०६ लंकाकाण्ड

राक्षसोंकी चिन्ता

विश्वास-प्रस्तुतिः

बड़े बिकराल भालु-बानर बिसाल बड़े,
‘तुलसी’ बड़े पहार लै पयोधि तोपिहैं।
प्रबल प्रचंड बरिबंड बाहुदंड खंडि
मंडि मेदिनीको मंडलीक-लीक लोपिहैं॥
लंकदाहु देखें न उछाहु रह्यो काहुन को,
कहैं सब सचिव पुकारि पाँव रोपिहैं।
बाँचिहै न पाछैं तिपुरारिहू मुरारिहू के,
को है रन रारिको जौं कोसलेसु कोपिहैं॥

मूल

बड़े बिकराल भालु-बानर बिसाल बड़े,
‘तुलसी’ बड़े पहार लै पयोधि तोपिहैं।
प्रबल प्रचंड बरिबंड बाहुदंड खंडि
मंडि मेदिनीको मंडलीक-लीक लोपिहैं॥
लंकदाहु देखें न उछाहु रह्यो काहुन को,
कहैं सब सचिव पुकारि पाँव रोपिहैं।
बाँचिहै न पाछैं तिपुरारिहू मुरारिहू के,
को है रन रारिको जौं कोसलेसु कोपिहैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

लंकाका दाह देखकर किसीका उत्साह नहीं रहा। पीछे सब मन्त्रिगण प्रणपूर्वक पुकार-पुकारकर कहने लगे—‘महाभयानक भालू और बड़े विशालकाय वानर बड़े-बड़े पहाड़ लाकर समुद्रको तोप (पाट) देंगे। वे अत्यन्त प्रबल पराक्रमी और दुर्दण्ड वीरोंके भुजदण्डोंका खण्डन कर और उनसे पृथ्वीको समलंकृत कर त्रिभुवनविजयी (रावण) की मर्यादाका लोप कर देंगे।’ शिवजी और विष्णुभगवान् के बचानेपर भी कोई नहीं बचेगा। यदि श्रीरामचन्द्रजीने क्रोध किया तो उनसे युद्ध करनेवाला भला कौन है?॥ १॥

त्रिजटाका आश्वासन

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिजटा कहति बार-बार तुलसीस्वरीसों,
‘राघौ बान एकहीं समुद्र सातौ सोषिहैं।
सकुल सँघारि जातुधान-धारि जम्बुकादि,
जोगिनी-जमाति कालिकाकलाप तोषिहैं॥
राजु दै नेवाजिहैं बजाइ कै बिभीषनै,
बजैंगे ब्योम बाजने बिबुध प्रेम पोषिहैं।
कौन दसकंधु, कौन मेघनादु बापुरो,
को कुंभकर्नु कीटु, जब रामु रन रोषिहैं’॥

मूल

त्रिजटा कहति बार-बार तुलसीस्वरीसों,
‘राघौ बान एकहीं समुद्र सातौ सोषिहैं।
सकुल सँघारि जातुधान-धारि जम्बुकादि,
जोगिनी-जमाति कालिकाकलाप तोषिहैं॥
राजु दै नेवाजिहैं बजाइ कै बिभीषनै,
बजैंगे ब्योम बाजने बिबुध प्रेम पोषिहैं।
कौन दसकंधु, कौन मेघनादु बापुरो,
को कुंभकर्नु कीटु, जब रामु रन रोषिहैं’॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्रिजटा राक्षसी तुलसीदासकी स्वामिनी श्रीजानकीजीसे बार-बार कहती है कि श्रीरामचन्द्रजी एक ही बाणसे सातों समुद्रोंको सोख लेंगे। वे राक्षससेनाका कुलसहित संहार कर गीदड़ों, योगिनियों और कालिकाओंके समूहोंको तृप्त करेंगे। वे डंकेकी चोट विभीषणको राज्य देकर उसपर अनुग्रह करेंगे। उस समय आकाशमें बाजे बजने लगेंगे और देवतालोग प्रेमसे पुष्ट हो जायँगे। जब युद्ध-क्षेत्रमें श्रीरघुनाथजी कुपित होंगे, तब भला रावण क्या चीज है, बेचारा मेघनाद भी किस गिनतीमें है और कीट-तुल्य कुम्भकर्ण भी क्या है?॥ २॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनय-सनेह सों कहति सीय त्रिजटासों,
पाए कछु समाचार आरजसुवनके।
पाए जू, बँधायो सेतु, उतरे भानुकुलकेतु,
आए देखि-देखि दूत दारुन दुवनके॥
बदन मलीन, बलहीन, दीन देखि, मानो
मिटे घटे तमीचर-तिमिर भुवनके।
लोकपति-कोक-सोक मूँदे कपि-कोकनद,
दंड द्वै रहे हैं रघु-आदित-उवनके॥

मूल

बिनय-सनेह सों कहति सीय त्रिजटासों,
पाए कछु समाचार आरजसुवनके।
पाए जू, बँधायो सेतु, उतरे भानुकुलकेतु,
आए देखि-देखि दूत दारुन दुवनके॥
बदन मलीन, बलहीन, दीन देखि, मानो
मिटे घटे तमीचर-तिमिर भुवनके।
लोकपति-कोक-सोक मूँदे कपि-कोकनद,
दंड द्वै रहे हैं रघु-आदित-उवनके॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीजानकीजी विनय और प्रेमपूर्वक त्रिजटासे कहती हैं कि ‘क्या आर्यपुत्रके कोई समाचार मिले?’ त्रिजटा बोली—हाँ जी, पाये हैं; भानुकुलकेतु (श्रीरामचन्द्र) समुद्रपर पुल बाँधकर इस पार उतर आये। घोर राक्षस (रावण) के दूत यह सब देख-देखकर आये हैं, उन लोगोंके मुख मलिन हो गये हैं और वे बलहीन तथा दीन हो गये हैं। मानो चौदहों भुवनका राक्षसरूपी अन्धकार मिटना और घटना चाहता है, इन्द्रादि लोकपालरूप चक्रवाकोंकी शोकनिवृत्ति और वानरसेनारूप मुँदे हुए कमलोंकी प्रफुल्लताके लिये श्रीरामरूप सूर्यके उदित होनेमें केवल दो ही दण्ड (घड़ी) काल रह गया है॥ ३॥

झूलना

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुभुजु मारीचु खरु त्रिसिरु दूषनु बालि,
दलत जेहिं दूसरो सरु न साँध्यो।
आनि परबाम बिधि बाम तेहि रामसों,
सकत संग्रामु दसकंधु काँध्यो॥
समुझि तुलसीस-कपि-कर्म घर-घर घैरु,
बिकल सुनि सकल पाथोधि बाँध्यो।
बसत गढ़ बंक, लंकेस नायक अछत,
लंक नहिं खात कोउ भात राँध्यो॥

मूल

सुभुजु मारीचु खरु त्रिसिरु दूषनु बालि,
दलत जेहिं दूसरो सरु न साँध्यो।
आनि परबाम बिधि बाम तेहि रामसों,
सकत संग्रामु दसकंधु काँध्यो॥
समुझि तुलसीस-कपि-कर्म घर-घर घैरु,
बिकल सुनि सकल पाथोधि बाँध्यो।
बसत गढ़ बंक, लंकेस नायक अछत,
लंक नहिं खात कोउ भात राँध्यो॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने सुबाहु, मारीच, खर, दूषण, त्रिशिरा और वालिके मारनेमें दूसरा बाण संधान नहीं किया, उन्हीं रघुनाथजीसे विधिकी वामताके कारण परस्त्रीको ले आकर क्या रावण युद्ध ठान सकता है? तुलसीदासके स्वामी श्रीरामचन्द्रजीके और हनुमान् जी के कार्योंका स्मरण करके घर-घर (रावणकी) बदनामी होती रहती है तथा समुद्र बाँधनेका समाचार सुनकर सब लोग व्याकुल हो गये हैं। (लङ्का-जैसे) विकट गढ़में निवास करते और रावण-जैसे (दुर्दान्त) शासकके रहते हुए भी लङ्कामें कोई पकाया हुआ भात नहीं खाता [क्योंकि उन्हें हर समय आग लगनेका भय बना रहता है]॥ ४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

‘बिस्वजयी’ भृगुनायक-से बिनु हाथ भए हनि हाथ हजारी।
बातुल मातुलकी न सुनी सिख का ‘तुलसी’ कपि लंक न जारी॥
अजहूँ तौ भलो रघुनाथ मिलें, फिरि बूझिहै, को गज, कौन गजारी।
कीर्ति बड़ो, करतूति बड़ो, जन-बात बड़ो, सो बड़ोई बजारी॥

मूल

‘बिस्वजयी’ भृगुनायक-से बिनु हाथ भए हनि हाथ हजारी।
बातुल मातुलकी न सुनी सिख का ‘तुलसी’ कपि लंक न जारी॥
अजहूँ तौ भलो रघुनाथ मिलें, फिरि बूझिहै, को गज, कौन गजारी।
कीर्ति बड़ो, करतूति बड़ो, जन-बात बड़ो, सो बड़ोई बजारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

[लङ्कापुरीमें रहनेवाले नर-नारी कहते हैं—] हजार भुजाओंवाले (सहस्रार्जुन) को मारनेवाले परशुराम-जैसे विश्वविजयी वीर भी (इन रघुनाथजीके सामने) निहत्थे हो गये। देखो, इस पागल रावणने अपने मामा (माल्यवान्) की भी शिक्षा नहीं मानी; तो तुलसीदासजी कहते हैं—क्या हनुमान् जी ने लङ्काको नहीं जलाया? यदि यह श्रीरघुनाथजीसे मेल कर ले तो अब भी अच्छा है। नहीं तो फिर मालूम हो जायगा कि कौन हाथी है और कौन सिंह है? इस (रावण) की कीर्ति बड़ी है, करनी बड़ी है और जनतामें बात भी बड़ी है, परंतु यह है बड़ा बजारी* (बकवादी)॥ ५॥

पादटिप्पनी
  • बजारीका अर्थ दलाल या मिथ्यावादी भी हो सकता है।

समुद्रोत्तरण

विश्वास-प्रस्तुतिः

जब पाहन भे बनबाहन-से, उतरे बनरा, ‘जय राम’ रढ़ैं।
‘तुलसी’ लिएँ सैल-सिला सब सोहत, सागरु ज्यों बल बारि बढ़ैं॥
करि कोपु करैं रघुबीरको आयसु, कौतुक हीं गढ़ कूदि चढ़ैं।
चतुरंग चमू पलमें दलि कै रन रावन-राढ़-सुहाड़ गढ़ैं॥

मूल

जब पाहन भे बनबाहन-से, उतरे बनरा, ‘जय राम’ रढ़ैं।
‘तुलसी’ लिएँ सैल-सिला सब सोहत, सागरु ज्यों बल बारि बढ़ैं॥
करि कोपु करैं रघुबीरको आयसु, कौतुक हीं गढ़ कूदि चढ़ैं।
चतुरंग चमू पलमें दलि कै रन रावन-राढ़-सुहाड़ गढ़ैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब [सेतु बाँधते समय] पत्थर नावके समान हो गये, तब वानरलोग समुद्रपार उतर आये और ‘रामचन्द्रजीकी जय’ कहने लगे। गोसाईंजी कहते हैं—वे सब हाथोंमें पर्वत और शिलाएँ लिये ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, जैसे ज्वार आनेपर समुद्र सुशोभित होता है। वे बड़ा क्रोध करके श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञाका पालन करते हैं, खेलहीसे कूदकर लङ्का-गढ़पर चढ़ गये हैं, मानो एक ही पलमें युद्धमें चतुरंगिणी सेनाको नष्ट कर दुष्ट रावणकी सुदृढ़ हड्डियोंकी मरम्मत कर डालेंगे॥ ६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिपुल बिसाल बिकराल कपि-भालु, मानो
कालु बहु बेष धरें, धाए किएँ करषा।
लिए सिला-सैल-साल, ताल औ तमाल तोरि
तोपैं तोयनिधि, सुरको समाजु हरषा॥
डगे दिगकुंजर, कमठु कोलु कलमले,
डोले धराधर धारि, धराधरु धरषा।
‘तुलसी’ तमकि चलैं, राघौकी सपथ करैं,
को करै अटक कपिकटक अमरषा॥

मूल

बिपुल बिसाल बिकराल कपि-भालु, मानो
कालु बहु बेष धरें, धाए किएँ करषा।
लिए सिला-सैल-साल, ताल औ तमाल तोरि
तोपैं तोयनिधि, सुरको समाजु हरषा॥
डगे दिगकुंजर, कमठु कोलु कलमले,
डोले धराधर धारि, धराधरु धरषा।
‘तुलसी’ तमकि चलैं, राघौकी सपथ करैं,
को करै अटक कपिकटक अमरषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-से बड़े-बड़े भयंकर वानर और भालु इस प्रकार दौड़े मानो अनेक वेष धारण किये काल ही क्रोधित हो दौड़ रहा हो। कोई शिला, कोई पर्वत, कोई शाल, कोई ताड़ और कोई तमालके वृक्ष तोड़ लाये और समुद्रको तोपने लगे, यह देखकर देवसमाज हर्षित हुआ। दिशाओंके हाथी डोलने लगे, कच्छप और वाराह कलमला गये, पहाड़ काँपने लगे और शेष दब गये। गोसाईंजी कहते हैं—श्रीरामचन्द्रजीकी दुहाई देकर सब वानर तमककर चलते हैं। भला ऐसा कौन है जो उस क्रोधभरे कपिकटकको रोक सके?॥ ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आए सुकु, सारनु, बोलाए ते कहन लागे,
पुलक सरीर सेना करत फहम हीं।
‘महाबली बानर बिसाल भालु काल-से
कराल हैं, रहैं कहाँ, समाहिंगे कहाँ महीं’॥
हँस्यो दसकंधु रघुनाथको प्रतापु सुनि,
‘तुलसी’ दुरावै मुखु, सूखत सहम हीं।
रामके बिरोधें बुरो बिधि-हरि-हरहू को,
सबको भलो है राजा रामके रहम हीं॥

मूल

आए सुकु, सारनु, बोलाए ते कहन लागे,
पुलक सरीर सेना करत फहम हीं।
‘महाबली बानर बिसाल भालु काल-से
कराल हैं, रहैं कहाँ, समाहिंगे कहाँ महीं’॥
हँस्यो दसकंधु रघुनाथको प्रतापु सुनि,
‘तुलसी’ दुरावै मुखु, सूखत सहम हीं।
रामके बिरोधें बुरो बिधि-हरि-हरहू को,
सबको भलो है राजा रामके रहम हीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुक और सारण [वानर-सेना देखकर] लौट आये हैं। उनके शरीर कपिकटकका ख्याल करते ही पुलकित हो गये। बुलाकर पूछनेपर वे कहने लगे—‘महाबलवान् वानर और विशाल भालु कालके समान भयंकर हैं। वे न जाने कहाँ रहते हैं और पृथ्वीमें कहाँ समायेंगे।’ श्रीरामचन्द्रका प्रताप सुनकर रावण हँसा। गोसाईंजी कहते हैं—डरसे उसका मुँह सूख गया है, (किंतु वह) उसे (हँसकर) छिपाता है। श्रीरामचन्द्रजीसे वैर करनेसे तो ब्रह्मा, विष्णु और शिवका भी अहित होता है। सबकी भलाई तो महाराज रामकी कृपामें ही है॥ ८॥

अंगदजीका दूतत्व

विश्वास-प्रस्तुतिः

‘आयो! आयो! आयो सोई बानरु बहोरि!’ भयो
सोरु चहुँ ओर लंकाँ आएँ जुबराजकें।
एक काढ़ैं सौंज, एक धौंज करैं, ‘कहा ह्वै है,
पोच भई’, महासोचु सुभटसमाजकें॥
गाज्यो कपिराजु रघुराजकी सपथ करि,
मूँदे कान जातुधान मानो गाजें गाजकें।
सहमि सुखात बातजातकी सुरति करि,
लवा ज्यों लुकात, तुलसी झपेटें बाजकें॥

मूल

‘आयो! आयो! आयो सोई बानरु बहोरि!’ भयो
सोरु चहुँ ओर लंकाँ आएँ जुबराजकें।
एक काढ़ैं सौंज, एक धौंज करैं, ‘कहा ह्वै है,
पोच भई’, महासोचु सुभटसमाजकें॥
गाज्यो कपिराजु रघुराजकी सपथ करि,
मूँदे कान जातुधान मानो गाजें गाजकें।
सहमि सुखात बातजातकी सुरति करि,
लवा ज्यों लुकात, तुलसी झपेटें बाजकें॥

अनुवाद (हिन्दी)

लङ्कामें युवराज (अङ्गदजी) के आनेपर वहाँ चारों ओर यही शोर हो गया कि वही (लङ्का जलानेवाला) वानर फिर आ गया, वही वानर फिर आ गया। कोई असबाब निकालने लगे और कोई दौड़ने और कहने लगे कि ‘भाई! बड़ा बुरा हुआ, न जाने अब क्या होगा?’ इस प्रकार वीर समाजमें बड़ी चिन्ता हो गयी। जब कपिराज (अङ्गद) श्रीरामचन्द्रजीकी दोहाई देकर गरजे तो राक्षसोंने कान मूँद लिये, मानो बिजली कड़की हो। वे लोग हनुमान् जी को स्मरणकर डरके मारे सूख गये और ऐसे छिपने लगे जैसे बाजके झपटनेपर लवा पक्षी छिप जाता है॥ ९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलसीस बल रघुबीरजू कें बालिसुतु
वाहि न गनत, बात कहत करेरी-सी।
‘बकसीस ईसजू की खीस होत देखिअत,
रिस काहें लागति, कहत हौं मैं तेरी-सी॥
चढ़ि गढ़-मढ़ दृढ़, कोटकें कँगूरें, कोपि
नेकु धका देहैं, ढैहैं ढेलनकी ढेरी-सी।
सुनु दसमाथ! नाथ-साथके हमारे कपि
हाथ लंका लाइहैं तौ रहेगी हथेरी-सी॥

मूल

तुलसीस बल रघुबीरजू कें बालिसुतु
वाहि न गनत, बात कहत करेरी-सी।
‘बकसीस ईसजू की खीस होत देखिअत,
रिस काहें लागति, कहत हौं मैं तेरी-सी॥
चढ़ि गढ़-मढ़ दृढ़, कोटकें कँगूरें, कोपि
नेकु धका देहैं, ढैहैं ढेलनकी ढेरी-सी।
सुनु दसमाथ! नाथ-साथके हमारे कपि
हाथ लंका लाइहैं तौ रहेगी हथेरी-सी॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजीके स्वामी श्रीरामचन्द्रजीके बलपर वालिपुत्र अङ्गद उस (रावण) को कुछ नहीं समझते और कड़ी-कड़ी बातें कहते हैं कि ‘आज शिवजीकी दी हुई सम्पत्ति नष्ट होती दिखायी देती है, इससे तुम क्रोधित क्यों होते हो? मैं तो तुम्हारे हितकी ही बात कहता हूँ। हे रावण! सुनो, हमारे स्वामीके साथके बंदर जब गढ़के मकानोंपर और कोटके सुदृढ़ कँगूरोंपर चढ़ जायँगे और क्रोधित होकर जरा भी धक्का देंगे तो सब ढेलोंकी ढेरीके समान ढह जायँगे और उन्होंने लङ्कामें हाथ डाला तो वह हथेलीके समान सपाट (चौपट) हो जायगी’॥ १०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

‘दूषनु, बिराधु, खरु, त्रिसिरा, कबंधु बधे
तालऊ बिसाल बेधे, कौतुकु है कालिको।
एक ही बिसिष बस भयो बीर बाँकुरो सो,
तोहू है बिदित बलु महाबली बालिको॥
‘तुलसी’ कहत हित मानतो न नेकु संक,
मेरो कहा जैहै, फलु पैहै तू कुचालिको।
बीर-करि-केसरी कुठारपानि मानी हारि,
तेरी कहा चली, बिड़! तोसे गनै घालि को॥

मूल

‘दूषनु, बिराधु, खरु, त्रिसिरा, कबंधु बधे
तालऊ बिसाल बेधे, कौतुकु है कालिको।
एक ही बिसिष बस भयो बीर बाँकुरो सो,
तोहू है बिदित बलु महाबली बालिको॥
‘तुलसी’ कहत हित मानतो न नेकु संक,
मेरो कहा जैहै, फलु पैहै तू कुचालिको।
बीर-करि-केसरी कुठारपानि मानी हारि,
तेरी कहा चली, बिड़! तोसे गनै घालि को॥

अनुवाद (हिन्दी)

देखो, उन्होंने दूषण, विराध, खर, त्रिशिरा और कबन्धको मारा, बड़े विशाल ताड़ोंका भी (एक ही बाणसे) छेदन किया—ये सब उनके कलके ही कौतुक हैं। जिस महाबलशाली वालिका बल तुझे भी विदित है; वह बाँका वीर भी उनके एक ही बाणके अधीन हो गया। हम तेरे हितकी बात कहते हैं, परंतु तू जरा भी भय नहीं मानता; सो मेरा क्या जायगा, तू ही अपनी कुचालका फल पावेगा। जो वीररूपी गजराजोंके लिये सिंहके समान हैं, उन कुठारपाणि परशुरामजीने भी जिनसे हार मान ली, अरे नीच! उनके सामने तेरी क्या चल सकती है? तेरे-जैसोंको पासंगके बराबर भी कौन गिनता है?॥ ११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तोसों कहौं दसकंधर रे, रघुनाथ बिरोधु न कीजिए बौरे।
बालि बली, खरु, दूषनु और अनेक गिरे जे-जे भीतिमें दौरे॥
ऐसिअ हाल भई तोहि धौं, न तु लै मिलु सीय चहै सुखु जौं रे।
रामकें रोष न राखि सकैं तुलसी बिधि, श्रीपति, संकरु सौ रे॥

मूल

तोसों कहौं दसकंधर रे, रघुनाथ बिरोधु न कीजिए बौरे।
बालि बली, खरु, दूषनु और अनेक गिरे जे-जे भीतिमें दौरे॥
ऐसिअ हाल भई तोहि धौं, न तु लै मिलु सीय चहै सुखु जौं रे।
रामकें रोष न राखि सकैं तुलसी बिधि, श्रीपति, संकरु सौ रे॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे दसकंध! मैं तुझसे कहता हूँ, तू भूलकर भी रघुनाथजीसे विरोध न करना। महाबली वालि और खर-दूषणादि जो वीर दीवारपर दौड़े, वे ही गिर पड़े। तेरी भी ऐसी ही दशा होनेवाली है; नहीं तो, यदि सुख चाहता है तो जानकीजीको लेकर मिल। अरे, श्रीरामचन्द्रके क्रोधसे सैकड़ों ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी रक्षा नहीं कर सकते॥ १२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूँ रजनीचरनाथ महा, रघुनाथके सेवकको जनु हौं हौं।
बलवान है स्वानु गलीं अपनीं, तोहि लाज न गालु बजावत सौहौं॥
बीस भुजा, दस सीस हरौं, न डरौं, प्रभु-आयसु-भंग तें जौं हौं।
खेतमें केहरि ज्यों गजराज दलौं दल, बालिको बालकु तौ हौं॥

मूल

तूँ रजनीचरनाथ महा, रघुनाथके सेवकको जनु हौं हौं।
बलवान है स्वानु गलीं अपनीं, तोहि लाज न गालु बजावत सौहौं॥
बीस भुजा, दस सीस हरौं, न डरौं, प्रभु-आयसु-भंग तें जौं हौं।
खेतमें केहरि ज्यों गजराज दलौं दल, बालिको बालकु तौ हौं॥

अनुवाद (हिन्दी)

तू निशाचरोंका महाराज है और मैं रघुनाथजीके सेवक सुग्रीवका सेवक हूँ। अपनी गलीमें तो कुत्ता भी बलवान् होता है। तुमको मेरे सामने गाल बजाते लाज नहीं आती। यदि मैं श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञाभङ्गसे न डरता तो तुम्हारी बीसों भुजाओं और दसों सिरोंको उतार लेता। जैसे सिंह गजराजका दलन करता है, वैसे ही यदि युद्धक्षेत्रमें मैं तुम्हारी सेनाका दलन करूँ तभी तुम मुझे वालिका बालक जानना॥ १३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोसलराजके काज हौं आजु त्रिकूटु उपारि, लै बारिधि बोरौं।
महा भुजदंड द्वै अंडकटाह चपेटकीं चोट चटाक दै फोरौं॥
आयस भंगतें जौं न डरौं, सब मीजि सभासद श्रोनित घोरौं।
बालिको बालकु जौं, ‘तुलसी’ दसहू मुखके रनमें रद तोरौं॥

मूल

कोसलराजके काज हौं आजु त्रिकूटु उपारि, लै बारिधि बोरौं।
महा भुजदंड द्वै अंडकटाह चपेटकीं चोट चटाक दै फोरौं॥
आयस भंगतें जौं न डरौं, सब मीजि सभासद श्रोनित घोरौं।
बालिको बालकु जौं, ‘तुलसी’ दसहू मुखके रनमें रद तोरौं॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कोसलराज श्रीरामचन्द्रजीके कार्यके लिये आज मैं त्रिकूट पर्वतको (जिसपर लङ्का बसी हुई है) उखाड़कर समुद्रमें डुबा दे सकता हूँ, लङ्का तो क्या, सारे ब्रह्माण्डको अपने दोनों प्रचण्ड भुजदण्डोंकी चपेटसे दबाकर चटाकसे फोड़ दे सकता हूँ; यदि मैं आज्ञाभङ्गसे न डरता तो तुम्हारे सब सभासदोंको मसलकर लोहूमें सान देता। मैं यदि वालिका बालक हूँ तो रणभूमिमें तुम्हारे दसों मुँहके दाँतोंको तोड़ डालूँगा’॥ १४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अति कोपसों रोप्यो है पाउ सभाँ, सब लंक ससंकित, सोरु मचा।
तमके घननाद-से बीर प्रचारि कै, हारि निसाचर-सैनु पचा॥
न टरै पगु मेरुहु तें गरु भो, सो मनो महि संग बिरंचि रचा।
‘तुलसी’ सब सूर सराहत हैं,जगमें बलसालि है बालि-बचा॥

मूल

अति कोपसों रोप्यो है पाउ सभाँ, सब लंक ससंकित, सोरु मचा।
तमके घननाद-से बीर प्रचारि कै, हारि निसाचर-सैनु पचा॥
न टरै पगु मेरुहु तें गरु भो, सो मनो महि संग बिरंचि रचा।
‘तुलसी’ सब सूर सराहत हैं,जगमें बलसालि है बालि-बचा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अङ्गदजीने अत्यन्त क्रुद्ध हो सभामें पाँव रोप दिया। इससे समस्त लङ्का सशङ्कित हो गयी और उसमें सब ओर शोर मच गया। मेघनाद-जैसे वीर तमक और ललकारकर उठे और हारकर बैठ गये। सारी राक्षसी सेना भी पच मरी, परंतु पैर न टला। वह सुमेरुपर्वतसे भी भारी हो गया, मानो (उसे) ब्रह्माने पृथ्वीके साथ ही रचा हो! गोसाईंजी कहते हैं—सब वीर प्रशंसा करने लगे कि संसारमें एकमात्र बलशाली वालिपुत्र अङ्गद ही हैं॥ १५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोप्यो पाउ पैज कै, बिचारि रघुबीर बलु,
लागे भट समिटि, न नेकु टसकतु है।
तज्यो धीरु-धरनीं,धरनीधर धसकत,
धराधरु धीर भारु सहि न सकतु है॥
महाबली बालिकें दबत दलकति भूमि,
‘तुलसी’ उछलि सिंधु, मेरु मसकतु है।
कमठ कठिन पीठि घट्ठा परॺो मंदरको,
आयो सोई काम, पै करेजो कसकतु है॥

मूल

रोप्यो पाउ पैज कै, बिचारि रघुबीर बलु,
लागे भट समिटि, न नेकु टसकतु है।
तज्यो धीरु-धरनीं,धरनीधर धसकत,
धराधरु धीर भारु सहि न सकतु है॥
महाबली बालिकें दबत दलकति भूमि,
‘तुलसी’ उछलि सिंधु, मेरु मसकतु है।
कमठ कठिन पीठि घट्ठा परॺो मंदरको,
आयो सोई काम, पै करेजो कसकतु है॥

अनुवाद (हिन्दी)

अङ्गदजीने श्रीरामचन्द्रजीके बलको विचारकर प्रणपूर्वक पैर रोपा। वीरगण जुटकर उसे उठाने लगे, परंतु वह टस-से-मस नहीं होता। पृथ्वीतकने धैर्य छोड़ दिया (जो धैर्यके लिये प्रसिद्ध है), पर्वत धसकने लगे, परम धैर्यवान् शेषजी भी उनका भार नहीं सह सके। वालिके पुत्र महाबली अङ्गदजीके दबानेसे पृथ्वी काँप गयी, समुद्र उछल पड़ा और मेरु पर्वत फटने लगा। कमठके कठोर पीठमें जो मन्दराचलका घट्ठा पड़ा है, वही काम आया (अर्थात् उससे वेदना कम हुई) तो भी (भारके कारण) कलेजा तो कसकने ही लगा॥ १६॥

रावण और मन्दोदरी

विषय (हिन्दी)

झूलना

विश्वास-प्रस्तुतिः

कनकगिरिसृंग चढ़ि देखि मर्कटकटकु,
बदत मंदोदरी परम भीता।
सहसभुज-मत्तगजराज-रनकेसरी,
परसुधर गर्बु जेहि देखि बीता॥
दास तुलसी समरसूर कोसलधनी,
ख्याल हीं बालि बलसालि जीता।
रे कंत! तृन दंत गहि ‘सरन श्रीरामु’ कहि,
अजहुँ एहि भाँति लै सौंपु सीता॥

मूल

कनकगिरिसृंग चढ़ि देखि मर्कटकटकु,
बदत मंदोदरी परम भीता।
सहसभुज-मत्तगजराज-रनकेसरी,
परसुधर गर्बु जेहि देखि बीता॥
दास तुलसी समरसूर कोसलधनी,
ख्याल हीं बालि बलसालि जीता।
रे कंत! तृन दंत गहि ‘सरन श्रीरामु’ कहि,
अजहुँ एहि भाँति लै सौंपु सीता॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुवर्णगिरिके शिखरपर चढ़कर वानरी सेनाको देखनेपर मन्दोदरी अत्यन्त भयभीत होकर कहने लगी—‘सहस्रबाहुरूपी मत्त गजराजके लिये रणमें केसरीके समान परशुरामजीका गर्व जिनको देखकर जाता रहा, वे श्रीरामचन्द्रजी रणभूमिमें बड़े ही प्रबल हैं। देखो, उन्होंने खेलहीमें बलशाली वालिको जीत लिया। हे कन्त! तुम दाँतोंमें तिनका दबाकर ‘मैं श्रीरामचन्द्रजीकी शरण हूँ’ ऐसा कहते हुए अब भी जानकीको ले जाकर सौंप दो’॥ १७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे नीच! मारीचु बिचलाइ, हति ताड़का,
भंजि सिवचापु सुखु सबहि दीन्ह्यो।
सहस दसचारि खल सहित खर-दूषनहि,
पैठै जमधाम, तैं तउ न चीन्ह्यो॥
मैं जो कहौं, कंत! सुनु मंतु, भगवंतसों
बिमुख ह्वै बालि फलु कौन लीन्ह्यो।
बीस भुज, दस सीस खीस गए तबहिं जब,
ईसके ईससों बैरु कीन्ह्यो॥

मूल

रे नीच! मारीचु बिचलाइ, हति ताड़का,
भंजि सिवचापु सुखु सबहि दीन्ह्यो।
सहस दसचारि खल सहित खर-दूषनहि,
पैठै जमधाम, तैं तउ न चीन्ह्यो॥
मैं जो कहौं, कंत! सुनु मंतु, भगवंतसों
बिमुख ह्वै बालि फलु कौन लीन्ह्यो।
बीस भुज, दस सीस खीस गए तबहिं जब,
ईसके ईससों बैरु कीन्ह्यो॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अरे नीच! जिसने मारीचको विचलित कर (अर्थात् बिना फलके बाणसे समुद्रके पार फेंककर) ताड़काको मार डाला, शिवजीके धनुषको तोड़कर सबको सुख दिया और फिर, चौदह हजार राक्षसोंसहित खर-दूषणको यमलोक भेज दिया, उसे तूने तब भी नहीं पहचाना।’ हे स्वामिन्! मैं जो सलाह देती हूँ, सो सुनो। भगवान् से विमुख होकर भला वालिने भी कौन फल पाया? तुम्हारे बीसों बाहु और दसों सिर तो तभी नष्ट हो गये जब तुमने शिवजीके स्वामीसे वैर किया॥ १८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालि दलि, काल्हि जलजान पाषान किये,
कंत! भगवंतु तैं तउ न चीन्हे।
बिपुल बिकराल भट भालु-कपि काल-से,
संग तरु तुंग गिरिसृंग लीन्हें॥
आइगो कोसलाधीसु तुलसीस जेंहि
छत्र मिस मौलि दस दूरि कीन्हें।
ईस बकसीस जनि खीस करु, ईस! सुनु,
अजहुँ कुलकुसल बैदेहि दीन्हें॥

मूल

बालि दलि, काल्हि जलजान पाषान किये,
कंत! भगवंतु तैं तउ न चीन्हे।
बिपुल बिकराल भट भालु-कपि काल-से,
संग तरु तुंग गिरिसृंग लीन्हें॥
आइगो कोसलाधीसु तुलसीस जेंहि
छत्र मिस मौलि दस दूरि कीन्हें।
ईस बकसीस जनि खीस करु, ईस! सुनु,
अजहुँ कुलकुसल बैदेहि दीन्हें॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कलकी ही बात है, उन्होंने वालिको मार समुद्रमें पत्थरोंकी नाव बना दिया।’ हे स्वामी! तो भी तुमने भगवान् को नहीं पहचाना। जिनके साथ कालके समान भयंकर बहुत-से रीछ और वानर वीर वृक्ष तथा ऊँचे-ऊँचे पर्वतशृङ्ग लिये हुए हैं तथा जो राजछत्र गिरानेके व्याजसे तुम्हारे दसों सिर छेदन कर चुके हैं, वे तुलसीदासके प्रभु कोसलेश्वर भगवान् राम आ गये हैं। हे स्वामिन्! सुनिये, शिवजीकी इस देनको नष्ट न कीजिये। जानकीजीके दे देनेसे अब भी कुलकी कुशल हो सकती है॥ १९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैनके कपिन को को गनै, अर्बुदै
महाबलबीर हनुमान जानी।
भूलिहै दस दिसा, सीस पुनि डोलिहैं,
कोपि रघुनाथु जब बान तानी॥
बालिहूँ गर्बु जिय माहिं ऐसो कियो,
मारि दहपट दियो जमकी घानीं।
कहति मंदोदरी, सुनहि रावन! मतो,
बेगि लै देहि बैदेहि रानी॥

मूल

सैनके कपिन को को गनै, अर्बुदै
महाबलबीर हनुमान जानी।
भूलिहै दस दिसा, सीस पुनि डोलिहैं,
कोपि रघुनाथु जब बान तानी॥
बालिहूँ गर्बु जिय माहिं ऐसो कियो,
मारि दहपट दियो जमकी घानीं।
कहति मंदोदरी, सुनहि रावन! मतो,
बेगि लै देहि बैदेहि रानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘(उनकी) सेनाके वानरोंकी गणना कौन कर सकता है? उन्हें अरबों महाबली वीर हनुमान् ही जानो। जब श्रीरामचन्द्रजी क्रोधित होकर बाण चढ़ायेंगे तब तुम दसों दिशाओंको भूल जाओगे और तुम्हारे मस्तक डोलने लगेंगे। वालिने भी तो मनमें ऐसा ही अभिमान किया था, किंतु इन्होंने उसे मार—चौपटकर यमराजकी घानीमें दे दिया।’ मन्दोदरी कहती है—‘हे रावण! मेरी सलाह सुनो। शीघ्र ही महारानी जानकीजीको ले जाकर दे दो’॥ २०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गहनु उज्जारि, पुरु जारि, सुतु मारि तव,
कुसल गो कीसु बर बैरि जाको।
दूसरो दूतु पनु रोपि कोपेउ सभाँ,
खर्ब कियो सर्बको, गर्बु थाको॥
दासु तुलसी सभय बदत मयनंदिनी,
मंदमति कंत, सुनु मंतु म्हाको।
तौलौं मिलु बेगि, नहि जौलौं रन रोष भयो
दासरथि बीर बिरुदैत बाँको॥

मूल

गहनु उज्जारि, पुरु जारि, सुतु मारि तव,
कुसल गो कीसु बर बैरि जाको।
दूसरो दूतु पनु रोपि कोपेउ सभाँ,
खर्ब कियो सर्बको, गर्बु थाको॥
दासु तुलसी सभय बदत मयनंदिनी,
मंदमति कंत, सुनु मंतु म्हाको।
तौलौं मिलु बेगि, नहि जौलौं रन रोष भयो
दासरथि बीर बिरुदैत बाँको॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारा प्रबल शत्रु जिसका दूत एक वानर तुम्हारे वनको उजाड़ नगरको जला और पुत्रको मारकर कुशलपूर्वक चला गया। और दूसरे दूतने जब प्रण करके सभामें क्रोध किया तो सबको नीचा दिखा दिया और गर्व चूर्ण कर दिया। गोसाईंजी कहते हैं, मन्दोदरी भयभीत होकर कहने लगी—‘हे मन्दमति स्वामी! मेरी सलाह सुनिये। जबतक बड़े यशस्वी वीरवर दशरथनन्दन रणमें क्रोधित नहीं होते, तबतक तुम शीघ्र उनसे मिलो॥ २१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काननु उजारि, अच्छु मारि, धारि धूरि कीन्हीं,
नगरु प्रजारॺो, सो बिलोक्यो बलु कीसको।
तुम्हैं बिद्यमान जातुधानमंडलीमें कपि
कोपि रोप्यो पाउ, सो प्रभाउ तुलसीसको॥
कंत! सुनु मंतु कुल-अंतु किएँ अंत हानि,
हातो कीजै हीयतें भरोसो भुज बीसको।
तौलौं मिलु बेगि, जौलौं चापु न चढ़ायो राम,
रोषि बानु काढॺो न दलैया दससीसको॥

मूल

काननु उजारि, अच्छु मारि, धारि धूरि कीन्हीं,
नगरु प्रजारॺो, सो बिलोक्यो बलु कीसको।
तुम्हैं बिद्यमान जातुधानमंडलीमें कपि
कोपि रोप्यो पाउ, सो प्रभाउ तुलसीसको॥
कंत! सुनु मंतु कुल-अंतु किएँ अंत हानि,
हातो कीजै हीयतें भरोसो भुज बीसको।
तौलौं मिलु बेगि, जौलौं चापु न चढ़ायो राम,
रोषि बानु काढॺो न दलैया दससीसको॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुमने एक वानरका बल तो अपनी आँखोंसे देख लिया; उसने (अकेले ही) वनको उजाड़ डाला, अक्षकुमारको मारकर उसकी सेनाको चूर्ण कर दिया और नगरमें आग लगा दी। तुम्हारे रहते हुए ही (दूसरे) वानर (अङ्गद) ने राक्षस-मण्डलीमें क्रोध करके पैर रोप दिया, यह (जो किसीसे नहीं हिला) तुलसीके स्वामी श्रीरामचन्द्रजीका ही प्रभाव था। हे नाथ! हमारी सम्मति सुनो, कुलके नाशसे अन्ततः हानि ही है। अतः अब अपने चित्तसे अपनी बीस भुजाओंका भरोसा त्याग दो और जबतक श्रीरामचन्द्र धनुष न चढ़ावें और क्रोधित होकर दसों मस्तकोंको छेदन करनेवाला बाण न निकालें, तबतक (शीघ्र ही) उनसे मिल जाओ॥ २२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

‘पवनको पूतु देख्यो दूतु बीर बाँकुरो, जो
बंक गढु लंक-सो ढकाँ ढकेलि ढाहिगो।
बालि बलसालिको सो काल्हि दापु दलि कोपि,
रोप्यो पाउ चपरि, चमूको चाउ चाहिगो॥
सोई रघुनाथु कपि साथ पाथनाथु बाँधि,
आयो नाथ! भागे तें खिरिरि खेह खाहिगो।
‘तुलसी’ गरबु तजि मिलिबेको साजु सजि,
देहि सिय, न तौ पिय! पाइमाल जाहिगो॥

मूल

‘पवनको पूतु देख्यो दूतु बीर बाँकुरो, जो
बंक गढु लंक-सो ढकाँ ढकेलि ढाहिगो।
बालि बलसालिको सो काल्हि दापु दलि कोपि,
रोप्यो पाउ चपरि, चमूको चाउ चाहिगो॥
सोई रघुनाथु कपि साथ पाथनाथु बाँधि,
आयो नाथ! भागे तें खिरिरि खेह खाहिगो।
‘तुलसी’ गरबु तजि मिलिबेको साजु सजि,
देहि सिय, न तौ पिय! पाइमाल जाहिगो॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘(उनके) दूत बाँके वीर पवनपुत्रको तुमने देखा जो लङ्का-जैसे दुर्गम गढ़को धक्केसे ढकेलकर ही ढाह गया। बलशाली वालिका पुत्र (अङ्गद) तो कल ही बड़ी फुर्तीसे क्रोधपूर्वक चरण रोपकर तथा तुम्हारा दर्प चूर्णकर तुम्हारी सेनाका उत्साह देख गया। अब वे ही श्रीरघुनाथजी वानरोंको साथ लिये समुद्रको बाँधकर आये हैं, सो हे नाथ! यदि इस समय तुम भागोगे तो तुम्हें खरोचकर धूल फाँकनी पड़ेगी। इसलिये अहङ्कारको छोड़कर और मिलनेकी तैयारी कर जानकीजीको दे दो; नहीं तो हे प्रिय! तुम बरबाद हो जाओगे॥ २३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदधि अपार उतरत नहिं लागी बार
केसरीकुमारु सो अदंड-कैसो डाँड़िगो।
बाटिका उजारि, अच्छु, रच्छकनि मारि भट
भारी भारी राउरेके चाउर-से काँड़िगो॥
‘तुलसी’ तिहारें बिद्यमान जुबराज आजु
कोपि पाउ रोपि, सब छूछे कै कै छाँड़िगो।
कहेकी न लाज, पिय! आजहूँ न आए बाज,
सहित समाज गढ़ु राँड़-कैसो भाँड़िगो॥

मूल

उदधि अपार उतरत नहिं लागी बार
केसरीकुमारु सो अदंड-कैसो डाँड़िगो।
बाटिका उजारि, अच्छु, रच्छकनि मारि भट
भारी भारी राउरेके चाउर-से काँड़िगो॥
‘तुलसी’ तिहारें बिद्यमान जुबराज आजु
कोपि पाउ रोपि, सब छूछे कै कै छाँड़िगो।
कहेकी न लाज, पिय! आजहूँ न आए बाज,
सहित समाज गढ़ु राँड़-कैसो भाँड़िगो॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देखो, जिसे अपार समुद्रको पार करते देरी नहीं लगी, वह केसरीकुमार (हनुमान् यहाँ आकर) अदण्डॺके समान तुम्हें दण्ड दे गया। उसने बागको उजाड़ तथा अक्षकुमार एवं अन्य रक्षकोंको मारकर तुम्हारे बड़े-बड़े वीरोंको चावलकी तरह कूट गया और आज तुम्हारे रहते-रहते अङ्गद क्रोधपूर्वक अपने पैरको रोप सबको थोथे (बलहीन) करके छोड़ गया। हे प्रिय! कहनेकी तुमको लाज नहीं है; तुम अब भी बाज नहीं आते। आज अङ्गद सारे गढ़को समाजसहित राँड़के घरके समान घूम-घूमकर देख गया॥ २४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाके रोष-दुसह-त्रिदोष-दाह दूरि कीन्हे,
पैअत न छत्री-खोज खोजत खलकमें।
माहिषमतीको नाथ साहसी सहस बाहु,
समर-समर्थ नाथ! हेरिए हलकमें॥
सहित समाज महाराज सो जहाजराजु
बूड़ि गयो जाके बल-बारिधि-छलकमें।
टूटत पिनाककें मनाक बाम रामसे, ते
नाक बिनु भए भृगुनायकु पलकमें॥

मूल

जाके रोष-दुसह-त्रिदोष-दाह दूरि कीन्हे,
पैअत न छत्री-खोज खोजत खलकमें।
माहिषमतीको नाथ साहसी सहस बाहु,
समर-समर्थ नाथ! हेरिए हलकमें॥
सहित समाज महाराज सो जहाजराजु
बूड़ि गयो जाके बल-बारिधि-छलकमें।
टूटत पिनाककें मनाक बाम रामसे, ते
नाक बिनु भए भृगुनायकु पलकमें॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसके क्रोधरूपी दुःसह त्रिदोषके दाहद्वारा नष्ट कर दिये जानेसे संसारमें खोजनेपर भी क्षत्रियोंका पता नहीं लगता था, हे नाथ! जरा हृदयमें सोचकर देखिये, माहिष्मतीपुरीका राजा साहसी सहस्रबाहु रणमें कैसा समर्थ था। किंतु हे महाराज! वह सहस्रबाहुरूपी महान् जहाज अपने समाजसहित जिस परशुरामके बलरूपी समुद्रकी हिलोरमें ही डूब गया, वही परशुरामजी धनुष टूटनेपर श्रीरामचन्द्रसे कुछ टेढ़े होते ही क्षणभरमें बिना नाक (प्रतिष्ठा) के हो गये अथवा उनकी स्वर्गप्राप्ति रुक गयी*’॥ २५॥

पादटिप्पनी
  • श्रीवाल्मीकीय रामायणमें वर्णन आता है कि भगवान् श्रीरामने परशुरामजीके दिये हुए धनुषमें बाण संधान करते समय कहा कि यह बाण अमोघ है, इसके द्वारा आपका वध तो होगा नहीं, क्योंकि आप ब्राह्मण हैं, किंतु आप अपने तपोबलसे जिन दिव्यलोकोंको प्राप्त करनेवाले थे, उन लोकोंकी प्राप्ति अब आपको न हो सकेगी।
विश्वास-प्रस्तुतिः

कीन्ही छोनी छत्री बिनु छोनिप-छपनिहार,
कठिन कुठार पानि बीर-बानि जानि कै।
परम कृपाल जो नृपाल लोकपालन पै,
जब धनुहाई ह्वैहै मन अनुमानि कै॥
नाकमें पिनाक मिस बामता बिलोकि राम
रोक्यो परलोक लोक भारी भ्रमु भानि कै।
नाइ दस माथ महि, जोरि बीस हाथ, पिय!
मिलिए पै नाथ! रघुनाथु पहिचानि कै॥

मूल

कीन्ही छोनी छत्री बिनु छोनिप-छपनिहार,
कठिन कुठार पानि बीर-बानि जानि कै।
परम कृपाल जो नृपाल लोकपालन पै,
जब धनुहाई ह्वैहै मन अनुमानि कै॥
नाकमें पिनाक मिस बामता बिलोकि राम
रोक्यो परलोक लोक भारी भ्रमु भानि कै।
नाइ दस माथ महि, जोरि बीस हाथ, पिय!
मिलिए पै नाथ! रघुनाथु पहिचानि कै॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये राजाओंका संहार करनेवाले हैं तथा पृथ्वीको (कई बार) निःक्षत्रिय कर चुके हैं,इनके हाथमें कठिन कुठार रहता है और इनका वीरोंका-सा स्वभाव है, यह जानकर भगवान् श्रीरामने राजाओं तथा लोकपालोंपर अत्यन्त कृपापरवश हो मनमें यह अनुमान किया कि जिस समय इनका परशुरामजीके साथ धनुषयुद्ध होगा (उस समय इन लोगोंकी क्या दशा होगी) और यह देखकर कि पिनाकके बहानेको लेकर इनकी नाक सिकुड़ गयी है, परशुरामजीके परलोक (स्वर्गप्राप्ति) को रोक दिया और संसारके भारी भ्रमको (कि उनका सामना करनेवाला संसारमें कोई नहीं है) मिटा दिया। हे प्रिय! उन्हीं श्रीरामचन्द्रजीको (ईश्वर) जानकर अपने दसों सिर पृथ्वीपर रखकर और बीसों हाथ जोड़कर मिलो॥ २६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कह्यो मतु मातुल, बिभीषनहूँ बार-बार,
आँचरु पसार पिय! पायँ लै-लै हौं परी।
बिदित बिदेहपुर नाथ! भृगुनाथगति,
समय सयानी कीन्ही जैसी आइ गौं परी।
बायस, बिराध, खर, दूषन, कबंध, बालि,
बैर रघुबीरकें न पूरी काहूकी परी।
कंत बीस लोयन बिलोकिए कुमंतफलु,
ख्याल लंका लाई कपि राँड़की-सी झोपरी॥

मूल

कह्यो मतु मातुल, बिभीषनहूँ बार-बार,
आँचरु पसार पिय! पायँ लै-लै हौं परी।
बिदित बिदेहपुर नाथ! भृगुनाथगति,
समय सयानी कीन्ही जैसी आइ गौं परी।
बायस, बिराध, खर, दूषन, कबंध, बालि,
बैर रघुबीरकें न पूरी काहूकी परी।
कंत बीस लोयन बिलोकिए कुमंतफलु,
ख्याल लंका लाई कपि राँड़की-सी झोपरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मामाजी (मारीच) ने सलाह दी; विभीषणने भी बार-बार कहा और हे प्रिय! मैं भी अञ्चल पसारकर बार-बार तुम्हारे पैरों पड़ी [और भगवान् से विरोध न करनेके लिये प्रार्थना की]। हे नाथ! जनकपुरमें परशुरामजीकी क्या गति हुई सो प्रकट ही है। [अतः यह सोचकर कि ‘पहले उनसे वैर ठाना, उनकी शरण कैसे जाऊँ’ आपको सङ्कोच न करना चाहिये] उन्होंने समयपर जैसा अवसर आ पड़ा वैसी ही चतुराई कर ली। (अर्थात् रामचन्द्रजीके शरण हो गये।) जयन्त, विराध, खर, दूषण, कबन्ध और वालि—किसीका भी श्रीरामचन्द्रजीसे वैर करके पूरा नहीं पड़ा। हे स्वामिन्! अपने कुविचारोंका फल बीसों आँखोंसे देख लो कि कपिने खेलहीमें लङ्काको किसी अनाथ बेवाकी झोंपड़ीके समान जला दिया॥ २७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम सों सामु किएँ नितु है हितु, कोमल काज न कीजिए टाँठे।
आपनि सूझि कहौं, पिय! बूझिए , जूझिबे जोगु न ठाहरु, नाठे॥
नाथ! सुनी भृगुनाथकथा, बलि बालि गए चलि बातके साँठें।
भाइ बिभीषनु जाइ मिल्यो, प्रभु आइ परे सुनि सायर काँठें॥

मूल

राम सों सामु किएँ नितु है हितु, कोमल काज न कीजिए टाँठे।
आपनि सूझि कहौं, पिय! बूझिए , जूझिबे जोगु न ठाहरु, नाठे॥
नाथ! सुनी भृगुनाथकथा, बलि बालि गए चलि बातके साँठें।
भाइ बिभीषनु जाइ मिल्यो, प्रभु आइ परे सुनि सायर काँठें॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रसे मेल करनेमें ही सदा भलाई है। ऐसे सुगम कार्यको कठिन न बनाइये। हे प्रिय! मैं अपनी समझ कहती हूँ। इसे भलीभाँति समझ लीजिये कि यह स्थान युद्ध करनेका नहीं, किंतु युद्धसे हटनेका ही है। हे नाथ! आपने भृगुनाथ (परशुरामजी) की भी कथा सुन ही ली। बलवान् वालि बातके पीछे बरबाद हो गये। आपका भाई विभीषण भी (उनसे) जा मिला। हे स्वामिन्! सुनती हूँ, अब उन्होंने समुद्रके किनारे पहुँचकर पड़ाव डाल दिया है॥ २८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पालिबे को कपि-भालु-चमू जम काल करालहुको पहरी है।
लंक-से बंक महा गढ़ दुर्गम ढाहिबे-दाहिबेको कहरी है॥
तीतर-तोम तमीचर-सेन समीरको सूनु बड़ो बहरी है।
नाथ! भलो रघुनाथ मिलें रजनीचर-सेन हिएँ हहरी है॥

मूल

पालिबे को कपि-भालु-चमू जम काल करालहुको पहरी है।
लंक-से बंक महा गढ़ दुर्गम ढाहिबे-दाहिबेको कहरी है॥
तीतर-तोम तमीचर-सेन समीरको सूनु बड़ो बहरी है।
नाथ! भलो रघुनाथ मिलें रजनीचर-सेन हिएँ हहरी है॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! वायुपुत्र (हनुमान्) वानर और भालुओंकी सेनाकी रक्षाके लिये यम और कराल कालकी भी चौकसी करनेवाला है, वह लङ्का-जैसे महाविकट और दुर्गम गढ़को ढाहने और जलानेमें बड़ा उत्पाती है। निशाचरोंकी सेनारूप तीतरोंके समूहका नाश करनेके लिये वह बड़ा भारी बाज है। हे नाथ! अब रघुनाथजीसे मिलनेहीमें भला है, निशाचरोंकी सेना हृदयमें थर्रा गयी है॥ २९॥

राक्षस-वानर-संग्राम

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोष्यो रन रावनु, बोलाए बीर बानइत,
जानत जे रीति सब संजुग समाजकी।
चली चतुरंग चमू, चपरि हने निसान,
सेना सराहनु जोगु रातिचरराजकी॥
तुलसी बिलोकि कपि-भालु किलकत
ललकत लखि ज्यों कँगाल पातरी सुनाजकी।
रामरुख निरखि हरष्यो हियँ हनूमानु,
मानो खेलवार खोली सीसताज बाजकी॥

मूल

रोष्यो रन रावनु, बोलाए बीर बानइत,
जानत जे रीति सब संजुग समाजकी।
चली चतुरंग चमू, चपरि हने निसान,
सेना सराहनु जोगु रातिचरराजकी॥
तुलसी बिलोकि कपि-भालु किलकत
ललकत लखि ज्यों कँगाल पातरी सुनाजकी।
रामरुख निरखि हरष्यो हियँ हनूमानु,
मानो खेलवार खोली सीसताज बाजकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब रावणने क्रोधित होकर युद्धके लिये बड़े यशस्वी वीरोंको बुलाया, जो युद्धकी तैयारीकी सारी रीति जानते थे। चतुरङ्गिणी सेनाने प्रस्थान किया, बड़े तपाकसे नगाड़े बजने लगे, उस समय राक्षसराज (रावण) की सेना सराहनेयोग्य थी। गोसाईंजी कहते हैं, उस सेनाको देखकर वानर और भालु किलकारी मारने लगे; जैसे कंगाल सुन्दर अन्नकी परोसी हुई पत्तल देखकर ललचाते हैं। श्रीरामचन्द्रजीका इशारा पाकर हनुमान् जी हर्षित हुए , मानो खिलाड़ी (शिकारी) ने बाजकी टोपी खोल दी (अर्थात् उसे शिकारके लिये स्वतन्त्रता दे दी)॥ ३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साजि कै सनाह-गजगाह सउछाह दल,
महाबली धाए बीर जातुधान धीरके।
इहाँ भालु-बंदर बिसाल मेरु-मंदर-से
लिए सैल-साल तोरि नीरनिधितीरके॥
तुलसी तमकि-ताकि भिरे भारी जुद्ध क्रुद्ध,
सेनप सराहे निज निज भट भीरके।
रुंडनके झुंड झूमि-झूमि झुकरे-से नाचैं,
समर सुमार सूर मारैं रघुबीरके॥

मूल

साजि कै सनाह-गजगाह सउछाह दल,
महाबली धाए बीर जातुधान धीरके।
इहाँ भालु-बंदर बिसाल मेरु-मंदर-से
लिए सैल-साल तोरि नीरनिधितीरके॥
तुलसी तमकि-ताकि भिरे भारी जुद्ध क्रुद्ध,
सेनप सराहे निज निज भट भीरके।
रुंडनके झुंड झूमि-झूमि झुकरे-से नाचैं,
समर सुमार सूर मारैं रघुबीरके॥

अनुवाद (हिन्दी)

धीर रावणके महाबली वीरोंका दल कवच और गजगाह (हाथियोंकी झूल) सजाकर उत्साहपूर्वक चला। यहाँ मेरु और मन्दर पर्वतके समान विशाल वानर और भालुओंने समुद्रके किनारेके पर्वत और शालवृक्ष उखाड़ लिये। गोसाईंजी कहते हैं—फिर (दोनों दल) क्रोधित हो तमककर एक-दूसरेकी ओर ताककर भारी युद्धमें भिड़ गये। सेनापतिलोग अपने-अपने दलके वीरोंकी सराहना करने लगे। झुंड-के-झुंड रुंड (बिना सिरके धड़) झूम-झूमकर झुकरे-से (परस्पर क्रुद्ध हुए-से) नाचने लगे और श्रीरामचन्द्रके वीर युद्धमें सुमार (कठिन मार) मारने लगे॥ ३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तीखे तुरंग कुरंग सुरंगनि साजि चढ़े छँटि छैल छबीले।
भारी गुमान जिन्हें मनमें, कबहूँ न भए रनमें तन ढीले॥
तुलसी लखि कै गज केहरि ज्यों झपटे, पटके सब सूर सलीले।
भूमि परे भट घूमि कराहत, हाँकि हने हनुमान हठीले॥

मूल

तीखे तुरंग कुरंग सुरंगनि साजि चढ़े छँटि छैल छबीले।
भारी गुमान जिन्हें मनमें, कबहूँ न भए रनमें तन ढीले॥
तुलसी लखि कै गज केहरि ज्यों झपटे, पटके सब सूर सलीले।
भूमि परे भट घूमि कराहत, हाँकि हने हनुमान हठीले॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके मनमें बड़ा गर्व था और रणमें जिनका शरीर कभी ढीला नहीं हुआ था; ऐसे चुने हुए छबीले छैल हरिणके समान तेज भागनेवाले एवं सुन्दर रंगवाले घोड़ोंको साजकर सवार हुए। गोसाईंजी कहते हैं कि जैसे हाथीको देखकर सिंह झपटता है, उसी प्रकार हनुमान् जी लीलाहीसे सब वीरोंको झपटकर पटकने लगे और वे घूम-घूमकर पृथ्वीपर गिरने तथा कराहने लगे। इस प्रकार हठीले हनुमान् जी ललकार-ललकारकर राक्षसोंका वध करने लगे॥ ३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूर सँजोइल साजि सुबाजि, सुसेल धरैं बगमेल चले हैं।
भारी भुजा भरी, भारी सरीर, बली बिजयी सब भाँति भले हैं॥
‘तुलसी’ जिन्ह धाएँ धुकै धरनी, धरनीधर धौर धकान हले हैं।
ते रन-तीक्खन लक्खन लाखन दानि ज्यों दारिद दाबि दले हैं॥

मूल

सूर सँजोइल साजि सुबाजि, सुसेल धरैं बगमेल चले हैं।
भारी भुजा भरी, भारी सरीर, बली बिजयी सब भाँति भले हैं॥
‘तुलसी’ जिन्ह धाएँ धुकै धरनी, धरनीधर धौर धकान हले हैं।
ते रन-तीक्खन लक्खन लाखन दानि ज्यों दारिद दाबि दले हैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े-बड़े सजीले वीर सुन्दर घोड़ोंको सजाकर और तीखे भाले धारणकर घोड़ोंकी बागडोर छोड़कर (अथवा मिलाकर बराबर-बराबर) चले। उनकी बड़ी-बड़ी भरी हुई (मांसल) भुजाएँ और भारी शरीर हैं, वे सब प्रकार बली, विजयी और सुहावने मालूम होते हैं। गोसाईंजी कहते हैं—जिनके दौड़नेसे पृथ्वी काँपने लगती है और कठिन धक्कोंसे पर्वत डोलने लगते हैं, ऐसे रणमें तीक्ष्ण लाखों वीरोंको युद्धभूमिमें लक्ष्मणजीने इस प्रकार पराभव करके नष्ट कर दिया जैसे कोई दानी पुरुष [बहुत-सी सम्पत्ति दान कर] दरिद्रताको नष्ट कर देता है॥ ३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गहि मंदर बंदर-भालु चले, सो मनो उनये घन सावनके।
‘तुलसी’ उत झुंड प्रचंड झुके, झपटैं भट जे सुरदावनके॥
बिरुझे बिरुदैत जे खेत अरे, न टरे हठि बैरु बढ़ावनके।
रन मारि मची उपरी-उपरा भलें बीर रघुप्पति रावनके॥

मूल

गहि मंदर बंदर-भालु चले, सो मनो उनये घन सावनके।
‘तुलसी’ उत झुंड प्रचंड झुके, झपटैं भट जे सुरदावनके॥
बिरुझे बिरुदैत जे खेत अरे, न टरे हठि बैरु बढ़ावनके।
रन मारि मची उपरी-उपरा भलें बीर रघुप्पति रावनके॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानर और भालु पर्वतोंको लेकर इस प्रकार चले मानो सावनकी घटा घिर आयी हो। गोसाईंजी कहते हैं कि उधर देवताओंका नाश करनेवाले (रावण) के प्रचण्ड वीर और भी झुंड-के-झुंड क्रुद्ध होकर झपटने लगे। हठपूर्वक वैर बढ़ानेवाले (रावणके) बहुत-से यशस्वी वीर जो मैदानमें अड़े थे, वे एक-दूसरेसे भिड़ गये और टालनेसे भी नहीं टलते थे। इस प्रकार श्रीरामचन्द्र और रावणके वीरोंमें ऊपरा-ऊपरी करके युद्धस्थलमें खूब लड़ाई छिड़ गयी॥ ३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर-तोमर सेलसमूह पँवारत, मारत बीर निसाचरके।
इत तें तरु-ताल-तमाल चले, खर खंड प्रचंड महीधरके॥
‘तुलसी’ करि केहरिनादु भिरे भट, खग्ग खगे, खपुआ खरके।
नख-दंतन सों भुजदंड बिहंडत, मुंडसों मुंड परे झरकैं॥

मूल

सर-तोमर सेलसमूह पँवारत, मारत बीर निसाचरके।
इत तें तरु-ताल-तमाल चले, खर खंड प्रचंड महीधरके॥
‘तुलसी’ करि केहरिनादु भिरे भट, खग्ग खगे, खपुआ खरके।
नख-दंतन सों भुजदंड बिहंडत, मुंडसों मुंड परे झरकैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

राक्षस (रावण)के वीर तीर, बरछी और सेलोंके समूह फेंक-फेंककर मारते हैं और इधरसे ताड़ और तमालके वृक्ष तथा पर्वतोंके बड़े-बड़े पैने टुकड़े चलते हैं। गोसाईंजी कहते हैं कि सब वीर सिंहनाद करके भिड़ गये। उनमें जो शूर थे, वे तो तलवारोंके बीचमें धँस गये और कायर खिसक गये। (वानरगण) नख और दाँतोंसे भुजदण्डोंको विदीर्ण करते हैं और (भूमिपर) पड़े हुए मुण्ड एक-दूसरेका तिरस्कार करते हैं॥ ३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रजनीचर-मत्तगयंद-घटा बिघटै मृगराजके साज लरै।
झपटै भट कोटि महीं पटकै, गरजै, रघुबीरकी सौंह करै॥
‘तुलसी’ उत हाँक दसाननु देत, अचेत भे बीर, को धीर धरै।
बिरुझो रन मारुतको बिरुदैत, जो कालहु कालुसो बूझि परै॥

मूल

रजनीचर-मत्तगयंद-घटा बिघटै मृगराजके साज लरै।
झपटै भट कोटि महीं पटकै, गरजै, रघुबीरकी सौंह करै॥
‘तुलसी’ उत हाँक दसाननु देत, अचेत भे बीर, को धीर धरै।
बिरुझो रन मारुतको बिरुदैत, जो कालहु कालुसो बूझि परै॥

अनुवाद (हिन्दी)

(हनुमान् जी) राक्षसरूपी मतवाले हाथियोंके समूहका नाश करते हुए सिंहके समान युद्ध करते हैं। (वे) झपटकर करोड़ों वीरोंको पृथ्वीपर पटककर गर्जते हैं और श्रीरामचन्द्रकी दुहाई देते हैं। गोस्वामीजी कहते हैं कि उधरसे रावण हाँक देता है, (जिसे सुनकर रामचन्द्रजीके पक्षके) वीर अचेत हो जाते हैं— (उस हाँकको सुनकर) कौन ऐसा है जो धैर्य धारण कर सके? यशस्वी वीर वायुनन्दन युद्धभूमिमें भिड़ गये, जो इस समय कालको भी काल-से दीख पड़ते हैं॥ ३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे रजनीचर बीर बिसाल, कराल बिलोकत काल न खाए।
ते रन-रोर कपीसकिसोर बड़े बरजोर परे फग पाए॥
लूम लपेटि, अकास निहारि कै, हाँकि हठी हनुमान चलाए।
सूखि गे गात, चले नभ जात, परे भ्रमबात, न भूतल आए॥

मूल

जे रजनीचर बीर बिसाल, कराल बिलोकत काल न खाए।
ते रन-रोर कपीसकिसोर बड़े बरजोर परे फग पाए॥
लूम लपेटि, अकास निहारि कै, हाँकि हठी हनुमान चलाए।
सूखि गे गात, चले नभ जात, परे भ्रमबात, न भूतल आए॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन विशाल वीर निशाचरोंको विकराल समझकर कालने भी नहीं खाया, उन रणकर्कश बलवानोंको केसरीकिशोरने अपने दाँवमें पड़े पाया और उन्हें ललकारकर हठी हनुमान् जी ने आकाशकी ओर देखते हुए पूँछमें लपेटकर फेंक दिया। उनके शरीर सूख गये और बवंडरमें पड़नेसे आकाशमें चले जा रहे हैं, लौटकर पृथ्वीपर नहीं आते॥ ३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो दससीसु महीधर ईसको बीस भुजा खुलि खेलनिहारो।
लोकप, दिग्गज, दानव, देव सबै सहमे सुनि साहसु भारो॥
बीर बड़ो बिरुदैत बली, अजहूँ जग जागत जासु पँवारो।
सो हनुमान हन्यो मुठिकाँ गिरि गो गिरिराजु ज्यों गाजको मारो॥

मूल

जो दससीसु महीधर ईसको बीस भुजा खुलि खेलनिहारो।
लोकप, दिग्गज, दानव, देव सबै सहमे सुनि साहसु भारो॥
बीर बड़ो बिरुदैत बली, अजहूँ जग जागत जासु पँवारो।
सो हनुमान हन्यो मुठिकाँ गिरि गो गिरिराजु ज्यों गाजको मारो॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो रावण शिवजीके पर्वत (कैलास)को बीसों भुजाओंसे उठाकर स्वच्छन्दतापूर्वक खेलनेवाला था, जिसके भारी साहसको सुनकर लोकपाल, दिक्पाल, दैत्य और देवगण सभी डर गये थे, जो बड़ा यशस्वी और बलशाली वीर था तथा जिसकी कीर्ति कथा आज भी जगत् में गायी जाती है, उसी रावणको हनुमान् जी ने मुक्केसे मारा तो जैसे वज्रके प्रहारसे पर्वत गिर जाता है, उसी प्रकार गिर गया॥ ३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्गम दुर्ग, पहारतें भारे, प्रचंड महा भुजदंड बने हैं।
लक्खमें पक्खर, तिक्खन तेज, जे सूर समाजमें गाज गने हैं॥
ते बिरुदैत बली रनबाँकुरे हाँकि हठी हनुमान हने हैं।
नामु लै रामु देखावत बंधुको घूमत घायल घायँ घने हैं॥

मूल

दुर्गम दुर्ग, पहारतें भारे, प्रचंड महा भुजदंड बने हैं।
लक्खमें पक्खर, तिक्खन तेज, जे सूर समाजमें गाज गने हैं॥
ते बिरुदैत बली रनबाँकुरे हाँकि हठी हनुमान हने हैं।
नामु लै रामु देखावत बंधुको घूमत घायल घायँ घने हैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके महाप्रचण्ड भुजदण्ड दुर्ग (किले)से भी दुर्गम और पहाड़से भी विशाल हैं, जो लाखोंमें प्रबल हैं और जिनका तेज बड़ा तीक्ष्ण है तथा जो शूर-समाजमें बिजलीके समान गिने जाते हैं, उन रणबाँकुरे प्रसिद्ध पराक्रमी निशाचरोंको हठी हनुमान् जी ने प्रचार कर मारा है और जो वीर बहुत चोट खाये हुए घूम रहे हैं, उनको श्रीरामचन्द्रजी नाम ले-लेकर अपने भाई लक्ष्मणजीको दिखला रहे हैं॥ ३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हाथिन सों हाथी मारे, घोरेसों सँघारे घोरे,
रथनि सों रथ बिदरनि बलवानकी।
चंचल चपेट, चोट चरन, चकोट चाहें,
हहरानीं फौजैं भहरानीं जातुधानकी॥
बार-बार सेवक सराहना करत रामु,
‘तुलसी’ सराहै रीति साहेब सुजानकी।
लाँबी लूम लसत, लपेटि पटकत भट,
देखौ देखौ, लखन! लरनि हनुमानकी॥

मूल

हाथिन सों हाथी मारे, घोरेसों सँघारे घोरे,
रथनि सों रथ बिदरनि बलवानकी।
चंचल चपेट, चोट चरन, चकोट चाहें,
हहरानीं फौजैं भहरानीं जातुधानकी॥
बार-बार सेवक सराहना करत रामु,
‘तुलसी’ सराहै रीति साहेब सुजानकी।
लाँबी लूम लसत, लपेटि पटकत भट,
देखौ देखौ, लखन! लरनि हनुमानकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हाथियोंसे हाथियोंको मार डाला है, घोड़ोंसे घोड़ोंका संहार कर दिया और रथोंसे मजबूत रथको (टकराकर) तोड़ डाला। हनुमान् जी की चञ्चल चपेट, लातोंकी चोट और चुटकी काटना देखकर निशाचरोंकी सेनाएँ घबड़ा गयीं और चक्कर खाकर गिरने लगीं। श्रीराम बार-बार अपने सेवककी सराहना करते हुए कहते हैं—लक्ष्मण! तनिक हनुमान् जी का युद्धकौशल तो देखो, उनकी लंबी पूँछ कैसी शोभायमान है, जिसमें लपेट-लपेटकर वे राक्षसवीरोंको पटक रहे हैं। गोसाईंजी भी अपने सुजान स्वामीकी (सेवक-वत्सलताकी) रीतिकी सराहना करते हैं॥ ४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दबकि दबोरे एक,बारिधिमें बोरे एक,
मगन महीमें, एक गगन उड़ात हैं।
पकरि पछारे कर, चरन उखारे एक,
चीरि-फारि डारे, एक मीजि मारे लात हैं॥
‘तुलसी’ लखत, रामु, रावन, बिबुध, बिधि,
चक्रपानि, चंडीपति, चंडिका सिहात हैं।
बड़े-बड़े बानइत बीर बलवान बड़े,
जातुधान, जूथप निपाते बातजात हैं॥

मूल

दबकि दबोरे एक,बारिधिमें बोरे एक,
मगन महीमें, एक गगन उड़ात हैं।
पकरि पछारे कर, चरन उखारे एक,
चीरि-फारि डारे, एक मीजि मारे लात हैं॥
‘तुलसी’ लखत, रामु, रावन, बिबुध, बिधि,
चक्रपानि, चंडीपति, चंडिका सिहात हैं।
बड़े-बड़े बानइत बीर बलवान बड़े,
जातुधान, जूथप निपाते बातजात हैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने किसीको चुपकेसे दबोच डाला, किसीको समुद्रमें डुबा दिया, किसीको पृथ्वीमें गाड़ दिया, किसीको आकाशमें उड़ा दिया, किसीको हाथ पकड़कर पछाड़ दिया, किसीके पैर उखाड़ लिये, किसीको चीर-फाड़ डाला और किसीको लातसे मसलकर मार दिया। गोसाईंजी कहते हैं कि उन्हें देखकर श्रीराम और रावण, देवगण, ब्रह्मा, विष्णु, शिव और चण्डी मन-ही-मन प्रशंसा कर रहे हैं। हनुमान् जी ने बड़े-बड़े यशस्वी वीर और बलवान् निशाचर सेनापतियोंको मार डाला॥ ४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रबल प्रचंड बरिबंड बाहुदंड बीर
धाए जातुधान, हनुमानु लियो घेरि कै।
महाबलपुंज कुंजरारि ज्यों गरजि, भट
जहाँ-तहाँ पटके लँगूर फेरि-फेरि कै।
मारे लात, तोरे गात, भागे जात हाहा खात,
कहैं, ‘तुलसीस! राखि’ रामकी सौं टेरि कै।
ठहर-ठहर, परे, कहरि-कहरि उठैं,
हहरि-हहरि हरु सिद्ध हँसे हेरि कै॥

मूल

प्रबल प्रचंड बरिबंड बाहुदंड बीर
धाए जातुधान, हनुमानु लियो घेरि कै।
महाबलपुंज कुंजरारि ज्यों गरजि, भट
जहाँ-तहाँ पटके लँगूर फेरि-फेरि कै।
मारे लात, तोरे गात, भागे जात हाहा खात,
कहैं, ‘तुलसीस! राखि’ रामकी सौं टेरि कै।
ठहर-ठहर, परे, कहरि-कहरि उठैं,
हहरि-हहरि हरु सिद्ध हँसे हेरि कै॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब जिनके भुजदण्ड बड़े उद्दण्ड हैं ऐसे बहुत-से प्रबल और प्रचण्ड राक्षसवीर दौड़े और उन्होंने हनुमान् जी को घेर लिया। किंतु महाबलराशि वीर हनुमान् जी सिंहके समान गरजकर उन वीरोंको लाङ्गूल घुमा-घुमाकर जहाँ-तहाँ पटकने लगे। उन्होंने मारे लातोंके राक्षसोंके अङ्ग-प्रत्यङ्ग तोड़ डाले। वे गिड़गिड़ाते हुए भागे जाते हैं और श्रीरामचन्द्रजीकी दुहाई देकर कहते हैं कि हे तुलसीदासके स्वामी हनुमान्! हमारी रक्षा करो। वे ठौर-ठौर पड़े कराह-कराहकर उठते हैं, उन्हें देख-देखकर शिवजी और सिद्धगण ठहाका मारकर हँसने लगे॥ ४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाकी बाँकी बीरता सुनत सहमत सूर,
जाकी आँच अबहूँ लसत लंक लाह-सी।
सोई हनुमान बलवान बाँको बानइत,
जोहि जातुधान-सेना चल्यो लेत थाह-सी॥
कंपत अकंपन, सुखाय अतिकाय काय,
कुंभऊकरन आइ रह्यो पाइ आह-सी।
देखें गजराज मृगराजु ज्यों गरजि धायो,
बीर रघुबीरको समीरसूनु साहसी॥

मूल

जाकी बाँकी बीरता सुनत सहमत सूर,
जाकी आँच अबहूँ लसत लंक लाह-सी।
सोई हनुमान बलवान बाँको बानइत,
जोहि जातुधान-सेना चल्यो लेत थाह-सी॥
कंपत अकंपन, सुखाय अतिकाय काय,
कुंभऊकरन आइ रह्यो पाइ आह-सी।
देखें गजराज मृगराजु ज्यों गरजि धायो,
बीर रघुबीरको समीरसूनु साहसी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी बाँकी वीरताको सुनकर वीरलोग भय खाते हैं, जिसकी लगायी हुई आँचसे आज भी लंका लाह-सी मालूम होती है, वही बाँके बानेवाले बलवान् हनुमान् जी निशाचरोंकी सेनाको देखकर उसकी थाह-सी लेने चले। उस समय अकम्पन (रावणका पुत्र) काँपने लगा, अतिकाय (रावणके पुत्र)का शरीर सूख गया और कुम्भकर्ण भी आकर आह-सी लेकर पड़ रहा। जैसे गजराजोंको देखकर सिंह दौड़ता है, वैसे ही श्रीरामचन्द्रजीके वीर साहसी पवनपुत्र (हनुमान् जी) उन्हें देखते ही गरजकर दौड़े॥ ४३॥

विषय (हिन्दी)

झूलना

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्त-भट-मुकुट, दसकंठ-साहस-सइल-
सृंग-बिद्दरनि जनु बज्र-टाँकी।
दसन धरि धरनि चिक्करत दिग्गज, कमठु,
सेषु संकुचित, संकित पिनाकी॥
चलत महि-मेरु,उच्छलत सायर सकल,
बिकल बिधि बधिर दिसि-बिदिसि झाँकी।
रजनिचर-घरनि घर गर्भ-अर्भक स्रवत,
सुनत हनुमानकी हाँक बाँकी॥

मूल

मत्त-भट-मुकुट, दसकंठ-साहस-सइल-
सृंग-बिद्दरनि जनु बज्र-टाँकी।
दसन धरि धरनि चिक्करत दिग्गज, कमठु,
सेषु संकुचित, संकित पिनाकी॥
चलत महि-मेरु,उच्छलत सायर सकल,
बिकल बिधि बधिर दिसि-बिदिसि झाँकी।
रजनिचर-घरनि घर गर्भ-अर्भक स्रवत,
सुनत हनुमानकी हाँक बाँकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो उन्मत्त वीरोंमें शिरोमणि रावणके साहसरूपी शैलशिखरको विदीर्ण करनेके लिये मानो वज्रकी टाँकी हैं, उन हनुमान् जी की भयंकर ललकारको सुनकर दिक्पाल दाँतोंसे पृथ्वीको दबाकर चिक्कारने लगते हैं, कच्छप और शेषजी (भयके मारे) सिकुड़ जाते हैं और शिवजी भी संदेहमें पड़ जाते हैं, पृथ्वी तथा सुमेरु विचलित हो जाते हैं, सातों समुद्र उछलने लगते हैं, ब्रह्माजी व्याकुल तथा बधिर होकर दिशा-विदिशाओंको झाँकने लगते हैं और घर-घरमें निशाचरोंकी स्त्रियोंके गर्भपात होने लगते हैं॥ ४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कौनकी हाँकपर चौंक चंडीसु, बिधि,
चंडकर थकित फिरि तुरग हाँके।
कौनके तेज बलसीम भट भीम-से
भीमता निरखि कर नयन ढाँके॥
दास-तुलसीसके बिरुद बरनत बिदुष,
बीर बिरुदैत बर बैरि धाँके।
नाक नरलोक पाताल कोउ कहत किन,
कहाँ हनुमानु-से बीर बाँके॥

मूल

कौनकी हाँकपर चौंक चंडीसु, बिधि,
चंडकर थकित फिरि तुरग हाँके।
कौनके तेज बलसीम भट भीम-से
भीमता निरखि कर नयन ढाँके॥
दास-तुलसीसके बिरुद बरनत बिदुष,
बीर बिरुदैत बर बैरि धाँके।
नाक नरलोक पाताल कोउ कहत किन,
कहाँ हनुमानु-से बीर बाँके॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसकी हाँकपर ब्रह्मा और शिवजी चौंक उठते हैं और सूर्य थकित होकर फिर (अपने रथके) घोड़ोंको हाँकते हैं? किसके तेजकी भयंकरताको देखकर भीमसेन-जैसे बलसीम वीर भी हाथोंसे नेत्र मूँद लेते हैं? बुद्धिमान् लोग तुलसीदासके स्वामी (हनुमान् जी) के यशका गान करते हुए कहते हैं कि उन्होंने अच्छे-अच्छे कीर्तिशाली वीर शत्रुओंपर धाक जमा ली। कोई बतलावे तो सही कि हनुमान् जी के समान बाँका वीर आकाश, मनुष्यलोक और पातालमें कहाँ है?॥ ४५॥

विषय (हिन्दी)

जातुधानावली-मत्तकुंजरघटा

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरखि मृगराजु ज्यों गिरितें टूटॺो।
बिकट चटकन चोट,चरन गहि, पटकि महि,
निघटि गए सुभट, सतु सबको छूटॺो॥
‘दासु तुलसी’ परत धरनि धरकत, झुकत
हाट-सी उठति जंबुकनि लूटॺो।
धीर रघुबीरको बीर रनबाँकुरो
हाँकि हनुमान कुलि कटकु कूटॺो॥

मूल

निरखि मृगराजु ज्यों गिरितें टूटॺो।
बिकट चटकन चोट,चरन गहि, पटकि महि,
निघटि गए सुभट, सतु सबको छूटॺो॥
‘दासु तुलसी’ परत धरनि धरकत, झुकत
हाट-सी उठति जंबुकनि लूटॺो।
धीर रघुबीरको बीर रनबाँकुरो
हाँकि हनुमान कुलि कटकु कूटॺो॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मतवाले हाथियोंके झुंडको देखकर सिंह पर्वतपरसे उनपर टूट पड़ता है, वैसे ही राक्षसोंके समूहको देखकर हनुमान् जी उनपर झपट पड़े। चपतोंकी विकट चोटसे और पाँव पकड़कर पृथ्वीपर पछाड़नेसे सब वीर निःशेष हो गये और सबका बल जाता रहा। गोसाईंजी कहते हैं कि वीरोंके पृथ्वीपर गिरनेसे पृथ्वी धड़कने लगी और वीरोंको गिरते-गिरते स्यारोंने इस प्रकार लूट लिया जैसे उठती हुई पैठको लुटेरे लूट लेते हैं। श्रीरामचन्द्रजीके धीर-वीर रणबाँकुरे हनुमान् जी ने ललकार-ललकारकर सारी सेनाकी कुन्दी कर दी॥ ४६॥

विषय (हिन्दी)

छप्पै

विश्वास-प्रस्तुतिः

कतहुँ बिटप-भूधर उपारि परसेन बरष्षत।
कतहुँ बाजिसों बाजि मर्दि, गजराज करष्षत॥
चरनचोट चटकन चकोट अरि-उर-सिर बज्जत।
बिकट कटकु बिद्दरत बीरु बारिदु जिमि गज्जत॥
लंगूर लपेटत पटकि भट, ‘जयति राम, जय!’ उच्चरत।
तुलसीस पवननंदनु अटल जुद्ध क्रुद्ध कौतुक करत॥

मूल

कतहुँ बिटप-भूधर उपारि परसेन बरष्षत।
कतहुँ बाजिसों बाजि मर्दि, गजराज करष्षत॥
चरनचोट चटकन चकोट अरि-उर-सिर बज्जत।
बिकट कटकु बिद्दरत बीरु बारिदु जिमि गज्जत॥
लंगूर लपेटत पटकि भट, ‘जयति राम, जय!’ उच्चरत।
तुलसीस पवननंदनु अटल जुद्ध क्रुद्ध कौतुक करत॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे कहीं तो वृक्ष और पर्वत उखाड़कर शत्रुसेनापर बरसाते हैं, कहीं घोड़ेसे घोड़ेको मसल डालते हैं और कहीं हाथियोंको घसीट-घसीटकर मारते हैं। उनके लात और थप्पड़की चोट शत्रुओंकी छाती और सिरपर बजती है। वे वीरवर उस कठिन सेनाका संहार करते हुए मेघके समान गरजते हैं। योद्धाओंको पूँछमें लपेटकर (पृथ्वीपर) पटकते हुए वे ‘जय राम’, ‘जय राम!’ उच्चारण करते हैं। इस प्रकार तुलसीदासके प्रभु पवनकुमार (हनुमान् जी) क्रोधित होकर अविचल युद्धलीला करते हैं॥ ४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अंग-अंग दलित ललित फूले किंसुक-से
हने भट लाखन लखन जातुधानके।
मारि कै, पछारि कै, उपारि भुजदंड चंड,
खंडि-खंडि डारे ते बिदारे हनुमानके॥
कूदत कबंधके कदंब बंब-सी करत,
धावत दिखावत हैं लाघौ राघौबानके।
तुलसी महेसु, बिधि, लोकपाल, देवगन,
देखत बेवान चढ़े कौतुक मसानके॥

मूल

अंग-अंग दलित ललित फूले किंसुक-से
हने भट लाखन लखन जातुधानके।
मारि कै, पछारि कै, उपारि भुजदंड चंड,
खंडि-खंडि डारे ते बिदारे हनुमानके॥
कूदत कबंधके कदंब बंब-सी करत,
धावत दिखावत हैं लाघौ राघौबानके।
तुलसी महेसु, बिधि, लोकपाल, देवगन,
देखत बेवान चढ़े कौतुक मसानके॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजीके द्वारा मारे हुए रावणके लाखों वीरोंका अङ्ग-अङ्ग घायल हो गया, जिससे वे फूले हुए सुन्दर पलाशके समान मालूम होते हैं (और कुछ वीरोंको) हनुमान् जी ने मारकर, पछाड़कर, उनके प्रबल भुजदण्डोंको उखाड़कर, विदीर्णकर तथा खण्ड-खण्ड करके डाल दिया। कबन्धोंके झुंड बं-बं शब्द करते कूदते-फिरते हैं और दौड़-दौड़कर मानो श्रीरामचन्द्रके बाणोंकी शीघ्रता दिखाते हैं। गोसाईंजी कहते हैं कि उस समय शिव, ब्रह्मा, (आठों) लोकपाल और (अन्य) देवगण भी विमानोंपर चढ़े रणभूमिका तमाशा देखते हैं॥ ४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोथिन सों लोहूके प्रबाह चले जहाँ-तहाँ
मानहुँ गिरिन्ह गेरु-झरना झरत हैं।
श्रोनितसरित घोर, कुंजर-करारे भारे,
कूलतें समूल बाजि-बिटप परत हैं॥
सुभट-सरीर नीरचारी भारी-भारी तहाँ,
सूरनि उछाहु, कूर-कादर डरत हैं।
फेकरि-फेकरि फेरु फारि-फारि पेट खात,
काक-कंक बालक कोलाहलु करत हैं॥

मूल

लोथिन सों लोहूके प्रबाह चले जहाँ-तहाँ
मानहुँ गिरिन्ह गेरु-झरना झरत हैं।
श्रोनितसरित घोर, कुंजर-करारे भारे,
कूलतें समूल बाजि-बिटप परत हैं॥
सुभट-सरीर नीरचारी भारी-भारी तहाँ,
सूरनि उछाहु, कूर-कादर डरत हैं।
फेकरि-फेकरि फेरु फारि-फारि पेट खात,
काक-कंक बालक कोलाहलु करत हैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ-तहाँ लोथोंसे लोहूकी धाराएँ बह चलीं, मानो पर्वतोंसे गेरूके झरने झर रहे हैं। लोहूकी भयंकर नदी बहने लगी; हाथी उस नदीके भारी करारे हैं और घोड़े गिरते हुए ऐसे मालूम होते हैं मानो किनारेके वृक्ष जड़सहित उखड़कर पड़ रहे हैं। वीरोंके शरीर उस नदीके बड़े-बड़े जल-जन्तु हैं। उस दृश्यको देखकर शूरवीरोंको तो बड़ा उत्साह होता है; किंतु निकम्मे और कायर लोग डरते हैं। सियार चिल्ला-चिल्लाकर पेट फाड़-फाड़कर खाते हैं और कौए , गृध्र आदि बालकोंके समान कोलाहल कर रहे हैं॥ ४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ओझरीकी झोरी काँधें, आँतनिकी सेल्ही बाँधें,
मूँड़के कमंडल खपर किएँ कोरि कै।
जोगिनी झुटुंग झुंड-झुंड बनीं तापसीं-सी
तीर-तीर बैठीं सो समर-सरि खोरि कै॥
श्रोनितसों सानि-सानि गूदा खात सतुआ-से
प्रेत एक पिअत बहोरि घोरि-घोरि कै।
‘तुलसी’ बैताल-भूत साथ लिए भूतनाथु,
हेरि-हेरि हँसत हैं हाथ-हाथ जोरि कै॥

मूल

ओझरीकी झोरी काँधें, आँतनिकी सेल्ही बाँधें,
मूँड़के कमंडल खपर किएँ कोरि कै।
जोगिनी झुटुंग झुंड-झुंड बनीं तापसीं-सी
तीर-तीर बैठीं सो समर-सरि खोरि कै॥
श्रोनितसों सानि-सानि गूदा खात सतुआ-से
प्रेत एक पिअत बहोरि घोरि-घोरि कै।
‘तुलसी’ बैताल-भूत साथ लिए भूतनाथु,
हेरि-हेरि हँसत हैं हाथ-हाथ जोरि कै॥

अनुवाद (हिन्दी)

कंधेपर पेटकी पचौनी* की झोली लिये, अँतड़ियोंकी सेल्ही (गंडा) बाँधे और खोपड़ीके कमण्डलुको खुरचकर खप्पर बनाये जटाधारी जोगिनियोंके झुंड-के-झुंड तपस्विनियोंकी भाँति समररूपी नदीमें स्नान कर किनारे-किनारे बैठी हैं। वे गूदे (मांस) को रुधिरसे सान-सानकर सत्तूके समान खा रही हैं और कोई-कोई प्रेत उसे घोल-घोलकर पी जाते हैं। गोसाईंजी कहते हैं कि भूतनाथ भैरव भूत और वेतालोंको साथ लिये उनकी ओर देख-देखकर हाथ-से-हाथ मिला हँस रहे हैं॥ ५०॥

पादटिप्पनी
  • पेटके भीतरकी वह थैली जिसमें भोजन रहता है।
विश्वास-प्रस्तुतिः

राम-सरासन तें चले तीर रहे न सरीर, हड़ावरि फूटीं।
रावन धीर न पीर गनी, लखि लै कर खप्पर जोगिनि जूटीं॥
श्रोनित-छीट-छटानि जटे तुलसी प्रभु सोहैं, महाछबि छूटीं।
मानो मरक्कत-सैल बिसालमें फैलि चलीं बर बीरबहूटीं॥

मूल

राम-सरासन तें चले तीर रहे न सरीर, हड़ावरि फूटीं।
रावन धीर न पीर गनी, लखि लै कर खप्पर जोगिनि जूटीं॥
श्रोनित-छीट-छटानि जटे तुलसी प्रभु सोहैं, महाछबि छूटीं।
मानो मरक्कत-सैल बिसालमें फैलि चलीं बर बीरबहूटीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रके धनुषसे छूटकर बाण रावणके शरीरमें अटकते नहीं, अस्थिपञ्जरको फोड़कर निकल जाते हैं, तो भी धीर रावण इस पीड़ाको कुछ भी नहीं गिनता। यह देखकर जोगिनियाँ हाथमें खप्पर लेकर (रक्तपानार्थ) जुट गयीं। रुधिरके छींटोंकी छटासे युक्त होकर तुलसीदासके प्रभु (भगवान् श्रीरामचन्द्र) बड़े सुहावने मालूम होते हैं। उनकी सुन्दर छबि ऐसी मालूम होती है मानो मरकतके विशाल पर्वतपर सुन्दर बीरबहूटियाँ फैल गयी हों॥ ५१॥

लक्ष्मणमूर्च्छा

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानी मेघनादसों प्रचारि भिरे भारी भट,
आपने-अपन पुरुषारथ न ढील की।
घायल लखनलालु लखि बिलखाने रामु,
भई आस सिथिल जगन्निवास-दीलकी॥
भाईको न मोहु, छोहु सीयको न तुलसीस,
कहैं ‘मैं बिभीषनकी कछु न सबील की’।
लाज बाँह बोलेकी, नेवाजेकी सँभार-सार,
साहेबु न रामु-से बलाइ लेउँ सीलकी॥

मूल

मानी मेघनादसों प्रचारि भिरे भारी भट,
आपने-अपन पुरुषारथ न ढील की।
घायल लखनलालु लखि बिलखाने रामु,
भई आस सिथिल जगन्निवास-दीलकी॥
भाईको न मोहु, छोहु सीयको न तुलसीस,
कहैं ‘मैं बिभीषनकी कछु न सबील की’।
लाज बाँह बोलेकी, नेवाजेकी सँभार-सार,
साहेबु न रामु-से बलाइ लेउँ सीलकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़े-बड़े वीर अभिमानी मेघनादसे ललकारकर भिड़ गये और उन्होंने अपने-अपने पुरुषार्थमें कमी नहीं की। लक्ष्मणजीको घायल देखकर श्रीरामचन्द्रजी बिलखने लगे और जगत् के निवासस्थान (भगवान्) के दिलकी आशाएँ शिथिल हो गयीं। तुलसीदासके स्वामीको न तो भाईका मोह है और न जानकीजीकी ममता है, वे यही कह रहे हैं कि मैंने विभीषणके लिये कुछ भी प्रबन्ध नहीं किया। उन्हें तो अपने शरणमें लियेकी लाज है और अपने अनुगृहीत दासकी सार-सँभालका खयाल है। श्रीरामचन्द्रजीके समान कोई स्वामी नहीं है, मैं उनके शीलकी बलिहारी जाता हूँ॥ ५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कानन बासु, दसाननु सो रिपु,
आननश्री ससि जीति लियो है।
बालि महा बलसालि दल्यो,
कपि पालि बिभीषनु भूपु कियो है॥
तीय हरी, रन बंधु परॺो,
पै भरॺो सरनागत-सोच हियो है।
बाँह-पगार उदार कृपाल
कहाँ रघुबीरु सो बीरु बियो है॥

मूल

कानन बासु, दसाननु सो रिपु,
आननश्री ससि जीति लियो है।
बालि महा बलसालि दल्यो,
कपि पालि बिभीषनु भूपु कियो है॥
तीय हरी, रन बंधु परॺो,
पै भरॺो सरनागत-सोच हियो है।
बाँह-पगार उदार कृपाल
कहाँ रघुबीरु सो बीरु बियो है॥

अनुवाद (हिन्दी)

वनमें निवास है और दशमुख रावणके समान प्रबल शत्रु है, तो भी प्रभुके मुखकी शोभाने चन्द्रमाकी शोभाको जीत लिया है। महाबलशाली वालिको मारकर सुग्रीवकी रक्षा की और विभीषणको राजा बनाया। इधर स्त्री हरी गयी और भाई भी समरमें गिर गये, तो भी हृदयमें शरणागतकी ही चिन्ता है। भला, श्रीरामचन्द्रजीके समान अपनी भुजाका आश्रय देनेवाला उदार और दयालु वीर दूसरा कहाँ मिलेगा?॥ ५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लीन्हो उखारि पहारु बिसाल,
चल्यो तेहि काल, बिलंबु न लायो।
मारुतनंदन मारुतको, मनको,
खगराजको बेगु लजायो॥
तीखी तुरा ‘तुलसी’ कहतो,
पै हिएँ उपमाको समाउ न आयो।
मानो प्रतच्छ परब्बतकी नभ
लीक लसी, कपि यों धुकि धायो॥

मूल

लीन्हो उखारि पहारु बिसाल,
चल्यो तेहि काल, बिलंबु न लायो।
मारुतनंदन मारुतको, मनको,
खगराजको बेगु लजायो॥
तीखी तुरा ‘तुलसी’ कहतो,
पै हिएँ उपमाको समाउ न आयो।
मानो प्रतच्छ परब्बतकी नभ
लीक लसी, कपि यों धुकि धायो॥

अनुवाद (हिन्दी)

[लक्ष्मणजीकी मूर्च्छा-निवृत्तिके लिये जब सुषेणने सञ्जीवनी बूटी निश्चित की तो उसे लानेके लिये श्रीहनुमान् जी द्रोणाचल पर्वतपर गये। तब उसे पहचान न सकनेके कारण] उन्होंने उस विशाल पर्वतको उखाड़ लिया और तनिक भी विलम्ब न कर तत्काल चल दिये। उस समय मारुतनन्दन (हनुमान् जी) ने वायु, गरुड़ और मनकी गतिको भी लज्जित कर दिया। गोसाईंजी कहते हैं कि मैं उनके प्रचण्ड वेगका वर्णन करता, परंतु हृदयमें उसकी उपमाकी सामग्री कहीं नहीं मिली। हनुमान् जी झपटकर ऐसे दौड़े कि आकाशमें पर्वतकी प्रत्यक्ष लकीर-सी शोभित होने लगी [तात्पर्य यह कि ऐसी शीघ्रतासे हनुमान् जी पर्वत लेकर चले कि चलने और पहुँचनेके स्थानतक एक ही पर्वत मालूम होता था]॥ ५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चल्यो हनुमानु, सुनि जातुधानु कालनेमि
पठयो, सो मुनि भयो, पायो फलु छलि कै।
सहसा उखारो है पहारु बहु जोजनको,
रखवारे मारे भारे भूरि भट दलि कै॥
बेगु, बलु, साहसु, सराहत कृपाल रामु,
भरतकी कुसल, अचलु ल्यायो चलि कै।
हाथ हरिनाथके बिकाने रघुनाथ जनु,
सीलसिंधु तुलसीस भलो मान्यो भलि कै॥

मूल

चल्यो हनुमानु, सुनि जातुधानु कालनेमि
पठयो, सो मुनि भयो, पायो फलु छलि कै।
सहसा उखारो है पहारु बहु जोजनको,
रखवारे मारे भारे भूरि भट दलि कै॥
बेगु, बलु, साहसु, सराहत कृपाल रामु,
भरतकी कुसल, अचलु ल्यायो चलि कै।
हाथ हरिनाथके बिकाने रघुनाथ जनु,
सीलसिंधु तुलसीस भलो मान्यो भलि कै॥

अनुवाद (हिन्दी)

हनुमान् जी का जाना सुन रावणने राक्षस कालनेमिको भेजा। उसने मुनिका वेष बनाया और इस प्रकार छल करनेका फल पाया अर्थात् मारा गया। हनुमान् जी ने अनेकों योजनके पर्वतको सहसा उखाड़ लिया और रक्षकोंको मारकर बड़े-बड़े अनेक वीरोंका नाश कर दिया। ‘देखो, हनुमान् जी चलकर पर्वत और भरतजीका कुशल-समाचार लाये हैं’—ऐसा कहकर कृपालु रघुनाथजी उनके बल, साहस और वेगकी सराहना करने लगे, मानो श्रीरामचन्द्रजी कपिनाथ (हनुमान् जी) के हाथ बिक गये। तुलसीदासके स्वामी शीलसिन्धु श्रीरामचन्द्रजीने सम्यक् प्रकारसे उनका उपकार माना॥ ५५॥

युद्धका अन्त

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाप दियो काननु, भो आननु सुभाननु सो,
बैरी भो दसाननु सो, तीयको हरनु भो।
बालि बलसालि दलि, पालि कपिराजको,
बिभीषनु नेवाजि, सेत सागर-तरनु भो॥
घोर रारि हेरि त्रिपुरारि-बिधि हारे हिएँ,
घायल लखन बीर बानर बरनु भो।
ऐसे सोकमें तिलोकु कै बिसोक पलही में,
सबही को तुलसीको साहेबु सरनु भो॥

मूल

बाप दियो काननु, भो आननु सुभाननु सो,
बैरी भो दसाननु सो, तीयको हरनु भो।
बालि बलसालि दलि, पालि कपिराजको,
बिभीषनु नेवाजि, सेत सागर-तरनु भो॥
घोर रारि हेरि त्रिपुरारि-बिधि हारे हिएँ,
घायल लखन बीर बानर बरनु भो।
ऐसे सोकमें तिलोकु कै बिसोक पलही में,
सबही को तुलसीको साहेबु सरनु भो॥

अनुवाद (हिन्दी)

पिताने वनवास दिया, रावण-जैसा वीर शत्रु हो गया, जिसके द्वारा सीताजी हरी गयीं, तो भी जिनका मुख बड़ा प्रसन्न रहा—मलिन नहीं हुआ। बलशाली वालिको मारकर सुग्रीवकी रक्षा की, विभीषणपर कृपा की और पुल बाँधकर समुद्रको लाँघा; फिर जिनके घोर युद्धको देखकर शिव और ब्रह्मा भी हृदयमें हार गये और वीर लक्ष्मणजी घायल होकर (खून और मिट्टीसे ऐसे लथपथ हो गये कि) उनका रंग वानरोंका-सा (भूरा) हो गया। ऐसे शोकमें भी जिन्होंने तीनों लोकोंको पलमात्रमें विशोक कर दिया अर्थात् लक्ष्मणजीको सचेत और रावणको मारकर सबकी रक्षा की, वे तुलसीदासके प्रभु सभीको शरण देनेवाले हुए॥ ५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुंभकरन्नु हन्यो रन राम, दल्यो दसकंधरु कंधर तोरे।
पूषनबंस बिभूषन-पूषन-तेज-प्रताप गरे अरि-ओरे॥
देव निसान बजावत, गावत, सावँतु गो, मनभावत भो रे।
नाचत-बानर-भालु सबै ‘तुलसी’ कहि ‘हारे! हहा भै अहो रे’॥

मूल

कुंभकरन्नु हन्यो रन राम, दल्यो दसकंधरु कंधर तोरे।
पूषनबंस बिभूषन-पूषन-तेज-प्रताप गरे अरि-ओरे॥
देव निसान बजावत, गावत, सावँतु गो, मनभावत भो रे।
नाचत-बानर-भालु सबै ‘तुलसी’ कहि ‘हारे! हहा भै अहो रे’॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् रामने युद्धमें कुम्भकर्णको मारा और रावणकी गर्दनें तोड़कर उसका भी वध किया। इस प्रकार सूर्यवंशविभूषण श्रीरामरूप सूर्यके प्रतापरूप तेजसे शत्रुरूपी ओले गल गये। देवतालोग नगाड़े बजाकर गाते हैं; क्योंकि उनका सामन्तपन (अधीनता) चला गया और उनकी मनभायी बात हुई है तथा वानर-भालु भी सब-के-सब ‘ओहो रे! खूब हुई, ओहो रे! खूब हुई’ ऐसा कहकर नाचते हैं॥ ५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मारे रन रातिचर रावनु सकुल दलि,
अनुकूल देव-मुनि फूल बरषतु हैं।
नाग, नर, किंनर, बिरंचि, हरि, हरु हेरि
पुलक सरीर, हिएँ हेतु हरषतु हैं॥
बाम ओर जानकी कृपानिधानके बिराजैं,
देखत बिषादु मिटै, मोदु करषतु हैं।
आयसु भो, लोकनि सिधारे लोकपाल सबै,
‘तुलसी’ निहाल कै कै दिये सरखतु हैं॥

मूल

मारे रन रातिचर रावनु सकुल दलि,
अनुकूल देव-मुनि फूल बरषतु हैं।
नाग, नर, किंनर, बिरंचि, हरि, हरु हेरि
पुलक सरीर, हिएँ हेतु हरषतु हैं॥
बाम ओर जानकी कृपानिधानके बिराजैं,
देखत बिषादु मिटै, मोदु करषतु हैं।
आयसु भो, लोकनि सिधारे लोकपाल सबै,
‘तुलसी’ निहाल कै कै दिये सरखतु हैं॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीने रावणका उसके कुलसहित दलन कर युद्धमें राक्षसोंका संहार किया। इससे देवता और मुनिगण प्रसन्न होकर फूलोंकी वर्षा करने लगे। यह देखकर नाग, नर, किन्नर तथा ब्रह्मा, विष्णु और महादेवजीके शरीर पुलकित हो जाते हैं और हृदयमें प्रेम और आनन्द भर जाता है। कृपानिधान (श्रीरामचन्द्रजी) की बायीं ओर जानकीजी विराजमान हैं, जिनके दर्शनसे विषाद मिट जाता है और आनन्द वृद्धिको प्राप्त होता है। लोकपाल सब आज्ञा पाकर अपने-अपने लोकोंको चले गये। गोसाईंजी कहते हैं कि भगवान् ने सबको निहाल कर-करके मानो परवाना दे दिया (कि अब तुमलोग निर्भय रहो)॥ ५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(इति लंकाकाण्ड)

मूलम् (समाप्तिः)

(इति लंकाकाण्ड)