरह-तरहकी युक्ति रचा करती हैं॥ १॥ इनके लिये मैंने खेलनातक छोड़ दिया, तब भी इनसे बच नहीं पाते। ये (स्वयं ही अपने) बर्तनोंको फोड़कर, दही-दूधमें हाथ डुबाकर उलाहना देने चली आती हैं॥ २॥ कभी तो बालकोंको रुलाकर,उनके हाथ पकड़कर बहाना बनाती हुई उठ-उठकर दौड़ी आती हैं। करती तो हैं सब कुछ आप और दोष मढ़ती हैं दूसरेके सिर! बातोंमें तो ये ब्रह्माजीको भी मात कर देती हैं (ऐसी चतुर हैं)॥ ३॥ मेरी कैसी आदत है, यह तो (मैया! तू) हलधर भैयासे पूछ ले, निरन्तर वे मुझे अपने साथ खेलाते हैं। मुझे तो वे बालक अच्छे ही नहीं लगते, जो दूसरेके प्रति अन्याय करते हैं। फिर भला, मैं स्वयं कैसे किसीके साथ अन्याय करने जाता?॥ ४॥ श्रीकृष्णकी वचन-चातुरी सुन-सुनकर ग्वालिनें हँस-हँसकर अपना मुँह छिपा लेती हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि बाल-गोपाल (यशोदानन्दन) के सुन्दर लीलायशका मुनिगण गान करते हैं॥ ५॥

विषय (हिन्दी)

(५)

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबहुँ न जात पराए धामहिं।
खेलत ही देखौं निज आँगन सदा सहित बलरामहिं॥ १॥
मेरे कहाँ थाकु गोरस को, नव निधि मन्दिर या महिं।
ठाढ़ी ग्वालि ओरहना के मिस आइ बकहिं बेकामहिं॥ २॥
हौं बलि जाउँ जाहु कितहूँ जनि, मातु सिखावति स्यामहिं।
बिनु कारन हठि दोष लगावति तात गएँ गृह ता महिं॥ ३॥
हरि मुख निरखि, परुष बानी सुनि, अधिक-अधिक अभिरामहिं।
तुलसिदास प्रभु देख्योइ चाहति श्रीउर ललित ललामहिं॥ ४॥

मूल

कबहुँ न जात पराए धामहिं।
खेलत ही देखौं निज आँगन सदा सहित बलरामहिं॥ १॥
मेरे कहाँ थाकु गोरस को, नव निधि मन्दिर या महिं।
ठाढ़ी ग्वालि ओरहना के मिस आइ बकहिं बेकामहिं॥ २॥
हौं बलि जाउँ जाहु कितहूँ जनि, मातु सिखावति स्यामहिं।
बिनु कारन हठि दोष लगावति तात गएँ गृह ता महिं॥ ३॥
हरि मुख निरखि, परुष बानी सुनि, अधिक-अधिक अभिरामहिं।
तुलसिदास प्रभु देख्योइ चाहति श्रीउर ललित ललामहिं॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

(यशोदा मैया ग्वालिनोंसे कहती हैं—मेरा कन्हैया तो) कभी दूसरेके घर जाता ही नहीं। मैं तो इसको सदा बलरामके साथ अपने आँगनमें ही खेलते देखती हूँ॥ १॥ मेरे यहाँ दूध-दही-माखनकी थाह (सीमा) थोड़े ही है (जो यह दूसरे घर जाय); मेरे इस घरमें नवों निधियाँ भरी हैं। ये ग्वालिनें बिना ही प्रयोजन उलाहना देनेके बहाने आकर यहाँ खड़ी बक रही हैं॥ २॥ (फिर) माता अपने श्यामसुन्दरको सीख देती है—(मेरे लाल!) मैं बलिहारी जाती हूँ, तुम कहीं मत जाया करो। बेटा! (देखो,)इनके घर जानेसे ये रुष्ट होती हैं और बिना ही कारण जबरदस्ती तुमपर दोष लगा रही हैं॥ ३॥ ग्वालिनें श्रीहरिके मुखको निरखकर और (यशोदाजीके) कठोर वचन सुनकर अधिक-अधिक सुख पा रही हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे तो श्रीलक्ष्मीजीके हृदयके इस ललित रत्न प्रभु श्रीकृष्णको देखते ही रहना चाहती हैं। (इसीलिये तो वे उलाहनेके बहाने आया करती हैं।)॥ ४॥

विषय (हिन्दी)

(६)

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब सब साँची कान्ह तिहारी।
जो हम तजे, पाइ गौं मोहन गृह आए दै गारी॥ १॥
सुसुकि सभीत सकुचि रूखे मुख बातें सकल सँवारी।
साधु जानि हँसि हृदयँ लगाए, परम प्रीति महतारी॥ २॥
कोटि जतन करि सपथ कहैं हम, मानै कौन हमारी।
तुमहि बिलोकि, आन को ऐसी क्यों कहिहैं बर नारी॥ ३॥
जैसे हौ तैसे सुखदायक ब्रजनायक बलिहारी।
तुलसिदास प्रभु मुख छबि निरखत मन सब जुगुति बिसारी॥ ४॥

मूल

अब सब साँची कान्ह तिहारी।
जो हम तजे, पाइ गौं मोहन गृह आए दै गारी॥ १॥
सुसुकि सभीत सकुचि रूखे मुख बातें सकल सँवारी।
साधु जानि हँसि हृदयँ लगाए, परम प्रीति महतारी॥ २॥
कोटि जतन करि सपथ कहैं हम, मानै कौन हमारी।
तुमहि बिलोकि, आन को ऐसी क्यों कहिहैं बर नारी॥ ३॥
जैसे हौ तैसे सुखदायक ब्रजनायक बलिहारी।
तुलसिदास प्रभु मुख छबि निरखत मन सब जुगुति बिसारी॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

(ग्वालिनी व्यङ्गभरी वाणीमें श्रीकृष्णसे कहती है—) कन्हैया! अब तो तुम्हारी सभी बातें सत्य हैं। मोहन! हमने जब तुम्हें छोड़ दिया, तब मौका पाकर तुम गाली देते हुए घर भाग आये॥ १॥ और अब सिसकियाँ भरकर, भयभीत एवं लज्जित हो तथा रूखा मुँह बनाकर (माताके सामने) सारी बातें सँवार-बना लीं। माता यशोदाने भी तुम्हें साधु समझकर परम स्नेहसे हँसकर हृदयसे लगा लिया॥ २॥ अब तो हम करोड़ों युक्तियोंका आश्रय लेकर शपथपूर्वक भी कहें तो भी हमारी कौन मानेगा? तुम्हारी इस (बनावटी साधु) सूरतको देखकर क्यों कोई भली स्त्री (तुम्हारी बात न मानकर) दूसरेकी तरह कहेगी॥ ३॥ व्रजनायक! मैं तुमपर बलिहारी जाती हूँ। तुम जैसे हो, वैसे ही सुख देनेवाले हो। तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभुकी मुख-छविको निरखकर ग्वालिनीको मनकी सारी युक्तियाँ भूल गयीं॥ ४॥

राग केदारा

विषय (हिन्दी)

(७)

विश्वास-प्रस्तुतिः

महरि तिहारे पायँ परौं, अपनो ब्रज लीजै।
सहि देख्यो, तुम सों कह्यो, अब नाकहिं आई,
कौन दिनहिं दिन छीजै॥ १॥
ग्वालिनि तौ गोरस सुखी, ता बिनु क्यों जीजै।
सुत समेत पाउँ धारि, आपुहि भवन मेरे,
देखिये जो न पतीजै॥ २॥
अति अनीति नीकी नहीं, अजहूँ सिख दीजै।
तुलसिदास प्रभु सों कहै उर लाइ जसोमति,
ऐसी बलि कबहूँ नहिं कीजै॥ ३॥

मूल

महरि तिहारे पायँ परौं, अपनो ब्रज लीजै।
सहि देख्यो, तुम सों कह्यो, अब नाकहिं आई,
कौन दिनहिं दिन छीजै॥ १॥
ग्वालिनि तौ गोरस सुखी, ता बिनु क्यों जीजै।
सुत समेत पाउँ धारि, आपुहि भवन मेरे,
देखिये जो न पतीजै॥ २॥
अति अनीति नीकी नहीं, अजहूँ सिख दीजै।
तुलसिदास प्रभु सों कहै उर लाइ जसोमति,
ऐसी बलि कबहूँ नहिं कीजै॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

(ग्वालिनी फिर आकर श्रीयशोदा मैयाको उलाहना देने लगी—) व्रजरानी! तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अपने व्रजको सँभालो। मैंने (बहुत) सहकर देख लिया, तुमसे भी कहा, पर अब तो नाकों आ गयी! रोज-रोज कौन (इस प्रकार) क्षति सहेगा!॥ १॥ ग्वालिनी तो दूध-दही-माखनसे ही सुखी रहती है, वही जब न रहे (सारा-का-सारा ही तुम्हारा कन्हैया बरबाद कर दे) तब क्योंकर जीया जाय। यदि मेरी बातपर विश्वास न हो तो अपने इस लाड़िलेको साथ लेकर आप स्वयं मेरे घर पधारें और (सब अपनी आँखोंसे) देख लें॥ २॥ अत्यन्त अनीति अच्छी नहीं होती। अब भी इसे समझा दें। तुलसीदासजीके शब्दोंमें यशोदा मैया प्रभुको हृदयसे लगाकर कहती हैं—बेटा! तेरी बलैया लेती हूँ, (आगे) कभी ऐसा न करना॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(८)

विश्वास-प्रस्तुतिः

अबहिं उरहनो दै गई, बहुरौ फिरि आई।
सुनु मैया! तेरी सौं करौं, याको टेव लरन की,
सकुच बेंचि सी खाई॥ १॥
या ब्रज में लरिका घने, हौं ही अन्याई।
मुँह लाएँ मूँडहिं चढ़ी, अंतहुँ अहिरिनि, तू सूधी करि पाई॥ २॥
सुनि सुत की अति चातुरी जसुमति मुसुकाई।
तुलसिदास ग्वालिनि ठगी, आयो न उतरु,
कछु, कान्ह ठगौरी लाई॥ ३॥

मूल

अबहिं उरहनो दै गई, बहुरौ फिरि आई।
सुनु मैया! तेरी सौं करौं, याको टेव लरन की,
सकुच बेंचि सी खाई॥ १॥
या ब्रज में लरिका घने, हौं ही अन्याई।
मुँह लाएँ मूँडहिं चढ़ी, अंतहुँ अहिरिनि, तू सूधी करि पाई॥ २॥
सुनि सुत की अति चातुरी जसुमति मुसुकाई।
तुलसिदास ग्वालिनि ठगी, आयो न उतरु,
कछु, कान्ह ठगौरी लाई॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

(ग्वालिनीकी बातपर मैयाको विश्वास-सा करते देखकर श्रीकृष्ण रोते-से कहने लगे—मैया!) यह अभी-अभी तो उलाहना देकर गयी थी, फिर लौटकर आ गयी। मैया! सुन, मैं तेरी शपथ करके कहता हूँ; इसका तो लड़नेका स्वभाव हो गया है। यह शील-संकोचको तो मानो बेचकर खा गयी है॥ १॥ इस व्रजमें लड़के तो बहुत हैं, क्या मैं ही एक अन्यायी हूँ (जो बार-बार मुझपर ही दोष मँढ़ती चली आती है)? तेरे मुँह लगानेसे तो यह सिरपर ही चढ़ गयी है। आखिर अहीरनी ही तो है, तुम इसे बहुत सीधी मिल गयी॥ २॥ अपने लालकी बड़ी चतुराई (भरी बात) सुनकर यशोदाजी मुसकराने लगीं। तुलसीदासजी कहते हैं— ग्वालिनी तो (श्रीकृष्णकी बोली सुनकर) ठगी-सी रह गयी। उससे (कोई) उत्तर देते न बना। कन्हैयाने उसपर (मानो) कुछ टोना कर दिया हो॥ ३॥

राग गौरी

विषय (हिन्दी)

(९)

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब ब्रज बास महरि किमि कीबो।
दूध दह्यो माखन ढारत हैं,
हुतो पोसात दान दिन दीबो॥ १॥
अब तौ कठिन कान्ह के करतब
तुम हौ हँसति कहा कहि लीबो।
लीजै गाउँ, नाउँ लै रावरो,
है जग ठाउँ कहूँ ह्वै जीबो॥ २॥
ग्वालि बचन सुनि कहति जसोमति,
भलो न भूमि पर बादर छीबो
दैअहि लागि कहौं तुलसी प्रभु,
अजहुँ न तजत पयोधर पीबो॥ ३॥

मूल

अब ब्रज बास महरि किमि कीबो।
दूध दह्यो माखन ढारत हैं,
हुतो पोसात दान दिन दीबो॥ १॥
अब तौ कठिन कान्ह के करतब
तुम हौ हँसति कहा कहि लीबो।
लीजै गाउँ, नाउँ लै रावरो,
है जग ठाउँ कहूँ ह्वै जीबो॥ २॥
ग्वालि बचन सुनि कहति जसोमति,
भलो न भूमि पर बादर छीबो
दैअहि लागि कहौं तुलसी प्रभु,
अजहुँ न तजत पयोधर पीबो॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दूसरी ग्वालिनी आकर कहती है—) नन्दरानी! अब व्रजमें बसना कैसे होगा? अब तो यह (सारा-का-सारा ही) दूध-दही-माखन ढरकाने लगा! प्रतिदिन दान देना तो बन जाता था (क्योंकि वह नियत परिमाणमें ही देना पड़ता था।)॥ १॥ किंतु अब तो (इस) कान्हके करतब (बड़े) कठिन हो गये हैं। (लो!) तुम तो हँस रही हो! (फिर) तुम्हें कहकर ही क्या लाभ उठाऊँगी? अपना गाँव सँभालो! तुम्हारा नाम लेकर जगत् में जगह मिल ही जायगी। कहीं भी रहते हुए जीवन-निर्वाह कर लिया जायगा॥ २॥ ग्वालिनीकी बात सुनकर (और लालकी सीधी रोनी-सी सूरत देखकर) यशोदाजी कहती हैं—अरी! यों जमीनपर बादल छूना ठीक नहीं (दूधमुँहे बच्चेपर ऐसा असम्भव दोष लगाना अच्छा नहीं)। तुलसीदासजीके शब्दोंमें माता यशोदा बोली कि मैं भगवान् के लिये तुमसे कहती हूँ—अभी तो यह स्तन पीना भी नहीं छोड़ सका है (फिर तुम्हारे घर जाकर दही-माखन कैसे ढरका देगा?)॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(१०)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानी है ग्वालि परी फिरि फीकें।
मातु काज लागी लखि डाटत,
है बायनो दियो घर नीकें॥ १॥
अब कहि देउँ, कहति किन, यों कहि,
माँगत दही धरॺो जो छीकें॥ २॥
तुलसी प्रभु मुख निरखि रही चकि,
रह्यो न सयानप तन मन ती कें॥ ३॥

मूल

जानी है ग्वालि परी फिरि फीकें।
मातु काज लागी लखि डाटत,
है बायनो दियो घर नीकें॥ १॥
अब कहि देउँ, कहति किन, यों कहि,
माँगत दही धरॺो जो छीकें॥ २॥
तुलसी प्रभु मुख निरखि रही चकि,
रह्यो न सयानप तन मन ती कें॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीकृष्णने जब देखा कि ग्वालिनी फीकी पड़ गयी है—झेंप गयी है, तब माताको काममें लगी देखकर (उपयुक्त अवसर जानकर) ग्वालिनीको डाँटते हुए बोले—तूने भले घर बायना—न्योता दिया (सबलसे झगड़ा मोल लिया) है (आयी थी मैयाको उलाहना देकर मुझे डँटवाने—अब तू ही डाँट सह)॥ १॥ कहती थी, अभी कहे देती हूँ, फिर कहती क्यों नहीं (चुप क्यों हो गयी)? इतना कहकर (मातासे) छीकेपर धरा दही माँगने लगे॥ २॥ तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभुका मुख निरखकर ग्वालिनी चकित रह गयी (प्रेम-विवश हो गयी)। उसके तन-मनमें तनिक भी सयानापन (चेतना) नहीं रह गया॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(११)

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौलौं हौं कान्ह रहौं गुन गोए।
तौलौं तुमहि पत्यात लोग सब,
सुसुकि सभीत साँचु सो रोए॥ १॥
हौ भले नँग-फँग परे गढ़ीबे,
अब ए गढ़त महरि मुख जोएँ।
चुपकि न रहत, कह्यौ कछु चाहत,
ह्वैहै कीच कोठिला धोएँ॥ २॥
गरजति कहा तरजिनिन्ह तरजति,
बरजत सैन नैन के कोए।
तुलसी मुदित मातु सुत गति लखि,
विथकी है ग्वालि मैन मन मोए॥ ३॥

मूल

जौलौं हौं कान्ह रहौं गुन गोए।
तौलौं तुमहि पत्यात लोग सब,
सुसुकि सभीत साँचु सो रोए॥ १॥
हौ भले नँग-फँग परे गढ़ीबे,
अब ए गढ़त महरि मुख जोएँ।
चुपकि न रहत, कह्यौ कछु चाहत,
ह्वैहै कीच कोठिला धोएँ॥ २॥
गरजति कहा तरजिनिन्ह तरजति,
बरजत सैन नैन के कोए।
तुलसी मुदित मातु सुत गति लखि,
विथकी है ग्वालि मैन मन मोए॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

(ग्वालिनीने व्यङ्गसे कहा—) कान्हा! जबतक मैं तुम्हारे गुणोंको छिपाये हुए हूँ, तभीतक सब लोग यह विश्वास कर रहे हैं कि सचमुच तुम भयभीत हो सिसकियाँ भरकर रो रहे हो॥ १॥ (एक तो वैसे ही) तुम परले सिरेके नंगेपन तथा जाल रचनेमें कुशल हो (फिर) महरि (यशोदा) का मुँह देखकर अब और भी फरेब रच रहे हो। तुम चुप नहीं रहते, कुछ-न-कुछ कहना ही चाहते हो; पर (याद रखो) कुठिला (अनाज रखनेकी मिट्टीकी कोठी) धोनेसे तो कीचड़ ही होगा (तुम्हारी करतूत और भी सामने आ जायगी)॥ २॥ (ग्वालिनीकी बात सुनकर श्यामसुन्दर कहने लगे—) ‘क्या गरज रही हो और तर्जनी अँगुली दिखाकर डाँट रही हो और (फिर) नेत्रके कोयेसे सैन (संकेत) करके बरज भी रही हो?’ तुलसीदासजी कहते हैं कि माता यशोदा पुत्रकी यह चतुराई देखकर आनन्दसे खिल उठती है और ग्वालिनी मन-ही-मन प्रेमसे मुग्ध होकर थकित हो जाती है॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(१२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूलि न जात हौं काहू के काऊ।
साखि सखा सब सुबल, सुदामा,
देखि धौं बूझि, बोलि बलदाऊ॥ १॥
यह तो मोहि खिझाइ कोटि बिधि,
उलटि बिबादन आइ अगाऊ।
याहि कहा मैया मुँह लावति,
गनति कि ए लंगरि झगराऊ॥ २॥
कहत परसपर बचन, जसोमति
लखि नहिं सकति कपट सति भाऊ।
तुलसिदास ग्वालिनि अति नागरि,
नट नागर मनि नंद ललाऊ॥ ३॥

मूल

भूलि न जात हौं काहू के काऊ।
साखि सखा सब सुबल, सुदामा,
देखि धौं बूझि, बोलि बलदाऊ॥ १॥
यह तो मोहि खिझाइ कोटि बिधि,
उलटि बिबादन आइ अगाऊ।
याहि कहा मैया मुँह लावति,
गनति कि ए लंगरि झगराऊ॥ २॥
कहत परसपर बचन, जसोमति
लखि नहिं सकति कपट सति भाऊ।
तुलसिदास ग्वालिनि अति नागरि,
नट नागर मनि नंद ललाऊ॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीश्यामसुन्दर मातासे बोले—)मैया! मैं भूलकर भी कभी किसीके (घर) नहीं जाता। सुबल, सुदामा (आदि) सभी मेरे सखा इसके साक्षी हैं। (और तो क्या, तू) बलदाऊ (भैया) को बुलाकर उसीसे पूछ देख॥ १॥ यह (ग्वालिनी) तो करोड़ों भाँतिसे मुझे तंग करके (तुमसे मैं कुछ कहूँ, इससे पहले ही अपना दोष छिपानेके लिये) आगे-आगे झगड़ा करने आ पहुँची है। मैया! (तू) इसे क्या मुँह लगाती है। यह (बड़ी) नटखट और झगड़ालू है, क्या यह किसीको कुछ गिनती है॥ २॥ (इस प्रकार) ग्वालिन और गोपाल परस्पर उत्तर-प्रत्युत्तर देते हैं; किंतु यशोदाजी समझ नहीं पातीं कि किसमें कितना कपट है और किसका सच्चा भाव है। तुलसीदासजी कहते हैं कि ग्वालिनी भी (बोलने तथा भाव-भङ्गिमा दिखानेमें) अत्यन्त चतुर है और नन्दलाल श्यामसुन्दर तो नट-नागरोंके मुकुटमणि ही ठहरे। फिर इनके कपट-सत्यका किसीको कैसे पता लगे?॥ ३॥

विषय (हिन्दी)

(१३)

विश्वास-प्रस्तुतिः

छाँडो मेरे ललन! ललित लरिकाई।
ऐहैं सुत! देखुवार कालि तेरे,
बबै ब्याह की बात चलाई
डरिहैं सासु ससुर चोरी सुनि,
हँसिहैं नइ दुलहिया सुहाई।
उबटौं न्हाहु, गुहौं चुटिया बलि,
देखि भलो बर करिहिं बड़ाई॥ २॥
मातु कह्यो करि कहत बोलि दै,
‘भइ बड़ि बार, कालि तौ न आई’।
‘जब सोइबो तात’ यों ‘हाँ’ कहि,
नयन मीचि रहे पौढ़ि कन्हाई॥ ३॥
उठि कह्यो, भोर भयो, झँगुली दै,
मुदित महरि लखि आतुरताई।
बिहँसी ग्वालि जानि तुलसी प्रभु,
सकुचि लगे जननी उर धाई॥ ४॥

मूल

छाँडो मेरे ललन! ललित लरिकाई।
ऐहैं सुत! देखुवार कालि तेरे,
बबै ब्याह की बात चलाई
डरिहैं सासु ससुर चोरी सुनि,
हँसिहैं नइ दुलहिया सुहाई।
उबटौं न्हाहु, गुहौं चुटिया बलि,
देखि भलो बर करिहिं बड़ाई॥ २॥
मातु कह्यो करि कहत बोलि दै,
‘भइ बड़ि बार, कालि तौ न आई’।
‘जब सोइबो तात’ यों ‘हाँ’ कहि,
नयन मीचि रहे पौढ़ि कन्हाई॥ ३॥
उठि कह्यो, भोर भयो, झँगुली दै,
मुदित महरि लखि आतुरताई।
बिहँसी ग्वालि जानि तुलसी प्रभु,
सकुचि लगे जननी उर धाई॥ ४॥

अनुवाद (हिन्दी)

(यशोदा मैया हँसकर बड़े प्रेमसे समझाती हुई श्यामसुन्दरसे कहती हैं—) मेरे लाल! तू इस ललित लड़कपनको छोड़ दे (तू जो किसीके घर जाकर माखन खा आता है, यह तेरा कोई अपराध थोड़े ही है, लड़कपन है, बच्चे ऐसा किया ही करते हैं। और यह है भी बहुत ललित—अत्यन्त सुन्दर। इससे सभीको सुख मिलता है, पर लोग कहेंगे कि ‘यह तो चोर है, इसके साथ ब्याहकी बात कैसी?’ इससे तेरी सगाईमें बाधा पड़ जायगी)। ‘बेटा! कल ही तुम्हें देखनेवाले आयेंगे; क्योंकि तेरे बाबा (नन्दजी) ने तेरे ब्याहकी बात चला रखी है॥ १॥ चोरीकी बात सुनकर तेरे (भावी) सास-ससुर डर जायँगे (और तेरी सगाई नहीं करेंगे); तेरी वह परम सुहावनी नयी दुलहिनी भी हँसी करेगी (अतएव तू इस टेवको छोड़ दे)। आ, तेरे उबटन लगा दूँ; फिर तू नहा ले, मैं तेरी चोटी गूँथ दूँ। मैं तेरी बलिहारी जाती हूँ। (इस प्रकार तू सुन्दर बन जायगा) तब तुझे सुन्दर वर देखकर देखनेवाले बड़ाई करेंगे’॥ २॥ श्यामसुन्दरने माताका कहा मान लिया, बोले—(मैया! अब मैं चोरी नहीं करूँगा; फिर जब नहा-धोकर चोटी गुँथवाकर तैयार हो गये, तब) पुकारकर बोले—(मैया!) बहुत देर हो गयी, (तूने कहा था न कि वे कल आयेंगे, सो वह) कल तो अभी आया नहीं। यशोदा बोलीं—बेटा! हाँ (सच तो है अभी कल नहीं आया)। तू जब सो जायगा (रात बीत जायगी,तब कल आयेगा)। इतना सुनते ही श्रीकृष्ण ‘अच्छा’ कहकर आँखें मूँदकर सो गये॥ ३॥ (फिर तुरंत ही) उठकर बोले—(मैया!) सबेरा हो गया, झँगुली दे (पहन लूँ, वे मुझे देखनेवाले आते ही होंगे)। महरि यशोदाजी पुत्रके विवाहके लिये इतनी आतुरता देखकर प्रमुदित हो गयीं। ग्वालिनी बड़े जोरसे हँस पड़ी। तुलसीदासजी कहते हैं कि यह देखकर प्रभु श्रीश्यामसुन्दर लजाकर दौड़कर अपनी माताके हृदयसे चपट गये॥ ४॥