०४ बाल-लीला

राग बिलावल

विषय (हिन्दी)

(१)

विश्वास-प्रस्तुतिः

(माता) लै उछंग गोबिंद मुख बार-बार निरखै।
पुलकित तनु आनँदघन छन छन मन हरषै॥ १॥
पूछत तोतरात बात मातहि जदुराई।
अतिसय सुख जाते तोहि मोहि कहु समुझाई॥ २॥
देखत तुव बदन कमल मन अनंद होई।
कहै कौन रसन मौन जानै कोइ कोई॥ ३॥
सुंदर मुख मोहि देखाउ इच्छा अति मोरे।
मम समान पुन्य पुंज बालक नहिं तोरे॥ ४॥
तुलसी प्रभु प्रेम बिबस मनुज रूपधारी।
बालकेलि लीला रस ब्रज जन हितकारी॥ ५॥

मूल

(माता) लै उछंग गोबिंद मुख बार-बार निरखै।
पुलकित तनु आनँदघन छन छन मन हरषै॥ १॥
पूछत तोतरात बात मातहि जदुराई।
अतिसय सुख जाते तोहि मोहि कहु समुझाई॥ २॥
देखत तुव बदन कमल मन अनंद होई।
कहै कौन रसन मौन जानै कोइ कोई॥ ३॥
सुंदर मुख मोहि देखाउ इच्छा अति मोरे।
मम समान पुन्य पुंज बालक नहिं तोरे॥ ४॥
तुलसी प्रभु प्रेम बिबस मनुज रूपधारी।
बालकेलि लीला रस ब्रज जन हितकारी॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

यशोदा मैया बाल-गोविन्दको गोदमें लेकर बार-बार उनका मुख निरख रही है। आनन्दकी घनमूर्ति (स्वयं) श्रीकृष्ण प्रतिक्षण (अधिकाधिक) हर्षित हो रहे हैं तथा उनका शरीर पुलकित हो रहा है॥ १॥ (माताको यों आनन्दमग्न देख) यादवराय श्रीकृष्ण तोतली वाणीमें माँसे पूछते हैं—‘(मैया!) तुझको जिस कारणसे अत्यन्त सुख हो रहा है, वह मुझको समझाकर कह’॥ २॥
(माता बोली—लल्ला!) तेरा मुखकमल देखते ही मनमें आनन्द होता है। उस आनन्दका वर्णन कौन करे? जीभ मौन हो जाती है। उस (अलौकिक) आनन्दको कोई-कोई (वात्सल्य-प्रेमरसके भावुकजन) ही जानते हैं॥ ३॥ (अच्छा लल्ला! अपना) सुन्दर मुखड़ा मुझे (बार-बार) दिखाता रह, मेरी (उसे देखनेकी) बड़ी इच्छा है। मेरे समान पुण्यपुञ्ज कोई नहीं है, (क्योंकि) तेरे समान कोई बालक (जगत् में) नहीं है। (अर्थात् मेरे समान पुण्यात्मा दूसरा कौन है, जिसको तेरे समान अनुपम बालक पुत्ररूपमें मिला हो)॥ ४॥ तुलसीदासजी कहते हैं—प्रेमवश हो मेरे प्रभुने मनुष्यरूप धारण किया है और व्रजवासियोंका हित करनेके लिये (सुख पहुँचानेके लिये) बालक्रीड़ारूप लीला-रसके आवेशमें मग्न हैं॥ ५॥

राग ललित

विषय (हिन्दी)

(२)

विश्वास-प्रस्तुतिः

‘छोटी मोटी मीसी रोटी चिकनी चुपरि कै तू
दै री, मैया!’ ‘लै कन्हैया!’ ‘सो कब?’ ‘अबहिं तात॥’
‘सिगरियै हौंहीं खैहौं, बलदाऊ को न दैहौं॥’
‘सो क्यों?’ ‘भटू, तेरो कहा’ कहि इत उत जात॥ १॥
बाल बोलि डहकि बिरावत, चरित लखि,
गोपि गन महरि मुदित पुलकित गात।
नूपुर की धुनि किंकिनि को कलरव सुनि,
कूदि कूदि किलकि किलकि ठाढ़े ठाढ़े खात॥ २॥
तनियाँ ललित कटि, बिचित्र टेपारो सीस,
मुनि मन हरत बचन कहै तोतरात।
तुलसी निरखि हरषत बरषत फूल,
भूरिभागी ब्रजबासी बिबुध सिद्ध सिहात॥ ३॥

मूल

‘छोटी मोटी मीसी रोटी चिकनी चुपरि कै तू
दै री, मैया!’ ‘लै कन्हैया!’ ‘सो कब?’ ‘अबहिं तात॥’
‘सिगरियै हौंहीं खैहौं, बलदाऊ को न दैहौं॥’
‘सो क्यों?’ ‘भटू, तेरो कहा’ कहि इत उत जात॥ १॥
बाल बोलि डहकि बिरावत, चरित लखि,
गोपि गन महरि मुदित पुलकित गात।
नूपुर की धुनि किंकिनि को कलरव सुनि,
कूदि कूदि किलकि किलकि ठाढ़े ठाढ़े खात॥ २॥
तनियाँ ललित कटि, बिचित्र टेपारो सीस,
मुनि मन हरत बचन कहै तोतरात।
तुलसी निरखि हरषत बरषत फूल,
भूरिभागी ब्रजबासी बिबुध सिद्ध सिहात॥ ३॥

अनुवाद (हिन्दी)

(श्रीकृष्ण अपनी माता यशोदासे कहते हैं—) ‘मैया री! तू मुझे छोटी किंतु मोटी, चिकनी, मीस्सी रोटी घी लगाकर दे।’ (मैया बोली—) ‘कन्हैया! ले।’ (पुत्रने पूछा—) ‘उसे कब देगी?’ (माता बोली—) ‘बेटा! अभी (देती हूँ)’ (श्रीकृष्णने कहा—‘तो मैया!) पूरी रोटी मैं ही खाऊँगा, बलदाऊ भैयाको (उसमेंसे हिस्सा) नहीं दूँगा।’ (यशोदाने पूछा—) ‘ऐसा क्यों?’ (श्रीकृष्ण बोले—) ‘अरी भली औरत, (इसमें) तेरा क्या (बिगड़ता है)? (मैं अकेला ही खाऊँगा)’ और यों कहकर वे इधर-उधर चले जाते हैं॥ १॥ (और-और) बालकोंको बुलाकर उन्हें रोटी दिखा-दिखाकर, किंतु उनके माँगनेपर न देकर चिढ़ाते हैं। (उनके इन) चरित्रोंको देखकर गोपियाँ और यशोदा मैया मोदमें भर जाती हैं, उनके शरीर रोमाञ्चित हो जाते हैं। श्रीकृष्ण अपने ही नूपुरोंकी ध्वनि और करधनीका मधुर शब्द सुनकर कूद-कूद तथा किलक-किलककर खड़े-खड़े ही रोटी खा रहे हैं॥ २॥ उनकी कमरमें सुन्दर कछनी है, सिरपर विचित्र मुकुटाकार चौगोसिया टोपी है; जब तुतलाकर बोलते हैं (तब तो) वे मुनियोंका (भी) मन हर लेते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि देवता तथा सिद्धगण यह (देख) देखकर हर्षित होते, फूल बरसाते और महान् भाग्यशाली व्रजवासियोंसे ईर्ष्या करते हैं। (मन-ही-मन कहते हैं कि हमारे भाग्य इन व्रजवासियों-जैसे नहीं हैं, तभी तो हम इस सुखसे वञ्चित हैं।)॥ ३॥