रामकी कृपालुता
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालि-सो बीरु बिदारि सुकंठु थप्यो, हरषे सुर, बाजने बाजे।
पलमें दल्यो दासरथीं दसकंधरु, लंक बिभीषनु राज बिराजे॥
राम-सुभाउ सुनें ‘तुलसी’ हुलसै अलसी हम-से गलगाजे।
कायर कूर कपूतनकी हद, तेउ गरीबनेवाज नेवाजे॥
मूल
बालि-सो बीरु बिदारि सुकंठु थप्यो, हरषे सुर, बाजने बाजे।
पलमें दल्यो दासरथीं दसकंधरु, लंक बिभीषनु राज बिराजे॥
राम-सुभाउ सुनें ‘तुलसी’ हुलसै अलसी हम-से गलगाजे।
कायर कूर कपूतनकी हद, तेउ गरीबनेवाज नेवाजे॥
अनुवाद (हिन्दी)
वालि-से वीरको मारकर (श्रीरामचन्द्रजीने) सुग्रीवको राज्य दिया। इससे देवतालोग हर्षित होकर बाजे बजाने लगे। दशरथनन्दन (श्रीरामचन्द्र) ने पलभरमें रावणको मार डाला और लंकामें विभीषण राज्यपर सुशोभित हुए। तुलसीदासजी कहते हैं—श्रीरामचन्द्रजीका स्वभाव सुनकर मेरे-जैसे और आलसी भी आनन्दित होकर गाल बजाते हैं। जो लोग कायर, क्रूर और कपूतोंकी हद थे, उनपर भी गरीबनिवाज भगवान् रामने कृपा की॥ १॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद पढ़ैं बिधि, संभु सभीत पुजावन रावनसों नितु आवैं।
दानव-देव दयावने दीन दुखी दिन दूरिहि तें सिरु नावैं॥
ऐसेउ भाग भगे दसभाल तें, जो प्रभुता कबि-कोबिद गावैं।
रामसे बाम भएँ तेहि बामहि बाम सबै सुख-संपति लावैं॥
मूल
बेद पढ़ैं बिधि, संभु सभीत पुजावन रावनसों नितु आवैं।
दानव-देव दयावने दीन दुखी दिन दूरिहि तें सिरु नावैं॥
ऐसेउ भाग भगे दसभाल तें, जो प्रभुता कबि-कोबिद गावैं।
रामसे बाम भएँ तेहि बामहि बाम सबै सुख-संपति लावैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
रावणके यहाँ ब्रह्माजी (स्वयं) वेद-पाठ करते थे और शिवजी भयवश नित्य पूजन करानेके लिये आते थे तथा दैत्य और देवगण दुःखी, दीन एवं दयापात्र होकर उसे प्रतिदिन दूरहीसे सिर नवाते थे। ऐसा भाग्य भी, जिसकी प्रभुता कवि-कोविद गाते हैं, उस रावणको छोड़कर भाग गया। श्रीरामचन्द्रसे विमुख होनेपर सारी सुख-सम्पदाएँ उस वामसे विमुख हो जाती हैं॥ २॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद बिरुद्ध मही, मुनि, साधु ससोक किए , सुरलोकु उजारो।
और कहा कहौं, तीय हरी, तबहूँ करुनाकर कोपु न धारो॥
सेवक-छोह तें छाड़ी छमा, तुलसी लख्यो राम! सुभाउ तिहारो।
तौलौं न दापु दल्यौ दसकंधर, जौलौं बिभीषन लातु न मारो॥
मूल
बेद बिरुद्ध मही, मुनि, साधु ससोक किए , सुरलोकु उजारो।
और कहा कहौं, तीय हरी, तबहूँ करुनाकर कोपु न धारो॥
सेवक-छोह तें छाड़ी छमा, तुलसी लख्यो राम! सुभाउ तिहारो।
तौलौं न दापु दल्यौ दसकंधर, जौलौं बिभीषन लातु न मारो॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेद-विरुद्ध आचरण करनेवाले रावणने पृथ्वी, मुनिगण और साधुओंको शोकयुक्त कर दिया तथा देवलोकको उजाड़ डाला और कहाँतक कहें, उसने (उनकी) स्त्रीतकको चुरा लिया, तब भी करुणाकर (प्रभु) ने उसपर क्रोध नहीं किया। गोसाईंजी कहते हैं कि हे श्रीरामचन्द्रजी! मैंने आपका स्वभाव जान लिया; आपने सेवक (विभीषण) के स्नेहवश ही (अपनी स्वाभाविक) क्षमाको छोड़ा; क्योंकि जबतक रावणने विभीषणको लात नहीं मारी, तबतक आपने उसके दर्पको चूर्ण नहीं किया॥ ३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोक समुद्र निमज्जत काढ़ि कपीसु कियो, जगु जानत जैसो।
नीच निसाचर बैरिको बंधु बिभीषनु कीन्ह पुरंदर कैसो॥
नाम लिएँ अपनाइ लियो तुलसी-सो, कहौं, जग कौन अनैसो।
आरत आरति भंजन रामु, गरीबनेवाज न दूसरो ऐसो॥
मूल
सोक समुद्र निमज्जत काढ़ि कपीसु कियो, जगु जानत जैसो।
नीच निसाचर बैरिको बंधु बिभीषनु कीन्ह पुरंदर कैसो॥
नाम लिएँ अपनाइ लियो तुलसी-सो, कहौं, जग कौन अनैसो।
आरत आरति भंजन रामु, गरीबनेवाज न दूसरो ऐसो॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने शोकरूपी समुद्रमें डूबते हुए सुग्रीवको निकालकर जिस प्रकार वानरोंका राजा बनाया, सो सारा संसार जानता है। नीच निशाचर और अपने शत्रुके भाई विभीषणको इन्द्रके समान (ऐश्वर्यशाली) बना दिया। केवल नाम लेनेसे ही तुलसी-जैसेको भी अपना लिया, जिसके समान बुरा संसारमें, कहो दूसरा कौन है? भगवान् राम ही दुःखियोंके दुःखको दूर करनेवाले हैं; उनके जैसा कोई दूसरा गरीबनिवाज नहीं है॥ ४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मीत पुनीत कियो कपि भालुको, पाल्यो ज्यों काहुँ न बाल तनूजो।
सज्जन-सींव बिभीषनु भो, अजहूँ बिलसै बर बंधुबधू जो॥
कोसलपाल बिना ‘तुलसी’ सरनागतपाल कृपाल न दूजो।
कूर, कुजाति, कुपूत, अघी, सबकी सुधरै, जो करै नरु पूजो॥
मूल
मीत पुनीत कियो कपि भालुको, पाल्यो ज्यों काहुँ न बाल तनूजो।
सज्जन-सींव बिभीषनु भो, अजहूँ बिलसै बर बंधुबधू जो॥
कोसलपाल बिना ‘तुलसी’ सरनागतपाल कृपाल न दूजो।
कूर, कुजाति, कुपूत, अघी, सबकी सुधरै, जो करै नरु पूजो॥
अनुवाद (हिन्दी)
(उन्होंने) वानर और भालुओंतकको अपना पवित्र मित्र बनाया और उनकी ऐसी रक्षा की जैसी कोई अपने बालक पुत्रकी भी नहीं करेगा और वे विभीषण, जो (चिरजीवी होनेके कारण) आजतक अपने बड़े भाईकी स्त्री (मन्दोदरी) का उपभोग करते हैं, साधुताकी सीमा बन गये। गोसाईंजी कहते हैं कि कोसलेश्वर श्रीरामचन्द्रजीके अतिरिक्त कोई दूसरा ऐसा कृपालु और शरणागतोंकी रक्षा करनेवाला नहीं है। जो मनुष्य उनकी पूजा करते हैं उन सभीकी बन जाती है, चाहे वे क्रूर, कुजाति, कुपूत और पापी ही क्यों न हों॥ ५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीय सिरोमनि सीय तजी, जेहिं पावककी कलुषाई दही है।
धर्मधुरंधर बंधु तज्यो, पुरलोगनिकी बिधि बोलि कही है॥
कीस-निसाचरकी करनी न सुनी, न बिलोकी, न चित्त रही है।
राम सदा सरनागतकी अनखौंहीं, अनैसी सुभायँ सही है॥
मूल
तीय सिरोमनि सीय तजी, जेहिं पावककी कलुषाई दही है।
धर्मधुरंधर बंधु तज्यो, पुरलोगनिकी बिधि बोलि कही है॥
कीस-निसाचरकी करनी न सुनी, न बिलोकी, न चित्त रही है।
राम सदा सरनागतकी अनखौंहीं, अनैसी सुभायँ सही है॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्होंने अग्निकी अपवित्रता (दाहकता) को भी जला डाला (अर्थात् जिनका पवित्र स्पर्श पाकर अग्नि भी पवित्र और शीतल हो गयी) ऐसी नारी-शिरोमणि जानकीजीको भी उन्होंने (लोकापवाद सुनकर) त्याग दिया; यही नहीं, अपने धर्मधुरन्धर बन्धु (लक्ष्मणजी) को (भी प्रतिज्ञाकी रक्षाके लिये) त्याग दिया और पुरजनोंको बुलाकर कर्तव्यका उपदेश दिया, किंतु बंदर (सुग्रीवादि) और राक्षसों (विभीषणादि) की करनी (भ्रातृवधूसे भोग) को न तो सुना, न देखा और न चित्तमें ही रखा। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रने अपने शरणागतोंकी क्रोध उत्पन्न करनेवाली बात और अनुचित बर्तावको भी सदा स्वभावसे ही सहा है॥ ६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपराध अगाध भएँ जनतें, अपने उर आनत नाहिन जू।
गनिका, गज, गीध, अजामिलके गनि पातकपुंज सिराहिं न जू॥
लिएँ बारक नामु सुधामु दियो, जेहिं धाम महामुनि जाहिं न जू।
तुलसी! भजु दीनदयालहि रे! रघुनाथु अनाथहि दाहिन जू॥
मूल
अपराध अगाध भएँ जनतें, अपने उर आनत नाहिन जू।
गनिका, गज, गीध, अजामिलके गनि पातकपुंज सिराहिं न जू॥
लिएँ बारक नामु सुधामु दियो, जेहिं धाम महामुनि जाहिं न जू।
तुलसी! भजु दीनदयालहि रे! रघुनाथु अनाथहि दाहिन जू॥
अनुवाद (हिन्दी)
सेवकोंसे भारी-भारी अपराध हो जानेपर भी आप उन्हें अपने मनमें नहीं लाते (उनपर ध्यान नहीं देते)। गणिका, गज, गीध और अजामिलके पातकपुञ्ज गिननेपर समाप्त होनेवाले नहीं थे; किंतु उन्हें एक बार नाम लेनेसे भी वह परमधाम दिया, जिसमें महामुनि भी नहीं जा सकते। गोसाईंजी अपनेसे ही कहते हैं कि ‘अरे तुलसीदास! दीनदयालु श्रीरामचन्द्रजीको भज; वे अनाथोंके अनुकूल (सहायक) हैं’॥ ७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभु सत्य करी प्रहलादगिरा, प्रगटे नरकेहरि खंभ महाँ।
झषराज ग्रस्यो गजराजु, कृपा ततकाल बिलंबु कियो न तहाँ॥
सुर साखि दै राखी है पांडुबधू पट लूटत, कोटिक भूप जहाँ।
तुलसी! भजु सोच-बिमोचनको, जनको पनु राम न राख्यो कहाँ॥
मूल
प्रभु सत्य करी प्रहलादगिरा, प्रगटे नरकेहरि खंभ महाँ।
झषराज ग्रस्यो गजराजु, कृपा ततकाल बिलंबु कियो न तहाँ॥
सुर साखि दै राखी है पांडुबधू पट लूटत, कोटिक भूप जहाँ।
तुलसी! भजु सोच-बिमोचनको, जनको पनु राम न राख्यो कहाँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् ने प्रह्लादके वचनको सत्य किया और महान् खम्भके बीचमेंसे नरसिंहरूपमें प्रकट हुए। जब ग्राहने गजको पकड़ा तो तत्काल ही कृपा की; जरा-सा भी विलम्ब नहीं किया। करोड़ों राजाओंके सामने जिसका वस्त्र लूटा जा रहा था, उस द्रौपदीकी देवताओंको साक्षी बनाकर रक्षा की। गोसाईंजी अपनेसे ही कहते हैं कि ‘अरे तुलसीदास! शोकसे छुड़ानेवाले श्रीरामचन्द्रको भज, उन्होंने सेवकके प्रणको कहाँ नहीं निबाहा?’॥ ८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरनारि उघारि सभा महुँ होत दियो पटु, सोचु हरॺो मनको।
प्रहलाद-बिषाद-निवारन, बारन-तारन, मीत अकारनको॥
जो कहावत दीनदयाल सही, जेहि भारु सदा अपने पनको।
‘तुलसी’ तजि आन भरोस भजें, भगवानु भलो करिहैं जनको॥
मूल
नरनारि उघारि सभा महुँ होत दियो पटु, सोचु हरॺो मनको।
प्रहलाद-बिषाद-निवारन, बारन-तारन, मीत अकारनको॥
जो कहावत दीनदयाल सही, जेहि भारु सदा अपने पनको।
‘तुलसी’ तजि आन भरोस भजें, भगवानु भलो करिहैं जनको॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरावतार (अर्जुन) की स्त्री (द्रौपदी) सभामें नंगी की जा रही थी, उसे वस्त्र देकर उसके मनका सोच दूर किया। जो प्रह्लादके दुःखको दूर करनेवाले, गजको बचानेवाले, बिना कारणके मित्र और सच्चे दीनदयालु कहलाते हैं, जिनको अपने प्रणका सदैव भार (ध्यान) रहता है, गोसाईंजी कहते हैं कि औरोंका भरोसा त्यागकर उन भगवान् का भजन करनेसे वे अपने दासका भला करेंगे ही॥ ९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रिषिनारि उधारि, कियो सठ केवटु मीतु पुनीत, सुकीर्ति लही।
निजलोकु दियो सबरी-खगको, कपि थाप्यो, सो मालुम है सबही॥
दससीस-बिरोध सभीत बिभीषनु भूपु कियो, जग लीक रही।
करुनानिधिको भजु, रे तुलसी! रघुनाथु अनाथके नाथु सही॥
मूल
रिषिनारि उधारि, कियो सठ केवटु मीतु पुनीत, सुकीर्ति लही।
निजलोकु दियो सबरी-खगको, कपि थाप्यो, सो मालुम है सबही॥
दससीस-बिरोध सभीत बिभीषनु भूपु कियो, जग लीक रही।
करुनानिधिको भजु, रे तुलसी! रघुनाथु अनाथके नाथु सही॥
अनुवाद (हिन्दी)
(भगवान् रामने) ऋषि (गौतम)की पत्नी (अहल्या) का उद्धार किया और दुष्ट केवटको मित्र बनाकर पवित्र कर दिया और इस प्रकार सुकीर्ति प्राप्त की; शबरी और गीधको अपना लोक दिया और सुग्रीवको राज्यपर स्थापित किया, सो सबको मालूम ही है; रावणके विरोधसे डरे हुए विभीषणको राजा बनाया, जिससे उनकी कीर्ति संसारभरमें छा गयी। गोसाईंजी कहते हैं—‘अरे तुलसीदास! करुणानिधि (श्रीरामचन्द्र)को भज, वे अनाथोंके सच्चे स्वामी हैं’॥ १०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौसिक, बिप्रबधू, मिथिलाधिपके सब सोच दले पल माहैं।
बालि-दसानन-बंधु-कथा सुनि, सत्रु सुसाहेब-सीलु सराहैं॥
ऐसी अनूप कहैं तुलसी रघुनायककी अगनी गुनगाहैं।
आरत, दीन, अनाथनको रघुनाथु करैं निज हाथकी छाहैं॥
मूल
कौसिक, बिप्रबधू, मिथिलाधिपके सब सोच दले पल माहैं।
बालि-दसानन-बंधु-कथा सुनि, सत्रु सुसाहेब-सीलु सराहैं॥
ऐसी अनूप कहैं तुलसी रघुनायककी अगनी गुनगाहैं।
आरत, दीन, अनाथनको रघुनाथु करैं निज हाथकी छाहैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीरघुनाथजीने) विश्वामित्र, ऋषिपत्नी (अहल्या) और मिथिलापति (महाराज जनक)की सभी चिन्ताओंको पलभरमें हर लिया। वालि और रावणके भाई (सुग्रीव और विभीषण) की कथा सुनकर शत्रु भी हमारे श्रेष्ठ स्वामी (श्रीरामचन्द्रजी) के शीलकी सराहना करते हैं। गोसाईंजी श्रीरघुनाथजीकी ऐसी अगणित अनुपम गुण-गाथाएँ कहते हैं। आर्त, दीन और अनाथोंको रघुनाथजी अपने हाथकी छाया-तले कर लेते हैं॥ ११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेरे बेसाहें बेसाहत औरनि, और बेसाहि कै बेचनिहारे।
ब्योम, रसातल, भूमि भरे नृप कूर, कुसाहेब सेंतिहुँ खारे॥
‘तुलसी’ तेहि सेवत कौन मरै! रजतें लघु को करै मेरुतें भारे?
स्वामि सुसील समर्थ सुजान, सो तो-सो तुहीं दसरत्थ दुलारे॥
मूल
तेरे बेसाहें बेसाहत औरनि, और बेसाहि कै बेचनिहारे।
ब्योम, रसातल, भूमि भरे नृप कूर, कुसाहेब सेंतिहुँ खारे॥
‘तुलसी’ तेहि सेवत कौन मरै! रजतें लघु को करै मेरुतें भारे?
स्वामि सुसील समर्थ सुजान, सो तो-सो तुहीं दसरत्थ दुलारे॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारे खरीदने (अपना लेने) से जीव औरोंको भी खरीद (गुलाम बना) सकता है, और सब (अन्य देवता) तो खरीदकर बेच देनेवाले हैं। आकाश, रसातल और पृथ्वीमें अनेकों निर्दय राजा और दुष्ट स्वामी भरे पड़े हैं, किंतु वे तो मुफ्तमें मिलें तो भी त्यागने योग्य ही हैं। गोसाईंजी कहते हैं कि उनकी सेवा करके कौन मरे। धूलके समान लघु सेवकको सुमेरुसे भी बड़ा बनानेवाला (तुम्हारे सिवा और) कौन है? हे दशरथनन्दन! तुम्हारे समान सुशील, समर्थ और सुजान स्वामी तो तुम्हीं हो॥ १२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातुधान, भालु, कपि, केवट, बिहंग जो-जो
पाल्यो नाथ! सद्य सो-सो भयो काम-काजको।
आरत अनाथ दीन मलिन सरन आए ,
राखे अपनाइ, सो सुभाउ महाराजको॥
नामु तुलसी, पै भोंडो भाँग तें, कहायो दासु,
कियो अंगीकार ऐसे बड़े दगाबाजको।
साहेबु समर्थ दसरत्थके दयालदेव!
दूसरो न तो-सो तुहीं आपनेकी लाजको॥
मूल
जातुधान, भालु, कपि, केवट, बिहंग जो-जो
पाल्यो नाथ! सद्य सो-सो भयो काम-काजको।
आरत अनाथ दीन मलिन सरन आए ,
राखे अपनाइ, सो सुभाउ महाराजको॥
नामु तुलसी, पै भोंडो भाँग तें, कहायो दासु,
कियो अंगीकार ऐसे बड़े दगाबाजको।
साहेबु समर्थ दसरत्थके दयालदेव!
दूसरो न तो-सो तुहीं आपनेकी लाजको॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे नाथ! आपने निशाचर, भालु, वानर, केवट, पक्षी—जिस-जिसको अपनाया, वही तुरंत (निकम्मेसे) कामका हो गया। दुःखी, अनाथ, दीन, मलीन—जो भी शरणमें आये, उन्हींको आपने अपना लिया। ऐसा महाराजका स्वभाव है। नाम तो (मेरा) तुलसी है, पर हूँ मैं भाँगसे भी बुरा, और कहलाने लगा दास और आपने ऐसे दगाबाजको भी अङ्गीकार कर लिया। हे दशरथनन्दन! आपके समान कोई दूसरा समर्थ स्वामी अथवा दयालुदेव नहीं है; अपने शरणागतकी लज्जा रखनेवाले तो आप ही हैं॥ १३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाबली बालि दलि, कायर सुकंठु कपि
सखा किए महाराज! हो न काहू कामको।
भ्रात-घात-पातकी निसाचर सरन आएँ,
कियो अंगीकार नाथ एते बड़े बामको॥
राय, दसरत्थके! समर्थ तेरे नाम लिएँ,
तुलसी-से कूरको कहत जगु रामको।
आपने निवाजेकी तौ लाज महाराजको
सुभाउ, समुझत मनु मुदित गुलामको॥
मूल
महाबली बालि दलि, कायर सुकंठु कपि
सखा किए महाराज! हो न काहू कामको।
भ्रात-घात-पातकी निसाचर सरन आएँ,
कियो अंगीकार नाथ एते बड़े बामको॥
राय, दसरत्थके! समर्थ तेरे नाम लिएँ,
तुलसी-से कूरको कहत जगु रामको।
आपने निवाजेकी तौ लाज महाराजको
सुभाउ, समुझत मनु मुदित गुलामको॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे महाराज! आपने महाबलवान् वालिको मारकर कायर सुग्रीवको मित्र बनाया, जो किसी कामका नहीं था। भाईको धोखा देनेका पाप करनेवाले राक्षसको शरण आनेपर—इतना प्रतिकूल होते हुए भी—स्वीकार कर लिया। हे महाराज दशरथके समर्थ सुपूत! तुम्हारा नाम लेनेसे आज तुलसी-जैसे कपटीको भी लोग रामका कहते हैं। अपने अनुगृहीत दासकी लाज रखना तो महाराजका स्वभाव ही है, यह समझकर सेवकका मन आनन्दित होता है॥ १४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूप-सीलसिंधु, गुनसिंधु, बंधु दीनको,
दयानिधान, जानमनि, बीरबाहु-बोलको।
स्राद्ध कियो गीधको, सराहे फल सबरीके
सिला-साप-समन, निबाह्यो नेहु कोलको॥
तुलसी उराउ होत रामको सुभाउ सुनि,
को न बलि जाइ, न बिकाइ बिनु मोल को।
ऐसेहू सुसाहेबसों जाको अनुरागु न, सो
बड़ोई अभागो, भागु भागो लोभ-लोलको॥
मूल
रूप-सीलसिंधु, गुनसिंधु, बंधु दीनको,
दयानिधान, जानमनि, बीरबाहु-बोलको।
स्राद्ध कियो गीधको, सराहे फल सबरीके
सिला-साप-समन, निबाह्यो नेहु कोलको॥
तुलसी उराउ होत रामको सुभाउ सुनि,
को न बलि जाइ, न बिकाइ बिनु मोल को।
ऐसेहू सुसाहेबसों जाको अनुरागु न, सो
बड़ोई अभागो, भागु भागो लोभ-लोलको॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् राम रूप और शीलके सागर, गुणोंके समुद्र, दीनोंके बन्धु, दयाके निधान, ज्ञानियोंमें शिरोमणि तथा वचन और बाहुबलमें शूरवीर हैं। उन्होंने गृध्रका श्राद्ध किया, शबरीके फलोंकी प्रशंसा की, शिला बनी हुई अहल्याके शापको शमन किया और भीलोंके साथ प्रेम निबाहा। गोसाईंजी कहते हैं कि श्रीरामचन्द्रके स्वभावको सुनकर उत्साह होता है। उसपर कौन न्योछावर नहीं होगा और कौन उसके हाथ बिना मोल नहीं बिक जायगा। ऐसे उत्तम स्वामीसे भी जिसे प्रीति नहीं है, वह बड़ा ही अभागा है और उस लोभसे चलायमान मनुष्यका भाग्य ही उससे दूर भाग गया है॥ १५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूरसिरताज, महाराजनि के महाराज,
जाको नामु लेतहीं सुखेतु होत ऊसरो।
साहेबु कहाँ जहान जानकीसु सो सुजान,
सुमिरें कृपालुके मरालु होत खूसरो॥
केवट, पषान, जातुधान, कपि-भालु तारे,
अपनायो तुलसी-सो धींग धमधूसरो।
बोलको अटल, बाँहको पगारु, दीनबंधु,
दूबरेको दानी, को दयानिधानु दूसरो॥
मूल
सूरसिरताज, महाराजनि के महाराज,
जाको नामु लेतहीं सुखेतु होत ऊसरो।
साहेबु कहाँ जहान जानकीसु सो सुजान,
सुमिरें कृपालुके मरालु होत खूसरो॥
केवट, पषान, जातुधान, कपि-भालु तारे,
अपनायो तुलसी-सो धींग धमधूसरो।
बोलको अटल, बाँहको पगारु, दीनबंधु,
दूबरेको दानी, को दयानिधानु दूसरो॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो वीरोंके शिरोमणि और महाराजोंके महाराज हैं, जिनका नाम लेते ही बंजर जमीन भी उपजाऊ हो जाती है, उन जानकीपति (श्रीराम) के समान सुजान स्वामी संसारमें कौन है? जिस कृपालुको स्मरण करनेसे ही उल्लू भी हंस हो जाता है। उन्होंने केवट, शिलारूप (अहल्या), राक्षस, वानर और भालुओंको तारा और तुलसी-से गँवार मुस्टंडेको भी अपना लिया। उनके समान बातका पक्का और भुजाओंका आश्रय देनेवाला तथा दुःखियोंका सगा, दुर्बलोंका दानी और दयाका भण्डार दूसरा कौन है?॥ १६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीबेको बिसोक लोक लोकपाल हुते सब,
कहूँ कोऊ भो न चरवाहो कपि-भालुको।
पबिको पहारु कियो ख्यालही कृपाल राम,
बापुरो बिभीषनु घरौंधा हुतो बालुको॥
नाम-ओट लेत ही निखोट होत खोटे खल,
चोट बिनु मोट पाइ भयो न निहालु को?
तुलसीकी बार बड़ी ढील होति सीलसिंधु!
बिगरी सुधारिबेको दूसरो दयालु को॥
मूल
कीबेको बिसोक लोक लोकपाल हुते सब,
कहूँ कोऊ भो न चरवाहो कपि-भालुको।
पबिको पहारु कियो ख्यालही कृपाल राम,
बापुरो बिभीषनु घरौंधा हुतो बालुको॥
नाम-ओट लेत ही निखोट होत खोटे खल,
चोट बिनु मोट पाइ भयो न निहालु को?
तुलसीकी बार बड़ी ढील होति सीलसिंधु!
बिगरी सुधारिबेको दूसरो दयालु को॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोकोंको शोकरहित करनेके लिये (इन्द्रादिक) सभी लोकपाल थे, परंतु [आजतक] रीछ-वानरोंको खिलाने-पिलानेवाला कोई कहीं नहीं हुआ। बेचारा विभीषण जो बालूके घरौंदे (खेलवाड़के घर) के समान निर्बल था, उसे श्रीरामचन्द्रने संकल्पमात्रसे वज्रके पहाड़की तरह दुर्धर्ष बना दिया। खोटे और दुष्ट लोग भी उनके नामकी ओट लेते ही निर्दोष हो जाते हैं। भला, बिना परिश्रम (धनकी) गठरी पाकर कौन निहाल नहीं हुआ? तुलसीदासजी कहते हैं, हे शीलसिन्धु! मेरी बार बड़ी ढिलाई हो रही है। भला, बिगड़ीको बनानेवाला आपके सिवा दूसरा कौन कृपालु है?॥ १७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु लिएँ पूतको पुनीत कियो पातकीसु,
आरति निवारी ‘प्रभु पाहि’ कहें पीलकी।
छलिनको छोंड़ी, सो निगोड़ी छोटी जाति-पाँति
कीन्ही लीन आपुमें सुनारी भोंड़े भीलकी॥
तुलसी औ तारिबो, बिसारिबो न अंत मोहि,
नीकें है प्रतीति रावरे सुभाव-सीलकी।
देऊ तौ दयानिकेत, देत दादि दीननको,
मेरी बार मेरें ही अभाग नाथ ढील की॥
मूल
नामु लिएँ पूतको पुनीत कियो पातकीसु,
आरति निवारी ‘प्रभु पाहि’ कहें पीलकी।
छलिनको छोंड़ी, सो निगोड़ी छोटी जाति-पाँति
कीन्ही लीन आपुमें सुनारी भोंड़े भीलकी॥
तुलसी औ तारिबो, बिसारिबो न अंत मोहि,
नीकें है प्रतीति रावरे सुभाव-सीलकी।
देऊ तौ दयानिकेत, देत दादि दीननको,
मेरी बार मेरें ही अभाग नाथ ढील की॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने पुत्रका नाम लेनेसे ही पातकियोंके सरदार (अजामिल) को पवित्र कर दिया और ‘रक्षा करो’ ऐसा कहते ही गजराजका दुःख दूर कर दिया। जो छलियोंकी लड़की, अभागी, जाति-पाँतिमें छोटी तथा गँवार भीलकी स्त्री थी, उसे भी आपने अपनेमें लीन कर लिया। अब आप तुलसीको भी तार दें। अन्तमें मुझे ही न भूल जायँ। आपके शील-स्वभावका मुझे खूब भरोसा है। हे देव! आप तो दयाधाम हैं; गरीबोंकी सदा ही सहायता करते हैं। हे नाथ! अब मेरी बार मेरे ही दुर्भाग्यसे आपने ढिलाई की है॥ १८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगें परे पाहन कृपाँ किरात, कोलनी,
कपीसु, निसिचरु अपनाए नाएँ माथ जू।
साँची सेवकाई हनुमान की सुजानराय,
रिनियाँ कहाए हौ, बिकाने ताके हाथ जू॥
तुलसी-से खोटे खरे होत ओट नाम ही कीं,
तेजी माटी मगहू की मृगमद साथ जू।
बात चलें बातको न मानिबो बिलगु, बलि,
काकीं सेवाँ रीझिकै नेवाजो रघुनाथ जू?
मूल
आगें परे पाहन कृपाँ किरात, कोलनी,
कपीसु, निसिचरु अपनाए नाएँ माथ जू।
साँची सेवकाई हनुमान की सुजानराय,
रिनियाँ कहाए हौ, बिकाने ताके हाथ जू॥
तुलसी-से खोटे खरे होत ओट नाम ही कीं,
तेजी माटी मगहू की मृगमद साथ जू।
बात चलें बातको न मानिबो बिलगु, बलि,
काकीं सेवाँ रीझिकै नेवाजो रघुनाथ जू?
अनुवाद (हिन्दी)
हे नाथ! आपने कृपा करके अपने आगे पड़ी शिलाको तथा किरात, भीलनी, सुग्रीव और केवल सिर नवानेसे ही राक्षस विभीषणको अपना लिया। हे सुजानशिरोमणि! सच्ची सेवा तो आपकी हनुमान् जी ने की, जो आप उनके ऋणी कहलाये और उनके हाथ बिक गये। तुलसीके समान दम्भी भी आपके नामकी ओट लेनेसे ही सच्चे हो जाते हैं, जैसे रास्तेकी मिट्टी कस्तूरीके संसर्गसे बहुमूल्य हो जाती है। इस प्रसंगपर यदि मैं कोई बात पूछूँ तो बुरा न मानियेगा। हे रघुनाथजी! मैं आपकी बलि जाता हूँ, भला, आपने किसकी सेवासे रीझकर कृपा की है? [अर्थात् आपने अपनी कृपालुतासे ही अपने सेवकोंको बढ़ाया है, किसीने भी ऐसी सेवा नहीं की, जिससे आप रीझ सकें।]॥ १९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौसिककी चलत, पषानकी परस पाय,
टूटत धनुष बनि गई है जनककी।
कोल, पसु, सबरी, बिहंग, भालु, रातिचर,
रतिनके लालचिन प्रापति मनककी॥
कोटि-कला-कुसल कृपाल नतपाल! बलि,
बातहू केतिक तिन तुलसी तनककी।
राय दसरत्थके समत्थ राम राजमनि!
तेरें हेरें लोपै लिपि बिधिहू गनककी॥
मूल
कौसिककी चलत, पषानकी परस पाय,
टूटत धनुष बनि गई है जनककी।
कोल, पसु, सबरी, बिहंग, भालु, रातिचर,
रतिनके लालचिन प्रापति मनककी॥
कोटि-कला-कुसल कृपाल नतपाल! बलि,
बातहू केतिक तिन तुलसी तनककी।
राय दसरत्थके समत्थ राम राजमनि!
तेरें हेरें लोपै लिपि बिधिहू गनककी॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्रजीकी बात (केवल साथ) चल देनेसे, शिला (बनी हुई अहल्या) की चरणस्पर्शमात्रसे और राजा जनककी धनुषके टूटनेसे बन गयी। कोल, पशु (सुग्रीवादि वानर), शबरी, गीध (जटायु), भालु और (विभीषण आदि) राक्षसोंको रत्तीभरका लालच था, उनको मनभरकी प्राप्ति हो गयी (अर्थात् जितना वे चाहते थे, उससे बहुत अधिक उन्हें मिल गया)। हे करोड़ों कलाओंमें कुशल एवं विनीतकी रक्षा करनेवाले दयालो! आपकी बलिहारी है; तिनकेके समान तुच्छ इस तुलसीदासकी बात ही कितनी है। हे महाराज दशरथके समर्थ पुत्र राजशिरोमणि राम! तुम्हारी दृष्टिमात्रसे ब्रह्मा-जैसे ज्योतिषीकी लिपि भी मिट जाती है॥ २०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिला-श्रापु पापु, गुह-गीधको मिलापु
सबरीके पास आपु चलि गए हौ सो सुनी मैं।
सेवक सराहे कपिनायकु बिभीषनु
भरतसभा सादर सनेह सुरधुनी मैं॥
आलसी-अभागी-अघी-आरत-अनाथपाल
साहेबु समर्थ एकु, नीकें मन गुनी मैं।
दोष-दुख-दारिद-दलैया दीनबंधु राम!
‘तुलसी’ न दूसरो दयानिधानु दुनी मैं॥
मूल
सिला-श्रापु पापु, गुह-गीधको मिलापु
सबरीके पास आपु चलि गए हौ सो सुनी मैं।
सेवक सराहे कपिनायकु बिभीषनु
भरतसभा सादर सनेह सुरधुनी मैं॥
आलसी-अभागी-अघी-आरत-अनाथपाल
साहेबु समर्थ एकु, नीकें मन गुनी मैं।
दोष-दुख-दारिद-दलैया दीनबंधु राम!
‘तुलसी’ न दूसरो दयानिधानु दुनी मैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने शिला (बनी हुई अहल्या) के शाप (और व्यभिचाररूप) पाप, निषाद तथा गीध (जटायु)से मिलनेकी बात सुनी और शबरीके पास स्वयं (बिना बुलाये) चले गये, यह सभी मैं सुन चुका हूँ। आपने स्नेह एवं आदरपूर्वक भरतजीके सामने सभाके बीच अपने सेवक वानरराज (सुग्रीव) की और विभीषणकी गङ्गाके समान (पवित्र) कहकर प्रशंसा की। मैंने मनमें अच्छी तरह विचार कर लिया कि आलसी, अभागे, पापी, आर्त्त और अनाथोंका पालन करनेवाले समर्थ साहब एक आप ही हैं। तुलसीदासजी कहते हैं—दोष, दुःख और दरिद्रताका नाश करनेवाले हे दीनबन्धु राम! आपके समान दयानिधान दुनियामें दूसरा नहीं है॥ २१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मीतु बालिबंधु, पूतु, दूतु, दसकंधबंधु
सचिव, सराधु कियो सबरी-जटाइको।
लंक जरी जोहें जियँ सोचुसो बिभीषनुको,
कहौ ऐसे साहेबकी सेवाँ न खटाइ को॥
बड़े एक-एकतें अनेक लोक लोकपाल,
अपने-अपनेको तौ कहैगो घटाइ को।
साँकरेके सेइबे, सराहिबे, सुमिरिबेको
रामु सो न साहेबु, न कुमति-कटाइको॥
मूल
मीतु बालिबंधु, पूतु, दूतु, दसकंधबंधु
सचिव, सराधु कियो सबरी-जटाइको।
लंक जरी जोहें जियँ सोचुसो बिभीषनुको,
कहौ ऐसे साहेबकी सेवाँ न खटाइ को॥
बड़े एक-एकतें अनेक लोक लोकपाल,
अपने-अपनेको तौ कहैगो घटाइ को।
साँकरेके सेइबे, सराहिबे, सुमिरिबेको
रामु सो न साहेबु, न कुमति-कटाइको॥
अनुवाद (हिन्दी)
वालिके भाई (सुग्रीव) को अपना मित्र बनाया, उसके पुत्र (अङ्गद) को दूत बनाया, रावण (जैसे शत्रु) के भाई (विभीषण) को मन्त्री बनाया, जटायु और शबरीका श्राद्ध किया तथा लंकाको जली देख चित्तमें विभीषणके लिये चिन्ता-सी हुई (कि जली हुई लंका मैंने इन्हें दी), कहो, भला ऐसे स्वामीकी सेवामें कौन नहीं निभ जायगा? अनेकों लोकोंमें वहाँके लोकपाल एक-से-एक बड़े हैं, अपने-अपने स्वामीको भला कौन घटाकर कहेगा। परंतु दुःखमें सेवन करनेको, सराहनेको और स्मरण करनेको, भगवान् रामके समान कुमतिकी निवृत्ति करनेवाला कोई दूसरा स्वामी नहीं है॥ २२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमिपाल, ब्यालपाल, नाकपाल, लोकपाल
कारन कृपाल, मैं सबैके जीकी थाह ली।
कादरको आदरु काहूकें नाहिं देखिअत,
सबनि सोहात है सेवा-सुजानि टाहली॥
तुलसी सुभायँ कहै, नाहीं कछु पच्छपातु,
कौनें ईस किए कीस-भालु खास माहली।
रामही के द्वारे पै बोलाइ सनमानिअत
मोसे दीन दूबरे कपूत कूर काहली॥
मूल
भूमिपाल, ब्यालपाल, नाकपाल, लोकपाल
कारन कृपाल, मैं सबैके जीकी थाह ली।
कादरको आदरु काहूकें नाहिं देखिअत,
सबनि सोहात है सेवा-सुजानि टाहली॥
तुलसी सुभायँ कहै, नाहीं कछु पच्छपातु,
कौनें ईस किए कीस-भालु खास माहली।
रामही के द्वारे पै बोलाइ सनमानिअत
मोसे दीन दूबरे कपूत कूर काहली॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीपति, नागपति, देवलोकोंके स्वामी और लोकपाल—ये सब कारणवश कृपा करते हैं, मैं सभीके जीकी थाह ले चुका हूँ। कायरोंका आदर किसीके यहाँ देखनेमें नहीं आता; सबको सेवामें दक्ष सेवक सुहाते हैं। तुलसी सत्यभावसे कहता है, उसे कोई पक्षपात नहीं है—भला, किस स्वामीने रीछ और वानरोंको अपना खास माहली (रनिवासका सेवक) बनाया है? श्रीरामचन्द्रहीके द्वारपर मेरे समान दीन, दुर्बल, कुपूत, कायर और आलसीका बुलाकर सम्मान किया जाता है॥ २३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेवा अनुरूप फल देत भूप कूप ज्यों,
बिहूने गुन पथिक पिआसे जात पथके।
लेखें-जोखें चोखें चित ‘तुलसी’ स्वारथ हित,
नीकें देखे देवता देवैया घने गथके॥
गीधु मानो गुरु, कपि-भालु माने मीत कै,
पुनीत गीत-साके सब साहेब समत्थके।
और भूप परखि सुलाखि तौलि ताइ लेत,
लसमके खसमु तुहीं पै दसरत्थके॥
मूल
सेवा अनुरूप फल देत भूप कूप ज्यों,
बिहूने गुन पथिक पिआसे जात पथके।
लेखें-जोखें चोखें चित ‘तुलसी’ स्वारथ हित,
नीकें देखे देवता देवैया घने गथके॥
गीधु मानो गुरु, कपि-भालु माने मीत कै,
पुनीत गीत-साके सब साहेब समत्थके।
और भूप परखि सुलाखि तौलि ताइ लेत,
लसमके खसमु तुहीं पै दसरत्थके॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजालोग कूपके समान सेवानुकूल फल देते हैं, बिना गुण (रस्सी) के पथके पथिक प्यासे चले जाते हैं [तात्पर्य यह है कि जैसे बिना गुण (डोरी) के कूपसे जल नहीं आता, वैसे ही बिना गुणके राजालोगोंसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता ]। गोसाईंजी कहते हैं, शुद्ध चित्तसे भलीभाँति हिसाब लगाकर देख लिया कि स्वार्थके लिये धन देनेवाले देवता तो बहुत-से हैं। परंतु जिन्होंने गीधको गुरु (पिता) के समान माना और वानर-भालुओंको मित्र समझा, ऐसे समर्थ स्वामीके सभी गीत और कीर्ति-कथाएँ पवित्र हैं और जितने राजा हैं, वे सब तो (अपने सेवकोंको) अच्छी तरहसे जाँचकर, सूराख करके तौलकर तथा तपाकर लेते हैं,* परंतु हे दशरथके राजकुमार! निकम्मोंके प्रभु तो बस, आप ही हैं॥ २४॥
पादटिप्पनी
- सोनेको परखनेवाले ये सब क्रियाएँ करते हैं।
केवल रामहीसे माँगो
विश्वास-प्रस्तुतिः
रीति महाराजकी, नेवाजिए जो माँगनो, सो
दोष-दुख-दारिद दरिद्र कै-कै छोड़िए।
नामु जाको कामतरु देत फल चारि, ताहि
‘तुलसी’ बिहाइ कै बबूर-रेंड़ गोड़िए॥
जाचै को नरेस, देस-देसको कलेसु करै
देहैं तौ प्रसन्न ह्वै बड़ी बड़ाई बौंड़िए।
कृपा-पाथनाथ लोकनाथ-नाथ सीतानाथ
तजि रघुनाथु हाथ और काहि ओड़िये॥
मूल
रीति महाराजकी, नेवाजिए जो माँगनो, सो
दोष-दुख-दारिद दरिद्र कै-कै छोड़िए।
नामु जाको कामतरु देत फल चारि, ताहि
‘तुलसी’ बिहाइ कै बबूर-रेंड़ गोड़िए॥
जाचै को नरेस, देस-देसको कलेसु करै
देहैं तौ प्रसन्न ह्वै बड़ी बड़ाई बौंड़िए।
कृपा-पाथनाथ लोकनाथ-नाथ सीतानाथ
तजि रघुनाथु हाथ और काहि ओड़िये॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराजकी यह रीति है कि जिस याचकको अपनाते हैं, उसके दोष, दुःख और दरिद्रताको दरिद्र (क्षीण) करके छोड़ते हैं। जिनका नामरूप कल्पवृक्ष चारों फलों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) का देनेवाला है; गोसाईंजी कहते हैं—उन्हें त्यागकर बबूल और रेड़ कौन रोपे? राजाओंसे याचना कौन करे? और देश-विदेश घूमनेका कष्ट कौन भोगे? जो प्रसन्न होकर बहुत बढ़कर देंगे तो एक दमड़ीसे अधिक न देंगे, कृपाके समुद्र, लोकपालोंके स्वामी सीतानाथ श्रीरामचन्द्रजीको छोड़कर और किसके आगे हाथ फैलाया जाय?॥ २५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाकें बिलोकत लोकप होत, बिसोक लहैं सुरलोग सुठौरहि।
सो कमला तजि चंचलता,करि कोटि कला रिझवै सुरमौरहि॥
ताको कहाइ, कहै तुलसी, तूँ लजाहि न मागत कूकुर-कौरहि।
जानकी-जीवनको जनु ह्वै जरि जाउ सो जीह जो जाचत औरहि॥
मूल
जाकें बिलोकत लोकप होत, बिसोक लहैं सुरलोग सुठौरहि।
सो कमला तजि चंचलता,करि कोटि कला रिझवै सुरमौरहि॥
ताको कहाइ, कहै तुलसी, तूँ लजाहि न मागत कूकुर-कौरहि।
जानकी-जीवनको जनु ह्वै जरि जाउ सो जीह जो जाचत औरहि॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी दृष्टिमात्रसे मनुष्य लोकपाल हो जाता है और देवतालोग सुन्दर शोकरहित स्थानको प्राप्त कर लेते हैं, वह लक्ष्मी (अपनी स्वाभाविक) चञ्चलता त्यागकर करोड़ों उपायोंसे विष्णुरूप श्रीरामचन्द्रजीको रिझाती है; गोसाईंजी कहते हैं कि तू उनका कहलाकर कुत्तेको दिया जानेवाला टुकड़ा (तुच्छ भोग) माँगनेमें लज्जित नहीं होता। जानकीजीवन (श्रीरामचन्द्रजी) का सेवक होकर भी जो दूसरेसे माँगता है, उसकी जीभ जल जाय॥ २६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जड पंच मिलै जेहिं देह करी, करनी लखु धौं धरनीधरकी।
जनकी कहु, क्यों करिहै न सँभार, जो सार करै सचराचरकी॥
तुलसी! कहु राम समान को आन है, सेवकि जासु रमा घरकी।
जगमें गति जाहि जगत्पतिकी परवाह है ताहि कहा नरकी॥
मूल
जड पंच मिलै जेहिं देह करी, करनी लखु धौं धरनीधरकी।
जनकी कहु, क्यों करिहै न सँभार, जो सार करै सचराचरकी॥
तुलसी! कहु राम समान को आन है, सेवकि जासु रमा घरकी।
जगमें गति जाहि जगत्पतिकी परवाह है ताहि कहा नरकी॥
अनुवाद (हिन्दी)
भला, उस धरणीधरकी लीला तो देखो, जिसने पाँच जड़ तत्त्वोंको मिलाकर यह देह बनायी है। इस प्रकार जो चराचरकी सँभाल करता है, कहो भला, अपने भक्तोंकी सँभाल वह क्यों न करेगा? गोसाईंजी अपनेसे ही कहते हैं—हे तुलसीदास! बतलाओ तो रामके समान दूसरा कौन है, जिसके घरकी किंकरी लक्ष्मी है, इस संसारमें जिसे उस जगत्पतिका ही भरोसा है, वह मनुष्यकी क्या परवा करेगा?॥ २७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जग जाचिअ कोउ न, जाचिअ जौं जियँ जाचिअ जानकी जानहि रे।
जेहि जाचत जाचकता जरि जाइ, जो जारति जोर जहानहि रे॥
गति देखु बिचारि बिभीषनकी, अरु आनु हिएँ हनुमानहि रे।
तुलसी! भजु दारिद-दोष-दवानल संकट-कोटि-कृपानहि रे॥
मूल
जग जाचिअ कोउ न, जाचिअ जौं जियँ जाचिअ जानकी जानहि रे।
जेहि जाचत जाचकता जरि जाइ, जो जारति जोर जहानहि रे॥
गति देखु बिचारि बिभीषनकी, अरु आनु हिएँ हनुमानहि रे।
तुलसी! भजु दारिद-दोष-दवानल संकट-कोटि-कृपानहि रे॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें किसीसे (कुछ) माँगना नहीं चाहिये! यदि माँगना ही हो तो जानकीनाथ (श्रीरामचन्द्रजी) से मनहीमें माँगो, जिनसे माँगते ही याचकता (दरिद्रता, कामना) जल जाती है, जो बरबस जगत् को जला रही है। विभीषणकी दशाका विचार करके देखो और हनुमान् जी का भी स्मरण करो। गोसाईंजी कहते हैं कि हे तुलसीदास! दरिद्रतारूपी दोषको जलानेके लिये दावानलके समान और करोड़ों संकटोंको काटनेके लिये कृपाणरूप श्रीरामचन्द्रजीको भजो॥ २८॥
उद्बोधन
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनु कान दिएँ, नितु नेमु लिएँ रघुनाथहिके गुनगाथहि रे।
सुखमंदिर सुंदर रूपु सदा उर आनि धरें धनु-भाथहि रे॥
रसना निसि-बासर सादर सों तुलसी! जपु जानकीनाथहि रे।
करु संग सुसील सुसंतन सों, तजि कूर, कुपंथ कुसाथहि रे॥
मूल
सुनु कान दिएँ, नितु नेमु लिएँ रघुनाथहिके गुनगाथहि रे।
सुखमंदिर सुंदर रूपु सदा उर आनि धरें धनु-भाथहि रे॥
रसना निसि-बासर सादर सों तुलसी! जपु जानकीनाथहि रे।
करु संग सुसील सुसंतन सों, तजि कूर, कुपंथ कुसाथहि रे॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे तुलसीदास! नित्य नियमपूर्वक कान (ध्यान) देकर श्रीरघुनाथजीकी गुणगाथा श्रवण करो। सुखके स्थान, धनुष और तरकश धारण किये हुए (श्रीरामचन्द्रजीके) सुन्दर स्वरूपका ही सदा स्मरण करो और जिह्वासे रात-दिन आदरपूर्वक श्रीजानकीनाथका ही नाम जपो। सुशील और संत-पुरुषोंका सङ्ग करो एवं कपटी पुरुष, कुपंथ और कुसंगको त्याग दो॥ २९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुत, दार, अगारु, सखा, परिवारु बिलोकु महा कुसमाजहि रे।
सबकी ममता तजि कै, समता सजि, संतसभाँ न बिराजहि रे॥
नरदेह कहा, करि देखु बिचारु, बिगारु गँवार न काजहि रे।
जनि डोलहि लोलुप कूकरु ज्यों, तुलसी भजु कोसलराजहि रे॥
मूल
सुत, दार, अगारु, सखा, परिवारु बिलोकु महा कुसमाजहि रे।
सबकी ममता तजि कै, समता सजि, संतसभाँ न बिराजहि रे॥
नरदेह कहा, करि देखु बिचारु, बिगारु गँवार न काजहि रे।
जनि डोलहि लोलुप कूकरु ज्यों, तुलसी भजु कोसलराजहि रे॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्र, कलत्र, घर, मित्र, परिवार—इन सबको महाकुसमाज समझो; सबकी ममता त्यागकर समता धारणकर, संतोंकी सभामें नहीं विराजता? यह नरदेह क्या है? जरा विचारकर देखो। तुलसीदासजी (अपने ही लिये) कहते हैं—अरे गँवार! कामको न बिगाड़। लालची कुत्तेकी तरह (इधर-उधर) न भटक, कोसलराज (श्रीरामचन्द्र) का भजन कर॥ ३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिषया परनारि निसा-तरुनाई सो पाइ परॺो अनुरागहि रे।
जमके पहरू दुख, रोग बियोग बिलोकत हू न बिरागहि रे॥
ममता बस तैं सब भूलि गयो, भयो भोरु, महा भय, भागहि रे।
जरठाइ-दिसाँ, रबिकालु उग्यो, अजहूँ जड़ जीव! न जागहि रे॥
मूल
बिषया परनारि निसा-तरुनाई सो पाइ परॺो अनुरागहि रे।
जमके पहरू दुख, रोग बियोग बिलोकत हू न बिरागहि रे॥
ममता बस तैं सब भूलि गयो, भयो भोरु, महा भय, भागहि रे।
जरठाइ-दिसाँ, रबिकालु उग्यो, अजहूँ जड़ जीव! न जागहि रे॥
अनुवाद (हिन्दी)
तरुणाईरूपी निशा पाकर तू विषयरूपी परस्त्रीकी प्रीतिमें फँस गया है। यमराजके पहरेदार दुःख, रोग और वियोगको देखकर भी तुझे वैराग्य नहीं होता। ममतावश तू सब भूल गया। अब भोर हो गया है, इस महान् भयसे भाग जा। बुढ़ापारूपी (पूर्व) दिशामें काल (मृत्यु) रूप सूर्यका उदय हो गया। अरे जड़ जीव! तू अब भी नहीं जागता?॥ ३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनम्यौ जेहिं जोनि, अनेक क्रिया सुख लागि करीं, न परैं बरनी।
जननी-जनकादि हितू भये भूरि, बहोरि भई उरकी जरनी॥
तुलसी! अब रामको दासु कहाइ, हिएँ धरु चातककी धरनी।
करि हंसको बेषु बड़ो सबसों, तजि दे बक-बायसकी करनी॥
मूल
जनम्यौ जेहिं जोनि, अनेक क्रिया सुख लागि करीं, न परैं बरनी।
जननी-जनकादि हितू भये भूरि, बहोरि भई उरकी जरनी॥
तुलसी! अब रामको दासु कहाइ, हिएँ धरु चातककी धरनी।
करि हंसको बेषु बड़ो सबसों, तजि दे बक-बायसकी करनी॥
अनुवाद (हिन्दी)
तूने जिस योनिमें जन्म लिया, उसीमें सुखके लिये अनेकों कर्म किये, जिनका वर्णन नहीं किया जा सकता। माता-पिता इत्यादि तेरे अनेकों हितैषी हुए और फिर उन्हींसे हृदयमें जलन होने लगी। गोसाईंजी (अपने लिये) कहते हैं कि अब रामका दास कहलाकर तो हृदयमें चातककी-सी टेक धारण कर [अर्थात् जैसे चातक मेघके सिवा और किसीसे याचना नहीं करता, उसी प्रकार तू भी रामको छोड़कर और किसीके आगे हाथ न पसार] अब सबसे बड़ा हंसका वेष धारण करके तो बगुला और कौओंकी-सी करनी छोड़ दे॥ ३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भलि भारतभूमि, भलें कुल जन्मु, समाजु सरीरु भलो लहि कै।
करषा तजि कै परुषा बरषा, हिम, मारुत, घाम सदा सहि कै॥
जो भजै भगवानु सयान सोई, ‘तुलसी’ हठ चातकु ज्यों गहि कै।
नतु और सबै बिषबीज बए , हर हाटक कामदुहा नहि कै॥
मूल
भलि भारतभूमि, भलें कुल जन्मु, समाजु सरीरु भलो लहि कै।
करषा तजि कै परुषा बरषा, हिम, मारुत, घाम सदा सहि कै॥
जो भजै भगवानु सयान सोई, ‘तुलसी’ हठ चातकु ज्यों गहि कै।
नतु और सबै बिषबीज बए , हर हाटक कामदुहा नहि कै॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारतवर्षकी पवित्र भूमि है, उत्तम (आर्य) कुलमें जन्म हुआ है, समाज और शरीर भी उत्तम मिला है। गोसाईंजी कहते हैं—ऐसी अवस्थामें जो पुरुष क्रोध और कठोर वचन त्यागकर वर्षा, जाड़ा, वायु और घामको सहन करते हुए चातकके समान हठपूर्वक सर्वथा भगवान् को भजता है, वही चतुर है; अन्यथा और सब तो सुवर्णके हलमें कामधेनुको जोतकर (केवल) विष-बीज बोते हैं॥ ३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जो सुकृती सुचिमंत सुसंत, सुजान सुसीलसिरोमनि स्वै।
सुर-तीरथ तासु मनावत आवत, पावन होत हैं ता तनु छ्वै॥
गुनगेहु सनेहको भाजनु सो, सब ही सों उठाइ कहौं भुज द्वै।
सतिभायँ सदा छल छाड़ि सबै, ‘तुलसी’ जो रहै रघुबीरको ह्वै॥
मूल
जो सुकृती सुचिमंत सुसंत, सुजान सुसीलसिरोमनि स्वै।
सुर-तीरथ तासु मनावत आवत, पावन होत हैं ता तनु छ्वै॥
गुनगेहु सनेहको भाजनु सो, सब ही सों उठाइ कहौं भुज द्वै।
सतिभायँ सदा छल छाड़ि सबै, ‘तुलसी’ जो रहै रघुबीरको ह्वै॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं—मैं दोनों भुजाएँ उठाकर सभीसे कहता हूँ, जो (पुरुष) सब प्रकारके छल छोड़कर सच्चे भावसे श्रीरघुनाथजीका हो रहता है, वही पुण्यात्मा, पवित्र, साधु, सुजान और सुशील-शिरोमणि है; देवता और तीर्थ उसके मनाते ही आ जाते हैं और उसके शरीरका स्पर्श कर स्वयं भी पवित्र हो जाते हैं तथा वह सभी प्रकारके गुणोंका आकर और सबका स्नेहभाजन हो जाता है॥ ३४॥
विनय
विश्वास-प्रस्तुतिः
सो जननी, सो पिता, सोइ भाइ, सो भामिनि, सो सुतु, सो हितु मेरो।
सोइ सगो, सो सखा, सोइ सेवकु, सो गुरु, सो सुरु, साहेबु चेरो॥
सो ‘तुलसी’ प्रिय प्रान समान, कहाँ लौं बनाइ कहौं बहुतेरो।
जो तजि देहको, गेहको नेहु, सनेहसों रामको होइ सबेरो॥
मूल
सो जननी, सो पिता, सोइ भाइ, सो भामिनि, सो सुतु, सो हितु मेरो।
सोइ सगो, सो सखा, सोइ सेवकु, सो गुरु, सो सुरु, साहेबु चेरो॥
सो ‘तुलसी’ प्रिय प्रान समान, कहाँ लौं बनाइ कहौं बहुतेरो।
जो तजि देहको, गेहको नेहु, सनेहसों रामको होइ सबेरो॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोसाईंजी कहते हैं—जो पुरुष शरीर और घरकी ममताको त्यागकर जल्दी-से-जल्दी स्नेहपूर्वक भगवान् रामका हो जाता है, वही मेरी माता है, वही पिता है, वही भाई है, वही स्त्री है, वही पुत्र है और वही हितैषी है तथा वही मेरा सम्बन्धी, वही मित्र, वही सेवक, वही गुरु, वही देवता, वही स्वामी और वही सेवक (अर्थात् वही सब कुछ) है। अधिक कहाँतक बनाकर कहूँ, वह मुझे प्राणोंके समान प्रिय है॥ ३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामु हैं मातु, पिता, गुरु, बंधु, औ संगी, सखा, सुतु, स्वामि, सनेही।
रामकी सौंह, भरोसो है रामको, राम रँग्यो, रुचि राच्यो न केही॥
जीअत रामु, मुएँ पुनि रामु, सदा रघुनाथहि की गति जेही।
सोई जिऐ जगमें, ‘तुलसी’ नतु डोलत और मुए धरि देही॥
मूल
रामु हैं मातु, पिता, गुरु, बंधु, औ संगी, सखा, सुतु, स्वामि, सनेही।
रामकी सौंह, भरोसो है रामको, राम रँग्यो, रुचि राच्यो न केही॥
जीअत रामु, मुएँ पुनि रामु, सदा रघुनाथहि की गति जेही।
सोई जिऐ जगमें, ‘तुलसी’ नतु डोलत और मुए धरि देही॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजी ही मेरी माता हैं, वे ही पिता हैं तथा वे ही गुरु, बन्धु, साथी, सखा, पुत्र, प्रभु और प्रेमी हैं। श्रीरामचन्द्रकी शपथ है, मुझे तो रामका ही भरोसा है, मैं रामहीके रंगमें रँगा हुआ हूँ, दूसरेमें रुचिपूर्वक मेरा मन ही नहीं लगता। गोसाईंजी कहते हैं—जिसे जीते हुए भी रामसे ही स्नेह है और जो मरनेपर भी रामहीमें मिल जाता है, इस प्रकार सदैव जिसे रामका ही भरोसा है, वही संसारमें जीता है, नहीं तो और सब मरे हुए ही देह धारण किये डोलते हैं॥ ३६॥
रामप्रेम ही सार है
विश्वास-प्रस्तुतिः
सियराम-सरूपु अगाध अनूप बिलोचन-मीननको जलु है।
श्रुति रामकथा, मुख रामको नामु, हिएँ पुनि रामहिको थलु है॥
मति रामहि सों, गति रामहि सों, रति रामसों, रामहि को बलु है।
सबकी न कहै, तुलसीके मतें इतनो जग जीवनको फलु है॥
मूल
सियराम-सरूपु अगाध अनूप बिलोचन-मीननको जलु है।
श्रुति रामकथा, मुख रामको नामु, हिएँ पुनि रामहिको थलु है॥
मति रामहि सों, गति रामहि सों, रति रामसों, रामहि को बलु है।
सबकी न कहै, तुलसीके मतें इतनो जग जीवनको फलु है॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीराम और जानकीजीका अनुपम सौन्दर्य नेत्ररूपी मछलियोंके लिये अगाध जल है। कानोंमें श्रीरामकी कथा, मुखसे रामका नाम और हृदयमें रामजीका ही स्थान है। बुद्धि भी राममें लगी हुई है, रामहीतक गति है, रामहीसे प्रीति है और रामहीका बल है और सबकी बात तो नहीं कहता, परंतु तुलसीदासके मतमें तो जगत् में जीनेका फल यही है॥ ३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दसरत्थके दानि सिरोमनि राम! पुरानप्रसिद्ध सुन्यो जसु मैं।
नर नाग सुरासुर जाचक जो, तुमसों मन भावत पायो न कैं॥
तुलसी कर जोरि करै बिनती, जो कृपा करि दीनदयाल सुनैं।
जेहि देह सनेहु न रावरे सों, असि देह धराइ कै जायँ जियैं॥
मूल
दसरत्थके दानि सिरोमनि राम! पुरानप्रसिद्ध सुन्यो जसु मैं।
नर नाग सुरासुर जाचक जो, तुमसों मन भावत पायो न कैं॥
तुलसी कर जोरि करै बिनती, जो कृपा करि दीनदयाल सुनैं।
जेहि देह सनेहु न रावरे सों, असि देह धराइ कै जायँ जियैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे दशरथजीके पुत्र दानियोंमें श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी! मैंने आपका पुराणोंमें प्रसिद्ध यश सुना है, नर, नाग, सुर तथा असुरोंमें जितने भी आपके याचक बने, उनमेंसे किसने आपसे अपना मनोवाञ्छित पदार्थ नहीं पाया? यदि दीनवत्सल प्रभु राम कृपा करके सुनें तो तुलसीदास हाथ जोड़कर विनय करता है कि जिस देहसे आपके प्रति स्नेह न हो ऐसा देह धारणकर जीवित रहना व्यर्थ है॥ ३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
झूठो है, झूठो है, झूठो सदा जगु, संत कहंत जे अंतु लहा है।
ताको सहै सठ! संकट कोटिक, काढ़त दंत, करंत हहा है॥
जानपनीको गुमान बड़ो, तुलसीके बिचार गँवार महा है।
जानकीजीवनु जान न जान्यो तौ जान कहावत जान्यो कहा है॥
मूल
झूठो है, झूठो है, झूठो सदा जगु, संत कहंत जे अंतु लहा है।
ताको सहै सठ! संकट कोटिक, काढ़त दंत, करंत हहा है॥
जानपनीको गुमान बड़ो, तुलसीके बिचार गँवार महा है।
जानकीजीवनु जान न जान्यो तौ जान कहावत जान्यो कहा है॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी अपने लिये कहते हैं कि अरे दुष्ट! जिन संतोंने इस संसारकी थाह पा ली है, वे कहते हैं कि संसार झूठा है, झूठा है, झूठा है, परंतु उसके लिये करोड़ों संकट सहता है और दाँत निकालकर हाय-हाय करता है। तुझे अपने ज्ञानीपनेका बड़ा अभिमान है, परंतु तुलसीके विचारसे तो तू महागँवार है। यदि तूने ज्ञानके द्वारा जानकी जीवन (श्रीरामचन्द्रजी) को नहीं जाना तो तूने ज्ञानी कहलाते हुए भी (वस्तुतः) क्या जाना? [अर्थात् कुछ भी नहीं जाना]॥ ३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तिन्ह तें खर, सूकर, स्वान भले, जड़ता बस ते न कहैं कछु वै।
‘तुलसी’ जेहि रामसों नेहु नहीं सो सही पसु पूँछ, बिषान न द्वै।
जननी कत भार मुई दस मास, भई किन बाँझ, गई किन च्वै।
जरि जाउ सो जीवनु, जानकीनाथ! जियै जगमें तुम्हरो बिनु ह्वै॥
मूल
तिन्ह तें खर, सूकर, स्वान भले, जड़ता बस ते न कहैं कछु वै।
‘तुलसी’ जेहि रामसों नेहु नहीं सो सही पसु पूँछ, बिषान न द्वै।
जननी कत भार मुई दस मास, भई किन बाँझ, गई किन च्वै।
जरि जाउ सो जीवनु, जानकीनाथ! जियै जगमें तुम्हरो बिनु ह्वै॥
अनुवाद (हिन्दी)
गोसाईंजी कहते हैं कि जिन्हें श्रीरामजीसे स्नेह नहीं है, वे सचमुच पशु ही हैं; उनके केवल एक पूँछ और दो सींगोंकी कसर है। उनसे तो गधे, सूअर और कुत्ते भी अच्छे हैं; क्योंकि वे बेचारे जड़ होनेके कारण कुछ कहते तो नहीं। उनकी माँ दस महीनेतक उनके भारसे क्यों मरी? बाँझ क्यों नहीं हो गयी? अथवा उसका गर्भ ही क्यों नहीं गिर गया? हे जानकीनाथ! जो पुरुष संसारमें तुम्हारा हुए बिना जीता है, उसका जीवन जल जाय (जला देनेके योग्य है)॥ ४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गज-बाजि-घटा, भले भूरि भटा, बनिता, सुत भौंह तकैं सब वै।
धरनी, धनु धाम सरीरु भलो, सुरलोकहु चाहि इहै सुखु स्वै॥
सब फोकट साटक है तुलसी, अपनो न कछू सपनो दिन द्वै।
जरि जाउ सो जीवनु जानकीनाथ! जियै जगमें तुम्हरो बिनु ह्वै॥
मूल
गज-बाजि-घटा, भले भूरि भटा, बनिता, सुत भौंह तकैं सब वै।
धरनी, धनु धाम सरीरु भलो, सुरलोकहु चाहि इहै सुखु स्वै॥
सब फोकट साटक है तुलसी, अपनो न कछू सपनो दिन द्वै।
जरि जाउ सो जीवनु जानकीनाथ! जियै जगमें तुम्हरो बिनु ह्वै॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाथी-घोड़ोंके समूह-के-समूह हैं, अनेक अच्छे-अच्छे वीर हैं, स्त्री-पुत्र सब भौंहें ताकते रहते हैं; पृथ्वी, धन, घर, शरीर—सब कुछ अच्छे हैं; देवलोकसे भी यह सुख बढ़कर है, किंतु गोसाईंजी कहते हैं कि यह सब निरर्थक और निःसार है, अपना कुछ नहीं है। सब दो दिनका स्वप्न है। हे जानकीनाथ! जो संसारमें तुम्हारा हुए बिना जीता है, उसका जीवन जल जाय॥ ४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुरराज-सो राज-समाजु, समृद्धि बिरंचि, धनाधिप-सो धनु भो।
पवमानु-सो, पावकु-सो, जमु, सोमु-सो, पूषनु-सो, भवभूषनु भो॥
करि जोग, समीरन साधि, समाधि कै धीर बड़ो, बसहू मनु भो।
सब जाय, सुभायँ कहै तुलसी, जो न जानकी-जीवनको जनु भो॥
मूल
सुरराज-सो राज-समाजु, समृद्धि बिरंचि, धनाधिप-सो धनु भो।
पवमानु-सो, पावकु-सो, जमु, सोमु-सो, पूषनु-सो, भवभूषनु भो॥
करि जोग, समीरन साधि, समाधि कै धीर बड़ो, बसहू मनु भो।
सब जाय, सुभायँ कहै तुलसी, जो न जानकी-जीवनको जनु भो॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रके समान राजसामग्री हो गयी, ब्रह्माके समान ऐश्वर्य हो गया और कुबेरके समान धन हो गया तथा वायुके समान (वेगवान्), अग्निके समान (तेजस्वी), यमराजके समान दण्डधारी, चन्द्रमाके समान शीतल एवं आह्लादकारी और सूर्यके समान संसारको प्रकाशित करनेवाला और संसारका भूषण बन गया हो; वायुको साधकर (प्राणायाम कर) योगाभ्यास करता हुआ समाधिके द्वारा बड़ा धीर हो गया हो और मन भी वशमें हो गया हो, तो भी गोसाईंजी सच्चे भावसे कहते हैं—यदि जानकीनाथका सेवक न हुआ तो सब व्यर्थ है॥ ४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामु-से रूप, प्रताप दिनेसु-से, सोमु-से सील, गनेसु-से माने।
हरिचंदु-से साँचे, बड़े बिधि-से, मघवा-से महीप, बिषै-सुख-साने॥
सुक-से मुनि, सारद-से बकता, चिरजीवन लोमस तें अधिकाने।
ऐसे भए तौ कहा ‘तुलसी’, जो पै राजिवलोचन रामु न जाने॥
मूल
कामु-से रूप, प्रताप दिनेसु-से, सोमु-से सील, गनेसु-से माने।
हरिचंदु-से साँचे, बड़े बिधि-से, मघवा-से महीप, बिषै-सुख-साने॥
सुक-से मुनि, सारद-से बकता, चिरजीवन लोमस तें अधिकाने।
ऐसे भए तौ कहा ‘तुलसी’, जो पै राजिवलोचन रामु न जाने॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मनुष्यने कमलनयन भगवान् श्रीरामको नहीं जाना तो वह रूपमें कामदेव-सा, प्रतापमें सूर्य-सा, शीलमें चन्द्रमाके समान, मानमें गणेशके सदृश तथा हरिश्चन्द्र-सा सच्चा, ब्रह्मा-जैसा महान्, विषय-सुखमें आसक्त इन्द्रके समान राजा, शुकदेव मुनि-सा महात्मा, शारदाके सदृश वक्ता और लोमशसे भी अधिक चिरजीवी हो जाय तो भी ऐसा होनेसे क्या लाभ हुआ?॥ ४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
झूमत द्वार अनेक मतंग जँजीर-जरे, मद-अंबु चुचाते।
तीखे तुरंग मनोगति-चंचल, पौनके गौनहु तें बढ़ि जाते॥
भीतर चंद्रमुखी अवलोकति, बाहर भूप खरे न समाते।
ऐसे भए तौ कहा, तुलसी, जो पै जानकीनाथके रंग न राते॥
मूल
झूमत द्वार अनेक मतंग जँजीर-जरे, मद-अंबु चुचाते।
तीखे तुरंग मनोगति-चंचल, पौनके गौनहु तें बढ़ि जाते॥
भीतर चंद्रमुखी अवलोकति, बाहर भूप खरे न समाते।
ऐसे भए तौ कहा, तुलसी, जो पै जानकीनाथके रंग न राते॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्वारपर जंजीरोंसे जकड़े हुए तथा जिनके गण्डस्थलसे मद चू रहा है, ऐसे अनेकों हाथी झूमते हों और मनके समान तीव्र वेगवाले चञ्चल घोड़े हों जो वायुकी गतिसे भी बढ़ जाते हों, घरमें चन्द्रमुखी स्त्री देखती हो, बाहर बड़े-बड़े राजा खड़े हों, जो [बहुत अधिक होनेके कारण] भीतर न समा सकते हों—गोसाईंजी कहते हैं कि यदि जानकीपति (श्रीरामचन्द्रके) रंगमें न रँगा तो ऐसा होनेपर भी क्या हुआ?॥ ४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज सुरेस पचासकको बिधिके करको जो पटो लिखि पाएँ।
पूत सुपूत, पुनीत प्रिया, निज सुंदरताँ रतिको मदु नाएँ॥
संपति-सिद्धि सबै ‘तुलसी’ मनकी मनसा चितवैं चितु लाएँ॥
जानकीजीवनु जाने बिना जग ऐसेउ जीव न जीव कहाएँ॥
मूल
राज सुरेस पचासकको बिधिके करको जो पटो लिखि पाएँ।
पूत सुपूत, पुनीत प्रिया, निज सुंदरताँ रतिको मदु नाएँ॥
संपति-सिद्धि सबै ‘तुलसी’ मनकी मनसा चितवैं चितु लाएँ॥
जानकीजीवनु जाने बिना जग ऐसेउ जीव न जीव कहाएँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पचासों इन्द्रके (राज्यके) समान राज्यका ब्रह्माजीके हाथका लिखा हुआ पट्टा मिल गया हो, सपूत लड़के हों, पतिव्रता स्त्री हो जो अपनी सुन्दरतामें रतिके मदको भी नीचा दिखानेवाली हो, सब प्रकारकी सम्पत्तियाँ और सिद्धियाँ उसके मनकी रुखको ध्यानपूर्वक देखती हुई खड़ी हों; किंतु गोसाईंजी कहते हैं कि यदि जानकीनाथ (श्रीरामचन्द्र) को न जाना तो ऐसे जीव भी वास्तवमें जीव कहलानेके योग्य नहीं हैं॥ ४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृसगात ललात जो रोटिनको, घरवात घरें खुरपा-खरिया।
तिन्ह सोनेके मेरु-से ढेर लहे, मनु तौ न भरो, घरु पै भरिया॥
‘तुलसी’ दुखु दूनो दसा दुहुँ देखि, कियो मुखु दारिद को करिया।
तजि आस भो दासु रघुप्पतिको, दसरत्थको दानि दया-दरिया॥
मूल
कृसगात ललात जो रोटिनको, घरवात घरें खुरपा-खरिया।
तिन्ह सोनेके मेरु-से ढेर लहे, मनु तौ न भरो, घरु पै भरिया॥
‘तुलसी’ दुखु दूनो दसा दुहुँ देखि, कियो मुखु दारिद को करिया।
तजि आस भो दासु रघुप्पतिको, दसरत्थको दानि दया-दरिया॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनका शरीर अत्यन्त दुबला है, जो रोटीके लिये बिलबिलाते फिरते हैं और जिनके घरमें एक खुरपा और घास बाँधनेकी जाली ही सारी पूँजी है, उन्हें यदि सुमेरु पर्वतके बराबर भी सोनेके ढेर भी मिल गये, तो इससे उनका घर तो भर गया, परंतु मन नहीं भरा। गोसाईंजी कहते हैं कि मैंने दोनों अवस्थाओंमें दूना दुःख देखकर दरिद्रताका मुख काला कर दिया और सब आशा त्यागकर दशरथ-सुवन श्रीरामचन्द्रका दास हो गया। जो दयाके मानो दरिया हैं॥ ४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को भरिहै हरिके रितएँ, रितवै पुनि को, हरि जौं भरिहै।
उथपै तेहि को, जेहि रामु थपै, थपिहै तेहि को, हरि जौं टरिहै॥
तुलसी यहु जानि हिएँ अपनें सपनें नहिं कालहु तें डरिहै।
कुमयाँ कछु हानि न औरनकीं, जो पै जानकी-नाथु मया करिहै॥
मूल
को भरिहै हरिके रितएँ, रितवै पुनि को, हरि जौं भरिहै।
उथपै तेहि को, जेहि रामु थपै, थपिहै तेहि को, हरि जौं टरिहै॥
तुलसी यहु जानि हिएँ अपनें सपनें नहिं कालहु तें डरिहै।
कुमयाँ कछु हानि न औरनकीं, जो पै जानकी-नाथु मया करिहै॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसको भगवान् ने खाली कर दिया, उसे कौन भर सकता है और जिसको भगवान् भर देंगे, उसे कौन खाली कर सकता है। जिसे श्रीरामचन्द्रजी स्थापित कर देते हैं, उसे कौन उखाड़ सकता है और जिसे वे उखाड़ेंगे, उसे कौन स्थापित कर सकता है? तुलसीदास अपने हृदयमें यह जानकर स्वप्नमें भी कालसे भी नहीं डरेगा; क्योंकि यदि जानकीनाथ श्रीरामचन्द्र कृपा करेंगे तो औरोंकी अकृपासे कुछ भी हानि नहीं होगी॥ ४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्याल कराल, महाबिष, पावक, मत्तगयंदहु के रद तोरे।
साँसति संकि चली, डरपे हुते किंकर, ते करनी मुख मोरे॥
नेकु बिषादु नहीं प्रहलादहि कारन केहरिके बल हो रे।
कौनकी त्रास करै तुलसी जो पै राखिहै राम, तौ मारिहै को रे॥
मूल
ब्याल कराल, महाबिष, पावक, मत्तगयंदहु के रद तोरे।
साँसति संकि चली, डरपे हुते किंकर, ते करनी मुख मोरे॥
नेकु बिषादु नहीं प्रहलादहि कारन केहरिके बल हो रे।
कौनकी त्रास करै तुलसी जो पै राखिहै राम, तौ मारिहै को रे॥
अनुवाद (हिन्दी)
विकराल सर्प, भयंकर विष, अग्नि और मतवाले हाथियोंके दाँतोंको भी तोड़ डाला। कष्ट भी सशङ्कित होकर भाग गया, जो सेवक (राजासे) डरते थे, उन्होंने भी (आज्ञा-पालनरूप) कर्तव्यसे मुँह मोड़ लिया। तो भी प्रह्लादको कुछ भी विषाद नहीं हुआ; क्योंकि वह नृसिंह भगवान् के बलके आश्रित था। अतः अब तुलसीदास ही किसका भय करे। यदि रामजी रक्षा करेंगे तो उसे कौन मार सकता है!॥ ४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपाँ जिनकीं कछु काजु नहीं, न अकाजु कछू जिनकें मुखु मोरें।
करैं तिनकी परवाहि ते, जो बिनु पूँछ-बिषान फिरैं दिन दौरें॥
तुलसी जेहिके रघुनाथसे नाथु, समर्थ सुसेवत रीझत थोरें।
कहा भवभीर परी तेहि धौं, बिचरै धरनीं तिनसों तिनु तोरें॥
मूल
कृपाँ जिनकीं कछु काजु नहीं, न अकाजु कछू जिनकें मुखु मोरें।
करैं तिनकी परवाहि ते, जो बिनु पूँछ-बिषान फिरैं दिन दौरें॥
तुलसी जेहिके रघुनाथसे नाथु, समर्थ सुसेवत रीझत थोरें।
कहा भवभीर परी तेहि धौं, बिचरै धरनीं तिनसों तिनु तोरें॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनकी कृपासे कुछ काम नहीं बनता और न जिनके मुख मोड़नेसे कुछ हानि ही होती है, उनकी परवा वही लोग करेंगे जो बिना सींग-पूँछके होकर भी सर्वदा दौड़े फिरते हैं [अर्थात् पशु न होनेपर भी अपने वास्तविक लक्ष्यको छोड़कर रात-दिन पेटकी ही चिन्तामें लगे रहते हैं] गोसाईंजी कहते हैं कि जिसके श्रीरामचन्द्रके समान समर्थ स्वामी हैं, जो थोड़ी-सी सेवा करनेपर ही रीझ जाते हैं, उसे संसारकी क्या चिन्ता पड़ी है। वह तो ऐसे लोगोंसे सम्बन्ध तोड़कर पृथ्वीपर विचरता है॥ ४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानन, भूधर, बारि, बयारि, महाबिषु, ब्याधि, दवा-अरि घेरे।
संकट कोटि जहाँ ‘तुलसी’, सुत, मातु, पिता, हित, बंधु न नेरे॥
राखिहैं रामु कृपालु तहाँ, हनुमानु-से सेवक हैं जेहि केरे।
नाक, रसातल, भूतलमें रघुनायकु एकु सहायकु मेरे॥
मूल
कानन, भूधर, बारि, बयारि, महाबिषु, ब्याधि, दवा-अरि घेरे।
संकट कोटि जहाँ ‘तुलसी’, सुत, मातु, पिता, हित, बंधु न नेरे॥
राखिहैं रामु कृपालु तहाँ, हनुमानु-से सेवक हैं जेहि केरे।
नाक, रसातल, भूतलमें रघुनायकु एकु सहायकु मेरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
वनमें, पर्वतपर, जलमें, आँधीमें, महाविष खा लेनेपर, रोगमें, अग्नि और शत्रुसे घिर जानेपर तथा गोसाईंजी कहते हैं, जहाँ करोड़ों संकट हों और माता-पिता, पुत्र, मित्र और भाई-बन्धु कोई समीप न हों, वहाँ भी दयालु भगवान् राम, जिनके हनुमान् जी-जैसे सेवक हैं, रक्षा करेंगे। आकाश, पाताल और पृथ्वीमें एक श्रीरघुनाथजी ही मेरे सहायक हैं॥ ५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जबै जमराज-रजायसतें मोहि लै चलिहैं भट बाँधि नटैया।
तातु न मातु, न स्वामि-सखा, सुत-बंधु बिसाल बिपत्ति-बँटैया॥
साँसति घोर, पुकारत आरत कौन सुनै, चहुँ ओर डटैया।
एकु कृपाल तहाँ ‘तुलसी’ दसरत्थको नंदनु बंदि-कटैया॥
मूल
जबै जमराज-रजायसतें मोहि लै चलिहैं भट बाँधि नटैया।
तातु न मातु, न स्वामि-सखा, सुत-बंधु बिसाल बिपत्ति-बँटैया॥
साँसति घोर, पुकारत आरत कौन सुनै, चहुँ ओर डटैया।
एकु कृपाल तहाँ ‘तुलसी’ दसरत्थको नंदनु बंदि-कटैया॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब यमराजकी आज्ञासे मेरे गलेको बाँधकर यमदूत मुझे ले चलेंगे, उस समय वहाँ न बाप, न माँ, न स्वामी, न मित्र, न पुत्र और न भाई ही उस भारी विपत्तिको बँटानेवाले होंगे। वहाँ घोर कष्ट सहना होगा। उस आर्त्त-पुकारको सुनेगा भी कौन? चारों ओर डाँटनेवाले [यमदूत] ही होंगे। गोस्वामीजी कहते हैं कि वहाँ केवल एक दयानिधान दशरथकुमार ही बन्धन काटनेवाले होंगे॥ ५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहाँ जमजातना, घोर नदी, भट कोटि जलच्चर दंत-टेवैया।
जहँ धार भयंकर, वार न पार, न बोहितु नाव, न नीक खेवैया॥
‘तुलसी’ जहँ मातु-पिता न सखा, नहिं कोउ कहूँ अवलंब देवैया।
तहाँ बिनु कारन रामु कृपाल बिसाल भुजा गहि काढ़ि लेवैया॥
मूल
जहाँ जमजातना, घोर नदी, भट कोटि जलच्चर दंत-टेवैया।
जहँ धार भयंकर, वार न पार, न बोहितु नाव, न नीक खेवैया॥
‘तुलसी’ जहँ मातु-पिता न सखा, नहिं कोउ कहूँ अवलंब देवैया।
तहाँ बिनु कारन रामु कृपाल बिसाल भुजा गहि काढ़ि लेवैया॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ यमयातना देनेवाले करोड़ों यमदूत हैं, घोर वैतरणी नदी है, जिसमें दाँतोंकी धार तेज करनेवाले (काटनेवाले) जलजन्तु हैं, जिसकी भयंकर धारा है और जिसका कोई वार-पार नहीं है, जिसमें न जहाज है, न नाव और न सुचतुर नाविक ही है; इसके सिवा जहाँ माता, पिता, सखा अथवा कोई अवलम्बन देनेवाला भी नहीं है, वहाँ श्रीगोसाईंजी कहते हैं—बिना ही कारण कृपा करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी ही अपनी विशाल भुजासे पकड़कर निकाल लेनेवाले हैं॥ ५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहाँ हित स्वामि, न संग सखा, बनिता, सुत, बंधु, न बापु, न मैया।
काय-गिरा-मनके जनके अपराध सबै छलु छाड़ि छमैया॥
तुलसी! तेहि काल कृपाल बिना दूजो कौन है दारुन दुःख दमैया॥
जहाँ सब संकट, दुर्घट सोचु, तहाँ मेरो साहेबु राखै रमैया॥
मूल
जहाँ हित स्वामि, न संग सखा, बनिता, सुत, बंधु, न बापु, न मैया।
काय-गिरा-मनके जनके अपराध सबै छलु छाड़ि छमैया॥
तुलसी! तेहि काल कृपाल बिना दूजो कौन है दारुन दुःख दमैया॥
जहाँ सब संकट, दुर्घट सोचु, तहाँ मेरो साहेबु राखै रमैया॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीगोसाईंजी कहते हैं कि जहाँ कोई हितैषी स्वामी नहीं है और न साथमें मित्र, स्त्री, पुत्र,भाई, बाप या माँ ही है, वहाँ कृपालु श्रीरामचन्द्रके बिना अपने जनके शरीर, मन और वचनद्वारा किये हुए समस्त अपराधोंको छल छोड़कर क्षमा करनेवाला तथा उस दारुण दुःखका नाश करनेवाला दूसरा कौन हो सकता है। जहाँ ऐसे-ऐसे सब प्रकारके संकट और दुर्घट सोच हैं, वहाँ मेरे स्वामी जगत् में रमण करनेवाले श्रीरामचन्द्र ही मेरी रक्षा करते हैं॥ ५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तापसको बरदायक देव, सबै पुनि बैरु बढ़ावत बाढ़ें।
थोरेंहि कोपु, कृपा पुनि थोरेंहि, बैठि कै जोरत, तोरत ठाढ़ें॥
ठोंकि-बजाइ लखें गजराज, कहाँ लौं कहौं केहि सों रद काढ़ें।
आरतके हित नाथु अनाथके रामु सहाय सही दिन गाढ़ें॥
मूल
तापसको बरदायक देव, सबै पुनि बैरु बढ़ावत बाढ़ें।
थोरेंहि कोपु, कृपा पुनि थोरेंहि, बैठि कै जोरत, तोरत ठाढ़ें॥
ठोंकि-बजाइ लखें गजराज, कहाँ लौं कहौं केहि सों रद काढ़ें।
आरतके हित नाथु अनाथके रामु सहाय सही दिन गाढ़ें॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवतालोग तपस्वियोंको वर देनेवाले हैं, किंतु बढ़नेपर वे सब वैर बढ़ाते हैं। थोड़े ही में कोप और थोड़ेहीमें कृपा करते हैं। वे बैठकर प्रीति जोड़ते और खड़े होते ही उसे तोड़ देते हैं (अर्थात् उनकी प्रीति बहुत थोड़ी देर टिकनेवाली होती है)। हम किस-किससे और कहाँतक दाँत निकालकर कहें। गजराजने सबको ठोंक-बजाकर देख लिया, दुःखियोंके मित्र, अनाथोंके नाथ तथा विपत्तिके दिनोंमें सच्चे सहायक श्रीरामचन्द्र ही हैं॥ ५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जप, जोग, बिराग, महामख-साधन, दान, दया, दम कोटि करै।
मुनि-सिद्ध, सुरेसु, गनेसु, महेसु-से सेवत जन्म अनेक मरै॥
निगमागम-ग्यान, पुरान पढ़ै, तपसानलमें जुगपुंज जरै।
मनसों पनु रोपि कहै तुलसी, रघुनाथ बिना दुख कौन हरै॥
मूल
जप, जोग, बिराग, महामख-साधन, दान, दया, दम कोटि करै।
मुनि-सिद्ध, सुरेसु, गनेसु, महेसु-से सेवत जन्म अनेक मरै॥
निगमागम-ग्यान, पुरान पढ़ै, तपसानलमें जुगपुंज जरै।
मनसों पनु रोपि कहै तुलसी, रघुनाथ बिना दुख कौन हरै॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाहे कोई जप, योग, वैराग्य, बड़े-बड़े यज्ञानुष्ठान, दान, दया, इन्द्रिय-निग्रह आदि करोड़ों उपाय करे; मुनि, सिद्ध, सुरेश (इन्द्र), गणेश और महेश-जैसे देवताओंका अनेकों जन्मतक सेवन करते-करते मर जाय, वेद-शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करे और पुराणोंका अध्ययन करे। अनेकों युगोंतक तपस्याकी अग्निमें जलता रहे, परंतु तुलसी मनसे प्रण रोपकर कहता है कि श्रीरामचन्द्रके बिना कौन दुःख दूर कर सकता है?॥ ५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पातक-पीन, कुदारिद-दीन मलीन धरैं कथरी-करवा है।
लोकु कहै, बिधिहूँ न लिख्यो सपनेहूँ नहीं अपने बर बाहै॥
रामको किंकरु सो तुलसी, समुझेंहि भलो, कहिबो न रवा है।
ऐसेको ऐसो भयो कबहूँ न भजे बिनु बानरके चरवाहै॥
मूल
पातक-पीन, कुदारिद-दीन मलीन धरैं कथरी-करवा है।
लोकु कहै, बिधिहूँ न लिख्यो सपनेहूँ नहीं अपने बर बाहै॥
रामको किंकरु सो तुलसी, समुझेंहि भलो, कहिबो न रवा है।
ऐसेको ऐसो भयो कबहूँ न भजे बिनु बानरके चरवाहै॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोक [मेरे विषयमें] कहता था कि यह पापोंमें बढ़ा हुआ एवं कुत्सित दरिद्रताके कारण दीन है तथा मलिन कन्था और करवा धारण किये है। विधाताने इसके भाग्यमें कुछ भी नहीं लिखा तथा यह सपनेमें भी अपने बलपर नहीं चलता था। परंतु आज वही तुलसी श्रीरामचन्द्रजीका किंकर हो गया। इस बातको समझना ही अच्छा है, कहना उचित नहीं है। वह ऐसे (दीन और पापी) से ऐसा (महामुनि)बिना वानरोंके चरवाहे (श्रीरामचन्द्रजी) को भजे नहीं हुआ॥ ५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातु-पिताँ जग जाइ तज्यो बिधिहूँ न लिखी कछु भाल भलाई।
नीच, निरादरभाजन, कादर, कूकर-टूकन लागि ललाई॥
रामु-सुभाउ सुन्यो तुलसीं प्रभुसों कह्यो बारक पेटु खलाई।
स्वारथको परमारथको रघुनाथु सो साहेबु, खोरि न लाई॥
मूल
मातु-पिताँ जग जाइ तज्यो बिधिहूँ न लिखी कछु भाल भलाई।
नीच, निरादरभाजन, कादर, कूकर-टूकन लागि ललाई॥
रामु-सुभाउ सुन्यो तुलसीं प्रभुसों कह्यो बारक पेटु खलाई।
स्वारथको परमारथको रघुनाथु सो साहेबु, खोरि न लाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
माता-पिताने जिसको संसारमें जन्म देकर त्याग दिया, ब्रह्माने भी जिसके भाग्यमें कुछ भलाई नहीं लिखी, उस नीच निरादरके पात्र, कायर, कुक्कुरके मुँहके टुकड़ेके लिये ललचानेवाले तुलसीदासने जब श्रीरामचन्द्रका स्वभाव सुना और एक बार पेट खलाकर [अपना सारा दुःख] कहा तो प्रभु रघुनाथजीने उसके स्वार्थ और परमार्थको सुधारनेमें तनिक भी कोर-कसर नहीं रखी॥ ५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाप हरे, परिताप हरे, तनु पूजि भो हीतल सीतलताई।
हंसु कियो बकतें, बलि जाउँ, कहाँ लौं कहौं करुना-अधिकाई॥
कालु बिलोकि कहै तुलसी, मनमें प्रभुकी परतीति अघाई।
जन्मु जहाँ, तहँ रावरे सों निबहै भरि देह सनेह-सगाई॥
मूल
पाप हरे, परिताप हरे, तनु पूजि भो हीतल सीतलताई।
हंसु कियो बकतें, बलि जाउँ, कहाँ लौं कहौं करुना-अधिकाई॥
कालु बिलोकि कहै तुलसी, मनमें प्रभुकी परतीति अघाई।
जन्मु जहाँ, तहँ रावरे सों निबहै भरि देह सनेह-सगाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं—हे श्रीराम! आपने मेरे पाप नष्ट कर दिये, सारे संताप हर लिये, शरीर पूज्य बन गया, हृदयमें शीतलता आ गयी और मैं आपकी बलिहारी जाता हूँ, आपने मुझे बगुले (दम्भी) से हंस (विवेकी) बना दिया, आपकी कृपाकी अधिकताका कहाँतक वर्णन करूँ। अब समय देखकर तुलसी कहता है कि मेरे मनमें प्रभुका पूरा भरोसा है, अतः जहाँ कहीं भी मेरा जन्म हो वहाँ आपसे शरीर रहनेतक प्रेमके सम्बन्धका निर्वाह होता रहे॥ ५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोग कहैं, अरु हौंहु कहौं, जनु खोटो-खरो रघुनायकहीको।
रावरी राम! बड़ी लघुता, जसु मेरो भयो सुखदायकहीको॥
कै यह हानि सहौ, बलि जाउँ, कि मोहू करौ निज लायकहीको।
आनि हिएँ हित जानि करौ, ज्यों हौं ध्यानु धरौं धनु-सायकहीको॥
मूल
लोग कहैं, अरु हौंहु कहौं, जनु खोटो-खरो रघुनायकहीको।
रावरी राम! बड़ी लघुता, जसु मेरो भयो सुखदायकहीको॥
कै यह हानि सहौ, बलि जाउँ, कि मोहू करौ निज लायकहीको।
आनि हिएँ हित जानि करौ, ज्यों हौं ध्यानु धरौं धनु-सायकहीको॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोग कहते हैं और मैं भी कहता हूँ कि खोटा या खरा मैं श्रीरामचन्द्रजीहीका सेवक हूँ! हे राम! इससे आपकी तो बड़ी तौहीन हुई, परंतु आपके सदृश स्वामीका सेवक होनेका जो यश मुझे प्राप्त हुआ, वह मेरे हृदयको तो सुख देनेवाला ही है। मैं बलिहारी जाऊँ, अब या तो आप इस हानिको सहिये अथवा मुझे ही अपनी सेवाके योग्य बना लीजिये। अपने हृदयमें विचारकर और मेरे लिये हितकारी जानकर ऐसा ही कीजिये, जिससे मैं आपके धनुषधारी रूपका ही ध्यान कर सकूँ [अर्थात् आपको छोड़कर किसी और पदार्थकी ओर मेरा चित्त ही न जाय]॥ ५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपु हौं आपुको नीकें कै जानत, रावरो राम! भरायो-गढ़ायो।
कीरु ज्यौं नामु रटै तुलसी, सो कहै जगु जानकीनाथ पढ़ायो॥
सोई है खेदु, जो बेदु कहै, न घटै जनु जो रघुबीर बढ़ायो।
हौं तो सदा खरको असवार, तिहारोइ नामु गयंद चढ़ायो॥
मूल
आपु हौं आपुको नीकें कै जानत, रावरो राम! भरायो-गढ़ायो।
कीरु ज्यौं नामु रटै तुलसी, सो कहै जगु जानकीनाथ पढ़ायो॥
सोई है खेदु, जो बेदु कहै, न घटै जनु जो रघुबीर बढ़ायो।
हौं तो सदा खरको असवार, तिहारोइ नामु गयंद चढ़ायो॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं स्वयं अपनेको अच्छी तरह जानता हूँ। हे राम! मैं तो आपहीका रचा और बढ़ाया हुआ हूँ। यह तुलसीदास सुग्गेकी भाँति नाम रटता है, उसपर संसार यही कहता है कि यह [स्वयं] भगवान् जानकीनाथका पढ़ाया हुआ है। इसीका मुझे खेद है। किंतु वेद कहता है कि जिस मनुष्यको रघुनाथजीने बढ़ा दिया, वह कभी घट नहीं सकता। मैं सदासे गधेपर ही चढ़नेवाला (अत्यन्त निन्दनीय आचरणोंवाला) था, आपके नामने ही मुझे हाथीपर चढ़ा दिया है (अर्थात् इतना गौरव प्रदान किया है)॥ ६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छारतें सँवारि कै पहारहू तें भारी कियो,
गारो भयो पंचमें पुनीत पच्छु पाइ कै।
हौं तो जैसो तब तैसो अब अधमाई कै कै,
पेटु भरौं, राम! रावरोई गुनु गाइकै॥
आपने निवाजेकी पै कीजै लाज, महाराज!
मेरी ओर हेरि कै न बैठिए रिसाइ कै।
पालिकै कृपाल! ब्याल-बालको न मारिए ,
औ काटिए न नाथ! बिषहूको रुखु लाइ कै॥
मूल
छारतें सँवारि कै पहारहू तें भारी कियो,
गारो भयो पंचमें पुनीत पच्छु पाइ कै।
हौं तो जैसो तब तैसो अब अधमाई कै कै,
पेटु भरौं, राम! रावरोई गुनु गाइकै॥
आपने निवाजेकी पै कीजै लाज, महाराज!
मेरी ओर हेरि कै न बैठिए रिसाइ कै।
पालिकै कृपाल! ब्याल-बालको न मारिए ,
औ काटिए न नाथ! बिषहूको रुखु लाइ कै॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपने मुझ धूलके समान तुच्छ प्राणीको सँभालकर पहाड़से भी भारी (गौरवान्वित) बना दिया और आपका पवित्र पक्ष पाकर मैं पंचोंमें बड़ा हो गया। मैं तो अपनी अधमतामें जैसा पहले था, वैसा ही अब भी हूँ। हे राम! बस, आपका ही गुण गाकर पेट पालता हूँ। परंतु हे महाराज! आप अपनी कृपाकी लाज रखिये और मेरी ओर देखकर क्रोध करके न बैठ जाइये। हे कृपालु! सर्पके बालकको भी पाल-पोसकर नहीं मारना चाहिये और न विषका वृक्ष भी लगाकर उसे काटना चाहिये॥ ६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद न पुरान-गानु, जानौं न बिग्यानु ग्यानु,
ध्यान-धारना-समाधि-साधन-प्रबीनता।
नाहिन बिरागु, जोग, जाग भाग तुलसीकें,
दया-दान दूबरो हौं, पापही की पीनता॥
लोभ-मोह-काम-कोह-दोस-कोसु-मोसो कौन?
कलिहूँ जो सीखि लई मेरियै मलीनता।
एकु ही भरोसो राम! रावरो कहावत हौं,
रावरे दयालु दीनबंधु! मेरी दीनता॥
मूल
बेद न पुरान-गानु, जानौं न बिग्यानु ग्यानु,
ध्यान-धारना-समाधि-साधन-प्रबीनता।
नाहिन बिरागु, जोग, जाग भाग तुलसीकें,
दया-दान दूबरो हौं, पापही की पीनता॥
लोभ-मोह-काम-कोह-दोस-कोसु-मोसो कौन?
कलिहूँ जो सीखि लई मेरियै मलीनता।
एकु ही भरोसो राम! रावरो कहावत हौं,
रावरे दयालु दीनबंधु! मेरी दीनता॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं न तो वेद या पुराणोंका गान जानता हूँ और न विज्ञान अथवा ज्ञान ही जानता हूँ और न मैं ध्यान, धारणा, समाधि आदि साधनामें प्रवीणता ही रखता हूँ। तुलसीके भागमें वैराग्य, योग और यज्ञादि नहीं हैं। मैं दया और दानमें दुर्बल हूँ [अर्थात् दान और दयासे रहित हूँ] तथा पापमें पुष्ट हूँ। मेरे समान लोभ, मोह, काम और क्रोधरूप दोषोंका भण्डार कौन है? कलियुगने भी मुझसे ही मलिनता सीखी है। हाँ, एक ही भरोसा मुझे है कि मैं आपका कहलाता हूँ। आप दीनोंके बन्धु और दयालु हैं। मेरी यह दीनता है॥ ६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रावरो कहावौं, गुनु गावौं राम! रावरोइ,
रोटी द्वै हौं पावौं राम! रावरी हीं कानि हौं।
जानत जहानु, मन मेरेहूँ गुमानु बड़ो,
मान्यो मैं न दूसरो, न मानत, न मानिहौं॥
पाँचकी प्रतीति न भरोसो मोहि आपनोई,
तुम्ह अपनायो हौं तबै हीं परि जानिहौं।
गढ़ि-गुढ़ि छोलि-छालि कुंदकी-सी भाईं बातैं
जैसी मुख कहौं, तैसी जीयँ जब आनिहौं॥
मूल
रावरो कहावौं, गुनु गावौं राम! रावरोइ,
रोटी द्वै हौं पावौं राम! रावरी हीं कानि हौं।
जानत जहानु, मन मेरेहूँ गुमानु बड़ो,
मान्यो मैं न दूसरो, न मानत, न मानिहौं॥
पाँचकी प्रतीति न भरोसो मोहि आपनोई,
तुम्ह अपनायो हौं तबै हीं परि जानिहौं।
गढ़ि-गुढ़ि छोलि-छालि कुंदकी-सी भाईं बातैं
जैसी मुख कहौं, तैसी जीयँ जब आनिहौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राम! मैं आपका कहलाता हूँ और आपहीका गुण गाता हूँ और हे रघुनाथजी! आपहीके लिहाजसे मुझे दो रोटियाँ भी मिल जाती हैं। संसार जानता है और मेरे मनमें भी बड़ा अभिमान है कि मैंने दूसरेको न माना, न मानता हूँ और न मानूँगा। मुझे न पंचोंका ही विश्वास है और न अपना ही भरोसा है, मैं गढ़-गुढ़ और छील-छालकर खरादपर चढ़ायी हुई-सी चिकनी-चुपड़ी बातें बनाता हूँ। वैसी ही जब हृदयमें भी ले आऊँगा तब समझूँगा कि आपने मुझे अपनाया है॥ ६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बचन, बिकारु, करतबउ खुआर, मनु
बिगत-बिचार, कलिमलको निधानु है।
रामको कहाइ, नामु बेचि-बेचि, खाइ सेवा-
संगति न जाइ, पाछिलेको उपखानु है॥
तेहू तुलसीको लोगु भलो-भलो कहै, ताको
दूसरो न हेतु, एकु नीकें कै निदानु है।
लोकरीति बिदित बिलोकिअत जहाँ-तहाँ,
स्वामीकें सनेहँ स्वानहू को सनमानु है॥
मूल
बचन, बिकारु, करतबउ खुआर, मनु
बिगत-बिचार, कलिमलको निधानु है।
रामको कहाइ, नामु बेचि-बेचि, खाइ सेवा-
संगति न जाइ, पाछिलेको उपखानु है॥
तेहू तुलसीको लोगु भलो-भलो कहै, ताको
दूसरो न हेतु, एकु नीकें कै निदानु है।
लोकरीति बिदित बिलोकिअत जहाँ-तहाँ,
स्वामीकें सनेहँ स्वानहू को सनमानु है॥
अनुवाद (हिन्दी)
(जिसकी) बोलीमें विकार है, करनी भी बहुत बुरी है तथा मन भी विवेकशून्य और कलिमलका भण्डार है। जो श्रीरामचन्द्रजीका कहलाकर नामको बेंच-बेंचकर खाता है और जैसी कि पुरानी कहावत है, सेवा और सत्संगमें प्रवृत्त नहीं होता। उस तुलसीको भी लोग भला कहते हैं। इसका कोई दूसरा कारण नहीं है, केवल एक निश्चित हेतु है। यह प्रसिद्ध लोकरीति और जहाँ-तहाँ देखनेमें भी आता है कि स्वामीका जहाँ-तहाँ स्नेह होनेपर उसके कुत्तेका भी सम्मान होता है॥ ६४॥
नाम-विश्वास
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वारथको साजु न समाजु परमारथको,
मोसो दगाबाज दूसरो न जगजाल है।
कै न आयों, करौं न करौंगो करतूति भली,
लिखी न बिरंचिहूँ भलाई भूलि भाल है॥
रावरी सपथ, रामनाम ही की गति मेरें,
इहाँ झूठो, झूठो सो तिलोक तिहूँ काल है।
तुलसी को भलो पै तुम्हारें ही किएँ कृपाल,
कीजै न बिलंबु, बलि, पानीभरी खाल है॥
मूल
स्वारथको साजु न समाजु परमारथको,
मोसो दगाबाज दूसरो न जगजाल है।
कै न आयों, करौं न करौंगो करतूति भली,
लिखी न बिरंचिहूँ भलाई भूलि भाल है॥
रावरी सपथ, रामनाम ही की गति मेरें,
इहाँ झूठो, झूठो सो तिलोक तिहूँ काल है।
तुलसी को भलो पै तुम्हारें ही किएँ कृपाल,
कीजै न बिलंबु, बलि, पानीभरी खाल है॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे पास न तो कोई स्वार्थसाधनका ही सामान है और न परमार्थकी ही सामग्री है। विश्वब्रह्माण्डमें मेरे समान कोई दूसरा दगाबाज भी नहीं है। सुकर्म तो न मैं करके आया हूँ, न करता हूँ और न करूँगा ही! ब्रह्माने भूलकर भी मेरे भाग्यमें भलाई नहीं लिखी। आपकी शपथ है, हे रामजी! मुझको केवल आपके नामहीकी गति है। जो यहाँ (आपके सामने) झूठा है, वह तो तीनों लोक और तीनों कालमें झूठा ही है। हे कृपालो! तुलसीकी भलाई तो तुम्हारे ही किये होगी, बलिहारी जाऊँ, अब विलम्ब न कीजिये, क्योंकि मेरी दशा ठीक पानीसे भरी हुई खालके समान है। अर्थात् जैसे पानीभरी खाल बहुत जल्दी सड़ जाती है, वैसे ही मेरे भी नष्ट होनेमें देरी नहीं है॥ ६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागको न साजु, न बिरागु, जोग, जाग जियँ
काया नहिं छाड़ि देत ठाटिबो कुठाटको।
मनोराजु करत अकाजु भयो आजु लगि,
चाहै चारु चीर, पै लहै न टूकु टाटको॥
भयो करतारु बड़े कूरको कृपालु, पायो
नामप्रेमु-पारसु, हौं लालची बराटको।
‘तुलसी’ बनी है राम! रावरें बनाएँ, ना तो
धोबी-कैसो कूकरु न घरको, न घाटको॥
मूल
रागको न साजु, न बिरागु, जोग, जाग जियँ
काया नहिं छाड़ि देत ठाटिबो कुठाटको।
मनोराजु करत अकाजु भयो आजु लगि,
चाहै चारु चीर, पै लहै न टूकु टाटको॥
भयो करतारु बड़े कूरको कृपालु, पायो
नामप्रेमु-पारसु, हौं लालची बराटको।
‘तुलसी’ बनी है राम! रावरें बनाएँ, ना तो
धोबी-कैसो कूकरु न घरको, न घाटको॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे पास न तो राग अर्थात् सांसारिक सुख-भोगकी सामग्री है और न मेरे जीमें वैराग्य, योग या यज्ञ ही है, और यह शरीर कुचाल चलना नहीं छोड़ता। मनोराज्य (वासनाएँ) करते-करते आजतक हानि ही होती रही। यह चाहता तो अच्छे-अच्छे वस्त्र है, परंतु इसे मिलता टाटका टुकड़ा भी नहीं। हे जगत्कर्ता प्रभो! आप इस अत्यन्त कुटिलपर भी कृपालु हुए , मुझ कौड़ी (तुच्छ भोगों) के लालचीने भगवन्नामका प्रेमरूप पारस पाया। हे श्रीरामजी! यह सब आपहीके बनाये बनी है, नहीं तो धोबीके कुत्तेके समान मैं न घरका था और न घाटका ही (अर्थात् न मैं इस लोकको सुधार सकता था, न परलोकको)॥ ६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊँचो मनु, ऊँची रुचि, भागु नीचो निपट ही,
लोकरीति-लायक न, लंगर लबारु है।
स्वारथु अगमु, परमारथकी कहा चली,
पेटकीं कठिन जगु जीवको जवारु है॥
चाकरी न आकरी, न खेती, न बनिज-भीख,
जानत न कूर कछु किसब कबारु है।
तुलसीकी बाजी राखी रामहीकें नाम, न तु
भेंट पितरन को न मूड़हू में बारु है॥
मूल
ऊँचो मनु, ऊँची रुचि, भागु नीचो निपट ही,
लोकरीति-लायक न, लंगर लबारु है।
स्वारथु अगमु, परमारथकी कहा चली,
पेटकीं कठिन जगु जीवको जवारु है॥
चाकरी न आकरी, न खेती, न बनिज-भीख,
जानत न कूर कछु किसब कबारु है।
तुलसीकी बाजी राखी रामहीकें नाम, न तु
भेंट पितरन को न मूड़हू में बारु है॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसका मन ऊँचा है तथा रुचि भी ऊँची है, परंतु भाग्य इसका अत्यन्त खोटा है। यह लोक-व्यवहारके लायक भी नहीं है तथा बड़ा ही नटखट और गप्पी है। इसके लिये तो स्वार्थ भी अगम है, परमार्थकी तो बात ही क्या है। पेटकी कठिनाईके कारण इसे संसार जीका जंजाल हो रहा है। यह न तो कोई चाकरी ही करता है और न खान खोदनेका काम करता है; इसके न खेती है, न व्यापार है। न यह भीख माँगता है और न कोई अन्य प्रकारका धंधा या पेशा ही जानता है। तुलसीकी बाजी रामनामहीने रखी है, अन्यथा इसके पास तो पितरोंको भेंट चढ़ानेके लिये सिरपर बाल भी नहीं है॥ ६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपत-उतार, अपकारको अगारु, जग
जाकी छाँह छुएँ सहमत ब्याध-बाघको।
पातक-पुहुमि पालिबेको सहसाननु सो,
काननु कपटको, पयोधि अपराधको॥
तुलसी-से बामको भो दाहिनो दयानिधानु,
सुनत सिहात सब सिद्ध, साधु साधको।
रामनाम ललित-ललामु कियो लाखनिको,
बड़ो कूर कायर कपूत-कौड़ी आधको॥
मूल
अपत-उतार, अपकारको अगारु, जग
जाकी छाँह छुएँ सहमत ब्याध-बाघको।
पातक-पुहुमि पालिबेको सहसाननु सो,
काननु कपटको, पयोधि अपराधको॥
तुलसी-से बामको भो दाहिनो दयानिधानु,
सुनत सिहात सब सिद्ध, साधु साधको।
रामनाम ललित-ललामु कियो लाखनिको,
बड़ो कूर कायर कपूत-कौड़ी आधको॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह नीच निर्लज्जोंकी न्योछावर और अपकारोंका आगार है। जिसकी छायाका स्पर्श होनेपर संसारमें व्याध और हिंसक जीव भी सहम जाते हैं। पापरूप पृथ्वीकी रक्षा करनेके लिये यह शेषजीके समान है तथा कपटका वन और अपराधोंका समुद्र है। तुलसी-जैसे उलटी प्रकृतिके पुरुषके लिये दयानिधान (श्रीरामचन्द्रजी) दाहिने हो गये—यह सुनकर सब सिद्ध, साधु और साधकलोग सिहाते हैं। रामनामने बड़े कुटिल, कायर, कपूत और आधी कौड़ीके मनुष्यको भी लाखोंका सुन्दर रत्न बना दिया॥ ६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सब अंग हीन, सब साधन बिहीन, मन-
बचन मलीन, हीन कुल-करतूति हौं।
बुधि-बल-हीन, भाव-भगति-बिहीन, हीन
गुन, ग्यानहीन, हीन भाग हूँ बिभूति हौं॥
तुलसी गरीब की गई-बहोर रामनामु,
जाहि जपि जीहँ रामहू को बैठो धूति हौं।
प्रीति रामनामसों प्रतीति रामनामकी,
प्रसाद रामनामकें पसारि पाय सूतिहौं॥
मूल
सब अंग हीन, सब साधन बिहीन, मन-
बचन मलीन, हीन कुल-करतूति हौं।
बुधि-बल-हीन, भाव-भगति-बिहीन, हीन
गुन, ग्यानहीन, हीन भाग हूँ बिभूति हौं॥
तुलसी गरीब की गई-बहोर रामनामु,
जाहि जपि जीहँ रामहू को बैठो धूति हौं।
प्रीति रामनामसों प्रतीति रामनामकी,
प्रसाद रामनामकें पसारि पाय सूतिहौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं (योगके आठों) अङ्गोंसे हीन हूँ, सब साधनोंसे रहित हूँ, मन-वचनसे मलिन हूँ तथा कुल और कर्मोंमें भी बड़ा पतित हूँ। मैं बुद्धि-बलहीन, भाव और भक्तिसे रहित, गुणहीन, ज्ञानहीन तथा भाग्य और ऐश्वर्यसे भी रहित हूँ। इस दीन तुलसीदासकी हीन अवस्थाका उद्धार करनेवाला तो रामका नाम ही है। जिसे जिह्वासे जपकर मैं रामजीको भी छल चुका हूँ। मुझे रामनामसे ही प्रीति है, रामनाममें ही विश्वास है और मैं रामनामकी ही कृपासे पैर पसारकर (निश्चिन्त होकर) सोता हूँ॥ ६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरें जान जबतें हौं जीव ह्वै जनम्यो जग,
तबतें बेसाह्यो दाम लोह, कोह, कामको।
मन तिन्हीकी सेवा, तिन्ही सों भाउ नीको,
बचन बनाइ कहौं ‘हौं गुलामु रामको’॥
नाथहूँ न अपनायो, लोक झूठी ह्वै परी, पै
प्रभुहू तें प्रबल प्रतापु प्रभुनामको।
आपनीं भलाई भलो कीजै तौ भलाई, न तौ
तुलसीको खुलैगो खजानो खोटे दामको॥
मूल
मेरें जान जबतें हौं जीव ह्वै जनम्यो जग,
तबतें बेसाह्यो दाम लोह, कोह, कामको।
मन तिन्हीकी सेवा, तिन्ही सों भाउ नीको,
बचन बनाइ कहौं ‘हौं गुलामु रामको’॥
नाथहूँ न अपनायो, लोक झूठी ह्वै परी, पै
प्रभुहू तें प्रबल प्रतापु प्रभुनामको।
आपनीं भलाई भलो कीजै तौ भलाई, न तौ
तुलसीको खुलैगो खजानो खोटे दामको॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी समझसे जबसे मैं जगत् में जीव होकर जन्मा हूँ, तबसे मुझे लोभ, क्रोध और कामने दाम देकर मोल ले लिया है। (अतएव) मनसे उन्हींकी सेवा होती है और उन्हींसे गहरा प्रेम है; परंतु बात बनाकर कहता हूँ कि मैं तो श्रीरामका गुलाम हूँ। हे नाथ! आपने भी (अयोग्य समझकर) नहीं अपनाया, किंतु लोकमें झूठी प्रसिद्धि हो गयी (कि मैं रामका गुलाम हूँ), परंतु प्रभुसे भी प्रभुके नामका प्रताप अधिक प्रचण्ड है। (अतः) अपनी भलाईसे यदि आप मेरा भला कर दें तो अच्छा ही है, नहीं तो तुलसीके कपटका खजाना खुलेगा ही॥ ७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोग न बिरागु, जप, जाग, तप, त्यागु, ब्रत,
तीरथ न धर्म जानौं, बेदबिधि किमि है।
तुलसी-सो पोच न भयो है, नहि ह्वैहै कहूँ,
सोचैं सब, याके अघ कैसे प्रभु छमिहैं॥
मेरें तौ न डरु, रघुबीर! सुनौ, साँची कहौं,
खल अनखैहैं तुम्हैं, सज्जन न गमिहैं।
भले सुकृतीके संग मोहि तुलाँ तौलिए तौ,
नामकें प्रसाद भारु मेरी ओर नमिहै॥
मूल
जोग न बिरागु, जप, जाग, तप, त्यागु, ब्रत,
तीरथ न धर्म जानौं, बेदबिधि किमि है।
तुलसी-सो पोच न भयो है, नहि ह्वैहै कहूँ,
सोचैं सब, याके अघ कैसे प्रभु छमिहैं॥
मेरें तौ न डरु, रघुबीर! सुनौ, साँची कहौं,
खल अनखैहैं तुम्हैं, सज्जन न गमिहैं।
भले सुकृतीके संग मोहि तुलाँ तौलिए तौ,
नामकें प्रसाद भारु मेरी ओर नमिहै॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं न तो अष्टाङ्गयोग जानता हूँ और न वैराग्य, जप, यज्ञ, तप, त्याग, व्रत, तीर्थ अथवा धर्म ही जानता हूँ। मैं यह भी नहीं जानता कि वेदका विधान कैसाहै। तुलसीके समान पामर न तो कोई हुआ है और न कहीं होगा। (इसीलिये) सभी सोचते हैं, न जाने, प्रभु इसके पापोंको कैसे क्षमा करेंगे। किंतु हे रघुनाथजी! सुनिये, मैं (आपसे) सच कहता हूँ, मुझे कुछ भी डर नहीं है। (यदि आप मुझे क्षमा कर देंगे तो) दुष्ट लोग तो अवश्य आपसे अप्रसन्न होंगे; किंतु सज्जनोंको इससे कुछ भी दुःख नहीं होगा। यदि आप मुझे किसी बड़े पुण्यवान् के साथ तराजूपर तोलेंगे तो आपके नामकी कृपासे मेरी ओरका पलड़ा ही झुकता हुआ रहेगा॥ ७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जातिके, सुजातिके, कुजातिके पेटागि बस
खाए टूक सबके, बिदित बात दुनीं सो।
मानस-बचन-कायँ किए पाप सतिभायँ,
रामको कहाइ दासु दगाबाज पुनी सो।
रामनामको प्रभाउ, पाउ, महिमा, प्रतापु,
तुलसी-सो जग मनिअत महामुनी-सो।
अतिहीं अभागो, अनुरागत न रामपद,
मूढ़! एतो बड़ो अचिरिजु देखि-सुनी सो॥
मूल
जातिके, सुजातिके, कुजातिके पेटागि बस
खाए टूक सबके, बिदित बात दुनीं सो।
मानस-बचन-कायँ किए पाप सतिभायँ,
रामको कहाइ दासु दगाबाज पुनी सो।
रामनामको प्रभाउ, पाउ, महिमा, प्रतापु,
तुलसी-सो जग मनिअत महामुनी-सो।
अतिहीं अभागो, अनुरागत न रामपद,
मूढ़! एतो बड़ो अचिरिजु देखि-सुनी सो॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने पेटकी आगके कारण (अपनी) जाति, सुजाति, कुजाति सभीके टुकड़े (माँग-माँगकर) खाये हैं—यह बात संसारमें (सबको) विदित है; मन, वचन और कर्मसे सच्चे भावसे अर्थात् स्वाभाविक ही (बहुत-से) पाप किये और रामजीका दास कहलाकर भी दगाबाज ही बना रहा। अब रामनामका प्रभाव, पैठ, महिमा और प्रताप देखिये, जिसके कारण तुलसी-जैसे (दुष्ट) को भी लोग महामुनि (वाल्मीकि) के समान मानते हैं। रे मूढ़! तू बड़ा ही अभागा है; इतना बड़ा अचरज देख-सुनकर भी श्रीरामके चरणोंमें प्रीति नहीं करता॥ ७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जायो कुल मंगन, बधावनो बजायो, सुनि
भयो परितापु पापु जननी-जनकको।
बारेतें ललात-बिललात द्वार-द्वार दीन,
जानत हो चारि फल चारि ही चनकको॥
तुलसी सो साहेब समर्थको सुसेवकु है,
सुनत सिहात सोचु बिधिहू गनकको।
नामु राम! रावरो सयानो किधौं बावरो,
जो करत गिरीतें गरु तृनतें तनकको॥
मूल
जायो कुल मंगन, बधावनो बजायो, सुनि
भयो परितापु पापु जननी-जनकको।
बारेतें ललात-बिललात द्वार-द्वार दीन,
जानत हो चारि फल चारि ही चनकको॥
तुलसी सो साहेब समर्थको सुसेवकु है,
सुनत सिहात सोचु बिधिहू गनकको।
नामु राम! रावरो सयानो किधौं बावरो,
जो करत गिरीतें गरु तृनतें तनकको॥
अनुवाद (हिन्दी)
भिक्षा माँगनेवाले (ब्राह्मण) कुलमें तो उत्पन्न हुआ, जिसके उपलक्ष्यमें बधावा बजाया गया। यह सुनकर माता-पिताको परिताप और कष्ट हुआ। फिर बालपनसे ही अत्यन्त दीन होनेके कारण द्वार-द्वार ललचाता और बिलबिलाता फिरा, चनेके चार दानोंको ही अर्थ, धर्म, काम और मोक्षरूप चार फल समझता था। वही तुलसी अब समर्थ स्वामी श्रीरामचन्द्रजीका सुसेवक है—यह सुनकर ब्रह्मा-जैसे गणक (ज्योतिषी) को भी चिन्ता और ईर्ष्या होती है। हे राम! मालूम नहीं, आपका नाम चतुर है या पागल, जो तृणसे भी तुच्छ पुरुषको पर्वतसे भी भारी बना देता है॥ ७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
रामनाम ही सों रीझें सकल भलाई है।
कासीहूँ मरत उपदेसत महेसु सोई,
साधना अनेक चितई न चित लाई है॥
छाछीको ललात जे, ते रामनामकें प्रसाद,
खात खुनसात सोंधे दूधकी मलाई है।
रामराज सुनिअत राजनीतिकी अवधि,
नामु राम! रावरो तौ चामकी चलाई है॥
मूल
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
रामनाम ही सों रीझें सकल भलाई है।
कासीहूँ मरत उपदेसत महेसु सोई,
साधना अनेक चितई न चित लाई है॥
छाछीको ललात जे, ते रामनामकें प्रसाद,
खात खुनसात सोंधे दूधकी मलाई है।
रामराज सुनिअत राजनीतिकी अवधि,
नामु राम! रावरो तौ चामकी चलाई है॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेद-पुराण भी कहते हैं और लोकमें भी देखा जाता है कि रामनामहीसे प्रेम करनेमें सब तरहकी भलाई है। काशीमें मरनेपर महादेवजी भी जीवोंको उसीका उपदेश करते हैं। उन्होंने अन्य अनेकों साधनोंकी ओर न दृष्टि दी है और न उन्हें चित्तहीमें स्थान दिया है। जो छाछको ललचाते थे, वे रामनामके प्रसादसे सुगन्धित दूधकी मलाई खानेमें भी नाक-भौं सिकोड़ते हैं। श्रीरामचन्द्रजीके राज्यमें राजनीतिकी पराकाष्ठा सुनी जाती है; किंतु हे रामजी! आपके नामने तो चमड़ेका सिक्का चला दिया अर्थात् अधमोंको भी उत्तम बना दिया॥ ७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोच-संकटनि सोचु संकटु परत, जर
जरत, प्रभाउ नाम ललित ललामको।
बूड़िऔ तरति, बिगरीऔ सुधरति बात,
होत देखि दाहिनो सुभाउ बिधि बामको॥
भागत अभागु, अनुरागत बिरागु, भागु
जागत आलसि तुलसीहू-से निकामको।
धाई धारि फिरि कै गोहारि हितकारी होति,
आई मीचु मिटति जपत रामनामको॥
मूल
सोच-संकटनि सोचु संकटु परत, जर
जरत, प्रभाउ नाम ललित ललामको।
बूड़िऔ तरति, बिगरीऔ सुधरति बात,
होत देखि दाहिनो सुभाउ बिधि बामको॥
भागत अभागु, अनुरागत बिरागु, भागु
जागत आलसि तुलसीहू-से निकामको।
धाई धारि फिरि कै गोहारि हितकारी होति,
आई मीचु मिटति जपत रामनामको॥
अनुवाद (हिन्दी)
अति सुन्दर और श्रेष्ठ रामनामका ऐसा प्रभाव है कि उससे शोच और संकटोंको शोच तथा संकट पड़ जाता है, ज्वर भी जलने लगते हैं, डूबी हुई (नौका) भी तर जाती है, बिगड़ी हुई बात भी सुधर जाती है, ऐसे पुरुषको देखकर वाम विधाताका स्वभाव भी अनुकूल हो जाता है, अभाग्य भाग जाता है, वैराग्य प्रेम करने लगता है और तुलसी-से निकम्मे और आलसीका भी भाग्य जाग जाता है (लूटनेको आयी हुई लुटेरोंकी) सेना भी उलटे रक्षक और हितकारी बन जाती है तथा राम-नामका जप करनेसे आयी हुई मृत्यु भी टल जाती है॥ ७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आँधरो अधम जड़ जाजरो जराँ जवनु
सूकरकें सावक ढकाँ ढकेल्यो मगमें।
गिरो हिएँ हहरि ‘हराम हो, हराम हन्यो’,
हाय! हाय! करत परीगो कालफगमें॥
‘तुलसी’ बिसोक ह्वै त्रिलोकपतिलोक गयो
नामकें प्रताप, बात बिदित है जगमें।
सोई रामनामु जो सनेहसों जपत जनु,
ताकी महिमा क्यों कही है जाति अगमें॥
मूल
आँधरो अधम जड़ जाजरो जराँ जवनु
सूकरकें सावक ढकाँ ढकेल्यो मगमें।
गिरो हिएँ हहरि ‘हराम हो, हराम हन्यो’,
हाय! हाय! करत परीगो कालफगमें॥
‘तुलसी’ बिसोक ह्वै त्रिलोकपतिलोक गयो
नामकें प्रताप, बात बिदित है जगमें।
सोई रामनामु जो सनेहसों जपत जनु,
ताकी महिमा क्यों कही है जाति अगमें॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक सूअरके बच्चेने किसी अंधे, अधम, मूर्ख और बुढ़ापेसे जर्जर यवनको राहमें धक्का देकर ढकेल दिया। इससे वह गिर गया और हृदयमें भयभीत होकर ‘अरे! हरामने मार डाला, हरामने मार डाला’ इस प्रकार हाय-हाय करते-करते कालके फंदेमें पड़ गया अर्थात् मर गया। गोसाईंजी कहते हैं कि यह यवन नामके प्रतापसे सब प्रकारके शोकोंसे छूटकर त्रिलोकीनाथ भगवान् रामके धामको चला गया, यह बात जगत् में प्रसिद्ध है। उसी रामनामको जो मनुष्य प्रेमपूर्वक जपता है, उसकी अगाध महिमा कैसे कही जा सकती है॥ ७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जापकी न तप-खपु कियो, न तमाइ जोग,
जाग न बिराग, त्याग, तीरथ न तनको।
भाईको भरोसो न खरो-सो बैरु बैरीहू सों,
बलु अपनो न, हितू जननी न जनको॥
लोकको न डरु, परलोकको न सोचु, देव-
सेवा न सहाय, गर्बु धामको न धनको।
रामही के नामतें जो होई सोई नीको लागै,
ऐसोई सुभाउ कछु तुलसीके मनको॥
मूल
जापकी न तप-खपु कियो, न तमाइ जोग,
जाग न बिराग, त्याग, तीरथ न तनको।
भाईको भरोसो न खरो-सो बैरु बैरीहू सों,
बलु अपनो न, हितू जननी न जनको॥
लोकको न डरु, परलोकको न सोचु, देव-
सेवा न सहाय, गर्बु धामको न धनको।
रामही के नामतें जो होई सोई नीको लागै,
ऐसोई सुभाउ कछु तुलसीके मनको॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने न तो जप किया, न तपस्याका क्लेश सहा और न मुझे योग, यज्ञ, वैराग्य, त्याग अथवा तीर्थकी ही इच्छा है। मुझे भाईका भी भरोसा नहीं है और न वैरीसे भी जरा-सी शत्रुता है। मुझे अपना बल नहीं है और माता-पिता भी अपने हितैषी नहीं हैं, परंतु मुझे न तो इस लोकका डर है और न परलोकका ही सोच है। देवसेवाका भी मुझे बल नहीं है और न मुझे धन-धामका ही गर्व है। तुलसीके मनका कुछ इसी तरहका स्वभाव है कि भगवान् रामके नामसे ही जो कुछ होगा, वही उसे अच्छा लगता है॥ ७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईसु न, गनेसु न, दिनेसु न, धनेसु न,
सुरेसु, सुर, गौरि, गिरापति नहि जपने।
तुम्हरेई नामको भरोसो भव तरिबेको,
बैठें-उठें, जागत-बागत, सोएँ, सपनें॥
तुलसी है बावरो सो रावरोई, रावरी सौं,
रावरेऊ जानि जियँ कीजिए जु अपने।
जानकीरमन मेरे! रावरें बदनु फेरें,
ठाउँ न समाउँ कहाँ, सकल निरपने॥
मूल
ईसु न, गनेसु न, दिनेसु न, धनेसु न,
सुरेसु, सुर, गौरि, गिरापति नहि जपने।
तुम्हरेई नामको भरोसो भव तरिबेको,
बैठें-उठें, जागत-बागत, सोएँ, सपनें॥
तुलसी है बावरो सो रावरोई, रावरी सौं,
रावरेऊ जानि जियँ कीजिए जु अपने।
जानकीरमन मेरे! रावरें बदनु फेरें,
ठाउँ न समाउँ कहाँ, सकल निरपने॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे शिव, गणेश, सूर्य, कुबेर, इन्द्रादि देवता, गौरी अथवा ब्रह्माको नहीं जपना है। संसारसे तरनेके लिये उठते-बैठते, जागते, घूमते, सोते एवं स्वप्न देखते—बस, आपके नामका ही भरोसा है। तुलसी यद्यपि बावला है; परंतु आपकी सौगन्ध, है आपका ही। इस बातको अपने चित्तमें जानकर आप भी उसे अपना लीजिये। हे मेरे जानकीनाथ! आपके मुख फेर लेनेपर मेरे लिये कहीं ठौर-ठिकाना नहीं रहेगा, मैं कहाँ रहूँगा? सभी बिराने हैं॥ ७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाहिर जहानमें जमानो एक भाँति भयो,
बेंचिए बिबुधधेनु, रासभी बेसाहिए।
ऐसेऊ कराल कलिकालमें कृपाल! तेरे
नामकें प्रताप न त्रिताप तन दाहिए॥
तुलसी तिहारो मन-बचन-करम, तेंहि
नातें नेह-नेमु निज ओरतें निबाहिए।
रंकके नेवाज रघुराज! राजा राजनिके,
उमरि दराज महाराज तेरी चाहिए॥
मूल
जाहिर जहानमें जमानो एक भाँति भयो,
बेंचिए बिबुधधेनु, रासभी बेसाहिए।
ऐसेऊ कराल कलिकालमें कृपाल! तेरे
नामकें प्रताप न त्रिताप तन दाहिए॥
तुलसी तिहारो मन-बचन-करम, तेंहि
नातें नेह-नेमु निज ओरतें निबाहिए।
रंकके नेवाज रघुराज! राजा राजनिके,
उमरि दराज महाराज तेरी चाहिए॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जमाना संसारमें इस बातके लिये प्रसिद्ध हो गया है कि कामधेनुको बेचकर गधी खरीदी जाने लगी। ऐसे भयंकर कलिकालमें भी हे कृपालो! आपके नामके प्रतापसे त्रिताप (दैहिक, दैविक, भौतिक)से शरीर दग्ध नहीं होता। गोसाईंजी कहते हैं, मन-वचन-कर्मसे मैं आपका (भक्त) हूँ। इसी नाते आप अपनी ओरसे भी स्नेहके नियमको निभाइये। हे रंकोंपर कृपा करनेवाले राजाओंके राजा महाराज रघुनाथजी! हमें तो आपकी उमर बड़ी चाहिये [फिर कोई खटका नहीं है]॥ ७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वारथ सयानप, प्रपंचु परमारथ,
कहायो राम! रावरो हौं, जानत जहान है।
नामकें प्रताप, बाप! आजु लौं निबाही नीकें,
आगेको गोसाईं! स्वामी सबल सुजान है॥
कलिकी कुचालि देखि दिन-दिन दूनी, देव!
पाहरूई चोर हेरि हिय हहरान है।
तुलसीकी, बलि, बार-बारहीं सँभार कीबी,
जद्यपि कृपानिधानु सदा सावधान है॥
मूल
स्वारथ सयानप, प्रपंचु परमारथ,
कहायो राम! रावरो हौं, जानत जहान है।
नामकें प्रताप, बाप! आजु लौं निबाही नीकें,
आगेको गोसाईं! स्वामी सबल सुजान है॥
कलिकी कुचालि देखि दिन-दिन दूनी, देव!
पाहरूई चोर हेरि हिय हहरान है।
तुलसीकी, बलि, बार-बारहीं सँभार कीबी,
जद्यपि कृपानिधानु सदा सावधान है॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे स्वार्थके कामोंमें चतुराई और परमार्थके कामोंमें पाखण्ड भरा हुआ है। हे रामजी! तो भी मैं आपका कहलाता हूँ और सारा संसार भी यही जानता है। हे पिता! आपने नामके प्रतापसे आजतक अच्छी निभा दी और हे स्वामिन्! आगेके लिये भी प्रभु समर्थ और सर्वज्ञ हैं। हे देव! कलियुगकी कुचालको दिन-दिन दूनी बढ़ती देखकर और पहरेदारको भी चोर देखकर मेरा हृदय दहल गया है। हे कृपानिधान! यद्यपि आप सदा ही सावधान हैं तथापि तुलसी बलिहारी जाता है, आप इसकी बार-बार सँभाल करते रहियेगा (ताकि इसके मनमें विकार न आने पावे)॥ ८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिन-दिन दूनो देखि दारिदु, दुकालु, दुखु,
दुरितु, दुराजु सुख-सुकृत सकोच है।
मागें पैंत पावत पचारि पातकी प्रचंड,
कालकी करालता, भलेको होत पोच है॥
आपनें तौ एकु अवलंबु अंब डिंभ ज्यों,
समर्थ सीतानाथ सब संकट बिमोच है।
तुलसीकी साहसी सराहिए कृपाल राम!
नामकें भरोसें परिनामको निसोच है॥
मूल
दिन-दिन दूनो देखि दारिदु, दुकालु, दुखु,
दुरितु, दुराजु सुख-सुकृत सकोच है।
मागें पैंत पावत पचारि पातकी प्रचंड,
कालकी करालता, भलेको होत पोच है॥
आपनें तौ एकु अवलंबु अंब डिंभ ज्यों,
समर्थ सीतानाथ सब संकट बिमोच है।
तुलसीकी साहसी सराहिए कृपाल राम!
नामकें भरोसें परिनामको निसोच है॥
अनुवाद (हिन्दी)
दिनोंदिन दरिद्रता, दुष्काल (दुर्भिक्ष), दुःख, पाप और कुराज्यको दूना होता देखकर सुख और सुकृत संकुचित हो रहे हैं। समय ऐसा भयंकर आ गया है कि बड़े-बड़े पापी तो डाँट-डपटकर माँगनेसे अपना दाँव पा लेते हैं और भले आदमीका बुरा हो जाता है। जैसे बालकको एकमात्र माँका ही सहारा होता है, वैसे ही अपने तो एकमात्र सहारा सर्वसंकटोंसे छुड़ानेवाले और समर्थ श्रीसीतानाथका ही है। हे कृपालु रामजी! तुलसीके साहसकी सराहना कीजिये कि वह (आपके) नामके भरोसे परिणामकी ओरसे निश्चिन्त हो गया है॥ ८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोह-मद मात्यो, रात्यो कुमति-कुनारिसों,
बिसारि बेद-लोक-लाज, आँकरो अचेतु है।
भावै सो करत, मुहँ आवै सो कहत, कछु
काहूकी सहत नाहिं, सरकस हेतु है॥
तुलसी अधिक अधमाई हू अजामिलतें,
ताहूमें सहाय कलि कपटनिकेतु है।
जैबेको अनेक टेक, एक टेक ह्वैबेकी, जो
पेट-प्रियपूत हित रामनामु लेतु है॥
मूल
मोह-मद मात्यो, रात्यो कुमति-कुनारिसों,
बिसारि बेद-लोक-लाज, आँकरो अचेतु है।
भावै सो करत, मुहँ आवै सो कहत, कछु
काहूकी सहत नाहिं, सरकस हेतु है॥
तुलसी अधिक अधमाई हू अजामिलतें,
ताहूमें सहाय कलि कपटनिकेतु है।
जैबेको अनेक टेक, एक टेक ह्वैबेकी, जो
पेट-प्रियपूत हित रामनामु लेतु है॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह मोहरूपी मदसे उन्मत्त हो गया है, कुमतिरूपी कुलटा स्त्रीमें रत है, लोक और वेदकी लज्जाको त्यागकर बड़ा अचेत (बेपरवाह) हो गया है। मनमानी करता है और मुँहमें जो आता है, वही [ बिना बिचारे ] कह डालता है और उद्दण्डताके कारण किसीकी कोई बात सहता नहीं। गोसाईंजी कहते हैं कि इस प्रकार मुझमें अजामिलसे भी अधिक अधमता है, तिसपर भी कपटनिधान कलि मेरा सहायक है। बिगड़नेके तो अनेक मार्ग हैं; परंतु बननेका केवल एक रास्ता है, वह यह है कि यह पेटरूपी पुत्रके लिये रामनाम लेता है [भाव यह है कि अधम अजामिलने पुत्रके मिससे भगवान् का नाम लिया था। मैंने भी पेटरूपी पुत्रके लिये उसीका आश्रय लिया है]॥ ८२॥
कलिवर्णन
विश्वास-प्रस्तुतिः
जागिए न सोइए , बिगोइए जनमु जायँ,
दुख, रोग रोइए , कलेसु कोह-कामको।
राजा-रंक, रागी औ बिरागी, भूरिभागी, ये
अभागी जीव जरत, प्रभाउ कलि बामको॥
तुलसी! कबंध-कैसो धाइबो, बिचारु अंध!
धंध देखिअत जग, सोचु परिनामको।
सोइबो जो रामके सनेहकी समाधि-सुखु,
जागिबो जो जीह जपै नीकें रामनामको॥
मूल
जागिए न सोइए , बिगोइए जनमु जायँ,
दुख, रोग रोइए , कलेसु कोह-कामको।
राजा-रंक, रागी औ बिरागी, भूरिभागी, ये
अभागी जीव जरत, प्रभाउ कलि बामको॥
तुलसी! कबंध-कैसो धाइबो, बिचारु अंध!
धंध देखिअत जग, सोचु परिनामको।
सोइबो जो रामके सनेहकी समाधि-सुखु,
जागिबो जो जीह जपै नीकें रामनामको॥
अनुवाद (हिन्दी)
(इस संसारमें) न तो हम जागते हैं, न सोते हैं? जीवनको व्यर्थ खो रहे हैं। दुःख और रोगके कारण रोते हैं और काम-क्रोधका क्लेश (मानसिक व्यथा) सहते हैं। राजा-रंक, रागी-विरागी और महाभाग्यवान् तथा अभागी, सभी जीव जल रहे हैं; कुटिल कलियुगका ऐसा ही प्रभाव है। गोसाईंजी अपने लिये कहते हैं कि अरे अंधे! विचार कर, इस जगत् में जितने धंधे दिखायी देते हैं, वे सब कबन्ध (बिना सिरवाले रुण्ड) की दौड़के समान हैं, जिनका अन्त चिन्ता ही है। श्रीरामप्रेमकी समाधिका जो सुख है, वही सोना है और जिह्वा भलीभाँति रामनाम जपे—यही जागना है॥ ८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बरन-धरमु गयो, आश्रम निवासु तज्यो,
त्रासन चकित सो परावनो परो-सो है।
करमु उपासना कुबासनाँ बिनास्यो ग्यानु,
बचन-बिराग, बेष जगतु हरो-सो है॥
गोरख जगायो जोगु, भगति भगायो लोगु,
निगम-नियोगतें सो केलि ही छरो-सो है।
कायँ-मन-बचन सुभायँ तुलसी है जाहि
रामनामको भरोसो, ताहिको भरोसो है॥
मूल
बरन-धरमु गयो, आश्रम निवासु तज्यो,
त्रासन चकित सो परावनो परो-सो है।
करमु उपासना कुबासनाँ बिनास्यो ग्यानु,
बचन-बिराग, बेष जगतु हरो-सो है॥
गोरख जगायो जोगु, भगति भगायो लोगु,
निगम-नियोगतें सो केलि ही छरो-सो है।
कायँ-मन-बचन सुभायँ तुलसी है जाहि
रामनामको भरोसो, ताहिको भरोसो है॥
Misc Detail
इस कुसमयमें वर्णधर्म चला गया, ब्रह्मचर्यादि आश्रमोंने अपना स्थान छोड़ दिया। (अधर्मके) त्राससे चकित होकर भग्गी-सी पड़ी हुई है। कर्म, उपासना और ज्ञानको कुवासना (विषयभोगकी प्रबल इच्छा) ने नष्ट कर दिया है। वचनमात्रके वैराग्य और वेषने जगत् को ठग-सा लिया है! गोरखने योग क्या जगाया, लोगोंको भक्तिसे विमुख कर दिया और वेदकी आज्ञाने खेलहीमें संसारको ठग-सा लिया है। गोसाईंजी कहते हैं कि जिसे शरीर, मन और वचनसे स्वाभाविक ही रामनामका भरोसा है, उसीके सम्बन्धमें भरोसा होता है (कि वह संसारसे तर जायगा)॥ ८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेद-पुरान बिहाइ सुपंथु, कुमारग, कोटि कुचालि चली है।
कालु कराल, नृपाल कृपाल न, राजसमाजु, बड़ोई छली है॥
बर्न-बिभाग न आश्रमधर्म, दुनी दुख-दोष-दरिद्र-दली है।
स्वारथको परमारथको कलि रामको नामप्रतापु बली है॥
मूल
बेद-पुरान बिहाइ सुपंथु, कुमारग, कोटि कुचालि चली है।
कालु कराल, नृपाल कृपाल न, राजसमाजु, बड़ोई छली है॥
बर्न-बिभाग न आश्रमधर्म, दुनी दुख-दोष-दरिद्र-दली है।
स्वारथको परमारथको कलि रामको नामप्रतापु बली है॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेद-पुराणरूप सुमार्गको त्यागकर तरह-तरहकी कुचालें और करोड़ों कुमार्ग चल गये हैं। समय बड़ा कठिन है, राजा दयारहित हैं, राजसमाज (मन्त्री, कर्मचारी) बड़ा ही छली है। वर्णविभाग नहीं रहा, न आश्रमधर्म ही रहा है और संसारको दुःख, दोष और दरिद्रताने दलित कर दिया है। (ऐसे घोर) कलिकालमें स्वार्थ और परमार्थके लिये राम-नामका प्रताप ही बलवान् है॥ ८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मिटै भवसंकटु, दुर्घट है तप, तीरथ जन्म अनेक अटो।
कलिमें न बिरागु, न ग्यानु कहूँ, सबु लागत फोकट झूठ-जटो॥
नटु ज्यों जनि पेट-कुपेटक कोटिक चेटक-कौतुक-ठाट ठटो।
तुलसी जो सदा सुखु चाहिअ तौ, रसनाँ निसिबासर रामु रटो॥
मूल
न मिटै भवसंकटु, दुर्घट है तप, तीरथ जन्म अनेक अटो।
कलिमें न बिरागु, न ग्यानु कहूँ, सबु लागत फोकट झूठ-जटो॥
नटु ज्यों जनि पेट-कुपेटक कोटिक चेटक-कौतुक-ठाट ठटो।
तुलसी जो सदा सुखु चाहिअ तौ, रसनाँ निसिबासर रामु रटो॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस संसारका संकट मिट नहीं सकता, क्योंकि तप तो कठिन है; और तीर्थोंमें अनेक जन्मोंतक विचरते रहो, किंतु कलियुगमें न कहीं वैराग्य है, न ज्ञान है, सब सारहीन और असत्यपूरित प्रतीत होता है। नटकी भाँति अपने पेटरूपी कुत्सित पेटारेसे करोड़ों इन्द्रजालके कौतुकका ठाट मत ठटो। गोसाईंजी कहते हैं कि जो सदा सुख चाहते हो तो जिह्वासे रात-दिन रामनाम रटते रहो॥ ८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दमु दुर्गम, दान, दया, मख, कर्म, सुधर्म अधीन सबै धनको।
तप, तीरथ, साधन, जोग, बिरागसों होइ, नहीं दृढ़ता तनको॥
कलिकाल करालमें ‘राम कृपालु’ यहै अवलंबु बड़ो मनको।
‘तुलसी’ सब संजमहीन सबै, एक नाम-अधारु सदा जनको॥
मूल
दमु दुर्गम, दान, दया, मख, कर्म, सुधर्म अधीन सबै धनको।
तप, तीरथ, साधन, जोग, बिरागसों होइ, नहीं दृढ़ता तनको॥
कलिकाल करालमें ‘राम कृपालु’ यहै अवलंबु बड़ो मनको।
‘तुलसी’ सब संजमहीन सबै, एक नाम-अधारु सदा जनको॥
अनुवाद (हिन्दी)
दम अर्थात् इन्द्रियनिग्रह कठिन है। दान, दया, यज्ञ, कर्म और उत्तम धर्म सब धनके अधीन हैं। तप, तीर्थ और योगसाधन वैराग्यसे होते हैं, किंतु (मनकी) दृढ़ता तनिक भी नहीं है। इस कराल कलिकालमें ‘राम कृपालु हैं’—यही मनके लिये बड़ा अवलम्ब है। गोसाईंजी कहते हैं कि सब लोग सब प्रकारके संयमोंसे रहित हैं, भक्तोंको सदैव एक राम-नामका ही आधार है॥ ८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाइ सुदेह बिमोह-नदी-तरनी न लही, करनी न कछू की।
रामकथा बरनी न बनाइ, सुनी न कथा प्रह्लाद न ध्रूकी॥
अब जोर जरा जरि गातु गयो, मन मानि गलानि कुबानि न मूकी।
नीकें कै ठीक दई तुलसी, अवलंब बड़ी उर आखर दूकी॥
मूल
पाइ सुदेह बिमोह-नदी-तरनी न लही, करनी न कछू की।
रामकथा बरनी न बनाइ, सुनी न कथा प्रह्लाद न ध्रूकी॥
अब जोर जरा जरि गातु गयो, मन मानि गलानि कुबानि न मूकी।
नीकें कै ठीक दई तुलसी, अवलंब बड़ी उर आखर दूकी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(मनुष्यकी) सुन्दर देह पाकर भी मोहरूपी नदीको पार करनेके लिये (भक्तिरूपी) नौका प्राप्त नहीं की और न कोई उत्तम करनी की। श्रीरामकथाको भलीभाँति नहीं गाया और न प्रह्लाद तथा ध्रुव (जैसे भक्तों) की कथा सुनी। अब भरपूर वृद्धावस्थाके कारण शरीर जर्जर हो गया है, तथापि मनने ग्लानि मानकर अपनी कुटेव नहीं छोड़ी, इससे तुलसीने अच्छी तरह विचारकर यह निश्चय कर लिया है कि ‘राम’ इन दो अक्षरोंका ही हृदयमें बड़ा अवलम्ब है॥ ८८॥
राम-नाम-महिमा
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामु बिहाइ ‘मरा’ जपतें बिगरी सुधरी कबिकोकिलहू की।
नामहि तें गजकी, गनिकाकी, अजामिलकी चलि गै चलचूकी॥
नामप्रताप बड़ें कुसमाज बजाइ रही पति पांडुबधूकी।
ताको भलो अजहूँ ‘तुलसी’ जेहि प्रीति-प्रतीति है आखर दूकी॥
मूल
रामु बिहाइ ‘मरा’ जपतें बिगरी सुधरी कबिकोकिलहू की।
नामहि तें गजकी, गनिकाकी, अजामिलकी चलि गै चलचूकी॥
नामप्रताप बड़ें कुसमाज बजाइ रही पति पांडुबधूकी।
ताको भलो अजहूँ ‘तुलसी’ जेहि प्रीति-प्रतीति है आखर दूकी॥
अनुवाद (हिन्दी)
सीधा रामनाम त्यागकर उलटा ‘मरा’, ‘मरा’ जपनेसे कवि-कोकिल (श्रीवाल्मीकिजी) की बिगड़ी सुधर गयी। रामनामसे ही गजकी और गणिकाकी बन गयी और अजामिलका धोखा भी चल गया। रामनामहीके प्रतापसे बड़े कुसमाजमें अर्थात् दुर्योधनकी सभामें द्रौपदीकी लाज डंकेकी चोट रह गयी। गोसाईंजी कहते हैं कि जिसको ‘राम’ इन दोनों अक्षरोंमें प्रीति और प्रतीति है, उसका अब भी भला ही है॥ ८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नामु अजामिल-से खल तारन, तारन बारन-बारबधूको।
नाम हरे प्रहलाद-बिषाद, पिता-भय-साँसति-सागरु सूको॥
नामसों प्रीति-प्रतीति-बिहीन गिल्यो कलिकाल कराल, न चूको।
राखिहैं रामु सो जासु हिएँ तुलसी हुलसै बलु आखर दूको॥
मूल
नामु अजामिल-से खल तारन, तारन बारन-बारबधूको।
नाम हरे प्रहलाद-बिषाद, पिता-भय-साँसति-सागरु सूको॥
नामसों प्रीति-प्रतीति-बिहीन गिल्यो कलिकाल कराल, न चूको।
राखिहैं रामु सो जासु हिएँ तुलसी हुलसै बलु आखर दूको॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामनाम अजामिल-जैसे खलोंको भी तारनेवाला है, गज और वेश्याका भी निस्तार करनेवाला है। नामहीने प्रह्लादके विषादका नाश किया और उनके पिता (हिरण्यकशिपु) से होनेवाले भय और साँसतरूपी समुद्रको सुखा दिया। रामनाममें जिसकी प्रीति और प्रतीति नहीं है, उसको कराल कलिकाल निगल जानेमें कभी नहीं चूका अर्थात् निगल ही गया। गोस्वामीजी कहते हैं कि जिसके हृदयमें ‘रा’ और ‘म’—इन दो अक्षरोंका बल हुलसता है, उसकी रक्षा श्रीरामजी करेंगे॥ ९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीव जहानमें जायो जहाँ, सो तहाँ ‘तुलसी’ तिहुँ दाह दहो है।
दोसु न काहू, कियो अपनो, सपनेहूँ नहीं सुखलेसु लहो है॥
रामके नामतें होउ सो होउ, न सोउ हिएँ, रसना हीं कहो है।
कियो न कछू, करिबो न कछू, कहिबो न कछू, मरिबोइ रहो है॥
मूल
जीव जहानमें जायो जहाँ, सो तहाँ ‘तुलसी’ तिहुँ दाह दहो है।
दोसु न काहू, कियो अपनो, सपनेहूँ नहीं सुखलेसु लहो है॥
रामके नामतें होउ सो होउ, न सोउ हिएँ, रसना हीं कहो है।
कियो न कछू, करिबो न कछू, कहिबो न कछू, मरिबोइ रहो है॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं—संसारमें जीव जहाँ भी उत्पन्न होता है, वहीं तीनों तापोंसे जलता रहता है। (इसमें) किसीका दोष नहीं है, (सब) अपने ही कियेका फल है, इसीसे उसे स्वप्नमें भी लेशमात्र सुख नहीं मिलता। रामनामके प्रभावसे जो कुछ होना हो सो (भले ही) हो, किंतु उस नामको भी मैं हृदयसे नहीं लेता, केवल जिह्वासे ही कहता हूँ। इसके अतिरिक्त मैंने (आजतक) न तो कुछ किया है, न कुछ करना है और न कुछ कहना ही है। अब तो केवल मरना ही बाकी है॥ ९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीजे न ठाउँ, न आपन गाउँ, सुरालयहू को न संबलु मेरें।
नामु रटो, जमबास क्यों जाउँ, को आइ सकै जमकिंकरु नेरें॥
तुम्हरो सब भाँति तुम्हारिअ सौं, तुम्ह ही बलि हौ मोको ठाहरु हेरें।
बैरख बाँह बसाइए पै तुलसी-घरु ब्याध-अजामिल-खेरें॥
मूल
जीजे न ठाउँ, न आपन गाउँ, सुरालयहू को न संबलु मेरें।
नामु रटो, जमबास क्यों जाउँ, को आइ सकै जमकिंकरु नेरें॥
तुम्हरो सब भाँति तुम्हारिअ सौं, तुम्ह ही बलि हौ मोको ठाहरु हेरें।
बैरख बाँह बसाइए पै तुलसी-घरु ब्याध-अजामिल-खेरें॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे पास जीवित रहनेके लिये भी कोई ठिकाना नहीं है। न तो कोई अपना गाँव है और न देवलोकमें जानेका ही कोई सामान है। मैंने रामनाम रटा है, इसलिये यमलोक भी कैसे जा सकता हूँ—(ऐसी दशामें) कौन यमदूत मेरे समीप आ सकता है। आपकी कसम, अब तो सब प्रकारसे मैं आपका ही हूँ और बलिहारी जाऊँ, आपहीका मैंने आश्रय ढूँढ़ा है। अतः अब आप अपनी भुजारूप पताकाके नीचे व्याध और अजामिलके खेड़ेमें ही तुलसीदासका भी घर बसा दीजिये॥ ९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
का कियो जोगु अजामिलजू, गनिकाँ कबहीं मति पेम पगाई।
ब्याधको साधुपनो कहिए , अपराध अगाधनि में ही जनाई॥
करुनाकरकी करुना करुना हित, नाम-सुहेत जो देत दगाई।
काहेको खीझिअ, रीझिअ पै, तुलसीहु सों है, बलि सोइ सगाई॥
मूल
का कियो जोगु अजामिलजू, गनिकाँ कबहीं मति पेम पगाई।
ब्याधको साधुपनो कहिए , अपराध अगाधनि में ही जनाई॥
करुनाकरकी करुना करुना हित, नाम-सुहेत जो देत दगाई।
काहेको खीझिअ, रीझिअ पै, तुलसीहु सों है, बलि सोइ सगाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
अजामिलने कौन-सा योग साधा था और (पिङ्गला) वेश्याने अपनी बुद्धिको कब प्रभुके प्रेममें पागा था। भला, आप व्याधकी ही साधुता बतलाइये, वह तो अगाध अपराधोंमें ही दिखायी देती थी। करुणानिधान (श्रीराम) की जो करुणा है वह तो करुणा करनेके ही लिये है [अर्थात् वह तो अकारण ही सबपर रहती है, उसे प्राप्त करनेके लिये किसी गुणकी आवश्यकता नहीं है] जो नामका सुन्दर निमित्त लेकर आपको धोखा देता है, हे रघुनाथजी! आप उससे रूठते क्यों हैं, कृपया प्रसन्न होइये। तुलसीदासके साथ भी आपका वही सम्बन्ध है, वह आपपर बलिहारी जाता है॥ ९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जे मद-मार-बिकार भरे, ते अचार-बिचार समीप न जाहीं।
है अभिमानु तऊ मनमें, जनु भाषिहै दूसरे दीनन पाहीं?॥
जौं कछु बात बनाइ कहौं, तुलसी तुम्ह में, तुम्हहूँ उर माहीं।
जानकीजीवन! जानत हौ, हम हैं तुम्हरे, तुम्ह में, सकु नाहीं॥
मूल
जे मद-मार-बिकार भरे, ते अचार-बिचार समीप न जाहीं।
है अभिमानु तऊ मनमें, जनु भाषिहै दूसरे दीनन पाहीं?॥
जौं कछु बात बनाइ कहौं, तुलसी तुम्ह में, तुम्हहूँ उर माहीं।
जानकीजीवन! जानत हौ, हम हैं तुम्हरे, तुम्ह में, सकु नाहीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष अभिमान और कामविकारसे भरे हैं, वे आचार-विचारके पास भी नहीं फटकते। [यह तुलसीदास भी ऐसा ही है] तथापि इसके मनमें यह अभिमान है कि यह आपके सिवा किसी और दीन [देवता या मनुष्य] से याचना नहीं करेगा। तुलसीदासजी कहते हैं—यदि मैं कोई बात बनाकर कहता होऊँ तो मैं आपके अंदर हूँ और आप भी मेरे हृदयमें विराजमान हैं [इसलिये आपसे कोई दुराव नहीं हो सकता]। हे जानकीजीवन! आप यह जानते हैं कि हम आपके हैं और आपहीके अंदर रहते हैं—इसमें कोई संदेह नहीं॥ ९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दानव-देव, अहीस-महीस, महामुनि-तापस, सिद्ध-समाजी।
जग-जाचक, दानि दुतीय नहीं, तुम्ह ही सबकी सब राखत बाजी॥
एते बड़े तुलसीस! तऊ सबरीके दिए बिनु भूख न भाजी।
राम गरीबनेवाज! भए हौ गरीबनेवाज गरीब नेवाजी॥
मूल
दानव-देव, अहीस-महीस, महामुनि-तापस, सिद्ध-समाजी।
जग-जाचक, दानि दुतीय नहीं, तुम्ह ही सबकी सब राखत बाजी॥
एते बड़े तुलसीस! तऊ सबरीके दिए बिनु भूख न भाजी।
राम गरीबनेवाज! भए हौ गरीबनेवाज गरीब नेवाजी॥
अनुवाद (हिन्दी)
दानव-देवता, शेषादि सर्पोंके राजा तथा पृथ्वीके राजा, महर्षि, तपस्वी और सिद्धगण—ये सब संसारमें माँगनेवाले ही हैं। आपके सिवा संसारमें कोई दूसरा दानी नहीं है; आप ही सबकी सारी बातें बनाते हैं। हे तुलसीश्वर! आप इतने बड़े हैं, तो भी शबरीके दिये हुए (जूठे बेर) बिना आपकी भूख नहीं भागी। हे दीनोंके प्रतिपालक राम! आप दीनोंकी रक्षा करके ही गरीबनिवाज हुए हैं (अतः मेरी भी रक्षा कीजिये)॥ ९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट,
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी।
पेटको पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेटकी॥
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।
‘तुलसी’ बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़वागितें बड़ी है आगि पेटकी॥
मूल
किसबी, किसान-कुल, बनिक, भिखारी, भाट,
चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी।
पेटको पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि,
अटत गहन-गन अहन अखेटकी॥
ऊँचे-नीचे करम, धरम-अधरम करि,
पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी।
‘तुलसी’ बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें,
आगि बड़वागितें बड़ी है आगि पेटकी॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रमजीवी, किसान, व्यापारी, भिखारी, भाट, सेवक, चञ्चल नट, चोर, दूत और बाजीगर—सब पेटहीके लिये पढ़ते, अनेक उपाय रचते, पर्वतोंपर चढ़ते और मृगयाकी खोजमें दुर्गम वनोंमें विचरते हैं। सब लोग पेटहीके लिये ऊँचे-नीचे कर्म तथा धर्म-अधर्म करते हैं, यहाँतक कि अपने बेटा-बेटीतकको बेच देते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं—यह पेटकी आग बड़वाग्निसे भी बड़ी है; यह तो केवल एक भगवान् रामरूप श्याममेघके द्वारा ही बुझायी जा सकती है॥ ९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खेती न किसानको, भिखारीको न भीख, बलि,
बनिकको बनिज, न चाकरको चाकरी।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों ‘कहाँ जाई, का करी?’
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबै पै, राम! रावरें कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु!
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी॥
मूल
खेती न किसानको, भिखारीको न भीख, बलि,
बनिकको बनिज, न चाकरको चाकरी।
जीविका बिहीन लोग सीद्यमान सोच बस,
कहैं एक एकन सों ‘कहाँ जाई, का करी?’
बेदहूँ पुरान कही, लोकहूँ बिलोकिअत,
साँकरे सबै पै, राम! रावरें कृपा करी।
दारिद-दसानन दबाई दुनी, दीनबंधु!
दुरित-दहन देखि तुलसी हहा करी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(तुलसीदासजी कहते हैं—) हे राम! मैं आपकी बलि जाता हूँ, (वर्तमान समयमें) किसानोंकी खेती नहीं होती, भिखारीको भीख नहीं मिलती, बनियोंका व्यापार नहीं चलता और नौकरी करनेवालोंको नौकरी नहीं मिलती। (इस प्रकार) जीविकासे हीन होनेके कारण सब लोग दुःखी और शोकके वश होकर एक-दूसरेसे कहते हैं कि ‘कहाँ जायँ और क्या करें (कुछ सूझ नहीं पड़ता)’ वेद और पुराण भी कहते हैं तथा लोकमें भी देखा जाता है कि संकटमें तो आपहीने सबपर कृपा की है। हे दीनबन्धु! दारिद्रॺरूपी रावणने दुनियाको दबा लिया है और पापरूपी ज्वालाको देखकर तुलसीदास हा-हा करता है [अर्थात् अत्यन्त कातर होकर आपसे सहायताके लिये प्रार्थना करता है]॥ ९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुल-करतूति-भूति-कीरति-सुरूप-गुन-
जौबन जरत जुर, परै न कल कहीं।
राजकाजु कुपथु, कुसाज भोग रोग ही के,
बेद-बुध बिद्या पाइ बिबस बलकहीं॥
गति तुलसीसकी लखै न कोउ, जो करत
पब्बयतें छार, छारै पब्बय पलक हीं।
कासों कीजै रोषु, दोषु दीजै काहि, पाहि राम!
कियो कलिकाल कुलि खललु खलक हीं॥
मूल
कुल-करतूति-भूति-कीरति-सुरूप-गुन-
जौबन जरत जुर, परै न कल कहीं।
राजकाजु कुपथु, कुसाज भोग रोग ही के,
बेद-बुध बिद्या पाइ बिबस बलकहीं॥
गति तुलसीसकी लखै न कोउ, जो करत
पब्बयतें छार, छारै पब्बय पलक हीं।
कासों कीजै रोषु, दोषु दीजै काहि, पाहि राम!
कियो कलिकाल कुलि खललु खलक हीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब लोग कुल, करनी, ऐश्वर्य, यश, सुन्दर रूप, गुण और यौवनके ज्वरमें जल रहे हैं (अर्थात् नष्ट हो रहे हैं); कहीं भी कल नहीं मिलता। इस रोगके लिये राजकार्य कुपथ्य है और नाना प्रकारके भोग इस रोगको बढ़ानेवाली दूषित सामग्री है और वेदके जाननेवाले विद्या पाकर विवश हो प्रलाप करने लगते हैं। तात्पर्य यह कि कुल इत्यादिके अभिमानसे तो जलते ही थे, अब राजकार्यरूपी कुपथ्य और भोगरूपी कुसमाज तथा वेद, बुद्धि और विद्या पाकर उन्मत्त हो गये हैं, अतएव कुछ सूझता नहीं। [इसी कारण] तुलसीदासके स्वामी (श्रीरामचन्द्र) की गतिको कोई नहीं जानता, जो पलमात्रमें पर्वतको खाक और खाकको पर्वत कर देते हैं। (ऐसी स्थिति देखकर) किसपर क्रोध किया जाय और किसको दोष दिया जाय। कलिकालने सारे संसारमें उपद्रव मचा दिया है; हे राम! रक्षा कीजिये॥ ९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बबुर-बहेरेको बनाइ बागु लाइयत,
रूँधिबेको सोई सुरतरु काटियतु है।
गारी देत नीच हरिचंदहू दधीचिहू को,
आपने चना चबाइ हाथ चाटियतु है॥
आपु महापातकी, हँसत हरि-हरहू को,
आपु है अभागी, भूरिभागी डाटियतु है।
कलिको कलुष मन मलिन किए महत,
मसककी पाँसुरीं पयोधि पाटियतु है॥
मूल
बबुर-बहेरेको बनाइ बागु लाइयत,
रूँधिबेको सोई सुरतरु काटियतु है।
गारी देत नीच हरिचंदहू दधीचिहू को,
आपने चना चबाइ हाथ चाटियतु है॥
आपु महापातकी, हँसत हरि-हरहू को,
आपु है अभागी, भूरिभागी डाटियतु है।
कलिको कलुष मन मलिन किए महत,
मसककी पाँसुरीं पयोधि पाटियतु है॥
अनुवाद (हिन्दी)
(कलिके वशीभूत होकर लोग ऐसे हो गये हैं कि) बबूर और बहेड़ेका बाग लगाकर उसकी बाड़ बनानेके लिये कल्पवृक्षको काटकर लाते हैं और ऐसे नीच हो गये हैं कि हरिश्चन्द्र और दधीचिको भी गाली देते हैं [जिन्होंने परोपकारार्थ शरीरतक दान कर दिया था] और अपने चने चबाकर भी हाथ चाटते हैं [कि कहीं कुछ लगा तो नहीं है, अर्थात् परम दरिद्री हैं]। अपने तो महापातकी हैं, परंतु विष्णुभगवान् और शिवजीतकको हँसते हैं; स्वयं भाग्यहीन हैं; परंतु बड़े-बड़े भाग्यवानोंको डाँट देते हैं; कलिके पापोंने सबके मनोंको अत्यन्त मलिन कर दिया है, परंतु [ऐसी अवस्थामें भी ये लोक-परलोक सुधारना चाहते हैं] मानो मच्छरकी पसलियोंसे (अपार) समुद्रको पाटना चाहते हैं॥ ९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुनिए कराल कलिकाल भूमिपाल! तुम्ह,
जाहि घालो चाहिए , कहौ धौं, राखै ताहि को।
हौं तौ दीन दूबरो, बिगारो-ढारो रावरो न,
मैंहू तैंहू ताहिको, सकल जगु जाहिको॥
कामु, कोहु लाइ कै देखाइयत आँखि मोहि,
एते मान अकसु कीबेको आपु आहि को।
साहेबु सुजान, जिन्ह स्वानहू को पच्छ कियो,
रामबोला नामु, हौं गुलामु रामसाहिको॥
मूल
सुनिए कराल कलिकाल भूमिपाल! तुम्ह,
जाहि घालो चाहिए , कहौ धौं, राखै ताहि को।
हौं तौ दीन दूबरो, बिगारो-ढारो रावरो न,
मैंहू तैंहू ताहिको, सकल जगु जाहिको॥
कामु, कोहु लाइ कै देखाइयत आँखि मोहि,
एते मान अकसु कीबेको आपु आहि को।
साहेबु सुजान, जिन्ह स्वानहू को पच्छ कियो,
रामबोला नामु, हौं गुलामु रामसाहिको॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे कराल कलिकाल महाराज! सुनो, जिसको तुम नष्ट करना चाहो, उसकी रक्षा भला कौन कर सकता है। मैं तो दीन-दुर्बल हूँ और आपका कुछ भी बिगाड़ा-गिराया नहीं। मैं भी और तुम भी उसी (ईश्वर) के हैं, जिसका यह सारा संसार है। तुम जो काम-क्रोधको मेरे पीछे लगाकर मुझे आँखें दिखलाते हो सो तुम इतना विरोध करनेवाले कौन हो? मेरे स्वामी (श्रीरामचन्द्रजी) बड़े विज्ञ हैं अर्थात् वे सब जानते हैं; उन्होंने श्वानका भी पक्ष किया था*। मैं तो रामशाहका गुलाम हूँ और रामबोला मेरा नाम है। [फिर वे मेरा पक्ष क्यों न करेंगे?]॥ १००॥
पादटिप्पनी
- एक दिन श्रीरामजीके राजदरबारमें एक कुत्ता आया और निवेदन किया—‘महाराज! सर्वार्थसिद्ध नामक भिक्षुक ब्राह्मणने बिना ही अपराध लाठीसे मेरा सिर फोड़ दिया, आप मेरा न्याय कर दीजिये।’ भगवान् ने ब्राह्मणको बुलाया और उससे पूछा कि ‘तुमने निरपराध कुत्तेके सिरमें क्यों लाठी मारी?’ ब्राह्मणने कहा कि ‘मैं भीख माँगता फिरता था, इसे मैंने रास्तेसे हटाया; जब यह न हटा, तब मैंने लकड़ी मार दी।’ ब्राह्मणको अदण्डनीय समझकर भगवान् विचार करने लगे। इतनेमें कुत्तेने कहा कि ‘भगवन्! आप इसे कालंजरका महंत बना दीजिये। मैं भी पूर्वजन्ममें वहींका महंत था। पूर्ण न्यायोचित व्यवहार करनेपर भी मुझे कुत्ता होना पड़ा, फिर इस क्रोधीका क्या कहना?’ इसपर भगवान् श्रीरामने उसे कालंजरका महंत बना दिया।
विश्वास-प्रस्तुतिः
साँची कहौ, कलिकाल कराल! मैं ढारो-बिगारो तिहारो कहा है।
कामको, कोहको, लोभको, मोहको मोहिसों आनि प्रपंचु रहा है॥
हौ जगनायकु लायक आजु, पै मेरिऔ टेव कुटेव महा है।
जानकीनाथ बिना ‘तुलसी’ जग दूसरेसों करिहौं न हहा है॥
मूल
साँची कहौ, कलिकाल कराल! मैं ढारो-बिगारो तिहारो कहा है।
कामको, कोहको, लोभको, मोहको मोहिसों आनि प्रपंचु रहा है॥
हौ जगनायकु लायक आजु, पै मेरिऔ टेव कुटेव महा है।
जानकीनाथ बिना ‘तुलसी’ जग दूसरेसों करिहौं न हहा है॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे कराल कलिकाल! सच कहो, मैंने तुम्हारा क्या ढाला या बिगाड़ा है? क्या यह काम, क्रोध, लोभ और मोहका जाल रच मुझहीपर फैलाना था? तुम आज जगत् के स्वामी और बड़े सामर्थ्यवान् हो। परंतु हे देव! मेरी भी यह बहुत बुरी आदत है कि जानकीनाथ (श्रीराम) के बिना किसी दूसरेके सामने हाहा नहीं खाता, यानी अपनी रक्षाके लिये प्रार्थना नहीं करता॥ १०१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भागीरथी-जलु पान करौं, अरु नाम द्वै रामके लेत नितै हौं।
मोको न लेनो, न देनो कछू, कल! भूलि न रावरी ओर चितैहौं॥
जानि कै जोरु करौ, परिनाम तुम्है पछितैहौ, पै मैं न भितैहौं।
ब्राह्मन ज्यों उगिल्यो उरगारि, हौं त्यों हीं तिहारें हिएँ न हितैहौं॥
मूल
भागीरथी-जलु पान करौं, अरु नाम द्वै रामके लेत नितै हौं।
मोको न लेनो, न देनो कछू, कल! भूलि न रावरी ओर चितैहौं॥
जानि कै जोरु करौ, परिनाम तुम्है पछितैहौ, पै मैं न भितैहौं।
ब्राह्मन ज्यों उगिल्यो उरगारि, हौं त्यों हीं तिहारें हिएँ न हितैहौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं गङ्गाजल पीता हूँ और नित्य रामके दो नाम लेता हूँ। हे कलिकाल! मुझे तुमसे कुछ भी लेना-देना (सरोकार) नहीं है और मैं भूलकर भी तुम्हारी ओर नहीं देखूँगा। यदि तुम जान-बूझकर मेरे साथ जोर (अत्याचार) करोगे तो परिणाममें तुम्हीं पछताओगे। मैं नहीं डरूँगा। जिस तरह गरुड़ने ब्राह्मणको नहीं पचनेके कारण उगल दिया, वैसे मैं भी तुम्हारे पेटमें नहीं पचूँगा*॥ १०२॥
पादटिप्पनी
- गरुड़जी एक समय धोखेसे एक ब्राह्मणको निगल गये। इससे उनके पेटमें जलन पैदा हुई। अन्तमें उन्हें उसे अपने पेटमेंसे निकाल देना पड़ा।
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजमरालके बालक पेलि कै पालत-लालत खूसरको।
सुचि सुंदर सालि सकेलि, सो बारि कै, बीजु बटोरत ऊसरको॥
गुन-ग्यान-गुमानु, भँभेरि बड़ी, कलपद्रुमु काटत मूसरको।
कलिकाल बिचारु अचारु हरो, नहि सूझै कछू धमधूसरको॥
मूल
राजमरालके बालक पेलि कै पालत-लालत खूसरको।
सुचि सुंदर सालि सकेलि, सो बारि कै, बीजु बटोरत ऊसरको॥
गुन-ग्यान-गुमानु, भँभेरि बड़ी, कलपद्रुमु काटत मूसरको।
कलिकाल बिचारु अचारु हरो, नहि सूझै कछू धमधूसरको॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोग राजहंसके बच्चेको ठेलकर उल्लूके बच्चेका लालन-पालन करते हैं; सुन्दर और पवित्र धानको बटोर और जलाकर ऊसर भूमिके लिये बीज बटोरते हैं। गुण और ज्ञानका बड़ा अभिमान और सतर्कता है; (इसीलिये) मूसर बनानेके लिये कल्पवृक्षको काटते हैं। कलिकालने विचार और आचारको हर लिया है; इसीसे बुद्धिहीनोंको कुछ नहीं सूझता॥ १०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीबे कहा, पढ़िबेको कहा फलु, बूझि न बेदको भेदु बिचारैं।
स्वारथको, परमारथको कलि कामद रामको नामु बिसारैं॥
बाद-बिबाद बिषादु बढ़ाइ कै, छाती पराई औ आपनी जारैं।
चारिहुको, छहुको, नवको, दस-आठको पाठु कुकाठु ज्यों फारैं॥
मूल
कीबे कहा, पढ़िबेको कहा फलु, बूझि न बेदको भेदु बिचारैं।
स्वारथको, परमारथको कलि कामद रामको नामु बिसारैं॥
बाद-बिबाद बिषादु बढ़ाइ कै, छाती पराई औ आपनी जारैं।
चारिहुको, छहुको, नवको, दस-आठको पाठु कुकाठु ज्यों फारैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्या कर्तव्य है और पढ़नेका क्या फल है—यह समझकर वेदके भेदको नहीं विचारते [वेदका सार तत्त्व और] कलियुगमें स्वार्थ एवं परमार्थके एकमात्र कल्पवृक्ष रामनामको बिसार दिया; (ज्ञानाभिमानवश व्यर्थके) वाद-विवादसे विषादको बढ़ाकर अपनी और दूसरोंकी छाती जलाते हैं और चारों वेद, छहों शास्त्र, नवों व्याकरण* और अठारहों पुराणोंको पढ़कर कुकाठको चीरनेके समान व्यर्थ गवाँ देते हैं। [भाव यह है कि उनका इन सब शास्त्रोंको पढ़ना वैसा ही निष्फल होता है जैसा कुकाठको चीरना।]॥ १०४॥
पादटिप्पनी
- नौ व्याकरण निम्नलिखित आचार्योंके चलाये हुए और उन्हींके नामसे प्रसिद्ध हैं—इन्द्र, चन्द्र, काशकृत्स्न, शाकटायन, आपिशलि, पाणिनि, अमर, जैनेन्द्र और सरस्वती।
विश्वास-प्रस्तुतिः
आगम, बेद, पुरान बखानत मारग कोटिन, जाहिं न जाने।
जे मुनि ते पुनि आपुहि आपुको ईसु कहावत सिद्ध सयाने॥
धर्म सबै कलिकाल ग्रसे, जप, जोग, बिरागु लै जीव पराने।
को करि सोचु मरै ‘तुलसी’, हम जानकीनाथके हाथ बिकाने॥
मूल
आगम, बेद, पुरान बखानत मारग कोटिन, जाहिं न जाने।
जे मुनि ते पुनि आपुहि आपुको ईसु कहावत सिद्ध सयाने॥
धर्म सबै कलिकाल ग्रसे, जप, जोग, बिरागु लै जीव पराने।
को करि सोचु मरै ‘तुलसी’, हम जानकीनाथके हाथ बिकाने॥
अनुवाद (हिन्दी)
वेद, शास्त्र और पुराण करोड़ों मार्गोंका वर्णन करते हैं, परंतु वे समझमें नहीं आते और जो मुनिलोग हैं, वे अपने-आपको ही ईश्वर, सिद्ध और चतुर कहलवाते हैं। जितने धर्म थे, उन सबको कलियुग लील गया है तथा जप, योग और वैराग्यादि अपनी-अपनी जान लेकर भाग गये हैं। गोसाईंजी कहते हैं कि इनका सोच करके कौन मरे। हम तो जानकीनाथ श्रीरामचन्द्रके हाथ बिक गये हैं॥ १०५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहूकी बेटीसों, बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ॥
तुलसी सरनाम गुलामु है रामको, जाको, रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबो, मसीतको सोइबो, लैबोको एकु न दैबेको दोऊ॥
मूल
धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहूकी बेटीसों, बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ॥
तुलसी सरनाम गुलामु है रामको, जाको, रुचै सो कहै कछु ओऊ।
माँगि कै खैबो, मसीतको सोइबो, लैबोको एकु न दैबेको दोऊ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाहे कोई धूर्त कहे अथवा परमहंस कहे; राजपूत कहे या जुलाहा कहे, मुझे किसीकी बेटीसे तो बेटेका ब्याह करना नहीं है, न मैं किसीसे सम्पर्क रखकर उसकी जाति ही बिगाड़ूँगा। तुलसीदास तो श्रीरामचन्द्रका प्रसिद्ध गुलाम है, जिसको जो रुचे सो कहो। मुझको तो माँगके खाना और मसजिद (देवालय) में सोना है; न किसीसे एक लेना है, न दो देना है॥ १०६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेरें जाति-पाँति न चहौं काहूकी जाति-पाँति,
मेरे कोऊ कामको न हौं काहूके कामको।
लोकु परलोकु रघुनाथही के हाथ सब,
भारी है भरोसो तुलसीकें एक नामको॥
अति ही अयाने उपखानो नहि बूझैं लोग,
‘साह ही को गोतु गोतु होत है गुलामको॥
साधु कै असाधु, कै भलो कै पोच, सोचु कहा,
का काहूके द्वार परौं, जो हौं सो हौं रामको॥
मूल
मेरें जाति-पाँति न चहौं काहूकी जाति-पाँति,
मेरे कोऊ कामको न हौं काहूके कामको।
लोकु परलोकु रघुनाथही के हाथ सब,
भारी है भरोसो तुलसीकें एक नामको॥
अति ही अयाने उपखानो नहि बूझैं लोग,
‘साह ही को गोतु गोतु होत है गुलामको॥
साधु कै असाधु, कै भलो कै पोच, सोचु कहा,
का काहूके द्वार परौं, जो हौं सो हौं रामको॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी कोई जाति-पाँति नहीं है और न मैं किसीकी जाति-पाँति चाहता हूँ। कोई मेरे कामका नहीं है और न मैं किसीके कामका हूँ। मेरा लोक-परलोक सब श्रीरामचन्द्रके हाथ है। तुलसीको तो एकमात्र रामनामका ही बहुत बड़ा भरोसा है। लोग अत्यन्त गँवार हैं—कहावत भी नहीं समझते कि जो गोत्र स्वामीका होता है, वही सेवकका होता है। साधु हूँ अथवा असाधु, भला हूँ अथवा बुरा, इसकी मुझे कोई परवा नहीं है। मैं जैसा कुछ भी हूँ श्रीरामचन्द्रका हूँ। क्या मैं किसीके दरवाजेपर पड़ा हूँ?॥ १०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोऊ कहै, करत कुसाज, दगाबाज बड़ो,
कोऊ कहै, रामको गुलामु खरो खूब है।
साधु जानैं महासाधु, खल जानैं महाखल,
बानी झूँठी-साँची कोटि उठत हबूब है॥
चहत न काहूसों न कहत काहूकी कछू,
सबकी सहत, उर अंतर न ऊब है।
तुलसीको भलो पोच हाथ रघुनाथही के
रामकी भगति-भूमि मेरी मति दूब है॥
मूल
कोऊ कहै, करत कुसाज, दगाबाज बड़ो,
कोऊ कहै, रामको गुलामु खरो खूब है।
साधु जानैं महासाधु, खल जानैं महाखल,
बानी झूँठी-साँची कोटि उठत हबूब है॥
चहत न काहूसों न कहत काहूकी कछू,
सबकी सहत, उर अंतर न ऊब है।
तुलसीको भलो पोच हाथ रघुनाथही के
रामकी भगति-भूमि मेरी मति दूब है॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई कहता है कि (यह तुलसी) कुसाज अर्थात् छल-कपट आदि करता है, कोई कहता है कि यह बड़ा दगाबाज है और कोई कहता है कि यह श्रीरामचन्द्रका खूब सच्चा सेवक है। साधु मुझे परम साधु जानते हैं और दुष्ट महादुष्ट समझते हैं। झूठी-सच्ची करोड़ों प्रकारकी बातोंकी लहरें उठा करती हैं। मैं तो किसीसे कुछ चाहता नहीं, न किसीके विषयमें कुछ कहता हूँ; सबकी सहता हूँ, चित्तमें कोई घबराहट नहीं है। तुलसीका बुरा-भला तो रघुनाथजीके ही हाथ है; मेरी बुद्धि रामभक्तिरूप भूमिमें दूबके समान है अर्थात् मेरी बुद्धिका परम आश्रय रामभक्ति ही है॥ १०८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जागैं जोगी-जंगम, जती-जमाती ध्यान धरैं,
डरैं उर भारी लोभ, मोह, कोह, कामके।
जागैं राजा राजकाज, सेवक-समाज, साज,
सोचैं सुनि समाचार बड़े बैरी बामके॥
जागैं बुध बिद्या हित पंडित चकित चित,
जागैं लोभी लालच धरनि, धन, धामके।
जागैं भोगी भोग हीं, बियोगी, रोगी सोगबस,
सोवै सुख तुलसी भरोसे एक रामके॥
मूल
जागैं जोगी-जंगम, जती-जमाती ध्यान धरैं,
डरैं उर भारी लोभ, मोह, कोह, कामके।
जागैं राजा राजकाज, सेवक-समाज, साज,
सोचैं सुनि समाचार बड़े बैरी बामके॥
जागैं बुध बिद्या हित पंडित चकित चित,
जागैं लोभी लालच धरनि, धन, धामके।
जागैं भोगी भोग हीं, बियोगी, रोगी सोगबस,
सोवै सुख तुलसी भरोसे एक रामके॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘योगी, जंगम (परिव्राजक अथवा लिंगायत साधु), संन्यासी और मण्डली बनाकर रहनेवाले साधु इसलिये जागते हैं कि (एक ओर तो वे परमेश्वरका) ध्यान करते हैं और (दूसरी ओर) उनके मनमें काम, क्रोध, मोह, लोभका बड़ा भारी डर बना रहता है। राजालोग राजकाज, सेवा-मण्डल तथा अनेकों प्रकारकी सामग्रीके पीछे जागते रहते हैं और बड़े-बड़े प्रतिकूल शत्रुओंके समाचारको सुनकर शोचग्रस्त रहते हैं। बुद्धिमान् पण्डितलोग विद्याके लिये, लोभी पुरुष पृथ्वी, धन और घरके लोभमें जागते हैं, भोगीलोग भोगके लिये और वियोगी तथा रोगीलोग [विरह एवं रोगके] संतापके कारण जागते हैं, किंतु तुलसीदास तो एक रामजीके भरोसे सुखपूर्वक सोता है॥ १०९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामु मातु, पितु, बंधु, सुजनु, गुरु, पूज्य, परमहित।
साहेबु, सखा, सहाय, नेह-नाते, पुनीत चित॥
देसु, कोसु, कुलु, कर्म, धर्म, धनु, धामु, धरनि, गति।
जाति-पाँति सब भाँति लागि रामहि हमारि पति॥
परमारथु, स्वारथु, सुजसु, सुलभ राम तें सकल फल।
कह तुलसिदासु, अब, जब-कबहुँ एक राम तें मोर भल॥
मूल
रामु मातु, पितु, बंधु, सुजनु, गुरु, पूज्य, परमहित।
साहेबु, सखा, सहाय, नेह-नाते, पुनीत चित॥
देसु, कोसु, कुलु, कर्म, धर्म, धनु, धामु, धरनि, गति।
जाति-पाँति सब भाँति लागि रामहि हमारि पति॥
परमारथु, स्वारथु, सुजसु, सुलभ राम तें सकल फल।
कह तुलसिदासु, अब, जब-कबहुँ एक राम तें मोर भल॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमारे माता-पिता, बन्धु, आत्मीय, गुरु, पूज्य और परम हितकारी राम ही हैं। राम ही हमारे स्वामी, सखा और सहायक हैं तथा पवित्र चित्तसे जितने प्रेमके सम्बन्ध हैं, सब राम ही हैं। हमारे देश, कोश, कुल, धर्म-कर्म, धन, धाम और गति भी राम ही हैं। हमारे जाति-पाँति भी राम ही हैं और हमारी प्रतिष्ठा भी सब प्रकार श्रीरामहीके पीछे है। परमार्थ, स्वार्थ, सुयश, सब प्रकारके फल हमें रामहीसे सुलभ हैं। गोसाईंजी कहते हैं कि अभी या जब कभी हो, मेरा भला तो एक रामहीसे होगा॥ ११०॥
रामगुणगान
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाराज, बलि जाउँ, राम! सेवक-सुखदायक।
महाराज, बलि जाउँ, राम! सुन्दर, सब लायक॥
महाराज, बलि जाउँ, राम! सब संकट-मोचन।
महाराज, बलि जाउँ, राम! राजीवबिलोचन॥
बलि जाउँ, राम! करुनायतन, प्रनतपाल, पातकहरन।
बलि जाउँ, राम! कलि-भय-बिकल तुलसिदासु राखिअ सरन॥
मूल
महाराज, बलि जाउँ, राम! सेवक-सुखदायक।
महाराज, बलि जाउँ, राम! सुन्दर, सब लायक॥
महाराज, बलि जाउँ, राम! सब संकट-मोचन।
महाराज, बलि जाउँ, राम! राजीवबिलोचन॥
बलि जाउँ, राम! करुनायतन, प्रनतपाल, पातकहरन।
बलि जाउँ, राम! कलि-भय-बिकल तुलसिदासु राखिअ सरन॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे महाराज! हे सेवकसुखदायक राम! मैं आपकी बलि जाता हूँ। हे महाराज! हे सुन्दर और सर्वसमर्थ राम! मैं आपकी बलि जाता हूँ। हे महाराज! हे राम! आप सब संकटोंसे छुड़ानेवाले हैं। मैं आपकी बलि जाता हूँ। हे कमलनयन महाराज राम! मैं आपपर बलिहारी हूँ। आप करुणाके धाम, शरणागतरक्षक और पापोंको दूर करनेवाले हैं। हे राम! मैं आपकी बलि जाता हूँ, कलिकालके भयसे व्याकुल तुलसीदासको आप अपनी शरणमें रखिये॥ १११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जय ताड़का-सुबाहु-मथन मारीच-मानहर!
मुनिमख-रच्छन-दच्छ, सिलातारन, करुनाकर!
नृपगन-बल-मद सहित संभु-कोदंड-बिहंडन!
जय कुठारधरदर्पदलन दिनकरकुलमंडन॥
जय जनकनगर-आनंदप्रद, सुखसागर, सुषमाभवन।
कह तुलसिदासु, सुरमुकुटमनि, जय जय जय जानकिरवन॥
मूल
जय ताड़का-सुबाहु-मथन मारीच-मानहर!
मुनिमख-रच्छन-दच्छ, सिलातारन, करुनाकर!
नृपगन-बल-मद सहित संभु-कोदंड-बिहंडन!
जय कुठारधरदर्पदलन दिनकरकुलमंडन॥
जय जनकनगर-आनंदप्रद, सुखसागर, सुषमाभवन।
कह तुलसिदासु, सुरमुकुटमनि, जय जय जय जानकिरवन॥
अनुवाद (हिन्दी)
ताड़का और सुबाहुका नाश करनेवाले, मारीचके मदको तोड़नेवाले, विश्वामित्र मुनिके यज्ञकी रक्षामें दक्ष, शिलारूप अहल्याको तारनेवाले, करुणाकी खानि, राजाओंके मदसहित शिवजीके धनुषको तोड़नेवाले! आपकी जय हो। कुठारधर परशुरामके अभिमानको चूर्ण करनेवाले, सूर्यकुलभूषण भगवान् राम! आपकी जय हो। जनकपुरीको आनन्द देनेवाले, परम सुखसागर, शोभाधाम श्रीरामचन्द्रजी! आपकी जय हो। तुलसीदासजी कहते हैं कि देवताओंके मुकुटमणि जानकीरमण श्रीरामचन्द्रजीकी जय हो! जय हो!! जय हो!!!॥ ११२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जय जयंत-जयकर, अनंत, सज्जनजनरंजन!
जय बिराध-बध-बिदुष, बिबुध-मुनिगन-भय-भंजन!
जय निसिचरी-बिरूप-करन रघुबंसबिभूषन!
सुभट चतुर्दस-सहस दलन त्रिसिरा-खर-दूषन॥
जय दंडकबन-पावन-करन, तुलसिदास-संसय-समन!
जगबिदित-जगतमनि, जयति जय जय जय जय जानकिरमन!
मूल
जय जयंत-जयकर, अनंत, सज्जनजनरंजन!
जय बिराध-बध-बिदुष, बिबुध-मुनिगन-भय-भंजन!
जय निसिचरी-बिरूप-करन रघुबंसबिभूषन!
सुभट चतुर्दस-सहस दलन त्रिसिरा-खर-दूषन॥
जय दंडकबन-पावन-करन, तुलसिदास-संसय-समन!
जगबिदित-जगतमनि, जयति जय जय जय जय जानकिरमन!
अनुवाद (हिन्दी)
जयन्तको जीतनेवाले अन्तरहित और साधुजनोंको आनन्द देनेवाले रामजी! आपकी जय हो। विराधके वधमें कुशल तथा देवता और मुनिगणोंका भय दूर करनेवाले प्रभु राम! आपकी जय हो। राक्षसी (शूर्पणखा) को रूपरहित करनेवाले, रघुकुलके भूषण! आपकी जय हो। चौदह सहस्र वीरों और खर-दूषण, त्रिशिराका नाश करनेवाले! आपकी जय हो। दण्डकवनको पवित्र करनेवाले तथा तुलसीदासके संशयका नाश करनेवाले! आपकी जय हो। संसारमें प्रख्यात तथा जगत् के प्रकाशक जानकीरमण भगवान् राम! आपकी जय हो! जय हो!! जय हो!!!॥ ११३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जय मायामृगमथन, गीध-सबरी-उद्धारन!
जय कबंधसूदन बिसाल तरु ताल बिदारन!
दवन बालि बलसालि, थपन सुग्रीव, संतहित!
कपि कराल भट भालु कटक पालन, कृपालचित!
जय सिय-बियोग-दुख हेतु कृत-सेतुबंध बारिधिदमन!
दससीस बिभीषन अभयप्रद, जय जय जय जानकिरमन!
मूल
जय मायामृगमथन, गीध-सबरी-उद्धारन!
जय कबंधसूदन बिसाल तरु ताल बिदारन!
दवन बालि बलसालि, थपन सुग्रीव, संतहित!
कपि कराल भट भालु कटक पालन, कृपालचित!
जय सिय-बियोग-दुख हेतु कृत-सेतुबंध बारिधिदमन!
दससीस बिभीषन अभयप्रद, जय जय जय जानकिरमन!
अनुवाद (हिन्दी)
मायामृगरूप मारीचको मारनेवाले तथा जटायु और शबरीका उद्धार करनेवाले भगवान् राम! आपकी जय हो। कबन्धको मारनेवाले और बड़े-बड़े ताड़के वृक्षोंको विदीर्ण करनेवाले प्रभु राम! आपकी जय हो। बलसम्पन्न वालिका नाश करनेवाले, सुग्रीवको राज्य देनेवाले तथा संतोंका हित करनेवाले! आपकी जय हो। भयानक भालु और वानर वीरोंके कटकका पालन करनेवाले दयार्द्रचित्त रघुनाथजी! आपकी जय हो। जानकीजीके वियोगजनित दुःखके कारण समुद्रका दमन करके उसपर सेतु बाँधनेवाले रामजी! आपकी जय हो तथा रावणसे विभीषणको अभय देनेवाले हे जानकीरमण! आपकी जय हो! जय हो!! जय हो!!!॥ ११४॥
रामप्रेमकी प्रधानता
विश्वास-प्रस्तुतिः
कनककुधरु केदारु, बीजु सुंदर सुरमनि बर।
सींचि कामधुक धेनु सुधामय पय बिसुद्धतर॥
तीरथपति अंकुरसरूप जच्छेस रच्छ तेहि।
मरकतमय साखा-सुपत्र, मंजरिय लच्छि जेहि॥
कैवल्य सकल फल, कल्पतरु सुभ सुभाव सब सुख-बरिस।
कह तुलसिदास, रघुबंसमनि, तौ कि होइ तुअ कर सरिस॥
मूल
कनककुधरु केदारु, बीजु सुंदर सुरमनि बर।
सींचि कामधुक धेनु सुधामय पय बिसुद्धतर॥
तीरथपति अंकुरसरूप जच्छेस रच्छ तेहि।
मरकतमय साखा-सुपत्र, मंजरिय लच्छि जेहि॥
कैवल्य सकल फल, कल्पतरु सुभ सुभाव सब सुख-बरिस।
कह तुलसिदास, रघुबंसमनि, तौ कि होइ तुअ कर सरिस॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुमेरु पर्वत थाल्हा हो, सुन्दर चिन्तामणि बीज हो, कामधेनुके अमृतमय अत्यन्त शुद्ध दुग्धसे उसे सींचा जाय, उससे तीर्थराज प्रयाग अंकुररूपसे प्रकट हो, उसकी रक्षा स्वयं कुबेरजी करें, उसकी मरकतमणिमय शाखा और पत्ते हों और मञ्जरी साक्षात् लक्ष्मीजी हों तथा सब प्रकारकी मुक्तियाँ ही जिसके फल हों, ऐसा यह कल्पतरु स्वभावसे ही सब प्रकारके मङ्गल और सुखोंकी वर्षा करता हो, तो भी तुलसीदासजी कहते हैं—हे रघुवंशमणि! वह कल्पवृक्ष क्या कभी आपके हाथोंके बराबर हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता॥ ११५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जाय सो सुभटु समर्थ पाइ रन रारि न मंडै।
जाय सो जती कहाय बिषय-बासना न छंडै॥
जाय धनिकु बिनु दान, जाय निर्धन बिनु धर्महि।
जाय सो पंडित पढ़ि पुरान जो रत न सुकर्महिं॥
सुत जाय मातु-पितु-भक्ति बिनु, तिय सो जाय जेहि पति न हित।
सब जाय दासु तुलसी कहै, जौं न रामपद नेहु नित॥
मूल
जाय सो सुभटु समर्थ पाइ रन रारि न मंडै।
जाय सो जती कहाय बिषय-बासना न छंडै॥
जाय धनिकु बिनु दान, जाय निर्धन बिनु धर्महि।
जाय सो पंडित पढ़ि पुरान जो रत न सुकर्महिं॥
सुत जाय मातु-पितु-भक्ति बिनु, तिय सो जाय जेहि पति न हित।
सब जाय दासु तुलसी कहै, जौं न रामपद नेहु नित॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह समर्थ वीर व्यर्थ है जो संग्राम (का अवसर) पाकर भी युद्ध नहीं करता। जो यति (संन्यासी अथवा विरक्त) कहलाकर विषयकी वासनाको न छोड़े, वह विरक्त भी व्यर्थ है। दानशून्य धनी और धर्माचरणशून्य निर्धन भी व्यर्थ है! जो पण्डित पुराण पढ़कर सुकर्ममें रत नहीं है, वह भी नष्ट है। जो पुत्र माता-पिताकी भक्तिरहित है, वह भी नष्ट है और जिसे पति प्यारा नहीं है, वह स्त्री भी व्यर्थ है। तुलसीदासजी कहते हैं—यदि श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें नित्य नवीन प्रेम न हो तो सभी कुछ व्यर्थ है॥ ११६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को न क्रोध निरदह्यो, काम बस केहि नहि कीन्हो?
को न लोभ दृढ़ फंद बाँधि त्रासन करि दीन्हो?
कौन हृदयँ नहि लाग कठिन अति नारि-नयन-सर?
लोचनजुत नहि अंध भयो श्री पाइ कौन नर?
सुर-नाग-लोक महिमंडलहुँ को जु मोह कीन्हो जय न?
कह तुलसिदासु सो ऊबरै, जेहि राख रामु राजिवनयन॥
मूल
को न क्रोध निरदह्यो, काम बस केहि नहि कीन्हो?
को न लोभ दृढ़ फंद बाँधि त्रासन करि दीन्हो?
कौन हृदयँ नहि लाग कठिन अति नारि-नयन-सर?
लोचनजुत नहि अंध भयो श्री पाइ कौन नर?
सुर-नाग-लोक महिमंडलहुँ को जु मोह कीन्हो जय न?
कह तुलसिदासु सो ऊबरै, जेहि राख रामु राजिवनयन॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोधने किसको नहीं जलाया? कामने किसको वशीभूत नहीं किया? लोभने किसको दृढ़ फाँसीमें बाँधकर त्रस्त नहीं किया? किसके हृदयमें स्त्रियोंके नेत्ररूपी कठिन बाण नहीं लगे? और कौन मनुष्य धन पाकर आँखोंके रहते हुए भी अंधा नहीं हुआ? सुरलोक, पृथ्वीमण्डल (नरलोक) तथा नागलोक अर्थात् पाताललोकमें ऐसा कौन है, जिसको मोहने न जीता हो। गोसाईं तुलसीदासजी कहते हैं कि इनसे तो वही बच सकता है जिसकी रक्षा कमलनयन श्रीरामजी करते हैं॥ ११७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भौंह-कमान सँधान सुठान जे नारि बिलोकनि-बानतें बाँचे।
कोप-कृसानु गुमान-अवाँ घट-ज्यों जिनके मन आव न आँचे॥
लोभ सबै नटके बस ह्वै कपि-ज्यों जगमें बहु नाच न नाचे।
नीके हैं साधु सबै तुलसी, पै तेई रघुबीरके सेवक साँचे॥
मूल
भौंह-कमान सँधान सुठान जे नारि बिलोकनि-बानतें बाँचे।
कोप-कृसानु गुमान-अवाँ घट-ज्यों जिनके मन आव न आँचे॥
लोभ सबै नटके बस ह्वै कपि-ज्यों जगमें बहु नाच न नाचे।
नीके हैं साधु सबै तुलसी, पै तेई रघुबीरके सेवक साँचे॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग भ्रुकुटिरूप कमानपर अच्छी प्रकार चढ़ाये हुए कामिनी-कटाक्षरूप बाणसे बचे हुए हैं, अभिमानरूप अवाँमें क्रोधरूप अग्निकी ज्वालासे जिनके मन घड़ेकी भाँति नहीं तपे हों तथा जो लोभरूप नटके अधीन होकर संसारमें बंदरकी तरह अनेक नाच नहीं नाचे— तुलसीदासजी कहते हैं—वे ही भगवान् श्रीरामके सच्चे दास हैं। यों तो सभी साधु अच्छे हैं॥ ११८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेष सुबनाइ सुचि बचन कहैं चुबाइ
जाइ तौ न जरनि धरनि-धन-धामकी।
कोटिक उपाय करि लालि पालिअत देह,
मुख कहिअत गति रामहीके नामकी॥
प्रगटैं उपासना, दुरावैं दुरबासनाहि,
मानस निवासभूमि लोभ-मोह-कामकी।
राग-रोष-इरिषा-कपट-कुटिलाईं भरे
तुलसी-से भगत भगति चहैं रामकी॥
मूल
बेष सुबनाइ सुचि बचन कहैं चुबाइ
जाइ तौ न जरनि धरनि-धन-धामकी।
कोटिक उपाय करि लालि पालिअत देह,
मुख कहिअत गति रामहीके नामकी॥
प्रगटैं उपासना, दुरावैं दुरबासनाहि,
मानस निवासभूमि लोभ-मोह-कामकी।
राग-रोष-इरिषा-कपट-कुटिलाईं भरे
तुलसी-से भगत भगति चहैं रामकी॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग उत्तम (साधुका-सा) वेष बनाकर पवित्र एवं अमृत चूते हुए वचन बोलते हैं, किंतु जिनके हृदयसे पृथ्वी, धन और घरकी आग (तृष्णा) दूर नहीं होती; जो करोड़ों उपाय करके शरीरका लालन-पालन करते हैं, किंतु मुखसे कहते हैं कि हमें तो केवल रामनामका ही भरोसा है; जो अपनी उपासनाको तो प्रकट करते हैं, किंतु अपनी बुरी वासनाओंको छिपाते हैं तथा जिनके चित्त लोभ, मोह और कामके निवासस्थान बने हुए हैं, तुलसीदासजी कहते हैं—वे आसक्ति, क्रोध, ईर्ष्या, कपट और कुटिलतासे भरे हुए मेरे-जैसे भक्त भी रामकी भक्ति चाहते हैं। [अर्थात् जो पुरुष ऐसे कुटिल आचरण करते हुए भी भगवान् को रिझानेकी आशा रखते हैं, वे बड़े ही हास्यास्पद हैं।]॥ ११९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालिहीं तरुन तन, कालिहीं धरनि-धन,
कालिहीं जितौंगो रन, कहत कुचालि है।
कालिहीं साधौंगो काज, कालिहीं राजा-समाज,
मसक ह्वै कहै, ‘भार मेरे मेरु हालिहै’॥
तुलसी यही कुभाँति घने घर घालि आई,
घने घर घालति है, घने घर घालिहै।
देखत-सुनत-समुझतहू न सूझै सोई,
कबहूँ कह्यो न कालहू को कालु कालि है॥
मूल
कालिहीं तरुन तन, कालिहीं धरनि-धन,
कालिहीं जितौंगो रन, कहत कुचालि है।
कालिहीं साधौंगो काज, कालिहीं राजा-समाज,
मसक ह्वै कहै, ‘भार मेरे मेरु हालिहै’॥
तुलसी यही कुभाँति घने घर घालि आई,
घने घर घालति है, घने घर घालिहै।
देखत-सुनत-समुझतहू न सूझै सोई,
कबहूँ कह्यो न कालहू को कालु कालि है॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुचाली लोग कहते हैं—मुझे कल ही तरुण शरीर प्राप्त हो जायगा; कल ही भूमि और धन प्राप्त हो जायँगे और कल ही मैं युद्धमें विजय प्राप्त कर लूँगा, कल ही मैं अपने सारे कार्य सिद्ध कर लूँगा और कल ही मैं राज-समाज जोड़ लूँगा। मच्छरके समान होकर भी वे कहते हैं, मेरे बोझसे मेरु पर्वत भी हिल जायगा। तुलसीदासजी कहते हैं—इस कुप्रवृत्तिके कारण बहुत-से घर नष्ट हो गये हैं, इस समय भी नष्ट होते हैं तथा आगे भी होंगे। परंतु यह सब देख-सुन और समझकर भी वह कुप्रवृत्ति लोगोंको दीख नहीं पड़ती और न किसीने कभी यह कहा कि काल (आयु) का भी काल (अन्त) कल ही है॥ १२०॥
रामभक्तिकी याचना
विश्वास-प्रस्तुतिः
भयो न तिकाल तिहूँ लोक तुलसी-सो मंद,
निंदैं सब साधु, सुनि मानौं न सकोचु हौं।
जानत न जोगु, हियँ हानि मानैं जानकीसु,
काहेको परेखो, पापी प्रपंची पोचु हौं॥
पेट भरिबेके काज महाराजको कहायों
महाराजहूँ कह्यो है प्रनत-बिमोचु हौं।
निज अघजाल, कलिकालकी करालता
बिलोकि होत ब्याकुल, करत सोई सोचु हौं॥
मूल
भयो न तिकाल तिहूँ लोक तुलसी-सो मंद,
निंदैं सब साधु, सुनि मानौं न सकोचु हौं।
जानत न जोगु, हियँ हानि मानैं जानकीसु,
काहेको परेखो, पापी प्रपंची पोचु हौं॥
पेट भरिबेके काज महाराजको कहायों
महाराजहूँ कह्यो है प्रनत-बिमोचु हौं।
निज अघजाल, कलिकालकी करालता
बिलोकि होत ब्याकुल, करत सोई सोचु हौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूत, भविष्यत् और वर्तमान—तीनों कालोंमें त्रिलोकीमें तुलसीदासके समान नीच कोई नहीं हुआ? सभी साधुजन इसकी निन्दा करते हैं, परंतु मैं सुनकर भी संकोच नहीं मानता। जानकीनाथ भगवान् राम भी इसे योग्य नहीं समझते; इसीसे मुझे अपनानेमें उन्हें अपने चित्तमें हानि जान पड़ती है। मुझे इस बातकी शिकायत भी क्यों होनी चाहिये; क्योंकि वास्तवमें ही मैं बड़ा पापी, पाखण्डी और नीच हूँ। मैं पेट भरनेके लिये ही महाराजका कहलाया और महाराजने भी कहा है कि ‘मैं अपने शरणागतका उद्धार कर देता हूँ।’ किंतु अपनी पापराशि और कलिकालकी कुटिलता देखकर मैं व्याकुल हो जाता हूँ और उसी (अपने उद्धारके ही) विषयमें चिन्ता करने लगता हूँ॥ १२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्म कें सेतु जगमंगलके हेतु भूमि-
भारु हरिबेको अवतारु लियो नरको।
नीति औ प्रतीति-प्रीतिपाल चालि प्रभु, मानु
लोक-बेद राखिबेको पनु रघुबरको॥
बानर-बिभीषनकी ओर के कनावड़े हैं,
सो प्रसंगु सुनें अंगु जरै अनुचरको।
राखे रीति आपनी जो होइ सोई कीजै बलि,
तुलसी तिहारो घर जायऊ है घरको॥
मूल
धर्म कें सेतु जगमंगलके हेतु भूमि-
भारु हरिबेको अवतारु लियो नरको।
नीति औ प्रतीति-प्रीतिपाल चालि प्रभु, मानु
लोक-बेद राखिबेको पनु रघुबरको॥
बानर-बिभीषनकी ओर के कनावड़े हैं,
सो प्रसंगु सुनें अंगु जरै अनुचरको।
राखे रीति आपनी जो होइ सोई कीजै बलि,
तुलसी तिहारो घर जायऊ है घरको॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मके सेतु भगवान् संसारका कल्याण करनेके लिये और पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही मनुष्यके रूपमें अवतीर्ण हुए; नीति, प्रतीति और प्रीतिका पालन करना प्रभुका स्वभाव ही है तथा लोक और वेदकी मर्यादा रखना यह भी श्रीरघुवीरका प्रण है। आप सुग्रीव और विभीषणके ऋणी हैं, यह बात सुनकर दासका अङ्ग-अङ्ग जलता है [कि मुझपर ऐसी कृपा क्यों नहीं करते?]। अतः मैं आपकी बलिहारी जाता हूँ, अपने प्रणकी रक्षा करके आपसे जो बने वही कीजिये। यह तुलसीदास तो आपके घरका घर-जाया (पुश्तैनी) सेवक है॥ १२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाम महाराजके निबाह नीको कीजै उर
सबही सोहात, मैं न लोगनि सोहात हौं।
कीजै राम! बार यहि मेरी ओर चष-कोर
ताहि लगि रंक ज्यों सनेह को ललात हौं॥
तुलसी बिलोकि कलिकालकी करालता
कृपालको सुभाउ समुझत सकुचात हौं।
लोक एक भाँतिको, त्रिलोकनाथ लोकबस
आपनो न सोचु, स्वामी-सोचहीं सुखात हौं॥
मूल
नाम महाराजके निबाह नीको कीजै उर
सबही सोहात, मैं न लोगनि सोहात हौं।
कीजै राम! बार यहि मेरी ओर चष-कोर
ताहि लगि रंक ज्यों सनेह को ललात हौं॥
तुलसी बिलोकि कलिकालकी करालता
कृपालको सुभाउ समुझत सकुचात हौं।
लोक एक भाँतिको, त्रिलोकनाथ लोकबस
आपनो न सोचु, स्वामी-सोचहीं सुखात हौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराजके नामके साथ अच्छी प्रकार निर्वाह करनेवाला (अर्थात् रामनाम जपनेवाला) मनसे सबको अच्छा लगता है, परंतु मैं लोगोंको अच्छा नहीं लगता। अतः हे राम! इस बार आप मेरी ओर कृपादृष्टि कीजिये, आपके कृपाकटाक्षके लिये मैं लालायित हूँ, जिस प्रकार दरिद्र स्नेहके लिये अथवा स्नेहयुक्त पदार्थों (पकवानों) के लिये लालायित रहता है। तुलसीदासजी कहते हैं—मैं कलिकालकी करालता और कृपालु प्रभुके स्वभावको समझकर सकुचाता हूँ। इस समय सारा संसार एक-सा हो रहा है। [सभी मेरी निन्दा करनेवाले हैं] और आप त्रिलोकीनाथ होकर भी लोकके अधीन हैं। किंतु मुझे अपनी चिन्ता नहीं है, मैं तो प्रभुके सोचमें ही सूखा जाता हूँ [कि कहीं लोग यह न कहने लगें कि रामजी भी कलियुगमें अपना स्वभाव छोड़कर करुणारहित हो गये]॥ १२३॥
प्रभुकी महत्ता और दयालुता
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौलौं लोभ लोलुप ललात लालची लबार,
बार-बार लालचु धरनि-धन-धामको।
तबलौं बियोग-रोग-सोग, भोग जातनाको
जुग सम लागत जीवनु जाम-जामको।
तौलौं दुख-दारिद दहत अति नित तनु
तुलसी है किंकरु बिमोह-कोह-कामको।
सब दुख आपने, निरापने सकल सुख,
जौलौं जनु भयो न बजाइ राजा रामको॥
मूल
तौलौं लोभ लोलुप ललात लालची लबार,
बार-बार लालचु धरनि-धन-धामको।
तबलौं बियोग-रोग-सोग, भोग जातनाको
जुग सम लागत जीवनु जाम-जामको।
तौलौं दुख-दारिद दहत अति नित तनु
तुलसी है किंकरु बिमोह-कोह-कामको।
सब दुख आपने, निरापने सकल सुख,
जौलौं जनु भयो न बजाइ राजा रामको॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक तुलसीदास राजा रामका खुल्लमखुल्ला दास नहीं हो जाता, तभीतक वह लोभके कारण लोलुप, लालची और वाचाल बना हुआ टुकड़े-टुकड़ेके लिये लालायित रहता है; और पृथ्वी, धन एवं गृह आदिके लिये बार-बार ललचाता रहता है; तभीतक उसे वियोग और रोगका शोक रहता है, तभीतक उसे यातना भोगनी पड़ती है, और तभीतक उसे पल-पलका जीवन युगके समान जान पड़ता है, तभीतक उसका शरीर दुःख और दरिद्रताके कारण सर्वदा अत्यन्त जलता रहता है और तभीतक वह मोह, क्रोध और कामका गुलाम है; और तभीतक सारे दुःख तो उसके हिस्सेमें हैं और सारे सुख दूसरोंके हैं॥ १२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तौलौं मलीन, हीन, दीन, सुख सपनें न,
जहाँ-तहाँ दुखी जनु भाजनु कलेसको।
तौलौं उबेने पाय फिरत पेटौ खलाय
बाय मुह सहत पराभौ देस-देसको॥
तबलौं दयावनो दुसह दुख दारिदको,
साथरीको सोइबो, ओढ़िबो झूने खेसको।
जबलौं न भजै जीहँ जानकी-जीवन रामु,
राजनको राजा सो तौ साहेबु महेसको॥
मूल
तौलौं मलीन, हीन, दीन, सुख सपनें न,
जहाँ-तहाँ दुखी जनु भाजनु कलेसको।
तौलौं उबेने पाय फिरत पेटौ खलाय
बाय मुह सहत पराभौ देस-देसको॥
तबलौं दयावनो दुसह दुख दारिदको,
साथरीको सोइबो, ओढ़िबो झूने खेसको।
जबलौं न भजै जीहँ जानकी-जीवन रामु,
राजनको राजा सो तौ साहेबु महेसको॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजाओंके राजा और महेश्वरके भी ईश्वर हैं, उन जानकीनाथका जबतक जिह्वासे भजन नहीं करता, तभीतक जीव दीन, हीन और मलिन रहता है, उसे स्वप्नमें भी सुख नहीं मिलता और जहाँ-तहाँ वह दुःखी मनुष्य क्लेशका पात्र होता है; तभीतक वह नंगे पैर पेट खलाये और मुँह बाये देश-देशका तिरस्कार सहन करता फिरता है तथा तभीतक उसे दरिद्रताका दयावह और दुःसह दुःख घास-फूसकी शय्यापर सोना और झीने खेसका ओढ़ना रहता है॥ १२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईसनके ईस, महाराजनके महाराज,
देवनके देव, देव! प्रानहुके प्रान हौ।
कालहूके काल, महाभूतनके महाभूत,
कर्महूके करम, निदानके निदान हौ॥
निगमको अगम, सुगम तुलसीहू-सेको
एते मान सीलसिंधु, करुनानिधान हौ।
महिमा अपार, काहू बोलको न वारापार,
बड़ी साहबीमें नाथ! बड़े सावधान हौ॥
मूल
ईसनके ईस, महाराजनके महाराज,
देवनके देव, देव! प्रानहुके प्रान हौ।
कालहूके काल, महाभूतनके महाभूत,
कर्महूके करम, निदानके निदान हौ॥
निगमको अगम, सुगम तुलसीहू-सेको
एते मान सीलसिंधु, करुनानिधान हौ।
महिमा अपार, काहू बोलको न वारापार,
बड़ी साहबीमें नाथ! बड़े सावधान हौ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे नाथ आप ब्रह्मा आदि ईश्वरोंके भी ईश्वर, महाराजाओंके महाराज, देवोंके देव और प्राणोंके भी प्राण हैं। आप कालके भी काल, महाभूतोंके भी महाभूत, कर्मके भी कर्म और कारणके भी कारण हैं। किंतु वेदके लिये अगम होनेपर भी आप तुलसीदास-जैसे साधारण पुरुषके लिये सुलभ हैं। इतने महान् होनेपर भी आप शीलके समुद्र और करुणाके भण्डार हैं। आपकी महिमा अपार है, आपकी किसी भी वाणी (वेद-पुराण आदि) का वारापार नहीं है। किंतु इतना बड़ा प्रभुत्व रहते हुए भी आप बड़े ही सावधान हैं, [इसीसे यदि कोई अत्यन्त तुच्छ प्राणी भी आपके अनन्य शरणागत हो जाता है तो आप उसकी पूरी-पूरी चिन्ता रखते हैं]॥ १२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आरतपाल कृपाल जो रामु जेहीं सुमिरे तेहिको तहँ ठाढ़े।
नाम-प्रताप-महामहिमा अँकरे किये खोटेउ छोटेउ बाढ़े॥
सेवक एक तें एक अनेक भए तुलसी तिहुँ ताप न डाढ़े।
प्रेम बदौं प्रहलादहिको, जिन पाहनतें परमेस्वरु काढ़े॥
मूल
आरतपाल कृपाल जो रामु जेहीं सुमिरे तेहिको तहँ ठाढ़े।
नाम-प्रताप-महामहिमा अँकरे किये खोटेउ छोटेउ बाढ़े॥
सेवक एक तें एक अनेक भए तुलसी तिहुँ ताप न डाढ़े।
प्रेम बदौं प्रहलादहिको, जिन पाहनतें परमेस्वरु काढ़े॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् राम दीन-दुःखियोंके रक्षक एवं दयामय हैं। उनका जिसने जहाँ स्मरण किया, उसके लिये वे वहीं खड़े हो जाते हैं। उनके नामके प्रभावकी बड़ी ही महिमा है, जिसने खोटोंको बहुमूल्य और छोटोंको बड़ा कर दिया। उनके एक-से-एक बढ़कर अनेकों सेवक हुए , जिनमेंसे कोई भी आध्यात्मिकादि त्रितापोंसे संतप्त नहीं हुए। परंतु प्रेम तो मैं प्रह्लादका ही मानता हूँ, जिसने पत्थरमेंसे भगवान् को प्रकट कर दिया॥ १२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काढ़ि कृपान, कृपा न कहूँ, पितु काल कराल बिलोकि न भागे।
‘राम कहाँ?’ ‘सब ठाऊँ हैं’, ‘खंभमें?’ ‘हाँ’ सुनि हाँक नृकेहरि जागे॥
बैरि बिदारि भए बिकराल, कहें प्रहलादहिकें अनुरागे।
प्रीति-प्रतीति बड़ी तुलसी, तबतें सब पाहन पूजन लागे॥
मूल
काढ़ि कृपान, कृपा न कहूँ, पितु काल कराल बिलोकि न भागे।
‘राम कहाँ?’ ‘सब ठाऊँ हैं’, ‘खंभमें?’ ‘हाँ’ सुनि हाँक नृकेहरि जागे॥
बैरि बिदारि भए बिकराल, कहें प्रहलादहिकें अनुरागे।
प्रीति-प्रतीति बड़ी तुलसी, तबतें सब पाहन पूजन लागे॥
अनुवाद (हिन्दी)
(हिरण्यकशिपुने प्रह्लादजीको मारनेके लिये) तलवार निकाल ली, उसके मनमें कहीं तनिक भी दया न थी, किंतु कालके समान भयंकर पिताको देखकर भी प्रह्लादजी भागे नहीं! जब उसने कहा—‘बता तेरा राम कहाँ है?’ तो बोले—‘सर्वत्र हैं।’ इसपर उसने पूछा—‘क्या इस खंभमें भी है?’ तो प्रह्लादजीने कहा— ‘हाँ।’ उनकी इस हाँकको सुनते ही नृसिंहजी प्रकट हो गये और शत्रुका नाश कर क्रोधवश बड़े भयंकर बन गये। फिर वे प्रह्लादजीके प्रार्थना करनेपर ही शान्त हुए। तुलसीदासजी कहते हैं—इससे भगवान् के प्रति लोगोंका प्रेम और विश्वास बढ़ गया और तभीसे लोग पाषाण (पाषाणमयी प्रतिमाओं) का पूजन करने लगे॥ १२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अंतरजामिहुतें बड़े बाहेरजामि हैं राम, जे नाम लियेतें।
धावत धेनु पेन्हाइ लवाई ज्यों बालक-बोलनि कान कियेतें॥
आपनि बूझि कहै तुलसी, कहिबेकी न बावरि बात बियेतें।
पैज परें प्रहलादहुको प्रगटे प्रभु पाहनतें, न हियेतें॥
मूल
अंतरजामिहुतें बड़े बाहेरजामि हैं राम, जे नाम लियेतें।
धावत धेनु पेन्हाइ लवाई ज्यों बालक-बोलनि कान कियेतें॥
आपनि बूझि कहै तुलसी, कहिबेकी न बावरि बात बियेतें।
पैज परें प्रहलादहुको प्रगटे प्रभु पाहनतें, न हियेतें॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहिर्गत सगुणरूप भगवान् राम अन्तर्यामी निराकार ईश्वरसे भी बड़े हैं, क्योंकि जिस प्रकार हालकी ब्यायी गौ अपने बच्चेका शब्द सुनते ही स्तनोंमें दूध उतार दौड़ी आती है, उसी प्रकार वे भी (अपना नाम सुनकर) दौड़े आते हैं। तुलसीदास तो अपनी समझकी बात कहता है, ऐसी बावली बातें दूसरे लोगोंसे कहे जानेयोग्य नहीं हुआ करतीं, प्रह्लादके प्रतिज्ञा करनेपर उसके लिये प्रभु पत्थरसे ही प्रकट हो गये, हृदयसे नहीं॥ १२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालकु बोलि दियो बलि कालको, कायर कोटि कुचालि चलाई।
पापी है बाप, बड़े परितापतें आपनि ओरतें खोरि न लाई॥
भूरि दईं बिषमूरि, भईं प्रहलाद-सुधाईं सुधाकी मलाई।
रामकृपाँ तुलसी जनको जग होत भलेको भलाई भलाई॥
मूल
बालकु बोलि दियो बलि कालको, कायर कोटि कुचालि चलाई।
पापी है बाप, बड़े परितापतें आपनि ओरतें खोरि न लाई॥
भूरि दईं बिषमूरि, भईं प्रहलाद-सुधाईं सुधाकी मलाई।
रामकृपाँ तुलसी जनको जग होत भलेको भलाई भलाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
कायर हिरण्यकशिपुने करोड़ों कुचालें कीं और बालक प्रह्लादको बुलाकर कालको बलि दे दिया। पिता हिरण्यकशिपु बड़ा ही पापी था, उस दुष्टने प्रह्लादजीको कष्ट देनेमें अपनी ओरसे कोई कसर नहीं रखी। उसने बहुत-सी विषमूलें दीं; किंतु प्रह्लादजीकी साधुतासे वे अमृतकी मलाई बन गयीं। तुलसीदासजी कहते हैं—भगवान् रामकी कृपासे संसारमें उनके साधु सेवककी सब प्रकार भलाई ही होती है॥ १३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कंस करी बृजबासिन पै करतूति कुभाँति, चली न चलाई।
पंडूके पूत सपूत, कपूत सुजोधन भो कलि छोटो छलाई॥
कान्ह कृपाल बड़े नतपाल, गए खल खेचर खीस खलाई।
ठीक प्रतीति कहै तुलसी, जग होइ भले को भलाई भलाई॥
मूल
कंस करी बृजबासिन पै करतूति कुभाँति, चली न चलाई।
पंडूके पूत सपूत, कपूत सुजोधन भो कलि छोटो छलाई॥
कान्ह कृपाल बड़े नतपाल, गए खल खेचर खीस खलाई।
ठीक प्रतीति कहै तुलसी, जग होइ भले को भलाई भलाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
कंसने व्रजवासियोंके प्रति बहुत बुरी तरहसे कुचाल की, परंतु उसकी एक भी चाल न चली। पाण्डुके पुत्र युधिष्ठिरादि बड़े साधु थे; उनके लिये कुपूत दुर्योधन छलनेमें छोटे कलियुगके समान हो गया (अर्थात् उसने भी उन्हें छलकर पददलित करनेमें कोई कसर नहीं छोड़ी); परंतु कृपालु श्रीकृष्णचन्द्र बड़े ही शरणागतरक्षक हैं, अतः अपनी ही दुष्टताके कारण वे दुष्ट (बकासुर आदि) राक्षस स्वयं नष्ट हो गये। तुलसीदास अपने सच्चे विश्वासकी बात कहता है कि संसारमें भलेकी तो भलाई-ही-भलाई होती है॥ १३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवनीस अनेक भए अवनीं, जिनके डरतें सुर सोच सुखाहीं।
मानव-दानव-देव सतावन रावन घाटि रच्यो जग माहीं॥
ते मिलये धरि धूरि सुजोधनु, जे चलते बहु छत्रकी छाहीं।
बेद-पुरान कहैं, जगु जान, गुमान गोबिंदहि भावत नाहीं॥
मूल
अवनीस अनेक भए अवनीं, जिनके डरतें सुर सोच सुखाहीं।
मानव-दानव-देव सतावन रावन घाटि रच्यो जग माहीं॥
ते मिलये धरि धूरि सुजोधनु, जे चलते बहु छत्रकी छाहीं।
बेद-पुरान कहैं, जगु जान, गुमान गोबिंदहि भावत नाहीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस पृथ्वीपर ऐसे अनेकों राजा हो गये हैं, जिनके भयके कारण देवतालोग चिन्तामें ही सूखे जाते थे। मनुष्य, राक्षस और देवताओंको सतानेके लिये एक रावण ही क्या संसारमें किसीसे कम रचा गया था ? वे सब और दुर्योधन भी, जो कि अनेकों छत्रोंकी छायामें चलते थे, पृथ्वीकी धूलिमें मिल गये। वेद-पुराण कहते हैं और सारा संसार भी जानता है कि श्रीगोविन्दको अभिमान अच्छा नहीं लगता॥ १३२॥
गोपियोंका अनन्य प्रेम*
पादटिप्पनी
- यहाँ प्रसङ्ग न होनेपर भी गोपियोंका अनन्य प्रेम प्रदर्शित करनेके लिये ही श्रीगोसाईंजीने आगेके कवित्त कहे हैं।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जब नैनन प्रीति ठई ठग स्याम सों, स्यानी सखी हठि हौं बरजी।
नहि जानो बियोगु-सो रोगु है आगें झुकी तब हौं तेहि सों तरजी॥
अब देह भई पट नेहके घाले सों, ब्यौंत करै बिरहा-दरजी।
ब्रजराजकुमार बिना सुनु भृंग! अनंगु भयो जियको गरजी॥
मूल
जब नैनन प्रीति ठई ठग स्याम सों, स्यानी सखी हठि हौं बरजी।
नहि जानो बियोगु-सो रोगु है आगें झुकी तब हौं तेहि सों तरजी॥
अब देह भई पट नेहके घाले सों, ब्यौंत करै बिरहा-दरजी।
ब्रजराजकुमार बिना सुनु भृंग! अनंगु भयो जियको गरजी॥
अनुवाद (हिन्दी)
[श्रीकृष्णचन्द्रके मथुरा पधार जानेपर उनकी वियोग-व्यथासे पीड़ित कोई व्रजबाला योग सिखाने आये हुए भगवान् के प्रिय सखा उद्धवजीको भ्रमरके व्याजसे कहती है—] हे भ्रमर! जिस समय मेरे नेत्रोंने इस ठगिया श्यामसुन्दरसे प्रीति जोड़ी थी, उसी समय एक चतुर सखीने मुझे बलपूर्वक रोका था, किंतु मैं नहीं जानती थी कि आगे इसमें वियोग-जैसा रोग निकलेगा, इसलिये उस समय मैं उसपर नाराज हुई और उसका तिरस्कार किया। अब नेह लगानेसे मेरी देह मानो वस्त्र हो गयी है, उसे विरहरूपी दर्जी ब्योंत रहा है और हे भृङ्ग! सुन, उस व्रजराजदुलारेके बिना काम मेरे जीका ग्राहक हो गया है॥ १३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जोग-कथा पठई ब्रजको, सब सो सठ चेरीकी चाल चलाकी।
ऊधौजू! क्यों न कहै कुबरी, जो बरीं नटनागर हेरि हलाकी॥
जाहि लगै परि जाने सोई, तुलसी सो सोहागिनि नंदललाकी।
जानी है जानपनी हरिकी, अब बाँधियैगी कछु मोटि कलाकी॥
मूल
जोग-कथा पठई ब्रजको, सब सो सठ चेरीकी चाल चलाकी।
ऊधौजू! क्यों न कहै कुबरी, जो बरीं नटनागर हेरि हलाकी॥
जाहि लगै परि जाने सोई, तुलसी सो सोहागिनि नंदललाकी।
जानी है जानपनी हरिकी, अब बाँधियैगी कछु मोटि कलाकी॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे उद्धवजी! व्रजको जो यह योगका संदेश भेजा गया है, वह सब उस दुष्टा दासीकी चालाकीभरी चाल है। अब भला कुबड़ी ऐसा क्यों न कहेगी, जिसे घातक श्रीकृष्णने खोजकर वरण किया है। विरहकी आग कैसी होती है—यह तो वही जान सकती है जिसे वह लगती है, आज कुब्जा तो नन्दनन्दनकी सुहागिन बनी हुई है [उसे हमारी पीरका क्या पता?] किंतु इससे हमें श्यामसुन्दरकी बुद्धिमानीका पता लग गया [उन्हें कूबड़ बहुत पसंद है; इसलिये] अब हम भी पीठपर बनावटी मोटरी बाँधा करेंगी [जिससे कुबड़ी दिखायी दिया करें]॥ १३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पठयो है छपदु छबीलें कान्ह कैहूँ कहूँ
खोजि कै खवासु खासो कूबरी-सी बालको।
ग्यानको गढ़ैया, बिनु गिराको पढ़ैया, बार-
खालको कढ़ैया, सो बढ़ैया उर-सालको॥
प्रीतिको बधिक, रस-रीतिको अधिक, नीति-
निपुन, बिबेकु है, निदेसु देस-कालको।
तुलसी कहें न बनै, सहें ही बनैगी सब
जोगु भयो जोगको बियोगु नंदलालको॥
मूल
पठयो है छपदु छबीलें कान्ह कैहूँ कहूँ
खोजि कै खवासु खासो कूबरी-सी बालको।
ग्यानको गढ़ैया, बिनु गिराको पढ़ैया, बार-
खालको कढ़ैया, सो बढ़ैया उर-सालको॥
प्रीतिको बधिक, रस-रीतिको अधिक, नीति-
निपुन, बिबेकु है, निदेसु देस-कालको।
तुलसी कहें न बनै, सहें ही बनैगी सब
जोगु भयो जोगको बियोगु नंदलालको॥
अनुवाद (हिन्दी)
छबीले श्यामसुन्दरने कहींसे जैसे-तैसे ढूँढ़कर कुबड़ी-जैसी बालाका यह भ्रमररूप बड़ा उत्तम सेवक भेजा है। यह बड़ी ज्ञानकी बातें गढ़नेवाला, बिना जिह्वाके ही बोलनेवाला, बालकी खाल खींचनेवाला और हृदयकी पीड़ाको बढ़ानेवाला है। यह प्रीतिका वध करनेवाला, विशेषतया रसरीतिको नष्ट करनेवाला और बड़ा नीतिकुशल एवं विवेकी है। सो इसमें इसका कोई दोष नहीं, देश-कालका ऐसा ही विधान है। तुलसीदासजी कहते हैं, अब कहनेसे कुछ प्रयोजन सिद्ध थोड़े ही होगा, अब तो सब कुछ सहना ही पड़ेगा; क्योंकि जब नन्दनन्दनसे वियोग हो गया तब योगके लिये अवसर आ ही गया॥ १३५॥
विनय
विश्वास-प्रस्तुतिः
हनूमान! ह्वै कृपाल, लाडिले लखनलाल!
भावते भरत! कीजै सेवक-सहाय जू।
बिनती करत दीन दूबरो दयावनो सो
बिगरेतें आपु ही सुधारि लीजै भाय जू॥
मेरी साहिबिनी सदा सीसपर बिलसति
देबि क्यों न दासको देखाइयत पाय जू।
खीझहूमें रीझिबैकी बानि, सदा रीझत हैं,
रीझे ह्वै हैं, रामकी दोहाई, रघुराय जू॥
मूल
हनूमान! ह्वै कृपाल, लाडिले लखनलाल!
भावते भरत! कीजै सेवक-सहाय जू।
बिनती करत दीन दूबरो दयावनो सो
बिगरेतें आपु ही सुधारि लीजै भाय जू॥
मेरी साहिबिनी सदा सीसपर बिलसति
देबि क्यों न दासको देखाइयत पाय जू।
खीझहूमें रीझिबैकी बानि, सदा रीझत हैं,
रीझे ह्वै हैं, रामकी दोहाई, रघुराय जू॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे श्रीहनुमान् जी! हे लाड़िले लखनलाल! हे मनभावन भरतजी! तनिक कृपाकर इस सेवककी सहायता कीजिये। यह दीन, दुर्बल और दयापात्र दास आपसे विनय करता है; इससे यदि कोई भाव बिगड़ जाय तो आप ही सुधार लें। मेरी स्वामिनी सदा मेरे मस्तकपर विराजमान रहती हैं, सो हे देवि! आप भी इस दासको अपने चरणोंका दर्शन क्यों नहीं करातीं? हमारे प्रभुका तो खीझनेमें भी रीझनेका स्वभाव है, वे तो सदा ही प्रसन्न रहते हैं; अतः रामकी दुहाई, इस समय भी श्रीरघुनाथजी अवश्य रीझे होंगे॥ १३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बेषु बिरागको, रागभरो मनु, माय! कहौं सतिभाव हौं तोसों।
तेरे ही नाथको नामु लै बेचि हौं, पातकी पावँर प्राननि पोसों॥
एते बड़े अपराधी अघी कहुँ, तैं कहु, अंब! कि मेरो तूँ मोसों।
स्वारथको परमारथको परिपूरन भो, फिरि घाटि न होसों॥
मूल
बेषु बिरागको, रागभरो मनु, माय! कहौं सतिभाव हौं तोसों।
तेरे ही नाथको नामु लै बेचि हौं, पातकी पावँर प्राननि पोसों॥
एते बड़े अपराधी अघी कहुँ, तैं कहु, अंब! कि मेरो तूँ मोसों।
स्वारथको परमारथको परिपूरन भो, फिरि घाटि न होसों॥
अनुवाद (हिन्दी)
माताजी! मैं तुमसे ठीक-ठीक कहता हूँ, मेरा वेष तो वैराग्यका-सा है; किंतु मन रागसे भरा हुआ है। तुम्हारे ही स्वामीका नाम बेचकर (अर्थात् रामके नामपर भीख माँगकर) मैं इन पापी पामर प्राणोंका पोषण करता हूँ। इतने बड़े अपराधी और पापीसे, हे मातः! तू यह कह दे कि ‘तू मेरा है और मुझीसे उत्पन्न हुआ है।’ इससे मेरे स्वार्थ और परमार्थ दोनों सिद्ध हो जायँगे; फिर मेरे अंदर किसी प्रकारकी कमी नहीं रह जायगी॥ १३७॥
सीतावट-वर्णन
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहाँ बालमीकि भए ब्याधतें मुनिंद साधु
‘मरा मरा’ जपें सिख सुनि रिषि सातकी।
सीयको निवास, लव-कुसको जनमथल
तुलसी छुअत छाँह ताप गरै गातकी॥
बिटपमहीप सुरसरित समीप सोहै,
सीताबटु पेखत पुनीत होत पातकी।
बारिपुर दिगपुर बीच बिलसति भूमि,
अंकित जो जानकी-चरन-जलजातकी॥
मूल
जहाँ बालमीकि भए ब्याधतें मुनिंद साधु
‘मरा मरा’ जपें सिख सुनि रिषि सातकी।
सीयको निवास, लव-कुसको जनमथल
तुलसी छुअत छाँह ताप गरै गातकी॥
बिटपमहीप सुरसरित समीप सोहै,
सीताबटु पेखत पुनीत होत पातकी।
बारिपुर दिगपुर बीच बिलसति भूमि,
अंकित जो जानकी-चरन-जलजातकी॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ सप्तर्षियोंका उपदेश सुनकर (राममन्त्रको उलटे क्रमसे) ‘मरा-मरा’ जपते हुए वाल्मीकिजी व्याधसे महामुनि साधु हो गये, जो श्रीसीताजीका निवासस्थान और कुश तथा लवका जन्मस्थान था, तुलसीदासजी कहते हैं—जहाँकी छायाका स्पर्श होते ही शरीरका सारा ताप शान्त हो जाता है, वह वृक्षराज सीतावट श्रीगङ्गाजीके तटपर शोभायमान है। उसके दर्शनमात्रसे पापी पुरुष भी पवित्र हो जाता है। यह स्थान वारिपुर और दिगपुर—इन दो गाँवोंके बीचमें है* और श्रीजानकीजीके चरणकमलोंसे अङ्कित है॥ १३८॥
पादटिप्पनी
- यह स्थान प्रयाग और काशीके बीचमें सीतामढ़ी नामसे प्रसिद्ध है।
विश्वास-प्रस्तुतिः
मरकतबरन परन, फल मानिक-से
लसै जटाजूट जनु रूपबेष हरु है।
सुषमाको ढेरु कैधौं सुकृत-सुमेरु कैधौं,
संपदा सकल मुद-मंगलको घरु है॥
देत अभिमत जो समेत प्रीति सेइये
प्रतीति मानि तुलसी, बिचारि काको थरु है।
सुरसरि निकट सुहावनी अवनि सोहै
रामरवनीको बटु कलि कामतरु है॥
मूल
मरकतबरन परन, फल मानिक-से
लसै जटाजूट जनु रूपबेष हरु है।
सुषमाको ढेरु कैधौं सुकृत-सुमेरु कैधौं,
संपदा सकल मुद-मंगलको घरु है॥
देत अभिमत जो समेत प्रीति सेइये
प्रतीति मानि तुलसी, बिचारि काको थरु है।
सुरसरि निकट सुहावनी अवनि सोहै
रामरवनीको बटु कलि कामतरु है॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके पत्ते मरकतमणिके समान हरे तथा फल माणिक्यके सदृश (लाल रंगके) हैं। अपनी जटाओंके कारण वह ऐसी शोभा देता है, मानो वृक्षरूपमें महादेवजी ही हों। वह मानो सुन्दरताका पुञ्ज है, अथवा सुकृतका सुमेरु है, किंवा सब प्रकारकी सम्पत्ति, आनन्द और मङ्गलका घर है। यदि ‘यह किसका स्थान है’ [अर्थात् जानकीजीका निवासस्थल है] इसका विचार करके विश्वास और प्रीतिपूर्वक उसका सेवन किया जाय तो वह सब प्रकारके इच्छित फल देता है। वह सुन्दर भूमि श्रीगङ्गाजीके तटपर सुशोभित है; यह रामवल्लभा श्रीजानकीजीका वट कलियुगमें कल्पवृक्षके समान है॥ १३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवधुनि पास, मुनिबासु, श्रीनिवासु जहाँ,
प्राकृतहुँ बट-बूट बसत पुरारि हैं।
जोग-जप-जागको, बिरागको पुनीत पीठु
रागिन पै सीठ डीठि बाहरी निहारि हैं॥
‘आयसु’, ‘आदेस’, ‘बाबू’ भलो-भलो भावसिद्ध
तुलसी बिचारि जोगी कहत पुकारि हैं।
रामभगतनको तौ कामतरुतें अधिक,
सियबटु सेयें करतल फल चारि हैं॥
मूल
देवधुनि पास, मुनिबासु, श्रीनिवासु जहाँ,
प्राकृतहुँ बट-बूट बसत पुरारि हैं।
जोग-जप-जागको, बिरागको पुनीत पीठु
रागिन पै सीठ डीठि बाहरी निहारि हैं॥
‘आयसु’, ‘आदेस’, ‘बाबू’ भलो-भलो भावसिद्ध
तुलसी बिचारि जोगी कहत पुकारि हैं।
रामभगतनको तौ कामतरुतें अधिक,
सियबटु सेयें करतल फल चारि हैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधारण वटवृक्षमें भी श्रीमहादेवजीका निवास होता है, फिर इसके समीप तो गङ्गाजीका तट तथा मुनिवर वाल्मीकिजीका आश्रम है; जहाँ श्रीसीताजीने निवास किया था। [अतः इसकी महिमाका तो वर्णन ही कौन कर सकता है?] यह योग, जप, यज्ञ और वैराग्यके लिये तो बड़ा पवित्र पीठ है; किंतु रागी पुरुषोंको, जो इसे बाहरी दृष्टिसे देखेंगे, यह बड़ा रूखा जान पड़ता है। तुलसीदासजी कहते हैं कि यहाँके लोग विचारपूर्वक ‘जो आज्ञा’, ‘आदेश’, ‘भैया’ आदि शिष्ट शब्दोंका स्वभावसे ही प्रयोग करते हैं। यह सीतावट रामभक्तोंके लिये तो कल्पवृक्षसे भी अधिक है; क्योंकि इसका सेवन करनेसे [अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष] चारों फल करतलगत हो जाते हैं [जब कि कल्पवृक्षसे अर्थ, धर्म और काम—केवल तीन ही फल मिलते हैं]॥ १४०॥
चित्रकूट-वर्णन
विश्वास-प्रस्तुतिः
जहाँ बनु पावनो, सुहावने बिहंग-मृग,
देखि अति लागत अनंदु खेत-खूँट-सो।
सीता-राम-लखन-निवासु, बासु मुनिनको,
सिद्ध-साधु-साधक सबै बिबेक-बूट-सो॥
झरना झरत झारि सीतल पुनीत बारि,
मंदाकिनि मंजुल महेस-जटाजूट सो।
तुलसी जौं रामसों सनेहु साँचो चाहिये तौ,
सेइये सनेहसों बिचित्र चित्रकूट सो॥
मूल
जहाँ बनु पावनो, सुहावने बिहंग-मृग,
देखि अति लागत अनंदु खेत-खूँट-सो।
सीता-राम-लखन-निवासु, बासु मुनिनको,
सिद्ध-साधु-साधक सबै बिबेक-बूट-सो॥
झरना झरत झारि सीतल पुनीत बारि,
मंदाकिनि मंजुल महेस-जटाजूट सो।
तुलसी जौं रामसों सनेहु साँचो चाहिये तौ,
सेइये सनेहसों बिचित्र चित्रकूट सो॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँका वन अति पवित्र है और पशु-पक्षी अत्यन्त सुहावने हैं तथा जिसे खेतके टुकड़ेके समान (हरा-भरा) देखकर बड़ा आनन्द होता है; जहाँ सीता, राम और लक्ष्मणका निवास था, जहाँ अनेकों मुनिजन रहते हैं तथा जो सिद्ध, साधु और साधकोंके लिये विवेकरूपी वृक्षके समान है; जहाँ सभी झरनोंसे अति शीतल और पवित्र जल झरता रहता है तथा मन्दाकिनी नदी श्रीमहादेवजीके जटाजूटके समान जान पड़ती है। तुलसीदासजी कहते हैं—यदि तुम्हें भगवान् रामके सच्चे स्नेहकी चाह है तो प्रेमपूर्वक अद्भुत चित्रकूटका सेवन करो॥ १४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोह-बन-कलिमल-पल-पीन जानि जियँ
साधु-गाइ-बिप्रनके भयको नेवारिहै।
दीन्ही है रजाइ राम, पाइ सो सहाइ लाल
लखन समत्थ बीर हेरि-हेरि मारिहै॥
मंदाकिनी मंजुल कमान असि, बान जहाँ
बारि-धार धीर धरि सुकर सुधारिहै।
चित्रकूट अचल अहेरि बैठॺो घात मानो
पातकके ब्रात घोर सावज सँघारिहै॥
मूल
मोह-बन-कलिमल-पल-पीन जानि जियँ
साधु-गाइ-बिप्रनके भयको नेवारिहै।
दीन्ही है रजाइ राम, पाइ सो सहाइ लाल
लखन समत्थ बीर हेरि-हेरि मारिहै॥
मंदाकिनी मंजुल कमान असि, बान जहाँ
बारि-धार धीर धरि सुकर सुधारिहै।
चित्रकूट अचल अहेरि बैठॺो घात मानो
पातकके ब्रात घोर सावज सँघारिहै॥
अनुवाद (हिन्दी)
मोहरूपी वनमें पापराशिरूप सावज (हिंस्र पशु) कलिकल्मषरूप मांससे मोटे हो रहे हैं, ऐसा चित्तमें जानकर श्रीरघुनाथजीने आज्ञा दी है; अतः समर्थ वीर लखनलालकी सहायता पा चित्रकूट अचल अहेरी होकर उनकी घातमें बैठे हुए हैं। वे उन्हें ढूँढ़-ढूँढ़कर मारेंगे तथा इस प्रकार साधु, गौ और ब्राह्मणोंके भयको हटावेंगे। उसके लिये वे मन्दाकिनी-जैसी मनोहर कमान तथा उसके जलकी धारारूप बाणोंको अपने करकमलोंसे धैर्यपूर्वक धारण करेंगे॥ १४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लागि दवारि पहार ठही, लहकी कपि लंक जथा खरखौकी।
चारु चुआ चहुँ ओर चलैं, लपटैं-झपटैं सो तमीचर तौंकी॥
क्यौं कहि जात महासुषमा, उपमा तकि ताकत है कबि कौं की।
मानो लसी तुलसी हनुमान-हिएँ जगजीति जरायकी चौकी॥
मूल
लागि दवारि पहार ठही, लहकी कपि लंक जथा खरखौकी।
चारु चुआ चहुँ ओर चलैं, लपटैं-झपटैं सो तमीचर तौंकी॥
क्यौं कहि जात महासुषमा, उपमा तकि ताकत है कबि कौं की।
मानो लसी तुलसी हनुमान-हिएँ जगजीति जरायकी चौकी॥
अनुवाद (हिन्दी)
[एक समय चित्रकूटमें दावाग्नि लगी; गोसाईंजी अब उसीका वर्णन करते हैं—] इस समय चित्रकूटमें डटकर दावानल लगी हुई है और इस प्रकार प्रज्वलित हो रही है, जैसे हनुमान् जी ने लङ्कामें आग लगायी थी। दावाग्निके तापसे तपकर सुन्दर पशु चारों ओरको इस तरह भागे जाते हैं, जैसे लङ्कामें आगकी ज्वालाओंकी लपकसे तोंसे हुए राक्षसलोग इधर-उधर भागे थे। उस समयकी महान् शोभाका वर्णन किस प्रकार किया जाय? उसकी उपमाको विचारता हुआ कवि बड़ी देरसे ताकता रह गया है। [परंतु उसे इसके अनुरूप कोई उपमा नहीं मिलती] ऐसा जान पड़ता है, मानो हनुमान् जी के वक्षःस्थलपर संसारको जीतनेका जड़ाऊ पदक (तमगा) सुशोभित हो॥ १४३॥
तीर्थराज-सुषमा
विश्वास-प्रस्तुतिः
देव कहैं अपनी-अपना, अवलोकन तीरथराजु चलो रे।
देखि मिटैं अपराध अगाध, निमज्जत साधु-समाजु भलो रे॥
सोहै सितासितको मिलिबो, तुलसी हुलसै हिय हेरि हलोरे।
मानो हरे तृन चारु चरैं बगरे सुरधेनुके धौल कलोरे॥
मूल
देव कहैं अपनी-अपना, अवलोकन तीरथराजु चलो रे।
देखि मिटैं अपराध अगाध, निमज्जत साधु-समाजु भलो रे॥
सोहै सितासितको मिलिबो, तुलसी हुलसै हिय हेरि हलोरे।
मानो हरे तृन चारु चरैं बगरे सुरधेनुके धौल कलोरे॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवतालोग आपसमें कहते हैं—अरे! तीर्थराज प्रयागका दर्शन करने चलो। उनके दर्शनमात्रसे बड़े-बड़े अपराध नष्ट हो जाते हैं; वहाँ अच्छे-अच्छे साधु स्नान किया करते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं—वहाँ श्रीगङ्गा और यमुनाके शुभ्र एवं श्यामवर्ण जलका संगम बड़ा ही शोभायमान जान पड़ता है, उसकी तरङ्गोंको देखकर हृदय बड़ा हर्षित होता है, मानो इधर-उधर फैले हुए कामधेनुके शुक्लवर्ण मनोहर बछड़े हरी-हरी घास चर रहे हों॥ १४४॥
श्रीगङ्गा-माहात्म्य
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवनदी कहँ जो जन जान किए मनसा, कुल कोटि उधारे।
देखि चले झगरैं सुरनारि, सुरेस बनाइ बिमान सँवारे॥
पूजाको साजु बिरंचि रचैं तुलसी, जे महातम जाननिहारे।
ओककी नीव परी हरिलोक बिलोकत गंग! तरंग तिहारे॥
मूल
देवनदी कहँ जो जन जान किए मनसा, कुल कोटि उधारे।
देखि चले झगरैं सुरनारि, सुरेस बनाइ बिमान सँवारे॥
पूजाको साजु बिरंचि रचैं तुलसी, जे महातम जाननिहारे।
ओककी नीव परी हरिलोक बिलोकत गंग! तरंग तिहारे॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस मनुष्यने गङ्गास्नानके लिये मनमें जानेका विचारमात्र कर लिया, उसके करोड़ों पीढ़ियोंका उद्धार हो गया। उसे चलता देखकर [उसे वरण करनेके लिये] देवाङ्गनाएँ आपसमें झगड़ने लगती हैं, देवराज इन्द्र उसके लिये विमान बनाकर सजाने लगते हैं, ब्रह्माजी जो कि उसके माहात्म्यको जाननेवाले हैं, उसके पूजनकी सामग्री जुटाने लगते हैं और हे गङ्गाजी! तुम्हारी तरङ्गोंका दर्शन होते ही विष्णुलोकमें (उसके लिये) घरकी नींव पड़ जाती है। (अर्थात् उसका विष्णुलोकमें जाना निश्चित हो जाता है।)॥ १४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मु जो ब्यापकु बेद कहैं, गम नाहिं गिरा गुन-ग्यान-गुनीको।
जो करता, भरता, हरता, सुर-साहेबु, साहेबु, दीन-दुनीको॥
सोइ भयो द्रवरूप सही, जो है नाथु बिरंचि महेस मुनीको।
मानि प्रतीति सदा तुलसी जलु काहे न सेवत देवधुनीको॥
मूल
ब्रह्मु जो ब्यापकु बेद कहैं, गम नाहिं गिरा गुन-ग्यान-गुनीको।
जो करता, भरता, हरता, सुर-साहेबु, साहेबु, दीन-दुनीको॥
सोइ भयो द्रवरूप सही, जो है नाथु बिरंचि महेस मुनीको।
मानि प्रतीति सदा तुलसी जलु काहे न सेवत देवधुनीको॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस परब्रह्म परमात्माको वेद सर्वव्यापी कहते हैं, जिसके गुण और ज्ञानकी थाह गुणीजन और शारदा भी नहीं पा सकते; जो संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाला, देवताओंका स्वामी तथा लोक-परलोकका प्रभु है; जो ब्रह्मा, शिव और मुनिजनोंका भी स्वामी है, निश्चय वही जलरूप हो गया है। तुलसीदासजी कहते हैं—अरे, विश्वास करके सर्वदा श्रीगङ्गाजलका ही सेवन क्यों नहीं करता?॥ १४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बारि तिहारो निहारि मुरारि भएँ परसें पद पापु लहौंगो।
ईसु ह्वै सीस धरौं पै डरौं, प्रभुकी समताँ बड़े दोष दहौंगो॥
बरु बारहिं बार सरीर धरौं, रघुबीरको ह्वै तव तीर रहौंगो।
भागीरथी! बिनवौं कर जोरि, बहोरि न खोरि लगै सो कहौंगो॥
मूल
बारि तिहारो निहारि मुरारि भएँ परसें पद पापु लहौंगो।
ईसु ह्वै सीस धरौं पै डरौं, प्रभुकी समताँ बड़े दोष दहौंगो॥
बरु बारहिं बार सरीर धरौं, रघुबीरको ह्वै तव तीर रहौंगो।
भागीरथी! बिनवौं कर जोरि, बहोरि न खोरि लगै सो कहौंगो॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे गङ्गे! तुम्हारे जलके दर्शनके प्रभावसे यदि मैं विष्णु हो गया तो अपने चरणोंसे तुम्हारा स्पर्श होनेके कारण मुझे पाप लगेगा [ क्योंकि तुम्हारा जन्म विष्णुभगवान् के चरणोंसे है और यदि मैं भी विष्णु हो गया तो अपने चरणोंसे तुम्हारा स्पर्श होनेके कारण मुझे पापका भागी होना पड़ेगा ]; और यदि महादेव हो गया तो सिरपर धारण करनेसे मुझे डर है कि इस प्रकार अपने प्रभु भगवान् शंकरकी समता करनेके बड़े भारी अपराधसे दुःख पाऊँगा। इसलिये, भले ही मुझे बारम्बार शरीर धारण करना पड़े, मैं तो श्रीरघुनाथजीका दास होकर ही तुम्हारे तीरपर रहूँगा। हे भागीरथि! मैं हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूँ—मैं वही बात कहूँगा, जिससे फिर दोष न लगे॥ १४७॥
अन्नपूर्णा-माहात्म्य
विश्वास-प्रस्तुतिः
लालची ललात, बिललात द्वार-द्वार दीन,
बदन मलीन, मन मिटै ना बिसूरना।
ताकत सराध, कै बिबाह, कै उछाह कछू,
डोलै लोल बूझत सबद ढोल-तूरना॥
प्यासेहूँ न पावै बारि, भूखें न चनक चारि,
चाहत अहारन पहार, दारि घूर ना।
सोकको अगार, दुखभार भरो तौलौं जन
जौलौं देबी द्रवै न भवानी अन्नपूरना॥
मूल
लालची ललात, बिललात द्वार-द्वार दीन,
बदन मलीन, मन मिटै ना बिसूरना।
ताकत सराध, कै बिबाह, कै उछाह कछू,
डोलै लोल बूझत सबद ढोल-तूरना॥
प्यासेहूँ न पावै बारि, भूखें न चनक चारि,
चाहत अहारन पहार, दारि घूर ना।
सोकको अगार, दुखभार भरो तौलौं जन
जौलौं देबी द्रवै न भवानी अन्नपूरना॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक देवी अन्नपूर्णा कृपा नहीं करतीं, तभीतक मनुष्य लालची होकर (टुकड़े-टुकड़ेके लिये) लालायित होता है और दीन तथा मलिन-मुख हो द्वार-द्वारपर बिलबिलाता रहता है, परंतु उसके मनकी चिन्ता दूर नहीं होती; कहीं श्राद्ध, विवाह अथवा कोई उत्सव तो नहीं, इस बातकी टोहमें रहता है, चञ्चल होकर इधर-उधर घूमता है और यदि कहीं ढोल या तुरहीका शब्द होता है तो पूछता है [कि यहाँ कोई उत्सव तो नहीं है?] प्यास लगनेपर उसे जल नहीं मिलता, भूख होनेपर चार चने भी नहीं मिलते। पहाड़के समान भोजनकी इच्छा होती है, परंतु घूरेपर पड़ी दाल भी नहीं मिलती। इस प्रकार वह शोकका आश्रयस्थान और दुःखके भारसे दबा रहता है॥ १४८॥
शंकर-स्तवन
विश्वास-प्रस्तुतिः
भस्म अंग, मर्दन अनंग, संतत असंग हर।
सीस गंग, गिरिजा अर्धंग, भूषन भुजंगबर॥
मुंडमाल, बिधु बाल भाल, डमरू कपालु कर।
बिबुधबृंद-नवकुमुद-चंद, सुखकंद सूलधर॥
त्रिपुरारि, त्रिलोचन, दिग्बसन, बिषभोजन, भवभयहरन।
कह तुलसिदासु सेवत सुलभ सिव सिव सिव संकर सरन॥
मूल
भस्म अंग, मर्दन अनंग, संतत असंग हर।
सीस गंग, गिरिजा अर्धंग, भूषन भुजंगबर॥
मुंडमाल, बिधु बाल भाल, डमरू कपालु कर।
बिबुधबृंद-नवकुमुद-चंद, सुखकंद सूलधर॥
त्रिपुरारि, त्रिलोचन, दिग्बसन, बिषभोजन, भवभयहरन।
कह तुलसिदासु सेवत सुलभ सिव सिव सिव संकर सरन॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीमहादेवजी शरीरमें भस्म रमाये रहते हैं, वे कामदेवका दलन करनेवाले और सर्वदा असंग हैं। उनके सिरपर श्रीगङ्गाजी हैं, अर्धाङ्गमें पार्वतीजी हैं तथा अच्छे-अच्छे सर्प ही उनके आभूषण हैं। उनके गलेमें मुण्डमाला है, मस्तकपर द्वितीयाका चन्द्रमा है तथा हाथोंमें डमरू और कपाल सुशोभित हैं। देवताओंके समाजरूपी नवीन कुमुद-कुसुमके लिये शूलधारी भगवान् शंकर साक्षात् चन्द्रमा हैं। वे सुखकी जड़, त्रिपुरदैत्यके शत्रु, तीन नेत्रोंवाले, दिगम्बर, विषभोजी एवं संसारका भय निवृत्त करनेवाले श्रीमहादेवजी भजन किये जानेपर बड़ी सुगमतासे प्राप्त हो जाते हैं; मैं उन श्रीशिवशंकरकी शरण हूँ॥ १४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गरल-असन दिगबसन ब्यसनभंजन जनरंजन।
कुंद-इंदु-कर्पूर-गौर सच्चिदानंदघन॥
बिकटबेष, उर सेष, सीस सुरसरित सहज सुचि।
सिव अकाम अभिरामधाम नित रामनाम रुचि॥
कंदर्पदर्प दुर्गम दमन उमारमन गुनभवन हर।
त्रिपुरारि! त्रिलोचन! त्रिगुनपर! त्रिपुरमथन! जय त्रिदसबर॥
मूल
गरल-असन दिगबसन ब्यसनभंजन जनरंजन।
कुंद-इंदु-कर्पूर-गौर सच्चिदानंदघन॥
बिकटबेष, उर सेष, सीस सुरसरित सहज सुचि।
सिव अकाम अभिरामधाम नित रामनाम रुचि॥
कंदर्पदर्प दुर्गम दमन उमारमन गुनभवन हर।
त्रिपुरारि! त्रिलोचन! त्रिगुनपर! त्रिपुरमथन! जय त्रिदसबर॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो विषभक्षण करनेवाले, दिगम्बर, दुःखहारी, भक्तमनरञ्जन, कुन्द, चन्द्र एवं कर्पूरके समान गौरवर्ण, सच्चिदानन्दघन और विकटवेषधारी हैं; जिनके हृदयपर शेषजी और मस्तकपर स्वभावसे ही परम पवित्र श्रीगङ्गाजी विराजमान हैं, जो कल्याणस्वरूप कामनाशून्य और सौन्दर्य-धाम हैं तथा जिनकी रामनाममें नित्य रुचि है, कामदेवके दुर्गम दर्पका दमन करनेवाले उन उमारमण गुणमन्दिर पापापहारी त्रिपुरारि त्रिनयन त्रिगुणातीत त्रिपुरविदारण देवेश्वरकी जय हो, जय हो॥ १५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अरध अंग अंगना, नामु जोगीसु, जोगपति।
बिषम असन, दिगबसन, नाम बिस्वेसु बिस्वगति॥
कर कपाल, सिर माल ब्याल, बिष-भूति-बिभूषन।
नाम सुद्ध, अबिरुद्ध, अमर, अनवद्य, अदूषन॥
बिकराल-भूत-बेताल-प्रिय भीम नाम, भवभयदमन।
सब बिधि समर्थ, महिमा अकथ, तुलसिदास-संसय-समन॥
मूल
अरध अंग अंगना, नामु जोगीसु, जोगपति।
बिषम असन, दिगबसन, नाम बिस्वेसु बिस्वगति॥
कर कपाल, सिर माल ब्याल, बिष-भूति-बिभूषन।
नाम सुद्ध, अबिरुद्ध, अमर, अनवद्य, अदूषन॥
बिकराल-भूत-बेताल-प्रिय भीम नाम, भवभयदमन।
सब बिधि समर्थ, महिमा अकथ, तुलसिदास-संसय-समन॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहो! जिनके अर्धाङ्गमें पार्वतीजी रहती हैं, परंतु जिनका नाम योगीश्वर अथवा योगपति है, जिनका भाँग-धतूरा आदि विषम भोजन तथा दिशाएँ ही वस्त्र हैं, किंतु जो विश्वेश्वर और विश्वके आश्रयस्थान कहलाते हैं; जिनके हाथमें कपाल, सिरपर सर्पोंकी माला और शरीरमें हालाहल विष और भस्मकी ही शोभा है; किंतु जिनका नाम शुद्ध, अविरुद्ध, अमर, अमल और निर्दोष है; जिनका विकराल-भूत-बेताल-प्रिय ऐसा भयंकर नाम है; किंतु जो भव-भयका नाश करनेवाले हैं, तुलसीदासजी कहते हैं—वे महादेवजी सब प्रकार समर्थ हैं, उनकी महिमा अकथनीय है और वे मेरे संदेहोंकी निवृत्ति करनेवाले हैं॥ १५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूतनाथ भयहरन भीम भयभवन भूमिधर।
भानुमंत भगवंत भूतिभूषन भुजंगबर॥
भब्य भावबल्लभ भवेस भव-भार-बिभंजन।
भूरिभोग भैरव कुजोगगंजन जनरंजन॥
भारती-बदन बिष-अदन सिव ससि-पतंग-पावक-नयन।
कह तुलसिदासु किन भजसि मन भद्रसदन मर्दनमयन॥
मूल
भूतनाथ भयहरन भीम भयभवन भूमिधर।
भानुमंत भगवंत भूतिभूषन भुजंगबर॥
भब्य भावबल्लभ भवेस भव-भार-बिभंजन।
भूरिभोग भैरव कुजोगगंजन जनरंजन॥
भारती-बदन बिष-अदन सिव ससि-पतंग-पावक-नयन।
कह तुलसिदासु किन भजसि मन भद्रसदन मर्दनमयन॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो भूतोंके स्वामी, सब प्रकारके भय दूर करनेवाले, भयंकर भयके आश्रयस्थान, भूमिको धारण करनेवाले, तेजोमय, ऐश्वर्यवान्, भस्म और सर्परूप आभूषण धारण करनेवाले, कल्याणस्वरूप, भावप्रिय, संसारके स्वामी और संसारके भारको नष्ट करनेवाले हैं; जो महान् भोगशाली, भीषण, कुयोगका नाश करनेवाले, भक्तोंको आनन्दित करनेवाले, सरस्वतीरूप मुखवाले, विषभोजी, कल्याणस्वरूप, चन्द्रमा, सूर्य और अग्निरूप नेत्रोंवाले तथा कल्याणधाम और कामदेवका नाश करनेवाले हैं, तुलसीदास कहते हैं—हे मन! तू उनका भजन क्यों नहीं करता?॥ १५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नागो फिरै कहै मागनो देखि ‘न खाँगो कछू’, जनि मागिये थोरो।
राँकनि नाकप रीझि करै तुलसी जग जो जुरैं जाचक जोरो॥
नाक सँवारत आयो हौं नाकहि, नाहिं पिनाकिहि नेकु निहोरो।
ब्रह्मा कहै, गिरिजा! सिखवो पति रावरो, दानि है बावरो भोरो॥
मूल
नागो फिरै कहै मागनो देखि ‘न खाँगो कछू’, जनि मागिये थोरो।
राँकनि नाकप रीझि करै तुलसी जग जो जुरैं जाचक जोरो॥
नाक सँवारत आयो हौं नाकहि, नाहिं पिनाकिहि नेकु निहोरो।
ब्रह्मा कहै, गिरिजा! सिखवो पति रावरो, दानि है बावरो भोरो॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजी कहते हैं—हे पार्वति! तुम अपने पतिको समझा दो—यह बड़ा बावला और भोला दानी है। देखो, स्वयं तो नंगा फिरता है; परंतु यदि किसी याचकको देखता है तो कहता है कि थोड़ा मत माँगना, यहाँ कुछ कमी नहीं है। संसारमें जितने याचक जोड़े जुट सकते, उन्हें जुटाकर उन सब कंगालोंको प्रसन्न होकर इन्द्र बना देता है। उनके लिये स्वर्ग तैयार करते-करते मेरी नाकमें दम आ गया है, परंतु पिनाकी (पिनाकपाणि महादेव) मेरा कुछ भी अहसान नहीं मानते॥ १५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिषु पावकु ब्याल कराल गरें, सरनागत तौ तिहुँ ताप न डाढ़े।
भूत-बेताल सखा, भव नामु, दलै पलमें भवके भय गाढ़े॥
तुलसीसु दरिद्र-सिरोमनि, सो सुमिरें दुख-दारिद होहिं न ठाढ़े।
भौनमें भाँग, धतुरोई आँगन, नागेके आगें हैं मागने बाढ़े॥
मूल
बिषु पावकु ब्याल कराल गरें, सरनागत तौ तिहुँ ताप न डाढ़े।
भूत-बेताल सखा, भव नामु, दलै पलमें भवके भय गाढ़े॥
तुलसीसु दरिद्र-सिरोमनि, सो सुमिरें दुख-दारिद होहिं न ठाढ़े।
भौनमें भाँग, धतुरोई आँगन, नागेके आगें हैं मागने बाढ़े॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह स्वयं तो गलेमें भयंकर विष और भीषण सर्प तथा [नेत्रामें] अग्नि धारण किये हुए हैं, किंतु इसके शरणागत तीनों तापोंसे दग्ध नहीं होते। इसके साथी तो भूत-वेतालादि हैं और नाम भी ‘भव’ है; परंतु यह भव (संसार) के भारी भयोंको पलभरमें नष्ट कर देता है। यह तुलसीका स्वामी (महादेव) है तो दरिद्रशिरोमणि-सा, किंतु इसका स्मरण करनेपर दुःख और दारिद्रॺ ठहरने नहीं पाते। इसके घरमें केवल भाँग है और आँगनमें केवल धतूरा; परंतु इस नंगेके आगे माँगनेवाले निरन्तर बढ़ते ही रहते हैं॥ १५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सीस बसै बरदा, बरदानि, चढ़ॺो बरदा, घरन्यो बरदा है।
धाम धतूरो, बिभूतिको कूरो, निवासु जहाँ सब लै मरे दाहैं॥
ब्याली कपाली है ख्याली, चहूँ दिसि भाँगकी टाटिन्हके परदा हैं।
राँकसिरोमनि काकिनिभाग बिलोकत लोकप को करदा है॥
मूल
सीस बसै बरदा, बरदानि, चढ़ॺो बरदा, घरन्यो बरदा है।
धाम धतूरो, बिभूतिको कूरो, निवासु जहाँ सब लै मरे दाहैं॥
ब्याली कपाली है ख्याली, चहूँ दिसि भाँगकी टाटिन्हके परदा हैं।
राँकसिरोमनि काकिनिभाग बिलोकत लोकप को करदा है॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके मस्तकपर वरदायिनी गङ्गाजी विराजती हैं, स्वयं भी वरदायक अथवा श्रेष्ठ दानी है। बरदा (बैल) पर ही चढ़ा हुआ है और इसकी गृहिणी भी वरदायिनी पार्वती हैं। इसके घरमें धतूरा और भस्मका ही ढेर है तथा इसका निवासस्थान वहाँ है, जहाँ सब लोग मुर्दोंको ले जाकर जलाते हैं। यह सर्प और कपाल धारण करनेवाला बड़ा कौतुकी है; इसके घरमें चारों ओर भाँगकी टट्टियोंके परदे लगे हुए हैं। यह आधी दमड़ीकी हैसियतवाले कंगालोंके शिरोमणिको भी लोकपाल बना देता है॥ १५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दानि जो चारि पदारथको, त्रिपुरारि, तिहूँ पुरमें सिर टीको।
भोरो भलो, भले भायको भूखो, भलोई कियो सुमिरें तुलसीको॥
ता बिनु आसको दास भयो, कबहूँ न मिटॺो लघु लालचु जीको।
साधो कहा करि साधन तैं, जो पै राधो नहीं पति पारबतीको॥
मूल
दानि जो चारि पदारथको, त्रिपुरारि, तिहूँ पुरमें सिर टीको।
भोरो भलो, भले भायको भूखो, भलोई कियो सुमिरें तुलसीको॥
ता बिनु आसको दास भयो, कबहूँ न मिटॺो लघु लालचु जीको।
साधो कहा करि साधन तैं, जो पै राधो नहीं पति पारबतीको॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष—इन चारों पदार्थोंका दाता है, त्रिपुरासुरका वध करनेवाला और तीनों लोकोंमें सबका सिरमौर बना हुआ है। जो बड़ा भोला है, केवल शुद्ध भावका भूखा है तथा स्मरण करनेपर जिसने तुलसीदासका भी भला ही किया है, उसको छोड़कर तू विषयोंकी आशाका दास बना हुआ है, किंतु तुम्हारे जीका तुच्छ लोभ कभी नष्ट नहीं हुआ, [तुलसीदास कहते हैं—] यदि तूने पार्वतीपति भगवान् शंकरकी आराधना नहीं की तो बहुत-से साधन करके भी क्या फल पाया?॥ १५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जात जरे सब लोक बिलोकि तिलोचन सो बिषु लोकि लियो है।
पान कियो बिषु, भूषन भो, करुनाबरुनालय साइँ-हियो है॥
मेरोइ फोरिबे जोगु कपारु, किधौं कछु काहूँ लखाइ दियो है।
काहे न कान करौ बिनती तुलसी कलिकाल बेहाल कियो है॥
मूल
जात जरे सब लोक बिलोकि तिलोचन सो बिषु लोकि लियो है।
पान कियो बिषु, भूषन भो, करुनाबरुनालय साइँ-हियो है॥
मेरोइ फोरिबे जोगु कपारु, किधौं कछु काहूँ लखाइ दियो है।
काहे न कान करौ बिनती तुलसी कलिकाल बेहाल कियो है॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण लोक जले जा रहे हैं, यह देखकर त्रिनयन भगवान् शंकरने उस हालाहल विषको लपककर लिया और शीघ्रतासे पी लिया; इससे वह विष आपका आभूषण हो गया। हे स्वामी! आपका हृदय तो करुणाका समुद्र है। मालूम नहीं, मेरा भाग्य ही फोड़ने योग्य है अथवा आपहीको किसीने मेरा कोई दोष दिखा दिया है। हे शंकर! इस तुलसीको कलिकालने व्याकुल कर दिया है, आप इसकी प्रार्थनापर ध्यान क्यों नहीं देते?॥ १५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
खायो कालकूटु, भयो अजर अमर तनु,
भवनु मसानु, गथ गाठरी गरदकी।
डमरू कपालु कर, भूषन कराल ब्याल,
बावरे बड़ेकी रीझ बाहन बरदकी॥
तुलसी बिसाल गोरे गात बिलसति भूति,
मानो हिमगिरि चारु चाँदनी सरदकी।
अर्थ-धर्म-काम-मोच्छ बसत बिलोकनिमें,
कासी करामाति जोगी जागति मरदकी॥
मूल
खायो कालकूटु, भयो अजर अमर तनु,
भवनु मसानु, गथ गाठरी गरदकी।
डमरू कपालु कर, भूषन कराल ब्याल,
बावरे बड़ेकी रीझ बाहन बरदकी॥
तुलसी बिसाल गोरे गात बिलसति भूति,
मानो हिमगिरि चारु चाँदनी सरदकी।
अर्थ-धर्म-काम-मोच्छ बसत बिलोकनिमें,
कासी करामाति जोगी जागति मरदकी॥
अनुवाद (हिन्दी)
(महादेवजीने) कालकूट विष खाया था, किंतु उनका शरीर अजर-अमर हो गया। अब श्मशान ही उनका निवासस्थान है और भस्मकी पोटली ही उनकी सम्पत्ति है। हाथमें डमरू और कपाल हैं। भयंकर सर्प ही उनके आभूषण हैं तथा उस अत्यन्त बावले महादेवकी बैलकी सवारीपर ही बड़ी रीझ (रुचि) है। तुलसीदासजी कहते हैं—उसके अति विशाल गौर शरीरपर विभूति सुशोभित है। सो ऐसी जान पड़ती है, मानो हिमालय पर्वतपर शरत्कालीन चन्द्रिका छिटक रही हो। अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष—ये तो उसकी दृष्टिमें ही विराजते हैं, उस मर्द योगीकी करामात काशीमें प्रकट हो रही है॥ १५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिंगल जटाकलापु माथेपै पुनीत आपु,
पावक नैना प्रताप भ्रूपर बरत है।
लोयन बिसाल लाल, सोहै बालचंद्र भाल,
कंठ कालकूटु, ब्याल-भूषन धरत है॥
सुंदर दिगंबर, बिभूति गात, भाँग खात,
रूरे सृंगी पूरें काल-कंटक हरत हैं।
देत न अघात रीझि, जात पात आकहीकें
भोरानाथ जोगी जब औढर ढरत हैं॥
मूल
पिंगल जटाकलापु माथेपै पुनीत आपु,
पावक नैना प्रताप भ्रूपर बरत है।
लोयन बिसाल लाल, सोहै बालचंद्र भाल,
कंठ कालकूटु, ब्याल-भूषन धरत है॥
सुंदर दिगंबर, बिभूति गात, भाँग खात,
रूरे सृंगी पूरें काल-कंटक हरत हैं।
देत न अघात रीझि, जात पात आकहीकें
भोरानाथ जोगी जब औढर ढरत हैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका जटाजूट पिंगलवर्ण है, मस्तकपर परमपवित्र गङ्गाजल सुशोभित है तथा उनके नेत्रस्थित अग्निकी ज्योति उनकी भौंहोंपर दमकती है। उनके नेत्र विशाल और अरुणवर्ण हैं, ललाटपर द्वितीयाका चन्द्र शोभायमान है, गलेमें कालकूट विष है तथा वे सर्पोंके आभूषण धारण किये हुए हैं। उनका अति सुन्दर दिगम्बर वेष है और वे शरीरमें भस्म रमाये रहते हैं, भाँग खाते हैं तथा सींगका मनोहर शब्द करके कालरूपी कण्टकको निवृत्त कर देते हैं। जिस समय वे भोलानाथ योगी बेतरह प्रसन्न होते हैं, उस समय वे देते-देते अघाते नहीं और स्वयं आकके पत्तोंसे ही रीझ जाते हैं॥ १५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देत संपदासमेत श्रीनिकेत जाचकनि,
भवन बिभूति-भाँग, बृषभ बहनु है।
नाम बामदेव दाहिनो सदा असंग रंग
अर्द्ध अंग अंगना, अनंगको महनु है॥
तुलसी महेसको प्रभाव भावहीं सुगम
निगम-अगमहूको जानिबो गहनु है।
भेष तौ भिखारिको भयंकररूप संकर
दयाल दीनबंधु दानि दारिददहनु है॥
मूल
देत संपदासमेत श्रीनिकेत जाचकनि,
भवन बिभूति-भाँग, बृषभ बहनु है।
नाम बामदेव दाहिनो सदा असंग रंग
अर्द्ध अंग अंगना, अनंगको महनु है॥
तुलसी महेसको प्रभाव भावहीं सुगम
निगम-अगमहूको जानिबो गहनु है।
भेष तौ भिखारिको भयंकररूप संकर
दयाल दीनबंधु दानि दारिददहनु है॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो माँगनेवालोंको सम्पत्तिसहित श्रीसम्पन्न (अथवा लक्ष्मीजीका भवन अर्थात् वैकुण्ठ) भवन देते हैं, किंतु जिनके घरमें केवल विभूति (भस्म) और भाँग है और चढ़नेके लिये जिनके बैलकी सवारी है, जिनका नाम तो ‘वामदेव’ है, किंतु जो सर्वदा सबको दाहिने (अनुकूल) रहते हैं, सदा असंग (निर्लेपता) का ठाट रहनेपर भी जिनके अर्धाङ्गमें पार्वतीजी रहती हैं तथा जो कामदेवका मथन करनेवाले हैं; तुलसीदासजी कहते हैं—उन श्रीमहादेवजीका प्रभाव भाव (भक्ति) से ही सुलभ है, नहीं तो वेद-शास्त्रके लिये भी उसका जानना अत्यन्त कठिन है। उनका वेष तो भिक्षुकोंका-सा है तथा रूप भी बड़ा भयानक है, किंतु वे शंकर (कल्याण करनेवाले), दीनबन्धु, दयामय, दानिशिरोमणि तथा दारिद्रॺका नाश करनेवाले हैं॥ १६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चाहै न अनंग-अरि एकौ अंग मागनेको
देबोई पै जानिये, सुभावसिद्ध बानि सो।
बारि बुंद चारि त्रिपुरारि पर डारिये तौ
देत फल चारि, लेत सेवा साँची मानि सो॥
तुलसी भरोसो न भवेस भोरानाथ को तौ
कोटिक कलेस करौ, मरौ छार छानि सो।
दारिद दमन दुख-दोष दाह दावानल
दुनी न दयाल दूजो दानि सूलपानि-सो॥
मूल
चाहै न अनंग-अरि एकौ अंग मागनेको
देबोई पै जानिये, सुभावसिद्ध बानि सो।
बारि बुंद चारि त्रिपुरारि पर डारिये तौ
देत फल चारि, लेत सेवा साँची मानि सो॥
तुलसी भरोसो न भवेस भोरानाथ को तौ
कोटिक कलेस करौ, मरौ छार छानि सो।
दारिद दमन दुख-दोष दाह दावानल
दुनी न दयाल दूजो दानि सूलपानि-सो॥
अनुवाद (हिन्दी)
मदनमथन भगवान् शंकर माँगनेवालेसे [षोडशोपचारमेंसे] किसी भी अङ्गकी इच्छा नहीं करते; वे तो केवल देना ही जानते हैं, यह उनकी स्वभावसिद्ध आदत है, यदि उनपर पानीकी चार बूँदें भी डाल दी जायँ तो उसे ही वे सच्ची सेवा मान लेते हैं और उसके बदलेमें चारों फल दे डालते हैं। तुलसीदासजी कहते हैं—यदि तुम्हें विश्वेश्वर भगवान् भोलानाथका भरोसा नहीं है तो भले ही करोड़ों क्लेश करो और खाक छान-छानकर मर जाओ [पल्ले कुछ पड़नेका नहीं], संसारमें शूलपाणि श्रीमहादेवजीके समान दारिद्रॺको दूर करनेवाला तथा दुःख और दोषादिका दहन करनेके लिये दावानलरूप कोई दूसरा दयालु दानी नहीं है॥ १६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काहेको अनेक देव सेवत जागै मसान,
खोवत अपान, सठ! होत हठि प्रेत रे।
काहेको उपाय कोटि करत, मरत धाय,
जाचत नरेस देस-देसके, अचेत रे॥
तुलसी प्रतीति बिनु त्यागै तैं प्रयाग तनु,
धनहीके हेत दान देत कुरुखेत रे।
पात द्वै धतूरेके दै, भोरें कै, भवेससों,
सुरेसहूकी संपदा सुभायसों न लेत रे॥
मूल
काहेको अनेक देव सेवत जागै मसान,
खोवत अपान, सठ! होत हठि प्रेत रे।
काहेको उपाय कोटि करत, मरत धाय,
जाचत नरेस देस-देसके, अचेत रे॥
तुलसी प्रतीति बिनु त्यागै तैं प्रयाग तनु,
धनहीके हेत दान देत कुरुखेत रे।
पात द्वै धतूरेके दै, भोरें कै, भवेससों,
सुरेसहूकी संपदा सुभायसों न लेत रे॥
अनुवाद (हिन्दी)
अरे, अनेक देवताओंकी उपासनामें लगा रहकर मशान क्यों जगाता है? अरे मूर्ख! इस प्रकार तू अपनी प्रतिष्ठा खोकर आग्रहपूर्वक प्रेत क्यों बनता है? अरे अज्ञानी! तू करोड़ों उपाय करके दौड़-दौड़कर क्यों मरता है तथा देश-देशके राजाओंसे क्यों याचना करता फिरता है? तुलसीदासजी कहते हैं—बिना विश्वासके ही तू प्रयागमें देहत्याग करता है तथा धनके लिये ही तू कुरुक्षेत्रमें दान देता है। [उससे भी तुझे क्या लाभ होगा?] अरे, भवनाथको धतूरेके दो पत्ते देकर और इस प्रकार उन्हें भुलावा देकर उनसे सहजहीमें इन्द्रकी सम्पत्ति क्यों नहीं ले लेता?॥ १६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्यंदन, गयंद, बाजिराजि, भले, भले, भट,
धन-धाम-निकर करनिहूँ न पूजै क्वै।
बनिता बिनीत, पूत पावन सोहावन, औ
बिनय, बिबेक, बिद्या सुभग सरीर ज्वै॥
इहाँ ऐसो सुख, परलोक सिवलोक ओक,
जाको फल तुलसी सो सुनौ सावधान ह्वै।
जानें, बिनु जानें, कै रिसानें, केलि कबहुँक
सिवहि चढ़ाए ह्वैहैं बेलके पतौवा द्वै॥
मूल
स्यंदन, गयंद, बाजिराजि, भले, भले, भट,
धन-धाम-निकर करनिहूँ न पूजै क्वै।
बनिता बिनीत, पूत पावन सोहावन, औ
बिनय, बिबेक, बिद्या सुभग सरीर ज्वै॥
इहाँ ऐसो सुख, परलोक सिवलोक ओक,
जाको फल तुलसी सो सुनौ सावधान ह्वै।
जानें, बिनु जानें, कै रिसानें, केलि कबहुँक
सिवहि चढ़ाए ह्वैहैं बेलके पतौवा द्वै॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके यहाँ रथ, हाथी और घोड़ोंकी कतारें लगी हुई हैं, अच्छे-अच्छे योद्धा तथा धन-धामकी भी अधिकता है और जिसकी करनीको भी कोई नहीं पहुँच सकता; जिसकी स्त्री अत्यन्त विनीत, पुत्र बड़ा सदाचारी और सुन्दर तथा जिसे विनय, विवेक, विद्या और सुन्दर शरीर प्राप्त है। तुलसीदासजी कहते हैं—इस प्रकार उसे जो यहाँ ऐसा सुख प्राप्त है और परलोकमें—शिवलोकमें स्थान मिलता है, यह सब फल जिस कर्मका है, उसे सावधान होकर सुनो—उसने जानकर, बिना जाने, रूठकर अथवा खेलमें ही किसी समय श्रीमहादेवजीपर बेलके दो पत्ते चढ़ा दिये होंगे॥ १६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रति-सी रवनि, सिंधुमेखला अवनि पति
औनिप अनेक ठाढ़े हाथ जोरि हारि कै।
संपदा-समाज देखि लाज सुरराजहूकें
सुख सब बिधि बिधि दीन्हे हैं सवाँरि कै॥
इहाँ ऐसो सुख, सुरलोक सुरनाथपद,
जाको फल तुलसी सो कहैगो बिचारि कै।
आकके पतौआ चारि, फूल कै धतूरेके द्वै
दीन्हें ह्वैहैं बारक पुरारिपर डारिकै॥
मूल
रति-सी रवनि, सिंधुमेखला अवनि पति
औनिप अनेक ठाढ़े हाथ जोरि हारि कै।
संपदा-समाज देखि लाज सुरराजहूकें
सुख सब बिधि बिधि दीन्हे हैं सवाँरि कै॥
इहाँ ऐसो सुख, सुरलोक सुरनाथपद,
जाको फल तुलसी सो कहैगो बिचारि कै।
आकके पतौआ चारि, फूल कै धतूरेके द्वै
दीन्हें ह्वैहैं बारक पुरारिपर डारिकै॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके रतिके समान सुन्दरी स्त्री है, जो आसमुद्र भूमण्डलका अधिपति है, जिससे परास्त होकर अनेकों राजालोग हाथ जोड़े खड़े रहते हैं, जिसकी सम्पत्ति और साज-समाजको देखकर देवराज इन्द्रको भी लज्जा होती है; इस प्रकार जिसे विधाताने सभी प्रकारके सुख जुटाकर दिये हैं। जिसे इस लोकमें ऐसा सुख है, और परलोकमें इन्द्रपद प्राप्त होता है, उसे यह सब जिस कर्मका फल मिला है, उसे तुलसीदास विचारकर कहता है—उसने या तो आकके चार पत्ते अथवा धतूरेके दो फूल एक बार महादेवजीपर डाल दिये होंगे॥ १६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवसरि सेवौं बामदेव गाउँ रावरेहीं
नाम रामहीके मागि उदर भरत हौं।
दीबे जोग तुलसी न लेत काहूको कछुक,
लिखी न भलाई भाल, पोच न करत हौं॥
एते पर हूँ जो कोऊ रावरो ह्वै जोर करै,
ताको जोर, देव! दीन द्वारें गुदरत हौं।
पाइ कै उराहनो उराहनो न दीजो मोहि,
कालकला कासीनाथ कहें निबरत हौं॥
मूल
देवसरि सेवौं बामदेव गाउँ रावरेहीं
नाम रामहीके मागि उदर भरत हौं।
दीबे जोग तुलसी न लेत काहूको कछुक,
लिखी न भलाई भाल, पोच न करत हौं॥
एते पर हूँ जो कोऊ रावरो ह्वै जोर करै,
ताको जोर, देव! दीन द्वारें गुदरत हौं।
पाइ कै उराहनो उराहनो न दीजो मोहि,
कालकला कासीनाथ कहें निबरत हौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे श्रीमहादेवजी! मैं आपहीकी पुरीमें रहकर श्रीगङ्गाजीका सेवन करता हूँ तथा रामके नामपर टुकड़े माँगकर पेट भरता हूँ। यह तुलसी कुछ देने योग्य नहीं है, तो किसीका कुछ लेता भी नहीं, भलाई तो मेरे भाग्यमें ही नहीं लिखी, परंतु मैं कोई बुराई भी नहीं करता। इतनेपर भी यदि कोई व्यक्ति आपका भक्त कहलाकर भी मुझसे बलात्कार करता है तो उसका वह बलप्रयोग दीन होकर आपके द्वारपर निवेदन कर देता हूँ। हे काशीनाथ! [मेरे प्रभु श्रीरघुनाथजीसे] उलाहना पाकर मुझे उलाहना मत देना [कि तुमने मुझे अपने कष्टकी सूचना क्यों नहीं दी] इसलिये मैं कालकी करतूत आपसे कहकर छुट्टी ले लेता हूँ*॥ १६५॥
पादटिप्पनी
- गोसाईंजीकी बढ़ती हुई प्रतिष्ठा देखकर काशीके बहुत-से विद्वानोंको सहन नहीं हुई।
वे लोग तरह-तरहसे उन्हें कष्ट पहुँचानेका प्रयत्न करने लगे। उस समय गोसाईंजीने यह कवित्त रचकर श्रीमहादेवजीके यहाँ फरियाद की।
विश्वास-प्रस्तुतिः
चेरो रामराइको, सुजस सुनि तेरो, हर!
पाइ तर आइ रह्यौं सुरसरितीर हौं।
बामदेव! रामको सुभाव-सील जानियत
नातो नेह जानियत रघुबीर भीर हौं॥
अधिभूत बेदन बिषम होत, भूतनाथ
तुलसी बिकल, पाहि! पचत कुपीर हौं।
मारिये तौ अनायास कासीबास खास फल,
ज्याइये तौ कृपा करि निरुजसरीर हौं॥
मूल
चेरो रामराइको, सुजस सुनि तेरो, हर!
पाइ तर आइ रह्यौं सुरसरितीर हौं।
बामदेव! रामको सुभाव-सील जानियत
नातो नेह जानियत रघुबीर भीर हौं॥
अधिभूत बेदन बिषम होत, भूतनाथ
तुलसी बिकल, पाहि! पचत कुपीर हौं।
मारिये तौ अनायास कासीबास खास फल,
ज्याइये तौ कृपा करि निरुजसरीर हौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे शंकर! मैं महाराज रामका दास हूँ, आपका सुयश सुनकर आपके चरणोंमें श्रीगङ्गाजीके तटपर आ बसा हूँ। हे महादेवजी! आप श्रीरघुनाथजीका शील-स्वभाव और हमारा स्नेह-सम्बन्ध तो जानते ही हैं; मैं श्रीरामचन्द्रजीसे ही डरता हूँ। हे भूतनाथ! मेरे इस आधिभौतिक शरीरमें बड़ी प्रबल पीड़ा हो रही है, इससे तुलसीदास बहुत व्याकुल है; इस कुत्सित पीड़ासे मैं घुला जाता हूँ, आप रक्षा कीजिये। इससे तो यदि आप मार दें तो अनायास ही काशीवासका मुख्य फल प्राप्त हो जाय और यदि जिलाना चाहें तो कृपा करके मेरा शरीर नीरोग कर दीजिये*॥ १६६॥
पादटिप्पनी
- एक बार भैरवजीने गोसाईंजीकी भुजामें दर्द उत्पन्न कर दिया था। उस समय उन्होंने इन तीन कवित्तोंद्वारा श्रीविश्वनाथकी प्रार्थना की थी।
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीबेकी न लालसा, दयाल महादेव! मोहि,
मालुम है तोहि, मरिबेईको रहतु हौं।
कामरिपु! रामके गुलामनिको कामतरु!
अवलंब जगदंब सहित चहतु हौं॥
रोग भयो भूत-सो, कुसूत भयो तुलसीको,
भूतनाथ, पाहि! पदपंकज गहतु हौं।
ज्याइये तौ जानकीरमन-जन जानि जियँ
मारिये तौ मागी मीचु सूधियै कहतु हौं॥
मूल
जीबेकी न लालसा, दयाल महादेव! मोहि,
मालुम है तोहि, मरिबेईको रहतु हौं।
कामरिपु! रामके गुलामनिको कामतरु!
अवलंब जगदंब सहित चहतु हौं॥
रोग भयो भूत-सो, कुसूत भयो तुलसीको,
भूतनाथ, पाहि! पदपंकज गहतु हौं।
ज्याइये तौ जानकीरमन-जन जानि जियँ
मारिये तौ मागी मीचु सूधियै कहतु हौं॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे दयामय महादेवजी! मुझे जीवित रहनेकी इच्छा नहीं है। यह आप जानते ही हैं कि मैं मरनेके ही लिये (काशीपुरीमें) रहता हूँ। हे कामारि! आप भगवान् रामके दासोंके लिये कल्पवृक्षके समान हैं; मैं जगन्माता पार्वतीजीके सहित आपका आश्रय चाहता हूँ। (भैरवजीकी प्रेरणासे) यह रोग भूतकी तरह मेरे पीछे लग गया है, जिसके कारण इस तुलसीदासको बड़ा कष्ट हो रहा है; अतः हे भूतनाथ! आप रक्षा कीजिये, मैं आपके चरणकमल पकड़ता हूँ। यदि मुझे जिलाना है तो जानकीवल्लभका दास जानकर जिलाइये और यदि मारना है तो आपसे साफ-साफ कहता हूँ, मुझे मुँहमाँगी मौत दीजिये (अर्थात् मृत्यु तो मैं स्वयं भी माँगता हूँ; वह मुझे प्रसन्नतापूर्वक दीजिये)॥ १६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूतभव! भवत पिसाच-भूत-प्रेत-प्रिय,
आपनो, समाज सिव आपु नीकें जानिये।
नाना बेष, बाहन, बिभूषन, बसन, बास,
खान-पान, बलि-पूजा बिधि को बखानिये॥
रामके गुलामनिकी रीति, प्रीति सूधी सब,
सबसों सनेह, सबहीको सनमानिये।
तुलसीकी सुधरै सुधारे भूतनाथहीके
मेरे माय बाप गुरु संकर-भवानिये॥
मूल
भूतभव! भवत पिसाच-भूत-प्रेत-प्रिय,
आपनो, समाज सिव आपु नीकें जानिये।
नाना बेष, बाहन, बिभूषन, बसन, बास,
खान-पान, बलि-पूजा बिधि को बखानिये॥
रामके गुलामनिकी रीति, प्रीति सूधी सब,
सबसों सनेह, सबहीको सनमानिये।
तुलसीकी सुधरै सुधारे भूतनाथहीके
मेरे माय बाप गुरु संकर-भवानिये॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे पञ्चमहाभूतोंके कारणस्वरूप शिवजी! आपको भूत, प्रेत एवं पिशाच प्रिय हैं, आप अपने समाजको अच्छी तरह जानते हैं। उनके वेष, वाहन, आभूषण, वस्त्र, निवासस्थान, खान-पान, बलि और पूजाविधि अनेक प्रकारके हैं, उनका कौन वर्णन कर सकता है? रामके दासोंका व्यवहार और प्रेम तो सीधा-सादा होता है। वे सभीसे प्रेम रखते हैं और सभीका सम्मान करते हैं। [अतः मेरे व्यवहारसे मेरा सम्मान बढ़ा देखकर जो भैरवजीने मुझे दण्ड दिया है, उसमें मेरा क्या अपराध है।] अब तुलसीदासकी बात तो श्रीभूतनाथके सुधारनेसे ही सुधरेगी—मेरे माता-पिता और गुरु तो श्रीशंकर और पार्वतीजी ही हैं॥ १६८॥
काशीमें महामारी
विश्वास-प्रस्तुतिः
गौरीनाथ, भोरानाथ, भवत भवानीनाथ!
बिस्वनाथपुर फिरी आन कलिकालकी।
संकर-से नर, गिरिजा-सी नारीं कासीबासी,
बेद कही, सही ससिसेखर कृपालकी॥
छमुख-गनेस तें महेसके पियारे लोग
बिकल बिलोकियत, नगरी बिहालकी।
पुरी-सुरबेलि केलि काटत किरात कलि
निठुर निहारिये उघारि डीठि भालकी॥
मूल
गौरीनाथ, भोरानाथ, भवत भवानीनाथ!
बिस्वनाथपुर फिरी आन कलिकालकी।
संकर-से नर, गिरिजा-सी नारीं कासीबासी,
बेद कही, सही ससिसेखर कृपालकी॥
छमुख-गनेस तें महेसके पियारे लोग
बिकल बिलोकियत, नगरी बिहालकी।
पुरी-सुरबेलि केलि काटत किरात कलि
निठुर निहारिये उघारि डीठि भालकी॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे पार्वतीपते! हे भोलानाथ! हे भवानीपते! इस विश्वनाथपुरी काशीमें आज कलिकालकी दुहाई फिरी हुई है। काशीमें रहनेवाले पुरुष शंकरके समान हैं और स्त्रियाँ पार्वतीजीके सदृश हैं—ऐसा वेदने कहा है और इसपर कृपालु चन्द्रशेखरकी भी सही है, किंतु हे महेश! आज [कलिके प्रतापसे] वे लोग जो शंकरको षडानन और गणेशसे भी प्यारे हैं, बड़े व्याकुल दीख पड़ते हैं, सारी काशीपुरीको [इस कलिने] बेहाल कर दिया है। यह कलिरूप निष्ठुर किरात आपकी पुरीरूप कल्पलताको खेलहीमें काट रहा है। इसे अपने मस्तकका नेत्र खोलकर देखिये॥ १६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ठाकुर महेस, ठकुराइनि उमा-सी जहाँ,
लोक-बेदहूँ बिदित महिमा ठहरकी।
भट रुद्रगन, पूत गनपति-सेनापति,
कलिकालकी कुचाल काहू तौ न हरकी॥
बीसीं बिस्वनाथकी बिषाद बड़ो बारानसीं,
बूझिए न ऐसी गति संकर-सहरकी।
कैसे कहै तुलसी बृषासुरके बरदानि
बानि जानि सुधा तजि पीवनि जहरकी॥
मूल
ठाकुर महेस, ठकुराइनि उमा-सी जहाँ,
लोक-बेदहूँ बिदित महिमा ठहरकी।
भट रुद्रगन, पूत गनपति-सेनापति,
कलिकालकी कुचाल काहू तौ न हरकी॥
बीसीं बिस्वनाथकी बिषाद बड़ो बारानसीं,
बूझिए न ऐसी गति संकर-सहरकी।
कैसे कहै तुलसी बृषासुरके बरदानि
बानि जानि सुधा तजि पीवनि जहरकी॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँके महादेवजी-जैसे स्वामी और पार्वतीजी-जैसी स्वामिनी हैं तथा लोक और वेदमें भी जिस स्थानकी महिमा प्रसिद्ध है, जहाँ रुद्रके गण ही योद्धा हैं और श्रीषडानन एवं गणेशजी सेनापति हैं, वहाँ भी कलिकी कुचालको किसीने नहीं रोका। इस विश्वनाथकी बीसीमें उस वाराणसीमें बड़ा भारी विषाद छाया हुआ है, शंकरके नगरकी ऐसी दुर्दशा है कि पूछो मत। वे भस्मासुरको वर देनेवाले ठहरे, उनका अमृत छोड़कर विष पीनेका स्वभाव जानकर भी तुलसीदास उनके विषयमें किस प्रकार कोई बात कह सकता है? [अर्थात् उनका तो स्वभाव ही उलटा है, इसलिये नगरकी चिन्ता न कर यदि वे कलियुगको पाले हुए हैं तो कोई आश्चर्य नहीं।]॥ १७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोक-बेदहूँ बिदित बारानसीकी बड़ाई
बासी नरनारि ईस-अंबिका-सरूप हैं।
कालनाथ कोतवाल, दंडकारि दंडपानि,
सभासद गनप-से अमित अनूप हैं॥
तहाँऊँ कुचालि कलिकालकी कुरीति, कैधौं
जानत न मूढ़ इहाँ भूतनाथ भूप हैं।
फलैं फूलैं फैलैं खल, सीदैं साधु पल-पल
खाती दीपमालिका, ठठाइयत सूप हैं॥
मूल
लोक-बेदहूँ बिदित बारानसीकी बड़ाई
बासी नरनारि ईस-अंबिका-सरूप हैं।
कालनाथ कोतवाल, दंडकारि दंडपानि,
सभासद गनप-से अमित अनूप हैं॥
तहाँऊँ कुचालि कलिकालकी कुरीति, कैधौं
जानत न मूढ़ इहाँ भूतनाथ भूप हैं।
फलैं फूलैं फैलैं खल, सीदैं साधु पल-पल
खाती दीपमालिका, ठठाइयत सूप हैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
काशीका महत्त्व लोक और वेद दोनोंमें प्रसिद्ध है। यहाँके निवासी श्रीशंकर और पार्वतीरूप हैं। कालभैरव-जैसे तो यहाँके कोतवाल हैं, दण्डपाणि भैरव-जैसे दण्ड देनेवाले जज हैं तथा गणेशजी-जैसे अनेकों अनुपम सभासद् हैं। किंतु कुचालि कलियुगने वहाँ भी अपनी कुचेष्टा नहीं छोड़ी। अथवा वह मूर्ख जानता नहीं कि यहाँके राजा साक्षात् भूतनाथ हैं। [आजकल सब बातें उलटी देखनेमें आती हैं] दुष्ट लोग तो खूब फलते, फूलते और फैलते हैं तथा साधुजन पल-पलमें दुःख उठाते हैं, जैसे कहावत है—घी तो खाय दीपमालिका और दूसरे दिन ठोंका जाता है सूप॥ १७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पंचकोस पुन्यकोस स्वारथ-परमारथको
जानि आपु आपने सुपास बास दियो है।
नीच नर-नारि न सँभारि सके आदर,
लहत फल कादर बिचारि जो न कियो है॥
बारी बारानसी बिनु कहे चक्रपानि चक्र,
मानि हितहानि सो मुरारि मन भियो है।
रोसमें भरोसो एक आसुतोस कहि जात
बिकल बिलोकि लोक कालकूट पियो है॥
मूल
पंचकोस पुन्यकोस स्वारथ-परमारथको
जानि आपु आपने सुपास बास दियो है।
नीच नर-नारि न सँभारि सके आदर,
लहत फल कादर बिचारि जो न कियो है॥
बारी बारानसी बिनु कहे चक्रपानि चक्र,
मानि हितहानि सो मुरारि मन भियो है।
रोसमें भरोसो एक आसुतोस कहि जात
बिकल बिलोकि लोक कालकूट पियो है॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाँच कोसके बीचमें बसा हुआ काशीक्षेत्र पुण्यका खजाना और स्वार्थ-परमार्थ दोनोंका साधक है—यह जानकर आपने यहाँके निवासियोंको अपने पार्श्वमें बसाया है, किंतु नीच स्त्री-पुरुष इस आदरको सह नहीं सके; इसलिये उन्होंने जो कर्म विचारकर नहीं किये, उन्हींका फल वे कायरलोग भोगते हैं। किंतु यह कलिकाल आपसे भय नहीं मानता, यह बड़े आश्चर्यकी बात है। देखिये, सुदर्शन चक्रने भगवान् कृष्णके बिना कहे ही [मिथ्यावासुदेव पौण्ड्रकका वध करनेके अनन्तर] काशीको जला दिया था [उसमें यद्यपि श्रीकृष्णका कोई अपराध नहीं था तो भी] आपके प्रेमकी हानि जानकर उनके चित्तमें बड़ा ही संकोच है, [फिर बेचारा कलि तो किस खेतकी मूली है।] दैवका कोप होनेपर तो एकमात्र आप आशुतोषका ही भरोसा कहा जाता है, क्योंकि लोकोंको व्याकुल देखकर आपहीने तो कालकूट विष पिया था॥ १७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रचत बिरंचि, हरि पालत, हरत हर
तेरे हीं प्रसाद जग, अग-जग-पालिके।
तोहिमें बिकास बिस्व, तोहिमें बिलास सब,
तोहिमें समात, मातु भूमिधरबालिके॥
दीजै अवलंब, जगदंब! न बिलंब कीजै,
करुनातरंगिनी कृपा-तरंग-मालिके।
रोष महामारी, परितोष महतारी दुनी
देखिये दुखारी, मुनि-मानस-मरालिके॥
मूल
रचत बिरंचि, हरि पालत, हरत हर
तेरे हीं प्रसाद जग, अग-जग-पालिके।
तोहिमें बिकास बिस्व, तोहिमें बिलास सब,
तोहिमें समात, मातु भूमिधरबालिके॥
दीजै अवलंब, जगदंब! न बिलंब कीजै,
करुनातरंगिनी कृपा-तरंग-मालिके।
रोष महामारी, परितोष महतारी दुनी
देखिये दुखारी, मुनि-मानस-मरालिके॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे चराचरका पालन करनेवाली माता पार्वती! तेरी ही कृपासे ब्रह्माजी सृष्टिकी रचना करते हैं, विष्णु पालन करते हैं और महादेवजी संहार करते हैं। सारे विश्वका तेरेहीमें विकास होता है, तेरेहीमें उसकी स्थिति है और फिर तेरेहीमें उसका लय होता है। हे जगज्जननी! तुम कृपा-तरङ्गावलिसे विभूषित करुणामयी सरिता हो। तुम देरी न करके मुझे आश्रय दो। हे मुनिमन-मानस-मरालिके! कुपित होनेपर तुम महामारी हो जाती हो और प्रसन्न होनेपर तुम्हीं संसारकी साक्षात् जननीस्वरूपा हो; अतः अब तुम कृपादृष्टिसे हम दुःखियोंकी ओर देखो॥ १७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निपट बसेरे अघ-औगुन घनेरे, नर-
नारिऊ अनेरे जगदंब! चेरी-चेरे हैं।
दारिद-दुखारी देबि भूसुर भिखारी-भीरु
लोभ मोह काम कोह कलिमल घेरे हैं॥
लोकरीति राखी राम, साखी बामदेव जानि
जनकी बिनति मानि मातु! कहि मेरे हैं।
महामारी महेसानि! महिमाकी खानि, मोद-
मंगलकी रासि, दास कासीबासी तेरे हैं॥
मूल
निपट बसेरे अघ-औगुन घनेरे, नर-
नारिऊ अनेरे जगदंब! चेरी-चेरे हैं।
दारिद-दुखारी देबि भूसुर भिखारी-भीरु
लोभ मोह काम कोह कलिमल घेरे हैं॥
लोकरीति राखी राम, साखी बामदेव जानि
जनकी बिनति मानि मातु! कहि मेरे हैं।
महामारी महेसानि! महिमाकी खानि, मोद-
मंगलकी रासि, दास कासीबासी तेरे हैं॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे जगन्मातः! यहाँके अन्यायी नर-नारी यद्यपि पाप और अवगुणोंके पूरे निवासस्थान हैं तो भी वे हैं तेरे ही दास-दासी। हे देवि! वे दरिद्रताके कारण अत्यन्त दुःखी हैं; ब्राह्मणलोग भिखमंगे और बड़े डरपोक हो गये हैं; इसलिये लोभ, मोह, काम और क्रोधरूप कलिकलुषने उन्हें घेर लिया है। देख, भगवान् रामने भी [अपनी प्रजाके गुण-दोषोंकी ओर दृष्टि न देकर] लोक-मर्यादाकी रक्षा की थी, इसमें स्वयं श्रीमहादेवजी साक्षी हैं—ऐसा जानकर हे मातः! इस दासकी प्रार्थनापर ध्यान देकर एक बार ऐसा कह दे कि ‘ये सब मेरे हैं।’ हे महामारी! हे महिमाकी खानि एवं मङ्गल और आनन्दकी राशि महेश्वरि! ये काशीवासी तेरे ही दास हैं॥ १७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोगनिकें पाप कैधौं, सिद्ध-सुर-साप कैधौं,
कालकें प्रताप कासी तिहूँ ताप तई है।
ऊँचे, नीचे, बीचके, धनिक, रंक, राजा, राय
हठनि बजाइ करि डीठि पीठि दई है॥
देवता निहोरे, महामारिन्ह सों कर जोरे,
भोरानाथ जानि भोरे आपनी-सी ठई है।
करुनानिधान हनुमान बीर बलवान!
जसरासि जहाँ-तहाँ तैंहीं लूटि लई है॥
मूल
लोगनिकें पाप कैधौं, सिद्ध-सुर-साप कैधौं,
कालकें प्रताप कासी तिहूँ ताप तई है।
ऊँचे, नीचे, बीचके, धनिक, रंक, राजा, राय
हठनि बजाइ करि डीठि पीठि दई है॥
देवता निहोरे, महामारिन्ह सों कर जोरे,
भोरानाथ जानि भोरे आपनी-सी ठई है।
करुनानिधान हनुमान बीर बलवान!
जसरासि जहाँ-तहाँ तैंहीं लूटि लई है॥
अनुवाद (हिन्दी)
न जाने लोगोंका पाप है अथवा सिद्ध और देवताओंका शाप है या समयका प्रताप है, जिसके कारण काशी तीनों तापोंसे तप रही है। इस समय ऊँच, नीच, मध्यम श्रेणीके लोग, धनी, निर्धन, राजा और राव सभीने हठपूर्वक, खुल्लम-खुल्ला सब कुछ देखकर भी पीठ फेर ली है। देवताओंकी प्रार्थना की और महामारियोंको भी हाथ जोड़े; परंतु इन्होंने भोलानाथको सीधा-सादा जानकर मनमानी ठान रखी है। हे करुणानिधान, बलवान् वीर हनुमान् जी! जहाँ-तहाँ आपहीने यशकी राशि लूटी है [अतः आप ही यहाँके लोगोंका भी दुःख दूर करके यशस्वी होइये]॥ १७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संकर-सहर सर, नरनारि बारिचर
बिकल, सकल, महामारी माजा भई है।
उछरत उतरात हहरात मरि जात,
भभरि भगात जल-थल मीचुमई है॥
देव न दयाल, महिपाल न कृपालचित,
बारानसीं बाढ़ति अनीति नित नई है।
पाहि रघुराज! पाहि कपिराज रामदूत!
रामहूकी बिगरी तुहीं सुधारि लई है॥
मूल
संकर-सहर सर, नरनारि बारिचर
बिकल, सकल, महामारी माजा भई है।
उछरत उतरात हहरात मरि जात,
भभरि भगात जल-थल मीचुमई है॥
देव न दयाल, महिपाल न कृपालचित,
बारानसीं बाढ़ति अनीति नित नई है।
पाहि रघुराज! पाहि कपिराज रामदूत!
रामहूकी बिगरी तुहीं सुधारि लई है॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस शिवपुरीरूप सरोवरके नर-नारीरूप समस्त जलचर बड़े व्याकुल हैं, यह महामारी उनके लिये माजा* हो रही है। वे उछलते हैं, तैरते हैं, घबराकर भागते हैं और हाय-हाय करके मर जाते हैं। इस प्रकार सारा जल-थल मृत्युमय हो रहा है। इस समय देवतालोग दया नहीं करते तथा राजालोग भी कृपालुचित्त नहीं हैं। अतः वाराणसीमें नित्य-नवीन अन्याय बढ़ रहा है। हे रघुराज! रक्षा कीजिये। हे वानरराज हनुमान् जी! रक्षा कीजिये; भगवान् रामकी बात बिगड़नेपर भी आपहीने उसे सँभाला था [अतः यहाँ भी आप ही कृपा कीजिये]॥ १७६॥
पादटिप्पनी
- जलचरोंमें होनेवाला एक प्रकारका रोग।
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक तौ कराल कलिकाल सूल-मूल, तामें
कोढ़मेंकी खाजु-सी सनीचरी है मीनकी।
बेद-धर्म दूरि गए , भूमि चोर भूप भए ,
साधु सीद्यमान जानि रीति पाप पीनकी॥
दूबरेको दूसरो न द्वार, राम दयाधाम!
रावरीऐ गति बल-बिभव बिहीन की।
लागैगी पै लाज वा बिराजमान बिरुदहि,
महाराज! आजु जौं न देत दादि दीनकी॥
मूल
एक तौ कराल कलिकाल सूल-मूल, तामें
कोढ़मेंकी खाजु-सी सनीचरी है मीनकी।
बेद-धर्म दूरि गए , भूमि चोर भूप भए ,
साधु सीद्यमान जानि रीति पाप पीनकी॥
दूबरेको दूसरो न द्वार, राम दयाधाम!
रावरीऐ गति बल-बिभव बिहीन की।
लागैगी पै लाज वा बिराजमान बिरुदहि,
महाराज! आजु जौं न देत दादि दीनकी॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक तो सारे दुःखोंका मूलभूत यह भयंकर कलिकाल और उसमें भी कोढ़में खाजके समान मीनराशिपर शनैश्चरकी स्थिति है। इसीसे इस समय वेद-धर्म तो लुप्त हो गये हैं, लुटेरे ही राजा हो गये तथा बढ़े हुए पापकी गति देखकर साधुजन दुःखी हैं। हे दयाधाम भगवान् राम! दुर्बल पुरुषोंके लिये कोई दूसरा द्वार नहीं है, बलवैभवशून्य पुरुषोंको तो एकमात्र आपकी ही गति है। हे महाराज! यदि इस समय आपने इन दीनोंकी सहायता न की तो आपके उस (सर्वोपरि) विराजमान विरदको लज्जित होना पड़ेगा॥ १७७॥
विविध
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामनाम मातु-पितु, स्वामि समरथ, हितु,
आस रामनामकी, भरोसो रामनामको।
प्रेम रामनामहीसों, नेम रामनामहीको,
जानौं नाम मरम पद दाहिनो न बामको॥
स्वारथ सकल परमारथको रामनाम,
रामनाम हीन तुलसी न काहू कामको।
रामकी सपथ, सरबस मेरें रामनाम,
कामधेनु-कामतरु मोसे छीन छामको॥
मूल
रामनाम मातु-पितु, स्वामि समरथ, हितु,
आस रामनामकी, भरोसो रामनामको।
प्रेम रामनामहीसों, नेम रामनामहीको,
जानौं नाम मरम पद दाहिनो न बामको॥
स्वारथ सकल परमारथको रामनाम,
रामनाम हीन तुलसी न काहू कामको।
रामकी सपथ, सरबस मेरें रामनाम,
कामधेनु-कामतरु मोसे छीन छामको॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामनाम ही मेरा माता-पिता है, वही मेरा समर्थ स्वामी और हितकारी है, मुझे रामनामसे ही सब प्रकारकी आशा है और रामनामका ही भरोसा है। रामनामसे ही मेरा प्रेम है और रामनाम जपनेका ही नियम है। [रामनामके अतिरिक्त] और किसी अनुकूल-प्रतिकूल मार्गका मुझे कोई भेद ज्ञात नहीं है। रामनाम ही मेरे सारे स्वार्थ और परमार्थको सिद्ध करनेवाला है, रामनामके बिना तुलसीदास किसी कामका नहीं है। मैं रामकी शपथ करके कहता हूँ—रामनाम ही मेरा सर्वस्व है और वही मेरे-जैसे दीन-दुर्बलके लिये कामधेनु और कल्पवृक्षके समान है॥ १७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मारग मारि, महीसुर मारि, कुमारग कोटिककै धन लीयो।
संकरकोपसों पापको दाम परिच्छित जाहिगो जारि कै हीयो॥
कासीमें कंटक जेते भये ते गे पाइ अघाइ कै आपनो कीयो।
आजु कि कालि परों कि नरों जड जाहिंगे चाटि दिवारीको दीयो॥
मूल
मारग मारि, महीसुर मारि, कुमारग कोटिककै धन लीयो।
संकरकोपसों पापको दाम परिच्छित जाहिगो जारि कै हीयो॥
कासीमें कंटक जेते भये ते गे पाइ अघाइ कै आपनो कीयो।
आजु कि कालि परों कि नरों जड जाहिंगे चाटि दिवारीको दीयो॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन लोगोंने पथिकोंको लूटकर अथवा ब्राह्मणोंको मार (सता) कर करोड़ों कुमार्गोंसे धन एकत्रित किया है, उनका वह धन भगवान् शंकरके कोपसे हृदयको जलाकर जायगा—यह बात खूब परीक्षा की हुई है। काशीमें जितने कण्टक (पापी) हुए हैं, वे अपनी करनीका भली प्रकार फल भोगकर नष्ट हो गये हैं। ये सब भी आजकल, परसों अथवा नरसों दिवालीका दीया चाटकर जायँगे ही [कहते हैं, दीपावलीका दीया चाटकर सर्प चले जाते हैं, फिर वे दिखायी नहीं देते। इसी प्रकार ये पापीलोग भी ऐसे नष्ट होंगे कि इनका कोई पता नहीं चलेगा]॥ १७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुंकुम-रंग सुअंग जितो, मुखचंदसों चंदसों होड़ परी है।
बोलत बोल समृद्धि चुवै, अवलोकत सोच-बिषाद हरी है॥
गौरी कि गंग बिहंगिनिबेष, कि मंजुल मूरति मोदभरी है।
पेखि सप्रेम पयान समै सब सोच-बिमोचन छेमकरी है॥
मूल
कुंकुम-रंग सुअंग जितो, मुखचंदसों चंदसों होड़ परी है।
बोलत बोल समृद्धि चुवै, अवलोकत सोच-बिषाद हरी है॥
गौरी कि गंग बिहंगिनिबेष, कि मंजुल मूरति मोदभरी है।
पेखि सप्रेम पयान समै सब सोच-बिमोचन छेमकरी है॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने अपने शरीरकी आभासे कुंकुमको जीत लिया है तथा जिसका मुखचन्द्र चन्द्रमासे होड़ बदता है, जिसके बोलनेमें सब प्रकारकी समृद्धि चूने लगती है और जो देखते ही सब प्रकारकी चिन्ता और खेदको हर लेती है, यह पक्षिणीके वेषमें साक्षात् गौरी है या गङ्गा? अथवा आनन्दसे परिपूर्ण किसी अन्य देवीकी मनोहर मूर्ति है। इस क्षेमकरी (लाल रंगकी चील्ह) को कहीं जाते समय प्रेमपूर्वक देखा जाय तो यह सब प्रकारके शोकोंकी निवृत्ति करनेवाली होती है॥ १८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मंगलकी रासि, परमारथकी खानि जानि
बिरचि बनाई बिधि, केसव बसाई है।
प्रलयहूँ काल राखी सूलपानि सूलपर,
मीचुबस नीच सोऊ चाहत खसाई है॥
छाडि छितिपाल जो परीछित भए कृपाल,
भलो कियो खलको, निकाई सो नसाई है।
पाहि हनुमान! करुनानिधान राम पाहि!
कासी-कामधेनु कलि कुहत कसाई है॥
मूल
मंगलकी रासि, परमारथकी खानि जानि
बिरचि बनाई बिधि, केसव बसाई है।
प्रलयहूँ काल राखी सूलपानि सूलपर,
मीचुबस नीच सोऊ चाहत खसाई है॥
छाडि छितिपाल जो परीछित भए कृपाल,
भलो कियो खलको, निकाई सो नसाई है।
पाहि हनुमान! करुनानिधान राम पाहि!
कासी-कामधेनु कलि कुहत कसाई है॥
अनुवाद (हिन्दी)
विधाताने काशीको मङ्गलकी राशि और परमार्थकी खानि जानकर रचा है और श्रीविष्णुभगवान् ने उसे बसाया है। प्रलयकालमें भी भगवान् शंकरने उसे अपने त्रिशूलपर रखकर बचाया था, उसीको यह मृत्युके वशीभूत हुआ नीच कलि गिराना चाहता है। महाराज परीक्षित् ने इसे छोड़कर इसपर कृपा की और इस दुष्टका भला किया; उस उपकारको इसने भुला ही दिया। हे हनुमान् जी! रक्षा कीजिये; हे करुणानिधान भगवान् राम! बचाइये, यह कलिरूप कसाई काशीरूप कामधेनुको मारे डालता है॥ १८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बिरची बिरंचिकी, बसति बिस्वनाथकी जो,
प्रानहू तें प्यारी पुरी केसव कृपालकी।
जोतिरूप लिंगमई अगनित लिंगमयी
मोच्छ बितरनि, बिदरनि जगजालकी॥
देबी-देव-देवसरि-सिद्ध-मुनिबर-बास
लोपति-बिलोकत कुलिपि भोंडे भालकी।
हा हा करै तुलसी, दयानिधान राम! ऐसी
कासीकी कदर्थना कराल कलिकालकी॥
मूल
बिरची बिरंचिकी, बसति बिस्वनाथकी जो,
प्रानहू तें प्यारी पुरी केसव कृपालकी।
जोतिरूप लिंगमई अगनित लिंगमयी
मोच्छ बितरनि, बिदरनि जगजालकी॥
देबी-देव-देवसरि-सिद्ध-मुनिबर-बास
लोपति-बिलोकत कुलिपि भोंडे भालकी।
हा हा करै तुलसी, दयानिधान राम! ऐसी
कासीकी कदर्थना कराल कलिकालकी॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो ब्रह्माजीकी रची हुई है और स्वयं विश्वनाथकी राजधानी है और जो कृपामय विष्णुभगवान् को प्राणोंसे भी प्यारी है, वह ज्योतिर्लिङ्गमयी और अगणित लिङ्गमयी पुरी मोक्षदान करनेवाली तथा जगज्जालको नष्ट करनेवाली है। वह देवी, देवता, सुरसरि, सिद्धजन और मुनिवरोंकी निवासभूमि है और दर्शनमात्रसे ही अभागोंके ललाटपर लिखी हुई दुर्भाग्यकी रेखाको मिटा देती है। ऐसी काशीकी भी इस कलिकालने दुर्दशा कर रखी है, जिसे देखकर, हे दयानिधान श्रीराम! यह तुलसीदास हाहा खाता है [आप कृपाकर इसकी रक्षा कीजिये]॥ १८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रम-बरन कलि बिबस बिकल भए
निज-निज मरजाद मोटरी-सी डार दी।
संकर सरोष महामारिहीतें जानियत,
साहिब सरोष दुनी दिन-दिन दारदी॥
नारि-नर आरत पुकारत, सुनै न कोऊ,
काहूँ देवतनि मिलि मोटी मूठि मारि दी।
तुलसी सभीतपाल सुमिरें कृपालराम
समय सुकरुना सराहि सनकार दी*॥
मूल
आश्रम-बरन कलि बिबस बिकल भए
निज-निज मरजाद मोटरी-सी डार दी।
संकर सरोष महामारिहीतें जानियत,
साहिब सरोष दुनी दिन-दिन दारदी॥
नारि-नर आरत पुकारत, सुनै न कोऊ,
काहूँ देवतनि मिलि मोटी मूठि मारि दी।
तुलसी सभीतपाल सुमिरें कृपालराम
समय सुकरुना सराहि सनकार दी*॥
पादटिप्पनी
- कुछ प्रतियोंमें १७७ छन्द ही मिलते हैं। काशी-नागरीप्रचारिणी सभाकी प्रतिमें १८३ छन्द हैं। अतः १८३ छन्द रखे गये हैं।
अनुवाद (हिन्दी)
आश्रम और वर्ण कलिके प्रभावसे विकलाङ्ग हो गये और सबने अपनी-अपनी मर्यादाको भारस्वरूप समझकर त्याग दिया। शिवजीका कोप तो महामारीसे ही प्रकट है, स्वामीके कुपित होनेके कारण ही संसारका दारिद्रॺ दिनों-दिन बढ़ता जाता है। स्त्री-पुरुष सब आर्त होकर पुकारते हैं, किंतु उनकी पुकार कोई नहीं सुनता। [मालूम होता है] किन्हीं देवताओंने मिलकर मूठ चला दी थी (अभिचारका प्रयोग किया था), किंतु भयभीतोंकी रक्षा करनेवाले कृपालु श्रीरामको स्मरण करते ही उन्होंने अपनी करुणाकी प्रशंसा करके उसे समयपर अपना काम करनेका संकेत कर दिया [जिससे वह बीमारी बात-की-बातमें चली गयी]॥ १८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति उत्तरकाण्ड
मूलम् (समाप्तिः)
इति उत्तरकाण्ड
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